इतिहास - लेखन में इतिहासकार कुछ जोड़ते हैं, कुछ छोड़ते हैं और कुछ का चयन करते हैं। यह छोड़ना, जोड़ना और चयन ही इतिहास का स्वरूप तय करता है। फिर तो तय है कि ऐसा इतिहास - लेखन पूरी मानव - जाति का
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इतिहास नहीं हो सकता है।
वास्तविकता का इतिहास और इतिहासकारों के उपलब्ध इतिहास में फर्क होता है। जैसा कि कहा गया है कि इतिहास - लेखन में इतिहासकार कुछ छोड़ते हैं, कुछ जोड़ते हैं और कुछ का चयन करते हैं और फिर इसे ही किसी देश के इतिहास की संज्ञा प्रदान कर दिया करते हैं। ऐसा इतिहास वस्तुतः राजनीतिक शक्ति मात्र का इतिहास होता है जो भारी पैमाने पर हुई हत्याओं तथा अपराधों के इतिहास से भिन्न नहीं है।
चिनुआ अचैबी ने लिखा है कि जब तक हिरन अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, तब तक हिरनों के इतिहास में शिकारियों की शौर्य - गाथाएँ गाई जाती रहेंगी।
इसीलिए भारत के इतिहास में वैदिक संस्कृति उभरी हुई है, बौद्ध सभ्यता पिचकी हुई है और मूल निवासियों का इतिहास बीच - बीच में उखड़ा हुआ है।
इतिहास सिर्फ वो नहीं है, जिसे शासकों ने लिखवाया है और जो लिखा गया है बल्कि इतिहास वो भी है, जिसे हमारे पुरखों ने सहा है, लेकिन लिखा नहीं गया है।
छद्म इतिहास क्या है?
इतिहास - लेखन में वह दावा जो इतिहास की तरह प्रस्तुत किया जाता है, पर वह इतिहास नहीं होता है बल्कि इतिहास जैसा होता है, वह छद्म इतिहास है।
छद्म इतिहास और वास्तविक इतिहास की पहचान करना ही सही इतिहास - दृष्टि है।
2.
यह विचित्र इतिहास - बोध है कि सिंधु घाटी की सभ्यता के बाद वैदिक युग आया। सिंधु घाटी की सभ्यता नगरीय थी, जबकि वैदिक संस्कृति ग्रामीण थी। उल्टा है।
भला कोई सभ्यता नगरीय जीवन से ग्रामीण जीवन की ओर चलती है क्या?
सिंधु घाटी में बड़े - बड़े नगर थे, स्नागार थे, चौड़ी - चौड़ी सड़कें थीं। बेहद उम्दा किस्म की सभ्यता थी। वहीं वैदिक युग में पशुचारक थे, कच्ची मिट्टी के घर थे, नरकूलों की झोंपड़ियाँ थीं। तुर्रा यह कि ये नरकूलों की झोंपड़ियाँ उसी पश्चिमोत्तर भारत में उगीं, जहाँ बड़े -बड़े सिंधु साम्राज्य के भवन थे।
आपको ऐसा इतिहास - बोध उलटा नहीं लगता है?
आप पढ़ाते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता में लेखन - कला विकसित थी और फिर उसके बाद की वैदिक संस्कृति में पढ़ाने लगते हैं कि वैदिक युग में लेखन - कला का विकास नहीं हुआ था। वैदिक युग में लोग मौखिक याद करते थे और लिखते नहीं थे।
ऐसा भी होता है क्या? पढ़ी - लिखी सभ्यता अचानक अनपढ़ हो जाती है क्या?
आप यह भी पढ़ाते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता में मूर्ति - कला थी। फिर उसके बाद पढ़ाते हैं कि वैदिक युग में मूर्ति - कला नहीं थी।
क्या यह सब उलटा नहीं है?
भारत में स्तूप - स्थापत्य, लेखन - कला, मूर्ति - कला, बर्तन - कला आदि का विकास निरंतर हुआ है। कोई गैप नहीं है। यदि इतिहास में ऐसा गैप आपको दिखाई पड़ रहा है तो वह वैदिक संस्कृति को भारतीय इतिहास में ऐडजस्ट करने के कारण दिखाई पड़ रहा है।
यह कैसा इतिहास - लेखन है कि जिन वेदों के खुद का ही ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त नहीं हैं, उन्हें ही ऐतिहासिक साक्ष्य मान लिया गया है।
ऋग्वैदिक युग, फिर उत्तर वैदिक युग, फिर सूत्रों का युग, फिर महाकाव्यों का युग, फिर धर्मशास्त्रों का युग - ये भारत का भौतिक इतिहास नहीं है।
ये तो संस्कृत साहित्य का इतिहास है। किसी भी देश का भौतिक इतिहास ऐसे नहीं लिखा जाता है, लिखा भी नहीं गया है। साहित्य का इतिहास ऐसे लिखा जाता है।
वैदिक युग सही मायने में इतिहास का टर्मिनोलाॅजी है ही नहीं ! कहीं पढ़े हैं बाइबिल युग, कुरान युग?
वैदिक युग, महाकाव्य युग और सूत्र युग मूलतः इतिहास का नहीं बल्कि संस्कृत साहित्य के चैप्टर्स हैं वरना दुनिया के इतिहास में किसी देश का ऐतिहासिक चैप्टर्स के नाम बाइबिल युग, कुरान युग और हदीस युग नहीं हैं।
वैदिक भाषा पुरानी है और वैदिक संस्कृति भी पुरानी है, तब इस तथ्य की भी पड़ताल की जानी चाहिए कि वैदिक युग के तथाकथित सोने के सिक्के " निष्क " और चाँदी के सिक्के " रजत " कहाँ गए, जबकि धातु के सिक्के सबसे पहले गौतम बुद्ध के युग में मिलते हैं, जिसे " आहत मुद्रा " कहा जाता है।
3.
आज का अध्ययन जबकि पुरावशेषों में फ्लोरीन की मात्रा के मापन, काठ कोयले और हड्डी में रेडियोधर्मिता की मात्रा, भूचुंबकीय अवलोकन और वृक्ष - तैथिकी पर आधारित है, तब सत्ययुग या द्वापर जैसे भोथरे काल मापक से किसी नायक या वस्तु की उम्र तय करना निरर्थक है।
मिसाल के तौर पर, वेदों की रचना सृष्टि के आरंभ में हुई है। केतु वृक्ष 1100 योजन ऊँचे हैं। देवताओं का एक वर्ष मनुष्यों के 131521 दिनों का होता है।
ऐसे मामलों में भारत का भौतिक इतिहास ताम्र, कांस्य, लौह जैसी धातुओं और धूसर, काले, गेरुए जैसे मृद्भांडों की राह पकड़ेगा। मगर सावधानी की जरूरत यहाँ भी है।
आपने एक बार झूठ बोल दिया है कि हड़प्पा सभ्यता के बाद उत्तरी भारत में वैदिक युग आया है। अब इसे साबित करने के लिए आप दूसरा झूठ बोल रहे हैं कि उत्तरी भारत में ताम्र युग के बाद सीधे लौह युग आ गया।
आपने कांस्य युग की सभ्यता को वैदिक युग की झूठी तोप से उड़ा दिया।
पश्चिमोत्तर भारत में ताम्र युग के बाद कांस्य युग आया था। सिंधु घाटी की सभ्यता कांस्य युग का प्रतीक है। मगर पूर्वी भारत में इतिहासकारों ने ताम्र युग के बाद सीधे लौह युग ला दिया और वे कांस्य युग को खा गए।
जब लोहे की खोज नहीं हुई थी, तब लोग ताँबे को ही लोहा कहा करते थे।
ताँबे को लोहा इसलिए कहते थे कि ताँबे का रंग लोहित होता है।
लोहित का अर्थ है - लाल रंग का। लाल रंग का कौन होता है - ताँबा या लोहा ?
जाहिर है कि लाल रंग का ताँबा होता है। इसलिए लोग ताँबे को लोहा कहते थे।
लोहा से ही लहू शब्द बना है। लहू का अर्थ है - खून। खून के रंग का कौन होता है - ताँबा या लोहा?
पालि में ताँबे को लोह (लोहा ) भी कहा गया है। अर्थात पालि तब की है, जब लोहे की खोज नहीं हुई थी। तब सरसरी नजर से ही पालि का इतिहास उत्तरी भारत में ईसा से हजार साल पहले छलाँग मार देता है।
4.
स्तूपों का इतिहास, लेखन -कला का इतिहास, मूर्ति-कला का इतिहास सभी कुछ सिंधु घाटी सभ्यता से निरंतर मौर्य काल और आगे तक जाता है।
बशर्ते कि आप मान लीजिए कि सिंधु साम्राज्य से लेकर मौर्य साम्राज्य और आगे तक टूटती - जुड़ती बौद्ध सभ्यता की कड़ियाँ थीं।
भारत में मौजूद सभी स्तूपों को मौर्य काल के बाद का बताया जाना गलत है। अनेक स्तूप सिंधु घाटी सभ्यता के काल के हैं, कुछ सिंधु घाटी सभ्यता के बाद के हैं, कुछ मौर्य काल के हैं, कुछ मौर्य काल के बाद के भी हैं।
कहीं मिट्टी का स्तूप है, कहीं पत्थर का स्तूप है, कहीं ईंट का स्तूप है तो कहीं संगमरमर का स्तूप है। मनौती स्तूप ... छोटा स्तूप ... मझोला स्तूप ... बड़ा स्तूप ... गोल स्तूप ... चौकोर स्तूप ... अति प्राचीन स्तूप ... प्राचीन स्तूप ...वेदी का स्तूप ...बिना वेदी का स्तूप ... सीढ़ीदार स्तूप ... बिना सीढ़ी का स्तूप !
सभी अलग - अलग प्रकार के सैकड़ों स्तूपों को इतिहासकारों ने मौर्य काल से लेकर कुषाण काल के चंद पन्नों में समेट लिया है।
जबकि इतिहास गवाह है कि सिंधु घाटी सभ्यता में भी स्तूप था और पूर्व मौर्य काल में भी स्तूप था। पिपरहवा का स्तूप मौर्य काल से पहले का है। खुद मौर्य काल में नए स्तूप बने और कई पूर्व मौर्य काल के स्तूपों की मरम्मत हुई, जिसमें निग्लीवा सागर का स्तूप शामिल है।
अभिलेखीय साक्ष्य पुख्ता सबूत देता है कि सम्राट अशोक से पहले भी स्तूपों की परंपरा थी।
आप सम्राट अशोक के निग्लीवा अभिलेख को पढ़ लीजिए, जिसमें लिखा है कि अपने अभिषेक के 14 वें वर्ष में उन्होंने निगाली गाँव में जाकर कोनागमन (कनकमुनि ) बुद्ध के स्तूप के आकार को वर्धित करवाया था। ( चित्र - 1 )
कनकमुनि ( कोनागमन ) बुद्ध का स्तूप सम्राट अशोक के काल से पहले बना था, जिसका संवर्धन उन्होंने कराया था। गौतम बुद्ध से कनकमुनि बुद्ध अलग थे और पहले थे।
भारत और भारत के बाहर जो बड़े पैमाने पर स्तूप मिलते हैं, वे सभी मौर्य काल के बाद के नहीं हैं बल्कि अनेक सिंधु घाटी और मौर्य काल के बीच के भी हैं। मगर इतिहासकार गौतम बुद्ध से पहले स्तूप होने की बात सोचते ही नहीं हैं।
परिणामतः वे मौर्य काल से पहले के बने सभी स्तूपों को भी खींचकर मौर्य काल तथा उसके बाद लाते हैं। यदि वे ऐसा नहीं करते तो सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर मौर्य काल तक कहीं भी स्तूपों की श्रृंखला नहीं टूटेगी।
बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बाँटा गया तथा उन पर स्तूपों का निर्माण किया गया। जाहिर है कि स्तूपों की निर्माण - कला बुद्ध से पहले भी मौजूद थी।
बुद्ध ने खुद महापुरुषों की शरीर धातु पर स्तूप बनाने को कहा था। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य आनंद को चौराहे पर स्तूप निर्मित करने की बात कही थी।
कोई भी शिल्प - कला रातों -रात पैदा नहीं होती है। स्तूप - कला का भी बाकायदे विकास हुआ है। कई पीढ़ियों ने, कई गणों ने इसके विकास में अपना - अपना योगदान किया है।
5.
दुनिया की टाॅप अकादमिक पत्रिकाओं में " साइंस " शुमार है। इसे अमेरीकन एसोसिएशन फाॅर दि एडवांस आॅफ साइंस प्रकाशित करता है।
" साइंस " के अंक 320 में यूनिवर्सिटी ऑफ नेपल्स, इटली के भारत और सेंट्रल एशिया की सभ्यताओं के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर जिओवान्नि वेरार्डी का मुअनजोदड़ो के स्तूप पर एक लेख छपा है। ( चित्र - 2 )
पुरातत्ववेत्ता वेरार्डी ने गहन जाँच के बाद बताए हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता का स्तूप कोई 2100 ई. पू. का है। स्तूप के नाम को लेकर विवाद हो सकता है। मगर वह इमारत सिंधु घाटी सभ्यता के समकालीन है। यह स्तूप भिक्षुओं के आवास से घिरा है।
आर डब्ल्यू टी एच आकिन विश्वविद्यालय, जर्मनी के पुरातत्ववेत्ता माइकल जेंसन ने वेरार्डी की रिसर्च पर मुहर लगाते हुए लिखा है कि मुअनजोदड़ो का स्तूप सिंधु घाटी सभ्यता के काल का है।
पुरातत्ववेत्ता द्वय ने कहा है कि सिंधु घाटी सभ्यता पर पुनर्विचार करने की जरूरत है क्योंकि यह स्तूप कुषाण काल का नहीं है।
इसीलिए मैं भी कहता हूँ कि सिंधु घाटी की सभ्यता मूलतः बौद्ध सभ्यता है।
जैसा कि भारत और सेंट्रल एशिया की सभ्यताओं के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर जिओवान्नि वेरार्डी ने जाँचोपरांत बताया है कि मुअनजोदड़ो का स्तूप सिंधु घाटी की सभ्यता के समय का है। यह कुषाण कालीन नहीं है।
अब तक इतिहासकार इसे कुषाण कालीन मानते रहे हैं। कारण कि स्तूप के पूरबी बौद्ध मठ से कुषाण कालीन सिक्के मिले हैं।
प्रोफेसर जिओवान्नि वेरार्डी ने कहा है कि स्तूप के काल - निर्धारण में इन सिक्कों की कोई खास भूमिका नहीं है। स्तूप का अस्तित्व सिक्कों से अलग है।
स्तूप की निर्माण-सामग्री, अभिकल्पन, ईंटें, प्लेटफार्म - सब कुछ सिंधु घाटी सभ्यता के समकालीन हैं। ( चित्र - 3 )
चूँकि कुषाण काल बौद्धों के लिए सुनहरा काल था। बौद्धों को पता रहा होगा कि मुअनजोदड़ो का स्तूप किसी पूर्व बुद्ध का है।
शायद यहीं कारण था कि उनकी आवाजाही उस स्तूप तक थी और ऐसे में वहाँ कुषाण कालीन सिक्कों का मिलना असंभव नहीं है।
मोहनजोदड़ो की खुदाई में विशाल स्नानागार मिला है। स्नानागार के आँगन में जलाशय है। जलाशय के तीन ओर बरामदे और उनके पीछे कई कमरे थे।
इतिहासकार मैके ने बताया है कि कमरे वाला स्नानागार पुरोहितों के लिए था, जबकि विशाल स्नानागार सामान्य जनता के लिए था तथा इसका उपयोग धार्मिक समारोहों के अवसर पर किया जाता था।
डी. डी. कोसंबी ने लिखा है कि पूरे ऐतिहासिक युग में ऐसे कृत्रिम ताल बनाए गए हैं : पहले स्वतंत्र रूप में, बाद में मंदिरों के समीप।
सवाल उठता है कि सिंधु घाटी के लोग विशेष धार्मिक अवसरों पर विशाल स्नानागार में पुरोहितों के संग स्नान तथा शुद्धिकरण करके कहाँ जाते थे? मंदिर तो था नहीं। वहीं स्तूप में! स्नानागार के बगल के स्तूप में !!
उत्तरी बिहार के वैशाली में पुरातत्वविदों ने आनंद स्तूप के बगल में ठीक ऐसा ही विशाल स्नानागार खोज निकाला है, जैसा कि मोहनजोदड़ो में है।
1826 में मैसन ने पहली बार हड़प्पा में स्तूप ही देखा था, बर्नेस ( 1831 ) और कनिंघम ( 1853 ) ने भी स्तूप ही देखा था। सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई बाद में हुई।
राखालदास बंदोपाध्याय ने भी 1922 में मोहनजोदड़ो के बौद्ध स्तूप की खुदाई में ही सिंधु घाटी की सभ्यता की खोज की थी।
इसलिए; सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई में स्तूप नहीं मिला है बल्कि स्तूप की खुदाई में सिंधु घाटी की सभ्यता मिली है।
मगर इतिहासकारों को सिंधु घाटी की सभ्यता के इतिहास को ऐसे लिखने में जाने क्या परेशानी है, जबकि सच यही है।
मोहनजोदड़ो की खुदाई में सिर्फ स्तूप ही नहीं, बौद्ध विहार भी मिला था, जिसका विवरण स्वामी शंकरानंद ने " हिस्ट्री आफ मोहनजोदड़ो एण्ड हड़प्पा " में प्रस्तुत किया है। लिखा है कि राखालदास बंदोपाध्याय को 1922 - 23 के शरद मौसम में खुदाई करते एक बौद्ध विहार मिला। विहार का मुख पूरब की तरफ था। पूरबी भाग में दो बड़े सामान्य कक्ष, एक प्रवेश द्वार, गुफानुमा सुरंग, मूर्ति कक्ष एवं सीढ़ियाँ हैं। कुछ छोटे कक्षों का उपयोग भिक्खुओं के अवशेष रखने के लिए किया जाता है। कमरा सं. 22, 27 एवं 29 ऐसे ही कमरे हैं। ( संदर्भ: बौद्ध धर्म: हड़प्पा मोहनजोदड़ो नगरों का धर्म, पृ. 144 )
गुजरात स्थित धोलावीरा सिंधु घाटी सभ्यता का एक महत्वपूर्ण नगर है। यहाँ स्तूप मिले हैं। उनमें से एक पंजाब स्थित संघोल के धम्म चक्र स्तूप से मेल खाता है। ऐसे स्तूपों में आरे ( वृत में तिल्ली ) बने होते हैं। ( चित्र- 4 )
स्तूप का नाम सुनते ही दिमाग में एक अर्द्ध गोलाकार संरचना की तस्वीर उभरती है।
मगर हर जगह का स्तूप अर्द्ध गोलाकार नहीं है।स्तूप धम्म चक्क के आकार के भी हैं, जिनमें आठ आरे बने हुए हैं। धम्म चक्क में भी 8 आरे हैं।
एक दूसरे स्तूप में आरों की संख्या क्रमशः 12, 24 और 32 है। 24 और 32 की संख्या अशोक - चक्र की याद दिलाती है। अशोक - चक्र में भी 32 और 24 आरे हैं।
ऐसे स्तूप पंजाब के जिला फतेहगढ़ साहिब के गाँव संघोल में मिले हैं। कभी संघोल में भिक्षु संघ था। इसीलिए इसका नाम संघोल है। ( चित्र - 5 )
स्तूप की खुदाई 1968 में हुई थी। स्तूप से एक सोप पत्थर की मंजूषा मिली है।
मंजूषा के ढक्कन पर खरोष्ठी लिपि में एक बौद्ध स्काॅलर का नाम लिखा है। वह स्काॅलर भद्रक थे। उन्हीं का अस्थि - भस्म उस मंजूषा में है।
धोलावीरा का स्तूप संघोल के स्तूप से मेल खाता है।
सिंध साम्राज्य के अनेक नगरों में स्तूप मिले हैं। हड़प्पा में स्तूप मिला है, मोहनजोदड़ो में स्तूप मिला है और फिर धोलावीरा में भी स्तूप मिला है।
जाने क्यों, इतिहासकार बताते हैं कि ये स्तूप कुषाण काल के हैं। भाई, कुषाण काल तो बुद्ध की मूर्तियों के लिए जाना जाता है। यदि सिंधु घाटी सभ्यता के ये स्तूप कुषाणों ने बनवाए तो वे सिर्फ स्तूप ही क्यों बनवाते?
वे तो सिंधु घाटी की गली - गली में ... हर चौक - चौराहे पर बुद्ध की मूर्तियाँ बनवाते। वे तो गांधार कला के आविष्कारक थे और बुद्ध की मूर्तियों के लिए तो कुषाण राजे इतिहास में जाने जाते हैं।
यदि सिंध साम्राज्य के ये स्तूप कुषाण काल के हैं तो कुषाणों से करीब डेढ हजार साल पहले तो आपके अनुसार आर्य आए थे, जो सिंध साम्राज्य पर कब्जा किए। फिर वे सिंधु घाटी के डगर - डगर में मंदिर, अवतारों की मूर्तियाँ क्यों नहीं बनवाए?
मान लीजिए कि 1500 ई. पू. में आर्यों का आक्रमण हुआ और हड़प्पा - मुअनजोदड़ो नेस्तनाबूद हो गए। सिंध साम्राज्य जीत लिया गया और आर्य साम्राज्य स्थापित हो गया तो क्या सिंध साम्राज्य के ऊपरी लेयर पर आर्य साम्राज्य के निशान मिलते हैं?
क्या मंदिर मिलते हैं ? ... क्या संस्कृत मिलती है ? ... कोई वैदिक देवी - देवता मिलते हैं? ...क्या इंद्र वंश का शासन आया?... क्या वरूण वंश का राज आया?... नहीं।
6.
इतिहासकार मौर्य साम्राज्य पर शुंगों के कब्जे को ही आर्य आक्रमण बताते हैं और उसे पीछे खींचकर 1500 ई. पू. में ले जाते हैं क्योंकि इसके बाद धीरे- धीरे आर्य- सभ्यता के तमाम निशान मिलने लगते हैं ... संस्कृत ... यज्ञ ... मंदिर आदि- आदि।
वैदिक साहित्य में लिखित " दास " कौन है?
भारत और पश्चिम के अनेक इतिहासकारों ने " दास " की अनेक व्याख्याएँ की हैं। उस भूल - भुलैया में हमें नहीं पड़ना है।
दास मूल रूप से " बौद्ध " थे। साँची और भरहुत के स्तूपों पर अनेक दास तथा दासी उपाधिधारक बौद्धों के शिलालेख हैं, जिन्होंने स्तूप - निर्माण में मदद की थी।
अरहत दास थे ....अरहत दासी थीं ....यमी दास थे.... जख दासी थीं .....अनेक ...सभी के नाम लिखे हुए हैं।
साँची स्तूप पर थूप दास का वर्णन है। लिखा है - मोरगिरिह्मा थूपदासस दान थंभे। ( चित्र - 6 )
थूप दास मोरगिरि ( महाराष्ट्र ) के निवासी थे और भरहुत के एक स्तंभ - निर्माण में मदद की थी।
वैदिक साहित्य में वर्णित आर्यों का सांस्कृतिक संघर्ष इन्हीं बौद्ध दास - दासियों से हुआ था।
वैदिक साहित्य इन दास - दासियों के बारे में बताता है कि ये लोग यज्ञ नहीं करते और न ये इंद्र - वरुण की पूजा करते हैं...स्पष्ट है कि ये बौद्ध हैं।
प्राकृत भाषा में " दास " ( दसन ) का अर्थ द्रष्टा है। मगर आर्यों ने सांस्कृतिक दुश्मनी के कारण अपनी पुस्तकों में " दास " का अर्थ " गुलाम/ नौकर " कर लिए हैं।
दास और आर्यों का यह सांस्कृतिक संघर्ष 1500 ई.पू. में नहीं बल्कि मौर्य काल के बाद हुआ था।
सभी शिलालेख पढ़ जाइए। मौर्य काल तक किसी भी पुरुष और महिला के नाम में " दास / दासी " नहीं जुड़ा है।
दास/ दासी जुड़े नाम शिलालेखों में मौर्य काल के बाद दिखाई पड़ते हैं। साँची - भरहुत के स्तूपों पर पहली बार अनेक नाम दास / दासी से जुड़े दिखाई पड़ते हैं।
दास / दासी से जुड़े ये सभी नाम बौद्धों के हैं।
इन्हीं दास / दासियों से आर्यों का वैचारिक संघर्ष हुआ था, जो वेदों में लिखा हुआ है।
वेदों में लिखे आर्य - दास संघर्ष को हम कतई मौर्य काल से पहले नहीं ले जा सकते हैं। कारण कि मौर्य काल तक हमें दास/ दासी उपाधि धारक कोई नाम मिलता ही नहीं है।
वेद और वेदों में वर्णित यह सांस्कृतिक संघर्ष की गाथा मौर्य काल के बाद की है।
यहीं कारण है कि ऋग्वेद में भी स्तूपों के संदर्भ मिलते हैं और रामायण में चैत्यों के मिलते हैं।
यह तो बहुत बताया जाता है कि ऋग्वेद में गंगा का एक बार और यमुना का तीन बार वर्णन है, मगर यह बहुत कम बताया जाता है कि ऋग्वेद में स्तूप का वर्णन दो बार है।
संस्कृत का स्तूप मूल रूप से पालि थूप का बिगड़ा हुआ रूप है। पालि में थूप से अनेक शब्द बनते हैं जैसे थूप, थूपिका, थूपीकत, थूपारह आदि।
मगर संस्कृत में स्तूप से अनेक शब्द नहीं बनेंगे। कारण कि स्तूप संस्कृत के लिए बाहरी शब्द है। किसी भी भाषा में अमूमन बाहरी शब्द बाँझ होते हैं। उनमें शब्दों को जनने की क्षमता नहीं होती है।
संस्कृत के लिए स्तूप बाँझ शब्द है। इसीलिए संस्कृत का स्तूप पालि थूप का रूपांतरण है और वे भाष्यकार जो ऋग्वेद में प्राप्त स्तूप की व्याख्या किसी अन्य अर्थ में करते हैं, वे गलत हैं।
"स्तूप ....बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः" अर्थात इसमें बुद्ध अन्तर्निहित हैं।
यह ऋग्वेद के प्रथम मंडल, सूक्त 24, छठवाँ अनुवाक का श्लोक संख्या 7 है। इसमें राजा वरुण को अबौद्ध (अबुध्ने) राजा भी कहा गया है। पूरा का पूरा अर्थ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है।
सायण भाष्य में अर्थ कुछ भिन्न है।
"अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः नीचीना स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः॥७॥" ( चित्र - 7)
अर्थात पवित्र पराक्रम युक्त राजा वरुण (सबको आच्छादित करने वाले) दिव्य तेज पुञ्ज सूर्यदेव को आधाररहित आकाश में धारण करते हैं। इस तेज पुञ्ज सूर्यदेव का मुख नीचे की ओर और मूल ऊपर की ओर है। इससे मध्य में दिव्य किरणें विस्तीर्ण होती चलती हैं।
परन्तु यह अर्थ जो सायण भाष्य पर आधारित है, गलत है। लगभग सभी अनुवादकों ने ऐसा ही अर्थ किया है। अर्थ करते वक्त संदर्भ को देखना जरूरी होता है। जैसा कि उपरोक्त से स्वतः स्पष्ट है कि वरुण राजा की उपाधि अबुध्ने है। मतलब कि वरुण बौद्ध विरोधी राजा थे। आगे स्तूप को उलटने की बात है।
अशोक द्वारा 84000 स्तूप बनाए जाने का जिक्र फाहियान ने अपने यात्रा - विवरण के 27 वें खंड में किए हैं।
साँची एवं भरहुत स्तूपों का निर्माण मूल रूप से अशोक ने ही कराया था। ह्वेनसांग ने अशोक द्वारा निर्मित अनेक स्तूपों का उल्लेख किया है, जिन्हें उसने खुद देखा था।
सारनाथ तथा तक्षशिला स्थित धर्मराजिका स्तूप का निर्माण भी मूलतः अशोक के समय में ही कराया गया था। बाद के शासकों ने उन्हें परिवर्धित करवाए।
मीनाण्डर यवन थे। विदेशी थे। लेकिन धम्म की राह चुनी थी। बुतकारा स्तूप के पहले लेयर को अशोक ने बनवाए थे तो दूसरे को मीनाण्डर ने बनवाए थे। दूसरे लेयर से मीनाण्डर का सिक्का मिला है।
मीनाण्डर बड़े दार्शनिक थे...इंडो -यूनानी इतिहास में दूजा नहीं हुआ।
सो वे बड़े न्यायप्रिय थे। न्यायप्रियता ने इन्हें जनता में बड़ी शोहरत दिलाई थी।
एक दिन एक शिविर में अचानक इनकी मृत्यु हुई।
प्लूटार्क ने लिखा है कि मीनाण्डर के भस्म को लेकर जनता में झगड़े उठ खड़े हुए ....क्योंकि वे इतना जनप्रिय थे कि लोग उनके भस्म पर अलग - अलग स्तूप बनाना चाहते थे।
भारत के इतिहास में बुद्ध के बाद मीनाण्डर, मीनाण्डर के बाद कबीर और कबीर के बाद नानक का नाम आता है, जिनके मृत शरीर को भी अपनाने के लिए जनता व्याकुल थी।
क्षेमेन्द्र रचित अवदानकल्पलता से पता चलता है कि मीनाण्डर ने अनेक स्तूपों का निर्माण कराया था।
सम्राट अशोक के बाद पश्चिमोत्तर तथा उत्तरी भारत में सर्वाधिक स्तूप बनवाने का श्रेय कनिष्क को है।
उन्होंने विभिन्न स्थानों पर अनेक स्तूप बनवाए। पेशावर के निकट कनिष्क ने एक बड़ा स्तूप बनवाए थे, जिसमें बुद्ध के अवशेष रखे गए थे। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसे एक यूनानी इंजीनियर अगिलस ने बनाया था।
जाहिर है कि यूनानी अभियंताओं ने यूनानी तकनीक का प्रयोग किया। यहीं ग्रीको - बुद्धिस्ट कला है, जिससे स्तूप - निर्माण भी अछूता नहीं रहा।
गंधार क्षेत्र के स्तूपों का वास्तु - विन्यास मध्य भारतीय स्तूपों जैसा नहीं है। गंधार स्तूप काफी ऊँचे हैं, चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ हैं और संपूर्ण स्तूप एक बुर्ज जैसा दिखाई देता है।
कनिष्क के पुरुषपुर स्थित 400 फीट ऊँचा स्तूप का विवरण फाहियान तथा ह्वेनसांग दोनों ने दिए हैं। फाहियान ने लिखा है कि उसने जितने भी स्तूप देखे थे, उनमें यह सर्वाधिक प्रभावशाली है।
तक्षशिला स्थित धर्मराजिका स्तूप का निर्माण अशोक के समय में हुआ, किंतु कनिष्क के समय में आकारवर्धन हुआ। ऊँचे चबूतरे पर निर्मित यह स्तूप गोलाकार है। चारों दिशाओं में चार सीढ़ियाँ हैं। ( चित्र - 8 )
कनिष्क के काल में बल्ख तथा खोतान तक अनेक स्तूप निर्मित करवाए गए थे। मनिक्याल क्षेत्र में कई स्तूप बने थे। मनिक्याल, रावलपिंडी से 20 मील की दूरी पर है। यहाँ से प्राप्त एक अभिलेख से पता चलता है कि कनिष्क के 18 वें वर्ष में इन स्तूपों को बनवाया गया था।
सिर्फ बुद्ध के अवशेषों पर ही नहीं बल्कि कनिष्क ने बौद्ध साहित्य की टीकाओं को भी ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण करा कर विशेष रूप से निर्मित एक स्तूप में सुरक्षित रखवाया था। ह्वेनसांग ने इस पर विस्तार से लिखा है।
स्तूप- निर्माण की परंपरा अशोक और कनिष्क के बाद हर्षवर्धन के शासन-काल में सर्वाधिक समृद्ध हुई।
सम्राट हर्षवर्धन ने विक्रमादित्य की नहीं बल्कि शीलादित्य की उपाधि धारण की थी। शीलादित्य वह है, जिसे विक्रम ( बल ) से अधिक शील पसंद हो।
वहीं शील जिसे बुद्ध ने अपनी देशना में प्रमुख स्थान दिया था।
वो शिलादित्य ऐसे शीलवान निकले कि हर 5 वें वर्ष अपना संपूर्ण खजाना गरीबों- असहायों को दान कर देते थे।
ह्वेनसांग ने लिखा है कि उन्होंने गंगा के किनारों पर कई हजार स्तूप सौ - सौ फीट ऊँचे बनवाए।
सब स्थानों पर जहाँ - जहाँ गौतम बुद्ध के कुछ भी चिह्न थे, संघाराम स्थापित किए।
इतिहास से सवाल है कि आखिर शीलादित्य के बनवाए हजारों स्तूप और संघाराम कहाँ गए?
ह्वेनसांग ने पूर्वी भारत में अशोक द्वारा निर्मित ताम्रलिप्ति, कर्णसुवर्ण, समतट और पुण्ड्रवर्धन में स्तूपों का उल्लेख किया है। महास्थानगढ़ अभिलेख से भी यह पुष्ट होता है। बाद के पाल शासकों ने पूर्वी भारत में बौद्ध धर्म का संरक्षण प्रदान किए।
पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार में पाल कालीन अनेक स्तूपों के अवशेष मिलते हैं।
पाल वंश के बड़े राजाओं में देवपाल ( 810 - 850 ) शुमार हैं। उत्साही बौद्ध थे। 40 बरसों का शासन था। सुजाता स्तूप का आखिरी पुनर्निर्माण इन्होंने ने ही कराए थे। वहाँ के उत्खनन से प्राप्त एक अभिलेख से इसकी पुष्टि होती है। ( चित्र - 9 )
पश्चिमोत्तर और उत्तरी भारत में स्तूप - निर्माण की जो परंपरा सिंधु घाटी सभ्यता से चली थी, वह पाल कालीन पूर्वी भारत में 12 वीं सदी तक अनवरत चलती रही।
7.
बौद्ध सभ्यता के प्रचार - प्रसार का जो काम उत्तर के मौर्यों ने किया, वही काम दक्षिण में सातवाहनों ने किया।
अशोक के सभी अभिलेख प्राकृत में हैं तो सातवाहनों के भी सभी अभिलेख प्राकृत में हैं।
उत्तर में मौर्य काल तक संस्कृत के अभिलेख नहीं मिलते हैं तो दक्षिण में भी सातवाहन काल तक संस्कृत के अभिलेख नहीं मिलते हैं।
मौर्यों ने अनेक स्तूप, चैत्य और विहार बनवाए तो सातवाहनों ने भी अनेक स्तूप, चैत्य और विहार बनवाए।
अमरावती, गोली, जगय्यपेटा, घंटसाल, भट्टीप्रोलु, नागार्जुन कोंडा जैसे स्थानों के स्तूप इन्हीं सातवाहनों के हैं। ( चित्र- 10 )
बौद्ध स्थलों में से पूर्वोत्तर भारत स्थित बौद्ध स्मारकों का जिक्र कम होता है। हिंदी इतिहासों में इसका उल्लेख नगण्य है।
त्रिपुरा के सेपहीजाला जिले में बोक्सानगर है। बोक्सानगर का प्राचीन नाम अभिलेखों के आधार पर बिराक बताया जाता है। यह एक विराट बौद्ध स्थल है।
इस विराट बौद्ध स्थल को खुदाई से पहले मानसा का स्मारक कहा जाता था। मानसा सर्पों की देवी हैं। साल 1997 के जुलाई महीने में पुरातत्वविद डाॅ. जीतेन्द्र दास यहाँ आए। उन्हें यहाँ गौतम बुद्ध की मूर्ति मिली। वे अनुमान कर लिए कि बोक्सानगर बौद्ध स्थल है और इसकी सूचना उन्होंने पुरातत्व विभाग को दे दी।
पुरातत्व विभाग ने 2001 से 2004 तक बोक्सानगर की खुदाई की। खुदाई में विशाल बौद्ध स्तूप, चैत्यगृह, बौद्ध विहार, बुद्ध की कांस्य मूर्तियाँ, ब्राह्मी अभिलेखित सील तथा अन्य बौद्ध अवशेष मिले। ( चित्र - 11)
स्तूप विशाल और शानदार है। चैत्यगृह आयताकार और स्तूप के पूरब दिशा में है। चैत्यगृह से पूरब बौद्ध विहार है। बौद्ध विहार का गलियारा काफी लंबा है। गलियारा के दोनों ओर भिक्षुओं के लिए कमरे बने हैं।
दक्षिण त्रिपुरा में पिलक है। पिलक का प्राचीन नाम पिरोक बताया जाता है। पिलक की पहचान भी बौद्ध स्थल के रूप में हुई है। पिलक के उत्खनन से भी बौद्ध स्तूप और बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
पूर्वोत्तर भारत कभी बौद्ध सभ्यता के प्रभाव में था।
न केवल संपूर्ण भारत में बल्कि भारत के बाहर भी स्तूप बनाए जाने की समृद्ध परंपरा रही है।स्तूपों की परंपरा
इतिहास - लेखन में इतिहासकार कुछ जोड़ते हैं, कुछ छोड़ते हैं और कुछ का चयन करते हैं। यह छोड़ना, जोड़ना और चयन ही इतिहास का स्वरूप तय करता है। फिर तो तय है कि ऐसा इतिहास - लेखन पूरी मानव - जाति का इतिहास नहीं हो सकता है।
वास्तविकता का इतिहास और इतिहासकारों के उपलब्ध इतिहास में फर्क होता है। जैसा कि कहा गया है कि इतिहास - लेखन में इतिहासकार कुछ छोड़ते हैं, कुछ जोड़ते हैं और कुछ का चयन करते हैं और फिर इसे ही किसी देश के इतिहास की संज्ञा प्रदान कर दिया करते हैं। ऐसा इतिहास वस्तुतः राजनीतिक शक्ति मात्र का इतिहास होता है जो भारी पैमाने पर हुई हत्याओं तथा अपराधों के इतिहास से भिन्न नहीं है।
चिनुआ अचैबी ने लिखा है कि जब तक हिरन अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, तब तक हिरनों के इतिहास में शिकारियों की शौर्य - गाथाएँ गाई जाती रहेंगी।
इसीलिए भारत के इतिहास में वैदिक संस्कृति उभरी हुई है, बौद्ध सभ्यता पिचकी हुई है और मूल निवासियों का इतिहास बीच - बीच में उखड़ा हुआ है।
इतिहास सिर्फ वो नहीं है, जिसे शासकों ने लिखवाया है और जो लिखा गया है बल्कि इतिहास वो भी है, जिसे हमारे पुरखों ने सहा है, लेकिन लिखा नहीं गया है।
छद्म इतिहास क्या है?
इतिहास - लेखन में वह दावा जो इतिहास की तरह प्रस्तुत किया जाता है, पर वह इतिहास नहीं होता है बल्कि इतिहास जैसा होता है, वह छद्म इतिहास है।
छद्म इतिहास और वास्तविक इतिहास की पहचान करना ही सही इतिहास - दृष्टि है।
2.
यह विचित्र इतिहास - बोध है कि सिंधु घाटी की सभ्यता के बाद वैदिक युग आया। सिंधु घाटी की सभ्यता नगरीय थी, जबकि वैदिक संस्कृति ग्रामीण थी। उल्टा है।
भला कोई सभ्यता नगरीय जीवन से ग्रामीण जीवन की ओर चलती है क्या?
सिंधु घाटी में बड़े - बड़े नगर थे, स्नागार थे, चौड़ी - चौड़ी सड़कें थीं। बेहद उम्दा किस्म की सभ्यता थी। वहीं वैदिक युग में पशुचारक थे, कच्ची मिट्टी के घर थे, नरकूलों की झोंपड़ियाँ थीं। तुर्रा यह कि ये नरकूलों की झोंपड़ियाँ उसी पश्चिमोत्तर भारत में उगीं, जहाँ बड़े -बड़े सिंधु साम्राज्य के भवन थे।
आपको ऐसा इतिहास - बोध उलटा नहीं लगता है?
आप पढ़ाते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता में लेखन - कला विकसित थी और फिर उसके बाद की वैदिक संस्कृति में पढ़ाने लगते हैं कि वैदिक युग में लेखन - कला का विकास नहीं हुआ था। वैदिक युग में लोग मौखिक याद करते थे और लिखते नहीं थे।
ऐसा भी होता है क्या? पढ़ी - लिखी सभ्यता अचानक अनपढ़ हो जाती है क्या?
आप यह भी पढ़ाते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता में मूर्ति - कला थी। फिर उसके बाद पढ़ाते हैं कि वैदिक युग में मूर्ति - कला नहीं थी।
क्या यह सब उलटा नहीं है?
भारत में स्तूप - स्थापत्य, लेखन - कला, मूर्ति - कला, बर्तन - कला आदि का विकास निरंतर हुआ है। कोई गैप नहीं है। यदि इतिहास में ऐसा गैप आपको दिखाई पड़ रहा है तो वह वैदिक संस्कृति को भारतीय इतिहास में ऐडजस्ट करने के कारण दिखाई पड़ रहा है।
यह कैसा इतिहास - लेखन है कि जिन वेदों के खुद का ही ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त नहीं हैं, उन्हें ही ऐतिहासिक साक्ष्य मान लिया गया है।
ऋग्वैदिक युग, फिर उत्तर वैदिक युग, फिर सूत्रों का युग, फिर महाकाव्यों का युग, फिर धर्मशास्त्रों का युग - ये भारत का भौतिक इतिहास नहीं है।
ये तो संस्कृत साहित्य का इतिहास है। किसी भी देश का भौतिक इतिहास ऐसे नहीं लिखा जाता है, लिखा भी नहीं गया है। साहित्य का इतिहास ऐसे लिखा जाता है।
वैदिक युग सही मायने में इतिहास का टर्मिनोलाॅजी है ही नहीं ! कहीं पढ़े हैं बाइबिल युग, कुरान युग?
वैदिक युग, महाकाव्य युग और सूत्र युग मूलतः इतिहास का नहीं बल्कि संस्कृत साहित्य के चैप्टर्स हैं वरना दुनिया के इतिहास में किसी देश का ऐतिहासिक चैप्टर्स के नाम बाइबिल युग, कुरान युग और हदीस युग नहीं हैं।
वैदिक भाषा पुरानी है और वैदिक संस्कृति भी पुरानी है, तब इस तथ्य की भी पड़ताल की जानी चाहिए कि वैदिक युग के तथाकथित सोने के सिक्के " निष्क " और चाँदी के सिक्के " रजत " कहाँ गए, जबकि धातु के सिक्के सबसे पहले गौतम बुद्ध के युग में मिलते हैं, जिसे " आहत मुद्रा " कहा जाता है।
3.
आज का अध्ययन जबकि पुरावशेषों में फ्लोरीन की मात्रा के मापन, काठ कोयले और हड्डी में रेडियोधर्मिता की मात्रा, भूचुंबकीय अवलोकन और वृक्ष - तैथिकी पर आधारित है, तब सत्ययुग या द्वापर जैसे भोथरे काल मापक से किसी नायक या वस्तु की उम्र तय करना निरर्थक है।
मिसाल के तौर पर, वेदों की रचना सृष्टि के आरंभ में हुई है। केतु वृक्ष 1100 योजन ऊँचे हैं। देवताओं का एक वर्ष मनुष्यों के 131521 दिनों का होता है।
ऐसे मामलों में भारत का भौतिक इतिहास ताम्र, कांस्य, लौह जैसी धातुओं और धूसर, काले, गेरुए जैसे मृद्भांडों की राह पकड़ेगा। मगर सावधानी की जरूरत यहाँ भी है।
आपने एक बार झूठ बोल दिया है कि हड़प्पा सभ्यता के बाद उत्तरी भारत में वैदिक युग आया है। अब इसे साबित करने के लिए आप दूसरा झूठ बोल रहे हैं कि उत्तरी भारत में ताम्र युग के बाद सीधे लौह युग आ गया।
आपने कांस्य युग की सभ्यता को वैदिक युग की झूठी तोप से उड़ा दिया।
पश्चिमोत्तर भारत में ताम्र युग के बाद कांस्य युग आया था। सिंधु घाटी की सभ्यता कांस्य युग का प्रतीक है। मगर पूर्वी भारत में इतिहासकारों ने ताम्र युग के बाद सीधे लौह युग ला दिया और वे कांस्य युग को खा गए।
जब लोहे की खोज नहीं हुई थी, तब लोग ताँबे को ही लोहा कहा करते थे।
ताँबे को लोहा इसलिए कहते थे कि ताँबे का रंग लोहित होता है।
लोहित का अर्थ है - लाल रंग का। लाल रंग का कौन होता है - ताँबा या लोहा ?
जाहिर है कि लाल रंग का ताँबा होता है। इसलिए लोग ताँबे को लोहा कहते थे।
लोहा से ही लहू शब्द बना है। लहू का अर्थ है - खून। खून के रंग का कौन होता है - ताँबा या लोहा?
पालि में ताँबे को लोह (लोहा ) भी कहा गया है। अर्थात पालि तब की है, जब लोहे की खोज नहीं हुई थी। तब सरसरी नजर से ही पालि का इतिहास उत्तरी भारत में ईसा से हजार साल पहले छलाँग मार देता है।
4.
स्तूपों का इतिहास, लेखन -कला का इतिहास, मूर्ति-कला का इतिहास सभी कुछ सिंधु घाटी सभ्यता से निरंतर मौर्य काल और आगे तक जाता है।
बशर्ते कि आप मान लीजिए कि सिंधु साम्राज्य से लेकर मौर्य साम्राज्य और आगे तक टूटती - जुड़ती बौद्ध सभ्यता की कड़ियाँ थीं।
भारत में मौजूद सभी स्तूपों को मौर्य काल के बाद का बताया जाना गलत है। अनेक स्तूप सिंधु घाटी सभ्यता के काल के हैं, कुछ सिंधु घाटी सभ्यता के बाद के हैं, कुछ मौर्य काल के हैं, कुछ मौर्य काल के बाद के भी हैं।
कहीं मिट्टी का स्तूप है, कहीं पत्थर का स्तूप है, कहीं ईंट का स्तूप है तो कहीं संगमरमर का स्तूप है। मनौती स्तूप ... छोटा स्तूप ... मझोला स्तूप ... बड़ा स्तूप ... गोल स्तूप ... चौकोर स्तूप ... अति प्राचीन स्तूप ... प्राचीन स्तूप ...वेदी का स्तूप ...बिना वेदी का स्तूप ... सीढ़ीदार स्तूप ... बिना सीढ़ी का स्तूप !
सभी अलग - अलग प्रकार के सैकड़ों स्तूपों को इतिहासकारों ने मौर्य काल से लेकर कुषाण काल के चंद पन्नों में समेट लिया है।
जबकि इतिहास गवाह है कि सिंधु घाटी सभ्यता में भी स्तूप था और पूर्व मौर्य काल में भी स्तूप था। पिपरहवा का स्तूप मौर्य काल से पहले का है। खुद मौर्य काल में नए स्तूप बने और कई पूर्व मौर्य काल के स्तूपों की मरम्मत हुई, जिसमें निग्लीवा सागर का स्तूप शामिल है।
अभिलेखीय साक्ष्य पुख्ता सबूत देता है कि सम्राट अशोक से पहले भी स्तूपों की परंपरा थी।
आप सम्राट अशोक के निग्लीवा अभिलेख को पढ़ लीजिए, जिसमें लिखा है कि अपने अभिषेक के 14 वें वर्ष में उन्होंने निगाली गाँव में जाकर कोनागमन (कनकमुनि ) बुद्ध के स्तूप के आकार को वर्धित करवाया था। ( चित्र - 1 )
कनकमुनि ( कोनागमन ) बुद्ध का स्तूप सम्राट अशोक के काल से पहले बना था, जिसका संवर्धन उन्होंने कराया था। गौतम बुद्ध से कनकमुनि बुद्ध अलग थे और पहले थे।
भारत और भारत के बाहर जो बड़े पैमाने पर स्तूप मिलते हैं, वे सभी मौर्य काल के बाद के नहीं हैं बल्कि अनेक सिंधु घाटी और मौर्य काल के बीच के भी हैं। मगर इतिहासकार गौतम बुद्ध से पहले स्तूप होने की बात सोचते ही नहीं हैं।
परिणामतः वे मौर्य काल से पहले के बने सभी स्तूपों को भी खींचकर मौर्य काल तथा उसके बाद लाते हैं। यदि वे ऐसा नहीं करते तो सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर मौर्य काल तक कहीं भी स्तूपों की श्रृंखला नहीं टूटेगी।
बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बाँटा गया तथा उन पर स्तूपों का निर्माण किया गया। जाहिर है कि स्तूपों की निर्माण - कला बुद्ध से पहले भी मौजूद थी।
बुद्ध ने खुद महापुरुषों की शरीर धातु पर स्तूप बनाने को कहा था। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य आनंद को चौराहे पर स्तूप निर्मित करने की बात कही थी।
कोई भी शिल्प - कला रातों -रात पैदा नहीं होती है। स्तूप - कला का भी बाकायदे विकास हुआ है। कई पीढ़ियों ने, कई गणों ने इसके विकास में अपना - अपना योगदान किया है।
5.
दुनिया की टाॅप अकादमिक पत्रिकाओं में " साइंस " शुमार है। इसे अमेरीकन एसोसिएशन फाॅर दि एडवांस आॅफ साइंस प्रकाशित करता है।
" साइंस " के अंक 320 में यूनिवर्सिटी ऑफ नेपल्स, इटली के भारत और सेंट्रल एशिया की सभ्यताओं के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर जिओवान्नि वेरार्डी का मुअनजोदड़ो के स्तूप पर एक लेख छपा है। ( चित्र - 2 )
पुरातत्ववेत्ता वेरार्डी ने गहन जाँच के बाद बताए हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता का स्तूप कोई 2100 ई. पू. का है। स्तूप के नाम को लेकर विवाद हो सकता है। मगर वह इमारत सिंधु घाटी सभ्यता के समकालीन है। यह स्तूप भिक्षुओं के आवास से घिरा है।
आर डब्ल्यू टी एच आकिन विश्वविद्यालय, जर्मनी के पुरातत्ववेत्ता माइकल जेंसन ने वेरार्डी की रिसर्च पर मुहर लगाते हुए लिखा है कि मुअनजोदड़ो का स्तूप सिंधु घाटी सभ्यता के काल का है।
पुरातत्ववेत्ता द्वय ने कहा है कि सिंधु घाटी सभ्यता पर पुनर्विचार करने की जरूरत है क्योंकि यह स्तूप कुषाण काल का नहीं है।
इसीलिए मैं भी कहता हूँ कि सिंधु घाटी की सभ्यता मूलतः बौद्ध सभ्यता है।
जैसा कि भारत और सेंट्रल एशिया की सभ्यताओं के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर जिओवान्नि वेरार्डी ने जाँचोपरांत बताया है कि मुअनजोदड़ो का स्तूप सिंधु घाटी की सभ्यता के समय का है। यह कुषाण कालीन नहीं है।
अब तक इतिहासकार इसे कुषाण कालीन मानते रहे हैं। कारण कि स्तूप के पूरबी बौद्ध मठ से कुषाण कालीन सिक्के मिले हैं।
प्रोफेसर जिओवान्नि वेरार्डी ने कहा है कि स्तूप के काल - निर्धारण में इन सिक्कों की कोई खास भूमिका नहीं है। स्तूप का अस्तित्व सिक्कों से अलग है।
स्तूप की निर्माण-सामग्री, अभिकल्पन, ईंटें, प्लेटफार्म - सब कुछ सिंधु घाटी सभ्यता के समकालीन हैं। ( चित्र - 3 )
चूँकि कुषाण काल बौद्धों के लिए सुनहरा काल था। बौद्धों को पता रहा होगा कि मुअनजोदड़ो का स्तूप किसी पूर्व बुद्ध का है।
शायद यहीं कारण था कि उनकी आवाजाही उस स्तूप तक थी और ऐसे में वहाँ कुषाण कालीन सिक्कों का मिलना असंभव नहीं है।
मोहनजोदड़ो की खुदाई में विशाल स्नानागार मिला है। स्नानागार के आँगन में जलाशय है। जलाशय के तीन ओर बरामदे और उनके पीछे कई कमरे थे।
इतिहासकार मैके ने बताया है कि कमरे वाला स्नानागार पुरोहितों के लिए था, जबकि विशाल स्नानागार सामान्य जनता के लिए था तथा इसका उपयोग धार्मिक समारोहों के अवसर पर किया जाता था।
डी. डी. कोसंबी ने लिखा है कि पूरे ऐतिहासिक युग में ऐसे कृत्रिम ताल बनाए गए हैं : पहले स्वतंत्र रूप में, बाद में मंदिरों के समीप।
सवाल उठता है कि सिंधु घाटी के लोग विशेष धार्मिक अवसरों पर विशाल स्नानागार में पुरोहितों के संग स्नान तथा शुद्धिकरण करके कहाँ जाते थे? मंदिर तो था नहीं। वहीं स्तूप में! स्नानागार के बगल के स्तूप में !!
उत्तरी बिहार के वैशाली में पुरातत्वविदों ने आनंद स्तूप के बगल में ठीक ऐसा ही विशाल स्नानागार खोज निकाला है, जैसा कि मोहनजोदड़ो में है।
1826 में मैसन ने पहली बार हड़प्पा में स्तूप ही देखा था, बर्नेस ( 1831 ) और कनिंघम ( 1853 ) ने भी स्तूप ही देखा था। सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई बाद में हुई।
राखालदास बंदोपाध्याय ने भी 1922 में मोहनजोदड़ो के बौद्ध स्तूप की खुदाई में ही सिंधु घाटी की सभ्यता की खोज की थी।
इसलिए; सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई में स्तूप नहीं मिला है बल्कि स्तूप की खुदाई में सिंधु घाटी की सभ्यता मिली है।
मगर इतिहासकारों को सिंधु घाटी की सभ्यता के इतिहास को ऐसे लिखने में जाने क्या परेशानी है, जबकि सच यही है।
मोहनजोदड़ो की खुदाई में सिर्फ स्तूप ही नहीं, बौद्ध विहार भी मिला था, जिसका विवरण स्वामी शंकरानंद ने " हिस्ट्री आफ मोहनजोदड़ो एण्ड हड़प्पा " में प्रस्तुत किया है। लिखा है कि राखालदास बंदोपाध्याय को 1922 - 23 के शरद मौसम में खुदाई करते एक बौद्ध विहार मिला। विहार का मुख पूरब की तरफ था। पूरबी भाग में दो बड़े सामान्य कक्ष, एक प्रवेश द्वार, गुफानुमा सुरंग, मूर्ति कक्ष एवं सीढ़ियाँ हैं। कुछ छोटे कक्षों का उपयोग भिक्खुओं के अवशेष रखने के लिए किया जाता है। कमरा सं. 22, 27 एवं 29 ऐसे ही कमरे हैं। ( संदर्भ: बौद्ध धर्म: हड़प्पा मोहनजोदड़ो नगरों का धर्म, पृ. 144 )
गुजरात स्थित धोलावीरा सिंधु घाटी सभ्यता का एक महत्वपूर्ण नगर है। यहाँ स्तूप मिले हैं। उनमें से एक पंजाब स्थित संघोल के धम्म चक्र स्तूप से मेल खाता है। ऐसे स्तूपों में आरे ( वृत में तिल्ली ) बने होते हैं। ( चित्र- 4 )
स्तूप का नाम सुनते ही दिमाग में एक अर्द्ध गोलाकार संरचना की तस्वीर उभरती है।
मगर हर जगह का स्तूप अर्द्ध गोलाकार नहीं है।स्तूप धम्म चक्क के आकार के भी हैं, जिनमें आठ आरे बने हुए हैं। धम्म चक्क में भी 8 आरे हैं।
एक दूसरे स्तूप में आरों की संख्या क्रमशः 12, 24 और 32 है। 24 और 32 की संख्या अशोक - चक्र की याद दिलाती है। अशोक - चक्र में भी 32 और 24 आरे हैं।
ऐसे स्तूप पंजाब के जिला फतेहगढ़ साहिब के गाँव संघोल में मिले हैं। कभी संघोल में भिक्षु संघ था। इसीलिए इसका नाम संघोल है। ( चित्र - 5 )
स्तूप की खुदाई 1968 में हुई थी। स्तूप से एक सोप पत्थर की मंजूषा मिली है।
मंजूषा के ढक्कन पर खरोष्ठी लिपि में एक बौद्ध स्काॅलर का नाम लिखा है। वह स्काॅलर भद्रक थे। उन्हीं का अस्थि - भस्म उस मंजूषा में है।
धोलावीरा का स्तूप संघोल के स्तूप से मेल खाता है।
सिंध साम्राज्य के अनेक नगरों में स्तूप मिले हैं। हड़प्पा में स्तूप मिला है, मोहनजोदड़ो में स्तूप मिला है और फिर धोलावीरा में भी स्तूप मिला है।
जाने क्यों, इतिहासकार बताते हैं कि ये स्तूप कुषाण काल के हैं। भाई, कुषाण काल तो बुद्ध की मूर्तियों के लिए जाना जाता है। यदि सिंधु घाटी सभ्यता के ये स्तूप कुषाणों ने बनवाए तो वे सिर्फ स्तूप ही क्यों बनवाते?
वे तो सिंधु घाटी की गली - गली में ... हर चौक - चौराहे पर बुद्ध की मूर्तियाँ बनवाते। वे तो गांधार कला के आविष्कारक थे और बुद्ध की मूर्तियों के लिए तो कुषाण राजे इतिहास में जाने जाते हैं।
यदि सिंध साम्राज्य के ये स्तूप कुषाण काल के हैं तो कुषाणों से करीब डेढ हजार साल पहले तो आपके अनुसार आर्य आए थे, जो सिंध साम्राज्य पर कब्जा किए। फिर वे सिंधु घाटी के डगर - डगर में मंदिर, अवतारों की मूर्तियाँ क्यों नहीं बनवाए?
मान लीजिए कि 1500 ई. पू. में आर्यों का आक्रमण हुआ और हड़प्पा - मुअनजोदड़ो नेस्तनाबूद हो गए। सिंध साम्राज्य जीत लिया गया और आर्य साम्राज्य स्थापित हो गया तो क्या सिंध साम्राज्य के ऊपरी लेयर पर आर्य साम्राज्य के निशान मिलते हैं?
क्या मंदिर मिलते हैं ? ... क्या संस्कृत मिलती है ? ... कोई वैदिक देवी - देवता मिलते हैं? ...क्या इंद्र वंश का शासन आया?... क्या वरूण वंश का राज आया?... नहीं।
6.
इतिहासकार मौर्य साम्राज्य पर शुंगों के कब्जे को ही आर्य आक्रमण बताते हैं और उसे पीछे खींचकर 1500 ई. पू. में ले जाते हैं क्योंकि इसके बाद धीरे- धीरे आर्य- सभ्यता के तमाम निशान मिलने लगते हैं ... संस्कृत ... यज्ञ ... मंदिर आदि- आदि।
वैदिक साहित्य में लिखित " दास " कौन है?
भारत और पश्चिम के अनेक इतिहासकारों ने " दास " की अनेक व्याख्याएँ की हैं। उस भूल - भुलैया में हमें नहीं पड़ना है।
दास मूल रूप से " बौद्ध " थे। साँची और भरहुत के स्तूपों पर अनेक दास तथा दासी उपाधिधारक बौद्धों के शिलालेख हैं, जिन्होंने स्तूप - निर्माण में मदद की थी।
अरहत दास थे ....अरहत दासी थीं ....यमी दास थे.... जख दासी थीं .....अनेक ...सभी के नाम लिखे हुए हैं।
साँची स्तूप पर थूप दास का वर्णन है। लिखा है - मोरगिरिह्मा थूपदासस दान थंभे। ( चित्र - 6 )
थूप दास मोरगिरि ( महाराष्ट्र ) के निवासी थे और भरहुत के एक स्तंभ - निर्माण में मदद की थी।
वैदिक साहित्य में वर्णित आर्यों का सांस्कृतिक संघर्ष इन्हीं बौद्ध दास - दासियों से हुआ था।
वैदिक साहित्य इन दास - दासियों के बारे में बताता है कि ये लोग यज्ञ नहीं करते और न ये इंद्र - वरुण की पूजा करते हैं...स्पष्ट है कि ये बौद्ध हैं।
प्राकृत भाषा में " दास " ( दसन ) का अर्थ द्रष्टा है। मगर आर्यों ने सांस्कृतिक दुश्मनी के कारण अपनी पुस्तकों में " दास " का अर्थ " गुलाम/ नौकर " कर लिए हैं।
दास और आर्यों का यह सांस्कृतिक संघर्ष 1500 ई.पू. में नहीं बल्कि मौर्य काल के बाद हुआ था।
सभी शिलालेख पढ़ जाइए। मौर्य काल तक किसी भी पुरुष और महिला के नाम में " दास / दासी " नहीं जुड़ा है।
दास/ दासी जुड़े नाम शिलालेखों में मौर्य काल के बाद दिखाई पड़ते हैं। साँची - भरहुत के स्तूपों पर पहली बार अनेक नाम दास / दासी से जुड़े दिखाई पड़ते हैं।
दास / दासी से जुड़े ये सभी नाम बौद्धों के हैं।
इन्हीं दास / दासियों से आर्यों का वैचारिक संघर्ष हुआ था, जो वेदों में लिखा हुआ है।
वेदों में लिखे आर्य - दास संघर्ष को हम कतई मौर्य काल से पहले नहीं ले जा सकते हैं। कारण कि मौर्य काल तक हमें दास/ दासी उपाधि धारक कोई नाम मिलता ही नहीं है।
वेद और वेदों में वर्णित यह सांस्कृतिक संघर्ष की गाथा मौर्य काल के बाद की है।
यहीं कारण है कि ऋग्वेद में भी स्तूपों के संदर्भ मिलते हैं और रामायण में चैत्यों के मिलते हैं।
यह तो बहुत बताया जाता है कि ऋग्वेद में गंगा का एक बार और यमुना का तीन बार वर्णन है, मगर यह बहुत कम बताया जाता है कि ऋग्वेद में स्तूप का वर्णन दो बार है।
संस्कृत का स्तूप मूल रूप से पालि थूप का बिगड़ा हुआ रूप है। पालि में थूप से अनेक शब्द बनते हैं जैसे थूप, थूपिका, थूपीकत, थूपारह आदि।
मगर संस्कृत में स्तूप से अनेक शब्द नहीं बनेंगे। कारण कि स्तूप संस्कृत के लिए बाहरी शब्द है। किसी भी भाषा में अमूमन बाहरी शब्द बाँझ होते हैं। उनमें शब्दों को जनने की क्षमता नहीं होती है।
संस्कृत के लिए स्तूप बाँझ शब्द है। इसीलिए संस्कृत का स्तूप पालि थूप का रूपांतरण है और वे भाष्यकार जो ऋग्वेद में प्राप्त स्तूप की व्याख्या किसी अन्य अर्थ में करते हैं, वे गलत हैं।
"स्तूप ....बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः" अर्थात इसमें बुद्ध अन्तर्निहित हैं।
यह ऋग्वेद के प्रथम मंडल, सूक्त 24, छठवाँ अनुवाक का श्लोक संख्या 7 है। इसमें राजा वरुण को अबौद्ध (अबुध्ने) राजा भी कहा गया है। पूरा का पूरा अर्थ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है।
सायण भाष्य में अर्थ कुछ भिन्न है।
"अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः नीचीना स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः॥७॥" ( चित्र - 7)
अर्थात पवित्र पराक्रम युक्त राजा वरुण (सबको आच्छादित करने वाले) दिव्य तेज पुञ्ज सूर्यदेव को आधाररहित आकाश में धारण करते हैं। इस तेज पुञ्ज सूर्यदेव का मुख नीचे की ओर और मूल ऊपर की ओर है। इससे मध्य में दिव्य किरणें विस्तीर्ण होती चलती हैं।
परन्तु यह अर्थ जो सायण भाष्य पर आधारित है, गलत है। लगभग सभी अनुवादकों ने ऐसा ही अर्थ किया है। अर्थ करते वक्त संदर्भ को देखना जरूरी होता है। जैसा कि उपरोक्त से स्वतः स्पष्ट है कि वरुण राजा की उपाधि अबुध्ने है। मतलब कि वरुण बौद्ध विरोधी राजा थे। आगे स्तूप को उलटने की बात है।
अशोक द्वारा 84000 स्तूप बनाए जाने का जिक्र फाहियान ने अपने यात्रा - विवरण के 27 वें खंड में किए हैं।
साँची एवं भरहुत स्तूपों का निर्माण मूल रूप से अशोक ने ही कराया था। ह्वेनसांग ने अशोक द्वारा निर्मित अनेक स्तूपों का उल्लेख किया है, जिन्हें उसने खुद देखा था।
सारनाथ तथा तक्षशिला स्थित धर्मराजिका स्तूप का निर्माण भी मूलतः अशोक के समय में ही कराया गया था। बाद के शासकों ने उन्हें परिवर्धित करवाए।
मीनाण्डर यवन थे। विदेशी थे। लेकिन धम्म की राह चुनी थी। बुतकारा स्तूप के पहले लेयर को अशोक ने बनवाए थे तो दूसरे को मीनाण्डर ने बनवाए थे। दूसरे लेयर से मीनाण्डर का सिक्का मिला है।
मीनाण्डर बड़े दार्शनिक थे...इंडो -यूनानी इतिहास में दूजा नहीं हुआ।
सो वे बड़े न्यायप्रिय थे। न्यायप्रियता ने इन्हें जनता में बड़ी शोहरत दिलाई थी।
एक दिन एक शिविर में अचानक इनकी मृत्यु हुई।
प्लूटार्क ने लिखा है कि मीनाण्डर के भस्म को लेकर जनता में झगड़े उठ खड़े हुए ....क्योंकि वे इतना जनप्रिय थे कि लोग उनके भस्म पर अलग - अलग स्तूप बनाना चाहते थे।
भारत के इतिहास में बुद्ध के बाद मीनाण्डर, मीनाण्डर के बाद कबीर और कबीर के बाद नानक का नाम आता है, जिनके मृत शरीर को भी अपनाने के लिए जनता व्याकुल थी।
क्षेमेन्द्र रचित अवदानकल्पलता से पता चलता है कि मीनाण्डर ने अनेक स्तूपों का निर्माण कराया था।
सम्राट अशोक के बाद पश्चिमोत्तर तथा उत्तरी भारत में सर्वाधिक स्तूप बनवाने का श्रेय कनिष्क को है।
उन्होंने विभिन्न स्थानों पर अनेक स्तूप बनवाए। पेशावर के निकट कनिष्क ने एक बड़ा स्तूप बनवाए थे, जिसमें बुद्ध के अवशेष रखे गए थे। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसे एक यूनानी इंजीनियर अगिलस ने बनाया था।
जाहिर है कि यूनानी अभियंताओं ने यूनानी तकनीक का प्रयोग किया। यहीं ग्रीको - बुद्धिस्ट कला है, जिससे स्तूप - निर्माण भी अछूता नहीं रहा।
गंधार क्षेत्र के स्तूपों का वास्तु - विन्यास मध्य भारतीय स्तूपों जैसा नहीं है। गंधार स्तूप काफी ऊँचे हैं, चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ हैं और संपूर्ण स्तूप एक बुर्ज जैसा दिखाई देता है।
कनिष्क के पुरुषपुर स्थित 400 फीट ऊँचा स्तूप का विवरण फाहियान तथा ह्वेनसांग दोनों ने दिए हैं। फाहियान ने लिखा है कि उसने जितने भी स्तूप देखे थे, उनमें यह सर्वाधिक प्रभावशाली है।
तक्षशिला स्थित धर्मराजिका स्तूप का निर्माण अशोक के समय में हुआ, किंतु कनिष्क के समय में आकारवर्धन हुआ। ऊँचे चबूतरे पर निर्मित यह स्तूप गोलाकार है। चारों दिशाओं में चार सीढ़ियाँ हैं। ( चित्र - 8 )
कनिष्क के काल में बल्ख तथा खोतान तक अनेक स्तूप निर्मित करवाए गए थे। मनिक्याल क्षेत्र में कई स्तूप बने थे। मनिक्याल, रावलपिंडी से 20 मील की दूरी पर है। यहाँ से प्राप्त एक अभिलेख से पता चलता है कि कनिष्क के 18 वें वर्ष में इन स्तूपों को बनवाया गया था।
सिर्फ बुद्ध के अवशेषों पर ही नहीं बल्कि कनिष्क ने बौद्ध साहित्य की टीकाओं को भी ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण करा कर विशेष रूप से निर्मित एक स्तूप में सुरक्षित रखवाया था। ह्वेनसांग ने इस पर विस्तार से लिखा है।
स्तूप- निर्माण की परंपरा अशोक और कनिष्क के बाद हर्षवर्धन के शासन-काल में सर्वाधिक समृद्ध हुई।
सम्राट हर्षवर्धन ने विक्रमादित्य की नहीं बल्कि शीलादित्य की उपाधि धारण की थी। शीलादित्य वह है, जिसे विक्रम ( बल ) से अधिक शील पसंद हो।
वहीं शील जिसे बुद्ध ने अपनी देशना में प्रमुख स्थान दिया था।
वो शिलादित्य ऐसे शीलवान निकले कि हर 5 वें वर्ष अपना संपूर्ण खजाना गरीबों- असहायों को दान कर देते थे।
ह्वेनसांग ने लिखा है कि उन्होंने गंगा के किनारों पर कई हजार स्तूप सौ - सौ फीट ऊँचे बनवाए।
सब स्थानों पर जहाँ - जहाँ गौतम बुद्ध के कुछ भी चिह्न थे, संघाराम स्थापित किए।
इतिहास से सवाल है कि आखिर शीलादित्य के बनवाए हजारों स्तूप और संघाराम कहाँ गए?
ह्वेनसांग ने पूर्वी भारत में अशोक द्वारा निर्मित ताम्रलिप्ति, कर्णसुवर्ण, समतट और पुण्ड्रवर्धन में स्तूपों का उल्लेख किया है। महास्थानगढ़ अभिलेख से भी यह पुष्ट होता है। बाद के पाल शासकों ने पूर्वी भारत में बौद्ध धर्म का संरक्षण प्रदान किए।
पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार में पाल कालीन अनेक स्तूपों के अवशेष मिलते हैं।
पाल वंश के बड़े राजाओं में देवपाल ( 810 - 850 ) शुमार हैं। उत्साही बौद्ध थे। 40 बरसों का शासन था। सुजाता स्तूप का आखिरी पुनर्निर्माण इन्होंने ने ही कराए थे। वहाँ के उत्खनन से प्राप्त एक अभिलेख से इसकी पुष्टि होती है। ( चित्र - 9 )
पश्चिमोत्तर और उत्तरी भारत में स्तूप - निर्माण की जो परंपरा सिंधु घाटी सभ्यता से चली थी, वह पाल कालीन पूर्वी भारत में 12 वीं सदी तक अनवरत चलती रही।
7.
बौद्ध सभ्यता के प्रचार - प्रसार का जो काम उत्तर के मौर्यों ने किया, वही काम दक्षिण में सातवाहनों ने किया।
अशोक के सभी अभिलेख प्राकृत में हैं तो सातवाहनों के भी सभी अभिलेख प्राकृत में हैं।
उत्तर में मौर्य काल तक संस्कृत के अभिलेख नहीं मिलते हैं तो दक्षिण में भी सातवाहन काल तक संस्कृत के अभिलेख नहीं मिलते हैं।
मौर्यों ने अनेक स्तूप, चैत्य और विहार बनवाए तो सातवाहनों ने भी अनेक स्तूप, चैत्य और विहार बनवाए।
अमरावती, गोली, जगय्यपेटा, घंटसाल, भट्टीप्रोलु, नागार्जुन कोंडा जैसे स्थानों के स्तूप इन्हीं सातवाहनों के हैं। ( चित्र- 10 )
बौद्ध स्थलों में से पूर्वोत्तर भारत स्थित बौद्ध स्मारकों का जिक्र कम होता है। हिंदी इतिहासों में इसका उल्लेख नगण्य है।
त्रिपुरा के सेपहीजाला जिले में बोक्सानगर है। बोक्सानगर का प्राचीन नाम अभिलेखों के आधार पर बिराक बताया जाता है। यह एक विराट बौद्ध स्थल है।
इस विराट बौद्ध स्थल को खुदाई से पहले मानसा का स्मारक कहा जाता था। मानसा सर्पों की देवी हैं। साल 1997 के जुलाई महीने में पुरातत्वविद डाॅ. जीतेन्द्र दास यहाँ आए। उन्हें यहाँ गौतम बुद्ध की मूर्ति मिली। वे अनुमान कर लिए कि बोक्सानगर बौद्ध स्थल है और इसकी सूचना उन्होंने पुरातत्व विभाग को दे दी।
पुरातत्व विभाग ने 2001 से 2004 तक बोक्सानगर की खुदाई की। खुदाई में विशाल बौद्ध स्तूप, चैत्यगृह, बौद्ध विहार, बुद्ध की कांस्य मूर्तियाँ, ब्राह्मी अभिलेखित सील तथा अन्य बौद्ध अवशेष मिले। ( चित्र - 11)
स्तूप विशाल और शानदार है। चैत्यगृह आयताकार और स्तूप के पूरब दिशा में है। चैत्यगृह से पूरब बौद्ध विहार है। बौद्ध विहार का गलियारा काफी लंबा है। गलियारा के दोनों ओर भिक्षुओं के लिए कमरे बने हैं।
दक्षिण त्रिपुरा में पिलक है। पिलक का प्राचीन नाम पिरोक बताया जाता है। पिलक की पहचान भी बौद्ध स्थल के रूप में हुई है। पिलक के उत्खनन से भी बौद्ध स्तूप और बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
पूर्वोत्तर भारत कभी बौद्ध सभ्यता के प्रभाव में था।
न केवल संपूर्ण भारत में बल्कि भारत के बाहर भी स्तूप बनाए जाने की समृद्ध परंपरा रही है prof Dr Rajendra Prasad Singh
कभी आपने विचार किया है कि भारत मे सबसे ज्यादा राजाओ के महल राजस्थान और गुजरात मे ही क्यों हैं?
राजस्थान की हर रियासत मे एक बडा मुख्य किला और पचास पचास मील की दूरी पर छोटे छोटे महल किले बने हुए हैं और वो भी एक
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तय रास्ते पर, जैसे जोधपुर, पोखरण, नाचना, मोहनगढ़, तनोट, और आगे सिंध का अमरकोट, बीकानेर, कोलायत, बीकमपुर, बरसलपुर, अमरकोट, बीकानेर, पूगल, खेरमपुर, बहावलपुर, लगभग सभी एक ही सीधी रेखा मे पूर्व से उत्तर पश्चिम और आपस मे दूरी 50 या 60 किलोमीटर
राजस्थान तो हमेशा रेगिस्तान था यहां कभी कोई नदी नही रही तो यहा इतने राजा कैसै अपना खर्च चलाते थे इतना लगान कहा से लाते थे जब्कि संयुक्त पंजाब जहा पांच नदियाँ बहती थीं और भरपूर अनाज पैदा होता था वहाँ कोई किला या महल नहीं है बस खेबर पास से दिल्ली तक एक सीधी लाईन मे कुच्छ बूर्ज या मीनारें जरूर हैं।
इसका मतलब समझिये आप कि
पश्चिम से जो व्यापारी व्यापार करने आते थे जिनको आक्रमणकारी लिखा गया है ऊनके लिये खेबर पास से आना लगभग नामुमकिन था क्योंकि उत्तर में कश्मीर से दक्षिण बहावलपुर तक पांच नदियां बे रोकटोक बहती थीं और उन पर कोई पुल नहीं था तो व्यापारियों के काफिले का पानी से और उबड़ खाबड़ जंगली रास्तों से गुजरना लगभग नामुमकिन था इसलिये व्यापारी यूरोप से बुखारा काबुल बहावलपुर अमरकोट बीकानेर और आगे हनुमानगढ दिल्ली या बीकानेर जयपुर आगरा या अमरकोट जेसलमेर गुजरात मुबई या अमरकोट जोधपुर उदयपुर मध्यप्रदेश आदि रास्ते उपयोग करते थे।
व्यापारी काफिले मे बहूत लोग ऊंट बेल गाडिया आदि भी होती थी तो एक दिन मे 50 या 60 किलोमीटर ही सफर कर पाते थे
अब रात को रुकने के लिये किसी जगाह की जरूरत तो रहती ही है ।
अब समझ आया कि सभी किले एक सीधी लाइन में और एक तय दूरी पर क्यों बने हुए हैं।
मतलब ना कोई राजा था ना कोई आक्रमणकारी
बाहर वाले व्यापारी थे और यहाँ के राजा उनके मुनीम और होटल चलाने वाले।जहाँ व्यापारी रुकते थे वो महल किल्ले नहीं बल्कि उस समय के होटल ही थे।
अगर कोई व्यक्ति लाउड स्पीकर के शोर से पीड़ित हो रहा हो तो उसके लिए एक आईडिया- 1- सबसे पहले अन्य पीड़ितों के साथ बात करके एक राय होकर जिलाधिकारी और sp से शिकायत करे। 2- फिर भी बात न बने तो लाउड स्पीकर की सीध में
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माइक लगाकर उसके घर की ओर मुह करके अपना लाउड स्पीकर रख दे।
शाश्वत हो हमारा गणतन्त्र दिवस। हमें रहे बचाए सदा होने से परवश। हमारी आकांक्षा को प्रभु का वर रहे। स्वतंत्रताएँ सारे विश्व में अमर रहे। प्राप्त हो गणतन्त्र को नेतृत्व श्रेष्ठ। पारित,संचालित हो होता हुआ ज्येष्ठ। शब्दों की भाषा ही कर्म भी बोले। नेतृत्व सर्वदा ही अपने को तौले। न्याय की प्रक्रिया हो
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शुद्ध जीवंत। दंड का विधान कभी न बने आतंक। शासन में शासित की अदम्य आस्था, बनी रहे अखंडित, प्रभु का वास्ता! गणतन्त्र एकता, अनेकता का है। यह विचार हो परम,देवता का है। ‘वाद’ सारे ढोंग के पर्याय हैं बने। देखिये हैं कैसे आमने-सामने तने। सुख मर्यादित हो स्वच्छ्न्द नहीं। जबतक दु:खों का हो विघटन नहीं। संसाधन साधन हो कल्याण का। रक्षक बन खड़ा रहे सारे प्राण का। शिक्षा ही शौर्य हो शिक्षा सौंदर्य। शिक्षा से बढ़कर क्या कोई ऐश्वर्य! गणतन्त्र प्रतिज्ञा हो और संकल्प। इसके सिवा न मानो कोई विकल्प। ----------------------------------------- अरुण कुमार प्रसाद
भारत में 80% से भी ज्यादा लोग सांवले या काले होंगे। उनमें से ज्यादातर गरीब भी हैं। इसलिए उनके चेहरे से या कपड़ों से उतना सौंदर्य नहीं झलकता जितना कि गोरे और धनवान लोगों में झलकता है। । उक्त कारणों से भारत में गोरा होना एक बहुत
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बड़ी उपलब्धि जैसा प्रतीत होता है। । इसके विपरीत सत्यता यह है कि गोरापन एक अत्यंत उपयोगी यौगिक मेलानिन की कमी के कारण होता है। । मेलानिन काला होता है और इसका अधिकांश भाग चमड़ी में पाया जाता है। यह धूप सोखने में तथा धूप से होने वाले कैंसर को रोकने में मददगार होता है। इस तरह विटामिन डी की कमी दूर करने के लिए काले व्यक्ति को धूप में ज्यादा देर तक रहने की जरूरत नहीं पड़ती। । इस तरह हम देखते हैं कि यह विटामिन डी बनाने में जितना ज्यादा मददगार होता है उससे भी कई गुना ज्यादा यह कैंसर रोकने में मददगार होता है। । इसलिए सांवले या काले लोगों को अपने काले होने के कारण कोई हीन भावना पालने के बजाय उसका फायदा उठाना चाहिए और गोरे लोगों को अपना डीएनए श्रेष्ठ होने की गलतफहमी पालने से बचना चाहिए।
गणतन्त्र दिवस भारत का एक राष्ट्रीय पर्व जो प्रति वर्ष २६ जनवरी को मनाया जाता है। इसी दिन सन१९५० को भारत का संविधान लागू किया गया था।
एक स्वतंत्र गणराज्य बनने और देश के संक्रमण को पूरा करने के लिए, 26 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा इस संविधान को अपनाया गया और
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26 जनवरी 1950 को इसे एक लोकतांत्रिक सरकार प्रणाली के साथ लागू किया गया था। 26 जनवरी को इसलिए चुना गया था क्योंकि 1930 में इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत को पूर्ण स्वराज घोषित किया था।
यह भारत के तीन राष्ट्रीय अवकाश में से एक है, अन्य दो स्वतंत्रता दिवस और गांधी जयंती है।
इतिहास
सन १९२९ के दिसंबर में लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुआ जिसमें प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की गई कि यदि अंग्रेज सरकार २६ जनवरी १९३० तक भारत कोस्वायत्तयोपनिवेश(डोमीनियन) का पद नहीं प्रदान करेगी, जिसके तहत भारत ब्रिटिश साम्राज्य में ही स्वशासित एकाई बन जाता, तो भारत अपने को पूर्णतः स्वतंत्र घोषित कर देगा। २६ जनवरी १९३० तक जब अंग्रेज सरकार ने कुछ नहीं किया तब कांग्रेस ने उस दिन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा की और अपना सक्रिय आंदोलन आरंभ किया। उस दिन से १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक २६ जनवरी स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। तदनंतर स्वतंत्रता प्राप्ति के वास्तविक दिन १५ अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्वीकार किया गया। २६ जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए विधान निर्मात्री सभा(कांस्टीट्यूएंट असेंबली) द्वारा स्वीकृत संविधान में भारत के गणतंत्र स्वरूप को मान्यता प्रदान की गई।
जब उत्तरी गोलार्ध में भीषण ठण्ड होती है तो ठन्डे इलाकों के लाखों पक्षी भारत में आ जाते हैं। और जब ठण्ड कम होती है तब वापस अपने घर चले जाते हैं। । इसको आम आदमी की भाषा में प्रवास और धार्मिक भाषा में कल्पवास कहते हैं।
... । प्रारम्भ में हिमालय के साधू हरिद्वार, प्रयाग आदि में जाकर अपना यह पीरियड गुजारते रहे होंगे। बाद में देखा-देखी मैदानी नकलची भी घर की सुख-शांति छोड़कर कल्पवास करने लगे।
एक हाजी साहब थे जो एक कपड़े की बहुत बड़ी फैक्ट्री के मालिक थे.. कुछ दिनों बाद हाजी साहब को अल्लाह से लौ लग गयी.. उनके जीवन में ऐसा कुछ घटा कि उन्होंने अपनी फैक्ट्री और
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सारा कारोबार बंद कर दिया और सूफ़ी बन गए.. अब लोग उन्हें सूफ़ी साहब के नाम से जानने लगे.. अब सूफ़ी साहब सिर्फ अल्लाह की इबादत करते और शाम को बैठते और अपने मुरीदों को प्रवचन देते।
एक दिन सूफ़ी साहब ने अपने मुरीदों को अपने व्यवसायी से सूफ़ी बनने की घटना सुनाई..
सूफी साहब ने कहा कि "एक दिन जब मैं अपनी फैक्ट्री में बैठा था उसी समय एक कुत्ता घायल अवस्था में वहां आता है.. वो किसी गाड़ी से कुचल गया था जिससे उसके तीन पैर टूट गए थे और वो सिर्फ एक पैर से घिसटते हुवे फैक्ट्री तक आया.. मुझे बहुत तरस आया और मैंने सोचा कि उस कुत्ते को किसी जानवरों के अस्पताल में ले जाऊं. मगर फिर अस्पताल के लिए तैयार होते समय मेरे दिमाग़ में एक बात आई और मैं रुक गया.. मैंने सोचा कि अगर अल्लाह हर किसी को खाना देता है तो मुझे अब देखना है कि इस कुत्ते को कैसे खाना मिलेगा.. रात तक दूर बैठे उसे मैं देखता रहा और फिर अचानक मैंने देखा कि एक दूसरा कुत्ता फैक्टरी के दरवाज़े से नीचे घुसा और उसके मुह में रोटी का एक टुकड़ा था.. उस कुत्ते ने वो रोटी उस कुत्ते को दी और घायल कुत्ते ने किसी तरह उसे खाया.. फिर ये रोज़ का काम हो गया.. वो कुत्ता वहां आता और उसे रोटी देता या कोई और खाने की चीज़ और वो घायल कुत्ता ऐसे खा खा के चलने के क़ाबिल बन गया.. मुझे ये देखकर अल्लाह पर अब ऐसा भरोसा हो गया कि मैंने अपनी फैक्ट्री बंद की.. कारोबार पर ताला लगाया और अल्लाह की राह में निकल पड़ा.. और सूफ़ी बनने के बाद भी मेरे पास पैसे उसी तरह किसी न किसी बहाने आते रहे जैसे पहले आते थे.. ठीक वैसे जैसे उस कुत्ते को दूसरा कुत्ता रोटी खिलाता था रोज़"
सूफ़ी साहब की ये कहानी सुनकर उनका एक मुरीद ज़ोर ज़ोर से हंसने लगा.. सूफ़ी साहब ने जब वजह पूछी तो उसने कहा कि "आपने ये तो देख लिया सूफ़ी साहब कि अल्लाह ने उस कुत्ते का पेट भरा मगर आप ये न समझ सके कि उन दो कुत्तों में से बड़ा कुत्ता कौन है? जो खाना खा रहा है वो बड़ा है या जो कुत्ता उसे ला कर खिला रहा है वो बड़ा है? आप खाना खाने वाले घायल कुत्ते बन गए और अपना कारोबार बंद कर दिया.. जबकि पहले आप खाना खिलाने वाले कुत्ते थे क्यूंकि आपकी फैक्ट्री से हज़ारों लोगों को खाना मिलता था.. आप खुद बताईये कि पहले जो काम आप कर रहे थे वो अल्लाह की नज़र में बड़ा था या अब जो कर रहे हैं वो?"
सूफ़ी साहब की आँखें खुल गयीं.. और उन्होंने दूसरे ही दिन अपना कारोबार फिर से शुरू कर दिया और सूफ़ी साहब फिर से व्यवसायी हाजी साहब बन गए
नीचे फोटो में जो वृद्ध गड़रिया है वास्तव में ये सेना का सबसे बड़ा राजदार था पूरी पोस्ट पड़ो इनके चरणों मे आपका सर अपने आप झुक जाएगा, 2008 फील्ड मार्शल *मानेक शॉ* वेलिंगटन अस्पताल,
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तमिलनाडु में भर्ती थे। गम्भीर अस्वस्थता तथा अर्धमूर्छा में वे एक नाम अक्सर लेते थे - *'पागी-पागी!'* डाक्टरों ने एक दिन पूछ दिया “Sir, who is this Paagi?”
सैम साहब ने खुद ही brief किया...
1971 भारत युद्ध जीत चुका था, जनरल मानेक शॉ *ढाका* में थे। आदेश दिया कि पागी को बुलवाओ, dinner आज उसके साथ करूँगा! हेलिकॉप्टर भेजा गया। हेलिकॉप्टर पर सवार होते समय पागी की एक थैली नीचे रह गई, जिसे उठाने के लिए हेलिकॉप्टर वापस उतारा गया था। अधिकारियों ने नियमानुसार हेलिकॉप्टर में रखने से पहले थैली खोलकर देखी तो दंग रह गए, क्योंकि उसमें दो रोटी, प्याज तथा बेसन का एक पकवान (गाठिया) भर था। Dinner में एक रोटी सैम साहब ने खाई एवं दूसरी पागी ने।
*उत्तर गुजरात* के *सुईगाँव* अन्तर्राष्ट्रीय सीमा क्षेत्र की एक border post को *रणछोड़दास post* नाम दिया गया। यह पहली बार हुआ कि किसी आम आदमी के नाम पर सेना की कोई post हो, साथ ही उनकी मूर्ति भी लगाई गई हो।
पागी यानी *'मार्गदर्शक'*, वो व्यक्ति जो रेगिस्तान में रास्ता दिखाए। *'रणछोड़दास रबारी'* को जनरल सैम मानिक शॉ इसी नाम से बुलाते थे।
गुजरात के *बनासकांठा* ज़िले के पाकिस्तान सीमा से सटे गाँव *पेथापुर गथड़ों* के थे रणछोड़दास। भेड़, बकरी व ऊँट पालन का काम करते थे। जीवन में बदलाव तब आया जब उन्हें 58 वर्ष की आयु में बनासकांठा के पुलिस अधीक्षक *वनराज सिंह झाला* ने उन्हें पुलिस के मार्गदर्शक के रूप में रख लिया।
*हुनर इतना कि ऊँट के पैरों के निशान देखकर बता देते थे कि उस पर कितने आदमी सवार हैं। इन्सानी पैरों के निशान देखकर वज़न से लेकर उम्र तक का अन्दाज़ा लगा लेते थे। कितनी देर पहले का निशान है तथा कितनी दूर तक गया होगा सब एकदम सटीक आँकलन जैसे कोई कम्प्यूटर गणना कर रहा हो।*
1965 युद्ध की आरम्भ में पाकिस्तान सेना ने भारत के गुजरात में *कच्छ* सीमा स्थित *विधकोट* पर कब्ज़ा कर लिया, इस मुठभेड़ में लगभग 100 भारतीय सैनिक हत हो गये थे तथा भारतीय सेना की एक 10000 सैनिकोंवाली टुकड़ी को तीन दिन में *छारकोट* पहुँचना आवश्यक था। तब आवश्यकता पड़ी थी पहली बार रणछोडदास पागी की! रेगिस्तानी रास्तों पर अपनी पकड़ की बदौलत उन्होंने सेना को तय समय से 12 घण्टे पहले मञ्ज़िल तक पहुँचा दिया था। सेना के मार्गदर्शन के लिए उन्हें सैम साहब ने खुद चुना था तथा सेना में एक विशेष पद सृजित किया गया था *'पागी'* अर्थात पग अथवा पैरों का जानकार।
भारतीय सीमा में छिपे 1200 पाकिस्तानी सैनिकों की location तथा अनुमानित संख्या केवल उनके पदचिह्नों से पता कर भारतीय सेना को बता दी थी, तथा इतना काफ़ी था भारतीय सेना के लिए वो मोर्चा जीतने के लिए।
1971 युद्ध में सेना के मार्गदर्शन के साथ-साथ अग्रिम मोर्चे तक गोला-बारूद पहुँचवाना भी पागी के काम का हिस्सा था। *पाकिस्तान* के *पालीनगर* शहर पर जो भारतीय तिरंगा फहरा था उस जीत में पागी की भूमिका अहम थी। सैम साब ने स्वयं ₹300 का नक़द पुरस्कार अपनी जेब से दिया था।
पागी को तीन सम्मान भी मिले 65 व 71 युद्ध में उनके योगदान के लिए - *संग्राम पदक, पुलिस पदक* व *समर सेवा पदक*!
27 जून 2008 को सैम मानिक शॉ की मृत्यु हुई तथा 2009 में पागी ने भी सेना से 'स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति' ले ली। तब पागी की उम्र 108 वर्ष थी ! जी हाँ, आपने सही पढ़ा... 108 वर्ष की उम्र में 'स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति'! सन् 2013 में 112 वर्ष की आयु में पागी का निधन हो गया।
आज भी वे गुजराती लोकगीतों का हिस्सा हैं। उनकी शौर्य गाथाएँ युगों तक गाई जाएँगी। अपनी देशभक्ति, वीरता, बहादुरी, त्याग, समर्पण तथा शालीनता के कारण भारतीय सैन्य इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गए रणछोड़दास रबारी यानि हमारे 'पागी'।
दोस्तो मैं आज आपको शनि ग्रह के चंद्रमा टाइटन के बारे में कुछ बताना चाहता हूँ। टाइटन शनि ग्रह का उपग्रह होने के साथ साथ अपनी विशेषताएँ भी रखता है क्योंकि इसका आकार बुध ग्रह से बड़ा है - टाइटन (Titan), सौर मंडल के शनि
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ग्रह का सबसे बड़ा चंद्रमा है। यह सौर मंडल के सभी चंद्रमाओं में वातावरण वाला एकमात्र ज्ञात चंद्रमा है, और पृथ्वी के अलावा एकमात्र ऐसा खगोलीय पिंड है जिसके सतही तरल स्थानों, जैसे नहरों, सागरों आदि के ठोस प्रमाण उपलब्ध हों। शनि के इस उपग्रह और पृथ्वी के बीच और भी कई समानताएं हैं। टाइटन पर ज्वालामुखी जैसी क्रियाएं भी देखने में आती हैं और यहां खाइयां, नदियों के पाट और मुहाने भी दिखते हैं, किन्तु बड़े पहाड़ नहीं दिखे। बहुत कम क्रेटर-जैसे गोलाकार गड्ढे हैं और किसी प्रकार का जीवन नहीं है। वातावरण अत्यंत ठंडा है। तरल मीथेन यहां पानी का काम करती है। हवा में प्रतिध्वनि भी होती है, पृथ्वी की तरह तरंगें भी पैदा होती हैं। यह चंद्रमा पृथ्वी की अपेक्षा बेहद ठंडा है और औसत तापमान शून्य से भी 180 डिग्री सेल्सियस नीचे है, जो साइबेरिया से भी तीन गुना ठंडा है। नदियों और झीलों में पानी के बदले तरल मीथेन गैस बहती है। ज्वालामुखी से बर्फीली अमोनिया निकलती है। वायुमंडल में 98.4 प्रतिशत नाइट्रोजन गैस है और शेष 1.6 प्रतिशत अन्य गैसें हैं जिसमें मीथेन का अनुपात सर्वाधिक है। वायुमंडल बहुत सघन और गुरुत्वाकर्षण बल कम है। टाइटन शनि का सबसे बड़ा उपग्रह है। 5.150 किलोमीटर व्यास वाला ये चंद्रमा पृथ्वी के चंद्रमा से 1.624 किलोमीटर बड़ा है। उसका घना वायुमंडल पृथ्वी के वायुमंडल के विपरीत एक ऐसा विलोम ग्रीनहाउस प्रभाव पैदा करता है कि सूर्य की किरणें अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाती हैं। इस कारण उसे जितना ठंडा होना चाहिये, उससे कहीं अधिक ठंडा है। अफसोस की बात ये है कि टाइटन तेज गति से शनि ग्रह से दूर होता जा रहा है ठीक उसी प्रकार जैसे चांद पृथ्वी से हर साल 1.5 इंच दूर हो जाता है।
मानवता के कल्याणार्थ ज्ञान वह नहीं जो अज्ञान या कुज्ञान के मिश्रण में से छांटना पड़े। ज्ञान वह है जो छंटा-छंटाया हो। ज्ञान की इस कसौटी में गीता, रामायण, कुरान, मनुस्मृति, वेद, शरीयत आदि फिट नहीं बैठते। इनको पढ़कर कोई तो बेवकूफ बन जाएगा और
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कोई चालाक।
भारत में संविधान का पालन बल पूर्वक कराए जाने की कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार करे तो ठीक, न करे तो ठीक। मैं बीसों साल से बोल रहा हूँ कि संविधान की महानता के भ्रम में मत रहो। कोई सरकार इसको नहीं मानेगी तो उसका क्या कर
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लोगे। । आखिरकार मोदी जी ने मेरी बात को सच साबित कर दिया। अब मैं आरएसएस वालों को भी समझाना चाहता हूँ कि संविधान बदलने का पागलपन करने से भी क्या फायदा जब चुनी हुई सरकारों को मानना ही न हो। हमारा संविधान वर्तमान संविधान से करीब एक तिहाई होना चाहिए ताकि अधिसंख्य मतदाताओं को पढ़वाया जा सके और फिर यदि कोई सरकार उसका उल्लंघन करे तो अगले चुनाव में उसको सबक सिखाया जा सके। । हमारा संविधान तो बहुत बड़ा है लेकिन अधिसंख्य मतदाताओं को पढ़ने में रुचि ही नहीं है। अधिकांश को लॉजिक भी नहीं पता बस सरकार चुनने का अधिकार है उनके पास। वास्तविक दशा ऐसी है कि देश का बुद्धिमान वर्ग अल्पसंख्यक होने के कारण मजबूर है और वोट का अधिकार रखते हुए भी मूकदर्शक जैसा है और जनप्रतिनिधि वो लोग चुन रहे हैं जिनको अपना घर संवारने तक की सलाहियत नहीं है। यही वजह है कि हम सरकार बदल बदल कर भी अपेक्षित परिणाम नहीं हासिल कर पा रहे हैं।
जॉर्जिया - एक छोटा सा देश है जो की यूरोप और एशिया को जोड़ता है। जब तक हवाई यात्रा शुरू नहीं हुई थी तब तक जमीनी स्थानांतरण के हिसाब और भौगोलिक रूप से इस देश को एशिया का प्रवेश द्वार कहा जाता था. मतलब
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अगर आपको एशिया से यूरोप में ,, या यूरोप से एशिया में प्रवेश करना हो तो आपको जॉर्जिया के रास्ते ही जाना पडेगा। तो ज़ाहिर है की 18 वि शताब्दी तक अक्रान्ताओ का जॉर्जिया की भूमि से आना जाना लगातार बना रहा , और चूँकि ये एक बंजारों किसानो का देश था और यहाँ के लोग शांतिप्रिय थे। तो इस देश को अकल्पनीय तरीके से लूटा गया। जॉर्जिया अपने सम्पूर्ण इतिहास में लगभग 25 बार पूरी तरह तबाह किया किया और हर बार दोबारा बस गया। अपने इतने दर्दनाक अतीत के बाद आज भी जॉर्जिया की संस्कृति फल फूल रही है , तरक्की पर है।
पापुआ न्यू गिनी - ये देश हमारे हरयाणा से भी छोटा है , और यहाँ पर 300 से अधिक भाषाएँ हैं।
आयरलैंड - इस देश का राष्ट्रीय खेल " हर्लिंग " हैं , जो लगभग भारतीय हॉकी और हैंडबाल का मिश्रित रूप है। हर्लिंग खेल दुनिया का अब तक ज्ञात सबसे पुराना " ग्राउण्ड" खेल है।
फारस ( ईरान ) - दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है। ईरानी लोगो ही ने सबसे पहले अग्नि की पूजा शुरू करि थी और आज भी ये लोग अग्नि को पूजतें हैं। ईरानी लोगो की ख़ास बात ये है की ये लोग संस्कारो में तो फ़ारसी हैं ,लेकिन धार्मिक रूप से मुसलमान हैं। इसलिए मुसलमान होते हुए भी ये अपनी सांस्कृतिक पहचान से अलग नहीं हो पाए।
बांग्लादेश और गुयाना - इन दो देशो में भारत के बाद सबसे ज्यादा हिन्दू रहतें हैं
आप थोड़ा खोजेंगे तो दुनिया की तमाम सभ्यताओं और देशो के बारे में आपको अद्भुत जानकारी मिलेंगी। ये थोड़े से उद्दाहरण आपको इसलिए दिए की हमें फासीवादी संगठनों के मिथ्या प्रचार का वैज्ञानिक रूप से विश्लेषण करना चाहिए। फासिस्ट लोगो के प्रचार की सबसे ख़ास बात ये होती है की वो देश के इतिहास को और उसकी संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ घोषित करके उसे वर्तमान में खतरें में बतातें हैं। निश्चित रूप से हमारे देश की संस्कृति दुनिया की सबसे पुरानी और विशाल विलक्षण संस्कृतियों में से एक ,हैं लेकिन इसका मतलब ये नहीं की बाकी सब बर्बाद और बेकार हैं। इसका मतलब ये भी नहीं की हम लोग बर्बाद हो जाएंगे या मिट जाएंगे।
इन लोगो की ख़ास बात होती है की ये आपको ऐसे ऐसे एक्साम्प्ल देंगे की आप यकीन करने लगोगे की वाकई हिन्दू सभ्यता खतरे में हैं। ये आपको अफगानिस्तान , पकिस्तान के एक्साम्प्ल देकर बोलेंगे की देखो जैसे हिन्दू यहाँ विलुप्त हो गए वैसे ही अब बंगाल केरल से भी हो जायँगे। ये आपको अखंड भारत का नक्शा दिखाकर कंफ्यूज करेंगे , ये आपको आंकड़े देंगे की 1947 में पकिस्तान में २३ प्रतिशत हिन्दू थे और अब बस ०.३ प्रतिशत रह गएँ हैं। ये आपको जनसंख्या के ऐसे समीकरण बताएँगे की आपको लगेगा की बस अब 40 -50 साल में हिन्दू सभ्यता ख़तम हो जायेगी आदि आदि। लेकिन आप तसल्ली से इन सब कुतर्कों का वैज्ञानिक रेशनल अध्यन करें तो आपको पता चलेगा की ये लोग ऐसी बातें 1947 से ही बोलते चलें आ रहें हैं। १९४७ में हिन्दू 30 करोड़ थे और आज मोटा मोटा 100 करोड़ से ज्यादा हैं।
25 बार पूरी तरह तबाह होने के बावजूद जॉर्जियन संस्कृति और जॉर्जिया आज भी फल फूल रहा है। तमाम ब्रितानी जुल्मो गारत के बाद आज भी 60 लाख जनसंख्या का आयरलैंड तरक्की कर रहा है। 300 साल स्पेनिश राज के बावजूद फिलीपींस की संस्कृति अडिग है।
तो हम सौ करोड़ हिन्दू और दुनिया का 7वां सबसे बड़ा देश कैसे ख़तम हो जाएगा ? ये सोचने वाली बात है।
सरकारें तो आती जाती रहेंगी लेकिन मूर्ख मतदाता लंबे समय तक रहेंगे। । और जब तक मूर्ख मतदाता इस देश में बहुसंख्यक रहेंगे तब तक अच्छी सरकारें मिलना आश्चर्यजनक सौभाग्य ही हुआ करेगा। । इसलिए जो लोग वास्तव में देश को प्यार करते हैं उनका यह दायित्व है कि- खुद
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में और अन्य लोगों में विज्ञान सम्मत मानवता का विकास करें। और जिनमें विज्ञानसम्मत मानवता का विकास करना संभव न दिखे उनको आबादी बढ़ाने से रोकें।
किसानों की फसल जब बाजार में आती है तब अधिकता के कारण उसके दाम गिर जाते हैं। कृषि उत्पादों के लिए कोल्ड स्टोर और गोदामों की भूमिका महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्य से एक औसत किसान के लिए कोल्ड स्टोर का मालिक होना सपने की बात
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है। किन्तु मध्यम आर्थिक शक्ति वाला व्यक्ति प्रोसेस्ड फ़ूड स्टोर बनाकर अपनी उन्नति और गरीब किसान की सहायता एक साथ कर सकता है। आलू तथा अन्य सब्जियों की चिप्स या बरी बनाकर रखने से किसानों को कृषि उत्पादों के बेहतर मूल्य मिलने के साथ साथ ऑफ़ सीजन में गरीब मजदूरों और किसानों को सस्ता खाद्यान्न भी मिल सकेगा। इस कार्य में व्यवहारिक कठिनाई यह है कि जब सब्जियों की पैदावार अधिक होती है तब उनकी बरी और चिप्सों को शीघ्र सुखाने के लिए पर्याप्त धूप नहीं मिल पाती। इस समस्या का समाधान दूसरे तरीकों से किया जा सकता है। इसके लिए वाशिंग मशीन में कपडे सुखाने वाले सेंट्रीफ्यूगल ड्रायर अथवा नमक या मिल्क पावडर बनाने वाले वैक्यूम एवैपोरेटर अथवा दोनों का प्रयोग किया जाना चाहिए। ये मशीनें जुगाड़ से बहुत कम लागत में बनायीं जा सकती हैं। इन मशीनों की स्थापना हर किसान को करने की आवश्यकता नहीं है। ये मशीनें आटा चक्की, आयल एक्सपेलर, राइस मिल आदि की भाँति हर गांव में एक या दो की संख्या में व्यावसायिक उद्देश्य से गांवों में लगायी जा सकती हैं। आइडिया इन्नोवेटिव है और इसके कारगर रहने की पूरी सम्भावना है।।।।।।
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि।। । ये 8 चरण योग के बताए गए हैं। ये काफी हद तक अनुमानित हैं। इन शब्दों का प्रयोग आज या तो नहीं हो रहा या फिर भिन्न अर्थों में ज्यादा हो रहा है। । यह वह शास्त्र है जिसके वास्तविक
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जानकार की पहचान होना आसान नहीं है। । सामान्य व्यक्ति के लिए योग का मतलब आसन, प्राणायाम तथा व्यायाम ही है। । जो इससे थोड़ा ऊपर हैं वो धारणा और ध्यान तक पहुंच जाते हैं। । समाधि तक पहुंचने वाले मुझ जैसे विरले ही हैं। । यह जिस प्रकार 8 चरणों मे बांटा गया है वैसा आवश्यक नहीं है। । इसको निम्नवत समझना चाहिए- 1- समाधि के लिए तन, इंद्रियों और मन पर पूर्ण नियंत्रण का अभ्यास होना चाहिए। शरीर मे हीमोग्लोबिन पर्याप्त होना चाहिए। हीमोग्लोबिन के साथ ऑक्सीजन की सर्वांग अबाध आपूर्ति के लिए नसों, धमनियों, हृदय और फेफड़ों का स्वस्थ तथा बाधामुक्त होना आवश्यक है। मनुष्य को साहसी और गुरु पर विश्वास करने वाला होना चाहिए क्योंकि समाधि में पहुंचते समय मृत्यु न हो जाये ऐसी आशंका जन्म लेने लगती है। समाधि के दौरान व्यक्ति सांस भी नहीं लेता किन्तु जिस प्रकार एक कमरे में एक खिड़की खुली हो तो अणुओं की स्वाभाविक गति के कारण कुछ न कुछ ताजी हवा अपने आप अंदर आती रहती है उसी प्रकार नासिकाओं से मंद गति से ऑक्सीजन फेफड़ों तक पहुंचती रहती है। पहले पहल समाधि में एक घंटे से अधिक देर रहना खतरनाक हो सकता है किंतु बार बार अभ्यास करने से यह अवधि 3 या 4 घंटे तक बढ़ सकती है। 2- ध्यान के लिए मस्तिष्क में अबाध रक्तसंचार और अन्य इंद्रियों पर नियंत्रण आवश्यक है। 3- धारणा का यौगिक तात्पर्य वायु अर्थात ऑक्सीजन धारण करने की क्षमता है। जब आप करीब आधा मिनट से पौने दो मिनट प्रति स्वास की अति मंद गति पर घंटे भर तक रह सकने की क्षमता हासिल कर लें तो यह मानना चाहिए कि आपमे धारणा शक्ति आ गयी है। ऊपरी सीमा आपके समाधि में रह सकने की शारीरिक क्षमता का द्योतक है। 4- आसन और प्राणायाम के बिना ध्यान और धारणा का विकास संभव नहीं है। 5- नियमित व्यायाम के बिना समाधि संभव नहीं है। ध्यान के विकास के लिए भी नियमित व्यायाम बहुत फायदेमंद है। 6- बाकी बातें गुरु जी की अपनी शर्तें हैं।
1- A saltwater lake in Maharashtra, Lonar Lake, was created by a meteor hitting the earth and is one of its kind in India.
2- A P J Abdul Kalam was well known as the Missile Man of India for his work on the development of
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ballistic missile and launch vehicle technology.
3- Don't take rest after your first victory because if you fail in second, more lips are waiting to say that your first victory was just luck. - A P J Abdul Kalam
बहुत जबरदस्त लिखा है लेखक का नाम है चित्रगुप्त। ..... साँप का काटा *********** आदमी को मारने के लिए सरकारी वायदे, विपक्ष के ताने, कवियों की कविताएं और सरकारी कर्मचारियों की धूर्तताएँ कम थीं क्या जो अब साँप ने भी काट लिया? अरे भाई मरने का भी कोई
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कायदा कानून होता है? इतने चुस्त और दुरुस्त प्रशासन में सरकारी अनुमति के बगैर कोई ऐसे कैसे मर सकता है? टीवी पर बैठा एंकर अभी पैनल में शामिल अन्य कुछ बयान बहादुरों को गरम करने की कोशिश कर ही रहा था कि बिजली चली गई। ...और उधर कार का शीशा नीचे करते हुए सीएमओ साब ने धरने पर बैठे सुग्घरवा से पूछा- "काहे बैठे हो?" "बेटे को सांप ने काट लिया है सरकार और उसका इलाज हो नहीं रहा..." सुग्घरवा ने उत्तर दिया। "सांप ने तो पुत्तनवा के बेटे को भी काटा था और इलाज तो उसका भी नहीं हुआ था तब तुम धरना देने नहीं आये थे?" सीएमओ साहब इतना बोलकर आगे बढ़ गए तब तक इलाके की पुलिस चौकी के इंचार्ज की आमद हुई... "का रे सुग्घरवा ...! काहे धरना दे रहा है, सुना है बेटे को सांप ने काट लिया?" "हां सरकार..." इस बार जवाब सुग्घरवा की बीवी ने दिया था। "तुम गांव वाले पूरे ही बुड़बक हो यही तो है। जब सांप काटने के लिए आ रहा था उसी समय तुमने उसके खिलाफ एफआईआर करवाना चाहिए था। फिर देखते वो स्साला सांप एक बार थाने पुलिस के चक्कर में आ जाता तब हम बताते कि ज्यादा जहर किसमें है।" सुग्घरवा रोते बिलखते इंचार्ज साहब का मुंह देख ही रहा था कि नेता विपक्ष सफेद कुर्ता अपनी चमक बिखेरता हुआ उसकी आँखों में धंस गया। सांप वाले डॉक्टर इन्ही नेता जी के बहनोई थे। सुग्घरवा उनके ओर बढ़ने ही वाला था कि ब्यवस्थापकों द्वारा रोक दिया गया। "अरे रुको रुको अभी हमारा कैमरे वाला नहीं आया है। पहले उसे आने दो फिर मिलना भेटना सब होगा नेता जी की पूरी संवेदना आपके साथ है । "सरकार अपने बहनोई से कहकर अगर इलाज करा देते तो मेरा कुल दीपक बुझने से बच जाता...." सुग्घर ने हाथ जोड़ते हुए कहा "अगले चुनाव में नेता जी को जिताइये फिर होगा ये सब अभी तो ये बस अपना सपोर्ट दिखाने आये हैं।" नेता जी के आगे खड़े मार्गदर्शक मंडल के प्रतिनिधि टाइप नेता ने कहा... ये सब चल ही रहा था कि सरकार की आकाशवाणी गूंजने लगी..... "सुग्घर .... ये सुग्घर...! शायद तुम्हें पता नहीं होगा कि हमारी सरकार ने ऐसी योजना बनाई है जिसमें तुम्हारे पूरे परिवार का मुफ्त में इलाज होगा। तुम्हे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमने एक मोबाइल एप्प भी बनाया है जिसे मोबाइल में डालकर रखो तो वो बताएगा कि सांप किस तरफ से आने वाला है और इसके अलावा हमने ऐसी व्यवस्था भी की है कि सांप अगर काटने के लिए आएगा तो हम तुरंत नेवला छोड़ देंगे। तुम्हें बस नेवला छोड़ने के लिए अपने पास वाले नेवला केंद्र में जाकर एक अर्जी ही लगानी होगी बस....." "पर सरकार ये नेवला केंद्र है कहाँ?" वहीं पर मौजूद एक सफाई कर्मचारी जिसने आज तक झाड़ू का मुंह तक नहीं देखा पर तनख्वाह में एक दिन भी लेट मंजूर नहीं, ने पूछा- आकाशवाणी ने थोड़ा सा खिसियाया हुआ सा मुंह बनाया (ऐसा अनुमान है, पर नेता खिसियाये ये जरूरी भी नहीं है) और बोली उसे बनाने पर अभी विचार चल रहा है। आकाशवाणी भाइयों बहनों करती हुई बंद हुई तब तक सरकारी सपेरा कहीं से अपनी बीन पकड़े हुए प्रकट हुआ। जिसे बीन बजाना और सांप पकड़ना छोड़कर सारे काम आते थे। इसलिए उसनेे बीन इसके लिए अलग से खानदानी गरीब टाइप का एक सपेरा रख रखा था। जिसने आते ही बीन बजानी शुरू कर दी। अभी तक जितने भी लोग सुग्घर का धरना देखने के लिए जुटे थे वे सब अब उसका बीन बजाना देखने लगे। थोड़ी देर में ही सांप का भी आगमन हुआ जिसे देखकर सरकारी सपेरा डरके मारे बीन बजाने वाले के पीछे छुप गया। "तुमने इस गरीब बालक को क्यों काटा...?"बीन बजाने वाले ने पूछा "सरकार हम कोई आदमी नहीं हैं जो आदमी को काटें" सांप ने उत्तर दिया। "तो फिर ....?" "तो फिर क्या? ये बांस के झुरमुट में कुछ कर रहा था वहीं इसे कोई कांटा गड़ गया ठीक उसी समय मैं भी वहाँ से जा रहा था तो ये साँप साँप चिल्लाकर वहाँ से भाग खड़ा हुआ। "मल्लब तुमने काटा ही नहीं..." "न सरकार" इतना सुनना था कि अब तक अचेत पड़ा सुग्घरवा का बेटा उठकर बैठ गया। #चित्रगुप्त
चीन दुनिया की फैक्ट्री है,आप इसे स्वीकार कीजिये या मत कीजिये । क्या हमारे कारखाने उस क्वालिटी का और उतना माल बनाने के लिए तैयार हैं ? फैक्ट्री मालिकों से नजदीकी होने के नाते मेरा अनुभव यह है कि हम लोग इंजीनियरिंग और खासकर मैन्युफैक्चरिंग
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के मामले में दुनिया से बहुत पिछड़े हुए हैं।
अपनी फैक्ट्री में एक छोटी सी मशीन बनवाने, या किसी डाई को रिपेयर कराने के लिए हमे जो संघर्ष करना पड़ता है, वह सबको हैरान करता है कि हर साल करोड़ों ग्रैजुएट्स उगलने वाले इस देश के महान शिक्षा संस्थान क्यों कुछ ऐसे लोग नहीं दे पाते जो ठीक से एक डाई भी बना सकें। पिछले 20 सालों की आर्थिक तेजी में जो थोड़ा बहुत कमाल हमने दिखाया है, वह बस सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में है, मैन्युफैक्चरिंग के मामले में हम निकम्मे हैं।
क्या ऐसा इसलिए है कि भारत चिंतन करने वालों का देश रहा है। हाथ से काम करने को यहां नीची निगाह से देखा जाता है , इसलिए हमारी आबादी के सारे तेज दिमाग लोग किसी ऐसे पेशे में नहीं जाते जिसमे हाथ का काम हो। वे सिर्फ पढ़ते, सोचते हैं ! एक अमूर्त कंप्यूटर प्रोग्राम को डिकोड करना हमारे लिए अधिक आसान है बजाएं रंदा चलाकर एक लकड़ी को सीधा करने के ।
हमारे सारे शिक्षा संस्थान सिर्फ सोचना सिखाते हैं, करना नहीं। ऐसे में उस चीन से हम कैसे जीतेंगे जो आठवीं क्लास पास करने के बाद ही बच्चे को सीधे ही कोई हुनर सिखाते हैं,वोकेशनल कोर्स कराते हैं। साथियों ने चीन यात्रा से लौटने के बाद बताया कि चीन ने अपने हुनरमंदों की इज्जत की,उन्हें उद्यमी बनाया। दूसरी तरफ सरकार ने इनफॉरमल इकोनामी कह कर उनकी बेइज्जती की। सरकारी अफसरों ने उन्हें इतना डराया धमकाया कि वे बड़े होने से डरने लगे। हमारे देश में परंपरा से जो हुनरमंद आते हैं उनकी कद्र बड़ी इंजीनियरिंग इंडस्ट्रीज़ ने भी नहीं की। सिर्फ इसलिए क्योंकि ये हुनरमंद एक अलग भाषा में बात करते हैं। उनकी शब्दावली उनकी दुनिया की है। इसलिए हमारे यहां ये दोनों दुनियाऐं अलग अलग समानांतर चलती रहीं और एक दूसरे को कोई फायदा नहीं पहुंचा पााईं। अगर पढ़े-लिखे इंजीनियर अपना अहंकार छोड़ कर इन दोनों दुनियाओं के बीच में पुल बनाने की कोशिश करते तो आज हम मैन्युफैक्चरिंग के मामले में इतने पिछड़े ना होते। अब आइए जिसे हम डेमोग्राफिक डिविडेंड मानकर इतराते हैं, उसकी पड़ताल करें।
बेशक हमारे युवा संख्या में बहुत हैं, पर एक बार उनकी क्वालिटी पर भी नजर डालिये। स्कूल कालेजों से कच्ची पक्की परीक्षाएं पास किए यह लोग अब खेती करने में बेइज्जती महसूस करते हैं, पर उनके पास ऐसा कोई ज्ञान या हुनर नहीं है जो फैक्ट्रियों के काम का हो। बारहवीं पास बच्चा किराने की दुकान पर सामान का हिसाब भी ठीक से नहीं जोड़ सकता। हमारे स्कूलों के पाठ्यक्रमों में ऐसा कुछ नहीं है जो बाजार के काम का हो।
चीन से बराबरी करने का सपना देखने वालों को वहां काम करने वाली महिलाओं की संख्या भी देखना चाहिए। हमने देश की 50% आबादी को बेकार घर पर बिठा रखा है। पिछले कुछ सालों की कालेजों की मेरिट लिस्ट उठा कर देखिए। ज्यादातर गोल्ड मेडल लड़कियों ने हासिल किये हैं। वे लड़कियां दफ्तरों दुकानों में क्यों दिखाई नहीं देतीं ? जो समाज इन गोल्ड मेडलों को बैंगल बॉक्स की मखमली कब्रगाहों में दफन कर देता हो उसे डेमोग्राफिक डिविडेंड पर बात करने का क्या हक है ?
मगर सरकार की आर्थिक नीतियों के आधार जीडीपी की ग्रोथ का अंदाज़ा लगाने वाला समाज अपनी बुराइयों पर बात करना नहीं चाहता । तरक्की का सारा जिम्मा हमने फाइनेंस मिनिस्टरी पर ही डाल रखा है जो बेहद गलत है ।
चीन से बराबरी के सपने देखता समाज चीन की कार्य संस्कृति को क्यों नहीं देखता ? हमारे कारखानों में कामगारों के साल के औसत कार्य दिवस दुनिया के मुकाबले बहुत कम हैं। व्रत, उपवास, शादी ब्याह, त्यौहार , भोजन भंडारे का एक लगातार सिलसिला है जो हमारे लिए काम से ज़्यादा बड़ी प्राथमिकता है।
होली दिवाली, ईद, शादी ब्याह का मौसम, हमारे फैक्ट्री मैनेजर और कंस्ट्रक्शन साइट के सुपरवाइजरोंं के लिए डरावने ख्वाब की तरह आते हैंं, इन सब का मतलब होता हैै हफ्तों के लिए काम बन्द.... भले ही कितने ही जरूरी आर्डर पेंडिंग पड़े रहें।
कारपोरेट के हमारे मैनेजर इंनइफिशिएंट हैं । हमने मैनेजर बनने की एकमात्र योग्यता टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलना बना रखी है। ज्यादातर मैनेजर बस यही एक काम जानते हैं, वह भी ठीक से नहीं जानते । कनेक्टिंग फ्लाइट पकड़ने को अपने व्यस्त रहने का प्रमाण मानते हैं,फाइव स्टार होटलों में बेतुके प्रेजेंटेशन करते ये मैनेजर दुनिया मे हो रहे बदलावों के बारे में कुछ नहीं जानते।
ज्यादातर कारपोरेट मैनेजर बस एक दूसरे को रिपोर्ट देने का काम करते हैं, जिसमें कोई काम की बात नहीं होती। सरकारी तंत्र की जिन बुराइयों से घबरा कर हम प्राइवेट कारपोरेट की शरण में आए थे, अब वह भी उसी भ्रष्टाचार और अक्षमता के शिकार हो गए हैं। वे रिश्वत नहीं लेते, पर मोटी तनख्वाह लेकर बस एक दूसरे के ईगो को सहलाना, जिम्मेदारी से भागना, निर्णय न ले पाना भी एक किस्म का भ्रष्टाचार है। यह बात मैं किसी किताब में पढ़कर नहीं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कहता हूं।
आप सोचेंगे यदि भारतीय समाज में इतनी बुराइयां हैं तो फिर 20 -30 सालों में हमने इतनी तरक्की कैसे की है ???
मेरे विचार में इसकी एक बड़ी वजह है ज़मीन का पैसा... 1991 में पी वी नरसिम्हा राव की सरकार ने आर्थिक सुधार लागू किए। उससे विदेशी निवेश आया, फिर अटल सरकार ने बड़े राजमार्ग बनाए, होमलोन सस्ते हुए। इन वजहों से जमीन के दामों में बहुत बड़ा उछाल आया। इसने बड़ी मात्रा में काला धन पैदा किया। यह धन किसी मेहनत या हुनर से कमाया हुआ धन नहीं था। यह जमीन के सट्टे की फसल थी। इस काले धन ने जो डिमांड पैदा की उसके लिए हमारी सप्लाई साइड तैयार नहीं थी। क्योंकि उसके पहले के 20- 25 साल देश में मंदी की वजह से नई फैक्ट्रीयां, नए कारोबार उस तादाद में नहीं लग पाए थे। रातों रात नई फैक्ट्रियां लगना संभव नहीं थी, इसलिये सप्लाई साइड की इनएफिशिएंसी के बावजूद बाजार उछलता रहा।
बाप दादाओं के खेत बेचकर स्कॉर्पियो खरीदने वाला एक नया वर्ग पैदा हुआ। विदेश यात्राएं, होटलिंग, महंगा इंटीरियर डेकोरेशन, बड़ी कारें, नए मॉडल के मोबाइल। पान ठेलों पर दिन काटने वाले आवारा लड़के जब जमीनों की दलाली में धनकुबेर बने, तो इन नये पीरों को अपने जैसे मुरीद चाहिए थे। उन्होंने आलीशान बंगले बनाए, जिनके बाथरूम में पचास हज़ार का एक नल लगाने को आर्किटेक्ट और इंटीरियर डिजाइनर्स ने इसे कला का नाम दिया और बाल बढ़ा कर खुद को विंची और पिकासो के समकक्ष घोषित कर दिया।
आर्किटेक्टस के ऑफिस के बाहर ठेकेदार और कंपनियों के सेल्समैन लाइन लगाकर मंगल गीत गाते रहे, ताकि वे अपने देवत्व को भूलकर कहीं गरीबों के लिए अच्छे और सस्ते मकान बनाने की तकनीक ना खोजने में लग जाएं।
पिछले 20 सालों में हमारे डिजाइनर, इंजीनियर और उद्यमियों की ऊर्जा और समय इस आवारा पूंजी की अश्लील चाकरी में बीता। अपने देश की परिस्थितियों और गरीबी के हिसाब से कोई नया सस्ता मकान या अन्य कोई तकनीक ढूंढ़ने में किसी का ध्यान नहीं था..जैसे एक पार्टी चल रही थी,किसी ने यह नहीं सोचा इस दौरान कुछ ऐसा किया जाए कि पार्टी खत्म ना हो।
कोरोना इस तरह से वरदान है कि ईजी मनी के नशे में ग़ाफ़िल हमारे देश की प्रतिभाओं को शायद यह नींद से जगा दे। मजबूरी में ही सही हम अपने कंफर्ट जोन से बाहर आएं।
शायद हम सोचें कि ऑपरेशनल एफिशिएंसी क्या है कि मुंह बनाकर अंग्रेजी बोलना सिर्फ भाषाई योग्यता है, तरक्की के लिए मेहनत भी करनी होती है।
शायद हम सीखें कि 'आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग' का मुहावरा किसी कॉरपोरेट कांफ्रेंस में तालियां हासिल कर भूल जाने के लिए नहीं है, अब वह जिंदा बचे रहने की तरकीब है। शायद हमें एहसास हो कि धर्म और जाति नहीं गरीबी और भुखमरी अधिक महत्वपूर्ण है। और इस वक्त हमें एक दूसरे का हाथ पकड़कर इस मुसीबत से पार पाना है।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब दुनिया ने जर्मनी का बहिष्कार कर दिया, तब वहां के इंजीनियरों ने लगभग हर मामले में अपने देश को आत्मनिर्भर बना लिया। हर आपदा हमें झकझोरती है, हमें कंफर्ट जोन से निकालती है। कोरोना में यदि कुछ अच्छा है तो बस यही है ।
दोस्त शराफत खान का सवाल है कि- लोग भारतीय महाद्वीप में ही इतने बच्चे पैदा क्यों करते है जबकि अफ्रीका में यहाँ से ज़्यादा अशिक्षा और दरिद्रता है।
शराफत खान ने बहुत ठीक पकड़ा है। बच्चे पैदा करने का कारण अशिक्षा और दरिद्रता नहीं है
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और वातावरण भी नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण तो कुछ और ही है जिसे हम सब नकारते आए है।
यह बात झूठी है कि भारत कस्बों और गांवों में बसता है, असल में भारत कस्बों और गांवों में पैदा होता है और भाग कर शहरों में जा बसता है।
इन ग्रामीण और कस्बाई और कुछ शहरी लोगो में ही सबसे बड़ी समस्या छिपी है। वह समस्या है रंगदारी, दादागिरी। हर कस्बाई और ग्रामीण अपने क़स्बे और गांव में यह फिर शहरों के किसी विशेष इलाके में अपनी दबंगई चाहता है। यह दबंगई संख्या से मिलती है। हर ग्रामीण ख़ूब बच्चे पैदा करके खासकर लड़के पैदा करके गांव में दादागिरी चाहता है। कस्बों में धनवान वही बनता है जो खूब सारे बच्चे पैदा करता है क्योंकि फिर यह खूब सारे बच्चे वाले कम बच्चो वालो को ठोका पीटा करते है और रंगदारी से माल कमाते है, चुनाव जीतते लड़ते है।
लोकतंत्र ने तो और अधिक बच्चे पैदा करने की सनक को जन्म दिया है। भारत की बढ़ती जनसंख्या का कारण लोकतंत्र भी है। लोग यहां खूब बच्चे जन कर प्रधान सरपंच बनना चाहते है। मार धाड़ करके मंदिर मस्जिद पर कब्जे जमाना चाहते है।
मंझले शहरों के भी थोड़े बहुत यही हाल है। वहां भी गुंडागर्दी चलाने के लिए पांच से सात लड़के पैदा करना लक्ष्य होता है। मैं देखता हूँ इंदौर के सारे बड़े बड़े माफिया लोगों के माता पिता ने खूब बच्चे जने है और बड़ी बड़ी बिरादरियां बनायी है। कभी कभी इन लड़को के चक्कर में अनचाही लड़कियां पैदा होती है। दो लड़कों के चक्कर में पांच लड़कियां पैदा की जाती है।
आप कितने भी लोगों को संगठित कर लो पर व्यक्तिगत लड़ाई दंगे तो परिवार के लोग ही करते है, रंगदारी तो वही जमवाते है। सारे भारत का यही हाल है।
सरकारों में भी यही लोग बैठे रहे। इन लोगों ने जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए कोई कानून नहीं बनाया। आज़ादी के बाद ही एक बच्चा नियम कर देना था और दूसरे बच्चे पर नागरिक अधिकार छीन लिए जाने का प्रावधान कर देना था। नेहरू ने यहां मात खायी है क्योंकि इस प्रवृत्ति पर उनका ध्यान नहीं गया वरना नेहरू से बड़ा क्रांतिकारी भारत में कोई नहीं हुआ, नेहरू का इस पर थोड़ा भी ध्यान जाता तो कहीं न कहीं तो लपेट ही देते। इंदिरा ने प्रयास किया था परंतु फेल हो गयी थी। मोदी यह कर सकते है उनके पास समय भी है और शक्ति भी है।
गुंडागर्दी समाप्त करनी है, धरती का बोझ कम करना है, शांति को जन्म देना है और देश को बचाना है तो यह कर ही दिया जाना चाहिए। अगले सौ साल बाद का भारत बहुत सुंदर होगा।
शोषित अ और शोषक ब की आंख मिचौली- अ हिन्दू तो ब पुजारी अ मजदूर तो ब ठेकेदार अ मुसलमान तो ब मौलाना अ मरीज तो ब डॉक्टर अ बौद्ध तो ब भिक्षु अ वोटर तो ब नेता शोषित की किस्मत न धर्म बदलने से सुधरेगी न जाति बदलने से। यह तभी सुधरेगी
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जब वह अपनी बुद्धि को लगातार एक्टिव मोड में रखेगा।
एक बड़ी ऊंची बात बाज़ार में चलने लगी है। वे बात यह है कि- बैक बेंचर्स बड़े महान लोग बन जाते है।बैक बेंचर्स कहलाना बड़ा ट्रेंड हो गया है। मैं तो बड़ा बैक बेंचर्स और निकम्मा नहीं पढ़ने लिखने वाला
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था या थी और देखिए आज कितना कामयाब हूँ।
यह सब मूर्खता और झूठ फैलाने वाली बातें है और नितांत अव्यवहारिक बात है। सारे बैक बेंचर्स महान ही नहीं होते, सब मार्क जुकरबर्ग, कबीर और कितनी लिस्ट है आपके पास दस बीस लोगों की वे ही नहीं बनते है, कहीं दो चार यह महान लोग बन गए बाकी का भी ज़रा हाल पूछ कर आओ। और तुम्हे यही बैक बेंचर्स महान दिखते है पढ़ने लिखने वाले महान बने बच्चे तुम्हे नज़र नहीं आते है ज़रा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का रिज़्यूमे देखना आंखे फटी रह जायेगी, पांचवी क्लास से टॉप करते आ रहे है।
मैं अपने जीवन के लोग बताता हूँ। मेरे साथ के बहुत सारे पढ़े लिखे जो पढ़ने लिखने में बहुत अव्वल थे सॉफ्टवेयर इंजीनियर हुए और आज बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते है और करोड़ो कमाते है वे भी घर बैठकर।कितने चार्टर्ड अकाउंटेंट और कितने अफसर भी हुए और बाकी कुछ अच्छे कामयाब लोग है हालांकि कुछ पढ़ने लिखने वाले पीछे भी रह गए और आज भी बेरोजगार है पर उनकी संख्या दो चार है।
बैक बेंचर्स का क्या हुआ? बताता हूँ। उनमे आधे धक्के लगाकर 12वी पास हुए और आधे दसवीं बारवी के ऊपर ही नहीं जा पाए। जैसे तैसे आर्ट्स या कॉमर्स से कॉलेज निकाला और कॉलेज निकाल कर बेरोजगार हो गए। जो अमीर घरो के थे या जिनके पिता के पास अच्छे काम थे उन्होंने तो वे काम संभाल लिए और जिनके पिता फक्कड़ थे वह कॉल सेंटर में नोकरी या गली गली भटक कर मार्केटिंग की नोकरी करने लगे अब उनकी शादियां हो गयी है और बच्चे पालना उनके लिए कयामत से कम नहीं है।
बाकी जो दसवीं बारवी के ऊपर भी नहीं जा पाए उनका भी हाल सुनिए। उनमे भी यही हुआ जो अमीर घरो के थे वह तो बच गए पर जो बिल्कुल लुल थे और न्यूट्रल वह सब तो नोकरी के लायक भी नहीं थे क्योंकि कोई उन्हें कॉल सेंटर में भी नहीं रखता क्योंकि वह भी बारवी पास या ग्रेजुएट मांगते थे।
अब वह आपके यह मस्ताने बैक बेंचर्स ऑटो रिक्शा वह भी किराये की चलाते है, इंदौर के सीतलामाता बाजार में किसी बनिये की कपड़े की दुकान पर काम करते है वह भी आज इस जबरदस्त महंगाई में आठ से दस हजार रुपए महीना में। कुछ जिनके पास उम्र बची थी वह कार और बाइक के मेकेनिक हो गए और बड़े सर्विस सेंटर पर दस बारह हजार में काम करने लगे। इन बैक बेंचर्स में कुछ ट्रैक्टर भी चला रहे है, कुछ जूते चप्पल की दुकान पर काम कर रहे है।
इन बैक बेंचर्स में कुछ ने तो वह कालजयी प्रोफेशन प्रोपर्टी ब्रोकर इख्तियार कर लिया। इतना याद रखना प्रोपर्टी ब्रोकर मतलब कुछ नहीं करने की अपनी बेबसी और बेकारी पर पर्दा डालना है।
बैक बेंचर्स को महिमामंडित करना बंद कीजिए और बच्चों को बैक बेंचर्स बनने के लिए उत्साहित करना भी फ़ौरन बंद कीजिए। बैक बेंचर्स कुछ नहीं होते है, कहीं लाखो में दो चार निकल आते है, इन दो चार के चक्कर में आपने उन असंख्य बच्चो की अनदेखी कर दी जो पढ़ने लिखने में लाजवाब थे और बहुत बड़े आदमी बने।
पुलिस चालान क्या होता है, लेख के माध्यम से आप चालान को आसानी से बहुत विस्तार में समझ सकते है। कभी न कभी आपका भी कोरट कचहरी से पाला पड़ सकता है या पड़ ही रहा हो।
ऐसी जानकारियां यूँ तो रुपयों में दी जाती है
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पर यहां निशुल्क दी जाएगी। यह आप लाइव लॉ न्यूज़ पोर्टल पर भी पढ़ सकते है, यह पोर्टल सुप्रीम कोर्ट के कुछ अच्छे दानिशवर वकीलों की बनायी हुई है जो भारतीय जनमानस तक कानून की जानकारी के उद्देश्य से चलायी जा रही है।
चालान क्या होता है या पुलिस रिपोर्ट एवं धारा 173 का अर्थ-
पुलिस द्वारा न्यायालय में पेश किया जाने वाला चालान एक सामान्य सा शब्द है और नए लॉ छात्रों के लिए यह शब्द कभी-कभी कठिनाई का विषय बन जाता है। इस आलेख के माध्यम से धारा 173 के अंतर्गत 'चालान' पर प्रकाश डाला जा रहा है।
'चालान' अंतिम प्रतिवेदन-
पुलिस अपने अन्वेषण में अलग-अलग स्तर पर रिपोर्ट प्रेषित करती है। पुलिस अन्वेषण के चरणों में तीन प्रकार की रिपोर्ट भेजती है, धारा 157 के अधीन पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी मामले की प्रारंभिक रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को प्रेषित करता है।
दूसरी रिपोर्ट उसे कहा जाता है जो इस संहिता की धारा 168 में यह अपेक्षित है कि अधीनस्थ पुलिस अधिकारी द्वारा अपराध के मामले की रिपोर्ट संबंधित थाने के भारसाधक पुलिस अधिकारी को भेजी जानी चाहिए।
तीसरी रिपोर्ट जिसे चालान कहा जाता है उसे धारा 173 के अंतर्गत अन्वेषण की समाप्ति हो जाने के पश्चात पुलिस द्वारा मामले की अंतिम रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है। एक प्रकार से अंतिम प्रतिवेदन भी कहा जाता है।
यह पुलिस द्वारा की गयी समस्त अन्वेषण की कार्यवाही का एक ब्योरा होता है जो कि मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
इसे दो नामों से जाना जाता है। साधारण भाषा में इसे पुलिस चालान कहा जाता है परंतु विधि के संदर्भ में यहां पर अंतिम प्रतिवेदन अर्थात अंग्रेजी में फाइनल रिपोर्ट कहा जाता है।
हरदीप सिंह बनाम पंजाब राज्य एआईआर 2009 उच्चतम न्यायालय 483 के वाद में पुलिस द्वारा अन्वेषण की अंतिम रिपोर्ट मजिस्ट्रेट न्यायालय को सौंपी जाने को आपराधिक कार्यवाही का एक महत्वपूर्ण चरण मानते हुए अभिकथन किया गया-
'इसे अन्वेषण पूर्ण होते ही मजिस्ट्रेट को प्रेषित किया जाना आवश्यक है यह रिपोर्ट निर्धारित प्रपत्र में प्रेषित की जानी चाहिए तथा इसमें धारा 173 की धारा दो का मजबूती से पालन किया जाना चाहिए'
धारा 173 के अंतर्गत पुलिस की अंतिम रिपोर्ट के संदर्भ में संपूर्ण जानकारियां दी गयी है। वह संपूर्ण प्रावधान रखे गए है कि पुलिस की अंतिम रिपोर्ट के भीतर किन-किन चीजों को शामिल किया जाएगा और क्या क्या रिपोर्ट में स्थान होगा तथा रिपोर्ट कब प्रस्तुत की जाएगी।
अनावश्यक विलंब के बिना अन्वेषण का पूरा किया जाना-
धारा 173 उपधारा (1) इस बात का उल्लेख करती है के बगैर विलंब के अन्वेषण पूरा किया जाना चाहिए तथा शीघ्र से शीघ्र अन्वेषण पूरा होते ही यह रिपोर्ट मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जाने चाहिए।
अंतिम प्रतिवेदन प्रस्तुत करने की निश्चित अवधि-
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 आजीवन कारावास और मृत्युदंड से दंडित अपराधों के लिए अधिकतम 3 महीने की अवधि का समय अंतिम प्रतिवेदन रिपोर्ट पेश करने के लिए पुलिस को देती है और आजीवन कारावास से कम अवधि के कारावास से दंडित अपराधों के लिए 60 दिन का समय पुलिस अधिकारी को या जांच एजेंसी को अपनी रिपोर्ट पेश करने के लिए दिया जाता है।
यदि जांच एजेंसी या पुलिस अधिकारी इस समय अवधि के भीतर अपनी पुलिस रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं करता है तो अभियुक्त जमानत प्राप्त करने का अधिकारी होता है, परंतु दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 के अंतर्गत कहीं पर भी किसी विशेष समय अवधि का कतई प्रावधान नहीं किया गया है, केवल बलात्कार के मामले में मामले में 3 माह के भीतर अन्वेषण पूरा करने का प्रावधान धारा 173 के अंतर्गत रखा गया है कोई समय अवधि नहीं है।
आरोप के संदर्भ में संपूर्ण जानकारी-
धारा 173 उपधारा (2) इस धारा की महत्वपूर्ण उपधारा है। इस धारा के अंतर्गत वह समस्त बातें दी गयी है जिसका उल्लेख पुलिस अपनी रिपोर्ट में करेगी। उन बातों का स्पष्ट उल्लेख दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 की उपधारा 2 के अंतर्गत कर दिया गया है। पुलिस अपना अंतिम प्रतिवेदन धारा 173 (2) के अंतर्गत ही मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करती है।
धारा 173 (2) के अंतर्गत दी जाने वाली जानकारियां निम्नलिखित है-
पक्षकारों के नाम.
सूचना का स्वरूप.
मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होने वाले व्यक्तियों के नाम.
क्या कोई अपराध किया गया है प्रतीत होता है यदि किया गया प्रतीत होता है तो किसके द्वारा.
क्या अभियुक्त गिरफ्तार कर लिया गया है.
क्या बंद पत्र पर छोड़ दिया गया है यदि छोड़ दिया गया है तो वह बंद पत्र पत्र प्रतिभू सहित है या प्रतिभू रहित है.
क्या बात धारा 170 के अधीन अभिरक्षा में भेजा जा चुका है.
धारा 173 की उपधारा (5)-
सामान्यता पुलिस द्वारा अंतिम रिपोर्ट के साथ सभी आवश्यक दस्तावेज संलग्न करके मजिस्ट्रेट को भेजे जाते है, परंतु यदि इनमें से कुछ दस्तावेज पुलिस द्वारा अंतिम रिपोर्ट के साथ ना भेजे गए हो तो इसके कारण पुलिस द्वारा प्रेषित रिपोर्ट आग्रहम( जिसे साक्ष्य में स्वीकार नहीं किया जाए) नहीं हो जाती।
पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित प्रत्यक्ष कार्यवाही में धारा 207 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट से यह उपेक्षा की जाती है कि वह उपधारा में उल्लेखित सभी दस्तावेजों की प्रतियां अभियुक्त को उपलब्ध कराएं।
इन दस्तावेजों में वह दस्तावेज भी शामिल थे। धारा 173 (5) में उल्लेखित है सुविधा की दृष्टि से वह धारा साथ में यह व्यवस्था की गयी है कि यदि अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी अभियुक्तों को धारा 5 में दर्शाए गए सभी दस्तावेजों को देना सुविधाजनक समझता है ऐसा कर सकता है।
धारा 173 की उपधारा (5) स्पष्ट इस बात का उल्लेख कर रही है के अभियोजन जिन साक्ष्य के आधार पर चलेगा जिनमें कोई वस्तुएं भी हो सकती है यदि उन्हें मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश नहीं किया गया है तो धारा 173 के अंतिम प्रतिवेदन के साथ धारा 161 के बयान जो पुलिस के समक्ष दिए जाते हैं उन्हें भी अंतिम प्रतिवेदन के साथ लगा दिया जाए।
धारा 173 की उपधारा (8) महत्वपूर्ण धारा है-
173 धारा की उपधारा (8) के अंतर्गत अन्वेषण को अधिकृत करती है कि अंतिम रिपोर्ट फाइल कर दी गयी है, इसके पश्चात भी यदि आवश्यक हो तो अन्वेषण कार्यवाही जारी रख सकती है। पुलिस की भले ही उस रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय ने अपराध का संज्ञान कर लिया हो।
उच्चतम न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि जब तक अनवेषण अधिकारी द्वारा धारा 173 (2) के अंतर्गत अंतिम रिपोर्ट न्यायालय को प्रेषित नहीं कर दी जाती है यह माना जाएगा कि अन्वेषण कार्रवाई जारी है। कतिपय परिस्थितियों में इस धारा की उपधारा 8 के अंतर्गत अंतिम रिपोर्ट न्यायालय को प्रेषित कर दी जाने के पश्चात भी आगे अन्वेषण अनुज्ञ है, भले ही मजिस्ट्रेट ने अपराध का संज्ञान कर लिया हो।
अन्वेषण अधिकारी की अन्वेषण करने की शक्ति समाप्त नहीं होती है। यदि कोई आरोपी फरार है जिनके नाम अभियोजन में है तो ऐसे फरार आरोपियों के संदर्भ में धारा 173 की उपधारा 8 का प्रयोग किया जाता है और अन्वेषण को जारी रखा जाता है। अन्वेषण अधिकारी जो आरोपी उपस्थित होते है उनके लिए अंतिम प्रतिवेदन पेश कर देता है।
कारी चौधरी बनाम श्रीमती सीता देवी एआरआई 2002 सुप्रीम कोर्ट 441 के वाद में मृतका की हत्या के बारे में एफआईआर उसकी सास द्वारा दर्ज करायी गयी जिसके आधार पर अन्वेषण प्रारंभ किया गया।
अन्वेषण के दौरान पुलिस ने पाया कि सास द्वारा दर्ज करायी गयी प्राथमिकी झूठी थी और वास्तव में मृतका की हत्या के लिए सास ही दोषी थी।
उसने यह हत्या नियोजित षड्यंत्र पूर्वक की थी, अतः पुलिस ने मजिस्ट्रेट को सूचित किया कि सास द्वारा दायर की गयी प्रथम सूचना रिपोर्ट झूठी थी। मजिस्ट्रेट ने उक्त रिपोर्ट स्वीकार कर ली परंतु अभियुक्ता द्वारा इसके विरुद्ध उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण आवेदन किया जाने पर उच्च न्यायालय ने मजिस्ट्रेट द्वारा दिया गया आदेश रद्द कर दिया। पुलिस ने अपनी अन्वेषण कार्यवाही जारी रखते हुए न्यायालय को सूचित किया कि उसने दूसरी प्राथमिकी दर्ज कर ली है। इस आधार पर सास के विरुद्ध आरोपपत्र विरचित किया गया। सास के विरुद्ध प्रारंभ की गयी दांडिक कार्यवाही को उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया।
उच्च न्यायालय के उक्त निर्णय के विरुद्ध अपील में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि यह कहना कि- पुलिस द्वारा अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत कर दिए जाने पर सास द्वारा दायर की गयी प्राथमिकी झूठी थी उसके विरुद्ध कार्यवाही संस्थित की जाना जिसे की उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था पुलिस द्वारा सास के विरुद्ध दूसरी प्राथमिकी दर्ज करके कार्यवाही नहीं की जा सकती न्यायोचित नहीं होगा। अतः हत्या जैसे जघन्य अपराध के मामले में पुलिस द्वारा दूसरी प्राथमिकी दर्ज करके अन्वेषण कार्यवाही की जाना उचित था अपील स्वीकार की गयी।
हरमिंदर पाल सिंह बनाम पंजाब राज्य 2004 क्रिमिनल लॉ 2648 के वाद में पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने विनीत किया है कि-
जहां किसी भ्रष्टाचार के प्रकरण में पुलिस द्वारा अंतिम अन्वेषण रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी हो लेकिन उसे न्यायालय द्वारा स्वीकार ना कि जाकर मामले का पुनः अन्वेषण आदेशित किया गया हो वह न्यायालय के आदेश का अनुपालन करते हुए पुनः अन्वेषण के पश्चात पुलिस पुनः अपने पूर्ववर्ती निष्कर्ष पर पहुंची हो कि अभियुक्त का रिश्वत लेने का कोई उद्देश्य प्रकट नहीं होता है।
ऐसी दशा में न्यायालय मामले का तीसरी बार फिर से अन्वेषण किए जाने का आदेश नहीं दे सकेगा। इसका कारण स्पष्ट करते हुए न्यायालय ने कथन किया है कि पुलिस द्वारा मामले के पुनः अन्वेषण से इंकार ना किया जाना तथा ऐसे अन्वेषण के पश्चात अपने पूर्ववर्ती निष्कर्ष पर कायम रहना यह दर्शाता है कि पुलिस ने प्रकरण का भली-भांति अन्वेषण कर लिया है और किसी नए आधार के बिना उसका तृतीय बार अन्वेषण कराया जाना व्यर्थ होगा।
कोरोना के संदर्भ में पिछले दो दिन भारत के मामले में थोड़ा सा अधिक नकारात्मक रहे। इन दो दिनों में प्रति मृत्यु के सापेक्ष ठीक होने वालों की संख्या 20 से कम(16) रही है। । इन्हीं दो दिनों में नए मरीजों की संख्या भी 10 हजार से
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काफी ज्यादा रही। । ऐसा लगता है कि मरीजों की बढ़ती संख्या के कारण कुछ नए डॉक्टरों की सेवाएं इस क्षेत्र में ली गयी होंगी। । यदि मेरा विश्लेषण ठीक है तो एक बार पुनः उन क्षेत्रों में सतर्कता बढ़ाने की जरूरत है जहाँ मौतों का अनुपात अधिक आ रहा है। । यदि 10 और 11 जून को छोड़ दें तो अभी तक भारत में कोरोना से मुकाबला करने के लिए जो कुछ भी किया गया है वह विश्व की तुलना में काफी ज्यादा अच्छा रहा है। । सक्रिय केसों की वृद्धि दर लगातार घट रही है और इस समय यह प्रतिदिन 3.5% से नीचे चल रही है। संख्या के आकार से घबराने की जरूरत नहीं है। बल्कि यह समझने की जरूरत है कि किनको हो रहा है और किनको नहीं हो रहा है। होने के बाद कौन मर रहे हैं और कौन नहीं मर रहे हैं। जनपद बहराइच में करीब एक लाख तथा श्रावस्ती में करीब 30 हजार मजदूर बाहर से लौटे हैं। ज्यादातर मरीज इन्हीं में से निकले हैं। यहां तक कि इनके घर वाले भी उतनी संख्या में संक्रमित नहीं हुए। इसका मतलब ग्रामीण जीवन शैली में पर्याप्त रोग प्रतिरोधक क्षमता है। इन दोनों जिलों में 130 से ज्यादा हुए मरीजों में कोरोना के कारण शायद एक मौत हुई है। एक अन्य मौत में दूसरे स्वास्थ्य कारणों का भी असर था। एक का अभी मुझे पता नहीं चला है। इसका मतलब यह है कि ग्रामीण खानपान भी रोग का मुकाबला करने के लिए काफी हद तक उपयुक्त है। । यह मेरा अपना विचार है कि लोगों को चिकनाई का प्रयोग कम कर देना चाहिए। तली हुई चीजें तो बिल्कुल नहीं खानी चाहिए। । ताजे फल सब्जियों का ज्यादा प्रयोग करना चाहिए। तथा परिश्रम, कसरत, प्राणायाम आदि करते रहना चाहिए।
मुसीबत को अवसर बनाने के अपने अपने तरीके- 1- भारत के pm ने कोरोना से लड़ने के लिए थाली बजवाई और दिए जलवाए। और एक प्रकार से धार्मिक अंधविश्वास की कमजोर होती जड़ों को मजबूत करने की कोशिश की। 2 चीन 'बायकाट चाइना' लिखी बनियाइन बनाकर दुनिया
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भर को बेचने जा रहा है।
#माइकल_जैक्सन 150 साल जीना चाहता था ! किसी से साथ हाथ मिलाने से पहले दस्ताने पहनता था! लोगों के बीच में जाने से पहले मुंह पर मास्क लगाता था !अपनी देखरेख करने के लिए उसने अपने घर पर 12 डॉक्टर्स नियुक्त किए हुए थे !जो
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उसके सर के बाल से लेकर पांव के नाखून तक की जांच प्रतिदिन किया करते थे ! उसका खाना लैबोरेट्री में चेक होने के बाद उसे खिलाया जाता था! स्वयं को व्यायाम करवाने के लिए उसने 15 लोगों को रखा हुआ था! माइकल जैकसन अश्वेत था,उसने 1987 में प्लास्टिक सर्जरी करवाकर अपनी त्वचा को गोरा बनवा लिया था!अपने काले मां-बाप और काले दोस्तों को भी छोड़ दिया!गोरा होने के बाद उसने गोरे मां-बाप को किराए पर लिया! औरअपने दोस्त भी गोरे बनाए शादी भी गोरी औरतों के साथ की ! माइकल ने अपनी नर्स डेबी रो से विवाह किया,जिसने प्रिंस माइकल जैक्सन जूनियर (1997) तथा पेरिस माइकल केथरीन (3 अपैल 1998) को जन्म दिया।वो डेढ़ सौ साल तक जीने के लक्ष्य को लेकरचल रहा था! हमेशा ऑक्सीजन वाले बेड पर सोता था उसने अपने लिए अंगदान करने वालेडोनर भी तैयार कर रखे थे! जिन्हें वह खर्चा देता था,ताकि समय आने पर उसे किडनी, फेफड़े, आंखेंया किसी भी शरीर के अन्य अंग की जरूरत पड़ने पर वह आकर दे दें, उसको लगता था वह पैसे और अपने रसूख की बदौलत मौत को भी चकमा दे सकता है, लेकिन वह गलत साबित हुआ 25 जून 2009 को उसके दिल की धड़कनरुकने लगी, उसके घर पर 12 डॉक्टर की मौजूदगी मेंहालत काबू में नहीं आए,सारे शहर के डाक्टर उसके घर पर जमा हो गएवह भी उसे नहीं बचा पाए । उसने 25 साल तक डॉक्टर की सलाह के विपरीत, कुछ नहीं खाया ! अंत समय में उसकी हालत बहुत खराब हो गई थी 50 साल तक आते-आते वह पतन के करीब ही पहुंच गया थाऔर 25 जून 2009 को वह इस दुनिया से चला गया !जिसने अपने लिए डेढ़ सौ साल जीने का इंतजाम कर रखा था ! उसका इंतजाम धरा का धरा रह गया ! जब उसकी बॉडी का पोस्टमार्टम हुआ तोडॉक्टर ने बताया कि,उसका शरीर हड्डियों का ढांचा बन चुका था!उसका सिर गंजा था, उसकी पसलियां कंधे हड्डियां टूट चुके थे, उसके शरीर पर अनगिनत सुई के निशान थे, प्लास्टिक सर्जरी के कारण होने वाले दर्द सेछुटकारा पाने के लिए एंटीबायोटिक वालेदर्जनों इंजेक्शन उसे दिन में लेने पड़ते थे ! माइकल जैक्सन की अंतिम यात्रा को 2.5 अरब लोगो ने लाइव देखा था। यह अब तक की सबसे ज़्यादा देखे जाने वाली लाइव ब्रॉडकास्ट हैं। माइकल जैक्सन की मृत्यु के दिन यानी 25 जून 2009 को 3:15 PM पर, Wikipedia, Twitter और AOL’sinstant Messenger यह सभी क्रैश हो गए थे।उसकी मौत की खबर का पता चलता हीगूगल पर 8 लाख लोगों ने माइकल जैकसन को सर्च किया!ज्यादा सर्च होने के कारण गूगल पर सबसे बड़ा ट्रैफिक जाम हुआ था! औरगूगल क्रैश हो गया,ढाई घंटे तक गूगल काम नहीं कर पाया!
1- Always remember that you are absolutely unique. Just like everyone else. - Margaret Mead
2- An epidemic of laughing that lasted almost a year broke out in Tanganyika (now Tanzania) in 1962. Several thousand people were affected, across several villages.
3- Do not take life too
...
seriously. You will never get out of it alive. - Elbert Hubbard