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user image Arvind Swaroop Kushwaha - 07 May 2020 at 5:27 AM -

शतरंज के खिलाड़ी

Hindi Kahani
हिंदी कहानी

Shatranj Ke Khiladi
Munshi Premchand

शतरंज के खिलाड़ी
मुंशी प्रेम चंद

वाजिदअली शाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था , तो कोई अफीम की ... पीनक ही के मजे लेता था। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद को प्राधान्य था। शासन विभाग में, साहित्य क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में, कला कौशल में, उद्योग-धन्धों में, आहार-विहार में, सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही था। कर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में , व्यावसायी सुर में, इत्र मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त था। सभी की आँखो में विलासिता का मद छाया हुआ था। संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी। बटेर लड़ रहे है। तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है। कही चौरस बिछी हुई है। पौ बारह का शोर मचा हुआ है। कही शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे। यहाँ तक कि फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न लेकर अफीम खाते या मदक पीते। शतरंज ताश, गंजीफा खेलने में बुद्धि तीव्र होती है, विचार शक्ति का विकास होता है, पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है, ये दलील जोर के साथ पेश की जाती थी। ( इस सम्प्रदाय के लोगो से दुनिया अब भी खाली नही है।) इसलिए अगर मिर्जा सज्जाद अली और मीर रौशन अली अपना अधिकांश समय बुद्धि-तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसी जागीरें थी, जीविका की कोई चिन्ता न थी। घर बैठे चखोतियाँ करते। आखिर और करते ही क्या? प्रातःकाल दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछा कर बैठ जाते, मुहरे सज जाते और लड़ाई के दाँवपेच होने लगते थे। फिर खबर न होती थी कि कब दोपहर हुई कब तीसरा पहल, कब शाम। घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता था - 'खाना तैयार है।' यहाँ से जबाव मिलता - 'चलो आते है, दस्तर ख्वान बिछाओ।' यहाँ तक कि बावरची विवश होकर कमरे में ही खाना रख जाता था, और दोनो मित्र दोनो काम साथ-साथ करते थे। मिर्जा सज्जाद अली के घर में कोई बड़ा-बूढा न था, इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाजियाँ होती थी; मगर यह बात न थी कि मिर्जा के घर के और लोग उसके व्यवहार से खुश हो। घरवाली का तो कहना ही क्या, मुहल्ले वाले, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेषपूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे 'बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे किसी को इसकी चाट पड़े। आदमी दीन दुनिया किसी के काम का नही रहता, न घर का न घाट का। बुरा रोग है यहाँ तक कि मिर्जा की बेगम इससे इतना द्वेष था कि अवसर खोज-खोज कर पति को लताड़ती थी। पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था । वह सोचती रहती थी, तब तक उधर बाजी बिछ जाती था। और रात को जब सो जाती थी, तब कही मिर्जा जी भीतर आते थे। हाँ नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थी - 'क्या पान माँगे है? कह दो आकर ले जायँ। खाने की भी फुर्सत नही हैं? ले जाकर खाना सिर पटक दो, खायँ चाहे कुत्ते को खिलावें।' पर रूबरु वह कुछ न कह सकती थी। उनको अपने पति से उतना मलाल न था जितना मीर साहब से। उन्होंने उसका नाम मीर बिगाड़ू रख छोड़ा था। शायद मिर्जा जी अपनी सफाई देने के लिए सारा इल्जाम मीर साहब ही के सिर थोप देते थे। 
एक दिन बेगम साहिबा के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौड़ी से कहा - 'जाकर मिर्जा साहब को बुला लो। किसी हकीम के यहाँ से दवा लाये। दौड़, जल्दी कर।' 
लौड़ी गयी तो मिर्जा ने कहा - 'चल, अभी आते है।' 
बेगम का मिजाज गरम था। इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो, और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौड़ी से कहा - 'जाकर कह, अभी चलिए नही तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जायँगी।' 
मिर्जा जी बड़ी दिलचस्प बाजी खेल रहे थे, दो ही किश्तो में मीर साहब की मात हुई जाती थी, झँललाकर बोले - 'क्या ऐसा दम लबो पर है? जरा सब्र नही होता?' 
मीर - अरे, तो जाकर सुन ही आइए न। औरते नाजुक-मिजाज होती है। 
मिर्जा - जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ। दो किश्तों में आपको मात होती है। 
मीर - जनाब, इस भरोसे में न रहिएगा। वह चाल सोची है कि आपके मुहरे धरे रहें, औऱ मात हो जाए। पर जाइए, सुन आइए, क्यों ख्वामह-ख्वाह उनका दिल दुखाइएगा? 
मिर्जा - इसी बात पर मात ही कर के जाऊँगा। 
मीर - मै खेलूँगा ही नही। आप जाकर सुन आइए। 
मिर्जा - अरे यार जाना, ही पड़ेगा हकीम के यहाँ। सिर-दर्द खाक नही है, मुझे परेशान करने का बहाना है। 
मीर - कुछ भी हो, उनकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी। 
मिर्जा - अच्छा, एक चाल और चल लूँ। 
मीर - हरगिज नही, जब तक आप सुन न आवेंगे, मै मुहरे में हाथ न लगाऊँगा। 
मिर्जा साहब मजबूर होकर अन्दर गये तो बेगम साहबा ने त्योरियाँ बदल कर लेकिन कराहते हुए कहा - तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है! चाहे कोई मर ही जाय, पर उठने का नाम नही लेते! नौज कोई तुम जैसा आदमी हो! 
मिर्जा - क्या कहूँ, मीर साहब मानते ही न थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ। 
बेगम - क्या जैसे वह खुद निखट्टू ही, वैसे ह सबको समझते है? उनके भी बाल बच्चे है, या सबका सफाया कर डाला है! 
मिर्जा - बड़ा लती आदमी है। जब आ जाता है तब मजबूर होकर खेलना पड़ता है। 
बेगम - दुत्कार क्यो नही देते? 
मिर्जा - बराबर का आदमी है, उम्र में, दर्जें मे, मुझसे दो अंगुल ऊँचे। मुलाहिजा करना ही पड़ता है। 
बेगम - तो मै ही दुत्कार देती हूँ। नाराज हो जायेंगे, हो जाएँ। कौन किसी की रोटियोँ चला देता है। रानी रूठेगी, अपना सुहाग लेंगी। हिरिया, बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना, मियाँ अब न खेलेगे, आप तशरीफ ले जाइए। 
मिर्जा - हाँ-हाँ, कहीं ऐसा गजब भी न कर ना! जलील करना चाहती हो क्या? ठहर हिरिया, कहाँ जाती है! 
बेगम - जाने क्यों नही देते? मेरे ही खून पिए, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोका, मुझे रोको तो जानूँ। 
यह कहकर बेगम साहिबा इल्लायी हुई दीवानखाने की तरफ चली। मिर्जा बेचारे का रंग उड़ गया। बीवी की मिन्नते करने लगे - खुदा के लिए, तुम्हे हजरत हुसेन की कसम। मेरी ही मैयत देखे, जो उधर जाए।' 
लेकिन बेगम ने एक न मानी। दीवानखाने के द्वार तक चली गयी। पर एकाएक पर पुरुष के सामने जाते हुए पाँव बँध गए। भीतर झाँका, संयोग से कमरा खाली था; मीर साहब ने दो मुहरे इधर-उधर कर दिये थे और अपनी सफाई बताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेगम ने अन्दर पहुँच कर बाजी उलट दी; मुहरे कुछ तख्त के नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर और किवाड़ अन्दर से बन्द करके कुंड़ी लगा दी। मीर साहब दरवाजे पर तो थे ही, मुहरे बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाजा बन्द हुआ, तो समझ गये बेगम बिगड़ गयी। घर की राह ली। 
मिर्जा ने कहा - तुमने गजब किया। 
बेगम - अब, मीर साहब इधर आये तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी। इतनी लौ खुदा से लगाते तो क्या गरीब हो जाते? आप तो शतरंज खेले और मैं यहाँ चूल्हे चक्की की फिक्र में सिर खपाऊँ। बोलो, जाते हो हकीम के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है। 
मिर्जा घर से निकले तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे, और सारा वृतान्त कहा। मीर साहब बोले - मैने तो जब मुहरे बाहर आते देखे तभी ताजड गया। फौरन भागा। बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं। मगर आपने उन्हे यो सिर पर चढ़ा रखा है यह मुनासिब नही। उन्हें इससे क्या मतलब की आप बाहर क्या करते है। घर का इन्तजाम करना उनका काम है, दूसरी बातो से उन्हें क्या सरोकार? 
मिर्जा - खैर, यह तो बताइए, अब कहाँ जमाव होगा? 
मीर - इसका क्या गम? इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है? बस यही जमे। 
मिर्जा - लेकिन बेगम साहब को कैसे मनाऊँगा ? जब घर पर बैठा रहता था तब तो वह इतना बिगड़ती थी, यहाँ बैठक होग तो शायद जिन्दा न छोड़ेगी। 
मीर - अजी बकने भी दीजिए, दो-चार रोज में आप ही ठीक हो जायँगी। हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से जरा तन जाइए! 
मीर साहब की बेग किसी अज्ञात कारण से उनका घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थी। इसलिए वह उनके शतरंज प्रेम की कभी आलोचना न करती बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती तो याद दिला देती थी। इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील और गम्भीर है। लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीर साहब दिन भर घर में रहने लगे तो उन्हें बड़ा कष्ट होने लगा। उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गयी। दिन भर दरवाजे पर झाँकने को तरस जाती। 
उधर नौकरो में काना-फूसी होने लगी। अब तक दिन भर पड़े-पड़े मक्खियाँ मारा करते थे। घर में चाहे कोई आवे, चाहे कोई जाय, इनसे कुछ मतलब न था। आठों पहर की धौस हो गयी। कभी पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई लाने का। और हु्क्का तो किसी प्रेमी के हृदय की भाँति नित्य जलता ही रहता था। वे बेगम साहब से जा-जाकर कहते - हुजूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गई! दिन भर दौड़ते-दौड़ते पैरौ में छाले पड़ गये। यह भी कोई खेल है कि सुबह को बैठे तो शाम ही कर दी। घड़ी आध घड़ी दिल-बहलाव के लिए खेल लेना बहुत है। खैर, हमें तो कोई शिकायत नही, हुजूर के गुलाम हो, जो हुक्म होगा बजा ही लावेंगे, मगर यह खेल मनहूस है । इसका खेलने वाला कभी पनपता नही, घर पर कोई न कोई आफत जरूर आता है। यहाँ तक कि एक के पीछे मुहल्ले के मुहल्ले तबाह हो जाते देखे गये है। सारे मुहल्ले मे यही चर्चा होती रहती है । हुजूर का नमक खाते है। अपने आका की बुराई सुन-सुनकर रंज होता है। मगर क्या करे? इसपर बेगम साहिबा कहती - मै तो खुद इसको पसन्द नही करती, पर वह किसी की सुनते ही नही, क्या किया जाय? 
मुहल्ले में भी दो-चार पुराने जमाने के लोग थे। वे आपस में भाँति-भाँति के अमंगल की कल्पनाएँ करने लगे - अब खैरियत नही है। जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफिज। यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी। आसार बुरे है। 
राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फरियाद सुनने वाला न था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिची चली आती थी, और वह वेश्याओ में, भाँड़ो में और विलासता के अन्य अंगों की पूर्ति मे उड़ जाती थी। अँगरेजी कम्पनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता थी। कमली दिन-दिन भीग कर भारी होती जाती थी। देख में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी न वसूल होता था। रेसिडेन्ट बार-बार चेतावनी देता था, पर यहाँ लोग विलासिता के नशे में चूर थे। किसी के कान में जूँ न रेंगती थी। 
खैर, मीर साहब के दीवानखाने में शतरंज होते महीने गुजर गये। नये-नये नक्शे हल किये जाते, नये-नये बनाये जाते, नित नयी ब्यूह रचना होती; कभी-कभी खेलते-खेलते भिड़ हो जाती। तू-तू मै-मै तक की नौबत आ जाती। पर शीध्र ही दोनो में मेल हो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि बाजी उठा दी जाती. मिर्जा जी रूठ कर अपने घर में जा बैठते। पर रातभर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शान्त हो जाता था। प्रातःकाल दोनो मित्र दीवानखाने में आ पहुँचते थे। 
एक दिन दोनो मित्र बैठे शतरंज की दलदल में गोते लगा रहे थे कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ पहुँचा। मीर साहब के होश उड़ गये। यह क्या बला सिर पर आयी? यह तलबी किस लिये हुई ? अब खैरियत नही नजर आती! घर के दरवाजे बन्द कर लिये। नौकर से बोले - कह दो घर में नही है। 
सवार - घर में नही, तो कहाँ है? 
नौकर - यह मैं नही जानता। क्या काम है? 
सवार - काम तुझे क्या बतालाऊँ? हुजूर से तलबी है - शायद फौज के लिए कुछ सिपाही माँगे गये है। जागीरदार है कि दिल्लगी? मोरचे पर जाना पड़ेगा तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा। 
नौकर - अच्छा तो जाइए, कह दिया जायेगा। 
सवार - कहने की बात नही। कल मै खुद आऊँगा। साथ ले जाने का हुक्म हुआ है। 
सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिर्जा जी से बोले - कहिए, जनाब, अब क्या होगा? 
मिर्जा - बड़ी मुसीबत बै। कहीं मेरी भी तलबी न हो। 
मीर - कम्बख्त कल आने को कह गया है। 
मिर्जा - आफत है, और क्या! कहीं मोरचे पर जाना पड़ा तो बेमौत मरे। 
मीर - बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलें ही नही। कल से गोमती पर कहीं वीराने नें नक्शा जमें। वहाँ किसे खबर होगी? हजरत आकर लौट जायेंगे। 
मिर्जा - वल्लाह, आपको खूब सूझी! इसके सिवा औऱ कोई तदबीर नही है। 
इधर मीर साहब की बेगम उस सवार से कह रही थी - तुमने खूब ध्रता बतायी। उसने जवाब दिया - ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ। इनकी सारी अकल और हिम्मत तो शतरंजे चर ली। अब भूलकर भी घर न रहेंगे। 
दूसरे दिन से दोनों मित्र मुँह अँधेरे घर से निकल खड़े होते। बगल में एक छोटी-सी दरी दबाये, डिब्बे में गिलोरियाँ भरे, गोमती पार कर एक पुरानी वीरान मस्जिद में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफउद्दौला ने बनवाया था। रास्ते में तम्बाकू, चिलम औऱ मदरिया ले लेते और मस्जिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भर शतरंज खेलने बैठ जाते थे। फिर उन्हें दीन-दुनिया की फिक्र न रहती थी। 'किस्त', 'शह' आदि दो-एक शब्दों के सिवा मुँह से और कोई वाक्य नही निकलता था। कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता। दो पहर को जब भूख मालूम होती तो दोनो मित्र किसी नानबाई की दूकान पर जाकर खाना खा आते और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम क्षेत्र में डट जाते। कभी कभी तो उन्हें भोजन का भी ख्याल न रहता था। 
इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चो को ले-ले कर देहातो में भाग रहे थे। पर हमारे दोनो खिलाड़ियो को इसकी जरा भी फिक्र न थी। वे घर से आते तो गलियो में होकर। डर था कि कही किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाय, नही तो बेगार में पकड़े जायँ हजारो रूपये सालाना की जागीर मुफ्त में ही हजम करना चाहते थे। 
एक दिन दोनो मित्र मस्जिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मिर्जा की बाजी कुछ कमजोर थी। मीर साहब को किश्त पर किश्त दे रहे थे। इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिये। यह गोरो की फौज थी जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी। 
मीर साहब - अंगरेजी फौज आ रही है खुदा खैर करे! 
मिर्जा - आने दीजिए, किश्त बचाइए। लो यह किश्त! 
मीर - तोरखाना भी है। कोई पाँच हजार आदमी होगे, कैसे जवान है। लाल बंदरो से मुँह है। सूरत देखकर खौफ मालूम होता है। 
मिर्जा - जनाब, हीले न कीजिए। ये चकमें किसी और को दीजिएगा - यह किश्त! 
मीर - आप भी अजीब आदमी है। यहाँ तो शहर पर आफत आयी हुई है, और आपको किश्त की सूझी है। कुछ खबर है कि शहर घिर गया तो घर कैसे चलेंगे? 
मिर्जा - जब घर चलने का वक्त आयेगा तो देखी जाएगी - यह किश्त, बस अब की शह में मात है। 
फौज निकल गयी। दस बजे का समय था। फिर बाजी बिछ गयी। मिर्जा बोले - आज खाने की कैसी ठहरेगा? 
मीर - अजी, आज तो रोजा है। क्या आपको भूख ज्यादा मालूम होती है? 
मिर्जा - जी नही। शहर में जाने क्या हो रहा है? 
मीर - शहर में कुछ न हो रहा होगा। लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होगे। हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होगे । 
दोनो सज्जन फिर जो खेलने बैठे तो तीन बज गए। अब की मिर्जा की बाजी कमजोर थी। चार का गजर बज रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिदअली शाह पकड़ लिए गये थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिए जा रही थी। शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूँद भी खून नही गिरा था। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शान्ति से इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। यह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते है। यह कायरपन था जिस पर बड़े से बड़े कायर आँसू बहाते है। अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी बना चला जाता था और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी। 
मिर्जा ने कहा - हुजूर नवाब को जालिमों नें कैद कर लिया है। 
मीर - होगा, यह लीजिए शह! 
मिर्जा - जनाब, जरा ठहरिए। इस वक्त इधर तबीयत ठीक नही लगती। बेचारे नवाब साहब इस वक्त खून के आँसू रो रहे होंगे। 
मीर - रोया ही चाहे, यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा? यह किश्त। 
मिर्जा - किसी के दिन बराबर नही जाते। कितनी दर्दनाक हालत है। 
मीर - हाँ, सो तो है ही, यह लो फिर किश्त! बस अब की किश्त में मात है। बच नहीं सकते। 
मिर्जा - खुदा की कसम, आप बड़े बे दर्द है। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नही होता। हाय, गरीब वाजिदअली शाह! 
मीर - पहले अपने बादशाह को तो बचाइए, फिर नवाब का मातम कीजिएगा। यह किश्त और मात! लाना हाथ! 
बादशाह को लिए हुए सेना सामने से निकल गयी। उनके जाते ही मिर्जा ने फिर बाजी बिछा ली। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा - आइए नवाब के मातम में मरसिया कह डाले। लेकिन मिर्जा की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी । वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो गए थे। 
शाम हो गयी। खंडहर मेमं चमगादड़ो ने चीखना शुरू किया। अबाबीले आ-आकर अपने घोंसलों में चिपटी। पर दोनों खिलाड़ी डटे हुए थे। मानो दोनों खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हो। मिर्जा जी तीन बाजियाँ लगातार हार चुके थे; इस चौथी बाजी का भी रंग अच्छा न था। वह बार-बार जीतने का दृढ़निश्चय कर सँभलकर खेलते थे लेकिन एक न एक चाल ऐसी बेढ़ब आ पड़ती थी जिससे बाजी खराब हो जाती थी। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और उग्र होती जाती थी। उधर मीर साहब मारे उमंग के गजले गाते थे, चुटकियाँ लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गये हो। मिर्जा सुन-सुनकर झुझलाते और हार की झेंप मिटाने कि लिए उनकी दाद देते थे। ज्यों-ज्यों बाजी कमजोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकलता जाता था। यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे। 'जनाब' आप चाल न बदला कीजिए।यह क्या कि चाल चले औऱ फिर उसे बदल दिया जाय। जो कुछ चलना है एक बार चल दीजिए। यह आप मुहरे पर ही क्यों हाथ रखे रहते है। मुहरे छोड़ दीजिए। जब तक आपको चाल न सूझे, मुहरा छुइए ही नही। आप एक-एक चाल आध-आध घंटे में चलते है। इसकी सनद नही। जिसे एक चाल चलनें में पाँच मिनट से ज्यादा लगे उसकी मात समझी जाय। फिर आपने चाल बदली? चुपके से मुहर वही रख दीजिए। 
मीर साहब की फरजी पिटता था। बोले - मैने चाल चली ही कब थी? 
मिर्जा - आप चाल चल चुके है। मुहरा वही रख दीजिए - उसी घर में। 
मीर - उसमें क्यो रखूँ? हाथ से मुहरा छोड़ा कब था? 
मिर्जा - मुहरा आप कयामत तक न छोड़े, तो क्या चाल ही न होगी? फरजी पिटते देखा तो धाँधली करने लगे। 
मीर - धाँधली आप करते है। हार-जीत तकदीर से होती है। धाँधली करने से कोई नही जीतता। 
मिर्जा - तो इस बाजी में आपकी मात हो गयी। 
मीर - मुझे क्यो मात होने लगी? 
मिर्जा - तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था। 
मीर - वहाँ क्यो रखूँ? नही रखता। 
मिर्जा - क्यों न रखिएगा? आपको रखना होगा। 
तकरार बढ़ने लगी। दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। न यह दबता था, न वह। अप्रासंगिक बाते होने लगी। मिर्जा बोले - किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती तब तो इसके कायदे जानते। वो तो हमेशा घास छीला किए, आप शतरंज क्या खेलिएगा? रियासत और ही चीज है। जागीर मिल जाने ही से कोई रईस नही हो जाता। 
मीर - क्या! घास आपके अब्बाजन छीलते होगे। यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आते है? 
मिर्जा - अजी जाइए भी, गाजीउद्दीन हैदर के यहाँ बावर्ची का काम करते-करते उम्र गुजर गयी। आज रईस बनने चले है। रईस बनना कुछ दिल्लगी नही। 
मीर - क्यो अपने बुजुर्गो के मुँह पर कालिख लगाते हो - वे बावर्ची का काम करते होंगे। यहाँ तो बादशाह के दस्तर ख्वान पर खाना खाते चले आये है। 
मिर्जा - अरे चल चरकटे, बहुत बढ़कर बातें न कर! 
मीर - जबान सँभालिए, वर्ना बुरा होगा। मै ऐसी बातें सुनने का आदी नही। यहाँ तो किसी ने आँखे दिखायी कि उसकी आँखें निकाली । है हौसला? 
मिर्जा - आप मेरा हौसला देखना चाहते है, तो फिर आइए, आज दो-दो हाथ हो जायँ, इधर या उधर। 
मीर - तो यहाँ तुमसे दबने वाला कौन है? 
दोनो दोस्तों ने कमर से तलवारे निकाल ली। नवाबी जमाना था। सभी तलवार, पेशकब्ज कटार वगैरह बाँधते थे। दोनो विलासी थे, पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था। बादशाह के लिए क्यों मरे? पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनो ने पैतरे बदले, तलवारे चमकी, छपाछप की आवाजे आयी। दोनो जख्मी होकर गिरे, दोनो न वहीं तड़प-तड़प कर जाने दी। अपने बादशाह के लिए उनकी आँखों से एक बूँद आँसू न निकला, उन्होने शतरंज के वजीर की रक्षा नें प्राण दे दिए। 
अँधेरा हो चला था। बाजी बिछी हुई थी। दोनो बादशाह अपने-अपने सिहांसन पर बैठे मानो इन वीरो की मृत्यु पर रो रहे थे। चारो तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। खँडहर की टूटी हुई, मेहराबे गिरी हुई दीवारे और धूल-धूसरितें मीनारे इन लाशों को देखती और सिर धुनती थी। 

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 28 Apr 2020 at 7:20 PM -

bcg का टीका

"यह बचाएगा कोविड-19 से भारत को ... और दुनिया को भी ! यह !" मदन भाई अपनी टीशर्ट का आधा बाज़ू ऊपर मोड़ते हुए उल्लास-भरे स्वर में कहते हैं। उनकी उँगली का इशारा बायीं भुजा की सतह पर बने उस निशान की ओर है , ... जिसे संसार बीसीजी के नाम से जानता है।

"बैसिलस कैलमेट गीरैन। आपको इससे इतनी उम्मीद क्यों हैं ?" मैं उनके समाचारीय सुख को टटोलता हूँ।

"अख़बारों में , टीवी-चैनलों में हर जगह छाया हुआ है यह बीसीजी का टीका। जहाँ इसे जनता लगवाती रही है , वहाँ कोविड-मामले भी कम हैं और मृत्यु-दर भी। तुम्हें नहीं लगता ? कुछ दम तो है इसमें !"

"अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी पुख़्ता तौर पर। किन्तु चलिए इसी बात पर बीसीजी की कहानी कही-सुनी जाए। सुनेंगे आप ?"

मदन भाई की उत्साही भौहें खिंच जाती हैं।

"निन्यानवे साल पुराना टीका है बीसीजी। यानी बैसिलस कैलमेट गीरैन। इस टीके में एक ख़ास माइकोबैक्टीरियम बोविस नाम का जीवाणु है , जिसे क्षीण यानी एटेनुएट किया गया है। यह जीवाणु गायों में टीबी-रोग पैदा करता है।"

"गायों में टीबी करता है ! पर यह जीवाणु टीबी से हमें कैसे बचाता है ? बीसीजी तो टीबी में काम करता है --- ऐसा सुना था !" मदन भाई का प्रश्न है।

"जी। टीबी-रोग मायोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस से होता है। किन्तु बीसीजी में एक दूसरा मायकोबैक्टीरियम बोविस है। ये कई मामलों में मिलते-जुलते हैं। अलबर्ट कैलमेट और कैमिल गीरैन से इस टीका का निर्माण किया। मनुष्यों में इसका पहला प्रयोग सन् 1921 में किया गया। तबसे न जाने कितने ही शिशुओं और नवजातों को यह लगाया जा चुका है। इसका मुख्य उद्देश्य : ट्यूबरकुलर मेनिन्जायटिस व डिस्सेमिनेटेड टीबी से व्यक्ति की रक्षा।"

"ये दोनों अजीब-ओ-ग़रीब नाम ऐसे हैं ?"

"ये टीबी-रोग के दो गम्भीर स्वरूप हैं। ट्यूबरकुलर मेनिन्जायटिस मस्तिष्क की मेनिंजेज़ नामक बाहरी झिल्लियों को प्रभावित करने वाला रोग है और डिस्सेमिनेटेड टीबी उस स्थिति को कहा जाता है , जब टीबी पूरे शरीर में फैल जाती है।"

"अरे ! तब तो ये बड़ी घातक बीमारियाँ हुईं ! एक दिमाग़ पर असर डाल रही है , दूसरी समूचे जिस्म पर !"

"यक़ीनन। तो इन्हीं को रोकने के लिए बीसीजी का इस्तेमाल किया जाने लगा। कामयाबी भी काफ़ी मिली , हालांकि टीबी इ अन्य स्वरूपों में इसकी सफलता विवादास्पद रही।"

"इनके अलावा भी कहीं यह टीका इस्तेमाल हुआ ?"

"जी। मूत्राशय के कैंसर में। वहाँ भी इसके प्रयोग से यूरोलॉजिस्टों-ऑन्कोसर्जनों ने रोगियों में लाभ होता पाया। लेकिन बीसीजी बड़ी दिलचस्प वैक्सीन रही दूसरे मायनों में।"

"कैसे ?"

"बीसीजी का टीका जब नवजातों को लगने लगा , तब ओवरऑल शिशु-मृत्यु-दर में भी कमी पायी जाने लगी। केवल टीबी से ही बच्चे कम मर रहे हों , ऐसा नहीं था। बीसीजी का टीका लगने से बच्चों में फेफड़ों के संक्रमण और सेप्सिस जैसे गम्भीर भी घटते पाये गये।"

"अरे वाह ! यह तो कमाल हो गया ! आम-के-आम-गुठलियों-के दाम !"

"हाँ , पर विज्ञान तो मुहावरों के आधार बना कर उत्सव मनाता नहीं। उसकी उल्लासधर्मिता को तो प्रमाण चाहिए पहले। सो दुनिया-भर के इम्यूनोलॉजिस्ट जुटे बीसीजी का अध्ययन करने के लिए कि ये एक-से-अधिक लाभ मिल क्यों और कैसे रहे हैं ? जानते हैं उन्हें क्या मिला ?"

"अब थोड़ी इम्यूनोलॉजी की जटिल भाषा को सरल करके समझाने का प्रयास करता हूँ। मोटी बात यह समझिए कि वैज्ञानिकों ने पाया कि बीसीजी का टीका शरीर में अन्य संक्रमणों से बचाने के लिए तीन स्तर पर काम करता है। मान लीजिए किसी बच्चे को बीसीजी का टीका लगा। टीके में एक जीवाणु है , जिसका नाम आप जान चुके हैं। शरीर के भीतर जो प्रतिरक्षक लिम्फोसाइट-कोशिकाएँ हैं ( दो प्रकार की : टी-लिम्फोसाइट व बी-लिम्फोसाइट ) उन्हें इस बीसीजी के जीवाणु का प्रयोग करके टीबी से लड़ने की ट्रेनिंग दी जाती है। यानी शरीर के सैनिकों को ट्रेनिंग देने वाली कोशिकाएँ बीसीजी के टुकड़े ( यानी एंटीजन ) इन लिम्फोसाइट-सैनिकों के सामने प्रस्तुत करते हुए कहती हैं कि , "इसे देख रहे हो ? बाहर जो टीबी की बीमारी पैदा करने वाला दुश्मन है न , वह इसी से मिलता-जुलता है। इससे लड़ने का अभ्यास करो। इससे लड़ना सीख लोगे , तो उससे लड़ने में भी आसानी होगी।" इस तरह से शरीर की टी-लिम्फोसाइट व बी-लिम्फोसाइट बीसीजी के टीके से ट्रेनिंग लेकर टीबी-रोग से लड़ने के लिए तैयार हो जाती हैं। फिर ये शरीर में ट्रेनिंग की स्मृति लेकर चुपचाप पड़ी रहती हैं कि कब टीबी का जीवाणु भीतर दाखिल हो और कब वे इससे लड़ें। किन्तु जब टीबी के जीवाणु की जगह दूसरे श्वसन-रोग पैदा करने वाले विषाणु शरीर में घुसते हैं , तब ये स्मृतियुक्त लिम्फोसाइट इन विषाणुओं और बीसीजी-जीवाणु के टुकड़ों ( यानी एंटीजनों ) कुछ समानता पाते हैं और इन विषाणुओं पर हमला कर देते हैं।"

"यानी ट्रेनिंग बीसीजी से ली थी , टीबी के लिए ली थी और हमला करके मार दिये वायरस ! गज्जब भाई ! कमाल !"

"हाँ मदन भाई। आण्विक स्तर पर बीसीजी और विषाणुओं को एक-सा दिखना मॉलीक्यूलर मिमिक्री कहलाता है और इस मिमिक्री के कारण विषाणुओं का सफाया हो जाता है। यह बीसीजी-टीके का टीबी के अतिरिक्त अन्य संक्रामक रोगों में काम करने का पहला ढंग हुआ।"

"दूसरा ढंग क्या है ?"

"बीसीजी एक-दूसरे ढंग से सीधे प्रतिरक्षा-तन्त्र की इन बी व टी-लिम्फोसाइटों को विषाणुओं के खिलाफ़ सक्रिय कर सकता है। इस तरीक़े को हेटेरोलॉगस इम्यूनिटी कहा जाता है। इसमें बीसीजी और विषाणुओं के मिलते-जुलते एंटीजन ज़िम्मेदार नहीं होते , यह सीधे काम के लिए उन्हें तैयार करता है। यानी बीसीजी का टीका लगा तो केवल टीबी-रोग से लड़ने वाले सैनिक नहीं तैयार हुए , विषाणु से लड़ने वाले सैनिक भी तैयार हो गये।"

"और तीसरा ढंग क्या है ?"

"तीसरा ढंग अन्तिम और सर्वाधिक शोध का विषय बना हुआ है। इसे ख़ास नाम दिया गया है : ट्रेंड इम्यूनिटी। मोनोसाइट-मैक्रोफेजों जैसी प्रतिरक्षक कोशिकाओं के भीतर जीनों के ख़ास प्रमोटर नामके स्विचों को ऑन-ऑफ़ करके उनके भीतर प्रतिरक्षक रसायनों का निर्माण और स्राव कराया जाता है। यह रासायनिक निर्माण और स्राव भी बीसीजी कराता है। अब जब विषाणु शरीर में दाखिल होते हैं , तब बीसीजी के आधार पर मिली ट्रेनिंग के कारण ये मोनोसाइट-मैक्रोफेज उन्हीं रसायनों का उत्पादन और स्राव शुरू कर देते हैं , जिनकी ट्रेनिंग पहले बीसीजी ने उन्हें दी थी। इस रसायनों के तरह-तरह के प्रयोगों से विषाणु मारे जाते हैं।"

"यानी इन तीन तरीक़ों से बीसीजी विषाणुओं के खिलाफ़ इम्यूनिटी देता है। वाह ! तब तो कोविड-19 में इससे मिलने वाली प्रतिरक्षा की बात में दम है ! है न !"

"जैसा कि मैंने कहा कि विज्ञान उल्लास से पहले प्रमाण जुटाता है। बीसीजी काम करता है , इसके कुछ प्रमाण हैं। अवश्य हैं। पर यह काम करता है , तो क्या इतना जानने-भर से काम चल जाएगा ? यह सच है कि इटली और अमेरिका जैसे देशों में , जहाँ इस टीके का प्रयोग व्यापक रूप में नहीं है , वहाँ अधिक मौतें हुई हैं और दक्षिणी कोरिया , जापान और भारत जैसे देशों में कम , जहाँ इस टीके का ख़ूब इस्तेमाल होता रहा है। लेकिन यह प्रमाण परिवेश-जन्य भी हो सकता है और अनेक दूसरे कारण भी मौत के आँकड़ों में अन्तर के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं। अभी कई शोध चल रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया , नीदरलैंड्स व अमेरिका में बीसीजी का टीका स्वास्थ्य-कर्मियों को लगाया जा रहा है ताकि यह देखा जा सके कि क्या यह उनकी कोविड-19 से रक्षा करता है अथवा नहीं। फिर बुज़ुर्गों में इस टीके को लगाकर गम्भीर कोविड-संक्रमण की रोकथाम पर भी शोध चल रहे हैं। जर्मनी भी बीसीजी से मिलते-जुलते टीके को बुज़ुर्गों अथवा स्वास्थ्य-कर्मियों को लगाकर शोध में लगा हुआ है।"

"चलो यार ! बस नतीजे पॉज़िटिव आएँ !"

"केवल नतीजों के पॉज़िटिव आने से प्रश्न समाप्त नहीं होते मदन भाई। लोग पूछेंगे कि टीका लगने से कितने दिन-महीने-साल की सुरक्षा मिलेगी इस कोरोनाविषाणु से ? दूसरे देशों की जनता यह भी पूछेगी कि टीका लगवाने की सही उम्र क्या है ? कितनी बार ? क्या बचपन में लगा बीसीजी और जवानी या बुढ़ापे में लगा बीसीजी एक-सा काम करेंगे ?"

"सवाल तो लाज़िमी हैं ये सारे।"

"इसीलिए विज्ञान त्वरित उत्सवधर्मिता में कंजूसी दिखाता है। पहले वह यह सिद्ध करने में लगा है कि सचमुच बीसीजी कोविड-19 में काम करता है अथवा नहीं। फिर यह सिद्ध करने में की किस तरह। फिर बीसीजी-टीका देने-सम्बन्धी पॉलिसी के गठन के बारे में। इतना सब जानने के बाद ही वह उल्लसित हो सकता है।"

"तब तक हम आम लोग तो लॉकडाउन में ख़ुश हो ही सकते हैं न भाई ! टीका हम-हिन्दुस्तानियों को जन्म के तुरन्त बाद लगाया जाता है और सम्भावना जगा रहा है। इस बुरे दौर में उम्मीद पर इतना खुश होना तो बनता है न !" कहते हुए वे भुजा के उस बीसीजी के निशान को चूम लेते हैं।

"अन्वेषकों ने जनता को उम्मीद रखने से कहाँ रोका है ! वे तो बस इतना कह रहे हैं कि आसमान ताकते हुए ज़मीन पर जमे रहना है , गिरना नहीं। बीसीजी की इस नयी कहानी के सुखद अन्त की हम-सबको प्रतीक्षा है।"

--- स्कन्द।

#skandshukla
चिकित्सक-मित्र नेचर-रिव्यूज़-यूरोलॉजी

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 24 Apr 2020 at 8:08 PM -

महामारी के साथ महामंदी

#अर्थचर्चा
वक्त इतना खराब आ रहा है कि कसाई का तरीका अब मैनेजमेंट में इस्तेमाल होगा

केंद्र और राज्य सरकारों ने अलग-अलग फैसले लेकर कड़ाई से कई फैसले लागू किए हैं। अभी मकान मालिकों से कह दिया गया है कि वे किराया मांगने जोर ... ना डालें। स्कूलों को कह दिया गया है कि वे फीस वसूली ना करें। बाजार के कई किस्म के छोटे-मोटे कर्ज पटाना लोग खुद भी बंद कर देंगे क्योंकि किसी के पास पटाने को कुछ है ही नहीं। लोग मोहल्ले की किराना दुकान का उधार तक नहीं चुका पाएंगे। आज हिंदुस्तान में सरकारी कर्मचारियों के अलावा कोई और भी महफूज बचे हैं ? लेकिन ऐसी हालत में लोगों का होगा क्या? जो लोग किराए पर जिंदा हैं, उनका क्या होगा? अधिकतर स्कूलें कर्मचारियों को तनख्वाह फीस के पैसों से ही देती हैं, वे तनख्वाह कहाँ से लाएंगी? फिर बिना पढ़ाई लोग बच्चों की फीस क्यों देंगे? बिना फीस तनख्वाह कैसे? बिना तनख्वाह टीचर्स का घर कैसे?

कोरोना की जैसी गोल फुटबॉल सरीखी तस्वीर बनाई गई है, वह उस गेंद की तरह ही लुढ़कते चल रहा है। मटरगश्ती शब्द का गोलमटोल मटर, गश्त करने के नाम पर जिस तरह महज चारों तरफ लुढ़क सकता है, वैसे ही कोरोना चारों तरफ लुढ़क रहा है और उसकी चपेट में इतने लोग इतनी किस्म से कुचल रहे हैं, कि सबके जख्मों को देखने में महीनों लग जायेंगे। मजदूर तो फिर भी एक जगह न तो दूसरी जगह मजदूरी कर लेंगे, लेकिन निजी नौकरियों में लगे सफेदपोश कहाँ जायेंगे? वे तो अपने आज के हुनर के काम के अलावा और कुछ जानते भी नहीं हैं, कोई बेहुनर-मजदूरी का काम कर नहीं सकते। ऐसे में आनी वाली मुसीबतें जिन लोगों को कुछ महीनों की लग रही हैं, वे अभी कोरोना की मार को समझ नहीं पा रहे हैं। बरसों तक लोगों को अपने खर्च में कटौती सोच लेनी चाहिए। जिनके पास आज खाली वक्त है और इंटरनेट है, उन्हें दुनिया की 1930 के दशक की मंदी के बारे में पढ़ लेना चाहिए जो कि दस बरस चली थी, औद्योगिक देशों में बेरोजगारी का वह बुरा हाल था कि एक पीढ़ी में जिंदा रहने के लिए बदन बेचना प्रचलित तौर-तरीका हो गया था। अमरीका में अच्छे-खासे नौकरीपेशा लोग कटोरा पकड़कर सरकारी खाने के लिए सड़क किनारे कतार में लगे रहते थे। और बेरोजगारी का मतलब नौकरी ना पाना नहीं था, नौकरी खोना था।

दुनिया अगर बहुत बुरी मंदी में चली जाएगी, जो कि जाते दिख रही है, तो न सिर्फ गरीबों की मौत होगी, बल्कि उनसे बेहतर हालत वालों की और बुरी मौत होगी क्योंकि वे तो कम्प्यूटरों पर से उठकर कुदाली-फावड़ा भी नहीं पकड़ सकते। लोगों को आने वाला वक्त उतना ही बुरा मानकर खर्च की कटौती की सोचना चाहिए, दुसरे हुनर के बारे में सोचना चाहिए, अपने खुद के काम को बेहतर बनाने के बारे में सोचना चाहिए। कारोबारी के सामने जिंदा रहने की अपनी मजबूरी होगी, इसलिए वे अधिक से आधिक कर्मचारियों को निकलने के बारे में सोचेंगे, और ऐसे में सबसे काबिल लोगों की ही नौकरी बच सकती है। कल ही देश के एक सबसे बड़े मीडिया-हाउस की खबर आई है कि किस तरह उसका एक टीवी चैनल बंद किया जा रहा है, उसके आधे लोगों को दूसरे चैनल में भेजा जा रहा है, और आधे लोगों को निकला जा रहा है जिनमें 50 बरस से अधिक उम्र के लोग ही अधिक हैं। ऐसा हाल पूरे देश में मीडिया में तो होने ही वाला है, बाकी धंधों में भी तस्वीर कुछ अलग नहीं रहेगी। इसमें से जो बेहतर लोग नौकरी खोएंगे, उनको काम पर कम तनख्वाह पर रखकर लोग अपने कुछ पुराने महंगे पड़ रहे लोगों को काम से निकालेंगे।

बात कहने और सुनने दोनों में बुरी लगेगी, लेकिन अब मालिक और मैनेजर दोनों ही काम वाले, बेहतर, अधिक उत्पादक, अधिक समर्पित कर्मचारियों को उसी तरह छांटेंगे, जिस तरह कसाई बकरे को टटोलकर देखते हैं कि कितना गोश्त निकल जाएगा! कसाई काटने के लिए अधिक गोश्त देखता है, मालिक-मैनेजर अधिक काम की क्षमता को उसी तरह टटोलेंगे, ना-काटने के लिए! इसलिए तमाम गैरसरकारी नौकरी वालों को अपने को बेहतर बनाने की फिक्र करनी चाहिए, या फिर भूखों मरने के लिए तैयार रहना चाहिए।

( सुनील कुमार Sunil Kumar )

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 21 May 2019 at 5:06 AM -

पुदीने के औषधीय गुण, पुदीने के फायदे

1. गर्मी के कारण होनेवाले रोगों में पुदीना अत्यंत उपयोगी साबित होता है. थोड़े-से पुदीने को पानी में पीसकर उसमें भुना हुआ जीरा, नींबू तथा नमक मिलाकर पीने से पेचिश, पेट के मरोड़, खट्‍टी डकारें आदि में लाभ होता है.
2. यदि हिचकी बंद न ... हो रही हो तो 10-15 पुदीने के पत्ते चबाएं.
3. हाजमे के लिए ये एक अचूक उपाय है. इसके सेवन से पाचन क्रिया भी अच्छी रहती है.
4. अगर आपके मुंह से बदबू आ रही हो तो पुदीने की कुछ पत्त‍ियां चबा लें. बदबू चली जाएगी.
5. गर्मी में लू से बचने के लिए भी पुदीने का इस्तेमाल किया जाता है. पुदीने का रस पीकर घर से बाहर निकलने पर लू लगने का डर कम हो जाता है.
6. उल्टी हो रही होने पर आधा कप पुदीना का रस पीने से उल्टी आना बंद हो जाएगी.
7. पेट दर्द होने पर भी पुदीने को जीरा, काली मिर्च और हींग के साथ मिलाकर खाने से आराम होता है.
8. पुदीने की ताज़ा पत्त‍ियों को पीसकर चेहरे पर लगाने से चेहरे को ठंडक मिलती है.गुण

user image Jigyasa Admin - 27 Jan 2019 at 11:51 PM -

आरक्षण में रोस्टर आखिर है क्या,जिसे लेकर मचा हुआ है देश में हंगामा
-अरविन्द कुमार

रोस्टर एक विधि है, जिसके जरिये नौकरियों में आरक्षण लागू किया जाता है. लेकिन अगर इसे लागू न किया जाए या लागू करने में बेईमानी हो तो आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों की ... धज्जियां उड़ जाती हैं.

संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 16(4) के तहत पिछड़े वर्गों (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्ग) का पर्य़ाप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान किया है. लेकिन आरक्षण को कैसे लागू किया जाये, इसको लेकर देशभर के विश्वविद्यालय सत्तापक्ष की मिलीभगत से अड़ंगेबाजी करते रहे. इसका परिणाम रहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों का रिज़र्वेशन विश्वविद्यालयों में महज कागज की शोभा बनकर रह गया. यही हाल मण्डल कमीशन की संस्तुतियों के आधार पर लागू हुए ओबीसी रिज़र्वेशन का रहा.

विश्वविद्यालय लंबे समय तक अपनी स्वायत्तता का हवाला देकर आरक्षण लागू करने से ही मना करते रहे, लेकिन जब सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी दबाव बनने लगा तो उन्होंने आरक्षण लागू करने की हामी तो भरी, लेकिन इसमें तमाम ऐसे चालबाजी कर दी, जिससे कि यह प्रभावी ढंग से लागू ही न हो पाये. इस चालबाजी में प्रमुख हैं-

– विभाग को आरक्षण लागू करने के लिए यूनिट बनाना
– एक एक पद के लिए विशेष योग्यता जोड़ना, ताकि कैंडीडेट ही न मिले,
– विभागों को छोटा-छोटा करना, ताकि आरक्षित वर्ग के लिए कभी सीट ही नहीं आए

इन चालबाजियों का परिणाम रहा कि विश्वविद्यालयों में आरक्षण ऐसे लागू हुआ, जिससे कि आरक्षित वर्ग को न्यूनतम सीटें मिलें. इस तरह की नीतियों का ही परिणाम है कि आज भी विश्वविद्यलयों में आरक्षित समुदाय के प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और असिस्टेंट प्रोफेसरों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है. अभी हाल ही में छपी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि देशभर के विश्वविद्यालयों में आरक्षण लागू होने के बावजूद भी आरक्षित समुदाय के प्राध्यापकों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है.

रोस्टर का जन्म:-

2006 में उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी आरक्षण लागू करने के दौरान विश्वविद्यालय में नियुक्तयों का मामला केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार के सामने आया. चूंकि इस बार आरक्षण उस सरकार के समय में लागू हो रहा था, जिसमें आरजेडी, डीएमके, पीएमके, जेएमएम जैसे पार्टियां शामिल थीं, जो कि सामाजिक न्याय की पक्षधर रहीं हैं, इसलिए पुराने खेल की गुंजाइश काफी कम हो गयी थी. अतः केंद्र सरकार के डीओपीटी मंत्रालय ने यूजीसी को दिसंबर 2005 में एक पत्र भेजकर विश्वविद्यालयों में आरक्षण लागू करेने में आ रही विसंगतियों को दूर करने के लिए कहा. उस पत्र के अनुपालन में यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर वीएन राजशेखरन पिल्लई ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर रावसाहब काले जो कि आगे चलकर गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति भी बनाए गए थे, की अध्यक्षता में आरक्षण लागू करने के लिए एक फॉर्मूला बनाने हेतु एक तीन सदस्यीय कमेटी का गठन किया था, जिसमें कानूनविद प्रोफेसर जोश वर्गीज़ और यूजीसी के तत्कालीन सचिव डॉ आरके चौहान सदस्य थे.

प्रोफेसर काले कमेटी ने भारत सरकार के डीओपीटी मंत्रालय की 02 जुलाई 1997 की गाइडलाइन जो कि सुप्रीम कोर्ट के सब्बरवाल जजमेंट के आधार पर बनी है, को ही आधार बनाकर 200 पॉइंट का रोस्टर बनाया. इस रोस्टर में किसी विश्वविद्यालय के सभी विभाग में कार्यरत असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर का तीन स्तर पर कैडर बनाने की सिफारिश की गयी. इस कमेटी ने विभाग के बजाय, विश्वविद्यालय/कालेज को यूनिट मानकर आरक्षण लागू करने की सिफारिश की, क्योंकि उक्त पदों पर नियुक्तियां विश्वविद्यालय करता है, न कि उसका विभाग. अलग-अलग विभागों में नियुक्त प्रोफेसरों की सैलरी और सेवा शर्तें भी एक ही होती हैं, इसलिए भी कमेटी ने उनको एक कैडर मानने की सिफारिश की थी.

रोस्टर 200 पॉइंट का क्यों, 100 पॉइंट का क्यों नहीं?

काले कमेटी ने रोस्टर को 100 पॉइंट पर न बनाकर 200 पॉइंट पर बनाया, क्योंकि अनुसूचित जातियों को 7.5 प्रतिशत ही आरक्षण है. अगर यह रोस्टर 100 पॉइंट पर बनता है तो अनुसूचित जातियों को किसी विश्वविद्यालय में विज्ञापित होने वाले 100 पदों में से 7.5 पद देने होते, जो कि संभव नहीं है.

अतः कमेटी ने अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और ओबीसी को 100 प्रतिशत में दिये गए क्रमशः 7.5, 15, 27 प्रतिशत आरक्षण को दो से गुणा कर दिया, जिससे यह निकलकर आया कि 200 प्रतिशत में अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और ओबीसी को क्रमश: 15, 30, 54 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा. यानि अगर एक विश्वविद्यालय में 200 सीट हैं, तो उसमें अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, और ओबीसी को क्रमशः 15, 30, और 54 सीटें मिलेंगी, जो कि उनके 7.5, 15, 27 प्रतिशत आरक्षण के अनुसार हैं.

सीटों की संख्या का गणित सुलझाने के बाद कमेटी के सामने यह समस्या आई की यह कैसे निर्धारित किया जाये कि कौन सी सीट किस समुदाय को जाएगी? इस पहेली को सुलझाने के लिए कमेटी ने हर सीट पर चारों वर्गों की हिस्सेदारी देखने का फॉर्मूला अपनाया. मसलन, अगर किसी संस्थान में केवल एक सीट है, तो उसमें अनारक्षित वर्ग की हस्सेदारी 50.5 प्रतिशत होगी, ओबीसी की हिस्सेदारी 27 प्रतिशत होगी, एससी की हिस्सेदारी 15 प्रतिशत होगी, और एसटी की हिस्सेदारी 7.5 प्रतिशत होगी. चूंकि इस विभाजन में सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है, इसलिए पहली सीट अनारक्षित रखी जाती है.

पहली सीट के अनारक्षित रखने का एक और लॉजिक यह है कि यह सीट सैद्धांतिक रूप से सभी वर्ग के उम्मीदवारों के लिए खुली होगी. यह अलग बात है कि धीरे-धीरे यह माना जाने लगा है कि अनारक्षित सीट का मतलब सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण. इस फॉर्मूले के आधार पर कमेटी ने सीट की स्थिति का निर्धारण करने के लिए 200 नंबर का एक चार्ट बना दिया, जिसको कि 200 पॉइंट का रोस्टर कहते हैं. इस रोस्टर के अनुसार अगर किसी विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कुल 200 पद हैं, तो उनका वितरण निम्न प्रकार होगा.

अनारक्षितः 01,02,03,05,06,09 वां……समेत बाकी सभी पद जो कि ओबीसी, एससी, एसटी मे नहीं सम्मिलित हैं.

ओबीसीः 04, 08, 12, 16, 19, 23, 26, 30,34, 38, 42, 45,49,52, 56,60,63, 67,71,75, 78,82,86, 89,93,97, 100, 104, 109,112, 115, 119,123,126, 130,134, 138, 141,145,149, 152,156, 161,163, 167,171,176, 178, 182, 186, 189,193,197,200 वां पद

एससी: 7,15,20,27,35,41,47,54,61,68,74,81,87,94,99,107,114,121,127,135, 140,147,154,162,168,174,180,187,195,199 वां पद

एसटी: 14,28,40,55,69,80,95,108,120,136,148,160,175,188,198वां पद

विवाद की वजह:-

प्रो. काले कमेटी द्वारा बनाए गए इस रोस्टर ने विश्वविद्यालों द्वारा निकाली जा रही नियुक्तियों में आरक्षित वर्ग की सीटों की चोरी को लगभग नामुमकिन बना दिया, क्योंकि इसने यह तक तय कर दिया कि आने वाला पद किस समुदाय के कोटे से भरा जाना है. इस वजह से बीएचयू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, शांति निकेतन विश्वविद्यालय समेत कई विश्वविद्यालय इस रोस्टर के खिलाफ हो गए थे.

ऐसा इसलिए हुए, क्योंकि यह रोस्टर तब से लागू माना जाना था, जब से उस विश्वविद्यालय ने अपने यहां आरक्षण लागू किया था. मान लीजिए कि किसी विश्वविद्यालय ने 2005 से अपने यहां आरक्षण लागू किया, लेकिन उसने अपने यहां उसके बाद भी किसी एसटी, एससी, ओबीसी को नियुक्त नहीं किया. ऐसी सूरत में उस विश्वविद्यालय में 2005 के बाद नियुक्त हुए सभी असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसरों की सीनियरिटी के अनुसार तीन अलग-अलग लिस्ट बनेगी. अब मान लीजिये कि अगर उस विश्वविद्यालय ने असिस्टेंट प्रोफेसर पर अब तक 43 लोगों को नियुक्त कर चुका है, जिसमें कोई भी एससी, एसटी और ओबीसी नहीं है, तो रोस्टर के अनुसार उस विश्वविद्यालय में अगले 11 असिस्टेंट प्रोफेसरों को सिर्फ ओबीसी उम्मीदवार से, 06 को एसटी, और 03 को एसटी उम्मीदवारों से भरे बिना, उक्त विश्वविद्यालय कोई भी असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर अनारक्षित वर्ग की नियुक्ति नहीं कर सकता.

चूंकि ज़्यादातर विश्वविद्यालयों ने अपने यहां आरक्षण सिर्फ कागज पर ही लागू किया था, इसलिए इस रोस्टर के आने के बाद वो फंस गए. चूंकि वो नया पद अनारक्षित वर्ग के लिए तब तक नहीं निकाल सकते थे, जब तक कि पुराना बैकलॉग भर न जाय. ऐसे में इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बीएचयू, डीयू, और शांति निकेतन समेत तमाम विश्वविद्यालयों ने इस रोस्टर को विश्वविद्यालय स्तर पर लागू किए जाने का विरोध करने लगे. उन्होंने विभाग स्तर पर ही रोस्टर लागू करने की मांग की. इन विश्वविद्यालयों ने 200 पॉइंट रोस्टर को जब लागू करने से मना कर दिया, तो यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर सुखदेव थोराट ने प्रो. राव साहब काले की ही अध्यक्षता में इनमें से कुछ विश्वविद्यालयों के खिलाफ जांच कमेटी बैठा दी तो दिल्ली विश्वविद्यालय का फंड तक रोक दिया था. दिल्ली विश्वविद्यालय का फंड तब प्रधानमंत्री कार्यालय के हस्तक्षेप से ही रिलीज हो पाया था. चूंकि उन दिनों केंद्र की यूपीए सरकार के तमाम घटक दलों में क्षेत्रीय पार्टियां थीं, इसलिए तब इन विश्वविद्यालयों में विरोध परवान नहीं चढ़ पाया था.
Jitendra Narayan

user image Arvind Swaroop Kushwaha

फेसबुक की तरह फ़ास्ट बनाने की कोशिश जारी है।

Friday, February 1, 2019
user image Arvind Swaroop Kushwaha

जी यह अभी बेबी एप्प है।

Friday, February 1, 2019
user image Bal Krishna Kushwaha

Yah aap slow chalta hai

Wednesday, January 30, 2019
user image Rajnish Kumar - 08 Nov 2018 at 10:36 PM -

Raajneeti ka kadwa sach

अपनी प्रशंसा और दूसरे की बुराई करने में दिन-रात एक कर रहा है। नेता लोग दूसरे की सबसे अधिक आलोचना जिस मुद्दे पर करते हैं, वह है भ्रष्टाचार। लेकिन चुनाव जीतते ही अधिकांश लोग उसी काम में लग जाते हैं, जिसकी आलोचना कर वे ... चुनाव जीतते हैं। कई साल पुरानी बात है। दिल्ली में मेरा एक मित्र कई साल से पार्षद है। उसके क्षेत्र में नगरीय के साथ ही कुछ ग्रामीण क्षेत्र भी है। उससे एक बार इस बारे में चर्चा हुई, तो उसने मुझे दिन भर अपने साथ रहने को कहा, जिससे मैं उसकी कठिनाई समझ सकूं। मैंने उसकी बात मान ली। सुविधा के लिए हम उसका नाम रमेश रख लेते हैं।

दो दिन बाद बसंत पंचमी का अवकाश था। मैं सुबह उसके घर पहुंच गया। नाश्ते के बाद हम लोग बैठक कक्ष में आ गये। वहां पहले से 20-25 लोग जमे थे। रमेश ने एक कर्मचारी उन्हें चाय पिलाने के लिए रखा हुआ था। बैठक कक्ष से लगी एक अलग रसोई थी। आगंतुकों के लिए वहीं चाय बन रही थी। दोपहर तक हम वहां बैठे रहे। कई आगंतुकों के साथ सुरक्षाकर्मी होते थे। उनके तथा गाड़ी चालकों के लिए बार-बार चाय बाहर भी जा रही थी। मैंने अनुमान लगाया कि दिन भर में 200 कप चाय तो जरूर बनती होगी।

इस दौरान सात-आठ समूह चंदा मांगने आये। किसी के मोहल्ले में जागरण था, तो कहीं मंदिर बन रहा था। कोई अपने गांव के किसी अन्य सामाजिक काम के लिए चंदा लेने आया था। कई लोग तो उनके चुनाव क्षेत्र के भी नहीं थे। मान न मान, मैं तेरा मेहमान। रमेश कभी 21 रु. से शुरू करता, तो कभी 51 रु. से; पर कोई सौ से कम में नहीं टला। दो समूहों के साथ ग्राम प्रधान भी थे। अतः उन्हें 501 तथा 1,100 रु. देने पड़े। रमेश ने बताया कि प्रधान जी के प्रभाव में गांव के वोट रहते ही हैं। इसलिए अच्छी रसीद कटवानी पड़ती है।

दो बजे खाना खाकर हम फिर बैठक में आ गये। अब एक सज्जन आये। वे पार्टी के अच्छे कार्यकर्ता थे। उनकी बेटी का विवाह था। उन्हें दो दिन के लिए कार चाहिए थी। उनकी इच्छा भी पूरी की गयी। रमेश ने बताया कि उसके पास तीन कार हैं। एक अपने लिए, दूसरी परिवार के लिए और तीसरी मांगने वालों के लिए। मांगने वालों को चालक और तेल सहित गाड़ी देनी पड़ती है। रमेश ने बताया कि महीने में 20 दिन एक गाड़ी इन कामों में बाहर रहती ही है।

इसी तरह लोगों से मिलते हुए शाम हो गयी। उस दिन बसंत पंचमी थी। इस दिन बिना मुहूर्त देखे शादियां होती हैं। रमेश के पास भी लगभग 25 निमन्त्रण पत्र आये हुए थे। उन्होंने सबसे लिए लिफाफे बनाये। उन्हें तीन भागों में बांटा। कुछ बड़े बेटे को दिये और कुछ छोटे को। बाकी अपनी जेब में रखे और शाम को सात बजे निकल पड़े। उन्होंने बताया कि इन लिफाफों में शुभकामना और आशीर्वाद के लिए क्रमशः 101, 251 और 501 रु. हैं। एक लिफाफा 1,100 रु. वाला भी था। सात-आठ जगह हम लोग गये। सब जगह कुछ न कुछ खाना पड़ा। रात में बारह बजे लौटकर हम सो गये।

अगले दिन सुबह जब हम नाश्ता करने बैठे, तो रमेश ने पूछा, ‘‘तुम्हारा क्या विचार है, कल मेरे कितने पैसे खर्च हुए होंगे?’’ मुझे चुप देखकर बोला, ‘‘हर दिन इसी तरह 20 से 25 हजार रु. खर्च होते हैं। पार्षद के नाते हमें जो वेतन आदि मिलता है, उससे तो एक हफ्ता भी नहीं खिंच सकता। और ये तो चुनाव जीतने के बाद है। चुनाव से पहले टिकट मिल जाए, इसके लिए जो भागदौड़ और नेताओं की सेवा-टहल करनी पड़ती है, उसमें भी कई लाख रु. खर्च होते हैं। दिल्ली में इतनी तरह के नेता रहते हैं। कभी कोई आ जाता है, तो कभी कोई बुला लेता है। वे आएं या हम जाएं, पैसे तो हर बार लगते ही हैं। पेट गाड़ी का भी भरना पड़ता है और साथ चलने वालों का भी।

- और चुनाव में?

- बस इतना ही समझ लो कि इस बार मैंने लगभग दो करोड़ रु. खर्च किये हैं।

- यानि राजनीति में भ्रष्टाचार के बिना काम नहीं चलता?

- अपवाद तो सब जगह हैं; पर ये एक कड़वा सच है। या तो हम राजनीति छोड़ दें; पर इसमें रहना है तो फिर सौ प्रतिशत ईमानदारी से काम नहीं चलता। हम चाहें या नहीं, पर सिस्टम ऐसा बना हुआ है कि भ्रष्टाचार हो ही जाता है।

- वो कैसे?

- वो ऐसे कि हमारे क्षेत्र में जो भी नया निर्माण हो रहा है, वह सरकारी हो या निजी, उसमें हमारा और हमसे ऊपर वालों का निश्चित हिस्सा है। वह अपने आप पहुंच जाता है। इसे लोग भ्रष्टाचार नहीं मानते। हां, इससे अधिक हम कुछ मांगें; या हिस्सा मिलने पर भी काम में बाधा डालें, तो वह भ्रष्टाचार है।

- अच्छा?

- जी हां। हमने चुनाव में जो दो करोड़ खर्च किये हैं, दो साल तो उन्हें पूरा करने में ही लगेंगे। फिर अगले तीन साल में तीन करोड़ बचाने हैं। तभी तो अगला चुनाव लड़ सकेंगे। जितना इस बार खर्च हुआ है, अगली बार उससे डेढ़ गुना खर्च होगा। आपका जनाधार कितना भी बड़ा हो, पर पैसे ना हों, तो पार्टी वाले भी नहीं पूछते। जनता भी नेताओं के भ्रष्टाचार पर खास ध्यान नहीं देती। अब तो लोग सोचते हैं कि चुनाव के दौरान हमें क्या मिला? इसलिए चुनाव जीतने के लिए सब हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। और इस सबमें पैसा खर्च होता है। सरकारी योजनाओं में जो पैसा आता है, वह जन प्रतिनिधि की इच्छा के बिना खर्च नहीं होता।

- शायद इसीलिए लोग आजकल ग्राम प्रधान बनने के लिए भी लाखों रु. खर्च कर देते हैं।

- बिल्कुल ठीक कह रहे हो। एक बार कुरसी मिल जाए, फिर तो बिना कुछ किये ही पेट भरने लगता है। शासन-प्रशासन में सौ प्रतिशत लोग यह जानते हैं और 90 प्रतिशत इसे तंत्र का एक भाग समझकर मानते भी हैं।

- तो फिर इसका इलाज क्या है?

- जो व्यवस्था आज है, उसमें तो कोई इलाज नहीं है। बल्कि इसके बढ़ने की ही संभावना अधिक है। जिसके हाथ में काम रुकवाने या बिगाड़ने की ताकत है, उसे घर बैठे माल पहुंच जाता है। हम तो भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि हमारे हाथ से किसी का बुरा न हो जाए। बस..।

उस दिन रमेश के साथ रहकर मुझे जो ज्ञान मिला, वह अकल्पनीय था। मोदी जी आजकल भारत को ‘डिजीटल और कैशलैस’ बनाने में लगे हैं। उनका मत है कि इससे पारदर्शिता आएगी और भ्रष्टाचार रुकेगा। बहुत से लोग उनके समर्थक हैं; पर कुछ लोग ‘तुम डाल-डाल, हम पात-पात’ के अनुयायी भी हैं। भगवान करे मोदी जी इस मुहिम में सफल हों; पर वे होंगे या नहीं, और होंगे तो कितने, ये तो समय ही बताएगा।

user image Rajnish Kumar - 08 Nov 2018 at 10:35 PM -

Raajneeti ka kadwa sach

अपनी प्रशंसा और दूसरे की बुराई करने में दिन-रात एक कर रहा है। नेता लोग दूसरे की सबसे अधिक आलोचना जिस मुद्दे पर करते हैं, वह है भ्रष्टाचार। लेकिन चुनाव जीतते ही अधिकांश लोग उसी काम में लग जाते हैं, जिसकी आलोचना कर वे ... चुनाव जीतते हैं। कई साल पुरानी बात है। दिल्ली में मेरा एक मित्र कई साल से पार्षद है। उसके क्षेत्र में नगरीय के साथ ही कुछ ग्रामीण क्षेत्र भी है। उससे एक बार इस बारे में चर्चा हुई, तो उसने मुझे दिन भर अपने साथ रहने को कहा, जिससे मैं उसकी कठिनाई समझ सकूं। मैंने उसकी बात मान ली। सुविधा के लिए हम उसका नाम रमेश रख लेते हैं।

दो दिन बाद बसंत पंचमी का अवकाश था। मैं सुबह उसके घर पहुंच गया। नाश्ते के बाद हम लोग बैठक कक्ष में आ गये। वहां पहले से 20-25 लोग जमे थे। रमेश ने एक कर्मचारी उन्हें चाय पिलाने के लिए रखा हुआ था। बैठक कक्ष से लगी एक अलग रसोई थी। आगंतुकों के लिए वहीं चाय बन रही थी। दोपहर तक हम वहां बैठे रहे। कई आगंतुकों के साथ सुरक्षाकर्मी होते थे। उनके तथा गाड़ी चालकों के लिए बार-बार चाय बाहर भी जा रही थी। मैंने अनुमान लगाया कि दिन भर में 200 कप चाय तो जरूर बनती होगी।

इस दौरान सात-आठ समूह चंदा मांगने आये। किसी के मोहल्ले में जागरण था, तो कहीं मंदिर बन रहा था। कोई अपने गांव के किसी अन्य सामाजिक काम के लिए चंदा लेने आया था। कई लोग तो उनके चुनाव क्षेत्र के भी नहीं थे। मान न मान, मैं तेरा मेहमान। रमेश कभी 21 रु. से शुरू करता, तो कभी 51 रु. से; पर कोई सौ से कम में नहीं टला। दो समूहों के साथ ग्राम प्रधान भी थे। अतः उन्हें 501 तथा 1,100 रु. देने पड़े। रमेश ने बताया कि प्रधान जी के प्रभाव में गांव के वोट रहते ही हैं। इसलिए अच्छी रसीद कटवानी पड़ती है।

दो बजे खाना खाकर हम फिर बैठक में आ गये। अब एक सज्जन आये। वे पार्टी के अच्छे कार्यकर्ता थे। उनकी बेटी का विवाह था। उन्हें दो दिन के लिए कार चाहिए थी। उनकी इच्छा भी पूरी की गयी। रमेश ने बताया कि उसके पास तीन कार हैं। एक अपने लिए, दूसरी परिवार के लिए और तीसरी मांगने वालों के लिए। मांगने वालों को चालक और तेल सहित गाड़ी देनी पड़ती है। रमेश ने बताया कि महीने में 20 दिन एक गाड़ी इन कामों में बाहर रहती ही है।

इसी तरह लोगों से मिलते हुए शाम हो गयी। उस दिन बसंत पंचमी थी। इस दिन बिना मुहूर्त देखे शादियां होती हैं। रमेश के पास भी लगभग 25 निमन्त्रण पत्र आये हुए थे। उन्होंने सबसे लिए लिफाफे बनाये। उन्हें तीन भागों में बांटा। कुछ बड़े बेटे को दिये और कुछ छोटे को। बाकी अपनी जेब में रखे और शाम को सात बजे निकल पड़े। उन्होंने बताया कि इन लिफाफों में शुभकामना और आशीर्वाद के लिए क्रमशः 101, 251 और 501 रु. हैं। एक लिफाफा 1,100 रु. वाला भी था। सात-आठ जगह हम लोग गये। सब जगह कुछ न कुछ खाना पड़ा। रात में बारह बजे लौटकर हम सो गये।

अगले दिन सुबह जब हम नाश्ता करने बैठे, तो रमेश ने पूछा, ‘‘तुम्हारा क्या विचार है, कल मेरे कितने पैसे खर्च हुए होंगे?’’ मुझे चुप देखकर बोला, ‘‘हर दिन इसी तरह 20 से 25 हजार रु. खर्च होते हैं। पार्षद के नाते हमें जो वेतन आदि मिलता है, उससे तो एक हफ्ता भी नहीं खिंच सकता। और ये तो चुनाव जीतने के बाद है। चुनाव से पहले टिकट मिल जाए, इसके लिए जो भागदौड़ और नेताओं की सेवा-टहल करनी पड़ती है, उसमें भी कई लाख रु. खर्च होते हैं। दिल्ली में इतनी तरह के नेता रहते हैं। कभी कोई आ जाता है, तो कभी कोई बुला लेता है। वे आएं या हम जाएं, पैसे तो हर बार लगते ही हैं। पेट गाड़ी का भी भरना पड़ता है और साथ चलने वालों का भी।

- और चुनाव में?

- बस इतना ही समझ लो कि इस बार मैंने लगभग दो करोड़ रु. खर्च किये हैं।

- यानि राजनीति में भ्रष्टाचार के बिना काम नहीं चलता?

- अपवाद तो सब जगह हैं; पर ये एक कड़वा सच है। या तो हम राजनीति छोड़ दें; पर इसमें रहना है तो फिर सौ प्रतिशत ईमानदारी से काम नहीं चलता। हम चाहें या नहीं, पर सिस्टम ऐसा बना हुआ है कि भ्रष्टाचार हो ही जाता है।

- वो कैसे?

- वो ऐसे कि हमारे क्षेत्र में जो भी नया निर्माण हो रहा है, वह सरकारी हो या निजी, उसमें हमारा और हमसे ऊपर वालों का निश्चित हिस्सा है। वह अपने आप पहुंच जाता है। इसे लोग भ्रष्टाचार नहीं मानते। हां, इससे अधिक हम कुछ मांगें; या हिस्सा मिलने पर भी काम में बाधा डालें, तो वह भ्रष्टाचार है।

- अच्छा?

- जी हां। हमने चुनाव में जो दो करोड़ खर्च किये हैं, दो साल तो उन्हें पूरा करने में ही लगेंगे। फिर अगले तीन साल में तीन करोड़ बचाने हैं। तभी तो अगला चुनाव लड़ सकेंगे। जितना इस बार खर्च हुआ है, अगली बार उससे डेढ़ गुना खर्च होगा। आपका जनाधार कितना भी बड़ा हो, पर पैसे ना हों, तो पार्टी वाले भी नहीं पूछते। जनता भी नेताओं के भ्रष्टाचार पर खास ध्यान नहीं देती। अब तो लोग सोचते हैं कि चुनाव के दौरान हमें क्या मिला? इसलिए चुनाव जीतने के लिए सब हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। और इस सबमें पैसा खर्च होता है। सरकारी योजनाओं में जो पैसा आता है, वह जन प्रतिनिधि की इच्छा के बिना खर्च नहीं होता।

- शायद इसीलिए लोग आजकल ग्राम प्रधान बनने के लिए भी लाखों रु. खर्च कर देते हैं।

- बिल्कुल ठीक कह रहे हो। एक बार कुरसी मिल जाए, फिर तो बिना कुछ किये ही पेट भरने लगता है। शासन-प्रशासन में सौ प्रतिशत लोग यह जानते हैं और 90 प्रतिशत इसे तंत्र का एक भाग समझकर मानते भी हैं।

- तो फिर इसका इलाज क्या है?

- जो व्यवस्था आज है, उसमें तो कोई इलाज नहीं है। बल्कि इसके बढ़ने की ही संभावना अधिक है। जिसके हाथ में काम रुकवाने या बिगाड़ने की ताकत है, उसे घर बैठे माल पहुंच जाता है। हम तो भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि हमारे हाथ से किसी का बुरा न हो जाए। बस..।

उस दिन रमेश के साथ रहकर मुझे जो ज्ञान मिला, वह अकल्पनीय था। मोदी जी आजकल भारत को ‘डिजीटल और कैशलैस’ बनाने में लगे हैं। उनका मत है कि इससे पारदर्शिता आएगी और भ्रष्टाचार रुकेगा। बहुत से लोग उनके समर्थक हैं; पर कुछ लोग ‘तुम डाल-डाल, हम पात-पात’ के अनुयायी भी हैं। भगवान करे मोदी जी इस मुहिम में सफल हों; पर वे होंगे या नहीं, और होंगे तो कितने, ये तो समय ही बताएगा।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 26 Oct 2018 at 2:39 PM -

अलसी या तीसी के औषधीय गुण

अलसी के औषधीय गुण तथा विभिन्न बीमारियों में उपयोग व फायदे-(अधिकांशतः सुनी हुई बातें हैं)-

अनेक जटिल समस्याओं के लिए अचूक औषधि है अलसी। अलसी का मराठी नाम जवस है। इसे उत्तर भारत में तीसी के नाम से भी जाना जाता है। अलसी असरकारी ऊर्जा, स्फूर्ति ... व जीवटता प्रदान करता है। अलसी, तीसी, अतसी, कॉमन फ्लेक्स और वानस्पतिक लिनभयूसिटेटिसिमनम नाम से विख्यात तिलहन अलसी के पौधे बागों और खेतों में खरपतवार के रूप में तो उगते ही हैं, इसकी खेती भी की जाती है। इसका पौधा दो से चार फुट तक ऊंचा, जड़ चार से आठ इंच तक लंबी, पत्ते एक से तीन इंच लंबे, फूल नीले रंग के गोल, आधा से एक इंच व्यास के होते हैं। इसके बीज और बीजों का तेल औषधि के रूप में उपयोगी है। अलसी रस में मधुर, पाक में कटु, पित्तनाशक, वीर्यवर्धक, वात एवं कफ नाशक व खांसी मिटाने वाली है। इसके बीज चिकनाई व मृदुता उत्पादक, बलवर्घक, शूल शामक और मूत्रल हैं। इसका तेल विरेचक (दस्तावर) और व्रण पूरक होता है।

अलसी की पुल्टिस का प्रयोग गले एवं छाती के दर्द, सूजन तथा निमोनिया और पसलियों के दर्द में लगाकर किया जाता है। इसके साथ यह चोट, मोच, जोड़ों की सूजन, शरीर में कहीं गांठ या फोड़ा उठने पर लगाने से शीघ्र लाभ पहुंचाती है। एंटी फ्लोजेस्टिन नामक इसका प्लास्टर डॉक्टर भी उपयोग में लेते हैं। चरक संहिता में इसे जीवाणु नाशक माना गया है। यह श्वास नलियों और फेफड़ों में जमे कफ को निकाल कर दमा और खांसी में राहत देती है।

इसकी बड़ी मात्रा विरेचक तथा छोटी मात्रा गुर्दो को उत्तेजना प्रदान कर मूत्र निष्कासक है। यह पथरी, मूत्र शर्करा और कष्ट से मूत्र आने पर गुणकारी है। अलसी के तेल का धुआं सूंघने से नाक में जमा कफ निकल आता है और पुराने जुकाम में लाभ होता है। यह धुआं हिस्टीरिया रोग में भी गुणकारी है। अलसी के काढ़े से एनिमा देकर मलाशय की शुद्धि की जाती है। उदर रोगों में इसका तेल पिलाया जाता हैं।

तनाव के क्षणों में शांत व स्थिर बनाए रखने में सहायक है। कैंसर रोधी है तथा हार्मोन्स की सक्रियता बढ़ाता है। अलसी इस धरती का सबसे शक्तिशाली पौधा है। कुछ शोध से ये बात सामने आई कि इससे दिल की बीमारी, कैंसर, स्ट्रोक और मधुमेह का खतरा कम हो जाता है। इस छोटे से बीज से होने वाले फायदों की फेहरिस्त काफी लंबी है,​​ जिसका इस्तेमाल सदियों से लोग करते आए हैं। इसके रेशे पाचन को सुगम बनाते हैं, इस कारण वजन नियंत्रण करने में अलसी सहायक है। रक्त में शर्करा तथा कोलेस्ट्रॉल की मात्रा को कम करता है। जोड़ों का कड़ापन कम करता है। प्राकृतिक रेचक गुण होने से पेट साफ रखता है। हृदय संबंधी रोगों के खतरे को कम करता है। उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करता है। त्वचा को स्वस्थ रखता है एवं सूखापन दूर कर एग्जिमा आदि से बचाता है। बालों व नाखून की वृद्धि कर उन्हें स्वस्थ व चमकदार बनाता है। इसका नियमित सेवन रजोनिवृत्ति संबंधी परेशानियों से राहत प्रदान करता है। मासिक धर्म के दौरान ऐंठन को कम कर गर्भाशय को स्वस्थ रखता है। अलसी का सेवन त्वचा पर बढ़ती उम्र के असर को कम करता है। अलसी का सेवन भोजन के पहले या भोजन के साथ करने से पेट भरने का एहसास होकर भूख कम लगती है। प्राकृतिक रेचक गुण होने से पेट साफ रख कब्ज से मुक्ति दिलाता है।
अलसी कैसे काम करती है
अलसी के चमत्कार को दुनिया ने माना है, आधुनिक युग में स्त्रियों की यौन-इच्छा, कामोत्तेजना, चरम-आनंद विकार, बांझपन, गर्भपात, दुग्धअल्पता की महान औषधि है। स्त्रियों की सभी लैंगिक समस्याओं के सारे उपचारों हेतु सर्वश्रेष्ठ और सुरक्षित है अलसी।

सबसे पहले तो अलसी आप और आपके जीवनसाथी की त्वचा को आकर्षक, कोमल, नम, बेदाग व गोरा बनायेगी। आपके केश काले, घने, मजबूत, चमकदार और रेशमी हो जायेंगे। अलसी आपकी देह को ऊर्जावान और मांसल बना देगी। शरीर में चुस्ती-फुर्ती बनी रहेगी, न क्रोध आयेगा और न कभी थकावट होगी। मन शांत, सकारात्मक और दिव्य हो जायेगा। अलसी में ओमेगा-3 फैट, आर्जिनीन, लिगनेन, सेलेनियम, जिंक और मेगनीशियम होते हैं जो स्त्री हार्मोन्स, टेस्टोस्टिरोन और फेरोमोन्स (आकर्षण के हार्मोन) के निर्माण के मूलभूत घटक हैं। टेस्टोस्टिरोन आपकी कामेच्छा को चरम स्तर पर रखता है।

अलसी में विद्यमान ओमेगा-3 फैट और लिगनेन जननेन्द्रियों में रक्त के प्रवाह को बढ़ाती हैं, जिससे कामोत्तेजना बढ़ती है। इसके अलावा ये शिथिल पड़ी क्षतिग्रस्त नाड़ियों का कायाकल्प करती हैं जिससे मस्तिष्क और जननेन्द्रियों के बीच सूचनाओं एवं संवेदनाओं का प्रवाह दुरुस्त हो जाता है। नाड़ियों को स्वस्थ रखने में अलसी में विद्यमान लेसीथिन, विटामिन बी ग्रुप, बीटा केरोटीन, फोलेट, कॉपर आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अलसी से, देह के सारे चक्र खुल जाते हैं।
अलसी के बीज के चमत्कारों का हाल ही में खुलासा हुआ है कि इनमें 27 प्रकार के कैंसररोधी तत्व खोजे जा चुके हैं। अलसी में पाए जाने वाले ये तत्व कैंसररोधी हार्मोन्स को प्रभावी बनाते हैं, विशेषकर पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर व महिलाओं में स्तन कैंसर की रोकथाम में अलसी का सेवन कारगर है। दूसरा महत्वपूर्ण खुलासा यह है कि अलसी के बीज सेवन से महिलाओं में सेक्स रोगों यथा गोनोरिया, नेफ्राइटिस, अस्थमा, सिस्टाइटिस, कैंसर, हृदय रोग, मधुमेह, कब्ज, बवासीर, एक्जिमा आदि के उपचार में भी उपयोगी है।

user image Jigyasa Editor

उत्कृष्ट जानकारी

Friday, October 26, 2018
user image Aneeeh Swaroop

Nice information!!!! Thank you for this...

Friday, October 26, 2018