Home

Welcome!

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 27 May 2020 at 7:01 PM -

स्त्री और पुरुष

पोस्ट बडी़ है. धैर्य पूर्वक पढे़ (सत्य पर आधारित यह पोस्ट)

मैं यह समझा सकता हूँ कि क्यों लोग (प्रेमी जोड़े या पति-पत्नी) एक दूसरे को कुछ समय बाद छोड़ देते हैं!

क्योकि इंसान मौलिक रूप से पोलिगेमस होता है, वैसे 99% सभी जीव ऐसे ही होते ... हैं तो कुछ नया नहीं है। विवाह का अर्थ सेक्स होता है विज्ञान में और लोगों की राय में भी, तो पोलिगेमस को हिंदी में बहुविवाही कह सकते हैं।

दुनिया मे सबसे सम्भोग नहीं किया जा सकता लेकिन जितनों से भी कर लिया जाए, ये मानव का मूलभूत प्रयास रहता है। क्योंकि न तो हर एक सम्भोग में बच्चे हो सकते हैं और न ही हर जन्तु प्रजनन क्रिया करने में सफल ही हो पाता है।

(मानवों में तो यह इसलिए भी बेमौसम होता है क्योंकि एक महिला सिर्फ ४०० अंडे पैदा करने की क्षमता लेकर दुनिया में आती है और माह में केवल एक दिन ही प्रजनन योग्य स्थिति में होती है जो हर माह का 14वां दिन होता है (यदि महिला स्वस्थ है और उसका माहवारी चक्र 28 दिन पर टिका हो)। बच्चे होने के सम्भावित दिवस 14वें दिन से 3 दिन पहले और 3 दिन बाद तक के हो सकते हैं। लेकिन ovolution (अन्डोत्सर्ग) वाले दिन न सिर्फ 100% बच्चे होने की सम्भावना होती है बल्कि महिला इसी दिन सम्भोग के प्रति वास्तविक रूप से लालायित होती है। उसकी योनी में श्लेष्मा का स्राव अधिक होने से सम्भोग की इच्छा अपने आप जागृत हो जाती है। इस एक हफ्ते में यदि वीर्य योनी से गर्भाशय में पहुचता है तो निषेचन की प्रक्रिया होगी अन्यथा यह अंडा आत्महत्या कर लेगा। इसी अंडे की प्रतिमाह आत्महत्या को हम माहवारी कह कर सम्बोधित करते हैं। (है न रोचक जानकारी, अब मत कहना कभी कि मैं महिलाओं को समझ नहीं सकता)।

अब सवाल उठता है कि कैसे पता चले कि अन्डोत्सर्ग वाला दिन कौन सा है? यह पता नहीं लगाया जा सकता क्योंकि अब मानव कपड़े पहन कर रहते हैं। पहले माहवारी के रक्त को बहता देख कर माहवारी के दिन का पता चल जाता था उसके बाद दिनों की गिनती करके अन्डोत्सर्ग का समय पता लगाया जा सकता था लेकिन अब इसे गंदा-घिनौना बता कर छिपा लिया जाता है।

(इससे दाग न लग जाए, इसलिए लोग आज भी गंदा कपड़ा इस्तेमाल करना उचित समझते हैं। सेनेटरी पैड महंगा जो है। अरे हाँ २ रूपये वाला भी आ गया है। लेकिन सिर्फ फिल्म में। अब आ गया है pad man से बढ़ कर चमत्कारी menstrual cup man! (ही ही ही)। जी हाँ, 150 (सिफ़ारिश करता हूँ) रुपए से लेकर 2000 रुपए तक की प्रारम्भिक खर्च के बाद 5 से 10 वर्ष तक माहवारी और कपड़े, सेनेटरी पैड से छुट्टी। खरीदने के लिए सम्पर्क करें)।

इसलिए कुल मिला कर पुरुष जानता ही नहीं कि प्रजनन का दिवस कब है। परिणामस्वरूप पुरुष हर समय सम्भोग की इच्छा जताता रहता है।

ये मानव दिमाग मे भरा हुआ है (coded in gene) कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा किये जायें ताकि मानव जाति या कोई भी जाति (अन्य जीवों के मामले में) बची रहे। इस प्रावस्था को natalism कहते हैं।

प्रकृति में ये ऐसा इसलिये था क्योंकि जब विवाह नहीं था और विज्ञान नहीं था तो सभी मानव बहुत कम समय तक जी पाते थे (अन्य जंतुओं की तरह)।

ऐसे में सिर्फ वही प्रजाति जीवित बची रह सकी जो ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने में सफल हुई। Evolution (उद्विकास) के दौरान केवल वही मानव जीवित बचे जो सम्भोग करने में और अधिक बच्चे पैदा करने में ज्यादा सफल हुए।

इन मानवों में सम्भोग के प्रति बहुत तीव्र इच्छा थी और इसी कारण ये यहाँ तक पहुच सके। यही तीव्र इच्छा आज के मेडिकल साइंस के आ जाने के कारण जनसँख्या बढ़ाने की ज़िम्मेदार कहलाई क्योकि अब लोग चिकित्सा विज्ञान के कारण कम मरते हैं।

लेकिन इंसान की प्रवृत्ति (instinct) नहीं बदली। वह वैसी ही रह गई।

लोगों ने इस प्रवृत्ति को बदलने के लिये monogamy (एकल विवाह) को अनिवार्य बनाया ताकि समाज मे धन का विनिमय करने के लिये मजदूर मिल सकें और प्रति व्यक्ति परिवार के होने के कारण बच्चों का पालनपोषण सुनिश्चित हो सके। इस प्रकार जनसँख्या तीव्र गति से बढ़ने लगी। समाज की अर्थव्यवस्था को चलाने के लिये मोनोगैमी काम आई और एक व्यक्ति से विवाह बहुत प्रसिद्ध हुआ।

लेकिन इसके दुष्परिणाम भी समय के साथ सामने आने लगे। एक समाज एक निश्चित स्थान पर स्थित परिवार के समान होता है। प्रायः समाज एक शहर, राज्य या एक देश तक सीमित होता है। संगठित रूप में यह एक समुदाय के रूप में होता है। इसकी एक निश्चित सीमा होती है, निश्चित संसाधन (resources) होते हैं और उनकी जीवटता उन्हीं पर निर्भर होती है। अर्थात यदि संसाधनों में कमी आयी तो समाज में समस्याएं आनी तय हैं।

उदाहरण 1: एक छोटे शहर में 50 घर हैं। वे लोग वर्तमान परिस्थितियों में 60 घरो का खर्च उठा सकें इतना ही कमाते हैं। यानी अभी इसमें 10 और घर बसाए जा सकते हैं। लेकिन जगह की कमी है। इसलिये वह संख्या 50 से आगे कभी नहीं बढ़ सकती। यह 10 घरों की अतिरिक्त राशि सभी परिवार आंशिक रूप से अपने भविष्य की विकट परिस्थितियों (आपातकाल) के लिये सुरक्षित रखते हैं।

लेकिन जनसँख्या समानुपातिक ढंग से बढ़ रही है। कारण है नेटालिस्टिक भावना और संस्कृति द्वारा इसके सन्दर्भ में बनाये गये विवाह और शीघ्र बच्चों को पैदा करने जैसे अनिवार्य व्यवहार/परम्पराएं।

नतीजा साफ है। अपराध जन्म ले चुका है। अतिरिक्त लोग सड़कों पर भिखारी, विकलांग, बेकार, बेरोजगार और गुंडे/चोर बनकर जीवन गुजारने लगे हैं। इससे उन 50 घरों को ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। उनका वह 10 घरों के बराबर का आंशिक जमा धन इनको पाल रहा है।

लोगों ने कानून बनाया लेकिन फिर भी भृष्टाचारी समाज उसका पालन नहीं कर सका। यही एक सामान्य समाज का आर्थिक ढांचा है। इस प्रकार लोग मरते और नए पैदा होते रहते हैं। लेकिन सिर्फ तभी तक जब तक मृत्युदर और जन्म दर -50 और +60 रहती है। +10 परिवारों की वह अतिरिक्त जनसँख्या है जो अपराध/छेड़छाड़/बलात्कार की जड़ है लेकिन घटिया/भृष्ट समाज में स्वीकार्य है।

उदाहरण 2: उपर्युक्त उदाहरण में एक नियमित समन्वय दिखाया गया है जब परिस्थिति नियंत्रण में है। अब आती है अनियंत्रित परिस्थिति (वर्तमान)। वर्तमान समय में चिकित्सा विज्ञान उत्तरोत्तर प्रगति कर चुका हैं। असाध्य रोग और समस्याएं सुलझाई जा रही हैं। जनसंख्या नियंत्रण खतरे में है। इंसान की औसत आयु 80 तक खिंच गई है। जो भविष्य में और ऊपर जा सकती है।

अब क्या होगा? सीमित जगह, सीमित संसाधन, सीमित स्थान लेकिन अधिक आबादी।

1. आपके बच्चे: मम्मी-पापा का कमरा खाली हो जाता तो उनके पोते-पोतियों को दूसरे शहर में ऋण लेकर नया घर न लेना पड़ता।

2. आपके पोते-पोती: ये बुड्ढे-बुढ़िया मरते क्यों नही? मुझे सम्पत्ति की ज़रूरत है और ये कुंडली मारे बैठे हैं।

3. बैंक: 100 साल तक ही पेंशन मिलेगी माता जी। उसके बाद भी जिंदा रहीं तो कुछ और जुगाड़ ढूंढ लो।

जब लोग ज्यादा और संसाधन कम होंगे तो क्या होगा? सब एक दूसरे का मुहँ ताकना शुरू।

अब क्या करें? फिर से मौत पीछे? फिर क्या फायदा जीकर जब जीने को साधन नहीं। फिर से आदिमकाल शुरू। फिर से संघर्ष? फिर से एक दूसरे से छीनने का दौर शुरू। हिंसात्मक दृश्य। सब लड़-भिड़ के पुनः समाप्ति की ओर। यह क्या? तो क्या करें? बच्चे न पैदा करें? नेटालिस्टिक प्रवृत्ति का लोप कर दें? तब anti-natalist समाज समाप्ति की ओर नहीं बढ़ जाएगा? मानव जाति समाप्त नहीं हो जाएगी?

चलिये देखते हैं। अभी हमने बात की थी कि पोलिगेमस मानव को सदियों से मोनोगेमस बनाये जाने का प्रयास किया गया। लेकिन फिर भी इसका उल्लंघन हुआ और आज भी विश्व के 80% परिवार अपने वंश को नहीं चला रहे हैं।

(असल में तो कोई भी नहीं चला रहा* लेकिन जो सोचते हैं कि वे चला रहे हैं तो उनके लिये बुरी खबर। विदेशों में कुछ वर्ष पूर्व एक सर्वे हुआ। जिसमें कई परिवारों के DNA जांच की गयी और समझिये विस्फोट सा हुआ। कोई भी बच्चा उनके माता-पिता का नहीं निकला। पड़ोसियों के निकले।

*वंश चलाने के लिये यह परम आवश्यक है कि सभी 28 गुणसूत्र एक ही वंश से आये हों। अर्थात आपके माता-पिता एक ही माता-पिता की सन्तानें होना परमावश्यक है। इसी सिद्धान्त पर मिस्र में सदियों तक वंश चले। यदि आपके माता-पिता एक ही परिवार के रक्त सम्बन्धी नहीं हैं तो आपके आधे गुणसूत्र आपके पिता के और आधे आपकी माता के वंश के होंगे। यानी अशुद्ध वंश)।

तो क्या सीखा? मतलब प्रवृत्ति पर पूरी तरह रोक लगाना असम्भव। इसलिये मोनोगैमी की तरह एन्टी नेटालिस्ट सोच लाइये। जनसँख्या को स्वेच्छा से रोकिये। गर्भनिरोधकों का जम कर उपयोग करें। सरकार का सहयोग लें। कंडोम, नसबंदी, मैथुन भंग, डायफ्राम, IUV (आधुनिक और सुरक्षित 3 से 5 वर्ष तक), copper T, फीमेल कंडोम (reusable), 72 घंटे, आई पिल, माला-डी, सहेली, डिम्पा इंजेक्शन इत्यादि का विकल्प चुनें। अनजान साथी से सम्भोग करते समय कंडोम प्रयोग करें या उसकी STD/HIV जांच अवश्य करवा लें।

कुछ लोग मेरी बात कभी नहीं मानेंगे और जो विवाह को त्यागेंगे वे live-in-relationship में बच्चे पैदा करेंगे ही और जनसँख्या संतुलित हो जाएगी।

अब बात आती है कि हम पोलिगेमस हैं तो यह प्यार किस चिड़िया का नाम है? क्यों एक के साथ चिपक जाता है यदि इंसान पोलिगेमस है असल में?

तो दिल थाम कर इसका विश्व में प्रथम बार रहस्योद्घाटन देखिये शुभाँशु की कलम से।

इंसान खाली नहीं बैठ सकता। इसलिये उसे कोई न कोई काम चाहिए। कुछ नहीं तो मनोरंजन या गप शप करने के लिये ही सही, एक साथी। ये बात सिर्फ इंसान के लिये ही सही नहीं है। लगभग सभी जीव-जंतु ऐसा ही करते हैं। उनको भी कोई न कोई चाहिए ताकि अपना फालतू समय काट सकें। जिनको यह साथी नहीं मिल पाता वे या तो निर्जीव वस्तुओं से मनोरंजन करते हैं। जैसे खेल इत्यादि या वे सोते रहते हैं।

इस प्रकार जो आनन्द प्राप्त होता है, उससे सभी के मस्तिष्क से डोपामिन, सेरोटोनिन, ऑक्सीटोसिन तथा एंडोर्फिन्स हार्मोन निकलता है जो एडिक्टिव (जिसकी लत लग जाती है) होता है। इनके अतिरिक्त विशेष प्रकार के शरीर से जोड़ रखने वाले फेरोमोन भी होते हैं जो मानव की पसीने की ग्रन्थियों से स्रावित होते हैं। यह ऐसे गुण रखते हैं जो केवल नाक् के विशेष ग्राहियों (receptors) को ही महसूस होते हैं। जिनको आप पहचान नहीं सकते अर्थात गन्धहीन होते हैं। यह सीधे कामोत्तेजना पैदा कर सकते हैं। आपने इसी के कारण पहली ही मुलाकात में प्यार हो जाने वाला गुण पाया है। भाई-बहन-माता-पिता-पुत्री-पुत्र के फेरोमोन समान होने के कारण उनमें इनका प्रभाव हल्का होता है। लेकिन साफसफाई से रहने के कारण यह फेरोमोन अब बेकार हो गए। विपरीत फेरोमोन एक दूसरे को आकर्षित और समान प्रतिकर्षित करते हैं।

प्राचीन काल में पसीने की गंध सेक्स का turn on होती थी। लेकिन आज डिओडरेंट ने इसको एक बुराई में बदल दिया है। अब हम बैक्टीरिया जनित मल की गंध को साफ करने के चक्कर में असली फेरोमोन को भी ख़त्म कर रहे हैं।

इसी लत को प्यार/love/मोहब्बत/इश्क/प्रेम कहते हैं। ये किसी भी चीज से हो सकता है। जिससे भी आनन्द की प्राप्ति हो। परंतु संभोग की इच्छा ऑक्सीटोसिन और डोपामिन का मिला जुला प्रभाव होता है जिसमें ऑक्सीटोसिन love को बढाने वाला addictive हार्मोन कहा जाता है। इसके प्रभाव से यौनांगों का विकास शीघ्र हो जाता है। यह माता में दुग्ध उत्पादन में भी सहयोग करता है।

आवश्यकतानुसार इसमें भेद भी उत्पन्न हुए और जब मानव समाज रिश्ते बना रहा था तो उसने प्रेम को तरह-तरह के भेदों में बांट लिया।

माता-पिता का प्यार, भाई-बहन का प्यार, रिश्तेदारों का प्यार, दोस्तों का प्यार, शिक्षक और विद्यार्थियों का प्यार और सबसे महत्वपूर्ण, रोमांस वाला प्यार (विश्व प्रसिद्ध), आकर्षण का सुख, कामोत्तेजना का आनन्द, संभोग का आनंद।*

(*सम्भोग का आनंद एक ऐसा आनंद है जिसके कारण प्रजनन की भावना जीवित है। यह सभ्यता के साथ-साथ मनोरंजन में बदल गया। इसी के चलते पोलिगेमस स्वभाव फलाफूला। इसे आम भाषा में हवस (lust) कहते हैं। यह डोपामिन और ऑक्सीटोसिन का मिला जुला प्रभाव हैं। यह एक सम्पन्न समाज में एक अनिवार्य समझी जाने वाली बुराई* यानि वैश्यावृत्ति और पोर्न बन कर उभरा। पोलिगेमस पुरुषों ने सत्ता में आकर नगर वधु का चलन शुरू किया। नाम से ही स्पष्ट है कि सारे नगर की पत्नी। यह विधुरों (जिसकी पत्नी मर गई हो) के लिए शुरू की गई सेवा रही होगी लेकिन जल्द ही इसने पूरे नगर को अपनी चपेट में ले लिया। कारण वही, एक बार से दिल नहीं भरता, जाऊंगा मैं फिर दोबारा। क्यों? आखिर क्यों एक साथी से दिल नहीं भरता?

*बुराई इसलिए क्योंकि कुछ लोगों ने इनके चक्कर में अपनी पत्नी ही छोड़ दी।

प्रश्न: इन वैश्याओं के बच्चों का क्या होता है?

उत्तर: लड़की को रख लिया जाता है और लड़के को मार डाला जाता है। जी हाँ, आज भी)।

ऐसा पाया गया है कि एक ही साथी से सम्भोग करते-करते बोरियत हो जाती है। यानि कामोत्तेजना ही समाप्त हो जाती है। अब क्या करें? वियाग्रा/केलियास खाएं? अगर एक के साथ ही रहना है तो अवश्य खाइए लेकिन इसके दुष्परिणाम भी इन्टरनेट पर देखें। बहुत लोग मर गए इन दवाओं के प्रयोग से।

कमाल देखिये, नयी/नया साथी देखते ही ये बंद कलियाँ खिलने लगती हैं। जगह/स्थान/रोल बदलने से भी कुछ समय तक यही असर। फिर क्या कोई 1500-2000 रुपये की गोली लेगा या नया साथी? (अरे भई सेक्स गुरु नहीं हूँ। जानकारी रखता हूँ। अनुभव भी है कुछ।)

प्रारम्भ में केवल विपरीत लिंग के लोगों में ही रोमांस सम्भव माना जाता था परंतु कालांतर में इसके अन्य भेद भी सामने आए। जैसे LGBTQ*

(LGBTQ = Lesbian, Gay, Bisexual, Transgender, Questioned)।

इन सभी रोमांटिक प्रेमों के खिलाफ धर्म और कानूनों ने व्यापक मुहिम छेड़ दी।

खरबों जोड़ो को मार डाला गया, उनके ही, अपने घरवालों के द्वारा, या जो जोड़े नहीं मार पाए गए, उनको बाकायदा पापी घोषित करके धर्म के ठेकेदारों ने कत्ल कर दिया।

क्यों?

बहुत कड़वा जवाब है इस क्यों का। जानने से पहले खुद को मजबूत कर लो...

तो चलो कुछ सवालों का जवाब ढूंढते हैं पहले:

विवाह जो समर्थन प्राप्त संस्था है, उसकी सामान्य विधि क्या है?

1. अपनी ही जाति और स्टेटस वाले, सुदंर चेहरे वाले या उनसे ऊपर के खानदान से बात चलाई जाती है।

2. यदि बात नहीं बनती तो कम से कम में जो भी मानक पूरे करता हो उसके साथ रिश्ता पक्का किया जाता है।

3. धन का लेनदेन शुरू।

4. विवाह के उम्मीदवारों से या तो कुछ नहीं पूछा जाता है या कुछ लोग (जो खुद को आधुनिक कहते हैं) फ़ोटो दिखा कर या आमने-सामने बिठा कर परिचय करवा देते हैं। ज्यादा सम्पन्न हैं तो आपस में फोन पर बकलोली भी होती है।

5. फिर उचित समय निर्धारित करके, विवाह समारोह आयोजित किया जाता है जिसमे ज्यादा से ज्यादा लोगों को, अपना स्टेटस दिखाने और जान पहचान बढ़ाने के लिये, तथा नेग/उपहार रूपी धन की वापसी की उम्मीद में, बुलाया जाता है।

इनकी आव-भगत की जाती है, वर पक्ष और वधू पक्ष के तमाम लोग इस तमाशे में शामिल होते हैं। जिनको भोजन कराने, ठहराने, घुमाने, लाने और ले जाने की व्यवस्था मेजबान करता है। भारी धन हानि। सूट बूट में तोंद वाले लोग आकर गरिष्ठ और महंगा भोजन भकोसते हैं और भरी हुई प्लेट कूड़े के ढेर में फेंक देते हैं।

6. इस सब के बाद या पहले (परम्परानुसार) विवाह की रस्म होती है। जिसमे कोई धार्मिक पुजारी/काजी/मुल्ला/पादरी आकर वर और वधु को सैकडों लोगों की मौजूदगी में जीवन भर साथ रहने की शपथ दिलवाता है और ईश्वर का डर दिखाता है कि यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो बुरा होगा। सभी लोग इस agreement के गवाह बनते हैं और आज कल तो इसकी वीडियो रिकॉर्डिंग भी करा ली जाती है कि कहीं दोनों में से कोई भाग निकला तो पकड़ा जा सके।

7. सम्भोग रात्रि (सुहाग रात): दो अनजान लोग सीधे कुश्ती लड़ते हैं। समाज का कुंवारी कन्या को प्रथम सम्भोग में रक्त रंजित करके यह कहना कि उसकी इस रक्त पात में सहमति थी। कमाल का समाज है न?

(यह तथ्य है कि बिना foreplay के कुवारी कन्या कभी कौमार्य भंग करवाने की इच्छुक नहीं हो सकती। भारतवासी ये foreplay किस चिड़िया का नाम है यही पूछते रहते हैं, आप अब समझ गए होंगे कि बलात्कार संस्कृति कैसे बनता है। कानून भी संस्कृति से प्रेरित। मेरिटल रेप पहले दिन ही हुआ है तो सभी पति जेल में होंगे। इसलिए जज दुरूपयोग का बहाना बना कर इसे टाल देते हैं। कुछ ऐसा ही जैसे पुरुष का बलात्कार कानून में अपराध नहीं है। बस खाली कहने को सम्विधान में समानता का अधिकार है)।

इतनी बड़ी परियोजना केवल 2 लोगों के बच्चे पैदा करने के लिये? नहीं मित्रों, बहुत बड़ी साजिश है इसके पीछे।

ये सब इसलिये ताकि कोई भी अपनी मर्जी से विवाह न कर ले। एक विवाह एक व्यापारी के लिए विज्ञापन, एक कारपोरेट के लिये नए व्यापार के लिये रास्ते खोलने वाला और बड़े लोगो से सम्पर्क बनाना हो सकता है।

धर्म को क्या फायदा है? जितने ज्यादा कमाने वाले होंगे उतना ज्यादा दान। उतने ज्यादा नामकरण, यग्योपवीत संस्कार, मुंडन, इत्यादि 16 संस्कारों में धन कमाने का अवसर। और फिर खानदानी लॉयल्टी।

अब अगर उन माता-पिता के बच्चे खुद ही अपना जीवन साथी चुन लेंगे तो उनके इस प्लान का क्या होगा?

भारत के परिपेक्ष्य में:

वधू पक्ष: कितने निष्ठुर हैं न ये माता पिता? एक तो लड़की को घर से विदा कर दिया जबरन और फिर रोने का नाटक भी? ज़िन्दगी भर अपमान करवाने और ससुराल वालों के नखरे और फरमाइशों को पूरा करने का वादा भी कर लिया। उनकी तरफ के बच्चे का भी चरणस्पर्श। दान देने वाला बाप छोटा और लेने वाला बड़ा?

वर पक्ष: एक तो लड़की ले आये दूसरे की खा पी कर, साथ में पैसा भी ले आये, फिर भी dowry चाहिए? नहीं दें तो?

1. लड़की केरोसीन stove से जल मरी। दुर्घटना है।

2. लड़की ने जहर खा लिया। कायर है।

3. लड़की के फांसी लगा ली। चाय में चीनी डालने को कह दिया, इतनी सी बात पर नाराज हो गई थी।

4. नई शादी...

5. Repeat...

यदि दहेज की मांग पूरी करते रहे:

वधू पक्ष:

1. गरीबी में जीवन।

2. अपनी ही लड़की को कोसना।

3. किस्मत को कोसना।

4. अपने लड़के की शादी में 2 गुना दहेज माँगूँगा तब जा कर कुछ आराम मिलेगा।

उधर वर-वधु का जीवन:

पति:

1. तू लाई ही क्या थी? ये दो कौड़ी का सामान?

2. तेरे बाप ने तुझे यही सिखा पढ़ा के भेजा है कि तू हमसे जुबान लड़ाती है?

3. अब तेरे में वो पहले वाली बात नहीं रही, अब तेरे साथ मज़ा नहीं आता।

4. आफिस में अपनी जूनियर को पटाऊंगा। वो नया माल लगती है।

5. अब मस्त ज़िंदगी है, घरवाली और बाहरवाली दोनों होनी चाहिए।

सास:

1. अरे करमजली, फिर दूध जला दिया, यही सिखा कर भेजा है तेरी माँ ने?

2. अरे नास पीटी, तुझ से कहा था कि मुझे नाश्ता टाइम पर चाहिए, अभी तेरे बाप को बुलाती हूँ ठहर जा।

3. अरे ये पोछे का पानी अब तक नहीं सूखा? अभी मैं गिर जाती तो? मार डालने का प्लान है।

4. फिर लड़की? लड़का कब देगी तू डायन?

ससुर:

1. बहू, ज़रा मेरा भी थोड़ा ध्यान रख लिया कर, तेरी सास तो कुछ करती नहीं है, तू आ गई तो लगा कि जीवन आराम से कट जाएगा, मेरे कपड़े, सामान वगेरह का ध्यान तुमको ही रखना है अब।

बहू:

1. एक आदमी से शादी की थी, ये तो पूरा कुटुंब ही पल्ले पड़ गया। क्या क्या कर लूँ अकेले मैं?

2. इज़्ज़त तो कोई है नहीं, नौकर बन कर जीना पड़ रहा है।

3. लड़का क्या पड़ोस से कर लूं? जो होगा वही तो मिलेगा? में क्या जानू पेट मे क्या पल रहा है?

4. मैं कहाँ फंस गई?

5. वो पी कर आते हैं, 1 मिनट से ज्यादा सम्भोग नहीं करते, में तड़पती रहती हूं।

6. देवर की नज़र मेरे ऊपर है, अब तक खुद को रोका लेकिन अब कहीं फिसल न जाऊं।

7. पड़ौस का लड़का बहुत लाइन मारता है, इधर मुझे ये खुश कर नहीं पाते, कहीं मन बहक न जाये।

8. अब क्या कर सकती हूं, ऐसे ही जीना है अब मुझको। चुप रहूंगी।

ऑफिस की जूनियर:

1. Sir ने मेरा रेप किया। किस से कहूं? सहेली से कहती हूँ।

2. पागल हो गई क्या? वो तेरे से मजे ले रहा है तो लेने दे, मैंने भी यही झेला है। कुछ कहेगी तो demotion करवा देगा या निकलवा देगा, कॉन्ट्रासेप्टिव लेती रहना। सब ठीक होगा। किसी से कहना मत, नहीं तो सब तुझे ही गलत कहेंगे। सोसायटी लड़कियों को जॉब करते नहीं देख सकती, उनके लिये तो हम हमेशा धंधे वाली ही रहेंगे। और तुझे करना क्या है? शादी ही न? कर देगा तेरा बाप।

परिणाम: विवाह सफल! बधाई हो। लड़का हुआ है।

गुलामी स्वीकार कर लो तो कोई दिक्कत नहीं है। लड़की समाज के पांव की जूती ही तो है। लड़की का तो नाम ही समर्पण है। बोले तो आत्मसमर्पण (surrender)।

विरोध किया तो? समस्या शुरू। यहीं से सब दिक्कत शुरू है। समाज कहता है कि विरोध मत करो।

तो मत करिए, यही चाहते हैं न आप सब भी? जो चलता है चलने दो न। शुभांशु जी काहे पंगा ले रहे हैं दुनिया से? उंगली न करें। अच्छा नहीं होगा। है न?

इस सब का विरोध शुरू से क्यों नहीं हुआ? क्योकि इसको चलाने में धर्म का बहुत बड़ा हाथ था जिसके डर से लोगों ने विरोध नहीं किया।

"लड़की की अब लाश ही वापस आएगी।"

"पति का घर ही अब उसका घर है।"

इसी तरह लोग अपनी वास्तविक पृवृत्ति को छुपा कर जीने लगे, अपने पोलिगेमस होने को दबाए रहे, लेकिन समय बदला और इसके बुरे परिणाम सामने आने लगे, क्योकि इंसान अपनी पृवृत्ति को नहीं बदल सकता और बलात्कार का आविष्कार हुआ।

विवाहेतर सम्बन्ध, बलात्कार और हत्या सब अवैध कहलाने के डर से चुप चाप होने लगीं।

समाज के ठेकेदारों ने इस पर सजा रख दी लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, बलात्कार के बाद सज़ा के डर से लड़की को मारा जाने लगा, यानी सज़ा से फायदे के स्थान पर नुकसान हो गया।

आज भी यही हो रहा है, दिल्ली रेप केस में ज्यादातर लड़के शादी शुदा थे। जो नाबालिग थे उनको शादीशुदा लोग भड़काते और उकसाते हैं। कहते हैं, नहीं करेगा? मर्द नही है साला।

शादी शुदा जीवन तो पत्नी का बलात्कार ही होता है 90%। कितनी पत्नियां होंगी जो खुद पति से आकर कहती हैं, "ऐ जी बहुत मन कर रहा है आज, चलो कमरे में।"

हमेशा पति ही अपनी इच्छा पूर्ति करता रहता है, महिला तो कह तक नहीं पाती। और यदि कहे तो? रंडी है, छिनाल है। पति भी कौन सा स्टैमिना वाला होता है, 1 या 2 मिनट में out। मौसम की तरह। जब मौसम का मजा आने लगता है तभी खत्म।

जो लोग बलात्कार नही कर सकते थे वो gf-bf खेलने लगे। वैसे इसमें भी पहले दिन बलात्कार होता ही है। इसे डेट रेप कहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि ये बलात्कारी प्यार का वास्ता देकर मना लेता है, जबकि दूसरे बन्दूक दिखा कर या ब्लैकमेल करके।

और क्या आपको सबसे बढ़िया उपाय पता है बलात्कार के केस से बचने का? लड़की से समझौता करके शादी कर लो। वह केस अपने आप ही निरस्त हो जाएगा। फिर चाहे उसी दिन तलाक/divorce देकर मुक्त हो जाओ। कमाते हो तो गुजारा भत्ता देने का नुकसान होगा। साथ ही कभी-कभी माफी मांगने भी जा सकते हैं, रात भर माफी मांगिये फिर अपने रस्ते। लड़की तलाक न दे तो? घरेलू हिंसा है न। झक मार के देगी...तलाक।

जब मुझे ये सब पता है तो मैं प्यार का नाटक नहीं करता, जिसके साथ सेक्स का मन है उस से सेक्स करो और जिस से प्यार करना है उस से प्यार करो। दोनों को मिलाने से ही क्लेश और अपराध होते हैं। सेक्स लोयल्टी की निशानी नहीं होता, लेकिन प्यार होता है।

इतना गन्दा समाज, इतना घटिया सिस्टम, इतने घटिया लोग। फिर क्यों न मैं साथ दूँ लिव इन रिलेशनशिप का? कोई दखल नहीं दूसरे का। आज़ादी, दो लोगों का व्यक्तिगत सम्बन्ध। ये उनके लिए जो बच्चे चाहते हैं।

जिनके बच्चे नहीं और अलग/व्यस्त रहते हैं तो वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिये नौकर रख लें और माता-पिता स्वीकार लें इस सम्बंध को। नौकर, जिसकी पुलिस पड़ताल हो चुकी हो।

जो Antinatalist Vegans* हैं, वे Freesex का concept पढ़ें और सेफ सेक्स और प्यार को कायदे से मैनेज करें।

*Vegan: बहुत हो गया और जानकारी फिर कभी! इतने में ही मेरे को मारने को ढूंढ रहे होंगे आप सब। सबकी पोल जो खोल के फैला दी है! (ही ही ही) फिर से पिटने के लिए जल्द ही आऊंगा। डंडों को तेल पिला कर लगे रहिये मेरी जासूसी में।

अस्वीकरण: मेरी व्यक्तिगत सोच, किसी को बाध्य नहीं किया गया है। वही करें जो दिल कहे। धन्यवाद।

Final Edited: 2018/02/16 17:55 IST, First written: 2017/06/16 06:51 IST

मौलिक लेख: ~ Shubhanshu Singh Chauhan.....

सीप का मूल्य

एक 6 वर्ष का लडका अपनी 4 वर्ष की छोटी बहन के साथ बाजार से जा रहा था।
अचानक से उसे लगा की,उसकी बहन पीछे रह गयी है।
वह रुका, पीछे मुडकर देखा तो जाना कि, उसकी बहन एक खिलौने के दुकान के सामने खडी कोई चीज ... निहार रही है।
लडका पीछे आता है और बहन से पुछता है, "कुछ चाहिये तुम्हे ?" लडकी एक गुड़िया की तरफ उंगली उठाकर दिखाती है।
बच्चा उसका हाथ पकडता है, एक जिम्मेदार बडे भाई की तरह अपनी बहन को वह गुड़िया देता है। बहन बहुत खुश हो गयी है।
दुकानदार यह सब देख रहा था, बच्चे का व्यवहार देखकर आश्चर्यचकित भी हुआ ....
अब वह बच्चा बहन के साथ काउंटर पर आया और दुकानदार से पुछा, "सर, कितनी कीमत है इस गुड़िया की ?"
दुकानदार एक शांत व्यक्ती है, उसने जीवन के कई उतार चढाव देखे होते है। उन्होने बडे प्यार और अपनत्व से बच्चे से पुछा, "बताओ बेटे, आप क्या दे सकते हो?"
बच्चा अपनी जेब से वो सारी सीपें बाहर निकालकर दुकानदार को देता है जो उसने थोडी देर पहले बहन के साथ समुंदर किनारे से चुन चुन कर लायी थी।
दुकानदार वो सब लेकर युं गिनता है जैसे पैसे गिन रहा हो।
सीपें गिनकर वो बच्चे की तरफ देखने लगा तो बच्चा बोला,"सर कुछ कम है क्या?"
दुकानदार :-" नही नही, ये तो इस गुड़िया की कीमत से ज्यादा है, ज्यादा मै वापिस देता हूं" यह कहकर उसने 4 सीपें रख ली और बाकी की बच्चे को वापिस दे दी।
बच्चा बडी खुशी से वो सीपें जेब मे रखकर बहन को साथ लेकर चला गया।
यह सब उस दुकान का नौकर देख रहा था, उसने आश्चर्य से मालिक से पुछा, " मालिक ! इतनी महंगी गुड़िया आपने केवल 4 सिपों के बदले मे दे दी ?"
दुकानदार हंसते हुये बोला,
"हमारे लिये ये केवल सीप है पर उस 6साल के बच्चे के लिये अतिशय मूल्यवान है। और अब इस उम्र मे वो नही जानता की पैसे क्या होते है ?
पर जब वह बडा होगा ना...
और जब उसे याद आयेगा कि उसने सिपों के बदले बहन को गुड़िया खरीदकर दी थी, तब ऊसे मेरी याद जरुर आयेगी, वह सोचेगा कि,,,,,,
"यह विश्व अच्छे मनुष्यों से भरा हुआ है।"
यही बात उसके अंदर सकारात्मक दृष्टीकोण बढाने मे मदद करेगी और वो भी अच्छा इंन्सान बनने के लिये प्रेरित होगा।
............................................................
#राधे_राधे

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 17 May 2020 at 9:28 AM -

शून्य

सिद्धार्थ प्रतिदिन की भांति उपवन में टहल रहे थे। तभी आकाश से फड़फड़ाता हुआ एक हंस उनके पास आ गिरा।

सिद्धार्थ ने कुतूहलवश उसको निकट जाकर देखा। वह घायल था। उसको तीर चुभा हुआ था। सिद्धार्थ ने उसका तीर निकाला और उसको पानी पिलाया। बाद में ... उसको लेकर उसका देवदत्त से विवाद भी हुआ। विवाद के समाधान के लिए वो न्यायाधीश के पास गए।

न्यायाधीश ने कहा- मारने वाले से बचाने वाले का हक ज्यादा होता है।
सिद्धार्थ बचपन से ही दयालु था लेकिन न्यायाधीश के इस वाक्य ने राजकुमार को चिंतक बना दिया। उस हंस को सिद्धार्थ ने पाल लिया। उसकी वो खुद ही देखरेख करने लगे। वह मादा हंस था। उसने एक दिन एक अंडा दिया। हंस को पूर्व अनुभव से पता था कि इस अंडे से बच्चा नहीं निकल सकता इसलिए उसने मन ही मन यह सोचा कि सिद्धार्थ इसको खा ले तो अच्छा। सिद्धार्थ को उसकी बात अपने अंदर महसूस हुई।
सिद्धार्थ चक्कर में पड़ गए। वो सोचने लगे कि ऐसा कैसे हो सकता है। कोई मां अपनी संतान के बारे में ऐसा कैसे सोच सकती है। उसने अपनी माँ से पूछा तो वह भी विस्मित हो गयी। जब उसने उस न्यायाधीश से पूछा तो वह भी चक्कर में पड़ गया। उस न्यायाधीश ने सोचा कि संभव है यह पक्षी अपने ऊपर किये गए अहसान का बदला अपनी संतान की बलि देकर चुकाना चाहता हो। न्यायाधीश ने अपने मन की बात सिद्धार्थ को बताई। सिद्धार्थ और भी सोच में पड़ गया। क्या अहसान का बदला इस तरह से चुकाया जाता है। सिद्धार्थ सोच में पड़ गए। वो हंस को लेकर अपने कक्ष में चले गए। वह इसी चिंतन में डूब गए। वह समाधि में चले गए। उनकी चेतना हंस की मानसिक तरंगों से जुड़ गई। वो जान गए कि इस अंडे में जीव नहीं है। वो यह भी जान गए कि इस अंडे में जीव क्यों नहीं है।
तत्पश्चात उन्होंने उस अंडे को ले जाकर एक मोर को खिला दिया।

इस घटना से उनके हृदय में ज्ञान की प्यास जाग उठी। वो सोचने लगे कि इंसान कितना कम जानता है। उनको लगने लगा कि उससे ज्यादा तो यह हंस जानता है। सिद्धार्थ ने उस हंस को उपवन के सरोवर के पास छोड़ दिया। वो वहां अक्सर जाते और समाधिस्थ होकर उससे बातें करते। वह उस अंडे के बारे में सोचते। यह न नर है न मादा है। यह न शाकाहार है न मांसाहार है। इसमें जीवन की सम्पूर्ण सामग्री है फिर भी यह मृत है। इसमें जीवन क्यों नहीं है। संभोग करने से इसमें जीवन हो जाता तो उसका क्या नियम है। ऐसे अंडे को कौन सा विशेषण दिया जाए। उनके दिमाग में उस अंडे की ऐसी छवि बनी कि उसको उन्होंने शून्य का नाम दिया। आगे चलकर यह शून्य ही उनके ज्ञान का आधार बन गया।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 12 May 2020 at 6:42 PM -

Do Behnein - Munshi Premchand दो बहनें - मुंशी प्रेम चंद


Do Behnein -
Munshi Premchand
दो बहनें - मुंशी प्रेम चंद

1
दोनों बहनें दो साल के बाद एक तीसरे नातेदार के घर मिलीं और खूब रो-धोकर खुश हुईं तो बड़ी बहन रूपकुमारी ने देखा कि छोटी बहन रामदुलारी सिर से पाँव तक गहनों से लदी हुई है, कुछ ... उसका रंग खुल गया है, स्वभाव में कुछ गरिमा आ गयी है और बातचीत करने में ज्यादा चतुर हो गयी है। कीमती बनारसी साड़ी और बेलदार उन्नावी मखमल के जम्पर ने उसके रूप को और भी चमका दिया-वही रामदुलारी, लडक़पन में सिर के बाल खोले, फूहड़-सी इधर-उधर खेला करती थी। अन्तिम बार रूपकुमारी ने उसे उसके विवाह में देखा था, दो साल पहले। तब भी उसकी शक्ल-सूरत में कुछ ज्यादा अन्तर न हुआ था। लम्बी तो हो गयी थी, मगर थी उतनी ही दुबली, उतनी ही फूहड़, उतनी ही मन्दबुद्धि। जरा-जरा सी बात पर रूठने वाली, मगर आज तो कुछ हालत ही और थी, जैसे कली खिल गयी हो और यह रूप इसने छिपा कहाँ रखा था? नहीं, आँखों को धोखा हो रहा है। यह रूप नहीं केवल आँखों को लुभाने की शक्ति है, रेशम और मखमल और सोने के बल पर वह रूपरेखा थोड़े ही बदल जाएगी। फिर भी आँखों में समाई जाती है। पच्चासों स्त्रियाँ जमा हैं, मगर यह आकर्षण, यह जादू और किसी में नहीं। 
कहीं आईना मिलता तो वह जरा अपनी सूरत भी देखती। घर से चलते समय उसने आईना देखा था। अपने रूप को चमकाने के लिए जितना सान चढ़ा सकती थी, उससे कुछ अधिक ही चढ़ाया था। लेकिन अब वह सूरत जैसे स्मृति से मिट गयी है, उसकी धुँधली-सी परछाहीं भर हृदय-पट पर है। उसे फिर से देखने के लिए वह बेकरार हो रही है। वह अब तुलनात्मक दृष्टि से देखेगी, रामदुलारी में यह आकर्षण कहाँ से आया, इस रहस्य का पता लगाएगी। यों उसके पास मेकअप की सामग्रियों के साथ छोटा-सा आईना भी है, लेकिन भीड़-भाड़ में वह आईना देखने या बनाव-सिंगार की आदी नहीं है। ये औरतें दिल में न जाने क्या समझें। मगर यहाँ कोई आईना तो होगा ही। ड्राइंग-रूम में जरूर ही होगा। वह उठकर ड्रांइग-रूम में गयी और क़द्देआदम शीशे में अपनी सूरत देखी। वहाँ इस वक्त और कोई न था। मर्द बाहर सहन में थे, औरतें गाने-बजाने में लगी हुई थीं। उसने आलोचनात्मक दृष्टि से एक-एक अंग को, अंगों के एक-एक विन्यास को देखा। उसका अंग-विन्यास, उसकी मुखछवि निष्कलंक है। मगर वह ताजगी, वह मादकता, वह माधुर्य नहीं है। हाँ, नहीं है। वह अपने को धोखे में नहीं डाल सकती। कारण क्या है? यही कि रामदुलारी आज खिली है, उसे खिले जमाना हो गया। लेकिन इस ख्याल से उसका चित्त शान्त नहीं होता। वह रामदुलारी से हेठी बनकर नहीं रह सकती। ये पुरुष भी कितने गावदी होते हैं। किसी में भी सच्चे सौन्दर्य की परख नहीं। इन्हें तो जवानी और चंचलता और हाव-भाव चाहिए। आँखें रखकर भी अन्धे बनते हैं। भला इन बातों का आपसे क्या सम्बन्ध! ये तो उम्र के तमाशे हैं। असली रूप तो वह है, जो समय की परवाह न करे। उसके कपड़ों में रामदुलारी को खड़ा कर दो, फिर देखो, यह सारा जादू कहाँ उड़ जाता है। चुड़ैल-सी नजर आये। मगर इन अन्धों को कौन समझाये। मगर रामदुलारी के घरवाले तो इतने सम्पन्न न थे। विवाह में जो जोड़े और गहने आये थे, वे तो बहुत ही निराशाजनक थे। खुशहाली का दूसरा कोई सामान भी न था। इसके ससुर एक रियासत के मुख्तारआम थे, और दूल्हा कालेज में पढ़ता था। इस दो साल में कहाँ से यह हुन बरस गया। कौन जाने, गहने कहीं से माँग लायी हो। कपड़े भी माँगे हो सकते हैं। कुछ औरतों को अपनी हैसियत बढ़ाकर दिखाने की लत होती है। तो वह स्वाँग रामदुलारी को मुबारक रहे। मैं जैसी हूँ, वैसी अच्छी हूँ। प्रदर्शन का यह रोग कितना बढ़ता जाता है। घर में रोटियों का ठिकाना नहीं है, मर्द २५-३० रुपये पर क़लम घिस रहा है; लेकिन देवीजी घर से निकलेंगी तो इस तरह बन-ठनकर, मानों कहीं की राजकुमारी हैं। बिसातियों के और दरजियों के तकाजे सहेंगी, बजाज के सामने हाथ जोड़ेंगी, शौहर की घुड़कियाँ खाएँगी, रोएँगी, रूठेंगी, मगर प्रदर्शन के उन्माद को नहीं रोकतीं। घरवाले भी सोचते होंगे, कितनी छिछोरी तबियत है इसकी! मगर यहाँ तो देवीजी ने बेहयाई पर कमर बाँध ली है। कोई कितना ही हँसे, बेहया की बला दूर। उन्हें तो बस यही धुन सवार है कि जिधर से निकल जाएँ, उधर लोग हृदय पर हाथ रखकर रह जाएँ। रामदुलारी ने जरूर किसी से गहने और जेवर माँग लिये बेशर्म जो है! 
उसके चेहरे पर आत्म-सम्मान की लाली दौड़ गयी। न सही उसके पास जेवर और कपड़े। उसे किसी के सामने लज्जित तो नहीं होना पड़ता! किसी से मुँह तो नहीं चुराना पड़ता। एक-एक लाख के तो उसके दो लड़के हैं। भगवान् उन्हें चिरायु करे, वह इसी में खुश है। खुद अच्छा पहन लेने और अच्छा खा लेने से जीवन का उद्देश्य नहीं पूरा हो जाता। उसके घरवाले गरीब हैं, पर उनकी इज्जत तो है, किसी का गला तो नहीं दबाते, किसी का शाप तो नहीं लेते! 
इस तरह अपने मन को ढाढ़स देकर वह फिर बरामदे में आयी, तो रामदुलारी ने जैसे उसे दया की आँखों से देखकर कहा-जीजाजी की कुछ तरक्की-वरक्की हुई कि नहीं बहन! या अभी तक वही ७५ रुपये पर कलम घिस रहे हैं? 
रूपकुमारी की देह में आग-सी लग गयी। ओफ्फोह रे दिमाग़! मानों इसका पति लाट ही तो है। अकडक़र बोली-तरक्की क्यों नहीं हुई। अब सौ के ग्रेड में हैं। आजकल यह भी गनीमत है, नहीं अच्छे-अच्छे एम०ए० पासों को देखती हूँ कि कोई टके को नहीं पूछता। तेरा शौहर तो अब बी०ए० में होगा? 
रामदुलारी ने नाक सिकोडक़र कहा-उन्होंने तो पढऩा छोड़ दिया बहन, पढक़र औकात खराब करना था और क्या। एक कम्पनी के एजेण्ट हो गये हैं। अब ढाई सौ रुपये माहवार पाते हैं। कमीशन ऊपर से। पाँच रुपये रोज सफर-खर्च के भी मिलते हैं। यह समझ लो कि पाँच सौ का औसत पड़ जाता है। डेढ़ सौ माहवार तो उनका निज खर्च है बहन! ऊँचे ओहदे के लिए अच्छी हैसियत भी तो चाहिए। साढ़े तीन सौ बेदाग़ घर दे देते हैं। उसमें से सौ रुपये मुझे मिलते हैं, ढाई सौ में घर का खर्च खुशफैली से चल जाता है। एम०ए० पास करके क्या करते! 
रूपकुमारी इस कथन को शेखचिल्ली की दास्तान से ज्यादा महत्व नहीं देना चाहती, मगर रामदुलारी के लहजे में इतनी विश्वासोत्पादकता है कि वह अपनी निम्न चेतना में उससे प्रभावित हो रही है और उसके मुख पर पराजय की खिन्नता साफ झलक रही है। मगर यदि उसे बिलकुल पागल नहीं हो जाना है तो इस ज्वाला को हृदय से निकाल देना पड़ेगा। जिरह करके अपने मन को विश्वास दिलाना पड़ेगा कि इसके काव्य में एक चौथाई से ज्यादा सत्य नहीं है। एक चौथाई तक वह सह सकती है। इससे ज्यादा उससे न सहा जाएगा। इसके साथ ही उसके दिल में धडक़न भी है कि कहीं यह कथा सत्य निकली तो वह रामदुलारी को कैसे मुँह दिखाएगी। उसे भय है कि कहीं उसकी आँखों से आँसू न निकल पड़ें। कहाँ पछत्तर और कहाँ पाँच सौ! इतनी बड़ी रकम आत्मा की हत्या करके भी क्यों न मिले, फिर भी रूपकुमारी के लिए असह्य है। आत्मा का मूल्य अधिक से अधिक सौ रुपये हो सकता है। पाँच सौ किसी हालत में भी नहीं।
उसने परिहास के भाव से पूछा-जब एजेण्टी में इतना वेतन और भत्ता मिलता है तो ये सारे कालेज बन्द क्यों नहीं हो जाते? हजारों लड़के क्यों अपनी जिन्दगी खराब करते हैं? 
रामदुलारी बहन के खिसियानेपन का आनन्द उठाती हुई बोली-बहन, तुम यहाँ भूल कर रही हो। एम०ए० तो सभी पास हो सकते हैं, मगर एजेण्टी बिरले ही किसी को आती है। यह तो ईश्वर की देन है। कोई जिन्दगी-भर पढ़ता रहे, मगर यह जरूरी नहीं कि वह वह अच्छा एजेण्ट भी हो जाए। रुपये पैदा करना दूसरी बात है। आलिम-फ़ाज़िल हो जाना दूसरी बात। अपने माल की श्रेष्ठता का विश्वास पैदा कर देना, यह दिल में जमा देना कि इससे सस्ता और टिकाऊ माल बाजार में मिल ही नहीं सकता, आसान काम नहीं हैं एक-से-एक घाघों से उनका साबका पड़ता है। बड़े-बड़े राजाओं और रईसों का मत फेरना पड़ता है, तब जाके कहीं माल बिकता है। मामूली आदमी तो राजाओं और नवाबों के सामने ही न जा सके। पहुँच ही न हो। और किसी तरह पहुँच भी जाय तो जबान न खुले। पहले-पहले तो इन्हें भी झिझक हुई थी, मगर अब तो इस सागर के मगर हैं। अगले साल तरक्की होने वाली है। 
रूपकुमारी की धमनियों में रक्त की गति जैसे बन्द हुई जा रही है। निर्दयी आकाश गिर क्यों नहीं पड़ता! पाषाण-हृदया धरती फट क्यों नहीं जाती! यह कहाँ का न्याय है कि रूपकुमारी जो रूपवती है, तमीज़दार है, सुघड़ है, पति पर जान देती है, बच्चों को प्राणों से ज्यादा चाहती है, थोड़े में गृहस्थी को इतने अच्छे ढंग से चलाती है, उसकी तो यह दुर्गति, और यह घमण्डिन, बदतमीज, विलासिनी, चंचल, मुँहफट छोकरी, जो अभी तक सिर खोले घूमा करती थी, रानी बन जाए? मगर उसे अब भी कुछ आशा बाकी थी। शायद आगे चलकर उसके चित्त की शान्ति का कोई मार्ग निकल आये। 
उसी परिहास के स्वर में बोली-तब तो शायद एक हजार मिलने लगें?
‘एक हजार तो नहीं, पर छ: सौ में सन्देह नहीं?’ 
‘कोई आँखों का अन्धा मालिक फँस गया होगा?’ 
व्यापारी आँखों के अन्धे नहीं होते दीदी! उनकी आँखें हमारी-तुम्हारी आँखों से कहीं तेज होती हैं। जब तुम उन्हें छ: हजार कमाकर दो, तब कहीं छ: सौ मिलें। जो सारी दुनिया को चराये उसे कौन बेवकूफ बनाएगा।’ 
परिहास से काम न चलते देखकर रूपकुमारी ने अपमान का अस्त्र निकाला-मैं तो इसे बहुत अच्छा पेशा नहीं समझती। सारे दिन झूठ के तूमार बाँधो। यह तो ठग-विद्या है! 
रामदुलारी जोर से हँसी। बहन पर उसने पूरी विजय पायी थी। 
‘इस तरह तो जितने वकील-बैरिस्टर हैं; सभी ठग-विद्या करते हैं। अपने मुवक्किल के फायदे के लिए उन्हें क्या नहीं करना पड़ता? झूठी शहादतें तक बनानी पड़ती हैं। मगर उन्हीं वकीलों और बैरिस्टरों को हम अपना लीडर कहते हैं, उन्हें अपनी कौमी सभाओं का प्रधान बनाते हैं, उनकी गाडिय़ाँ खींचते हैं, उन पर फूलों और अशर्फियों की वर्षा करते हैं, उनके नाम से सडक़ें, प्रतिमाएँ और संस्थाएँ बनाते हैं। आजकल दुनिया पैसा देखती है। आजकल ही क्यों? हमेशा से धन की यही महिमा रही है। पैसे कैसे आएँ, यह कोई नहीं देखता। जो पैसे वाला है, उसी की पूजा होती है। जो अभागे हैं, अयोग्य हैं, या भीरु हैं, वे आत्मा और सदाचार की दुहाई देकर अपने आँसू पोंछते हैं। नहीं, आत्मा और सदाचार को कौन पूछता है।’ 
रूपकुमारी खामोश हो गयी। अब उसे यह सत्य उसकी सारी वेदनाओं के साथ स्वीकार करना पड़ेगा कि रामदुलारी सबसे ज्यादा भाग्यवान है। इससे अब त्राण नहीं। परिहास या अनादर से वह अपनी तंगदिली का प्रमाण देने के सिवा और क्या पाएगी। उसे किसी बहाने से रामदुलारी के घर जाकर असलियत की छान-बीन करनी पड़ेगी। अगर रामदुलारी वास्तव में लक्ष्मी का वरदान पा गयी है तो रूपकुमारी अपनी किस्मत ठोंककर बैठ रहेगी। समझ लेगी कि दुनिया में कहीं न्याय नहीं है, कहीं ईमानदारी की पूछ नहीं है। 
मगर क्या सचमुच उसे इस विचार से सन्तोष होगा? यहाँ कौन ईमानदार है? वही, जिसे बेईमानी करने का अवसर नहीं है और न इतनी बुद्धि या मनोबल है कि वह अवसर पैदा कर ले। उसके पति ७५ रुपये पाते हैं; पर क्या दस-बीस रुपये और ऊपर से मिल जाएँ तो वह खुश होकर ले न लेंगे? उनकी ईमानदारी और सत्यवादिता उसी समय तक है, जब तक अवसर नहीं मिलता। जिस दिन मौका मिला, सारी सत्यवादिता धरी रह जाएगी। और क्या रूपकुमारी में इतना नैतिक बल है कि वह अपने पति को हराम का माल हज़म करने से रोक दे? रोकना तो दूर की बात है, वह प्रसन्न होगी, शायद पतिदेव की पीठ ठोकेगी। अभी उनके दफ्तर से आने के समय वह मन मारे बैठी रहती है। तब वह द्वार पर खड़ी होकर उनकी बाट जोहेगी, और ज्योंही वह घर में आएँगे, उनकी जेबों की तलाशी लेगी। 
आँगन में गाना-बजाना हो रहा था। रामदुलारी उमंग के साथ गा रही थी, और रूपकुमारी वहीं बरामदे में उदास बैठी हुई थी। न जाने क्यों उसके सिर में दर्द होने लगा था। कोई गाये, कोई नाचे, उससे प्रयोजन नहीं। वह तो अभागिन है। रोने के लिए पैदा की गयी है। 
नौ बजे रात को मेहमान रुखसत होने लगे। रूपकुमारी भी उठी। एक्का मॅँगवाने जा रही थी कि रामदुलारी ने कहा-एक्का मँगवाकर क्या करोगी बहन, मुझे लेने के लिए कार आती होगी; चलो दो-चार दिन मेरे यहाँ रहो, फिर चली जाना। मैं जीजाजी को कहला भेजूँगी तुम्हारा इन्तजार न करें। 
रूपकुमारी का यह अन्तिम अस्त्र भी बेकार हो गया। रामदुलारी के घर जाकर हालचाल की टोल लेने की इच्छा गायब हो गयी। वह अब अपने घर जाएगी और मुँह ढाँपकर पड़ी रहेगी। इन फटेहालों में क्यों किसी के घर जाए। बोली-नहीं, अभी तो मुझे फुरसत नहीं है, बच्चे घबरा रहे होंगे। फिर कभी आऊँगी। 
‘क्या रात-भर भी न ठहरोगी?’ 
‘नहीं।’ 
‘अच्छा बताओ, कब आओगी? मैं सवारी भेज दूँगी।’ 
‘मैं खुद कहला भेजूँगी।’ 
‘तुम्हें याद न रहेगी। साल-भर हो गया, भूलकर भी याद न किया। मैं इसी इन्तजार में थी कि दीदी बुलावें तो चलूँ। एक ही शहर में रहते हैं, फिर भी इतनी दूर कि साल भर गुजर जाए और मुलाकात तक न हो।’ 
रूपकुमारी इसके सिवा और क्या कहे कि घर के कामों से छुट्टी नहीं मिलती। कई बार उसने इरादा किया कि दुलारी को बुलाये, मगर अवसर ही न मिला। 
सहसा रामदुलारी के पति मि. गुरुसेवक ने आकर बड़ी साली को सलाम किया। बिलकुल अँगरेजी सज-धज, मुँह में चुरुट, कलाई पर सोने की घड़ी, आँखों पर सुनहरी ऐनक, जैसे कोई सिविलियन हो। चेहरे से जेहानत और शराफत बरस रही थी। वह इतना रूपवान् और सजीला है, रूपकुमारी को अनुमान न था। कपड़े जैसे उसकी देह पर खिल रहे थे। 
आशीर्वाद देकर बोली-आज यहाँ न आती तो मुझसे मुलाकात क्यों होती! 
गुरुसेवक हँसकर बोला-यह उलटी शिकायत! क्यों न हो। कभी आपने बुलाया और मैं न गया? 
‘मैं नहीं जानती थी कि तुम अपने को मेहमान समझते हो। वह भी तो तुम्हारा ही घर है।’ 
रामदुलारी देख रही थी कि मन में उससे ईष्र्या रखते हुए भी वह कितनी वाणी-मधुर, कितनी स्निग्ध, कितनी अनुग्रह-प्रार्थिनी होती जा रही है। 
गुरुसेवक ने उदार मन से कहा-हाँ, अब मान गया भाभी साहब, बेशक मेरी गलती है। इस दृष्टि से मैंने विचार नहीं किया था। मगर आज तो मेरे घर रहिए। 
‘नहीं आज बिलकुल अवकाश नहीं है। फिर कभी आऊँगी। लड़के घबरा रहे होंगे।’ 
रामदुलारी बोली-मैं कितना कहके हार गयी, मानती ही नहीं। 
दोनों बहनें कार की पिछली सीट पर बैठीं। गुरुसेवक ड्राइव करता हुआ चला। जरा देर में उसका मकान आ गया। रामदुलारी ने फिर बहन से उतरने के लिए आग्रह किया, पर वह न मानी। लड़के घबरा रहे होंगे। आखिर रामदुलारी उससे गले मिलकर अन्दर चली गयी। गुरुसेवक ने कार बढ़ायी। रूपकुमारी ने उड़ती हुई निगाह से रामदुलारी का मकान देखा और वह ठोस सत्य एक शलाका की भाँति उसके कलेजे में चुभ गया। 
कुछ दूर जाकर गुरुसेवक बोला-भाभी, मैंने तो अपने लिए अच्छा रास्ता निकाल लिया। अगर दो-चार साल इसी तरह काम करता रहा तो आदमी बन जाऊँगा। 
रूपकुमारी ने सहानुभूति के साथ कहा-रामदुलारी ने मुझसे बताया था। भगवान् करे, जहाँ रहो, खुश रहो। मगर जरा हाथ-पैर सँभाल के रहना। 
‘मैं मालिक की आँख बचाकर एक पैसा भी लेना पाप समझता हूँ, भाभी। दौलत का मजा तो तभी है कि ईमान सलामत रहे। ईमान खोकर पैसे मिले तो क्या! मैं ऐसी दौलत को त्याज्य समझता हूँ, और आँख किसकी बचाऊँ। सब सियाह-सुफेद तो मेरे हाथ में है। मालिक तो रहा नहीं, केवल उसकी बेवा है। उसने सब कुछ मेरे हाथ में छोड़ रखा है। मैंने उसका कारोबार सँभाल न लिया होता तो सब कुछ चौपट हो जाता। मेरे सामने तो मालिक सिर्फ तीन महीने जिन्दा रहे। मगर आदमी को परखना खूब जानते थे। मुझे १०० रुपये पर रखा और एक महीने में २०० रुपये कर दिया। आप लोगों की दुआ से पहले ही महीने में मैंने बारह हजार का काम किया।’ 
‘क्या काम करना पड़ता है?’ रूपकुमारी ने बिना किसी उद्देश्य के पूछा। 
‘वही मशीनों की एजेण्टी’ तरह-तरह की मशीनें मँगाना और बेचना।-ठण्डा जवाब था। 
रूपकुमारी का मनहूस घर आ गया। द्वार पर एक लालटेन टिमटिमा रही थी। उसके पति उमानाथ द्वार पर टहल रहे थे। मगर रूपकुमारी ने गुरुसेवक से उतरने के लिए आग्रह नहीं किया। एक बार शिष्टाचार के नाते कहा जरूर पर जोर नहीं दिया, और उमानाथ तो गुरुसेवक से मुखातिब भी न हुए। 
रूपकुमारी को वह घर अब कब्रिस्तान-सा लग रहा था, जैसे फूटा हुआ भाग्य हो। न कहीं फर्श, न फरनीचर, न गमले। दो-चार टूटी-टाटी तिपाइयाँ, एक लँगड़ी मेज, चार-पाँच पुरानी-पुरानी खाटें, यही उस घर की बिसात थी। आज सुबह तक रूपकुमारी इसी घर में खुश थी। लेकिन अब यह घर उसे काटे खा रहा है। लड़के अम्माँ-अम्माँ करके दौड़े, मगर उसने दोनों को झिडक़ दिया। उसके सिर में दर्द है, वह किसी से न बोलेगी, कोई उसे न छेड़े। अभी घर में खाना नहीं पका। पकाता कौन? लडक़ों ने तो दूध पी लिया है, किन्तु उमानाथ ने कुछ नहीं खाया। इसी इन्तजार में थे कि रूपकुमारी आये तो पकाये। पर रूपकुमारी के सिर में दर्द है। मजबूर होकर बाजार से पूरियाँ लानी पड़ेंगी। 
रूपकुमारी ने तिरस्कार के स्वर में कहा-तुम अब तक मेरा इन्तजार क्यों करते रहे? मैंने तो खाना पकाने की नौकरी नहीं लिखायी है, और जो रात को वहीं रह जाती? आखिर तुम कोई महराजिन क्यों नहीं रख लेते? क्या जिन्दगी भर मुझी को पीसते रहोगे? 
उमानाथ ने उसकी तरफ आहत विस्मय की आँखों से देखा। उसके बिगडऩे का कोई कारण उनकी समझ में न आया। रूपकुमारी से उन्होंने हमेशा निरापद सहयोग पाया है, निरापद ही नहीं, सहानुभूतिपूर्ण भी। उन्होंने कई बार उससे महराजिन रख लेने का प्रस्ताव खुद किया था, पर उसने बराबर यही जवाब दिया कि आखिर में बैठे-बैठे क्या करूँगी? चार-पाँच रुपये का खर्च बढ़ाने से क्या फायदा? यह पैसे तो बच्चों के मक्खन में खर्च होते हैं। 
और आज वह इतनी निर्ममता से उलाहना दे रही है, जैसे गुस्से में भरी हो। 
अपनी सफाई देते हुए बोले-महराजिन रखने के लिए तो मैंने खुद तुमसे कई बार कहा। 
‘तो लाकर रख क्यों न दिया? मैं उसे निकाल देती तो कहते!’ 
‘हाँ यह गलती हुई।’ 
‘तुमने कभी सच्चे दिल से नहीं कहा, रूपकुमारी ने और भी प्रचण्ड होकर कहा-तुमने केवल मेरा मन लेने के लिए कहा। मैं ऐसी भोली नहीं हूँ कि तुम्हारे मन का रहस्य न समझूँ। तुम्हारे दिल में कभी मेरे आराम का विचार आया ही नहीं। तुम तो खुश थे कि अच्छी लौंडी मिल गयी है। एक रोटी खाती है और चुपचाप पड़ी रहती है। महज खाने और कपड़े पर। यह भी जब घर की जरूरतों से बचे। पचहत्तर रुपल्लियाँ लाकर मेरे हाथ पर रख देते हो और सारी दुनिया का खर्च। मेरा दिल ही जानता है, मुझे कितनी कतर-व्योंत करनी पड़ती है। क्या पहनूँ और क्या ओढ़ूँ! तुम्हारे साथ जिन्दगी खराब हो गयी! संसार में ऐसे मर्द भी हैं, जो स्त्री के लिए आसमान के तारे तोड़ लाते हैं। गुरुसेवक ही को देखो, दूर क्यों जाओ। तुमसे कम पढ़ा है, उम्र में तुमसे कहीं कम है, मगर पाँच सौ का महीना लाता है, और रामदुलारी रानी बनी बैठी रहती है। तुम्हारे लिए यही ७५ रुपये बहुत हैं। राँड़ माँड़ में ही मगन! तुम नाहक मर्द हुए, तुम्हें तो औरत होना चाहिए था। औरतों के दिल में कैसे-कैसे अरमान होते हैं। मगर मैं तो तुम्हारे लिए घर की मुर्गी का बासी साग हूँ। तुम्हें तो कोई तकलीफ होती नहीं। तुम्हें तो कपड़े भी अच्छे चाहिए, खाना भी अच्छा चाहिए, क्योंकि पुरुष हो, बाहर से कमाकर लाते हो। मैं चाहे जैसे रहूँ तुम्हारी बला से।’ 
वाग्बाणों का यह सिलसिला कई मिनट तक जारी रहा, और उमानाथ चुपचाप सुनते रहे। अपनी जान में उन्होंने रूपकुमारी को शिकायत का कभी मौका नहीं दिया। उनका वेतन कम है, यह सत्य है, पर यह उनके बस की बात तो नहीं। वह दिल लगाकर अपना काम करते हैं, अफसरों को खुश रखने की सदैव चेष्टा करते हैं इसी साल बड़े बाबू के छोटे सुपुत्र को छ: महीने तक बिना नागा पढ़ाया, इसीलिए तो कि वह प्रसन्न रहें। अब वह और क्या करें। रूपकुमारी की खफ़गी का रहस्य वह समझ गये। अगर गुरुसेवक वास्तव में पाँच सौ रुपये लाता है तो बेशक वह भाग्य का बली है। लेकिन दूसरों की ऊँची पेशानी देखकर अपना माथा तो नहीं फोड़ा जाता। किसी संयोग से उसे यह अवसर मिल गया। मगर हर एक को तो ऐसे अवसर नहीं मिलते। वह इसका पता लगाएँगे कि सचमुच उसे पाँच सौ ही मिलते हैं, या महज डींग है। और मान लिया कि पाँच सौ मिलते हैं, तो क्या इससे रूपकुमारी को यह हक है कि वह उनको ताने दे, और उन्हें जली-कटी सुनाये। अगर इसी तरह वह भी रूपकुमारी से ज्यादा रूपवती और सुशीला रमणी को देखकर रूपकुमारी को कोसना शुरू करें तो कैसा हो! रूपकुमारी सुन्दरी है, मृदुभाषिणी है, त्यागमयी है लेकिन उससे बढक़र सुन्दरी, मृदुभाषिणी त्यागमयी देवियों से दुनिया खाली नहीं है। तो क्या इस कारण वह रूपकुमारी का अनादर करें? 
एक समय था, जब उनकी नजरों में रूपकुमारी से ज्यादा रूपवती रमणी संसार में न थी; लेकिन वह उन्माद कब का शान्त हो गया। भावुकता के संसार से वास्तविक जीवन में आये उन्हें एक युग बीत गया। अब तो विवाहित जीवन का उन्हें काफी अनुभव हो गया है। एक को दूसरे के गुण-दोष मालूम हो गये हैं। अब तो सन्तोष ही में उनका जीवन सुखी रह सकता है। मगर रूपकुमारी समझदार होकर भी इतनी मोटी-सी बात नहीं समझती! 
फिर भी उन्हें रूपकुमारी से सहानुभूति ही हुई। वह उदार प्रकृति के आदमी थे और कल्पनाशील भी। उसकी कटु बातों का कुछ जवाब न दिया। शर्बत की तरह पी गये। अपनी बहन के ठाठ देखकर एक क्षण के लिए रूपकुमारी के मन में ऐसे निराशाजनक, अन्यायपूर्ण, दु:खद भावों का उठना बिलकुल स्वाभाविक है। रूपकुमारी कोई संन्यासिनी नहीं, विरागिनी नहीं कि हर एक दशा में अविचलित रहे। 
इस तरह अपने मन को समझाकर उमानाथ ने गुरुसेवक के विषय में तहकीकात करने का संकल्प किया। 

2

एक सप्ताह तक रूपकुमारी मानसिक अशान्ति की दशा में रही। बात-बात पर झुंझलाती, लडक़ों को डाँटती; पति को कोसती, अपने नसीबों को रोती। घर का काम तो करना ही पड़ता था, लेकिन अब इस काम में उसे आनन्द न आता था। बेगार-सी टालती थी। घर की जिन पुरानी-धुरानी चीजों से उसका आत्मीय सम्बन्ध-सा हो गया था, जिनकी सफाई और सजावट में वह व्यस्त रहा करती थी, उनकी तरफ अब आँख उठाकर भी न देखती। घर में एक ही खिदमतगार था। उसने जब देखा, बहूजी घर की तरफ से खुद ही लापरवाह हैं तो उसे क्या गरज थी कि सफाई करता। जो चीज जहाँ पड़ी थी, वहीं पड़ी रहती। कौन उठाकर ठिकाने से रखे। बच्चे माँ से बोलते डरते थे, और उमानाथ तो उसके साये से भागते थे। जो कुछ सामने थाली में आ जाता उसे पेट में डाल लेते और दफ्तर चले जाते। दफ्तर से लौटकर दोनों बच्चों को साथ ले लेते और कहीं घूमने निकल जाते। रूपकुमारी से कुछ कहना बारूद में दियासलाई लगाना था। हाँ, उनकी यह तहक़ीकात जारी थी। 
एक दिन उमानाथ दफ्तर से लौटे तो उनके साथ गुरुसेवक भी थे। रूपकुमारी ने आज कई दिनों के बाद परिस्थिति से सहयोग कर लिया था और इस वक्त झाडऩ लिए कुरसियाँ और तिपाइयाँ साफ कर रही थी, कि गुरुसेवक ने अन्दर पहुँचकर सलाम किया। रूपकुमारी दिल में कट गयी। उमानाथ पर ऐसा क्रोध आया कि उसका मुँह नोच ले। इन्हें लाकर यहाँ क्यों खड़ा कर दिया? न कहना, न सुनना, बस बुला लाये। उसे इस दशा में देखकर गुरुसेवक दिल में क्या कहता होगा। मगर इन्हें अक्ल आयी ही कब थी। वह अपना परदा ढाँकती फिरती है और आप उसे खोलते फिरते हैं। जरा भी लज्जा नहीं। जैसे बेहयाई का बाना पहन लिया है। बरबस उसका अपमान करते हैं। न जाने उसने उनका क्या बिगाड़ा है? 
आशीर्वाद देकर कुशल-समाचार पूछा और कुरसी रख दी। गुरुसेवक ने बैठते हुए कहा-आज भाई साहब ने मेरी दावत की है, मैं उनकी दावत पर तो न आता; लेकिन जब उन्होंने कहा, तुम्हारी भाभी का कड़ा तकाजा है, तब मुझे समय निकालना पड़ा था। 
रूपकुमारी ने बात बनायी। घर का कलह छिपाना पड़ा-तुमसे उस दिन कुछ बातचीत न हो पायी। जी लगा हुआ था। 
गुरुसेवक ने कमरे के चारों तरफ नजर दौड़ाकर कहा-इस पिंजड़े में तो आप लोगों को बड़ी तकलीफ होती होगी? 
रूपकुमारी को ज्ञात हुआ, यह युवक कितना सुरुचिहीन, कितना अरसिक है। दूसरों के मनोभावों का आदर करना जैसे जानता ही नहीं। इसे इतनी-सी बात भी नहीं मालूम कि दुनिया में सभी भाग्यशाली नहीं होते। लाखों में एक ही कहीं भाग्यवान् निकलता है। और उसे भाग्यवान् ही क्यों कहा जाए? जहाँ बहुतों को दाना न मयस्सर हो, वहाँ थोड़े से आदमियों के भोग-विलास में कौन-सा सौभाग्य! जहाँ बहुत-से आदमी भूखों मर रहे हों, वहाँ दो-चार आदमी मोहनभोग उड़ायें तो यह उनकी बेहयाई और हृदयहीनता है, सौभाग्य कभी नहीं। 
कुछ चिढक़र बोली-पिंजड़े में कठघरे में रहने से अच्छा है। पिंजड़े में निरीह पक्षी रहते हैं, कठघरा तो घातक जन्तुओं का ही निवास स्थान है। 
गुरुसेवक शायद यह संकेत न समझ सका, बोला-मेरा तो इस घर में दम घुट जाए। मैं आपके लिए अपने घर के पास ही एक मकान ठीक करा दूँगा। खूब लम्बा-चौड़ा। आपसे कुछ किराया न लिया जाएगा। मकान हमारी मालकिन का है। मैं भी उसी के एक मकान में रहता हूँ। सैकड़ों मकान हैं उनके पास, सैकड़ों। सब मेरे अख्तियार में है। जिसे जो मकान चाहूँ, दे दूँ। मेरे अख्तियार में है। किराया लूँ या न लूँ। मैं आपके लिए सबसे अच्छा मकान ठीक करूँगा। मैं आपका बहुत अदब करता हूँ। 
रूपकुमारी समझ गयी, महाशय इस वक्त नशे में हैं। अभी यों बहक रहे हैं। अब उसने गौर से देखा तो उनकी आँखें सिकुड़ गयी थीं, गाल कुछ फूल गये थे। जबान भी लडख़ड़ाने लगी थी। एक जवान, खूबसूरत शरीफ चेहरा कुछ ऐसा शेखीबाज और निर्लज्ज हो गया कि उसे देखकर घृणा होती थी। 
उसने एक क्षण बाद फिर बहकना शुरू किया-मैं आपका बहुत अदब करता हूँ, जी हाँ! आप मेरी बड़ी भाभी हैं। आपके लिए मेरी जान हाजिर है। आपके लिए एक मकान नहीं, सौ मकान तैयार हैं। मैं मिसेज लोहिया का मुख्तार हूँ। सब कुछ मेरे हाथ में है। सब कुछ, मैं जो कुछ कहता हूँ, वह आँखें बन्द करके मंजूर कर लेती हैं। मुझे अपना बेटा समझती हैं। मैं उसकी सारी जायदाद का मालिक हूँ। (मि० लोहिया ने मुझे २० रुपये पर रखा, २० रुपये पर। वह बड़ा मालदार था। मगर किसी को नहीं मालूम; उसकी दौलत कहाँ से आती थी किसी को नहीं मालूम। मेरे सिवा कोई नहीं जानता। वह खुफियाफरोश था। किसी से कहना नहीं। वह चोरी से कोकीन बेचता था। लाखों की आमदनी थी उसकी। अब वही व्यापार मैं करता हूँ। हर शहर में हमारे खुफिया एजेण्ट हैं। मि० लोहिया ने मुझे इस फन में उस्ताद बना दिया। जी हाँ! मजाल नहीं कि मुझे कोई गिरफ्तार कर ले, बड़े-बड़े अफसरों से मेरा याराना है। उनके मुँह में नोटों के पुलिन्दे ठूँस-ठूँसकर उनकी आवाज बन्द कर देता हूँ। कोई चूँ नहीं कर सकता। दिन-दहाड़े बेचता हूँ। हिसाब में लिखता हूँ, एक हजार रिश्वत दी। देता हूँ, पाँच सौ। बाकी यारों का है। बेदरेग़ रुपये आते हैं और बेदरेग़ खर्च करता हूँ। बुढिय़ा को तो राम नाम से मतलब है। सत्तर चूहे खाके अब हज करने चली है। कोई मेरा हाथ पकडऩे वाला नहीं, कोई बोलने वाला नहीं, (जेब से नोटों का एक बण्डल निकालकर) यह आपके चरणों की भेंट है। मुझे दुआ दीजिए कि इसी शान से जिन्दगी कट जाय जो आत्मा और सदाचार के उपासक हैं उन्हें कुबेर लातें मारता है। लक्ष्मी उनको पकड़ती है, जो उसके लिए अपना दीन और ईमान सब कुछ छोडऩे को तैयार हैं। मुझे बुरा न कहिए। मैं कौन मालदार हूँ? जितने धनी हैं, वे सब-के-सब लुटेरे हैं, पक्के लुटेरे, डाकू। कल मेरे पास रुपये हो जाएँ और मैं एक धर्मशाला बनवा दूँ। फिर देखिए मेरी कितनी वाह-वाह होती है। कौन पूछता है, मुझे दौलत कहाँ से मिली। जिस महात्मा को कहिए, बुलाकर उससे प्रशंसा करवा लूँ। मि० लोहिया को महात्माओं ने धर्म भूषण की उपाधि दी थी, इन स्वार्थी, पेट के बन्दरों ने। उस बुड्ढे को जिससे बड़ा कुकर्मी संसार में न होगा। यहाँ तो लूट है। एक वकील आध घण्टा बहस करके पाँच सौ मार लेता है, एक डाक्टर जरा-सा नश्तर लगाकर एक हजार सीधा कर लेता है, एक जुआरी स्पेकुलेशन में एक-एक दिन में लाखों का वारा-न्यारा करता है। अगर उनकी आमदनी जायज है तो मेरी आमदनी भी जायज है। जी हाँ, जायज है, मेरी निगाह में बड़े-से-बड़े मालदार की भी कोई इज्जत नहीं। मैं जानता हूँ, वह कितना बड़ा हथकण्डेबाज है। यहाँ जो आदमी आँखों में धूल झोंक सके, वही सफल है! गरीबों को लूटकर मालदार हो जाना समाज की पुरानी परिपाटी है। मैं भी वही करता हूँ, जो दूसरे करते हैं। जीवन का उद्देश्य है ऐसा करना। खूब लूटूँगा, खूब ऐश करूँगा और बुढ़ापे में खूब खैरात करूँगा। और एक दिन लीडर बन जाऊँगा। कहिए गिना दूँ। यहाँ कितने लोग जुआ खेल-खालकर करोड़पति हो गये, कितने औरतों का बाजार लगाकर करोड़पति हो गये ...। 
सहसा उमानाथ ने आकर कहा-मि० गुरुसेवक, क्या कर रहे हो? चलो चाय पी लो। ठण्डी हो रही है। 
गुरुसेवक ऐसा हड़बड़ा उठा, मानो अपने सचेत रहने का प्रमाण देना चाहता हो। मगर पाँव लडख़ड़ाये और जमीन पर गिर पड़ा। फिर सँभलकर उठा और झूमता-झूमता, ठोकरें खाता, बाहर चला गया। रूपकुमारी ने आजादी की साँस ली। यहाँ बैठे-बैठे उसे हौलदिल-सा हो रहा था। कमरे की हवा जैसे कुछ भारी हो गयी थी। जो प्रेरणाएँ कई दिन से अच्छे-अच्छे मनोहर रूप भरकर उसके मन में आ रही थीं, आज उसे उनका असली वीभत्स, घिनावना रूप नजर आया। जिस त्याग, सादगी और साधुता के वातावरण में अब तक उसकी जिन्दगी गुजरी थी, उसमें इस तरह के दाँव-पेंच, छल-कपट और पतित स्वार्थ का घुसना बिलकुल ऐसा ही था, जैसे किसी बाग में साँड़ों का एक झुण्ड घुस आये। इन दामों वह दुनिया की सारी दौलत और सारा ऐश खरीदने को भी तैयार न हो सकती थी। नहीं, अब रामदुलारी के भाग्य से अपने भाग्य का बदला न करेगी। वह अपने हाल में खुश है। रामदुलारी पर उसे दया आयी, जो भोग-विलास की धुन और अमीर कहलाने के मोह में अपनी आत्मा का सर्वनाश कर रही है। मगर वह बेचारी भी क्या करे? और गुरुसेवक का भी क्या दोष है। जिस समाज में दौलत पुजती है, जहाँ मनुष्य का मोल उसके बैंक-एकाउण्ट और टीम-टाम से आँका जाता है, जहाँ पग-पग पर प्रलोभनों का जाल बिछा हुआ है और समाज की कुव्यवस्था आदमी में ईष्र्या, द्वेष, अपहरण और नीचता के भावों को उकसाती और उभारती रहती है, गुरुसेवक और रामदुलारी उस जाल में फँस जाएँ, उस प्रवाह में बह जाएँ तो कोई अचरज नहीं। 
उसी वक्त उमानाथ ने आकर कहा-गुरुसेवक यहाँ बैठा-बैठा क्या बहक रहा था? मैंने तो उसे विदा कर दिया। जी डरता था, कहीं पुलिस उसके पीछे न लगी हो, नहीं तो मैं भी गेहूँ के साथ घुन की तरह पिस जाऊँ। 
रामकुमारी ने क्षमा-प्रार्थी नेत्रों से उन्हें देखकर जवाब दिया-वही अपनी खुफ़ियाफ़रोशी की डींग मार रहा था। 
‘मुझे भी मिसेज लोहिया से मिलने को कह गया।’ 
‘जी नहीं, आप अपनी क्लर्की किये जाइए। इसी में हमारा कल्याण है।’ 
‘मगर क्लर्की में वह ऐश कहाँ? क्यों न साल-भर की छुट्टी लेकर जरा उस दुनिया की भी सैर करूँ!’ 
‘मुझे अब उस ऐश का मोह नहीं रहा।’ 
‘दिल से कहती हो?’ 
‘सच्चे दिल से।’ 
उमानाथ एक मिनट तक चुप रहने के बाद फिर बोले-मैं आकर तुमसे यह वृत्तान्त कहता तो तुम्हें विश्वास आता या नहीं, सच कहना? 
‘कभी नहीं, मैं तो कल्पना ही नहीं कर सकती कि अपने स्वार्थ के लिए कोई आदमी दुनिया को विष खिला सकता है!’ 
‘मुझे सारा हाल पुलिस के सब इन्सपेक्टर से मालूम हो गया था। मैंने उसे खूब शराब पिला दी थी कि नशे में बहकेगा जरूर और सब कुछ उगल देगा।’ 
‘ललचता तो तुम्हारा जी भी था।’ 
‘हाँ ललचता तो था, और अब भी ललच रहा है। मगर ऐश करने के लिए जिस हुनर की जरूरत है, वह कहाँ से लाऊँगा?’ 
‘ईश्वर न करे, वह हुनर तुममें आये। मुझे तो उस बेचारे पर तरस आती है। मालूम नहीं खैरियत से घर पहुँच गया या नहीं!’ 
‘उसकी कार थी। कोई चिन्ता नहीं।’ 
रूपकुमारी एक क्षण जमीन की तरफ ताकती रही। फिर बोली-तुम मुझे दुलारी के घर पहुँचा दो। अभी शायद मैं उसकी कुछ मदद कर सकूँ। जिस बाग की वह सैर कर रही है उसके चारों ओर निशाचर घात लगाये बैठे हैं। शायद मैं उसे बचा सकूँ। 
उमानाथ ने देखा, उसकी छवि कितनी दया-पुलकित हो उठी है।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 12 May 2020 at 6:34 PM -

Ishwariya Nyaya - Munshi Premchand ईश्वरीय न्याय - मुंशी प्रेम चंद

Hindi Kahani - हिंदी कहानी
Ishwariya Nyaya - Munshi Premchand
ईश्वरीय न्याय - मुंशी प्रेम चंद

1
कानपुर जिले में पंडित भृगुदत्त नामक एक बड़े जमींदार थे। मुंशी सत्यनारायण उनके कारिंदा थे। वह बड़े स्वामिभक्त और सच्चरित्र मनुष्य थे। लाखों रुपये की तहसील और हजारों मन अनाज का लेन-देन ... उनके हाथ में था; पर कभी उनकी नियत डावॉँडोल न होती। उनके सुप्रबंध से रियासत दिनोंदिन उन्नति करती जाती थी। ऐसे कत्तर्व्यपरायण सेवक का जितना सम्मान होना चाहिए, उससे अधिक ही होता था। दु:ख-सुख के प्रत्येक अवसर पर पंडित जी उनके साथ बड़ी उदारता से पेश आते। धीरे-धीरे मुंशी जी का विश्वास इतना बढ़ा कि पंडित जी ने हिसाब-किताब का समझना भी छोड़ दिया। सम्भव है, उनसे आजीवन इसी तरह निभ जाती, पर भावी प्रबल है। प्रयाग में कुम्भ लगा, तो पंडित जी भी स्नान करने गये। वहॉँ से लौटकर फिर वे घर न आये। मालूम नहीं, किसी गढ़े में फिसल पड़े या कोई जल-जंतु उन्हें खींच ले गया, उनका फिर कुछ पता ही न चला। अब मुंशी सत्यनाराण के अधिकार और भी बढ़े। एक हतभागिनी विधवा और दो छोटे-छोटे बच्चों के सिवा पंडित जी के घर में और कोई न था। अंत्येष्टि-क्रिया से निवृत्त होकर एक दिन शोकातुर पंडिताइन ने उन्हें बुलाया और रोकर कहा—लाला, पंडित जी हमें मँझधार में छोड़कर सुरपुर को सिधर गये, अब यह नैया तुम्ही पार लगाओगे तो लग सकती है। यह सब खेती तुम्हारी लगायी हुई है, इसे तुम्हारे ही ऊपर छोड़ती हूँ। ये तुम्हारे बच्चे हैं, इन्हें अपनाओ। जब तक मालिक जिये, तुम्हें अपना भाई समझते रहे। मुझे विश्वास है कि तुम उसी तरह इस भार को सँभाले रहोगे। 
सत्यनाराण ने रोते हुए जवाब दिया—भाभी, भैया क्या उठ गये, मेरे तो भाग्य ही फूट गये, नहीं तो मुझे आदमी बना देते। मैं उन्हीं का नमक खाकर जिया हूँ और उन्हीं की चाकरी में मरुँगा भी। आप धीरज रखें। किसी प्रकार की चिंता न करें। मैं जीते-जी आपकी सेवा से मुँह न मोडूँगा। आप केवल इतना कीजिएगा कि मैं जिस किसी की शिकायत करुँ, उसे डॉँट दीजिएगा; नहीं तो ये लोग सिर चढ़ जायेंगे। 


इस घटना के बाद कई वर्षो तक मुंशीजी ने रियासत को सँभाला। वह अपने काम में बड़े कुशल थे। कभी एक कौड़ी का भी बल नहीं पड़ा। सारे जिले में उनका सम्मान होने लगा। लोग पंडित जी को भूल-सा गये। दरबारों और कमेटियों में वे सम्मिलित होते, जिले के अधिकारी उन्हीं को जमींदार समझते। अन्य रईसों में उनका आदर था; पर मान-वृद्वि की महँगी वस्तु है। और भानुकुँवरि, अन्य स्त्रियों के सदृश पैसे को खूब पकड़ती। वह मनुष्य की मनोवृत्तियों से परिचित न थी। पंडित जी हमेशा लाला जी को इनाम इकराम देते रहते थे। वे जानते थे कि ज्ञान के बाद ईमान का दूसरा स्तम्भ अपनी सुदशा है। इसके सिवा वे खुद भी कभी कागजों की जॉँच कर लिया करते थे। नाममात्र ही को सही, पर इस निगरानी का डर जरुर बना रहता था; क्योंकि ईमान का सबसे बड़ा शत्रु अवसर है। भानुकुँवरि इन बातों को जानती न थी। अतएव अवसर तथा धनाभाव-जैसे प्रबल शत्रुओं के पंजे में पड़ कर मुंशीजी का ईमान कैसे बेदाग बचता? 
कानपुर शहर से मिला हुआ, ठीक गंगा के किनारे, एक बहुत आजाद और उपजाऊ गॉँव था। पंडित जी इस गॉँव को लेकर नदी-किनारे पक्का घाट, मंदिर, बाग, मकान आदि बनवाना चाहते थे; पर उनकी यह कामना सफल न हो सकी। संयोग से अब यह गॉँव बिकने लगा। उनके जमींदार एक ठाकुर साहब थे। किसी फौजदारी के मामले में फँसे हुए थे। मुकदमा लड़ने के लिए रुपये की चाह थी। मुंशीजी ने कचहरी में यह समाचार सुना। चटपट मोल-तोल हुआ। दोनों तरफ गरज थी। सौदा पटने में देर न लगी, बैनामा लिखा गया। रजिस्ट्री हुई। रुपये मौजूद न थे, पर शहर में साख थी। एक महाजन के यहॉँ से तीस हजार रुपये मँगवाये गये और ठाकुर साहब को नजर किये गये। हॉँ, काम-काज की आसानी के खयाल से यह सब लिखा-पढ़ी मुंशीजी ने अपने ही नाम की; क्योंकि मालिक के लड़के अभी नाबालिग थे। उनके नाम से लेने में बहुत झंझट होती और विलम्ब होने से शिकार हाथ से निकल जाता। मुंशीजी बैनामा लिये असीम आनंद में मग्न 
भानुकुँवरि के पास आये। पर्दा कराया और यह शुभ-समाचार सुनाया। भानुकुँवरि ने सजल नेत्रों से उनको धन्यवाद दिया। पंडित जी के नाम पर मन्दिर और घाट बनवाने का इरादा पक्का हो गया। मुँशी जी दूसरे ही दिन उस गॉँव में आये। आसामी नजराने लेकर नये स्वामी के स्वागत को हाजिर हुए। शहर के रईसों की दावत हुई। लोगों के नावों पर बैठ कर गंगा की खूब सैर की। मन्दिर आदि बनवाने के लिए आबादी से हट कर रमणीक स्थान चुना गया।


यद्यपि इस गॉँव को अपने नाम लेते समय मुंशी जी के मन में कपट का भाव न था, तथापि दो-चार दिन में ही उनका अंकुर जम गया और धीरे-धीरे बढ़ने लगा। मुंशी जी इस गॉँव के आय-व्यय का हिसाब अलग रखते और अपने स्वामिनों को उसका ब्योरो समझाने की जरुरत न समझते। भानुकुँवरि इन बातों में दखल देना उचित न समझती थी; पर दूसरे कारिंदों से बातें सुन-सुन कर उसे शंका होती थी कि कहीं मुंशी जी दगा तो न देंगे। अपने मन का भाव मुंशी से छिपाती थी, इस खयाल से कि कहीं कारिंदों ने उन्हें हानि पहुँचाने के लिए यह षड़यंत्र न रचा हो। 
इस तरह कई साल गुजर गये। अब उस कपट के अंकुर ने वृक्ष का रुप धारण किया। भानुकुँवरि को मुंशी जी के उस मार्ग के लक्षण दिखायी देने लगे। उधर मुंशी जी के मन ने कानून से नीति पर विजय पायी, उन्होंने अपने मन में फैसला किया कि गॉँव मेरा है। हॉँ, मैं भानुकुँवरि का तीस हजार का ऋणी अवश्य हूँ। वे बहुत करेंगी तो अपने रुपये ले लेंगी और क्या कर सकती हैं? मगर दोनों तरफ यह आग अन्दर ही अन्दर सुलगती रही। मुंशी जी अस्त्रसज्जित होकर आक्रमण के इंतजार में थे और भानुकुँवरि इसके लिए अवसर ढूँढ़ रही थी। एक दिन उसने साहस करके मुंशी जी को अन्दर बुलाया और कहा—लाला जी ‘बरगदा’ के मन्दिर का काम कब से लगवाइएगा? उसे लिये आठ साल हो गये, अब काम लग जाय तो अच्छा हो। जिंदगी का कौन ठिकाना है, जो काम करना है; उसे कर ही डालना चाहिए। 
इस ढंग से इस विषय को उठा कर भानुकुँवरि ने अपनी चतुराई का अच्छा परिचय दिया। मुंशी जी भी दिल में इसके कायल हो गये। जरा सोच कर बोले—इरादा तो मेरा कई बार हुआ, पर मौके की जमीन नहीं मिलती। गंगातट की जमीन असामियों के जोत में है और वे किसी तरह छोड़ने पर राजी नहीं। 
भानुकुँवरि—यह बात तो आज मुझे मालूम हुई। आठ साल हुए, इस गॉँव के विषय में आपने कभी भूल कर भी दी तो चर्चा नहीं की। मालूम नहीं, कितनी तहसील है, क्या मुनाफा है, कैसा गॉँव है, कुछ सीर होती है या नहीं। जो कुछ करते हैं, आप ही करते हैं और करेंगे। पर मुझे भी तो मालूम होना चाहिए? 
मुंशी जी सँभल उठे। उन्हें मालूम हो गया कि इस चतुर स्त्री से बाजी ले जाना मुश्किल है। गॉँव लेना ही है तो अब क्या डर। खुल कर बोले—आपको इससे कोई सरोकार न था, इसलिए मैंने व्यर्थ कष्ट देना मुनासिब न समझा। भानुकुँवरि के हृदय में कुठार-सा लगा। पर्दे से निकल आयी और मुंशी जी की तरफ तेज ऑंखों से देख कर बोली—आप क्या कहते हैं! आपने गॉँव मेरे लिये लिया था या अपने लिए! रुपये मैंने दिये या आपने? उस पर जो खर्च पड़ा, वह मेरा था या आपका? मेरी समझ में नहीं आता कि आप कैसी बातें करते हैं। 
मुंशी जी ने सावधानी से जवाब दिया—यह तो आप जानती हैं कि गॉँव हमारे नाम से बसा हुआ है। रुपया जरुर आपका लगा, पर मैं उसका देनदार हूँ। रहा तहसील-वसूल का खर्च, यह सब मैंने अपने पास से दिया है। उसका हिसाब-किताब, आय-व्यय सब रखता गया हूँ। 
भानुकुँवरि ने क्रोध से कॉँपते हुए कहा—इस कपट का फल आपको अवश्य मिलेगा। आप इस निर्दयता से मेरे बच्चों का गला नहीं काट सकते। मुझे नहीं मालूम था कि आपने हृदय में छुरी छिपा रखी है, नहीं तो यह नौबत ही क्यों आती। खैर, अब से मेरी रोकड़ और बही खाता आप कुछ न छुऍं। मेरा जो कुछ होगा, ले लूँगी। जाइए, एकांत में बैठ कर सोचिए। पाप से किसी का भला नहीं होता। तुम समझते होगे कि बालक अनाथ हैं, इनकी सम्पत्ति हजम कर लूँगा। इस भूल में न रहना, मैं तुम्हारे घर की ईट तक बिकवा लूँगी। 
यह कहकर भानुकुँवरि फिर पर्दे की आड़ में आ बैठी और रोने लगी। स्त्रियॉँ क्रोध के बाद किसी न किसी बहाने रोया करती हैं। लाला साहब को कोई जवाब न सूझा। यहॉँ से उठ आये और दफ्तर जाकर कागज उलट-पलट करने लगे, पर भानुकुँवरि भी उनके पीछे-पीछे दफ्तर में पहुँची और डॉँट कर बोली—मेरा कोई कागज मत छूना। नहीं तो बुरा होगा। तुम विषैले साँप हो, मैं तुम्हारा मुँह नहीं देखना चाहती। 
मुंशी जी कागजों में कुछ काट-छॉँट करना चाहते थे, पर विवश हो गये। खजाने की कुन्जी निकाल कर फेंक दी, बही-खाते पटक दिये, किवाड़ धड़ाके-से बंद किये और हवा की तरह सन्न-से निकल गये। कपट में हाथ तो डाला, पर कपट मन्त्र न जाना। 
दूसरें कारिंदों ने यह कैफियत सुनी, तो फूले न समाये। मुंशी जी के सामने उनकी दाल न गलने पाती। भानुकुँवरि के पास आकर वे आग पर तेल छिड़कने लगे। सब लोग इस विषय में सहमत थे कि मुंशी सत्यनारायण ने विश्वासघात किया है। मालिक का नमक उनकी हड्डियों से फूट-फूट कर निकलेगा। 
दोनों ओर से मुकदमेबाजी की तैयारियॉँ होने लगीं! एक तरफ न्याय का शरीर था, दूसरी ओर न्याय की आत्मा। प्रकृति का पुरुष से लड़ने का साहस हुआ। 
भानकुँवरि ने लाला छक्कन लाल से पूछा—हमारा वकील कौन है? छक्कन लाल ने इधर-उधर झॉँक कर कहा—वकील तो सेठ जी हैं, पर सत्यनारायण ने उन्हें पहले गॉँठ रखा होगा। इस मुकदमें के लिए बड़े होशियार वकील की जरुरत है। मेहरा बाबू की आजकल खूब चल रही है। हाकिम की कलम पकड़ लेते हैं। बोलते हैं तो जैसे मोटरकार छूट जाती है सरकार! और क्या कहें, कई आदमियों को फॉँसी से उतार लिया है, उनके सामने कोई वकील जबान तो खोल नहीं सकता। सरकार कहें तो वही कर लिये जायँ। 
छक्कन लाल की अत्युक्ति से संदेह पैदा कर लिया। भानुकुँवरि ने कहा—नहीं, पहले सेठ जी से पूछ लिया जाय। उसके बाद देखा जायगा। आप जाइए, उन्हें बुला लाइए। 
छक्कनलाल अपनी तकदीर को ठोंकते हुए सेठ जी के पास गये। सेठ जी पंडित भृगुदत्त के जीवन-काल से ही उनका कानून-सम्बन्धी सब काम किया करते थे। मुकदमे का हाल सुना तो सन्नाटे में आ गये। सत्यनाराण को यह बड़ा नेकनीयत आदमी समझते थे। उनके पतन से बड़ा खेद हुआ। उसी वक्त आये। भानुकुँवरि ने रो-रो कर उनसे अपनी विपत्ति की कथा कही और अपने दोनों लड़कों को उनके सामने खड़ा करके बोली—आप इन अनाथों की रक्षा कीजिए। इन्हें मैं आपको सौंपती हूँ। 
सेठ जी ने समझौते की बात छेड़ी। बोले—आपस की लड़ाई अच्छी नहीं। 
भानुकुँवरि—अन्यायी के साथ लड़ना ही अच्छा है। 
सेठ जी—पर हमारा पक्ष निर्बल है। 
भानुकुँवरि फिर पर्दे से निकल आयी और विस्मित होकर बोली—क्या हमारा पक्ष निर्बल है? दुनिया जानती है कि गॉँव हमारा है। उसे हमसे कौन ले सकता है? नहीं, मैं सुलह कभी न करुँगी, आप कागजों को देखें। मेरे बच्चों की खातिर यह कष्ट उठायें। आपका परिश्रम निष्फल न जायगा। सत्यनारायण की नीयत पहले खराब न थी। देखिए जिस मिती में गॉँव लिया गया है, उस मिती में तीस हजार का क्या खर्च दिखाया गया है। अगर उसने अपने नाम उधार लिखा हो, तो देखिए, वार्षिक सूद चुकाया गया या नहीं। ऐसे नरपिशाच से मैं कभी सुलह न करुँगी। सेठ जी ने समझ लिया कि इस समय समझाने-बुझाने से कुछ काम न चलेगा। कागजात देखें, अभियोग चलाने की तैयारियॉँ होने लगीं। 


मुंशी सत्यनारायणलाल खिसियाये हुए मकान पहुँचे। लड़के ने मिठाई मॉँगी। उसे पीटा। स्त्री पर इसलिए बरस पड़े कि उसने क्यों लड़के को उनके पास जाने दिया। अपनी वृद्धा माता को डॉँट कर कहा—तुमसे इतना भी नहीं हो सकता कि जरा लड़के को बहलाओ? एक तो मैं दिन-भर का थका-मॉँदा घर आऊँ और फिर लड़के को खेलाऊँ? मुझे दुनिया में न और कोई काम है, न धंधा। इस तरह घर में बावैला मचा कर बाहर आये, सोचने लगे—मुझसे बड़ी भूल हुई। मैं कैसा मूर्ख हूँ। और इतने दिन तक सारे कागज-पत्र अपने हाथ में थे। चाहता, कर सकता था, पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहा। आज सिर पर आ पड़ी, तो सूझी। मैं चाहता तो बही-खाते सब नये बना सकता था, जिसमें इस गॉँव का और रुपये का जिक्र ही न होता, पर मेरी मूर्खता के कारण घर में आयी हुई लक्ष्मी रुठी जाती हैं। मुझे क्या मालूम था कि वह चुड़ैल मुझसे इस तरह पेश आयेगी, कागजों में हाथ तक न लगाने देगी। 
इसी उधेड़बुन में मुंशी जी एकाएक उछल पड़े। एक उपाय सूझ गया—क्यों न कार्यकर्त्ताओं को मिला लूँ? यद्यपि मेरी सख्ती के कारण वे सब मुझसे नाराज थे और इस समय सीधे बात भी न करेंगे, तथापि उनमें ऐसा कोई भी नहीं, जो प्रलोभन से मुठ्ठी में न आ जाय। हॉँ, इसमें रुपये पानी की तरह बहाना पड़ेगा, पर इतना रुपया आयेगा कहॉँ से? हाय दुर्भाग्य? दो-चार दिन पहले चेत गया होता, तो कोई कठिनाई न पड़ती। क्या जानता था कि वह डाइन इस तरह वज्र-प्रहार करेगी। बस, अब एक ही उपाय है। किसी तरह कागजात गुम कर दूँ। बड़ी जोखिम का काम है, पर करना ही पड़ेगा। 
दुष्कामनाओं के सामने एक बार सिर झुकाने पर फिर सँभलना कठिन हो जाता है। पाप के अथाह दलदल में जहॉँ एक बार पड़े कि फिर प्रतिक्षण नीचे ही चले जाते हैं। मुंशी सत्यनारायण-सा विचारशील मनुष्य इस समय इस फिक्र में था कि कैसे सेंध लगा पाऊँ! 
मुंशी जी ने सोचा—क्या सेंध लगाना आसान है? इसके वास्ते कितनी चतुरता, कितना साहब, कितनी बुद्वि, कितनी वीरता चाहिए! कौन कहता है कि चोरी करना आसान काम है? मैं जो कहीं पकड़ा गया, तो मरने के सिवा और कोई मार्ग न रहेगा। 
बहुत सोचने-विचारने पर भी मुंशी जी को अपने ऊपर ऐसा दुस्साहस कर सकने का विश्वास न हो सका। हॉँ, इसमें सुगम एक दूसरी तदबीर नजर आयी—क्यों न दफ्तर में आग लगा दूँ? एक बोतल मिट्टी का तेल और दियासलाई की जरुरत हैं किसी बदमाश को मिला लूँ, मगर यह क्या मालूम कि वही उसी कमरे में रखी है या नहीं। चुड़ैल ने उसे जरुर अपने पास रख लिया होगा। नहीं; आग लगाना गुनाह बेलज्जत होगा। 
बहुत देर मुंशी जी करवटें बदलते रहे। नये-नये मनसूबे सोचते; पर फिर अपने ही तर्को से काट देते। वर्षाकाल में बादलों की नयी-नयी सूरतें बनती और फिर हवा के वेग से बिगड़ जाती हैं; वही दशा इस समय उनके मनसूबों की हो रही थी। 
पर इस मानसिक अशांति में भी एक विचार पूर्णरुप से स्थिर था—किसी तरह इन कागजात को अपने हाथ में लाना चाहिए। काम कठिन है—माना! पर हिम्मत न थी, तो रार क्यों मोल ली? क्या तीस हजार की जायदाद दाल-भात का कौर है?—चाहे जिस तरह हो, चोर बने बिना काम नहीं चल सकता। आखिर जो लोग चोरियॉँ करते हैं, वे भी तो मनुष्य ही होते हैं। बस, एक छलॉँग का काम है। अगर पार हो गये, तो राज करेंगे, गिर पड़े, तो जान से हाथ धोयेंगे। 


रात के दस बज गये। मुंशी सत्यनाराण कुंजियों का एक गुच्छा कमर में दबाये घर से बाहर निकले। द्वार पर थोड़ा-सा पुआल रखा हुआ था। उसे देखते ही वे चौंक पड़े। मारे डर के छाती धड़कने लगी। जान पड़ा कि कोई छिपा बैठा है। कदम रुक गये। पुआल की तरफ ध्यान से देखा। उसमें बिलकुल हरकत न हुई! तब हिम्मत बॉँधी, आगे बड़े और मन को समझाने लगे—मैं कैसा बौखल हूँ 
अपने द्वार पर किसका डर और सड़क पर भी मुझे किसका डर है? मैं अपनी राह जाता हूँ। कोई मेरी तरफ तिरछी ऑंख से नहीं देख सकता। हॉँ, जब मुझे सेंध लगाते देख ले—नहीं, पकड़ ले तब अलबत्ते डरने की बात है। तिस पर भी बचाव की युक्ति निकल सकती है। 
अकस्मात उन्होंने भानुकुँवरि के एक चपरासी को आते हुए देखा। कलेजा धड़क उठा। लपक कर एक अँधेरी गली में घुस गये। बड़ी देर तक वहॉँ खड़े रहे। जब वह सिपाही ऑंखों से ओझल हो गया, तब फिर सड़क पर आये। वह सिपाही आज सुबह तक इनका गुलाम था, उसे उन्होंने कितनी ही बार गालियॉँ दी थीं, लातें मारी थीं, पर आज उसे देखकर उनके प्राण सूख गये। 
उन्होंने फिर तर्क की शरण ली। मैं मानों भंग खाकर आया हूँ। इस चपरासी से इतना डरा मानो कि वह मुझे देख लेता, पर मेरा कर क्या सकता था? हजारों आदमी रास्ता चल रहे हैं। उन्हीं में मैं भी एक हूँ। क्या वह अंतर्यामी है? सबके हृदय का हाल जानता है? मुझे देखकर वह अदब से सलाम करता और वहॉँ का कुछ हाल भी कहता; पर मैं उससे ऐसा डरा कि सूरत तक न दिखायी। इस तरह मन को समझा कर वे आगे बढ़े। सच है, पाप के पंजों में फँसा हुआ मन पतझड़ का पत्ता है, जो हवा के जरा-से झोंके से गिर पड़ता है। 
मुंशी जी बाजार पहुँचे। अधिकतर दूकानें बंद हो चुकी थीं। उनमें सॉँड़ और गायें बैठी हुई जुगाली कर रही थी। केवल हलवाइयों की दूकानें खुली थी और कहीं-कहीं गजरेवाले हार की हॉँक लगाते फिरते थे। सब हलवाई मुंशी जी को पहचानते थे, अतएव मुंशी जी ने सिर झुका लिया। कुछ चाल बदली और लपकते हुए चले। एकाएक उन्हें एक बग्घी आती दिखायी दी। यह सेठ बल्लभदास सवकील की बग्घी थी। इसमें बैठकर हजारों बार सेठ जी के साथ कचहरी गये थे, पर आज वह बग्घी कालदेव के समान भयंकर मालूम हुई। फौरन एक खाली दूकान पर चढ़ गये। वहॉँ विश्राम करने वाले सॉँड़ ने समझा, वे मुझे पदच्युत करने आये हैं! माथा झुकाये फुंकारता हुआ उठ बैठा; पर इसी बीच में बग्घी निकल गयी और मुंशी जी की जान में जान आयी। अबकी उन्होंने तर्क का आश्रय न लिया। समझ गये कि इस समय इससे कोई लाभ नहीं, खैरियत यह हुई कि वकील ने देखा नहीं। यह एक घाघ हैं। मेरे चेहरे से ताड़ जाता। कुछ विद्वानों का कथन है कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति पाप की ओर होती है, पर यह कोरा अनुमान ही अनुमान है, अनुभव-सिद्ध बात नहीं। सच बात तो यह है कि मनुष्य स्वभावत: पाप-भीरु होता है और हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि पाप से उसे कैसी घृणा होती है। 
एक फर्लांग आगे चल कर मुंशी जी को एक गली मिली। वह भानुकुँवरि के घर का एक रास्ता था। धुँधली-सी लालटेन जल रही थी। जैसा मुंशी जी ने अनुमान किया था, पहरेदार का पता न था। अस्तबल में चमारों के यहॉँ नाच हो रहा था। कई चमारिनें बनाव-सिंगार करके नाच रही थीं। चमार मृदंग बजा-बजा कर गाते थे— 
‘नाहीं घरे श्याम, घेरि आये बदरा।
सोवत रहेउँ, सपन एक देखेउँ, रामा। 
खुलि गयी नींद, ढरक गये कजरा। 
नाहीं घरे श्याम, घेरि आये बदरा।’
दोनों पहरेदार वही तमाशा देख रहे थे। मुंशी जी दबे-पॉँव लालटेन के पास गए और जिस तरह बिल्ली चूहे पर झपटती है, उसी तरह उन्होंने झपट कर लालटेन को बुझा दिया। एक पड़ाव पूरा हो गया, पर वे उस कार्य को जितना दुष्कर समझते थे, उतना न जान पड़ा। हृदय कुछ मजबूत हुआ। दफ्तर के बरामदे में पहुँचे और खूब कान लगाकर आहट ली। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। केवल चमारों का कोलाहल सुनायी देता था। इस समय मुंशी जी के दिल में धड़कन थी, पर सिर धमधम कर रहा था; हाथ-पॉँव कॉँप रहे थे, सॉँस बड़े वेग से चल रही थी। शरीर का एक-एक रोम ऑंख और कान बना हुआ था। वे सजीवता की मूर्ति हो रहे थे। उनमें जितना पौरुष, जितनी चपलता, जितना-साहस, जितनी चेतना, जितनी बुद्वि, जितना औसान था, वे सब इस वक्त सजग और सचेत होकर इच्छा-शक्ति की सहायता कर रहे थे। 
दफ्तर के दरवाजे पर वही पुराना ताला लगा हुआ था। इसकी कुंजी आज बहुत तलाश करके वे बाजार से लाये थे। ताला खुल गया, किवाड़ो ने बहुत दबी जबान से प्रतिरोध किया। इस पर किसी ने ध्यान न दिया। मुंशी जी दफ्तर में दाखिल हुए। भीतर चिराग जल रहा था। मुंशी जी को देख कर उसने एक दफे सिर हिलाया, मानो उन्हें भीतर आने से रोका। 
मुंशी जी के पैर थर-थर कॉँप रहे थे। एड़ियॉँ जमीन से उछली पड़ती थीं। पाप का बोझ उन्हें असह्य था। पल-भर में मुंशी जी ने बहियों को उलटा-पलटा। लिखावट उनकी ऑंखों में तैर रही थी। इतना अवकाश कहॉँ था कि जरुरी कागजात छॉँट लेते। उन्होंनें सारी बहियों को समेट कर एक गट्ठर बनाया और सिर पर रख कर तीर के समान कमरे के बाहर निकल आये। उस पाप की गठरी को लादे हुए वह अँधेरी गली से गायब हो गए। 
तंग, अँधेरी, दुर्गन्धपूर्ण कीचड़ से भरी हुई गलियों में वे नंगे पॉँव, स्वार्थ, लोभ और कपट का बोझ लिए चले जाते थे। मानो पापमय आत्मा नरक की नालियों में बही चली जाती थी। 
बहुत दूर तक भटकने के बाद वे गंगा किनारे पहुँचे। जिस तरह कलुषित हृदयों में कहीं-कहीं धर्म का धुँधला प्रकाश रहता है, उसी तरह नदी की काली सतह पर तारे झिलमिला रहे थे। तट पर कई साधु धूनी जमाये पड़े थे। ज्ञान की ज्वाला मन की जगह बाहर दहक रही थी। मुंशी जी ने अपना गट्ठर उतारा और चादर से खूब मजबूत बॉँध कर बलपूर्वक नदी में फेंक दिया। सोती हुई लहरों में कुछ हलचल हुई और फिर सन्नाटा हो गया। 


मुंशी सत्यनारायण लाल के घर में दो स्त्रियॉँ थीं—माता और पत्नी। वे दोनों अशिक्षिता थीं। तिस पर भी मुंशी जी को गंगा में डूब मरने या कहीं भाग जाने की जरुरत न होती थी ! न वे बॉडी पहनती थी, न मोजे-जूते, न हारमोनियम पर गा सकती थी। यहॉँ तक कि उन्हें साबुन लगाना भी न आता था। हेयरपिन, ब्रुचेज, जाकेट आदि परमावश्यक चीजों का तो नाम ही नहीं सुना था। बहू में आत्म-सम्मान जरा भी नहीं था; न सास में आत्म-गौरव का जोश। बहू अब तक सास की घुड़कियॉँ भीगी बिल्ली की तरह सह लेती थी—हा मूर्खे ! सास को बच्चे के नहलाने-धुलाने, यहॉँ तक कि घर में झाड़ू देने से भी घृणा न थी, हा ज्ञानांधे! बहू स्त्री क्या थी, मिट्टी का लोंदा थी। एक पैसे की जरुरत होती तो सास से मॉँगती। सारांश यह कि दोनों स्त्रियॉँ अपने अधिकारों से बेखबर, अंधकार में पड़ी हुई पशुवत् जीवन व्यतीत करती थीं। ऐसी फूहड़ थी कि रोटियां भी अपने हाथों से बना लेती थी। कंजूसी के मारे दालमोट, समोसे कभी बाजार से न मँगातीं। आगरे वाले की दूकान की चीजें खायी होती तो उनका मजा जानतीं। बुढ़िया खूसट दवा-दरपन भी जानती थी। बैठी-बैठी घास-पात कूटा करती। 
मुंशी जी ने मॉँ के पास जाकर कहा—अम्मॉँ ! अब क्या होगा? भानुकुँवरि ने मुझे जवाब दे दिया।
माता ने घबरा कर पूछा—जवाब दे दिया? 
मुंशी—हॉँ, बिलकुल बेकसूर! 
माता—क्या बात हुई? भानुकुँवरि का मिजाज तो ऐसा न था। 
मुंशी—बात कुछ न थी। मैंने अपने नाम से जो गॉँव लिया था, उसे मैंने अपने अधिकार में कर लिया। कल मुझसे और उनसे साफ-साफ बातें हुई। मैंने कह दिया कि गॉँव मेरा है। मैंने अपने नाम से लिया है, उसमें तुम्हारा कोई इजारा नहीं। बस, बिगड़ गयीं, जो मुँह में आया, बकती रहीं। उसी वक्त मुझे निकाल दिया और धमका कर कहा—मैं तुमसे लड़ कर अपना गॉँव ले लूँगी। अब आज ही उनकी तरफ से मेरे ऊपर मुकदमा दायर होगा; मगर इससे होता क्या है? गॉँव मेरा है। उस पर मेरा कब्जा है। एक नहीं, हजार मुकदमें चलाएं, डिगरी मेरी होगी? 
माता ने बहू की तरफ मर्मांतक दृष्टि से देखा और बोली—क्यों भैया? वह गॉँव लिया तो था तुमने उन्हीं के रुपये से और उन्हीं के वास्ते? 
मुंशी—लिया था, तब लिया था। अब मुझसे ऐसा आबाद और मालदार गॉँव नहीं छोड़ा जाता। वह मेरा कुछ नहीं कर सकती। मुझसे अपना रुपया भी नहीं ले सकती। डेढ़ सौ गॉँव तो हैं। तब भी हवस नहीं मानती। 
माना—बेटा, किसी के धन ज्यादा होता है, तो वह उसे फेंक थोड़े ही देता है? तुमने अपनी नीयत बिगाड़ी, यह अच्छा काम नहीं किया। दुनिया तुम्हें क्या कहेगी? और दुनिया चाहे कहे या न कहे, तुमको भला ऐसा करना चाहिए कि जिसकी गोद में इतने दिन पले, जिसका इतने दिनों तक नमक खाया, अब उसी से दगा करो? नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिया? मजे से खाते हो, पहनते हो, घर में नारायण का दिया चार पैसा है, बाल-बच्चे हैं, और क्या चाहिए? मेरा कहना मानो, इस कलंक का टीका अपने माथे न लगाओ। यह अपजस मत लो। बरक्कत अपनी कमाई में होती है; हराम की कौड़ी कभी नहीं फलती। 
मुंशी—ऊँह! ऐसी बातें बहुत सुन चुका हूँ। दुनिया उन पर चलने लगे, तो सारे काम बन्द हो जायँ। मैंने इतने दिनों इनकी सेवा की, मेरी ही बदौलत ऐसे-ऐसे चार-पॉँच गॉँव बढ़ गए। जब तक पंडित जी थे, मेरी नीयत का मान था। मुझे ऑंख में धूल डालने की जरुरत न थी, वे आप ही मेरी खातिर कर दिया करते थे। उन्हें मरे आठ साल हो गए; मगर मुसम्मात के एक बीड़े पान की कसम खाता हूँ; मेरी जात से उनको हजारों रुपये-मासिक की बचत होती थी। क्या उनको इतनी भी समझ न थी कि यह बेचारा, जो इतनी ईमानदारी से मेरा काम करता है, इस नफे में कुछ उसे भी मिलना चाहिए? यह कह कर न दो, इनाम कह कर दो, किसी तरह दो तो, मगर वे तो समझती थी कि मैंने इसे बीस रुपये महीने पर मोल ले लिया है। मैंने आठ साल तक सब किया, अब क्या इसी बीस रुपये में गुलामी करता रहूँ और अपने बच्चों को दूसरों का मुँह ताकने के लिए छोड़ जाऊँ? अब मुझे यह अवसर मिला है। इसे क्यों छोडूँ? जमींदारी की लालसा लिये हुए क्यों मरुँ? जब तक जीऊँगा, खुद खाऊँगा। मेरे पीछे मेरे बच्चे चैन उड़ायेंगे। 
माता की ऑंखों में ऑंसू भर आये। बोली—बेटा, मैंने तुम्हारे मुँह से ऐसी बातें कभी नहीं सुनी थीं, तुम्हें क्या हो गया है? तुम्हारे आगे बाल-बच्चे हैं। आग में हाथ न डालो। 
बहू ने सास की ओर देख कर कहा—हमको ऐसा धन न चाहिए, हम अपनी दाल-रोटी में मगन हैं। 
मुंशी—अच्छी बात है, तुम लोग रोटी-दाल खाना, गाढ़ा पहनना, मुझे अब हल्वे-पूरी की इच्छा है। 
माता—यह अधर्म मुझसे न देखा जायगा। मैं गंगा में डूब मरुँगी। 
पत्नी—तुम्हें यह सब कॉँटा बोना है, तो मुझे मायके पहुँचा दो, मैं अपने बच्चों को लेकर इस घर में न रहूँगी! 
मुंशी ने झुँझला कर कहा—तुम लोगों की बुद्वि तो भॉँग खा गयी है। लाखों सरकारी नौकर रात-दिन दूसरों का गला दबा-दबा कर रिश्वतें लेते हैं और चैन करते हैं। न उनके बाल-बच्चों ही को कुछ होता है, न उन्हीं को हैजा पकड़ता है। अधर्म उनको क्यों नहीं खा जाता, जो मुझी को खा जायगा। मैंने तो सत्यवादियों को सदा दु:ख झेलते ही देखा है। मैंने जो कुछ किया है, सुख लूटूँगा। तुम्हारे मन में जो आये, करो। 
प्रात:काल दफ्तर खुला तो कागजात सब गायब थे। मुंशी छक्कनलाल बौखलाये से घर में गये और मालकिन से पूछा—कागजात आपने उठवा लिए हैं। 
भानुकुँवरि ने कहा—मुझे क्या खबर, जहॉँ आपने रखे होंगे, वहीं होंगे। 
फिर सारे घर में खलबली पड़ गयी। पहरेदारों पर मार पड़ने लगी। भानुकुँवरि को तुरन्त मुंशी सत्यनारायण पर संदेह हुआ, मगर उनकी समझ में छक्कनलाल की सहायता के बिना यह काम होना असम्भव था। पुलिस में रपट हुई। एक ओझा नाम निकालने के लिए बुलाया गया। मौलवी साहब ने कुर्रा फेंका। ओझा ने बताया, यह किसी पुराने बैरी का काम है। मौलवी साहब ने फरमाया, किसी घर के भेदिये ने यह हरकत की है। शाम तक यह दौड़-धूप रही। फिर यह सलाह होने लगी कि इन कागजातों के बगैर मुकदमा कैसे चले। पक्ष तो पहले से ही निर्बल था। जो कुछ बल था, वह इसी बही-खाते का था। अब तो सबूत भी हाथ से गये। दावे में कुछ जान ही न रही, मगर भानकुँवरि ने कहा—बला से हार जाऍंगे। हमारी चीज कोई छीन ले, तो हमारा धर्म है कि उससे यथाशक्ति लड़ें, हार कर बैठना कायरों का काम है। सेठ जी (वकील) को इस दुर्घटना का समाचार मिला तो उन्होंने भी यही कहा कि अब दावे में जरा भी जान नहीं है। केवल अनुमान और तर्क का भरोसा है। अदालत ने माना तो माना, नहीं तो हार माननी पड़ेगी। पर भानुकुँवरि ने एक न मानी। लखनऊ और इलाहाबाद से दो होशियार बैरिस्टिर बुलाये। मुकदमा शुरु हो गया। सारे शहर में इस मुकदमें की धूम थी। कितने ही रईसों को भानुकुँवरि ने साथी बनाया था। मुकदमा शुरु होने के समय हजारों आदमियों की भीड़ हो जाती थी। लोगों के इस खिंचाव का मुख्य कारण यह था कि भानुकुँवरि एक पर्दे की आड़ में बैठी हुई अदालत की कारवाई देखा करती थी, क्योंकि उसे अब अपने नौकरों पर जरा भी विश्वास न था। वादी बैरिस्टर ने एक बड़ी मार्मिक वक्तृता दी। उसने सत्यनाराण की पूर्वावस्था का खूब अच्छा चित्र खींचा। उसने दिखलाया कि वे कैसे स्वामिभक्त, कैसे कार्य-कुशल, कैसे कर्म-शील थे; और स्वर्गवासी पंडित भृगुदत्त का उस पर पूर्ण विश्वास हो जाना, किस तरह स्वाभाविक था। इसके बाद उसने सिद्ध किया कि मुंशी सत्यनारायण की आर्थिक व्यवस्था कभी ऐसी न थी कि वे इतना धन-संचय करते। अंत में उसने मुंशी जी की स्वार्थपरता, कूटनीति, निर्दयता और विश्वास-घातकता का ऐसा घृणोत्पादक चित्र खींचा कि लोग मुंशी जी को गोलियॉँ देने लगे। इसके साथ ही उसने पंडित जी के अनाथ बालकों की दशा का बड़ा करूणोत्पादक वर्णन किया—कैसे शोक और लज्जा की बात है कि ऐसा चरित्रवान, ऐसा नीति-कुशल मनुष्य इतना गिर जाय कि अपने स्वामी के अनाथ बालकों की गर्दन पर छुरी चलाने पर संकोच न करे। मानव-पतन का ऐसा करुण, ऐसा हृदय-विदारक उदाहरण मिलना कठिन है। इस कुटिल कार्य के परिणाम की दृष्टि से इस मनुष्य के पूर्व परिचित सदगुणों का गौरव लुप्त हो जाता है। क्योंकि वे असली मोती नहीं, नकली कॉँच के दाने थे, जो केवल विश्वास जमाने के निमित्त दर्शाये गये थे। वह केवल सुंदर जाल था, जो एक सरल हृदय और छल-छंद से दूर रहने वाले रईस को फँसाने के लिए फैलाया गया था। इस नर-पशु का अंत:करण कितना अंधकारमय, कितना कपटपूर्ण, कितना कठोर है; और इसकी दुष्टता कितनी घोर, कितनी अपावन है। अपने शत्रु के साथ दया करना एक बार तो क्षम्य है, मगर इस मलिन हृदय मनुष्य ने उन बेकसों के साथ दगा दिया है, जिन पर मानव-स्वभाव के अनुसार दया करना उचित है! यदि आज हमारे पास बही-खाते मौजूद होते, अदालत पर सत्यनारायण की सत्यता स्पष्ट रुप से प्रकट हो जाती, पर मुंशी जी के बरखास्त होते ही दफ्तर से उनका लुप्त हो जाना भी अदालत के लिए एक बड़ा सबूत है। 
शहर में कई रईसों ने गवाही दी, पर सुनी-सुनायी बातें जिरह में उखड़ गयीं। दूसरे दिन फिर मुकदमा पेश हुआ। प्रतिवादी के वकील ने अपनी वक्तृता शुरु की। उसमें गंभीर विचारों की अपेक्षा हास्य का आधिक्य था—यह एक विलक्षण न्याय-सिद्धांत है कि किसी धनाढ़य मनुष्य का नौकर जो कुछ खरीदे, वह उसके स्वामी की चीज समझी जाय। इस सिद्धांत के अनुसार हमारी गवर्नमेंट को अपने कर्मचारियों की सारी सम्पत्ति पर कब्जा कर लेना चाहिए। यह स्वीकार करने में हमको कोई आपत्ति नहीं कि हम इतने रुपयों का प्रबंध न कर सकते थे और यह धन हमने स्वामी ही से ऋण लिया; पर हमसे ऋण चुकाने का कोई तकाजा न करके वह जायदाद ही मॉँगी जाती है। यदि हिसाब के कागजात दिखलाये जायँ, तो वे साफ बता देंगे कि मैं सारा ऋण दे चुका। हमारे मित्र ने कहा कि ऐसी अवस्था में बहियों का गुम हो जाना भी अदालत के लिये एक सबूत होना चाहिए। मैं भी उनकी युक्ति का समर्थन करता हूँ। यदि मैं आपसे ऋण ले कर अपना विवाह करुँ तो क्या मुझसे मेरी नव-विवाहित वधू को छीन लेंगे? 
‘हमारे सुयोग मित्र ने हमारे ऊपर अनाथों के साथ दगा करने का दोष लगाया है। अगर मुंशी सत्यनाराण की नीयत खराब होती, तो उनके लिए सबसे अच्छा अवसर वह था जब पंडित भृगुदत्त का स्वर्गवास हुआ था। इतने विलम्ब की क्या जरुरत थी? यदि आप शेर को फँसा कर उसके बच्चे को उसी वक्त नहीं पकड़ लेते, उसे बढ़ने और सबल होने का अवसर देते हैं, तो मैं आपको बुद्विमान न कहूँगा। यथार्थ बात यह है कि मुंशी सत्यनाराण ने नमक का जो कुछ हक था, वह पूरा कर दिया। आठ वर्ष तक तन-मन से स्वामी के संतान की सेवा की। आज उन्हें अपनी साधुता का जो फल मिल रहा है, वह बहुत ही दु:खजनक और हृदय-विदारक है। इसमें भानुकुँवरि का दोष नहीं। वे एक गुण-सम्पन्न महिला हैं; मगर अपनी जाति के अवगुण उनमें भी विद्यमान हैं! ईमानदार मनुष्य स्वभावत: स्पष्टभाषी होता है; उसे अपनी बातों में नमक-मिर्च लगाने की जरुरत नहीं होती। यही कारण है कि मुंशी जी के मृदुभाषी मातहतों को उन पर आक्षेप करने का मौका मिल गया। इस दावे की जड़ केवल इतनी ही है, और कुछ नहीं। भानुकुँवरि यहॉँ उपस्थित हैं। क्या वे कह सकती हैं कि इस आठ वर्ष की मुद्दत में कभी इस गॉँव का जिक्र उनके सामने आया? कभी उसके हानि-लाभ, आय-व्यय, लेन-देन की चर्चा उनसे की गयी? मान लीजिए कि मैं गवर्नमेंट का मुलाजिम हूँ। यदि मैं आज दफ्तर में आकर अपनी पत्नी के आय-व्यय और अपने टहलुओं के टैक्सों का पचड़ा गाने लगूँ, तो शायद मुझे शीघ्र ही अपने पद से पृथक होना पड़े, और सम्भव है, कुछ दिनों तक बरेली की अतिथिशाला में भी रखा जाऊँ। जिस गॉँव से भानुकुँवरि का सरोवार न था, उसकी चर्चा उनसे क्यों की जाती?’ इसके बाद बहुत से गवाह पेश हुए; जिनमें अधिकांश आस-पास के देहातों के जमींदार थे। उन्होंने बयान किया कि हमने मुंशी सत्यनारायण असामियों को अपनी दस्तखती रसीदें और अपने नाम से खजाने में रुपया दाखिल करते देखा है। 
इतने में संध्या हो गयी। अदालत ने एक सप्ताह में फैसला सुनाने का हुक्म दिया। 


सत्यनारायण को अब अपनी जीत में कोई सन्देह न था। वादी पक्ष के गवाह भी उखड़ गये थे और बहस भी सबूत से खाली थी। अब इनकी गिनती भी जमींदारों में होगी और सम्भव है, यह कुछ दिनों में रईस कहलाने लगेंगे। पर किसी न किसी कारण से अब शहर के गणमान्य पुरुषों से ऑंखें मिलाते शर्माते थे। उन्हें देखते ही उनका सिर नीचा हो जाता था। वह मन में डरते थे कि वे लोग कहीं इस विषय पर कुछ पूछ-ताछ न कर बैठें। वह बाजार में निकलते तो दूकानदारों में कुछ कानाफूसी होने लगती और लोग उन्हें तिरछी दृष्टि से देखने लगते। अब तक लोग उन्हें विवेकशील और सच्चरित्र मनुष्य समझते, शहर के धनी-मानी उन्हें इज्जत की निगाह से देखते और उनका बड़ा आदर करते थे। यद्यपि मुंशी जी को अब तक इनसे टेढ़ी-तिरछी सुनने का संयोग न पड़ा था, तथापि उनका मन कहता था कि सच्ची बात किसी से छिपी नहीं है। चाहे अदालत से उनकी जीत हो जाय, पर उनकी साख अब जाती रही। अब उन्हें लोग स्वार्थी, कपटी और दगाबाज समझेंगे। दूसरों की बात तो अलग रही, स्वयं उनके घरवाले उनकी उपेक्षा करते थे। बूढ़ी माता ने तीन दिन से मुँह में पानी नहीं डाला! स्त्री बार-बार हाथ जोड़ कर कहती थी कि अपने प्यारे बालकों पर दया करो। बुरे काम का फल कभी अच्छा नहीं होता! नहीं तो पहले मुझी को विष खिला दो। जिस दिन फैसला सुनाया जानेवाला था, प्रात:काल एक कुंजड़िन तरकारियॉँ लेकर आयी और मुंशियाइन से बोली—
‘बहू जी! हमने बाजार में एक बात सुनी है। बुरा न मानों तो कहूँ? जिसको देखो, उसके मुँह से यही बात निकलती है कि लाला बाबू ने जालसाजी से पंडिताइन का कोई हलका ले लिया। हमें तो इस पर यकीन नहीं आता। लाला बाबू ने न सँभाला होता, तो अब तक पंडिताइन का कहीं पता न लगता। एक अंगुल जमीन न बचती। इन्हीं में एक सरदार था कि सबको सँभाल लिया। तो क्या अब उन्हीं के साथ बदी करेंगे? अरे बहू! कोई कुछ साथ लाया है कि ले जायगा? यही नेक-बदी रह जाती है। बुरे का फल बुरा होता है। आदमी न देखे, पर अल्लाह सब कुछ देखता है।’ 
बहू जी पर घड़ों पानी पड़ गया। जी चाहता था कि धरती फट जाती, तो उसमें समा जाती। स्त्रियॉँ स्वभावत: लज्जावती होती हैं। उनमें आत्माभिमान की मात्रा अधिक होती है। निन्दा-अपमान उनसे सहन नहीं हो सकता है। सिर झुकाये हुए बोली—बुआ! मैं इन बातों को क्या जानूँ? मैंने तो आज ही तुम्हारे मुँह से सुनी है। कौन-सी तरकारियॉँ हैं? 
मुंशी सत्यनारायण अपने कमरे में लेटे हुए कुंजड़िन की बातें सुन रहे थे, उसके चले जाने के बाद आकर स्त्री से पूछने लगे—यह शैतान की खाला क्या कह रही थी। 
स्त्री ने पति की ओर से मुंह फेर लिया और जमीन की ओर ताकते हुए बोली—क्या तुमने नहीं सुना? तुम्हारा गुन-गान कर रही थी। तुम्हारे पीछे देखो, किस-किसके मुँह से ये बातें सुननी पड़ती हैं और किस-किससे मुँह छिपाना पड़ता है। 
मुंशी जी अपने कमरे में लौट आये। स्त्री को कुछ उत्तर नहीं दिया। आत्मा लज्जा से परास्त हो गयी। जो मनुष्य सदैव सर्व-सम्मानित रहा हो; जो सदा आत्माभिमान से सिर उठा कर चलता रहा हो, जिसकी सुकृति की सारे शहर में चर्चा होती हो, वह कभी सर्वथा लज्जाशून्य नहीं हो सकता; लज्जा कुपथ की सबसे बड़ी शत्रु है। कुवासनाओं के भ्रम में पड़ कर मुंशी जी ने समझा था, मैं इस काम को ऐसी गुप्त-रीति से पूरा कर ले जाऊँगा कि किसी को कानों-कान खबर न होगी, पर उनका यह मनोरथ सिद्ध न हुआ। बाधाऍं आ खड़ी हुई। उनके हटाने में उन्हें बड़े दुस्साहस से काम लेना पड़ा; पर यह भी उन्होंने लज्जा से बचने के निमित्त किया। जिसमें यह कोई न कहे कि अपनी स्वामिनी को धोखा दिया। इतना यत्न करने पर भी निंदा से न बच सके। बाजार का सौदा बेचनेवालियॉँ भी अब अपमान करतीं हैं। कुवासनाओं से दबी हुई लज्जा-शक्ति इस कड़ी चोट को सहन न कर सकी। मुंशी जी सोचने लगे, अब मुझे धन-सम्पत्ति मिल जायगी, ऐश्वर्यवान् हो जाऊँगा, परन्तु निन्दा से मेरा पीछा न छूटेगा। अदालत का फैसला मुझे लोक-निन्दा से न बचा सकेगा। ऐश्वर्य का फल क्या है?—मान और मर्यादा। उससे हाथ धो बैठा, तो ऐश्वर्य को लेकर क्या करुँगा? चित्त की शक्ति खोकर, लोक-लज्जा सहकर, जनसमुदाय में नीच बन कर और अपने घर में कलह का बीज बोकर यह सम्पत्ति मेरे किस काम आयेगी? और यदि वास्तव में कोई न्याय-शक्ति हो और वह मुझे इस कुकृत्य का दंड दे, तो मेरे लिए सिवा मुख में कालिख लगा कर निकल जाने के और कोई मार्ग न रहेगा। सत्यवादी मनुष्य पर कोई विपत्त पड़ती हैं, तो लोग उनके साथ सहानुभूति करते हैं। दुष्टों की विपत्ति लोगों के लिए व्यंग्य की सामग्री बन जाती है। उस अवस्था में ईश्वर अन्यायी ठहराया जाता है; मगर दुष्टों की विपत्ति ईश्वर के न्याय को सिद्ध करती है। परमात्मन! इस दुर्दशा से किसी तरह मेरा उद्धार करो! क्यों न जाकर मैं भानुकुँवरि के पैरों पर गिर पड़ूँ और विनय करुँ कि यह मुकदमा उठा लो? शोक! पहले यह बात मुझे क्यों न सूझी? अगर कल तक में उनके पास चला गया होता, तो बात बन जाती; पर अब क्या हो सकता है। आज तो फैसला सुनाया जायगा। 
मुंशी जी देर तक इसी विचार में पड़े रहे, पर कुछ निश्चय न कर सके कि क्या करें। 
भानुकुँवरि को भी विश्वास हो गया कि अब गॉँव हाथ से गया। बेचारी हाथ मल कर रह गयी। रात-भर उसे नींद न आयी, रह-रह कर मुंशी सत्यनारायण पर क्रोध आता था। हाय पापी! ढोल बजा कर मेरा पचास हजार का माल लिए जाता है और मैं कुछ नहीं कर सकती। आजकल के न्याय करने वाले बिलकुल ऑंख के अँधे हैं। जिस बात को सारी दुनिया जानती है, उसमें भी उनकी दृष्टि नहीं पहुँचती। बस, दूसरों को ऑंखों से देखते हैं। कोरे कागजों के गुलाम हैं। न्याय वह है जो दूध का दूध, पानी का पानी कर दे; यह नहीं कि खुद ही कागजों के धोखे में आ जाय, खुद ही पाखंडियों के जाल में फँस जाय। इसी से तो ऐसी छली, कपटी, दगाबाज, और दुरात्माओं का साहस बढ़ गया है। खैर, गॉँव जाता है तो जाय; लेकिन सत्यनारायण, तुम शहर में कहीं मुँह दिखाने के लायक भी न रहे। इस खयाल से भानुकुँवरि को कुछ शान्ति हुई। शत्रु की हानि मनुष्य को अपने लाभ से भी अधिक प्रिय होती है, मानव-स्वभाव ही कुछ ऐसा है। तुम हमारा एक गॉँव ले गये, नारायण चाहेंगे तो तुम भी इससे सुख न पाओगे। तुम आप नरक की आग में जलोगे, तुम्हारे घर में कोई दिया जलाने वाला न रह जायगा।
फैसले का दिन आ गया। आज इजलास में बड़ी भीड़ थी। ऐसे-ऐसे महानुभाव उपस्थित थे, जो बगुलों की तरह अफसरों की बधाई और बिदाई के अवसरों ही में नजर आया करते हैं। वकीलों और मुख्तारों की पलटन भी जमा थी। नियत समय पर जज साहब ने इजलास सुशोभित किया। विस्तृत न्याय भवन में सन्नाटा छा गया। अहलमद ने संदूक से तजबीज निकाली। लोग उत्सुक होकर एक-एक कदम और आगे खिसक गए। 
जज ने फैसला सुनाया—मुद्दई का दावा खारिज। दोनों पक्ष अपना-अपना खर्च सह लें। 
यद्यपि फैसला लोगों के अनुमान के अनुसार ही था, तथापि जज के मुँह से उसे सुन कर लोगों में हलचल-सी मच गयी। उदासीन भाव से फैसले पर आलोचनाऍं करते हुए लोग धीरे-धीरे कमरे से निकलने लगे। 
एकाएक भानुकुँवरि घूँघट निकाले इजलास पर आ कर खड़ी हो गयी। जानेवाले लौट पड़े। जो बाहर निकल गये थे, दौड़ कर आ गये। और कौतूहलपूर्वक भानुकुँवरि की तरफ ताकने लगे। 
भानुकुँवरि ने कंपित स्वर में जज से कहा—सरकार, यदि हुक्म दें, तो मैं मुंशी जी से कुछ पूछूँ। 
यद्यपि यह बात नियम के विरुद्ध थी, तथापि जज ने दयापूर्वक आज्ञा दे दी। 
तब भानुकुँवरि ने सत्यनारायण की तरफ देख कर कहा—लाला जी, सरकार ने तुम्हारी डिग्री तो कर ही दी। गॉँव तुम्हें मुबारक रहे; मगर ईमान आदमी का सब कुछ है। ईमान से कह दो, गॉँव किसका है? 
हजारों आदमी यह प्रश्न सुन कर कौतूहल से सत्यनारायण की तरफ देखने लगे। मुंशी जी विचार-सागर में डूब गये। हृदय में संकल्प और विकल्प में घोर संग्राम होने लगा। हजारों मनुष्यों की ऑंखें उनकी तरफ जमी हुई थीं। यथार्थ बात अब किसी से छिपी न थी। इतने आदमियों के सामने असत्य बात मुँह से निकल न सकी। लज्जा से जबान बंद कर ली—‘मेरा’ कहने में काम बनता था। कोई बात न थी; किंतु घोरतम पाप का दंड समाज दे सकता है, उसके मिलने का पूरा भय था। ‘आपका’ कहने से काम बिगड़ता था। जीती-जितायी बाजी हाथ से निकली जाती थी, सर्वोत्कृष्ट काम के लिए समाज से जो इनाम मिल सकता है, उसके मिलने की पूरी आशा थी। आशा के भय को जीत लिया। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे ईश्वर ने मुझे अपना मुख उज्जवल करने का यह अंतिम अवसर दिया है। मैं अब भी मानव-सम्मान का पात्र बन सकता हूँ। अब अपनी आत्मा की रक्षा कर सकता हूँ। उन्होंने आगे बढ़ कर भानुकुँवरि को प्रणाम किया और कॉँपते हुए स्वर से बोले—आपका! 
हजारों मनुष्यों के मुँह से एक गगनस्पर्शी ध्वनि निकली—सत्य की जय! 
जज ने खड़े होकर कहा—यह कानून का न्याय नहीं, ईश्वरीय न्याय है! इसे कथा न समझिएगा; यह सच्ची घटना है। भानुकुँवरि और सत्य नारायण अब भी जीवित हैं। मुंशी जी के इस नैतिक साहस पर लोग मुगध हो गए। 
मानवीय न्याय पर ईश्वरीय न्याय ने जो विलक्षण विजय पायी, उसकी चर्चा शहर भर में महीनों रही। भानुकुँवरि मुंशी जी के घर गयी, उन्हें मना कर लायीं। फिर अपना सारा कारोबार उन्हें सौंपा और कुछ दिनों उपरांत यह गॉँव उन्हीं के नाम हिब्बा कर दिया। मुंशी जी ने भी उसे अपने अधिकार में रखना उचित न समझा, कृष्णार्पण कर दिया। अब इसकी आमदनी दीन-दुखियों और विद्यार्थियों की सहायता में खर्च होती। 

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 12 May 2020 at 6:29 PM -

Aansuon Ki Holi Munshi-Premchand आँसुओं की होली - मुंशी प्रेम चंद

Hindi Kahani - हिंदी कहानी
Aansuon Ki Holi Munshi-Premchand
आँसुओं की होली - मुंशी प्रेम चंद

नामों को बिगाड़ने की प्रथा न-जाने कब चली और कहाँ शुरू हुई। इस संसारव्यापी रोग का पता लगाये तो ऐतिहासिक संसार में अवश्य ही अपना नाम छोड़ जाए। पंडित जी का नाम ... तो श्रीविलास था; पर मित्र लोग सिलबिल कहा करते थे। नामों का असर चरित्र पर कुछ न कुछ पड़ जाता है। बेचारे सिलबिल सचमुच ही सिलबिल थे। दफ्तर जा रहे हैं; मगर पाजामे का इजारबंद नीचे लटक रहा है। सिर पर फेल्ट-कैप है; पर लम्बी-सी चुटिया पीछे झाँक रही है, अचकन यों बहुत सुन्दर है। 
न जाने उन्हें त्योहारों से क्या चिढ़ थी। दिवाली गुजर जाती पर वह भलामानस कौड़ी हाथ में न लेता। और होली का दिन तो उनकी भीषण परीक्षा का दिन था। तीन दिन वह घर से बाहर न निकलते। घर पर भी काले कपड़े पहने बैठे रहते थे। यार लोग टोह में रहते थे कि कहीं बचा फँस जाएँ मगर घर में घुस कर तो फौजदारी नहीं की जाती। एक-आधा बार फँसे भी, मगर घिघिया-पुदिया कर बेदाग निकल गये। लेकिन अबकी समस्या बहुत कठिन हो गयी थी। शास्त्रों के अनुसार ह्म वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने के बाद उन्होंने विवाह किया था। ब्रह्मचर्य के परिपक्व होने में जो थोड़ी-बहुत कसर रही, वह तीन वर्ष के गौने की मुद्दत ने पूरी कर दी। 
यद्यपि स्त्री से कोई शंका न थी, तथापि वह औरतों को सिर चढ़ाने के हामी न थे। इस मामले में उन्हें अपना वही पुराना-धुराना ढंग पसंद था। बीबी को जब कस कर डॉट दिया, तो उसकी मजाल है कि रंग हाथ से छुए। विपत्ति यह थी कि ससुराल के लोग भी होली मनाने आनेवाले थे। पुरानी मसल है : 'बहन अंदर तो भाई सिकंदर'। इन सिकंदरों के आक्रमण से बचने का उन्हें कोई उपाय न सूझता था। मित्र लोग घर में न जा सकते थे; लेकिन सिकंदरों को कौन रोक सकता है ? 
स्त्री ने आँख फाड़ कर कहा -अरे भैया ! क्या सचमुच रंग न घर लाओगे ? यह कैसी होली है, बाबा ?
सिलबिल ने त्योरियाँ चढ़ा कर कहा -बस, मैंने एक बार कह दिया और बात दोहराना मुझे पसंद नहीं। घर में रंग नहीं आयेगा और न कोई छुएगा ? मुझे कपड़ों पर लाल छींटे देख कर मचली आने लगती है। हमारे घर में ऐसी ही होली होती है। 
स्त्री ने सिर झुका कर कहा -तो न लाना रंग-संग, मुझे रंग ले कर क्या करना है। जब तुम्हीं रंग न छुओगे, तो मैं कैसे छू सकती हूँ। 
सिलबिल ने प्रसन्न हो कर कहा -निस्संदेह यही साधवी स्त्री का धर्म है। 'लेकिन भैया तो आनेवाले हैं। वह क्यों मानेंगे ?' 'उनके लिए भी मैंने एक उपाय सोच लिया है। उसे सफल बनाना तुम्हारा काम है। मैं बीमार बन जाऊँगा। एक चादर ओढ़ कर लेट रहूँगा। तुम कहना इन्हें ज्वर आ गया। बस; चलो छुट्टी हुई।' 
स्त्री ने आँख नचा कर कहा -ऐ नौज; कैसी बातें मुँह से निकालते हो ! ज्वर जाए मुद्दई के घर, यहाँ आये तो मुँह झुलस दूँ निगोड़े का। 'तो फिर दूसरा उपाय ही क्या है ?' 'तुम ऊपरवाली छोटी कोठरी में छिप रहना, मैं कह दूँगी, उन्होंने जुलाब लिया है। बाहर निकलेंगे तो हवा लग जायगी।' पंडित जी खिल उठे , बस, बस, यही सबसे अच्छा। 1389 होली का दिन है। बाहर हाहाकार मचा हुआ है। पुराने जमाने में अबीर और गुलाल के सिवा और कोई रंग न खेला जाता था। अब नीले, हरे, काले, सभी रंगों का मेल हो गया है और इस संगठन से बचना आदमी के लिए तो संभव नहीं। हाँ, देवता बचें। सिलबिल के दोनों साले मुहल्ले भर के मर्दों, औरतों, बच्चों और बूढ़ों का निशाना बने हुए थे। बाहर के दीवानखाने के फर्श, दीवारें , यहाँ तक की तसवीरें भी रंग उठी थीं। घर में भी यही हाल था। मुहल्ले की ननदें भला कब मानने लगी थीं। परनाला तक रंगीन हो गया था। 
बड़े साले ने पूछा-क्यों री चम्पा, क्या सचमुच उनकी तबीयत अच्छी नहीं ? खाना खाने भी न आये ? 
चम्पा ने सिर झुका कर कहा -हाँ भैया, रात ही से पेट में कुछ दर्द होने लगा। डाक्टर ने हवा में निकलने को मना कर दिया है। 
जरा देर बाद छोटे साले ने कहा -क्यों जीजी जी, क्या भाई साहब नीचे नहीं आयेंगे ? ऐसी भी क्या बीमारी है ! कहो तो ऊपर जा कर देख आऊँ। 
चम्पा ने उसका हाथ पकड़ कर कहा -नहीं-नहीं, ऊपर मत जैयो ! वह रंग-वंग न खेलेंगे। डाक्टर ने हवा में निकलने को मना कर दिया है। दोनों भाई हाथ मल कर रह गये। 

सहसा छोटे भाई को एक बात सूझी , जीजा जी के कपड़ों के साथ क्यों न होली खेलें। वे तो नहीं बीमार हैं। बड़े भाई के मन में यह बात बैठ गयी। बहन बेचारी अब क्या करती ? सिकंदरों ने कुंजियाँ उसके हाथ से लीं और सिलबिल के सारे कपड़े निकाल-निकाल कर रंग डाले। रूमाल तक न छोड़ा। जब चम्पा ने उन कपड़ों को आँगन में अलगनी पर सूखने को डाल दिया तो ऐसा जान पड़ा, मानो किसी रंगरेज ने ब्याह के जोड़े रँगे हों। सिलबिल ऊपर बैठे-बैठे यह तमाशा देख रहे थे; पर जबान न खोलते थे। छाती पर साँप-सा लोट रहा था। सारे कपड़े खराब हो गये, दफ्तर जाने को भी कुछ न बचा। इन दुष्टों को मेरे कपड़ों से न जाने क्या बैर था। घर में नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बन रहे थे। मुहल्ले की एक ब्राह्मणी के साथ चम्पा भी जुटी हुई थी। दोनों भाई और कई अन्य सज्जन आँगन में भोजन करने बैठे, तो बड़े साले ने चम्पा से पूछा-कुछ उनके लिए भी खिचड़ी-विचड़ी बनायी है ? पूरियाँ तो बेचारे आज खा न सकेंगे ! 
चम्पा ने कहा -अभी तो नहीं बनायी, अब बना लूँगी। 'वाह री तेरी अक्ल ! अभी तक तुझे इतनी फिक्र नहीं कि वह बेचारे खायेंगे क्या। तू तो इतनी लापरवाह कभी न थी। जा निकाल ला जल्दी से चावल और मूँग की दाल।' लीजिए , खिचड़ी पकने लगी। इधर मित्रों ने भोजन करना शुरू किया। सिलबिल ऊपर बैठे अपनी किस्मत को रो रहे थे। उन्हें इस सारी विपत्ति का एक ही कारण मालूम होता था , विवाह ! चम्पा न आती, तो ये साले क्यों आते, कपड़े क्यों खराब होते, होली के दिन मूँग की खिचड़ी क्यों खाने को मिलती ? मगर अब पछताने से क्या होता है। जितनी देर में लोगों ने भोजन किया, उतनी देर में खिचड़ी तैयार हो गयी। बड़े साले ने खुद चम्पा को ऊपर भेजा कि खिचड़ी की थाली ऊपर दे आये। 
सिलबिल ने थाली की ओर कुपित नेत्रों से देख कर कहा -इसे मेरे सामने से हटा ले जाव। 
'क्या आज उपवास ही करोगे ?' 
'तुम्हारी यही इच्छा है, तो यही सही।'
'मैंने क्या किया। सबेरे से जुती हुई हूँ। भैया ने खुद खिचड़ी डलवायी और मुझे यहाँ भेजा।' 
'हाँ, वह तो मैं देख रहा हूँ कि मैं घर का स्वामी नहीं। सिकंदरों ने उस पर कब्जा जमा लिया है, मगर मैं यह नहीं मान सकता कि तुम चाहतीं तो और लोगों के पहले ही मेरे पास थाली न पहुँच जाती। मैं इसे पतिव्रत धर्म के विरुद्ध समझता हूँ, और क्या कहूँ !' 
'तुम तो देख रहे थे कि दोनों जने मेरे सिर पर सवार थे।' 
'अच्छी दिल्लगी है कि और लोग तो समोसे और खस्ते उड़ायें और मुझे मूँग की खिचड़ी दी जाए। वाह रे नसीब !' 
'तुम इसे दो-चार कौर खा लो, मुझे ज्यों ही अवसर मिलेगा, दूसरी थाली लाऊँगी।' 
'सारे कपड़े रँगवा डाले, दफ्तर कैसे जाऊँगा ? यह दिल्लगी मुझे जरा भी नहीं भाती। मैं इसे बदमाशी कहता हूँ। तुमने संदूक की कुंजी क्यों दे दी ? क्या मैं इतना पूछ सकता हूँ ?' 
'जबरदस्ती छीन ली। तुमने सुना नहीं ? करती क्या ?' 
'अच्छा, जो हुआ सो हुआ, यह थाली ले जाव। धर्म समझना तो दूसरी थाली लाना, नहीं तो आज व्रत ही सही।' एकाएक पैरों की आहट पा कर सिलबिल ने सामने देखा, तो दोनों साले आ रहे हैं। उन्हें देखते ही बिचारे ने मुँह बना लिया, चादर से शरीर ढँक लिया और कराहने लगे। 
बड़े साले ने कहा -कहिए, कैसी तबीयत है ? थोड़ी-सी खिचड़ी खा लीजिए। 
सिलबिल ने मुँह बना कर कहा -अभी तो कुछ खाने की इच्छा नहीं है। 
'नहीं, उपवास करना तो हानिकर होगा। खिचड़ी खा लीजिए।' 
बेचारे सिलबिल ने मन में इन दोनों शैतानों को खूब कोसा और विष की भाँति खिचड़ी कंठ के नीचे उतारी। आज होली के दिन खिचड़ी ही भाग्य में लिखी थी ! जब तक सारी खिचड़ी समाप्त न हो गयी, दोनों वहाँ डटे रहे, मानो जेल के अधिकारी किसी अनशन व्रतधारी कैदी को भोजन करा रहे हों। बेचारे को ठूँस-ठूँस कर खिचड़ी खानी पड़ी। पकवानों के लिए गुंजायश ही न रही। दस बजे रात को चम्पा उत्तम पदार्थों का थाल लिये पतिदेव के पास पहुँची ! महाशय मन ही मन झुँझला रहे थे। भाइयों के सामने मेरी परवाह कौन करता है। न जाने कहाँ से दोनों शैतान फट पड़े। दिन भर उपवास कराया और अभी तक भोजन का कहीं पता नहीं। बारे चम्पा को थाल लाते देख कर कुछ अग्नि शांत हुई। 
बोले - अब तो बहुत सबेरा है, एक-दो घंटे बाद क्यों न आयीं ? चम्पा ने सामने थाली रख कर कहा -तुम तो न हारी ही मानते हो, न जीती। अब आखिर ये दो मेहमान आये हुए हैं, इनकी सेवा-सत्कार न करूँ तो भी तो काम नहीं चलता। तुम्हीं को बुरा लगेगा। कौन रोज आयेंगे। 
'ईश्वर न करे कि रोज आयें, यहाँ तो एक ही दिन में बधिया बैठ गयी।' थाल की सुगंधमय, तरबतर चीजें देख कर सहसा पंडित जी के मुखारविंद पर मुस्कान की लाली दौड़ गयी। एक-एक चीज खाते थे और चम्पा को सराहते थे , सच कहता हूँ, चम्पा; मैंने ऐसी चीजें कभी नहीं खायी थीं। हलवाई साला क्या बनायेगा। जी चाहता है, कुछ इनाम दूँ। 
'तुम मुझे बना रहे हो। क्या करूँ जैसा बनाना आता है, बना लायी।' 
'नहीं जी, सच कह रहा हूँ। मेरी तो आत्मा तक तृप्त हो गयी। आज मुझे ज्ञात हुआ कि भोजन का सम्बन्ध उदर से इतना नहीं, जितना आत्मा से है। बतलाओ, क्या इनाम दूँ ?' 
'जो मागूँ, वह दोगे ?' 
'दूँगा , जनेऊ की कसम खा कर कहता हूँ !' 
'न दो तो मेरी बात जाए।' 
'कहता हूँ भाई, अब कैसे कहूँ। क्या लिखा-पढ़ी कर दूँ ?' 
'अच्छा, तो माँगती हूँ। मुझे अपने साथ होली खेलने दो। 
'पंडित जी का रंग उड़ गया। आँखें फाड़ कर बोले - होली खेलने दूँ ? मैं तो होली खेलता नहीं। कभी नहीं खेला। होली खेलना होता, तो घर में छिप कर क्यों बैठता। 
'और के साथ मत खेलो; लेकिन मेरे साथ तो खेलना ही पड़ेगा।' 
'यह मेरे नियम के विरुद्ध है। जिस चीज को अपने घर में उचित समझूँ उसे किस न्याय से घर के बाहर अनुचित समझूँ, सोचो। 
' चम्पा ने सिर नीचा करके कहा -घर में ऐसी कितनी बातें उचित समझते हो, जो घर के बाहर करना अनुचित ही नहीं पाप भी है। पंडित जी झेंपते हुए बोले - अच्छा भाई, तुम जीती, मैं हारा। अब मैं तुम से यही दान माँगता हूँ... 
'पहले मेरा पुरस्कार दे दो, पीछे मुझसे दान माँगना' , यह कहते हुए चम्पा ने लोटे का रंग उठा लिया और पंडित जी को सिर से पाँव तक नहला दिया। 
जब तक वह उठ कर भागें उसने मुट्ठी भर गुलाल ले कर सारे मुँह में पोत दिया। पंडित जी रोनी सूरत बना कर बोले- अभी और कसर बाकी हो, तो वह भी पूरी कर लो। मैं जानता था कि तुम मेरी आस्तीन का साँप बनोगी। अब और कुछ रंग बाकी नहीं रहा ? चम्पा ने पति के मुख की ओर देखा, तो उस पर मनोवेदना का गहरा रंग झलक रहा था। 
पछता कर बोली- क्या तुम सचमुच बुरा मान गये हो ? मैं तो समझती थी कि तुम केवल मुझे चिढ़ा रहे हो। 
श्रीविलास ने काँपते हुए स्वर में कहा- नहीं चम्पा, मुझे बुरा नहीं लगा। हाँ, तुमने मुझे उस कर्तव्य की याद दिला दी, जो मैं अपनी कायरता के कारण भुला बैठा था। वह सामने जो चित्र देख रही हो, मेरे परम मित्र मनहरनाथ का है, जो अब संसार में नहीं है। तुमसे क्या कहूँ, कितना सरस, कितना भावुक, कितना साहसी आदमी था ! देश की दशा देख-देख कर उसका खून जलता रहता था। ह्म भी कोई उम्र होती है, पर वह उसी उम्र में अपने जीवन का मार्ग निश्चित कर चुका था। सेवा करने का अवसर पा कर वह इस तरह उसे पकड़ता था, मानो सम्पत्ति हो। जन्म का विरागी था। वासना तो उसे छू ही न गयी थी। हमारे और साथी सैर-सपाटे करते थे; पर उसका मार्ग सबसे अलग था। सत्य के लिए प्राण देने को तैयार, कहीं अन्याय देखा और भवें तन गयीं, कहीं पत्रों में अत्याचार की खबर देखी और चेहरा तमतमा उठा। ऐसा तो मैंने आदमी ही नहीं देखा। ईश्वर ने अकाल ही बुला लिया, नहीं तो वह मनुष्यों में रत्न होता। किसी मुसीबत के मारे का उद्धार करने को अपने प्राण हथेली पर लिये फिरता था। स्त्री-जाति का इतना आदर और सम्मान कोई क्या करेगा ? स्त्री उसके लिए पूजा और भक्ति की वस्तु थी। पाँच वर्ष हुए, यही होली का दिन था। मैं भंग के नशे में चूर, रंग में सिर से पाँव तक नहाया हुआ, उसे गाना सुनने के लिए बुलाने गया, तो देखा कि वह कपड़े पहने कहीं जाने को तैयार है। 
पूछा-कहाँ जा रहे हो ? 
उसने मेरा हाथ पकड़ कर कहा -तुम अच्छे वक्त पर आ गये, नहीं तो मुझे जाना पड़ता। एक अनाथ बुढ़िया मर गयी है, कोई उसे कंधा देनेवाला नहीं मिलता। कोई किसी मित्र से मिलने गया हुआ है, कोई नशे में चूर पड़ा हुआ है, कोई मित्रों की दावत कर रहा है, कोई महफिल सजाये बैठा है। कोई लाश को उठानेवाला नहीं। ब्राह्मण-क्षत्री उस चमारिन की लाश कैसे छुएँगे, उनका तो धर्म भ्रष्ट होता है, कोई तैयार नहीं होता ! बड़ी मुश्किल से दो कहार मिले हैं। एक मैं हूँ, चौथे आदमी की कमी थी, सो ईश्वर ने तुम्हें भेज दिया। चलो, चलें। हाय ! अगर मैं जानता कि यह प्यारे मनहर का आदेश है, तो आज मेरी आत्मा को इतनी ग्लानि न होती। मेरे घर कई मित्र आये हुए थे। गाना हो रहा था। उस वक्त लाश उठा कर नदी जाना मुझे अप्रिय लगा। 
बोला - इस वक्त तो भाई, मैं नहीं जा सकूँगा। घर पर मेहमान बैठे हुए हैं। मैं तुम्हें बुलाने आया था। 
मनहर ने मेरी ओर तिरस्कार के नेत्रों से देख कर कहा -अच्छी बात है, तुम जाओ; मैं और कोई साथी खोज लूँगा। मगर तुमसे मुझे ऐसी आशा नहीं थी। तुमने भी वही कहा, जो तुमसे पहले औरों ने कहा था। कोई नयी बात नहीं थी। अगर हम लोग अपने कर्तव्य को भूल न गये होते, तो आज यह दशा ही क्यों होती ? ऐसी होली को धिक्कार है ! त्योहार, तमाशा देखने, अच्छी-अच्छी चीजें खाने और अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने का नाम नहीं है। यह व्रत है, तप है, अपने भाइयों से प्रेम और सहानुभूति करना ही त्योहार का खास मतलब है और कपड़े लाल करने के पहले खून को लाल कर लो। सफेद खून पर यह लाली शोभा नहीं देती। यह कह कर वह चला गया। मुझे उस वक्त यह फटकारें बहुत बुरी मालूम हुईं। अगर मुझमें वह सेवा-भाव न था, तो उसे मुझे यों धिक्कारने का कोई अधिकार न था। घर चला आया; पर वे बातें बराबर मेरे कानों में गूँजती रहीं। होली का सारा मजा बिगड़ गया। एक महीने तक हम दोनों की मुलाकात न हुई। कालेज इम्तहान की तैयारी के लिए बंद हो गया था। इसलिए कालेज में भी भेंट न होती थी। मुझे कुछ खबर नहीं, वह कब और कैसे बीमार पड़ा, कब अपने घर गया। सहसा एक दिन मुझे उसका एक पत्र मिला। हाय ! उस पत्र को पढ़कर आज भी छाती फटने लगती है। श्रीविलास एक क्षण तक गला रुक जाने के कारण बोल न सके। 
फिर बोले - किसी दिन तुम्हें फिर दिखाऊँगा। लिखा था, मुझसे आखिरी बार मिल जा, अब शायद इस जीवन में भेंट न हो। खत मेरे हाथ से छूट कर गिर पड़ा। उसका घर मेरठ के जिले में था। दूसरी गाड़ी जाने में आधा घंटे की कसर थी। तुरंत चल पड़ा। मगर उसके दर्शन न बदे थे। मेरे पहुँचने के पहले ही वह सिधार चुका था। चम्पा, उसके बाद मैंने होली नहीं खेली, होली ही नहीं, और सभी त्योहार छोड़ दिये। ईश्वर ने शायद मुझे क्रिया की शक्ति नहीं दी। अब बहुत चाहता हूँ कि कोई मुझसे सेवा का काम ले। खुद आगे नहीं बढ़ सकता; लेकिन पीछे चलने को तैयार हूँ। पर मुझसे कोई काम लेनेवाला भी नहीं; लेकिन आज वह रंग डाल कर तुमने मुझे उस धिक्कार की याद दिला दी। ईश्वर मुझे ऐसी शक्ति दे कि मैं मन में ही नहीं, कर्म में भी मनहर बनूँ। यह कहते हुए श्रीविलास ने तश्तरी से गुलाल निकाला और उसे चित्र पर छिड़क कर प्रणाम किया। 

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 10 May 2020 at 4:50 PM -

मृतक भोज - मुंशी प्रेम चंद

Hindi Kahani- हिंदी कहानी
Mritak Bhoj - Munshi Premchand
मृतक भोज - मुंशी प्रेम चंद

सेठ रामनाथ ने रोग-शय्या पर पड़े-पड़े निराशापूर्ण दृष्टि से अपनी स्त्री सुशीला की ओर देखकर कहा, 'मैं बड़ा अभागा हूँ, शीला। मेरे साथ तुम्हें सदैव ही दुख भोगना पड़ा। जब घर में कुछ ... न था, तो रात-दिन गृहस्थी के धन्धों और बच्चों के लिए मरती थीं। जब जरा कुछ सँभला और तुम्हारे आराम करने के दिन आये, तो यों छोड़े चला जा रहा हूँ। आज तक मुझे आशा थी, पर आज वह आशा टूट गयी। देखो शीला, रोओ मत। संसार में सभी मरते हैं, कोई दो साल आगे, कोई दो साल पीछे। अब गृहस्थी का भार तुम्हारे ऊपर है। मैंने रुपये नहीं छोड़े; लेकिन जो कुछ है, उससे तुम्हारा जीवन किसी तरह कट जायगा ... यह राजा क्यों रो रहा है ? सुशीला ने आँसू पोंछकर कहा, ज़िद्दी हो गया है और क्या। आज सबेरे से रट लगाये हुए है कि मैं मोटर लूँगा। 50 रु. से कम में आयेगी मोटर ? सेठजी को इधर कुछ दिनों से दोनों बालकों पर बहुत स्नेह हो गया था। बोले तो मँगा दो न एक। बेचारा कब से रो रहा है, क्या-क्या अरमान दिल में थे। सब धूल में मिल गये। रानी के लिए विलायती गुड़िया भी मँगा दो। दूसरों के खिलौने देखकर तरसती रहती है। जिस धन को प्राणों से भी प्रिय समझा, वह अन्त को डाक्टरों ने खाया। बच्चे मुझे क्या याद करेंगे कि बाप था। अभागे बाप ने तो धन को लड़के-लड़की से प्रिय समझा। कभी पैसे की चीज भी लाकर नहीं दी। ' 
अन्तिम समय जब संसार की असारता कठोर सत्य बनकर आँखों के सामने खड़ी हो जाती है, तो जो कुछ न किया, उसका खेद और जो कुछ किया, उस पर पश्चात्ताप, मन को उदार और निष्कपट बना देता है। सुशीला ने राजा को बुलाया और उसे छाती से लगाकर रोने लगी। वह मातृस्नेह, जो पति की कृपणता से भीतर-ही-भीतर तड़पकर रह जाता था, इस समय जैसे खौल उठा। लेकिन मोटर के लिए रुपये कहाँ थे ? सेठजी ने पूछा, 'मोटर लोगे बेटा; अपनी अम्माँ से रुपये लेकर भैया के साथ चले जाओ। खूब अच्छी मोटर लाना। ' 
राजा ने माता के आँसू और पिता का यह स्नेह देखा, तो उसका बालहठ जैसे पिघल गया। बोला, 'अभी नहीं लूँगा। ' 
सेठजी ने पूछा, 'क्यों ? ' 
'जब आप अच्छे हो जायँगे तब लूँगा।' सेठजी फूट-फूटकर रोने लगे। 
तीसरे दिन सेठ रामनाथ का देहान्त हो गया। धनी के जीने से दु:ख बहुतों को होता है, सुख थोड़ों को। उनके मरने से दु:ख थोड़ों को होता है, सुख बहुतों को। महाब्राह्मणों की मण्डली अलग सुखी है, पण्डितजी अलग खुश हैं, और शायद बिरादरी के लोग भी प्रसन्न हैं; इसलिए कि एक बराबर का आदमी कम हुआ। दिल से एक काँटा दूर हुआ। और पट्टीदारों का तो पूछना ही क्या। अब वह पुरानी कसर निकालेंगे। ह्रदय को शीतल करने का ऐसा अवसर बहुत दिनों के बाद मिला है। आज पाँचवाँ दिन है। वह विशाल भवन सूना पड़ा है। लड़के न रोते हैं, न हँसते हैं। मन मारे माँ के पास बैठे हैं और विधवा भविष्य की अपार चिन्ताओं के भार से दबी हुई निर्जीव-सी पड़ी है। घर में जो रुपये बच रहे थे, वे दाह-क्रिया की भेंट हो गये और अभी सारे संस्कार बाकी पड़े हैं। भगवान्, कैसे बेड़ा पार लगेगा। 
किसी ने द्वार पर आवाज दी। महरा ने आकर सेठ धनीराम के आने की सूचना दी। दोनों बालक बाहर दौड़े। सुशीला का मन भी एक क्षण के लिए हरा हो गया। सेठ धनीराम बिरादरी के सरपंच थे। अबला का क्षुब्ध 
ह्रदय सेठजी की इस कृपा से पुलकित हो उठा। आखिर बिरादरी के मुखिया हैं। ये लोग अनाथों की खोज-खबर न लें तो कौन ले। धन्य हैं ये पुण्यात्मा लोग जो मुसीबत में दीनों की रक्षा करते हैं। यह सोचती हुई सुशीला घूँघट निकाले बरोठे में आकर खड़ी हो गयी। देखा तो धनीरामजी के अतिरिक्त और भी कई सज्जन खड़े हैं। 
धनीराम बोले 'बहूजी, भाई रामनाथ की अकाल-मृत्यु से हम लोगों को जितना दु:ख हुआ है, वह हमारा दिल ही जानता है। अभी उनकी उम्र ही क्या थी; लेकिन भगवान् की इच्छा। अब तो हमारा यही धर्म है कि ईश्वर पर भरोसा रखें और आगे के लिए कोई राह निकालें। काम ऐसा करना चाहिए कि घर की आबरू भी बनी रहे और भाईजी की आत्मा संतुष्ट भी हो। ' कुबेरदास ने सुशीला को कनखियों से देखते हुए कहा, 'मर्यादा बड़ी चीज है। उसकी रक्षा करना हमारा धर्म है। लेकिन कमली के बाहर पाँव निकालना भी तो उचित नहीं। कितने रुपये हैं तेरे पास, बहू ? क्या कहा, कुछ नहीं ? ' 
सुशीला -'घर में रुपये कहाँ हैं, सेठजी। जो थोड़े-बहुत थे, वह बीमारी में उठ गये। ' 
धनीराम -'तो यह नयी समस्या खड़ी हुई। ऐसी दशा में हमें क्या करना चाहिए, कुबेरदासजी ? ' 
कुबेरदास -'ज़ैसे हो, भोज तो करना ही पड़ेगा। हाँ, अपनी सामर्थ्य देखकर काम करना चाहिए। मैं कर्ज लेने को न कहूँगा। हाँ, घर में जितने रुपयों का प्रबन्ध हो सके, उसमें हमें कोई कसर न छोड़नी चाहिए। मृत-जीव के 
साथ भी तो हमारा कुछ कर्तव्य है। अब तो वह फिर कभी न आयेगा, उससे सदैव के लिए नाता टूट रहा है। इसलिए सबकुछ हैसियत के मुताबिक होना चाहिए। ब्राह्मणों को तो भोज देना ही पड़ेगा जिससे कि मर्यादा का निर्वाह हो ! ' 
धनीराम -'तो क्या तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, बहूजी ? दो-चार हजार भी नहीं ! ' 
सुशीला --'मैं आपसे सत्य कहती हूँ, मेरे पास कुछ नहीं है। ऐसे समय झूठ बोलूँगी। ' 
धनीराम ने कुबेरदास की ओर अर्ध-अविश्वास से देखकर कहा, 'तब तो यह मकान बेचना पड़ेगा। ' 
कुबेरदास -'इसके सिवा और क्या हो सकता है। नाक काटना तो अच्छा नहीं। रामनाथ का कितना नाम था, बिरादरी के स्तंभ थे। यही इस समय एक उपाय है। 10 हजार रु. मेरे आते हैं। सूद-बट्टा लगाकर कोई 15 हजार रु. मेरे हो जायँगे। बाकी भोज में खर्च हो जायेगा। अगर कुछ बच रहा, तो बाल-बच्चों के काम आ जायगा। '
धनीराम -'आपके यहाँ कितने पर बंधक रखा था ? ' 
कुबेरदास-' 10 हजार रुपये पर। रुपये सैकड़े सूद। ' 
धनीराम -'मैंने तो कुछ कम सुना है। ' 
कुबेरदास -'उसका तो रेहननामा रखा है। जबानी बातचीत थोड़े ही है। मैं दो-चार हजार के लिए झूठ नहीं बोलूँगा। ' 
धनीराम-' नहीं-नहीं, यह मैं कब कहता हूँ। तो तूने सुन लिया, बाई ! पंचों की सलाह है कि मकान बेच दिया जाय। ' 
सुशीला का छोटा भाई संतलाल भी इसी समय आ पहुँचा। यह अन्तिम वाक्य उसके कान में पड़ गया। बोल उठा, 'क़िसलिए मकान बेच दिया जाय ? बिरादरी के भोज के लिए ? बिरादरी तो खा-पीकर राह लेगी, इन अनाथों की रक्षा कैसे होगी ? इनके भविष्य के लिए भी तो कुछ सोचना चाहिए। ' 
धनीराम ने कोप-भरी आँखों से देखकर कहा, 'आपको इन मामलों में टाँग अड़ाने का कोई अधिकार नहीं। केवल भविष्य की चिन्ता करने से काम नहीं चलता। मृतक का पीछा भी किसी तरह सुधरना ही पड़ता है। आपका क्या बिगड़ेगा। हँसी तो हमारी होगी। संसार में मर्यादा से प्रिय कोई वस्तु नहीं ! मर्यादा के लिए प्राण तक दे देते हैं। जब मर्यादा ही न रही, तो क्या रहा। अगर हमारी सलाह पूछोगे, तो हम यही कहेंगे। आगे बाई का अखतियार है, जैसा चाहे करे; पर हमसे कोई सरोकार न रहेगा। चलिए कुबेरदासजी, चलें। ' 
सुशीला ने भयभीत होकर कहा, 'भैया की बातों का विचार न कीजिए,इनकी तो यह आदत है। मैंने तो आपकी बात नहीं टाली; आप मेरे बड़े हैं। घर का हाल आपको मालूम है। मैं अपने स्वामी की आत्मा को दुखी करना नहीं चाहती, लेकिन जब उनके बच्चे ठोकरें खायेंगे, तो क्या उनकी आत्मा दुखी न होगी ? बेटी का ब्याह करना ही है। लड़के को पढ़ाना-लिखाना है ही। ब्राह्मणों को खिला दीजिए; लेकिन बिरादरी करने की मुझमें सामर्थ नहीं है। ' 
दोनों महानुभावों को जैसे थप्पड़ लगी इतना बड़ा अधर्म। भला ऐसी बात भी जबान से निकाली जाती है। पंच लोग अपने मुँह में कालिख न लगने देंगे। दुनिया विधवा को न हँसेगी, हँसी होगी पंचों की। यह जग-हँसाई वे कैसे सह सकते हैं। ऐसे घर के द्वार पर झाँकना भी पाप है। सुशीला रोकर बोली, 'मैं अनाथ हूँ, नादान हूँ, मुझ पर क्रोध न कीजिए। आप लोग ही मुझे छोड़ देंगे, तो मेरा कैसे निर्वाह होगा। ' 
इतने में दो महाशय और आ बिराजे। एक बहुत मोटे और दूसरे बहुत दुबले। नाम भी गुणों के अनुसार ही भीमचन्द और दुर्बलदास। धनीराम ने संक्षेप में यह परिस्थिति उन्हें समझा दी। दुर्बलदास ने सह्रदयता से कहा, 'तो ऐसा क्यों नहीं करते कि हम लोग मिलकर कुछ रुपये दे दें। जब इसका लड़का सयाना हो जायगा, तो रुपये मिल ही जायेंगे। अगर न भी मिले तो एक मित्र के लिए कुछ बल खा जाना कोई बड़ी बात नहीं। ' 
संतलाल ने प्रसन्न होकर कहा, 'इतनी दया आप करेंगे, तो क्या पूछना। ' 
कुबेरदास त्योरी चढ़ाकर बोले, 'तुम तो बेसिर-पैर की बातें करने लगे दुर्बलदासजी ! इस बखत के बाजार में किसके पास फालतू रुपये रखे हुए हैं। ' 
भीमचन्द-' सो तो ठीक है, बाजार की ऐसी मंदी तो कभी देखी नहीं;पर निबाह तो करना चाहिए। ' 
कुबेरदास अकड़ गये। वह सुशीला के मकान पर दाँत लगाये हुए थे। ऐसी बातों से उनके स्वार्थ में बाधा पड़ती थी। वह अपने रुपये अब वसूल करके छोड़ेंगे। भीमचन्द ने उन्हें किसी तरह सचेत किया; 'लेकिन भोज तो देना ही पड़ेगा। उस कर्तव्य का पालन न करना समाज की नाक काटना है। ' 
सुशीला ने दुर्बलदास में सह्रदयता का आभास देखा। उनकी ओर दीन नेत्रों से देखकर बोली, 'मैं आप लोगों से बाहर थोड़े ही हूँ। आप लोग मालिक हैं, जैसा उचित समझें वैसा करें। ' 
दुर्बलदास -'तेरे पास कुछ थोड़े-बहुत गहने तो होंगे, बाई ? ' 
'हाँ गहने हैं। आधे तो बीमारी में बिक गये, आधे बचे हैं।' सुशीला ने सारे गहने लाकर पंचों के सामने रख दिये; 'पर यह तो मुश्किल से तीन हजार में उठेंगे।' दुर्बलदास ने पोटली को हाथ में तौलकर कहा, 'तीन हजार को कैसे जायँगे। मैं साढ़े तीन हजार दिला दूँगा। ' 
भीमचन्द ने फिर पोटली को तौलकर कहा, 'मेरी बोली, चार हजार की है। ' 
कुबेरदास को मकान की बिक्री का प्रश्न छेड़ने का अवसर फिर मिला, 'चार हजार ही में क्या हुआ जाता है। बिरादरी का भोज है या दोष मिटाना है। बिरादरी में कम-से-कम दस हजार का खरचा है। मकान तो निकालना ही पड़ेगा। ' 
सन्तलाल ने ओंठ चबाकर कहा, 'मैं कहता हूँ, आप लोग क्या इतने निर्दयी हैं ! आप लोगों को अनाथ बालकों पर भी दया नहीं आती ! क्या उन्हें रास्ते का भिखारी बनाकर छोड़ेंगे ? ' लेकिन सन्तलाल की फरियाद पर किसी ने ध्यान न दिया। मकान की बातचीत अब नहीं टाली जा सकती थी। बाजार मंदा है। 30 हजार से बेसी नहीं मिल सकते, 15 हजार तो कुबेरदास के हैं। पाँच हजार बचेंगे। चार हजार गहनों से आ जायँगे। इस तरह 9 हजार में बड़ी किफायत से ब्रह्मभोज और बिरादरी-भोज दोनों निपटा दिये जायँगे। सुशीला ने दोनों बालकों को सामने करके करबद्ध होकर कहा, 'पंचो, मेरे बच्चों का मुँह देखिए। मेरे घर में जो कुछ है; वह आप सब ले लीजिए; लेकिन मकान छोड़ दीजिए मुझे कहीं ठिकाना न मिलेगा। मैं आपके पैरों पड़ती हूँ मकान इस समय न बेचें। ' 
इस मूर्खता का क्या जवाब दिया जाय। पंच लोग तो खुद चाहते थे कि मकान न बेचना पड़े। उन्हें अनाथों से कोई दुश्मनी नहीं थी; किन्तु बिरादरी का भोज और किस तरह किया जाय। अगर विधवा कम-से-कम पाँच हजार रु. का जोगाड़ और कर दे, तो मकान बच सकता है, पर वह ऐसा नहीं कर सकती, तो मकान बेचने के सिवा और कोई उपाय नहीं। 
कुबेर ने अन्त में कहा, 'देख बाई, बाजार की दशा इस समय खराब है। रुपये किसी से उधार नहीं मिल सकते। बाल-बच्चों के भाग में लिखा होगा, तो भगवान् और किसी हीले से देगा। हीले रोजी, बहाने मौत। बाल-बच्चों की चिंता मत कर। भगवान् जिसको जन्म देते हैं, उसकी जीविका की जुगत पहले ही से कर देते हैं। हम तुझे समझाकर हार गये। अगर तू अब भी अपना हठ न छोड़ेगी, तो हम बात भी न पूछेंगे। फिर यहाँ तेरा रहना मुश्किल हो जायगा। शहरवाले तेरे पीछे पड़ जायँगे। ' 
विधवा सुशीला अब और क्या करती। पंचों से लड़कर वह कैसे रह सकती थी। पानी में रहकर मगर से कौन बैर कर सकता है। घर में जाने के लिए उठी पर वहीं मूर्छित होकर गिर पड़ी। अभी तक आशा सँभाले हुई थी। बच्चों के पालन-पोषण में वह अपना वैधव्य भूल सकती थी; पर अब तो अंधकार था, चारों ओर। सेठ रामनाथ के मित्रों का उनके घर पर पूरा अधिकार था। मित्रों का अधिकार न हो तो किसका हो। स्त्री कौन होती है। जब वह इतनी मोटी-सी बात नहीं समझती कि बिरादरी करना और धूम-धाम से दिल खोलकर करना लाजिमी बात है, तो उससे और कुछ कहना व्यर्थ है। गहने कौन खरीदे ? भीमचन्द चार हजार दाम लगा चुके थे, लेकिन अब उन्हें मालूम हुआ कि उनसे भूल हुई थी। दुर्बलदास ने तीन हजार लगाये थे। इसलिए सौदा इन्हीं के हाथ हुआ। इस बात पर दुर्बलदास और भीमचन्द में तकरार भी हो गयी; लेकिन भीमचन्द को मुँह की खानी पड़ी। न्याय दुर्बल के पक्ष में था। धनीराम ने कटाक्ष किया 'देखो दुर्बलदास, माल तो ले जाते हो; पर 
तीन हजार से बेसी का है। मैं नीति की हत्या न होने दूँगा।' 
कुबेरदास बोले, 'अजी, तो घर में ही तो है, कहीं बाहर तो नहीं गया। एक दिन मित्रों की दावत हो जायगी ! ' 
इस पर चारों महानुभाव हँसे। इस काम से फुरसत पाकर अब मकान का प्रश्न उठा। कुबेरदास 30 हजार देने पर तैयार थे; पर कानूनी कार्रवाई किये बिना संदेह की गुंजाइश थी। यह गुंजाइश क्योंकर रखी जाय। एक दलाल बुलाया गया। नाटा-सा आदमी था, पोपला मुँह, कोई 50 की अवस्था। नाम था चोखेलाल। 
कुबेरदास ने कहा, 'चोखेलालजी से हमारी तीस साल की दोस्ती है। आदमी क्या रत्न हैं।' 
भीमचन्द-'देखो चोखेलाल, हमें यह मकान बेचना है। इसके लिए कोई अच्छा ग्राहक लाओ। तुम्हारी दलाली पक्की।' 
कुबेरदास-' बाजार का हाल अच्छा नहीं है; लेकिन फिर भी हमें यह तो देखना पड़ेगा कि रामनाथ के बाल-बच्चों को टोटा न हो। (कान में) तीस से आगे न जाना।' 
भीमचन्द -'देखिए कुबेरदास, यह अच्छी बात नहीं है।' 
कुबेरदास -'तो मैं क्या कर रहा हूँ। मैं तो यही कह रहा था कि अच्छे दाम लगवाना।' 
चोखेलाल -'आप लोगों को मुझसे यह कहने की जरूरत नहीं। मैं अपना धर्म समझता हूँ। रामनाथजी मेरे भी मित्र थे। मुझे यह भी मालूम है कि इस मकान के बनवाने में एक लाख से कम एक पाई भी नहीं लगे, लेकिन बाजार का हाल क्या आप लोगों से छिपा है। इस समय इसके 25 हजार से बेसी नहीं मिल सकते। सुभीते से तो कोई ग्राहक से दस-पाँच हजार और मिल जायँगे; लेकिन इस समय तो कोई ग्राहक भी मुश्किल से मिलेंगे। लो दही और लाव दही की बात है।' 
धनीराम -'25 हजार रु. तो बहुत कम है भाई, और न सही 30 हजार रु. तो करा दो।' 
चोखेलाल -'30 क्या मैं तो 40 करा दूँ, पर कोई ग्राहक तो मिले। आप लोग कहते हैं तो मैं 30 हजार रु. की बातचीत करूँगा।' 
धनीराम -'ज़ब तीस हजार में ही देना है तो कुबेरदासजी ही क्यों न ले लें। इतना सस्ता माल दूसरों को क्यों दिया जाय।' 
कुबेरदास -'आप सब लोगों की राय हो, तो ऐसा ही कर लिया जाय। धनीराम ने 'हाँ, हाँ' कहकर हामी भरी। भीमचन्द मन में ऐंठकर रह गये। यह सौदा भी पक्का हो गया। आज ही वकील ने बैनामा लिखा। तुरन्त 
रजिस्ट्री भी हो गयी। सुशीला के सामने बैनामा लाया गया, तो उसने एक ठण्डी साँस ली और सजल नेत्रों से उस पर हस्ताक्षर कर दिये। अब उसे उसके सिवा और कहीं शरण नहीं है। बेवफा मित्र की भाँति यह घर भी सुख के दिनों में साथ देकर दु:ख के दिनों में उसका साथ छोड़ रहा है। 
पंच लोग सुशीला के आँगन में बैठे बिरादरी के रुक्के लिख रहे हैं और अनाथ विधवा ऊपर झरोखे पर बैठी भाग्य को रो रही है। इधर रुक्का तैयार हुआ, उधर विधवा की आँखों से आँसू की बूँदें निकलकर रुक्के पर गिर पड़ीं। धनीराम ने ऊपर देखकर कहा, 'पानी का छींटा कहाँ से आया ? '
सन्तलाल -'बाई बैठी रो रही है। उसने रुक्के पर अपने रक्त के आँसुओं की मुहर लगा दी है।' 
धनीराम (ऊँचे स्वर में) 'अरे, तो तू रो क्यों रही है, बाई ? यह रोने का समय नहीं है, तुझे तो प्रसन्न होना चाहिए कि पंच लोग तेरे घर में आज यह शुभ-कार्य करने के लिए जमा हैं। जिस पति के साथ तूने इतने दिनों भोग-विलास किया, उसी का पीछा सुधरने में तू दु:ख मानती है ? ' 
बिरादरी में रुक्का फिरा। इधर तीन-चार दिन पंचों ने भोज की तैयारियों में बिताये। घी धनीरामजी की आढ़त से आया। मैदा, चीनी की आढ़त भी उन्हीं की थी। पाँचवें दिन प्रात:काल ब्रह्म-भोज हुआ। संध्या-समय बिरादरी का ज्योनार। सुशीला के द्वार पर बग्घियों और मोटरों की कतारें खड़ी थीं। भीतर मेहमानों की पंगतें थीं। आँगन, बैठक, दालान, बरोठा, ऊपर की छत नीचे-ऊपर मेहमानों से भरा हुआ था। लोग भोजन करते थे और पंचों को सराहते थे। खर्च तो सभी करते हैं; पर इन्तजाम का सलीका चाहिए। ऐसे स्वादिष्ट पदार्थ बहुत कम खाने में आते हैं।
'सेठ चम्पाराम के भोज के बाद ऐसा भोज रामनाथजी का ही हुआ है।' 
'अमृतियाँ कैसी कुरकुरी हैं !' 
'रसगुल्ले मेवों से भरे हैं।' 
'सारा श्रेय पंचों को है।' 
धनीराम ने नम्रता से कहा, 'आप भाइयों की दया है जो ऐसा कहते हो। रामनाथ से भाई-चारे का व्यवहार था। हम न करते तो कौन करता। चार दिन से सोना नसीब नहीं हुआ।' 
'आप धन्य हैं ! मित्र हों तो ऐसे हों।' 
'क्या बात है ! आपने रामनाथजी का नाम रख लिया। बिरादरी यही खाना-खिलाना देखती है। रोकड़ देखने नहीं जाती।' 
मेहमान लोग बखान-बखान कर माल उड़ा रहे थे और उधर कोठरी में बैठी हुई सुशीला सोच रही थी संसार में ऐसे स्वार्थी लोग हैं ! सारा संसार स्वार्थमय हो गया है ! सब पेटों पर हाथ फेर-फेर कर भोजन कर रहे हैं। 
कोई इतना भी नहीं पूछता कि अनाथों के लिए कुछ बचा या नहीं। एक महीना गुजर गया। सुशीला को एक-एक पैसे की तंगी हो रही थी। नकद था ही नहीं, गहने निकल ही गये थे। अब थोड़े से बरतन बच रहे थे। उधर छोटे-छोटे बहुत-से बिल चुकाने थे। कुछ रुपये डाक्टर के, कुछ दरजी के, कुछ बनियों के। सुशीला को यह रकमें घर का बचा-खुचा सामान बेचकर चुकानी पड़ीं। और महीना पूरा होते-होते उसके पास कुछ न बचा। बेचारा सन्तलाल एक दूकान पर मुनीम था। कभी-कभी वह आकर एक-आधा रुपये दे देता। इधर खर्च का हाथ फैला हुआ था। लड़के अवस्था को समझते थे। माँ को छेड़ते न थे, पर मकान के सामने से कोई खोंचेवाला निकल जाता और वे दूसरे लड़कों को फल या मिठाई खाते देखते, तो उनके मुँह में पानी भरकर आँखों में भर जाता था। ऐसी ललचायी हुई आँखों से ताकते थे कि दया आती। वही बच्चे, जो थोड़े दिन पहले मेवे-मिठाई की ओर ताकते न थे अब एक-एक पैसे की चीज को तरसते थे। वही सज्जन, जिन्होंने बिरादरी का भोज करवाया था, अब घर के सामने से निकल जाते; पर कोई झाँकता न था। 
शाम हो गयी थी। सुशीला चूल्हा जलाये रोटियाँ सेंक रही थी और दोनों बालक चूल्हे के पास रोटियों को क्षुधित नेत्रों से देख रहे थे। चूल्हे के दूसरे ऐले पर दाल थी। दाल के पकने का इन्तजार था। लड़की ग्यारह साल की थी, लड़का आठ साल का। मोहन अधीर होकर बोला, अम्माँ, 'मुझे रूखी रोटियाँ ही दे दो। बड़ी भूख लगी है।' सुशीला -'अभी दाल कच्ची है भैया।' 
रेवती -'मेरे पास एक पैसा है। मैं उसका दही लिये आती हूँ।' 
सुशीला --'तूने पैसा कहाँ पाया ? ' 
रेवती -'मुझे कल अपनी गुड़ियों की पेटारी में मिल गया था।' 
सुशीला -'लेकिन जल्द आइयो।' 
रेवती दौड़कर बाहर गयी और थोड़ी देर में एक पत्ते पर जरा-सा दही ले आयी। माँ ने रोटी-सेंककर दे दी। दही से खाने लगा। आम लड़कों की भाँति वह भी स्वार्थी था। बहन से पूछा भी नहीं। सुशीला ने कड़ी आँखों से देखकर कहा, 'बहन को भी दे दे। अकेला ही खा जायगा।' 
मोहन लज्जित हो गया। उसकी आँखें डबडबा आयीं। रेवती बोली, 'नहीं अम्माँ, कितना मिला ही है। तुम खाओ मोहन, तुम्हें जल्दी नींद आ जाती है। मैं तो दाल पक जायगी तो खाऊँगी।' 
उसी वक्त दो आदमियों ने आवाज दी। रेवती ने बाहर जाकर पूछा, यह सेठ कुबेरदास के आदमी थे। मकान खाली कराने आये थे। क्रोध से सुशीला की आँखें लाल हो गयीं। बरोठे में आकर कहा, 'अभी मेरे पति को पीछे हुए महीना भी नहीं हुआ, मकान खाली कराने की धुन सवार हो गयी। मेरा 50 हजार का घर 30 हजार में ले लिया, पाँच हजार सूद के उड़ाये, फिर भी तस्कीन नहीं होती। कह दो, मैं अभी खाली नहीं करूँगी।' 
मुनीम ने नम्रता से कहा, 'बाई जी, मेरा क्या अख्तियार है। मैं तो केवल संदेसिया हूँ। जब चीज दूसरे की हो गयी, तो आपको छोड़नी ही पड़ेगी। झंझट करने से क्या मतलब।' 
सुशीला भी समझ गयी, 'ठीक ही कहता है। गाय हत्या के बल कै दिन खेत चरेगी। नर्म होकर बोली, 'सेठजी से कहो, मुझे दस-पाँच दिन की मुहलत दें। लेकिन नहीं, कुछ मत कहो। क्यों दस-पाँच दिन के लिए किसी का एहसान लूँ। मेरे भाग्य में इस घर में रहना लिखा होता, तो निकलता ही क्यों।' 
मुनीम ने पूछा, 'तो कल सबेरे तक खाली हो जायगा ? ' 
सुशीला-'हाँ, हाँ, कहती तो हूँ; लेकिन सबेरे तक क्यों, मैं अभी खाली किये देती हूँ। मेरे पास कौन-सा बड़ा सामान ही है। तुम्हारे सेठजी का रात-भर का किराया मारा जायगा। जाकर ताला-वाला लाओ या लाये हो ?' 
मुनीम -'ऐसी क्या जल्दी है, बाई। कल सावधानी से खाली कर दीजिएगा।' 
सुशीला -'क़ल का झगड़ा क्या रखूँ। मुनीमजी, आप जाइए, ताला लाकर डाल दीजिए। यह कहती हुई सुशीला अन्दर गयी, बच्चों को भोजन कराया, एक रोटी आप किसी तरह निगली, बरतन धोये, फिर एक एक्का मँगवाकर उस पर अपना मुख्तसर सामान लादा और भारी ह्रदय से उस घर से हमेशा के लिए विदा हो गयी। 
जिस वक्त यह घर बनवाया था, मन में कितनी उमंगें थीं। इसके प्रवेश में कई हजार ब्राह्मणों का भोज हुआ था। सुशीला को इतनी दौड़-धूप करनी पड़ी थी कि वह महीने भर बीमार रही थी। इसी घर में उसके दो लड़के मरे थे। यहीं उसका पति मरा था। मरनेवालों की स्मृतियों ने उसकी एक-एक ईंट को पवित्र कर दिया था। एक-एक पत्थर मानो उसके हर्ष से खुशी और उसके शोक से दुखी होता था। वह घर आज उससे छूटा जा रहा है। 
उसने रात एक पड़ोसी के घर में काटी और दूसरे दिन 10 रु. महीने पर एक गली में दूसरा मकान ले लिया। 
इस नये कमरे में इन अनाथों ने तीन महीने जिस कष्ट से काटे, वह समझनेवाले ही समझ सकते हैं। भला हो बेचारे सन्तलाल का। वह दस-पाँच रुपये से मदद कर दिया करता था। अगर सुशीला दरिद्र घर की होती, तो पिसाई करती, कपड़े सीती, किसी के घर में टहल करती; पर जिन कामों को बिरादरी नीचा समझती है, उनका सहारा कैसे लेती। नहीं तो लोग कहते, यह सेठ रामनाथ की स्त्री है ! उस नाम की भी तो लाज रखनी थी। समाज के चक्रव्यूह से किसी तरह तो छुटकारा नहीं होता। लड़की के दो-एक गहने बच रहे थे। वह भी बिक गये। जब रोटियों ही के लाले थे, तो घर का किराया कहाँ से आता। तीन महीने बाद घर का मालिक, जो उसी बिरादरी का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति था और जिसने मृतक-भोज में खूब बढ़-बढ़कर हाथ मारे थे, अधीर हो उठा। बेचारा कितना धैर्य रखता। 30 रु. का मामला है, रुपये-आठ-आने की बात नहीं है। इतनी बड़ी रकम नहीं छोड़ी जाती। आखिर एक दिन सेठजी ने आकर लाल-लाल आँखें करके कहा, 'अगर तू किराया नहीं दे सकती, तो घर खाली कर दे। मैंने बिरादरी के नाते इतनी मुरौवत की। अब किसी तरह काम नहीं चल सकता। 
सुशीला बोली, 'सेठजी, मेरे पास रुपये होते, तो पहले आपका किराया देकर तब पानी पीती। आपने इतनी मुरौवत की, इसके लिए मेरा सिर आपके चरणों पर है, लेकिन अभी मैं बिलकुल खाली-हाथ हूँ। यह समझ लीजिए कि एक भाई के बाल-बच्चों की परवरिश कर रहे हैं। और क्या कहूँ।' 
सेठ -'चल-चल, इस तरह की बातें बहुत सुन चुका। बिरादरी का आदमी है, तो उसे चूस लो। कोई मुसलमान होता, तो उसे चुपके से महीने-महीने दे देती, नहीं तो उसने निकाल बाहर किया होता, मैं बिरादरी का हूँ, इसलिए मुझे किराया देने की दरकार नहीं। मुझे माँगना ही नहीं चाहिए। यही तो बिरादरी के साथ करना चाहिए।' 
इसी समय रेवती भी आकर खड़ी हो गयी। सेठजी ने उसे सिर से पाँव तक देखा और तब किसी कारण से बोले 'अच्छा, यह लड़की तो सयानी हो गयी। कहीं इसकी सगाई की बातचीत नहीं की ? ' 
रेवती तुरंत भाग गयी। सुशीला ने इन शब्दों में आत्मीयता की झलक पाकर पुलकित कंठ से कहा, 'अभी तो कहीं बातचीत नहीं हुई, सेठजी। घर का किराया तक तो अदा नहीं कर सकती, सगाई क्या करूँगी; फिर अभी छोटी भी तो है।' 
सेठजी ने तुरंत शास्त्रों का आधार दिया। कन्याओं के विवाह की यही अवस्था है। धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। किराये की कोई बात नहीं है। हमें क्या मालूम था कि सेठ रामनाथ के परिवार की यह दशा है।' 
सुशीला -'तो आपकी निगाह में कोई अच्छा घर है ! यह तो आप जानते ही हैं, मेरे पास लेने-देने को कुछ नहीं है।' 
झाबरमल -'(इन सेठजी का यही नाम था) लेने-देने का कोई झगड़ा नहीं होगा; बाईजी। ऐसा घर है कि लड़की आजीवन सुखी रहेगी। लड़का भी उसके साथ रह सकता है। कुल का सच्चा; हर तरह से संपन्न परिवार है। हाँ, वह दोहाजू (दूजवर) है। ' 
सुशीला -'उम्र अच्छी होनी चाहिए, दोहाजू होने से क्या होता है।' 
झाबरमल -'उम्र भी कुछ ज्यादा नहीं, अभी चालीसवाँ ही साल है उसका, पर देखने में अच्छा ह्रष्ट-पुष्ट है। मर्द की उम्र उसका भोजन है। बस यह समझ लो कि परिवार का उद्धार हो जायगा।' 
सुशीला ने अनिच्छा के भाव से कहा, 'अच्छा, मैं सोचकर जवाब दूँगी।एक बार मुझे दिखा देना। 
झाबरमल-' दिखाने को कहीं नहीं जाना है, बाई। वह तो तेरे सामने ही खड़ा है।' 
सुशीला ने घृणापूर्ण नेत्रों से उसकी ओर देखा। इस पचास साल के बुङ्ढे की यह हबस ! छाती का मांस लटककर नाभी तक आ पहुँचा है, फिर भी विवाह की धुन सवार है। यह दुष्ट समझता है कि प्रलोभनों में पड़कर 
मैं अपनी लड़की उसके गले बाँध दूँगी। वह अपनी बेटी को आजीवन क्वॉरी रखेगी; पर ऐसे मृतक से विवाह करके उसका जीवन नष्ट न करेगी, पर उसने अपने क्रोध को शांत किया। समय का फेर है, नहीं तो ऐसों को उससे ऐसा प्रस्ताव करने का साहस ही क्यों होता। बोली, 'आपकी इस कृपा के लिए आपको धन्यवाद देती हूँ, सेठजी, पर मैं कन्या का विवाह आपसे नहीं कर सकती।' 
झाबरमल -'तो और क्या तू समझती है कि तेरी कन्या के लिए बिरादरी में कोई कुमार मिल जायगा ? ' 
सुशीला -'मेरी लड़की क्वॉरी रहेगी।' 
झाबरमल -'और रामनाथजी के नाम को कलंकित करेगी ? ' 
सुशीला -'तुम्हें मुझसे ऐसी बातें करते लाज नहीं आती ? नाम के लिए घर खोया, संपत्ति खोयी, पर कन्या कुएं में नहीं डुबा सकती।' 
झाबरमल-' तो मेरा केराया दे दे।' 
सुशीला -'अभी मेरे पास रुपये नहीं हैं।' 
झाबरमल ने भीतर घुसकर गृहस्थ की एक-एक वस्तु निकालकर गली में फेंक दी। घड़ा फूट गया, मटके टूट गये। संदूक के कपड़े बिखर गये। सुशीला तटस्थ खड़ी अपने अदिन की यह क्रूर क्रीड़ा देखती रही। घर का यों विध्वंस करके झाबरमल ने घर में ताला डाल दिया और अदालत से रुपये वसूल करने की धमकी देकर चले गये। बड़ों के पास धन होता है, छोटों के पास ह्रदय होता है। धन से बड़े-बड़े व्यापार होते हैं; बड़े-बड़े महल बनते हैं, नौकर-चाकर होते हैं, सवारी-शिकारी होती है; ह्रदय से समवेदना होती है, आँसू निकलते हैं। 
उसी मकान से मिली हुई एक साग-भाजी बेचनेवाली खटकिन की दूकान थी। वृद्धा, विधवा निपूती स्त्री थी, बाहर से आग, भीतर से पानी। झाबरमल को सैकड़ों सुनायीं और सुशीला की एक-एक चीज उठाकर अपने घर में ले गयी। 'मेरे घर में रहो बहू। मुरौवत में आ गयी, नहीं तो उसकी मूँछें उखाड़ लेती। मौत सिर पर नाच रही है, आगे नाथ, न पीछे पगहा ! और धन के पीछे मरा जाता है। जाने छाती पर लादकर ले जायगा। तुम चलो मेरे घर में रहो। मेरे यहाँ किसी बात का खटका नहीं बस मैं अकेली हूँ। एक टुकड़ा मुझे भी दे देना।' 
सुशीला ने डरते-डरते कहा, 'माता, मेरे पास सेर-भर आटे के सिवा और कुछ नहीं है। मैं तुम्हें केराया कहाँ से दूँगी।' 
बुढ़िया ने कहा, 'मैं झाबरमल नहीं हूँ बहू, न कुबेरदास हूँ। मैं तो समझती हूँ, जिन्दगी में सुख भी है, दुख भी है। सुख में इतराओ मत, दु:ख में घबड़ाओ मत। तुम्हीं से चार पैसे कमाकर अपना पेट पालती हूँ। तुम्हें उस दिन भी देखा था; जब तुम महल में रहती थीं और आज भी देख रही हूँ, जब तुम अनाथ हो। जो मिजाज तब था, वही अब है। मेरे धन्य भाग कि तुम मेरे घर में आओ। मेरी आँखें फूटी हैं, जो तुमसे केराया माँगने जाऊँगी।' इन सांत्वना से भरे हुए सरल शब्दों ने सुशीला के ह्रदय का बोझ हल्का कर दिया। उसने देखा, सच्ची सज्जनता भी दरिद्रों और नीचों ही के पास रहती है। बड़ों की दया भी होती है, अहंकार का दूसरा रूप ! 
इस खटकिन के साथ रहते हुए सुशीला को छ: महीने हो गये थे। सुशीला का उससे दिन-दिन स्नेह बढ़ता जाता था। वह जो कुछ पाती, लाकर सुशीला के हाथ में रख देती। दोनों बालक उसकी दो आँखें थीं। मजाल न थी कि पड़ोस का कोई आदमी उन्हें कड़ी आँखों से देख ले। बुढ़िया दुनिया सिर पर उठा लेती। सन्तलाल हर महीने कुछ-न-कुछ दे दिया करता था। इससे रोटी-दाल चली जाती थी। 
कातिक का महीना था ज्वर का प्रकोप हो रहा था। मोहन एक दिन खेलता-कूदता बीमार पड़ गया और तीन दिन तक अचेत पड़ा रहा। ज्वर इतने जोर का था कि पास खड़े रहने से लपट-सी निकलती थी। बुढ़िया ओझे-सयानों के पास दौड़ती फिरती थी; पर ज्वर उतरने का नाम न लेता था। सुशीला को भय हो रहा था, यह टाइफाइड है। इससे उसके प्राण सूख रहे थे। चौथे दिन उसने रेवती से कहा, 'बेटी, तूने बड़े पंचजी का घर तो देखा है। जाकर उनसे कह भैया बीमार है, कोई डाक्टर भेज दें।' 
रेवती को कहने भर की देरी थी। दौड़ती हुई सेठ कुबेरदास के पास गयी। कुबेरदास बोले ड़ाक्टर की फीस 16रू. है। तेरी माँ दे देगी ? ' 
रेवती ने निराश होकर कहा, 'अम्माँ के पास रुपये कहाँ हैं ? ' 
कुबेरदास -'तो फिर किस मुँह से मेरे डाक्टर को बुलाती है। तेरा मामा कहाँ है ? उनसे जाकर कह, सेवा समिति से कोई डाक्टर बुला ले जायँ, नहीं तो खैराती अस्पताल में क्यों नहीं लड़के को ले जाती ? या अभी वही पुरानी बू समाई हुई है। कैसी मूर्ख स्त्री है, घर में टका नहीं और डाक्टर का हुकुम लगा दिया। समझती होगी, फीस पंचजी दे देंगे। पंचजी क्यों फीस दें ? बिरादरी का धन धर्म-कार्य के लिए है, यों उड़ाने के लिए नहीं है।' 
रेवती माँ के पास लौटी; पर जो कुछ सुना था, वह उससे न कह सकी। घाव पर नमक क्यों छिड़के। बहाना कर दिया, बड़े पंचजी कहीं गये हैं। सुशीला तो मुनीम से क्यों नहीं कहा, ? यहाँ क्या कोई मिठाई खाये जाता था, जो दौड़ी चली आयी ? इसी वक्त सन्तलाल एक वैद्यजी को लेकर आ पहुँचा। वैद्य भी एक दिन आकर दूसरे दिन न लौटे। सेवा-समिति के डाक्टर भी दो दिन बड़ी मिन्नतों से आये। फिर उन्हें भी अवकाश न रहा और मोहन की दशा दिनोंदिन बिगड़ती जाती थी। महीना बीत गया; पर ज्वर ऐसा चढ़ा कि एक क्षण के लिए भी न उतरा। उसका चेहरा इतना सूख गया था कि देख कर दया आती थी। न कुछ बोलता, न कहता, यहाँ तक कि करवट भी न बदल सकता था। पड़े-पड़े देह की खाल फट गयी, सिर के बाल गिर गये। हाथ-पाँव लकड़ी हो गये। सन्तलाल काम से छुट्टी पाता तो आ जाता, पर इससे क्या होता; तीमारदारी दवा तो नहीं है। 
एक दिन सन्ध्या समय उसके हाथ ठण्डे हो गये। माता के प्राण पहले ही से सूखे हुए थे। यह हाल देखकर रोने-पीटने लगी। मिन्नतें तो बहुतेरी हो चुकी थीं। रोती हुई मोहन की खाट के सात फेरे करके हाथ बाँधकर 
बोली, 'भगवान् ! यही मेरे जन्म की कमाई है। अपना सर्वस्व खोकर भी मैं बालक को छाती से लगाए हुए सन्तुष्ट थी; लेकिन यह चोट न सही जायगी। तुम इसे अच्छा कर दो। इसके बदले मुझे उठा लो। बस, मैं यही दया चाहती हूँ, दयामय ? ' 
संसार के रहस्य को कौन समझ सकता है ! क्या हममें से बहुतों को यह अनुभव नहीं कि जिस दिन हमने बेईमानी करके कुछ रकम उड़ायी, उसी दिन उस रकम का दुगुना नुकसान हो गया। सुशीला को उसी दिन रात को ज्वर आ गया और उसी दिन मोहन का ज्वर उतर गया। बच्चे की सेवा-शुश्रूषा में आधी तो यों ही रह गयी थी, इस बीमारी ने ऐसा पकड़ा कि फिर न छोड़ा। मालूम नहीं, देवता बैठे सुन रहे थे या क्या, उसकी याचना अक्षरश: पूरी हुई। पन्द्रहवें दिन मोहन चारपाई से उठकर माँ के पास आया और उसकी छाती पर सिर रखकर रोने लगा। माता ने उसके गले में बाँहें डालकर उसे छाती से लगा लिया और बोली, 'क्यों रोते हो बेटा ! मैं अच्छी हो जाऊँगी। अब मुझे क्या चिंता। भगवान् पालनेवाले हैं। वही तुम्हारे रक्षक हैं। वही तुम्हारे पिता हैं। अब मैं सब तरफ से निश्चिंत हूँ। जल्द अच्छी हो जाऊँगी।' 
मोहन बोला, 'ज़िया तो कहती है, अम्माँ अब न अच्छी होंगी।' 
सुशीला ने बालक का चुम्बन लेकर कहा, 'ज़िया पगली है, उसे कहने दो। मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी। मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगी। हाँ, जिस दिन तुम कोई अपराध करोगे, किसी की कोई चीज उठा लोगे, उसी दिन 
मैं मर जाऊँगी ? ' 
मोहन ने प्रसन्न होकर कहा, 'तो तुम मेरे पास से कभी नहीं जाओगी माँ ? ' 
सुशीला ने कहा, 'क़भी नहीं बेटा, कभी नहीं।' 
उसी रात को दु:ख और विपत्ति की मारी हुई यह अनाथ विधवा दोनों अनाथ बालकों को भगवान् पर छोड़कर परलोक सिधार गयी। 
इस घटना को तीन साल हो गये हैं, मोहन और रेवती दोनों उसी वृद्धा के पास रहते हैं। बुढ़िया माँ तो नहीं है; लेकिन माँ से बढ़कर है। रोज मोहन को रात की रखी रोटियाँ खिलाकर गुरुजी की पाठशाला में पहुँचा आती है। 
छुट्टी के समय जाकर लिवा आती है। रेवती का अब चौदहवाँ साल है। वह घर का सारा काम पीसना-कूटना, चौका-बरतन, झाडू-बुहारू करती है। बुढ़िया सौदा बेचने चली जाती है, तो वह दूकान पर भी आ बैठती है। 
एक दिन बड़े पंच सेठ कुबेरदास ने उसे बुला भेजा और बोले, ' तुझे दूकान पर बैठते शर्म नहीं आती, सारी बिरादरी की नाक कटा रही है। खबरदार, जो कल से दूकान पर बैठी। मैंने तेरे पाणिग्रहण के लिए झाबरमल जी को पक्का कर लिया है।' 
सेठानी ने समर्थन किया, 'तू अब सयानी हुई बेटी, अब तेरा इस तरह बैठना अच्छा नहीं। लोग तरह-तरह की बातें करने लगते हैं। सेठ झाबरमल तो राजी ही न होते थे, हमने बहुत कह-सुनकर राजी किया है। बस, समझ ले कि रानी हो जायगी। लाखों की सम्पत्ति है, लाखों की। तेरे धन्य भाग कि ऐसा वर मिला। तेरा छोटा भाई है, उसको भी कोई दूकान करा दी जायगी। सेठ बिरादरी की कितनी बदनामी है ! सेठानी है ही।' 
रेवती ने लज्जित होकर कहा, 'मैं क्या जानूँ, आप मामा से कहें।' 
सेठ -' वह कौन होता है ! टके पर मुनीमी करता है। उससे मैं क्या पूछूँ। मैं बिरादरी का पंच हूँ। मुझे अधिकार है, जिस काम से बिरादरी का कल्याण देखूँ, वह करूँ। मैंने और पंचों से राय ले ली है। सब मुझसे सहमत हैं। अगर तू यों नहीं मानेगी, तो हम अदालती कार्रवाई करेंगे। तुझे खरच-बरच का काम होगा, यह लेती जा।' 
यह कहते हुए उन्होंने 20रू. के नोट रेवती की तरफ फेंक दिये। रेवती ने उठाकर वहीं पुरजे-पुरजे कर डाले और तमतमाये मुख से बोली, 'बिरादरी ने तब हम लोगों की बात न पूछी; जब हम रोटियों को मुहताज थे। मेरी माता मर गयी; कोई झाँकने तक न आया। मेरा भाई बीमार हुआ, किसी ने खबर तक न ली। ऐसी बिरादरी की मुझे परवाह नहीं है।' रेवती चली गयी, तो झाबरमल कोठरी से निकल आये। चेहरा उदास था।
सेठानी ने कहा, 'लड़की बड़ी घमंडिन है। आँख का पानी मर गया है।' 
झाबरमल -'बीस रुपये खराब हो गये। ऐसा फाड़ा है कि जुड़ भी नहीं सकते।' 
कुबेरदास--'तुम घबड़ाओ नहीं; मैं इसे अदालत से ठीक करूँगा। जाती कहाँ है।' 
झाबरमल -'अब तो आपका ही भरोसा है।' 
बिरादरी के बड़े पंच की बात कहीं मिथ्या हो सकती है ? रेवती नाबालिग थी। माता-पिता नहीं थे। ऐसी दशा में पंचों का उस पर पूरा अधिकार था। वह बिरादरी के दबाव में नहीं रहना चाहती है, न चाहे। कानून बिरादरी के अधिकार की उपेक्षा नहीं कर सकता। सन्तलाल ने यह माजरा सुना; तो दाँत पीसकर बोले न जाने इस 
बिरादरी का भगवान् कब अंत करेंगे। 
रेवती -'क्या बिरादरी मुझे जबरदस्ती अपने अधिकार में ले सकती है ? ' 
सन्तलाल-' हाँ बेटी, धानिकों के हाथ में तो कानून भी है।' 
रेवती -'मैं कह दूँगी कि मैं उनके पास नहीं रहना चाहती।' 
सन्तलाल -'तेरे कहने से क्या होगा। तेरे भाग्य में यही लिखा था, तो किसका बस है। मैं जाता हूँ बड़े पंच के पास। ' 
रेवती -'नहीं मामाजी, तुम कहीं न जाव। जब भाग्य ही का भरोसा है; तो जो कुछ भाग्य में लिखा होगा वह होगा।' 
रात तो रेवती ने घर में काटी। बार-बार निद्रा-मग्न भाई को गले लगाती। यह अनाथ अकेला कैसे रहेगा, यह सोचकर उसका मन कातर हो जाता; पर झाबरमल की सूरत याद करके उसका संकल्प दृढ़ हो जाता। प्रात:काल रेवती गंगा-स्नान करने गयी। यह इधर कई महीनों से उसका नित्य का नियम था। आज जरा अँधेरा था; पर यह कोई सन्देह की बात न थी। सन्देह तब हुआ, जब आठ बज गये और वह लौटकर न आयी। 
तीसरे पहर सारी बिरादरी में खबर फैल गई सेठ रामनाथ की कन्या गंगा में डूब गई। उसकी लाश पाई गई। 
कुबेरदास ने कहा, 'चलो, अच्छा हुआ; बिरादरी की बदनामी तो न होगी।' 
झाबरमल ने दुखी मन से कहा, 'मेरे लिए अब कोई और उपाय कीजिए।' 
उधर मोहन सिर पीट-पीटकर रो रहा था और बुढ़िया उसे गोद में लिये समझा रही थी बेटा, उस देवी के लिए क्यों रोते हो। जिन्दगी में उसके दुख-ही-दुख था। अब वह अपनी माँ की गोद में आराम कर रही है। 

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 09 May 2020 at 7:51 PM -

माता का हृदय - मुंशी प्रेम चंद

 Hindi Kahani- हिंदी कहानी

Mata Ka Hriday
Munshi Premchand
माता का हृदय - मुंशी प्रेम चंद

1
माधवी की आँखों में सारा संसार अँधेरा हो रहा था। कोई अपना मददगार न दिखायी देता था। कहीं आशा की झलक न थी। उस निर्धन घर में वह अकेली पड़ी रोती थी और ... कोई आँसू पोंछनेवाला न था। उसके पति को मरे हुए 22 वर्ष हो गये थे। घर में कोई सम्पत्ति न थी। उसने न-जाने किन तकलीफों से अपने बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा किया था। वही जवान बेटा आज उसकी गोद से छीन लिया गया था और छीननेवाले कौन थे ? अगर मृत्यु ने छीना होता तो वह सब्र कर लेती। मौत से किसी को द्वेष नहीं होता। मगर स्वार्थियों के हाथों यह अत्याचार असह्य हो रहा था। इस घोर संताप की दशा में उसका जी रह-रहकर इतना विकल हो जाता कि इसी समय चलूँ और उस अत्याचारी से इसका बदला लूँ जिसने उस पर यह निष्ठुर आघात किया है। मारूँ या मर जाऊँँ। दोनों ही में संतोष हो जायगा। कितना सुन्दर, कितना होनहार बालक था ! यही उसके पति की निशानी, उसके जीवन का आधार, उसकी उम्र-भर की कमाई थी। वही लड़का इस वक्त जेल में पड़ा न जाने क्या-क्या तकलीफें झेल रहा होगा ! और उसका अपराध क्या था ? कुछ नहीं। सारा मुहल्ला उस पर जान देता था। विद्यालय के अध्यापक उस पर जान देते थे। अपने-बेगाने सभी तो उसे प्यार करते थे। कभी उसकी कोई शिकायत सुनने ही में नहीं आयी। ऐसे बालक की माता होने पर अन्य माताएँ उसे बधाई देती थीं। कैसा सज्जन, कैसा उदार, कैसा परमार्थी ! खुद भूखों सो रहे मगर क्या मजाल कि द्वार पर आनेवाले अतिथि को रूखा जवाब दे। ऐसा बालक क्या इस योग्य था कि जेल में जाता ! उसका अपराध यही था, वह कभी-कभी सुनने वालों को अपने दुखी भाइयों का दुखड़ा सुनाया करता था, अत्याचार से पीड़ित प्राणियों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहता था। क्या यही उसका अपराध था ? दूसरों की सेवा करना भी अपराध है ? किसी अतिथि को आश्रय देना भी अपराध है ? 
इस युवक का नाम आत्मानंद था। दुर्भाग्यवश उसमें वे सभी सद्गुण थे जो जेल का द्वार खोल देते हैं। वह निर्भीक था, स्पष्टवादी था, साहसी था, स्वदेशप्रेमी था, निःस्वार्थ था, कर्त्तव्यपरायण था। जेल जाने के लिए इन्हीं गुणों की जरूरत है। स्वाधीन प्राणियों के लिए वे गुण स्वर्ग का द्वार खोल देते हैं, पराधीनों के लिए नरक के ! आत्मानंद के सेवा-कार्य ने, उसकी वक्तृताओं ने और उसके राजनीतिक लेखों ने उसे सरकारी कर्मचारियों की नजरों में चढ़ा दिया था। सारा पुलिस-विभाग नीचे से ऊपर तक उससे सतर्क रहता था, सबकी निगाहें उस पर लगी रहती थीं। आखिर जिले में एक भयंकर डाके ने उन्हें इच्छित अवसर प्रदान कर दिया। आत्मानंद के घर की तलाशी हुई, कुछ पत्र और लेख मिले, जिन्हें पुलिस ने डाके का बीजक सिद्ध किया। लगभग 20 युवकों की एक टोली फाँस ली गयी। आत्मानंद इसका मुखिया ठहराया गया। शहादतें हुईं। इस बेकारी और गिरानी के जमाने में आत्मा से ज्यादा सस्ती और कौन वस्तु हो सकती है ! बेचने को और किसी के पास रह ही क्या गया है ! नाममात्र का प्रलोभन देकर अच्छी-से-अच्छी शहादतें मिल सकती हैं, और पुलिस के हाथ पड़कर तो निकृष्ट-से-निकृष्ट गवाहियाँ भी देववाणी का महत्त्व प्राप्त कर लेती हैं। शहादतें मिल गयीं, महीने-भर तक मुकदमा चला, मुकदमा क्या चला एक स्वाँग चलता रहा और सारे अभियुक्तों को सजाएँ दे दी गयीं। आत्मानंद को सबसे कठोर दंड मिला, 8 वर्ष का कठिन कारावास ! माधवी रोज कचहरी जाती; एक कोने में बैठी सारी कार्रवाई देखा करती। मानवीय चरित्र कितना दुर्बल, कितना निर्दय, कितना नीच है, इसका उसे तब तक अनुमान भी न हुआ था। जब आत्मानंद को सजा सुना दी गयी और वह माता को प्रणाम करके सिपाहियों के साथ चला तो माधवी मूर्छित होकर जमीन पर गिर पड़ी। दो-चार दयालु सज्जनों ने उसे एक ताँगे पर बैठाकर घर तक पहुँचाया। जब से वह होश में आयी है उसके हृदय में शूल-सा उठ रहा है। किसी तरह धैर्य नहीं होता। उस घोर आत्म-वेदना की दशा में अब अपने जीवन का केवल एक लक्ष्य दिखायी देता है और वह इस अत्याचार का बदला है। 
अब तक पुत्र उसके जीवन का आधार था। अब शत्रुओं से बदला लेना ही उसके जीवन का आधार होगा। जीवन में अब उसके लिए कोई आशा न थी। इस अत्याचार का बदला लेकर वह अपना जन्म सफल समझेगी। इस अभागे नर-पिशाच बागची ने जिस तरह उसे रक्त के आँसू रुलाये हैं उसी भाँति यह भी उसे रुलायेगी। नारी-हृदय कोमल है, लेकिन केवल अनुकूल दशा में; जिस दशा में पुरुष दूसरों को दबाता है, स्त्री शील और विनय की देवी हो जाती है। लेकिन जिसके हाथों अपना सर्वनाश हो गया हो उसके प्रति स्त्री को पुरुष से कम घृणा और क्रोध नहीं होता। अंतर इतना ही है कि पुरुष शस्त्रों से काम लेता है, स्त्री कौशल से। 
रात भीगती जाती थी और माधवी उठने का नाम न लेती थी। उसका दुःख प्रतिकार के आवेश में विलीन होता जाता था। यहाँ तक कि इसके सिवा उसे और किसी बात की याद ही न रही। उसने सोचा, कैसे यह काम होगा ? कभी घर से नहीं निकली। वैधव्य के 22 साल इसी घर में कट गये; लेकिन अब निकलूँगी। जबरदस्ती निकलूँगी, भिखारिन बनूँगी, टहलनी बनूँगी, झूठ बोलूँगी, सब कुकर्म करूँगी। सत्कर्म के लिए संसार में स्थान नहीं। ईश्वर ने निराश होकर कदाचित् इसकी ओर से मुँह फेर लिया है। जभी तो यहाँ ऐसे-ऐसे अत्याचार होते हैं और पापियों को दंड नहीं मिलता। अब इन्हीं हाथों से उसे दंड दूँगी। 


संध्या का समय था। लखनऊ के एक सजे हुए बँगले में मित्रों की महफिल जमी हुई थी। गाना-बजाना हो रहा था। एक तरफ आतशबाजियाँ रखी हुई थीं। दूसरे कमरे में मेजों पर खाना चुना जा रहा था। चारों तरफ पुलिस के कर्मचारी नजर आते थे। वह पुलिस के सुपरिंटेंडेंट मिस्टर बागची का बँगला है। कई दिन हुए उन्होंने एक मार्के का मुकदमा जीता था। अफसरों ने खुश होकर उनकी तरक्की कर दी थी। और उसी की खुशी में यह उत्सव मनाया जा रहा था। यहाँ आये दिन ऐसे उत्सव होते रहते थे। मुफ्त के गवैये मिल जाते थे, मुफ्त की आतशबाजी; फल और मेवे और मिठाइयाँ आधे दामों पर बाजार से आ जाती थीं और चट दावत हो जाती थी। दूसरों के जहाँ सौ लगते, वहाँ इनका दस से काम चल जाता था। दौड़-धूप करने को सिपाहियों की फौज थी ही। और यह मार्के का मुकदमा क्या था ? वह जिसमें निरपराध युवकों को बनावटी शहादत से जेल में ठूँस दिया गया था। 
गाना समाप्त होने पर लोग भोजन करने बैठे। बेगार के मजदूर और पल्लेदार जो बाजार से दावत और सजावट के सामान लाये थे, रोते या दिल में गालियाँ देते चले गये थे; पर एक बुढ़िया अभी तक द्वार पर बैठी हुई थी। अन्य मजदूरों की तरह वह भुनभुनाकर काम न करती थी। हुक्म पाते ही खुश-दिल मजदूर की तरह दौड़-दौड़कर हुक्म बजा लाती थी। यह माधवी थी, जो इस समय मज़ूरनी का वेष धारण करके अपना घातक संकल्प पूरा करने आयी थी। 
मेहमान चले गये। महफिल उठ गयी। दावत का सामान समेट दिया गया। चारों ओर सन्नाटा छा गया; लेकिन माधवी अभी तक यहीं बैठी थी। 
सहसा मिस्टर बागची ने पूछा- बुड्ढी, तू यहाँ क्यों बैठी है ? तुझे कुछ खाने को मिल गया ? 
माधवी- हाँ हुजूर, मिल गया। 
बागची- तो जाती क्यों नहीं ? 
माधवी- कहाँ जाऊँ सरकार, मेरा कोई घर-द्वार थोड़े ही है। हुकुम हो तो यहीं पड़ी रहूँ। पाव-भर आटे की परवस्ती हो जाय हुजूर। 
बागची- नौकरी करेगी ? 
माधवी- क्यों न करूँगी सरकार, यही तो चाहती हूँ। 
बागची- लड़का खेला सकती है ?
माधवी- हाँ हुजूर, वह मेरे मन का काम है। 
बागची- अच्छी बात है। तू आज ही से रह। जा, घर में देख, जो काम बतायें, वह कर। 


एक महीना गुजर गया। माधवी इतना तन-मन से काम करती है कि सारा घर उससे खुश है। बहूजी का मिजाज बहुत ही चिड़चिड़ा है। वह दिन-भर खाट पर पड़ी रहती हैं और बात-बात पर नौकरों पर झल्लाया करती हैं। लेकिन माधवी उनकी घुड़कियों को भी सहर्ष सह लेती है। अब तक मुश्किल से कोई दाई एक सप्ताह से अधिक ठहरी थी। माधवी ही का कलेजा है कि जली-कटी सुनकर भी मुख पर मैल नहीं आने देती। 
मिस्टर बागची के कई लड़के हो चुके थे, पर यही सबसे छोटा बच्चा बच रहा था। बच्चे पैदा तो हृष्ट-पुष्ट होते, किन्तु जन्म लेते ही उन्हें एक-न-एक रोग लग जाता था और कोई दो-चार महीने, कोई साल-भर जीकर चल देते थे। माँ-बाप दोनों इस शिशु पर प्राण देते थे। उसे जरा जुकाम भी हो तो दोनों विकल हो जाते। स्त्री-पुरुष दोनों शिक्षित थे, पर बच्चे की रक्षा के लिए टोना-टोटका, दुआ-ताबीज, जंतर-मंतर एक से भी उन्हें इनकार न था। 
माधवी से यह बालक इतना हिल गया कि एक क्षण के लिए भी उसकी गोद से न उतरता। वह कहीं एक क्षण के लिए चली जाती तो रो-रोकर दुनिया सिर पर उठा लेता। वह सुलाती तो सोता, वह दूध पिलाती तो पीता, वह खेलाती तो खेलता, उसी को वह अपनी माता समझता। माधवी के सिवा उसके लिए संसार में कोई अपना न था। बाप को तो वह दिन-भर में केवल दो-चार बार देखता और समझता यह कोई परदेशी आदमी है। माँ आलस्य और कमजोरी के मारे गोद में लेकर टहल न सकती थी। उसे वह अपनी रक्षा का भार सँभालने के योग्य न समझता था, और नौकर-चाकर उसे गोद में लेते तो इतनी बेदर्दी से कि उसके कोमल अंगों में पीड़ा होने लगती थी। कोई उसे ऊपर उछाल देता था, यहाँ तक कि अबोध शिशु का कलेजा मुँह को आ जाता था। उन सबों से वह डरता था। केवल माधवी थी जो उसके स्वभाव को समझती थी। वह जानती थी कि कब क्या करने से बालक प्रसन्न होगा। इसीलिए बालक को भी उससे प्रेम था। 
माधवी ने समझा था, यहाँ कंचन बरसता होगा; लेकिन उसे देखकर कितना विस्मय हुआ कि बड़ी मुश्किल से महीने का खर्च पूरा पड़ता है। नौकरों से एक-एक पैसे का हिसाब लिया जाता था और बहुधा आवश्यक वस्तुएँ भी टाल दी जाती थीं। एक दिन माधवी ने कहा- बच्चे के लिए कोई तेज गाड़ी क्यों नहीं मँगवा देतीं। गोद में उसकी बाढ़ मारी जाती है। 
मिसेज़ बागची ने कुंठित होकर कहा- कहाँ से मँगवा दूँ, कम-से-कम 50-60 रुपये में आयेगी। इतने रुपये कहाँ हैं ? 
माधवी- मालकिन, आप भी ऐसा कहती हैं ! 
मिसेज़ बागची- झूठ नहीं कहती। बाबूजी की पहली स्त्री से पाँच लड़कियाँ और हैं। सब इस समय इलाहाबाद के एक स्कूल में पढ़ रही हैं। बड़ी की उम्र 15-16 वर्ष से कम न होगी। आधा वेतन तो उधर ही चला जाता है। फिर उनकी शादी की भी तो फिक्र है। पाँचों के विवाह में कम-से-कम 25 हजार लगेंगे। इतने रुपये कहाँ से आयेंगे। मैं चिंता के मारे मरी जाती हूँ। मुझे कोई दूसरी बीमारी नहीं है, केवल यही चिंता का रोग है। 
माधवी- घूस भी तो मिलती है। 
मिसेज़ बागची- बुढ़िया, ऐसी कमाई में बरकत नहीं होती। यही क्यों, सच पूछो तो इसी घूस ने हमारी यह दुर्गति कर रखी है। क्या जानें औरों को कैसे हजम होती है। यहाँ तो जब ऐसे रुपये आते हैं तो कोई-न-कोई नुकसान भी अवश्य हो जाता है। एक आता है तो दो लेकर जाता है। बार-बार मना करती हूँ, हराम की कौड़ी घर में न लाया करो, लेकिन मेरी कौन सुनता ! 
बात यह थी कि माधवी को बालक से स्नेह होता जाता था। उसके अमंगल की कल्पना भी वह न कर सकती थी। वह अब उसी की नींद सोती और उसी की नींद जागती थी। अपने सर्वनाश की बात याद करके एक क्षण के लिए उसे बागची पर क्रोध तो हो आता था और घाव फिर हरा हो जाता था; पर मन पर कुत्सित भावों का आधिपत्य न था। घाव भर रहा था, केवल ठेस लगने से दर्द हो जाता था। उसमें स्वयं टीस या जलन न थी। इस परिवार पर अब उसे दया आती थी। सोचती, बेचारे यह छीन-झपट न करें तो कैसे गुजर हो। लड़कियों का विवाह कहाँ से करेंगे ! स्त्री को जब देखो बीमार ही रहती है। उन पर बाबूजी को एक बोतल शराब भी रोज चाहिए। यह लोग तो स्वयं अभागे हैं। जिसके घर में 5-5 क्वाँरी कन्याएँ हों, बालक हो-होकर मर जाते हों, घरनी सदा बीमार रहती हो, स्वामी शराब का लती हो, उस पर तो यों ही ईश्वर का कोप है। इनसे तो मैं अभागिनी ही अच्छी ! 


दुर्बल बालकों के लिए बरसात बुरी बला है। कभी खाँसी है, कभी ज्वर, कभी दस्त। जब हवा में ही शीत भरी हो तो कोई कहाँ तक बचाये। माधवी एक दिन अपने घर चली गयी थी। बच्चा रोने लगा तो माँ ने एक नौकर को दिया, इसे बाहर से बहला ला। नौकर ने बाहर ले जाकर हरी-हरी घास पर बैठा दिया। पानी बरस कर निकल गया था। भूमि गीली हो रही थी। कहीं-कहीं पानी भी जमा हो गया था। बालक को पानी में छपके लगाने से ज्यादा प्यारा और कौन खेल हो सकता है। खूब प्रेम से उमग-उमगकर पानी में लोटने लगा। नौकर बैठा और आदमियों के साथ गप-शप करता रहा। इस तरह घंटों गुजर गये। बच्चे ने खूब सर्दी खायी। घर आया तो उसकी नाक बह रही थी। रात को माधवी ने आकर देखा तो बच्चा खाँस रहा था। आधी रात के करीब उसके गले से खुरखुर की आवाज निकलने लगी। माधवी का कलेजा सन से हो गया। स्वामिनी को जगाकर बोली- देखो तो, बच्चे को क्या हो गया है। क्या सर्दी-वर्दी तो नहीं लग गयी। हाँ, सर्दी ही तो मालूम होती है। 
स्वामिनी हकबका कर उठ बैठी और बालक की खुरखुराहट सुनी तो पाँव तले से जमीन निकल गयी। यह भयंकर आवाज उसने कई बार सुनी थी और उसे खूब पहचानती थी। व्यग्र होकर बोली- जरा आग जलाओ। थोड़ा-सा चोकर लाकर एक पोटली बनाओ, सेंकने से लाभ होता है। इन नौकरों से तंग आ गयी। आज कहार जरा देर के लिए बाहर ले गया था, उसी ने सर्दी में छोड़ दिया होगा। 
सारी रात दोनों बालक को सेंकती रहीं। किसी तरह सबेरा हुआ। मिस्टर बागची को खबर मिली तो सीधे डाक्टर के यहाँ दौड़े। खैरियत इतनी थी कि जल्द एहतियात की गयी। तीन दिन में बच्चा अच्छा हो गया; लेकिन इतना दुर्बल हो गया था कि उसे देखकर डर लगता था। सच पूछो तो माधवी की तपस्या ने बालक को बचाया। माता सोती, पिता सो जाता, किंतु माधवी की आँखों में नींद न थी। खाना-पीना तक भूल गयी। देवताओं की मनौतियाँ करती थी, बच्चे की बलाएँ लेती थी, बिलकुल पागल हो गयी थी। यह वही माधवी है जो अपने सर्वनाश का बदला लेने आयी थी। अपकार की जगह उपकार कर रही थी। विष पिलाने आयी थी, सुधा पिला रही थी। मनुष्य में देवता कितना प्रबल है ! 
प्रातःकाल का समय था। मिस्टर बागची शिशु के झूले के पास बैठे हुए थे। स्त्री के सिर में पीड़ा हो रही थी। वहीं चारपाई पर लेटी हुई थी और माधवी समीप बैठी बच्चे के लिए दूध गरम कर रही थी। सहसा बागची ने कहा- बूढ़ा, हम जब तक जियेंगे तुम्हारा यश गायेंगे। तुमने बच्चे को जिला लिया। 
स्त्री- यह देवी बनकर हमारा कष्ट निवारण करने के लिए आ गयी। यह न होती तो न-जाने क्या होता। बूढ़ा, तुमसे मेरी एक विनती है। यों तो मरना-जीना प्रारब्ध के हाथ है, लेकिन अपना-अपना पौरा भी बड़ी चीज है। मैं अभागिनी हूँ। अबकी तुम्हारे ही पुण्य-प्रताप से बच्चा सँभल गया। मुझे डर लग रहा है कि ईश्वर इसे हमारे हाथ से छीन न लें। सच कहती हूँ बूढ़ा, मुझे इसको गोद में लेते डर लगता है। इसे तुम आज से अपना बच्चा समझो। तुम्हारा होकर शायद बच जाय, हम अभागे हैं, हमारा होकर इस पर कोई-न-कोई संकट आता रहेगा। आज से तुम इसकी माता हो जाओ। तुम इसे अपने घर ले जाओ, जहाँ चाहे ले जाओ, तुम्हारी गोद में देकर मुझे फिर कोई चिंता न रहेगी। वास्तव में तुम्हीं इसकी माता हो, मैं तो राक्षसी हूँ। 
माधवी- बहूजी, भगवान् सब कुशल करेंगे, क्यों जी इतना छोटा करती हो ? 
मिस्टर बागची- नहीं-नहीं बूढ़ी माता, इसमें कोई हरज नहीं है। मैं मस्तिष्क से तो इन बातों को ढकोसला ही समझता हूँ; लेकिन हृदय से इन्हें दूर नहीं कर सकता। मुझे स्वयं मेरी माताजी ने एक धोबिन के हाथ बेच दिया था। मेरे तीन भाई मर चुके थे। मैं जो बच गया तो माँ-बाप ने समझा बेचने से ही इसकी जान बच गयी। तुम इस शिशु को पालो-पोसो। इसे अपना पुत्र समझो। खर्च हम बराबर देते रहेंगे। इसकी कोई चिंता मत करना। कभी-कभी जब हमारा जी चाहेगा, आकर देख लिया करेंगे। हमें विश्वास है कि तुम इसकी रक्षा हम लोगों से कहीं अच्छी तरह कर सकती हो। मैं कुकर्मी हूँ। जिस पेशे में हूँ, उसमें कुकर्म किये बगैर काम नहीं चल सकता। झूठी शहादतें बनानी ही पड़ती हैं, निरपराधों को फँसाना ही पड़ता है। आत्मा इतनी दुर्बल हो गयी है कि प्रलोभन में पड़ ही जाता हूँ। जानता हूँ कि बुराई का फल बुरा ही होता है; पर परिस्थिति से मजबूर हूँ। अगर न करूँ तो आज नालायक बनाकर निकाल दिया जाऊँ। अँग्रेज हजारों भूलें करें, कोई नहीं पूछता। हिंदुस्तानी एक भूल भी कर बैठे तो सारे अफसर उसके सिर हो जाते हैं। हिंदुस्तानियों को तो कोई बड़ा पद न मिले, वही अच्छा। पद पाकर तो उनकी आत्मा का पतन हो जाता है। उनको हिन्दुस्तानियत का दोष मिटाने के लिए कितनी ही ऐसी बातें करनी पड़ती हैं जिनका अंग्रेज के दिल में कभी खयाल ही पैदा नहीं हो सकता। तो बोलो, स्वीकार करती हो ? 
माधवी गद्गद होकर बोली- बाबूजी, आपकी इच्छा है तो मुझसे भी जो कुछ बन पड़ेगा, आपकी सेवा कर दूँगी। भगवान् बालक को अमर करें, मेरी तो उनसे यही विनती है। 
माधवी को ऐसा मालूम हो रहा था कि स्वर्ग के द्वार सामने खुले हैं और स्वर्ग की देवियाँ अंचल फैला-फैलाकर आशीर्वाद दे रही हैं, मानो उसके अंतस्तल में प्रकाश की लहरें-सी उठ रही हैं। इस स्नेहमय सेवा में कितनी शांति थी। 
बालक अभी तक चादर ओढ़े सो रहा था। माधवी ने दूध गरम हो जाने पर उसे झूले पर से उठाया, तो चिल्ला पड़ी। बालक की देह ठंडी हो गयी थी और मुँह पर पीलापन आ गया था जिसे देखकर कलेजा हिल जाता है, कंठ से आह निकल जाती है और आँखों से आँसू बहने लगते हैं। जिसने उसे एक बार देखा है फिर कभी नहीं भूल सकता। माधवी ने शिशु को गोद से चिपटा लिया, हालाँकि नीचे उतार देना चाहिए था। 
कुहराम मच गया। माँ बच्चे को गले से लगाये रोती थी; पर उसे जमीन पर न सुलाती थी। क्या बातें हो रही थीं और क्या हो गया। मौत को धोखा देने में आनंद आता है। वह उस वक्त कभी नहीं आती जब लोग उसकी राह देखते हैं। रोगी जब सँभल जाता है, जब वह पथ्य लेने लगता है, उठने-बैठने लगता है, घर-भर खुशियाँ मनाने लगता है, सबको विश्वास हो जाता है कि संकट टल गया, उस वक्त घात में बैठी हुई मौत सिर पर आ जाती है। यही उसकी निठुर लीला है। 
आशाओं के बाग लगाने में हम कितने कुशल हैं। यहाँ हम रक्त के बीज बोकर सुधा के फल खाते हैं। अग्नि से पौधों को सींचकर शीतल छाँह में बैठते हैं। हा, मंदबुद्धि ! 
दिन-भर मातम होता रहा; बाप रोता था, माँ तड़पती थी और माधवी बारी-बारी से दोनों को समझाती थी। यदि अपने प्राण देकर वह बालक को जिला सकती तो इस समय अपना धन्य भाग समझती। वह अहित का संकल्प करके यहाँ आयी थी और आज जब उसकी मनोकामना पूरी हो गयी और उसे खुशी से फूला न समाना चाहिए था, उसे उससे कहीं घोर पीड़ा हो रही थी जो अपने पुत्र की जेल-यात्रा से हुई थी। रुलाने आयी थी और खुद रोती जा रही थी। माता का हृदय दया का आगार है। उसे जलाओ तो उसमें दया की ही सुगंध निकलती है, पीसो तो दया का ही रस निकलता है। वह देवी है। विपत्ति की क्रूर लीलाएँ भी उस स्वच्छ निर्मल स्रोत को मलिन नहीं कर सकतीं।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 08 May 2020 at 7:39 PM -

कफ़न - मुंशी प्रेम चंद

Hindi Kahani हिंदी कहानी
Kafan - Munshi Premchand
कफ़न - मुंशी प्रेम चंद
1
झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ... ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।
घीसू ने कहा-मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ।
माधव चिढक़र बोला-मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ?
'तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!'
'तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।'
चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना काम-चोर था कि आध घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में मुठ्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढक़र लकडिय़ाँ तोड़ लाता और माधव बाजार से बेच लाता और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम की कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता। अगर दोनो साधु होते, तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिलकुल जरूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए जिये जाते थे। संसार की चिन्ताओं से मुक्त कर्ज से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई गम नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे देते थे। मटर, आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते या दस-पाँच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश-वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद-चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी खेत से खोद लाये थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जब से यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी। जब से वह आयी, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकडऩे भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निब्र्याज भाव से दुगुनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाए, तो आराम से सोयें।
घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा-जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!
माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला-मुझे वहाँ जाते डर लगता है।
'डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।'
'तो तुम्हीं जाकर देखो न?'
'मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं; और फिर मुझसे लजाएगी कि नहीं? जिसका कभी मुँह नहीं देखा, आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ! उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी!'
'मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!'
'सब कुछ आ जाएगा। भगवान् दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।'
जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहाँ उसकी मण्डली के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते! दोनों आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नहीं खाया था। इतना सब्र न था कि ठण्डा हो जाने दें। कई बार दोनों की जबानें जल गयीं। छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँच जाए। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी सामान थे। इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते। हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते।
घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताजी थी, बोला-वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लडक़ी वालों ने सबको भर पेट पूडिय़ाँ खिलाई थीं, सबको! छोटे-बड़े सबने पूडिय़ाँ खायीं और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज चाहो, माँगो, जितना चाहो, खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल सुवासित कचौडिय़ाँ डाल देते हैं। मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिये जाते हैं। और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी? खड़ा हुआ न जाता था। चटपट जाकर अपने कम्बल पर लेट गया। ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर!
माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मजा लेते हुए कहा-अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।
'अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। सादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ, खर्च में किफायत सूझती है!'
'तुमने एक बीस पूरियाँ खायी होंगी?'
'बीस से ज्यादा खायी थीं!'
'मैं पचास खा जाता!'
'पचास से कम मैंने न खायी होंगी। अच्छा पका था। तू तो मेरा आधा भी नहीं है।'
आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों।
और बुधिया अभी तक कराह रही थी।

2
सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टँगी हुई थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।
माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।
मगर ज्यादा रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न की और लकड़ी की फिक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोंसले में माँस?
बाप-बेटे रोते हुए गाँव के जमींदार के पास गये। वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा-क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखलाई भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।
घीसू ने जमीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा-सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ। माधव की घरवाली रात को गुजर गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक! तबाह हो गये। घर उजड़ गया। आपका गुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा। हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया। सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ।
जमींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहाँ से। यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड देने का अवसर न था। जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिए। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।
जब जमींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गाँव के बनिये-महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिये, किसी ने चारे आने। एक घण्टे में घीसू के पास पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी। कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी। और दोपहर को घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस-वाँस काटने लगे।
गाँव की नर्मदिल स्त्रियाँ आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।

बाज़ार में पहुँचकर घीसू बोला-लकड़ी तो उसे जलाने-भर को मिल गयी है, क्यों माधव!
माधव बोला-हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिए।
'तो चलो, कोई हलका-सा कफ़न ले लें।'
'हाँ, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी। रात को कफ़न कौन देखता है?'
'कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।'
'कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।'
'और क्या रखा रहता है? यही पाँच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।'
दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाजार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस बजाज की दूकान पर गये, कभी उसकी दूकान पर! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गयी। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे। और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये। वहाँ जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा-साहूजी, एक बोतल हमें भी देना।
उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे।
कई कुज्जियाँ ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गये।
घीसू बोला-कफ़न लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता।
माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो-दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाँभनों को हजारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!
'बड़े आदमियों के पास धन है, फ़ूँके। हमारे पास फूँकने को क्या है?'
'लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?'
घीसू हँसा-अबे, कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये। बहुत ढूँढ़ा, मिले नहीं। लोगों को विश्वास न आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे।
माधव भी हँसा-इस अनपेक्षित सौभाग्य पर। बोला-बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो खूब खिला-पिलाकर!
आधी बोतल से ज्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूडिय़ाँ मँगाई। चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दूकान थी। माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया। सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे।
दोनों इस वक्त इस शान में बैठे पूडिय़ाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फ़िक्र। इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था।
घीसू दार्शनिक भाव से बोला-हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा?
माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक़ की-जरूर-से-जरूर होगा। भगवान्, तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैकुण्ठ ले जाना। हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला वह कभी उम्र-भर न मिला था।
एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी। बोला-क्यों दादा, हम लोग भी एक-न-एक दिन वहाँ जाएँगे ही?
घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया। वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था।
'जो वहाँ हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?'
'कहेंगे तुम्हारा सिर!'
'पूछेगी तो जरूर!'
'तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!'
माधव को विश्वास न आया। बोला-कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो सेंदुर मैंने डाला था।
'कौन देगा, बताते क्यों नहीं?'
'वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया। हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएँगे।'
'ज्यों-ज्यों अँधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी। कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाये देता था।
वहाँ के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ यहाँ खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं।
और यह दोनों बाप-बेटे अब भी मजे ले-लेकर चुसकियाँ ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्य के बली हैं! पूरी बोतल बीच में है।
भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडिय़ों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था। और देने के गौरव, आनन्द और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया।
घीसू ने कहा-ले जा, खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आशीर्वाद उसे जरूर पहुँचेगा। रोयें-रोयें से आशीर्वाद दो, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं!
माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा-वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी।
घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला-हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?
श्रद्धालुता का यह रंग तुरन्त ही बदल गया। अस्थिरता नशे की खासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ।
माधव बोला-मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा। कितना दु:ख झेलकर मरी!
वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा। चीखें मार-मारकर।
घीसू ने समझाया-क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गयी, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिये।
और दोनों खड़े होकर गाने लगे-
'ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी।
पियक्कड़ों की आँखें इनकी ओर लगी हुई थीं और यह दोनों अपने दिल में मस्त गाये जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये। और आखिर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 07 May 2020 at 6:49 PM -

दिल की रानी - मुंशी प्रेम चंद

Hindi Kahani
हिंदी कहानी
Dil Ki Rani - Munshi Premchand

दिल की रानी - मुंशी प्रेम चंद

1
जिन वीर तुर्कों के प्रखर प्रताप से ईसाई-दुनिया काँप रही थी, उन्हीं का रक्त आज कुस्तुनतुनिया की गलियों में बह रहा है। वही कुस्तुनतुनिया जो सौ साल पहले तुर्कों के आतंक से ... आहत हो रहा था, आज उनके गर्म रक्त से अपना कलेजा ठंडा कर रहा है। और तुर्की सेनापति एक लाख सिपाहियों के साथ तैमूरी तेज के सामने अपनी किस्मत का फैसला सुनने के लिये खड़ा है। 
तैमूर ने विजय से भरी आँखें उठाई और सेनापति यजदानी की ओर देख कर सिंह के समान गरजा- क्या चाहते हो ज़िंदगी या मौत ? 
यजदानी ने गर्व से सिर उठाकार कहा- इज्जत की ज़िंदगी मिले तो ज़िंदगी, वरना मौत। 
तैमूर का क्रोध प्रचंड हो उठा। उसने बड़े-बड़े अभिमानियों का सिर नीचा कर दिया था। यह जबाब इस अवसर पर सुनने की उसे ताव न थी । इन एक लाख आदमियों की जान उसकी मुट्ठी में है। इन्हें वह एक क्षण में मसल सकता है। उस पर इतना अभिमान ! इज्जत की ज़िंदगी ! इसका यही तो अर्थ है कि ग़रीबों का जीवन अमीरों के भोग-विलास पर बलिदान किया जाय, वही शराब की मजलिसें, वही अरमीनिया और काफ की परियाँ। नहीं, तैमूर ने खलीफा बायजीद का घमंड इसलिये नहीं तोड़ा है कि तुर्कों को फिर उसी मदांध स्वाधीनता में इस्लाम का नाम डुबाने को छोड़ दे । तब उसे इतना रक्त बहाने की क्या ज़रूरत थी । मानव-रक्त का प्रवाह संगीत का प्रवाह नहीं, रस का प्रवाह नहीं- एक बीभत्स दृश्य है, जिसे देखकर आँखें मुँह फेर लेती हैं दृश्य सिर झुका लेता है। तैमूर हिंसक पशु नहीं है, जो यह दृश्य देखने के लिये अपने जीवन की बाज़ी लगा दे। 
वह अपने शब्दों में धिक्कार भरकर बोला- जिसे तुम इज्जत की ज़िंदगी कहते हो, वह गुनाह और जहन्नुम की ज़िंदगी है। 
यजदानी को तैमूर से दया या क्षमा की आशा न थी। उसकी या उसके योद्धाओं की जान किसी तरह नहीं बच सकती। फिर यह क्यों दबे और क्यों न जान पर खेलकर तैमूर के प्रति उसके मन में जो घृणा है, उसे प्रकट कर दे। उसने एक बार कातर नेत्रों से उस रूपवान युवक की ओर देखा, जो उसके पीछे खड़ा, जैसे अपनी जवानी की लगाम खींच रहा था। सान पर चढ़े हुए, इस्पात के समान उसके अंग-अंग से अतुल क्रोध की चिनगारियाँ निकल रही थीं। यजदानी ने उसकी सूरत देखी और जैसे अपनी खींची हुई तलवार म्यान में कर ली और ख़ून के घूँट पीकर बोला- जहाँपनाह इस वक्त फ़तहमंद हैं लेकिन अपराध क्षमा हो तो कह दूँ कि अपने जीवन के विषय में तुर्कों को तातारियों से उपदेश लेने की ज़रूरत नहीं। दुनिया से अलग, तातार के ऊसर मैदानों में न त्याग और व्रत की उपासना की जा सकती है और न मयस्सर होने वाले पदार्थों का बहिष्कार किया जा सकता है; पर जहाँ खुदा ने नेमतों की वर्षा की हो, वहाँ उन नेमतों का भोग न करना नाशुक्री है। अगर तलवार ही सभ्यता की सनद होती, तो गाल कौम रोमनों से कहीं ज़्यादा सभ्य होती। 
तैमूर ज़ोर से हँसा और उसके सिपाहियों ने तलवारों पर हाथ रख लिये। तैमूर का ठहाका मौत का ठहाका था या गिरनेवाले वज्र का तड़ाका । 
‘तातारवाले पशु हैं क्यों ?’ 
‘मैं यह नहीं कहता।’ 
तुम कहते हो, खुदा ने तुम्हें ऐश करने के लिये पैदा किया है। मैं कहता हूँ, यह कुफ्र है। खुदा ने इन्सान को बंदगी के लिये पैदा किया है और इसके ख़िलाफ़ जो कोई कुछ करता है, वह काफिर है, जहन्नुमी है। रसूलेपाक हमारी ज़िंदगी को पाक करने के लिये, हमें सच्चा इन्सान बनाने के लिये आये थे, हमें हराम की तालीम देने नहीं। तैमूर दुनिया को इस कुफ्र से पाक कर देने का बीड़ा उठा चुका है। रसूलेपाक के कदमों की कसम, मैं बेरहम नहीं हूँ जालिम नहीं हूँ, खूँख्वार नहीं हूँ, लेकिन कुफ्र की सज़ा मेरे ईमान में मौत के सिवा कुछ नहीं है। 
उसने तातारी सिपहसालार की तरफ कातिल नजरों से देखा और तत्क्षण एक देव-सा आदमी तलवार सौंतकर यजदानी के सिर पर आ पहुँचा। तातारी सेना भी तलवारें खींच-खींचकर तुर्की सेना पर टूट पड़ी और दम-के-दम में कितनी ही लाशें ज़मीन पर फड़कने लगीं। 


सहसा वही रूपवान युवक, जो यजदानी के पीछे खड़ा था, आगे बढ़कर तैमूर के सामने आया और जैसे मौत को अपनी दोनों बँधी हुई मुट्ठियों में मसलता हुआ बोला- ऐ अपने को मुसलमान कहने वाले बादशाह! क्या यही वह इस्लाम है,जिसकी तबलीग का तूने बीड़ा उठाया है ? इस्लाम की यही तालीम है कि तू उन बहादुरों का इस बेदर्दी से ख़ून बहाये, जिन्होंने इसके सिवा कोई गुनाह नहीं किया कि अपने खलीफा और मुल्क की हिमायत की। 
चारों तरफ सन्नाटा छा गया। एक युवक, जिसकी अभी मसें भी न भीगी थीं; तैमूर जैसे तेजस्वी बादशाह का इतने खुले हुए शब्दों में तिरस्कार करे और उसकी जबान तालू से न खिंचवा ली जाय ! सभी स्तंभित हो रहे थे और तैमूर सम्मोहित-सा बैठा , उस युवक की ओर ताक रहा था।
युवक ने तातारी सिपाहियों की तरफ, जिनके चेहरों पर कुतूहलमय प्रोत्साहन झलक रहा था, देखा और बोला- तू इन मुसलमानों को काफिर कहता है और समझता है कि तू इन्हें कत्ल‍ करके खुदा और इस्लाम की खिदमत कर रहा है ? मैं तुमसे पूछता हूँ, अगर वह लोग जो खुदा के सिवा और किसी के सामने सिजदा नहीं करते, जो रसूलेपाक को अपना रहबर समझते हैं, मुसलमान नहीं हैं तो कौन मुसलमान है ? मैं कहता हूँ, हम काफिर सही लेकिन तेरे तो हैं क्या इस्लाम जंजीरों में बंधे हुए कैदियों के कत्ल की इजाजत देता है? खुदा ने अगर तुझे ताकत दी है, अख्तियार दिया है तो क्या इसीलिये कि तू खुदा के बंदों का ख़ून बहाये ? क्या गुनाहगारों को कत्ल करके तू उन्हें सीधे रास्ते पर ले जायगा? तूने कितनी बेहरमी से सत्तर हज़ार बहादुर तुर्कों को धोखा देकर सुरंग से उड़वा दिया और उनके मासूम बच्चों और निरपराध स्त्रियों को अनाथ कर दिया, तूझे कुछ अनुमान है। क्या यही कारनामे हैं, जिन पर तू अपने मुसलमान होने का गर्व करता है। क्या इसी कत्ल, ख़ून और बहते दरिया से तू दुनिया में अपना नाम रोशन करेगा ? तूने तुर्कों के ख़ून बहते दरिया में अपने घोड़ों के सुम नहीं भिगाये हैं, बल्कि इस्लाम को जड़ से खोदकर फेंक दिया है। यह वीर तुर्कों का ही आत्मोत्सर्ग है, जिसने यूरोप में इस्लाम की तौहीद फैलाई। आज सोफिया के गिरजे में तूझे अल्लाहो अकबर की सदा सुनाई दे रही है, सारा यूरोप इस्लाम का स्वागत करने को तैयार है। क्या यह कारनामे इसी लायक़ हैं कि उनका यह इनाम मिले। इस खयाल को दिल से निकाल दे कि तू खूँरेजी से इस्लाम की खिदमत कर रहा है। एक दिन तुझे भी परवरदिगार के सामने अपने कर्मों का जवाब देना पड़ेगा और तेरा कोई उज्र न सुना जायगा; क्योंकि अगर तुझमें अब भी नेक और बद की तमीज बाकी है, तो अपने दिल से पूछ। तूने यह जिहाद खुदा की राह में किया या अपनी हविस के लिये और मैं जानता हूँ, तुझे जो जवाब मिलेगा, वह तेरी गर्दन शर्म से झुका देगा। 
खलीफा अभी सिर झुकाये ही था कि यजदानी ने काँपते हुए शब्दों में अर्ज की- जहाँपनाह, यह ग़ुलाम का लड़का है। इसके दिमाग में कुछ फितूर है। हुज़ूर इसकी गुस्ताखियों को मुआफ करें । मैं उसकी सज़ा झेलने को तैयार हूँ। 
तैमूर उस युवक के चेहरे की तरफ स्थिर नेत्रों से देख रहा था। आज जीवन में पहली बार उसे निर्भीक शब्दों को सुनने का अवसर मिला। उसके सामने बड़े-बड़े सेनापतियों, मंत्रियों और बादशाहों की जबान न खुलती थी। वह जो कुछ कहता था, वही क़ानून था, किसी को उसमें चूँ करने की ताकत न थी। उनकी खुशामदों ने उसकी अहमन्यता को आसमान पर चढ़ा दिया था। उसे विश्वास हो गया था कि खुदा ने इस्लाम को जगाने और सुधारने के लिये ही उसे दुनिया में भेजा है। उसने पैगंबरी का दावा तो नहीं किया, पर उसके मन में यह भावना दृढ़ हो गयी थी; इसलिये जब आज एक युवक ने प्राणों का मोह छोड़कर उसकी कीर्ति का परदा खोल दिया, तो उसकी चेतना जैसे जाग उठी। उसके मन में क्रोध और हिंसा की जगह श्रद्धा का उदय हुआ। उसकी आँखों का एक इशारा इस युवक की ज़िंदगी का चिराग गुल कर सकता था । उसकी संसार विजयिनी शक्ति के सामने यह दुधमुँहा बालक मानो अपने नन्हे-नन्हे हाथों से समुद्र के प्रवाह को रोकने के लिये खड़ा हो। कितना हास्यास्पद साहस था; पर उसके साथ ही कितना आत्म विश्वास से भरा हुआ। तैमूर को ऐसा जान पड़ा कि इस निहत्थे बालक के सामने वह कितना निर्बल है। मनुष्य मे ऐसे साहस का एक ही स्रोत हो सकता है और वह सत्य पर अटल विश्वास है। उसकी आत्मा दौड़कर उस युवक के दामन में चिमट जाने ‍के लिये अधीर हो गयी। वह दार्शनिक न था, जो सत्य में शंका करता है। वह सरल सैनिक था, जो असत्य‍ को भी विश्वास के साथ सत्य बना देता है। 
यजदानी ने उसी स्वर में कहा- जहाँपनाह, इसकी बदजबानी का खयाल न फरमावें। 
तैमूर ने तुरंत तख्त से उठकर यजदानी को गले से लगा लिया और बोला- काश, ऐसी गुस्ताखियों और बदजबानियों के सुनने का पहने इत्तफाक होता, तो आज इतने बेगुनाहों का ख़ून मेरी गर्दन पर न होता। मुझे इस जवान में किसी फरिश्ते की रूह का जलवा नजर आता है, जो मुझ जैसे गुमराहों को सच्चा रास्ता दिखाने के लिये भेजी गयी है। मेरे दोस्त, तुम खुशनसीब हो कि ऐसे फरिश्ता-सिफत बेटे के बाप हो। क्या मैं उसका नाम पूछ सकता हूँ। 
यजदानी पहले आतशपरस्त था, पीछे मुसलमान हो गया था; पर अभी तक कभी-कभी उसके मन में शंकाएँ उठती रहती थीं कि उसने क्यों इस्लाम कबूल किया। जो कैदी फाँसी के तख्ते पर खड़ा सूखा जा रहा था कि एक क्षण में रस्सी उसकी गर्दन में पड़ेगी और वह लटकता रह जायगा, उसे जैसे किसी फरिश्ते ने गोद में ले लिया। वह गद्‍गद्‍ कंठ से बोला- उसे हबीब कहते हैं। 
तैमूर ने युवक के सामने जाकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे आँखों से लगाता हुआ बोला- मेरे जवान दोस्त, तुम सचमुच खुदा के हबीब हो, मैं वह गुनाहगार हूँ, जिसने अपनी जहालत में हमेशा अपने गुनाहों को सवाब समझा, इसलिये कि मुझसे कहा जाता था, तेरी जात बेऐब है। आज मूझे यह मालूम हुआ कि मेरे हाथों इस्लाम को कितना नुकसान पहुँचा। आज से मैं तुम्हारा ही दामन पकड़ता हूँ। तुम्हीं मेरे खिज्र, तुम्हीं मेरे रहनुमा हो। मुझे यकीन हो गया कि तुम्हारे ही वसीले से मैं खुदा की दरगाह तक पहुँच सकता हूँ। 
यह कहते हुए उसने युवक के चेहरे पर नजर डाली, तो उस पर शर्म की लाली छायी हुई थी। उस कठोरता की जगह मधुर संकोच झलक रहा था। 
युवक ने सिर झुकाकर कहा- यह हुज़ूर की कदरदानी है, वरना मेरी क्या हस्ती है। 
तैमूर ने उसे खींचकर अपनी बगल के तख्त पर बिठा दिया और अपने सेनापति को हुक्म दिया, सारे तुर्क कैदी छोड़ दिये जायें उनके हथियार वापस कर दिये जायँ और जो माल लूटा गया है, वह सिपाहियों में बराबर बाँट दिया जाय। 
वजीर तो इधर इस हुक्म की तामील करने लगा, उधर तैमूर हबीब का हाथ पकड़े हुए अपने खेमे में गया और दोनों मेहमानों की दावत का प्रबंध करने लगा। और जब भोजन समाप्त हो गया, तो उसने अपने जीवन की सारी कथा रो-रोकर कह सुनाई, जो आदि से अंत तक मिश्रित पशुता और बर्बरता के कृत्यों से भरी हुई थी। और उसने यह सब कुछ इस भ्रम में किया कि वह ईश्वरीय आदेश का पालन कर रहा है। वह खुदा को कौन मुँह दिखायेगा। रोते-रोते उसकी हिचकियाँ बंध गयीं। 
अंत में उसने हबीब से कहा- मेरे जवान दोस्त अब मेरा बेड़ा आप ही पार लगा सकते हैं। आपने मुझे राह दिखाई है तो मंज़िल पर पहुँचाइए। मेरी बादशाहत को अब आप ही संभाल सकते हैं। मुझे अब मालूम हो गया कि मैं उसे तबाही के रास्ते पर लिये जाता था । मेरी आपसे यही इल्तज़ा (प्रार्थना) है कि आप उसकी वजारत कबूल करें। देखिये , खुदा के लिये इंकार न कीजिएगा, वरना मैं कहीं का नहीं रहूँगा। 
यजदानी ने अरज की- हुज़ूर इतनी कदरदानी फरमाते हैं, तो आपकी इनायत है, लेकिन अभी इस लड़के की उम्र ही क्या है। वजारत की खिदमत यह क्या अंजाम दे सकेगा । अभी तो इसकी तालीम के दिन हैं। 
इधर से इंकार होता रहा और उधर तैमूर आग्रह करता रहा। यजदानी इंकार तो कर रहे थे, पर छाती फूली जाती थी । मूसा आग लेने गये थे, पैगंबरी मिल गयी। कहाँ मौत के मुँह में जा रहे थे, वजारत मिल गयी, लेकिन यह शंका भी थी कि ऐसे अस्थिर-चित्त आदमी का क्या ठिकाना ? आज खुश हुए, वजारत देने को तैयार हैं, कल नाराज़ हो गये तो जान की खैरियत नहीं। उन्हें हबीब की लियाकत पर भरोसा था, फिर भी जी डरता था कि बिराने देश में न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े। दरबारवालों में षड्‍यंत्र होते ही रहते हैं। हबीब नेक है, समझदार है, अवसर पहचानता है; लेकिन वह तजरबा कहाँ से लायेगा, जो उम्र ही से आता है। 
उन्होंने इस प्रश्न पर विचार करने के लिये एक दिन की मुहलत माँगी और रुखसत हुए। 


हबीब यजदानी का लड़का नहीं लड़की थी। उसका नाम उम्म तुल हबीब था। जिस वक्त यजदानी और उसकी पत्नी मुसलमान हुए, तो लड़की की उम्र कुल बारह साल की थी, पर प्रकृति ने उसे बुद्धि और प्रतिभा के साथ विचार-स्वातंत्र्य भी प्रदान किया था। वह जब तक सत्यासत्य की परीक्षा न कर लेती, कोई बात स्वीकार न करती। माँ-बाप के धर्म-परिवर्तन से उसे अशांति तो हुई, पर जब तक इस्लाम का अच्छी तरह अध्ययन न कर ले, वह केवल माँ-बाप को खुश करने के लिये इस्लाम की दीक्षा नहीं ले सकती थी। माँ-बाप भी उस पर किसी तरह का दबाब न डालना चाहते थे। जैसे उन्हें अपने धर्म को बदल देने का अधिकार है, वैसे ही उसे अपने धर्म पर आरूढ़ रहने का भी अधिकार है। लड़की को संतोष हुआ; लेकिन उसने इस्लाम और जरथुश्ते धर्म- दोनों ही का तुलनात्मक अध्ययन आरंभ किया और पूरे दो साल के अन्वेषण और परीक्षण के बाद उसने भी इस्लाम की दीक्षा ले ली। माता-पिता फूले न समाये। लड़की उनके दबाव से मुसलमान नहीं हुई है, बल्कि स्वेच्छा से, स्वाध्याय से और ईमान से। दो साल तक उन्हें जो शंका घेरे रहती थी , वह मिट गयी। 
यजदानी के कोई पुत्र न था और उस युग में जब कि आदमी की तलवार ही सबसे बड़ी अदालत थी, पुत्र का न रहना संसार का सबसे बड़ा दुर्भाग्य था। यजदानी बेटे का अरमान बेटी से पूरा करने लगा। लड़कों ही की भाँति उसकी शिक्षा-दीक्षा होने लगी। वह बालकों के से कपड़े पहनती, घोड़े पर सवार होती, शस्त्र -विद्या सीखती और अपने बाप के साथ अक्सर खलीफा बायजीद के महलों में जाती और राजकुमारी के साथ शिकार खेलने जाती। इसके साथ ही वह दर्शन, काव्य, विज्ञान और अध्यात्म का भी अभ्यास करती थी। यहाँ तक कि सोलहवें वर्ष में वह फ़ौजी विद्यालय में दाखिल हो गयी और दो साल के अंदर वहाँ की सबसे ऊँची परीक्षा पास करके फ़ौज में नौकर हो गयी। शस्त्र -विद्या और सेना-संचालन कला में इतनी निपुण थी और खलीफा बायजीद उसके चरित्र से इतना प्रसन्न था कि पहले ही पहल उसे एक हजारी मनसब मिल गया । 
ऐसी युवती के चाहनेवालों की क्या कमी। उसके साथ के कितने ही अफसर, राज परिवार के कितने ही युवक उस पर प्राण देते थे , पर कोई उसकी नजरों में न जँचता था । नित्य ही निकाह के पैग़ाम आते थे , पर वह हमेशा इंकार कर देती थी। वैवाहिक जीवन ही से उसे अरुचि थी- कि युवतियाँ कितने अरमानों से ब्याह कर लायी जाती हैं और फिर कितने निरादर से महलों में बंद कर दी जाती है। उनका भाग्य पुरुषों की दया के अधीन है। अक्सर ऊँचे घरानों की महिलाओं से उसको मिलने-जुलने का अवसर मिलता था। उनके मुख से उनकी करूण कथा सुनकर वह वैवाहिक पराधीनता से और भी घृणा करने लगती थी। और यजदानी उसकी स्वाधीनता में बिलकुल बाधा न देता था। लड़की स्वाधीन है, उसकी इच्छा हो, विवाह करे या क्‍वाँरी रहे, वह अपनी आप मुखतार है। उसके पास पैग़ाम आते, तो वह साफ़ जवाब दे देता– मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता, इसका फैसला वही करेगी। यद्यपि एक युवती का पुरुष वेष में रहना, युवकों से मिलना-जुलना , समाज में आलोचना का विषय था, पर यजदानी और उसकी स्त्री दोनों ही को उसके सतीत्व पर विश्वास था, हबी‍ब के व्यवहार और आचार में उन्हें कोई ऐसी बात नजर न आती थी, जिससे उन्हें किसी तरह की शंका होती। यौवन की आँधी और लालसाओं के तूफ़ान में वह चौबीस वर्षों की वीरबाला अपने हृदय की संपति लिये अटल और अजेय खड़ी थी , मानों सभी युवक उसके सगे भाई हैं। 


कुस्तुनतुनिया में कितनी खुशियाँ मनायी गयीं, हबीब का कितना सम्मान और स्वागत हुआ, उसे कितनी बधाइयाँ मिली, यह सब लिखने की बात नहीं। शहर तबाह हुआ जाता था। संभव था आज उसके महलों और बाज़ारों से आग की लपटें निकलती होतीं। राज्य और नगर को उस कल्पनातीत विपत्ति से बचानेवाला आदमी कितने आदर, प्रेम श्रद्धा और उल्लस का पात्र होगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती । उस पर कितने फूलों और कितने लाल-जवाहरों की वर्षा हुई, इसका अनुमान तो कोई ‍कवि ही कर सकता है। और नगर की महिलाएँ हृदय के अक्षय भंडार से असीसें निकाल- निकालकर उस पर लुटाती थी और गर्व से फूली हुई उसका मुँह निहारकर अपने को धन्य मानती थीं । उसने देवियों का मस्तक ऊँचा कर दिया था। 
रात को तैमूर के प्रस्‍ताव पर विचार होने लगा। सामने गद्देदार कुर्सी पर यजदानी था- सौम्य, विशाल और तेजस्वी। उसकी दाहिनी तरफ उसकी पत्नी थी, ईरानी लिबास में, आँखों में दया और विश्वास की ज्योति भरे हुए। बायीं तरफ उम्मुतुल हबीब थी, जो इस समय रमणी-वेष में मोहिनी बनी हुई थी, ब्रह्मचर्य के तेज से दीप्त। 
यजदानी ने प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा– मैं अपनी तरफ से कुछ नहीं कहना चाहता , लेकिन यदि मुझे सलाह देने का अधिकार है, तो मैं स्पष्ट कहता हूँ कि तुम्हें इस प्रस्ताव को कभी स्वीकार न करना चाहिए , तैमूर से यह बात बहुत दिन तक छिपी नहीं रह सकती कि तुम क्या हो। उस वक्त क्या परिस्थिति होगी , मैं नहीं कह सकता। और यहाँ इस विषय में जो कुछ टीकाएँ होंगी, वह तुम मुझसे ज़्यादा जानती हो। यहाँ मै मौजूद था और कुत्सा को मुँह न खोलने देता था पर वहाँ तुम अकेली रहोगी और कुत्सा को मनमाने, आरोप करने का अवसर मिलता रहेगा। 
उसकी पत्नी स्वेच्छा को इतना महत्व न देना चाहती थी । बोली– मैंने सुना है, तैमूर निगाहों का अच्छा आदमी नहीं है। मैं किसी तरह तुझे न जाने दूगीं। कोई बात हो जाय तो सारी दुनिया हँसे। यों ही हँसनेवाले क्या कम हैं ? 
इसी तरह स्त्री-पुरुष बड़ी देर तक ऊँच–नीच सुझाते और तरह-तरह की शंकाएँ करते रहे लेकिन हबीब मौन साधे बैठी हुई थी। यजदानी ने समझा, हबीब भी उनसे सहमत है। इंकार की सूचना देने के लिये ही था कि ‍हबीब ने पूछा– आप तैमूर से क्या़ कहेंगे ? 
‘यही जो यहाँ तय हुआ।’ 
‘मैंने तो अभी कुछ नहीं कहा।’ 
‘मैंने तो समझा , तुम भी हमसे सहमत हो।’ 
‘जी नहीं। आप उनसे जाकर कह दें मै स्वीकार करती हूँ।’ 
माता ने छाती पर हाथ रखकर कहा- यह क्या गजब करती है बेटी। सोच तो दुनिया क्या कहेगी। 
यजदानी भी सिर थामकर बैठ गये , मानो हृदय में गोली लग गयी हो। मुँह से एक शब्द भी न निकला। 
हबीब त्योरियों पर बल डालकर बोली- अम्मीजान , मैं आपके हुक्म से जौ-भर भी मुँह नहीं फेरना चाहती। आपको पूरा अख्तियार है, मुझे जाने दें या न दें लेकिन मुल्क की खिदमत का ऐसा मौक़ा शायद मुझे ज़िंदगी में फिर न मिले। इस मौके को हाथ से खो देने का अफ़सोस मुझे उम्र-भर रहेगा । मुझे यकीन है कि अमीर तैमूर को मैं अपनी दियानत, बेगरजी और सच्ची वफ़ादारी से इन्सान बना सकती हूँ और शायद उसके हाथों खुदा के बंदो का ख़ून इतनी कसरत से न बहे। वह दिलेर है, मगर बेरहम नहीं । कोई दिलेर आदमी बेरहम नहीं हो सकता । उसने अब तक जो कुछ किया है, मज़हब के अंधे जोश में किया है। आज खुदा ने मुझे वह मौक़ा दिया है कि मैं उसे दिखा दूँ कि मज़हब खिदमत का नाम है, लूट और कत्ल का नहीं। अपने बारे में मुझे मुतलक अंदेशा नहीं है। मै अपनी हिफाजत आप कर सकती हूँ । मुझे दावा है कि अपने फर्ज को नेकनीयती से अदा करके मैं दुश्मनों की जुबान भी बंद कर सकती हूँ, और मान लीजिए मुझे नाकामी भी हो, तो क्या सचाई और हक के लिये कुर्बान हो जाना ज़िंदगीं की सबसे शानदार फ़तह नहीं है। अब तक मैंने जिस उसूल पर ज़िंदगी बसर की है, उसने मुझे धोखा नहीं दिया और उसी के फैज से आज मुझे यह दर्जा हासिल हुआ है, जो बड़े-बड़ो के लिये ज़िंदगी का ख्वाब है। मेरे आजमाये हुए दोस्त मुझे कभी धोखा नहीं दे सकते । तैमूर पर मेरी हकीकत खुल भी जाय, तो क्या खौफ । मेरी तलवार मेरी हिफाजत कर सकती है। शादी पर मेरे खयाल आपको मालूम हैं। अगर मुझे कोई ऐसा आदमी मिलेगा, जिसे मेरी रूह कबूल करती हो, जिसकी जात अपनी हस्तीक को खोकर मैं अपनी रूह को ऊँचा उठा सकूँ, तो मैं उसके कदमों पर गिरकर अपने को उसकी नजर कर दूगीं। 
यजदानी ने खुश होकर बेटी को गले लगा लिया । उसकी स्त्री इतनी जल्द आश्वस्त न हो सकी। वह किसी तरह बेटी को अकेली न छोड़ेगी । उसके साथ वह भी जायगी। 


कई महीने गुजर गये। युवक हबीब तैमूर का वजीर है, लेकिन वास्तव में वही बादशाह है। तैमूर उसी की आँखों से देखता है, उसी के कानों से सुनता है और उसी की अक्ल से सोचता है। वह चाहता है, हबीब आठों पहर उसके पास रहे। उसके सामीप्य में उसे स्वर्ग का-सा सुख मिलता है। समरकंद में एक प्राणी भी ऐसा नहीं, जो उससे जलता हो। उसके बर्ताव ने सभी को मुग्ध‍ कर लिया है, क्योंकि वह इन्साफ से जौ-भर भी क़दम नहीं हटाता। जो लोग उसके हाथों चलती हुई न्याय की चक्की में पिस जाते हैं, वे भी उससे सद्‍भाव ही रखते हैं, क्योंकि वह न्याय को ज़रूरत से ज़्यादा कटु नहीं होने देता। 
संध्या हो गयी थी। राज्य कर्मचारी जा चुके थे । शमादान में मोम की बत्तियाँ जल रही थीं। अगर की सुगंध से सारा दीवानखाना महक रहा था। हबीब उठने ही को था कि चोबदार ने खबर दी- हुज़ूर जहाँपनाह तशरीफ ला रहे हैं। 
हबीब इस खबर से कुछ प्रसन्न नहीं हुआ। अन्य मंत्रियों की भाँति वह तैमूर की सोहबत का भूखा नहीं है। वह हमेशा तैमूर से दूर रहने की चेष्टा करता है। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि उसने शाही दस्तरखान पर भोजन किया हो। तैमूर की मजलिसों में भी वह कभी शरीक नहीं होता। उसे जब शांति मिलती है, तब एकांत में अपनी माता के पास बैठकर दिन-भर का माजरा उससे कहता है और वह उस पर अपनी पसंद की मुहर लगा देती है। 
उसने द्वार पर जाकर तैमूर का स्वागत किया। तैमूर ने मसनद पर बैठते हुए कहा- मुझे ताज्जुब होता है कि तुम इस जवानी में जाहिदों की-सी ज़िंदगी कैसे बसर करते हो ‍हबीब । खुदा ने तुम्हें वह हुस्न दिया है कि हसीन-से-हसीन नाजनीन भी तुम्हारी माशूक बनकर अपने को खुशनसीब समझेगी। मालूम नहीं तुम्हें खबर है या नहीं, जब तुम अपने मुश्की घोड़े पर सवार होकर निकलते हो तो समरकंद की खिड़कियों पर हजारों आँखें तुम्हारी एक झलक देखने के लिये मुंतजिर बैठी रहती हैं, पर तुम्हें किसी तरफ आँखें उठाते नहीं देखा । मेरा खुदा गवाह है, मै कितना चाहता हूँ कि तुम्हारे कदमों के नक्शे पर चलूँ; पर दुनिया मेरी गर्दन नहीं छोड़ती। मैं चाहता हूँ जैसे तुम दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग रहते हो , वैसे मैं भी रहूँ लेकिन मेरे पास न वह दिल है न वह दिमाग । मैं हमेशा अपने-आप पर, सारी दुनिया पर दाँत पीसता रहता हूँ। जैसे मुझे हरदम ख़ून की प्यास लगी रहती है, जिसे तुम बुझने नहीं देते , और यह जानते हुए भी कि तुम जो कुछ करते हो, उससे बेहतर कोई दूसरा नहीं कर सकता , मैं अपने गुस्से को काबू में नहीं कर सकता । तुम जिधर से निकलते हो, मुहब्‍बत और रोशनी फैला देते हो। जिसको तुम्हारा दुश्मन होना चाहिए , वह तुम्हारा दोस्त है। मैं जिधर से निकलता हूँ नफरत और शुबहा फैलाता हुआ निकलता हूँ। जिसे मेरा दोस्त होना चाहिए वह भी मेरा दुश्मन है। दुनिया में बस एक ही जगह है, जहाँ मुझे आफियत मिलती है। अगर तुम मुझे समझते हो, यह ताज और तख्त मेरे रास्ते के रोड़े है, तो खुदा की कसम, मैं आज इन पर लात मार दूँ। मैं आज तुम्हारे पास यही दरख्वास्त लेकर आया हूँ कि तुम मुझे वह रास्ता दिखाओ , जिससे मै सच्ची खुशी पा सकूँ । मै चाहता हूँ , तुम इसी महल में रहो ताकि मैं तुमसे सच्ची ज़िंदगी का सबक सीखूँ। 
हबीब का हृदय धक से हो उठा । कहीं अमीर पर नारीत्व का रहस्य खुल तो नहीं गया। उसकी समझ में न आया कि उसे क्या जवाब दे। उसका कोमल हृदय तैमूर की इस करूण आत्मग्लानि पर द्रवित हो गया । जिसके नाम से दुनिया काँपती है, वह उसके सामने एक दयनीय प्राणी बना हुआ उससे प्रकाश की भीक्षा माँग रहा है। तैमूर की उस कठोर विकृत शुष्क हिंसात्मक मुद्रा में उसे एक स्निग्ध मधुर ज्योति दिखाई दी, मानो उसका जाग्रत विवेक भीतर से झाँक रहा हो। उसे अपना स्थिर ‍जीवन, जिसमें ऊपर उठने की स्मृति ही न रही थी, इस विफल उद्योग के सामने तुच्छ जान पड़ा।
उसने मुग्ध कंठ से कहा- हजूर इस ग़ुलाम की इतनी कद्र करते है, यह मेरी खुशनसीबी है, लेकिन मेरा शाही महल में रहना मुनासिब नहीं । 
तैमूर ने पूछा– क्यों 
‘इसलिये कि जहाँ दौलत ज़्यादा होती है, वहाँ डाके पड़ते हैं और जहाँ कद्र ज़्यादा होती है , वहाँ दुश्मन भी ज़्यादा होते है।’ 
‘तुम्हारा भी कोई दुश्मन हो सकता है।’ 
‘मै खुद अपना दुश्मन हो जाऊँगा। आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है।’ 
तैमूर को जैसे कोई रत्न मिल गया। उसे अपनी मनःतुष्टि का आभास हुआ। आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है इस वाक्य को मन-ही-मन दोहरा कर उसने कहा- तुम मेरे काबू में कभी न आओगे हबीब। तुम वह परिंदा हो, जो आसमान में ही उड़ सकता है। उसे सोने के पिंजड़े में भी रखना चाहो तो फड़फड़ाता रहेगा। खैर, खुदा हाफिज। 
वह तुरंत अपने महल की ओर चला, मानो उस रत्न को सुरक्षित स्थान में रख देना चाहता हो। यह वाक्य पहली बार उसने न सुना था पर आज इससे जो ज्ञान, जो आदेश जो सत्प्रेरणा उसे मिली, वह कभी न मिली थी। 


इस्तखर के इलाके से बगावत की खबर आयी है। हबीब को शंका है कि तैमूर वहाँ पहुँचकर कहीं कत्लेआम न कर दे। वह शांतिमय उपायों से इस विद्रोह को ठंडा करके तैमूर को दिखाना चाहता है कि सद्‍भावना में कितनी शक्ति है। तैमूर उसे इस मुहिम पर नहीं भेजना चाहता लेकिन हबीब के आग्रह के सामने ‍बेबस है। हबीब को जब और कोई युक्ति न सूझी तो उसने कहा- ग़ुलाम के रहते हुए हुज़ूर अपनी जान खतरे में डालें यह नहीं हो सकता । 
तैमूर मुस्कराया- मेरी जान की तुम्हारी जान के मुकाबले में कोई हकीकत नहीं है हबी‍ब ।फिर मैंने तो कभी जान की परवाह न की। मैंने दुनिया में कत्ल और लूट के सिवा और क्या यादगार छोड़ी। मेरे मर जाने पर दुनिया मेरे नाम को रोयेगी नहीं, यकीन मानो। मेरे जैसे लुटेरे हमेशा पैदा होते रहेंगे , लेकिन खुदा न करे, तुम्हारे दुश्मनों को कुछ हो गया, तो यह सल्तनत खाक में मिल जायगी, और तब मुझे भी सीने में खंजर चुभा लेने के सिवा और कोई रास्ता न रहेगा। मै नहीं कह सकता हबीब तुमसे मैंने कितना पाया। काश, दस-पाँच साल पहले तुम मुझे मिल जाते, तो तैमूर तारीख में इतना रूसियाह न होता। आज अगर ज़रूरत पड़े, तो मैं अपने जैसे सौ तैमूरों को तुम्हारे ऊपर निसार कर दूँ । यही समझ लो कि मेरी रूह‍ को अपने साथ लिये जा रहे हो। आज मै तुमसे कहता हूँ हबीब कि मुझे तुमसे इश्क है इसे मैं अब जान पाया हूँ । मगर इसमें क्या बुराई है कि मै भी तुम्हारे साथ चलूँ। 
हबीब ने धड़कते हुए हृदय से कहा- अगर मैं आपकी ज़रूरत समझूँगा तो इत्तला दूंगा। 
तैमूर ने दाढ़ी पर हाथ रखकर कहा- जैसी तुम्हारी मर्जी लेकिन रोजाना कासिद भेजते रहना, वरना शायद मैं बेचैन होकर चला आऊँ। 
तैमूर ने कितनी मुहब्बत से हबीब के सफर की तैयारियाँ की। तरह-तरह के आराम और तकल्लुफ की चीज़ें उसके लिये जमा कीं। उस कोहिस्तान में यह चीज़ें कहाँ मिलेंगी। वह ऐसा संलग्न था, मानों माता अपनी लड़की को ससुराल भेज रही हो। 
जिस वक्त हबीब फ़ौज के साथ चला, तो सारा समरकंद उसके साथ था और तैमूर आँखों पर रूमाल रखे, अपने तख्त पर ऐसा सिर झुकाये बैठा था, मानो कोई पक्षी आहत हो गया हो। 


इस्तखर अरमनी ईसाईयों का इलाका था, मुसलमानों ने उन्हें परास्त करके वहाँ अपना अधिकार जमा लिया था और ऐसे नियम बना दिये थे, जिससे ईसाइयों को पग-पग अपनी पराधीनता का स्मरण होता रहता था। पहला नियम जजिए का था, जो हरेक ईसाई को देना पड़ता ‍था, जिससे मुसलमान मुक्त थे। दूसरा नियम यह था कि गिरजों में घंटा न बजे। तीसरा नियम मदिरा का था, जिसे मुसलमान हराम समझते थे। ईसाईयों ने इन नियमों का क्रियात्मक विरोध किया और जब मुसलमान अधिकारियों ने शस्त्र-बल से काम लेना चाहा, तो ईसाइयों ने बगावत कर दी, मुसलमान सूबेदार को कैद कर लिया और किले पर सलीबी झंडा उड़ने लगा। 
हबीब को यहाँ आज दूसरा दिन है; पर इस समस्या को कैसे हल करे। उसका उदार हृदय कहता था, ईसाइयों पर इन बंधनों का कोई अर्थ नहीं । हरेक धर्म का समान रूप से आदर होना चाहिए , लेकिन मुसलमान इन कैदों को हटा देने पर कभी राजी न होगें। और यह लोग मान भी जाएँ तो तैमूर क्यों मानने लगा। उसके धार्मिक विचारों में कुछ उदारता आई है, फिर भी वह इन कैदों को उठाना कभी मंजूर न करेगा, लेकिन क्या वह ईसाइयों को सज़ा दे कि वे अपनी धार्मिक स्वाधीनता के लिये लड़ रहे हैं। जिसे वह सत्य समझता है, उसकी हत्या कैसे करे। नहीं, उसे सत्य का पालन करना होगा, चाहे इसका नतीजा कुछ भी हो। अमीर समझेगें मैं ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ा जा रहा हूँ। कोई मुजायका नहीं। 
दूसरे दिन हबीब ने प्रातःकाल डंके की चोट ऐलान कराया- जजिया माफ किया गया, शराब और घंटों पर कोई कैद नहीं है। 
मुसलमानों में तहलका पड़ गया। यह कुफ्र है, हरामपरस्ती है। अमीर तैमूर ने जिस इस्लाम को अपने ख़ून से सींचा, उसकी जड़ उन्हीं के वजीर हबीब पाशा के हाथों खुद रही है। पाँसा पलट गया। शाही फ़ौज मुसलमानों से जा मिली। हबीब ने इस्तीखर के किले में पनाह ली। मुसलमानों की ताकत शाही फ़ौज के मिल जाने से बहुत बढ़ गयी थी। उन्होंने किला घेर लिया और यह समझकर कि हबीब ने तैमूर से बगावत की है, तैमूर के पास इसकी सूचना देने और परिस्थिति समझाने के लिये कासिद भेजा। 


आधी रात गुजर चुकी थी। तैमूर को दो दिनों से इस्तखर की कोई खबर न मिली थी। तरह-तरह की शंकाएँ हो रही थीं। मन में पछतावा हो रहा था कि उसने क्यों हबीब को अकेला जाने दिया । माना कि वह बड़ा नीतिकुशल है , ‍पर बगावत कहीं ज़ोर पकड़ गयी तो मुट्ठी-भर आदमियों से वह क्या कर सकेगा । और बगावत यकीनन ज़ोर पकड़ेगी । वहाँ के ईसाई बला के सरकश है। जब उन्हें मालूम होगा कि तैमूर की तलवार में जंग लग गया और उसे अब महलों की ज़िंदगी पसंद है, तो उनकी हिम्मत दूनी हो जायगी। हबीब कहीं दुश्मनों से घिर गया, तो बड़ा गजब हो जायगा। 
उसने अपने जानू पर हाथ मारा और पहलू बदलकर अपने ऊपर झुँझलाया । वह इतना पस्तहिम्मात क्यों हो गया। क्या उसका तेज और शौर्य उससे विदा हो गया । जिसका नाम सुनकर दुश्मान में कंपन पड़ जाता था, वह आज अपना मुँह छिपाकर महलों में बैठा हुआ है। दुनिया की आँखों में इसका यही अर्थ हो सकता है कि तैमूर अब मैदान का शेर नहीं , कालीन का शेर हो गया । हबीब फरिश्ता है, जो इन्सा न की बुराइयों से वाकिफ नहीं। जो रहम और साफदिली और बेगरजी का देवता है, वह क्या जाने इन्सान कितना शैतान हो सकता है । अमन के दिनों में तो ये बातें कौम और मुल्क को तरक़्क़ी के रास्ते पर ले जाती हैं पर जंग में , जबकि शैतानी जोश का तू्फान उठता है इन खुशियों की गुंजाइश नहीं । उस वक्त तो उसी की जीत होती है , जो इन्सानी ख़ून का रंग खेले, खेतों-खलिहानों को जलाये , जंगलों को बसाये और बस्तियों को वीरान करे। अमन का क़ानून जंग के क़ानून से जुदा है। 
सहसा चोबदार ने इस्तखर से एक कासिद के आने की खबर दी। कासिद ने ज़मीन चूमी और एक किनारे अदब से खड़ा हो गया। तैमूर का रोब ऐसा छा गया कि जो कुछ कहने आया था, वह भूल गया। 
तैमूर ने त्योरियाँ चढ़ाकर पूछा- क्या खबर लाया है। तीन दिन के बाद आया भी तो इतनी रात गये।
कासिद ने फिर ज़मीन चूमी और बोला- खुदाबंद वजीर साहब ने जजिया मुआफ कर दिया । 
तैमूर गरज उठा- क्या कहता है, जजिया माफ कर दिया। 
‘हाँ खुदाबंद।’ 
‘किसने।’ 
‘वजीर साहब ने।’ 
‘किसके हुक्म से।’ 
‘अपने हुक्म से हुज़ूर।’ 
‘हूँ।’ 
‘और हुज़ूर , शराब का भी हुक्म दे दिया।’ 
‘हूँ।’ 
‘गिरजों में घंटे बजाने का भी हुक्म हो गया है।’ 
‘हूँ।’ 
‘और खुदाबंद ईसाइयों से मिलकर मुसलमानों पर हमला कर दिया।’ 
‘तो मै क्या करूँ ?’ 
‘हुज़ूर हमारे मालिक हैं। अगर हमारी कुछ मदद न हुई तो वहाँ एक मुसलमान भी जिंदा न बचेगा।’ 
‘हबीब पाशा इस वक्त कहाँ है।’ 
‘इस्तखर के किले में हुज़ूर।’ 
‘और मुसलमान क्या कर रहे हैं।’ 
‘हमने ईसाइयों को किले में घेर लिया है।’ 
‘उन्हींस के साथ हबीब को भी ?’ 
‘हाँ हुज़ूर , वह हुज़ूर से बागी हो गये।’ 
और इसलिये मेरे वफ़ादार इस्लाम के खादिमों ने उन्हें कैद कर रखा है। मुमकिन है, मेरे पहुँचते-पहुँचते उन्हें कत्ल भी कर दें। बदजात, दूर हो जा मेरे सामने से। मुसलमान समझते है, हबीब मेरा नौकर है और मै उसका आका हूँ। यह ग़लत है, झूठ है। इस सल्तनत का मालिक हबीब है, तैमूर उसका अदना ग़ुलाम है। उसके फैसले में तैमूर दस्तंदाजी नहीं कर सकता । बेशक जजिया मुआफ होना चाहिए। मुझे मजाज नहीं कि दूसरे मज़हब वालों से उनके ईमान का तावान लूँ। कोई मजाज नहीं है; अगर मस्जिद में अजान होती है, तो कलीसा में घंटा क्यों बजे। घंटे की आवाज़ में कुफ्र नहीं है। काफिर वह है, जा दूसरों का हक छीन ले जो ग़रीबों को सताये, दगाबाज हो, खुदगरज हो। काफिर वह नहीं, जो मिट्टी या पत्थर के एक टुकड़े में खुदा का नूर देखता हो, जो नदियों और पहाड़ों मे, दरख्तों और झाड़ियों में खुदा का जलवा पाता हो। वह हमसे और तुमसे ज्याकदा खुदापरस्त है, जो मस्जिद में खुदा को बंद समझते हैं। तू समझता है, मैं कुफ्र बक रहा हूँ ? किसी को काफिर समझना ही कुफ्र है। हम सब खुदा के बंदे हैं, सब । बस जा और उन बागी मुसलमानों से कह दे, अगर फौरन मुहासरा न उठा लिया गया, तो तैमूर कयामत की तरह आ पहुँचेगा। 
कासिद हतबुद्धि–सा खड़ा ही था कि बाहर खतरे का बिगुल बज उठा और फ़ौजें किसी समर-यात्रा की तैयारी करने लगीं। 


तीसरे दिन तैमूर इस्तखर पहुँचा, तो किले का मुहासरा उठ चुका था। किले की तोपों ने उसका स्वागत किया। हबीब ने समझा, तैमूर ईसाइयों को सज़ा देने आ रहा है। ईसाइयों के हाथ-पाँव फूले हुए थे , मगर हबीब मुकाबले के लिये ‍तैयार था। ईसाइयों के स्वप्न की रक्षा में यदि जान भी जाय, तो कोई गम नहीं। इस मुआमले पर किसी तरह का समझौता नहीं हो सकता। तैमूर अगर तलवार से काम लेना चाहता है, तो उसका जवाब तलवार से दिया जायगा। 
मगर यह क्या बात है। शाही फ़ौज सफेद झंडा दिखा रही है। तैमूर लड़ने नहीं सुलह करने आया है। उसका स्वागत दूसरी तरह का होगा। ईसाई सरदारों को साथ लिये हबीब किले के बाहर निकला। तैमूर अकेला घोड़े पर सवार चला आ रहा था। हबीब घोड़े से उतरकर आदाब बजा लाया। तैमूर घोड़े से उतर पड़ा और हबीब का माथा चूम लिया और बोला- मैं सब सुन चुका हूँ हबीब। तुमने बहुत अच्छा किया और वही किया जो तुम्हारे सिवा दूसरा नहीं कर सकता था। मुझे जजिया लेने का या ईसाइयों से मज़हबी हक छीनने का कोई मजाज न था। मै आज दरबार करके इन बातों की तसदीक कर दूँगा और तब मैं एक ऐसी तजवीज बताऊँगा जो कई दिन से मेरे जेहन में आ रही है और मुझे उम्‍मीद है कि तुम उसे मंजूर कर लोगे। मंजूर करना पड़ेगा। 
हबीब के चेहरे का रंग उड़ रहा था। कहीं हकीकत खुल तो नहीं गयी। वह क्या तजवीज है; उसके मन में खलबली पड़ गयी। 
तैमूर ने मूस्कराकर पूछा- तुम मुझसे लड़ने को तैयार थे ? 
हबीब ने शरमाते हुए कहा- हक के सामने अमीर तैमूर की भी कोई हकीकत नहीं। 
बेशक-बेशक ! तुममें फरिश्तों का दिल है, तो शेरों की हिम्मत भी है, लेकिन अफ़सोस यही है कि तुमने यह गुमान ही क्यों किया कि तैमूर तुम्हारे फैसले को मंसूख कर सकता है। यह तुम्हारी जात है, जिसने मुझे बतलाया है कि सल्तनत किसी आदमी की जायदाद नहीं बल्कि एक ऐसा दरख्त है, जिसकी हरेक शाख और पत्ती एक-सी खुराक पाती है। 
दोनों किले में दाखिल हुए। सूरज डूब चूका था । आन-की-आन में दरबार लग गया और उसमें तैमूर ने ईसाइयों के धार्मिक अधिकारों को स्वीकार किया। 
चारों तरफ से आवाज़ आयी- खुदा हमारे शाहंशाह की उम्र दराज करे। 
तैमूर ने उसी सिलसिले में कहा- दोस्तों , मैं इस दुआ का हकदार नहीं हूँ। जो चीज़ मैंने आपसे जबरन ली थी, उसे आपको वापस देकर मैं दुआ का काम नहीं कर रहा हूँ। इससे कही ज़्यादा मुनासिब यह है कि आप मुझे लानत दें कि मैंने इतने दिनों तक आपके हकों से आपको महरूम रखा। 
चारों तरफ से आवाज़ आयी- मरहबा ! मरहबा ! ! 
‘दोस्तों, उन हकों के साथ-सा‍थ मैं आपकी सल्तनत भी आपको वापस करता हूँ क्योंकि खुदा की निगाह में सभी इन्सान बराबर है और किसी कौम या शख़्स को दूसरी कौम पर हुकूमत करने का अख्तियार नहीं है। आज से आप अपने बादशाह है। मुझे उम्मीद है कि आप भी मुस्लिम आबादी को उसके जायज हकों से महरूम न करेंगे । मगर कभी ऐसा मौक़ा आये कि कोई जाबिर कौम आपकी आज़ादी छीनने की कोशिश करे, तो तैमूर आपकी मदद करने को हमेशा तैयार रहेगा। 

10 
किले में जश्न खत्म हो चुका है। उमरा और हुक्काम रुखसत हो चुके हैं। दीवाने ख़ास में सिर्फ तैमूर और हबीब रह गये हैं। हबीब के मुख पर आज स्मित हास्य की वह छटा है,जो सदैव गंभीरता के नीचे दबी रहती थी। आज उसके कपोलों पर जो लाली, आँखों में जो नशा, अंगों में जो चंचलता है, वह और कभी नजर न आयी थी। वह कई बार तैमूर से शोखियाँ कर चुका है, कई बार हँसी कर चुका है, उसकी युवती चेतना, पद और अधिकार को भूलकर चहकती फिरती है। 
सहसा तैमूर ने कहा- हबीब, मैंने आज तक तुम्हारी हरेक बात मानी है। अब मै तुमसे यह तजवीज करता हूँ जिसका मैंने ज़िक्र किया था। उसे तुम्हें कबूल करना पड़ेगा। 
हबीब ने धड़कते हुए हृदय से सिर झुकाकर कहा- फरमाइये। 
‘पहले वायदा करो कि तुम कबूल करोगे।’ 
‘मैं तो आपका ग़ुलाम हूँ।’ 
‘नहीं, तुम मेरे मालिक हो, मेरी ज़िंदगी की रोशनी हो, तुमसे मैंने जितना फैज पाया है, उसका अंदाजा नहीं कर सकता । मैंने अब तक सल्तनत को अपनी ज़िंदगी की सबसे प्यारी चीज़ समझा था। इसके लिये मैंने वह सब कुछ किया जो मुझे न करना चाहिए था। अपनों के ख़ून से भी इन हाथों को दागदार किया गैरों के ख़ून से भी। मेरा काम अब खत्म हो चुका। मैंने बुनियाद जमा दी इस पर महल बनाना तुम्हारा काम है। मेरी यही इल्तजा है कि आज से तुम इस बादशाहत के अमीर हो जाओ, मेरी ज़िंदगी में भी और मरने के बाद भी। 
हबीब ने आकाश में उड़ते हुए कहा- इतना बड़ा बोझ। मेरे कंधे इतने मज़बूत नहीं हैं। 
तैमूर ने दीन आग्रह के स्वर में कहा- नहीं मेरे प्यारे दोस्त , मेरी यह इल्तजा माननी पड़ेगी। 
हबीब की आँखों में हँसी थी, अधरों पर संकोच । उसने आहिस्ता से कहा- मंजूर है। 
तैमूर ने प्रफुल्लित स्वर में कहा– खुदा तुम्हें सलामत रखे। 
‘लेकिन अगर आपको मालूम हो जाय कि हबीब एक कच्ची– अक्ल की क्‍वाँरी बालिका है तो ?’ 
‘तो वह मेरी बादशाहत के साथ मेरे दिल की भी रानी हो जायगी।’
‘आपको बिल्कुल ताज्जुब नहीं हुआ?’ 
‘मैं जानता था।’ 
‘कब से ?’ 
‘जब तुमने पहली बार अपनी जालिम आँखों से मुझे देखा।’ 
‘मगर आपने छिपाया खूब !’ 
‘तुम्हीं ने सिखाया। शायद मेरे सिवा यहाँ किसी को यह बात मालूम नहीं।’ 
‘आपने कैसे पहचान लिया !’ 
तैमूर ने मतवाली आँखों से देखकर कहा- यह न बताऊँगा। 
यही हबीब तैमूर की ‘बेगम हमीदा’ के नाम से मशहूर है। 

  

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 07 May 2020 at 6:38 PM -

पण्डित मोटेराम की डायरी

कहानी

पण्डित मोटेराम की डायरी 
प्रेमचंद 

क्या नाम कि कुछ समझ में नहीं आता कि डेरी और डेरी फार्म में क्या सम्बन्ध! डेरी तो कहते हैं उस छोटी-सी सादी सजिल्द पोथी को, जिस पर रोज-रोज का वृत्तान्त लिखा जाता है और जो प्राय: सभी महान् पुरुष लिखा करते ... हैं और डेरी फार्म उस स्थान को कहते हैं जहाँ गायें-भैंसें पाली जाती हैं और उनका दूध, मक्खन, घी तैयार किया जाता है। ऐसा मालूम होता है, डेरी फार्म इसलिए नाम पड़ा कि जैसे डेरी में नित्य-प्रति का समाचार लिखा जाता है, उस तरह नित्य-प्रति दूध-मक्खन बनता है। जो कुछ हो, मैंने अब डेरी लिखने का निश्चय कर लिया है। कई साल पहले एक बार एक पुस्तक वाले ने मुझे एक डेरी भेंट की थी। तब मैंने उस पर एक महीने तक अपना हाल लिखा; लेकिन मुझे उसमें लिखने को कुछ सूझता ही न था। रात को सोने से पहले घण्टों बैठा सोचता-क्या लिखूँ। लिखने लायक कोई बात भी हो? यह लिखना कि प्रात:काल उठा, मुँह-हाथ धोया, स्नान किया, तिलक-चन्दन लगाया, पूजन किया, यजमानों से मिला, कहीं साइत बाँचने गया; फिर लौटकर भोजन किया और सोया। तीसरे पहर फिर उठा, भंग छानी, फिर स्नान किया, फिर तिलक लगाया और कथा बाँचने चला गया; लौटकर फिर भोजन किया और सो रहा। यह सब लिखना मुझे अच्छा न लगता था। इसलिए उस डेरी पर मैंने धोबी के कपड़ों और आमदनी-खर्च लिखकर उसे पूरा किया। जब से वह डेरी समाप्त हुई, तब से खर्च-आमदनी का हिसाब लिखना छोड़ दिया और धोबी के कपड़ों का हिसाब पण्डिताइन के जिम्मे डाल दिया।

लेकिन अब से फिर डेरी लिखना आरम्भ कर रहा हूँ, इसका क्या कारण है? मैंने सुना है कि इससे आयु बढ़ती है, और चारों पदार्थ हाथ आ जाते हैं। इसलिए अब मैं फिर भगवान् का नाम लेकर, और गणेशजी के सामने शीश झुकाकर डेरी लिखना आरम्भ करता हूँ। ओम शान्ति: शान्ति: शान्ति:। क्या नाम कि आजकल साम्यवाद और समष्टिवाद की बड़ी चर्चा सुन रहा हूँ। साम्यवाद का अर्थ यह है कि सभी मनुष्य बराबर हों। तो मैं अपने साम्यवादी विद्वानों से जो इस विषय के आचार्य हैं, जैसे-श्री सम्पूर्णानन्द, आचार्य नरेन्द्रदेवजी और आचार्य श्रीप्रकाशजी से पूछना चाहता हूँ कि सब मनुष्य कैसे बराबर हो सकते हैं? आचार्य नरेन्द्रदेवजी मुझे क्षमा करें या न करें, मगर उनके जैसे तीन आचार्य मेरे पेट में समा सकते हैं, फिर यह कैसा साम्यवाद? इसका मतलब तो यही हो सकता है कि या मैं वामन रूप धारण कर लूँगा वह विराट् रूप धारण कर लें।

अच्छा, अब दूसरी बात लीजिए। धन तो आप सबका बराबर कर देना चाहते हैं; लेकिन कृपा करके यह बतलाइए कि आप सबके पेट कैसे बराबर कर देंगे? आचार्य नरेन्द्रदेवजी एक-दो फुलके और आध घूँट दूध पीकर रह सकते हैं; मगर मुझे तो पूजा करने के बाद, मध्याह्न, तीसरे पहर और रात को, चार बार तर माल चकाचक चाहिए, जिसमें लड्डू, हलवा, मलाई, बादाम, कलाकन्द आदि का प्राधान्य हो। अगर आपका साम्यवाद इसकी गारण्टी करे कि वह मुझे इच्छापूर्ण भोजन देगा तो मैं उस पर विचार कर सकता हूँ और अगर आप चाहते हों कि मैं भी दो फुलके और तोले भर दूध और दो तोले भाजी खाकर रहूँ तो ऐसे साम्यवाद को मेरा दूर ही से प्रणाम है। मैं धन नहीं माँगता; लेकिन भोजन आँतफाड़ चाहता हूँ, अगर इस तरह की गारण्टी दी गयी, तो वचन देता हूँ कि मैं और मेरे अनेक मित्र साम्यवादी बनने को तैयार हो जाएँगे।

लेकिन एक भोजन ही से तो काम नहीं चलता। कपड़ा ही ले लीजिए। आपको एक कुरता और एक टोपी चाहिए। कुरते में एक गज से अधिक खद्दर न लगेगा। मैं लम्बी अँगरखी पहनता हूँ, जिसमें सात गज से कम कपड़ा नहीं लगता। मैंने दरजी के सामने बैठकर खुद कटवाया है और इसका विश्वास दिलाता हूँ कि इससे कम में मेरी अँगरखी नहीं बन सकती। फिर बारह गज का साफा, ५ गज की चादर ऊपर से। साम्यवाद इसकी गारण्टी ले सकता है? धन लेकर मुझे क्या करना है, लेकिन भोजन और वस्त्र तो चाहिए ही।

आप कहेंगे, काम सबके बराबर करना पड़ेगा। मैं स्वीकार करता हूँ, अगर कोई सज्जन घड़ी भर पूजा करें, तो मैं दो घड़ी कर दूँगा; वह घड़ी भर स्नान करें तो मैं दो घड़ी पानी में रह सकता हूँ, वह एक घड़ी शास्त्रार्थ करें तो मैं भोजन-पूजन आदि को छोडक़र दिन भर शास्त्रार्थ कर सकता हूँ। इसमें मैं किसी से पीछे हटने वाला नहीं।

एक बात और। स्थान की मुझे परवाह नहीं; झोपड़ी भी हो तो मैं अपना निबाह कर सकता हूँ। लेकिन रेल यात्रा करते समय अगर मुझे सबके बराबर जगह मिली, तो उस पटरी पर बैठने वालों को छोडक़र भागना पड़ेगा; क्योंकि मैं एक पूरी पटरी से कम में समा नहीं सकता। दूसरी बात यह है कि मैं सन्नाटा मारकर नहीं सो सकता। निद्रा में एक विचित्र प्रकार का खर्राटा लेता हूँ। कभी कोई सज्जन मेरे समीप सोते हैं; तो उन्हें रात को उठकर भागना पड़ता है। इसलिए अपने हित के लिए नहीं, दूसरों के हित के लिए मैं यह चाहूँगा कि मुझे एक पूरी कोठरी सोने को मिले। अगर साम्यवाद इसमें मीनमेख निकाले तो मैं उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखूँगा।

इतना लिख चुका था कि पण्डिताइन आकर खड़ी हो गयीं और पूछने लगीं-आज सबेरे-सबेरे यह क्या लिखने बैठ गये। सेठजी के लड़के की कुण्डली क्यों नहीं बना डालते? व्यर्थ शास्त्रार्थ करके अपना मूँड़ क्यों दुखवाते हो?

मैं स्त्रियों का अपमान नहीं करता। उन्हें घर की देवी समझता हूँ। वे घर की लक्ष्मी हैं; घर-गिरस्ती के सिवा उनसे किसी और बात में सलाह नहीं लेता! घर की लक्ष्मी को घर तक ही रखना चाहता हूँ। राजनीति, समाज, धर्म आदि के विषय से उन्हें क्या मतलब। स्त्रियों को सिर चढ़ाने की इन मुठ्ठी-भर पढ़े-लिखे बाबुओं को जो सनक सवार हुई है, मैं इसे पसन्द नहीं करता। पण्डिताइन भी एक दिन आधी बाँह की जम्पर पहने हुए निकलीं जिससे आधी छाती दिखाई दे रही थी, तो मैंने उसी दम वह जम्पर उतरवाकर छोड़ा। वह बहुत बिगड़ीं, लेकिन मैंने भी रौद्ररूप दिखाया। आखिरकार जब मैं डण्डा लेने दौड़ा; तो उन्होंने धीरे से जम्पर उतार दिया और मुँह फुला बैठीं। मैंने कहा-चाहे मुँह फुलाओ, चाहे गाल फुलाओ, चाहे सारी देह फुलाकर कुप्पा हो जाओ, लेकिन इस भेष में मैं तुम्हें घर से निकलने न दूँगा। खैर, जब उन्होंने आकर मुझे डाँट बतायी; तो मैंने कह दिया, ‘तुम यह बातें नहीं समझ सकती, जाकर अपना काम देखो।’

पण्डिताइन बोलीं-तुमने चार अक्षर पढ़ लिया तो बड़े समझदार हो गये? अभी एक जून चूल्हा न जलाऊँ तो सारी समझदारी निकल जाए

कितना बेतुका जवाब था। मारो घुटना; फूटे आँख! लेकिन मुझे आश्चर्य नहीं हुआ! उनसे मैं ऐसे जवाब सुनने का अभ्यस्त हो गया हूँ। मैंने जरा कड़ाई के साथ कहा-तुम्हारे मतलब की कोई बात नहीं है देवी, नहीं तो मैं तुम्हें सुना देता।

‘कोई कविताई करते होंगे। यही तो तुम्हें रोग है।’

‘कविता करने का रोग मुझे कब था? बे-बात-की बात करती हो। मैं कविताई से इतनी दूर हूँ, जितना पूरब पश्चिम से। यह वेश-भूषा, यह डीलडौल कवियों का है? तुम क्या जानो, कवि किसे कहते हैं? कवि वह है, जिसकी सूरत से कविता बरसती हो। बस, मैं कविताई नहीं कर रहा हूँ, एक सामाजिक प्रश्न पर कुछ शंकाएँ उपस्थित करने का सौभाग्य-सिन्दूर प्राप्त कर रहा हूँ।’

पण्डित के पाण्डित्यपूर्ण कथन से वह कुछ रोब में आ गयीं। लेकिन मैं थोड़ा सा बुद्घू भी हूँ। उसी वक्त मुझे हँसी आ गयी। बस, पण्डिताइन लौट पड़ीं और मेरे हाथ से लेख छीनकर बोलीं-मैं समझ गयी, किसी को प्रेमपत्र लिख रहे हो?

अब नहीं तो अब बनी। मैं गंगाजल लेकर शपथ खा सकता हूँ कि मैंने आज तक न जाना प्रेम किस चिडिय़ा का नाम है। मेरी प्रेमिका तर माल है। दूसरा प्रेम मेरी समझ में ही नहीं आता; लेकिन पण्डिताइन को न जाने क्यों मुझ पर सन्देह होता रहता है। प्रेमियों की दशा देखकर तो मुझे उन पर हँसी आती है। जब देखो, रो रहे हैं। ठण्डी साँसें खींच रहे हैं। न कुछ खाते हैं, न पीते हैं, खासे लकलक बने हुए हैं, फूँक दो तो उड़ जाएँ। इस तरह का प्रेम करके तो मैं तीसरे दिन संसार से विदा हो जाऊँ? लेकिन इस सन्देह का निवारण करना अब लाज़िम हो गया।

मैंने थोड़े से शब्दों में पण्डिताइन को साम्यवाद का तत्व समझाने की चेष्टा की। जब मैं अपना कथन समाप्त कर चुका, तो वह आँखें मटकाकर बोलीं-ऐ नौज तुम्हारा सामवाद! कुछ घास तो नहीं खा गये हो। जिसके बाल वंश न हों, वे सामवाद की बात सोचें। मुझे तो भगवान ने पाँच-पाँच पुत्र दिये हैं, और छठवाँ आने वाला है। मैं सामवाद के फेर में क्यों पड़ूँ? ‘मेरे बराबर हो पड़ोसन, गोदा-रोटी खाय’ अच्छा सामवाद है। मेरे लाल जीते जी रहेंगे, तो माँग खाएँगे।

वह और भी न जाने क्या-क्या अनाप-शनाप बकती रहीं; लेकिन उनकी बातों से मेरे मन में एक शंका उत्पन्न हो गयी। साम्यवाद में कहीं सन्तान-निग्रह का बन्धन तो नहीं है? क्योंकि इस तरह का कोई सम्बन्ध हुआ तो फिर मेरा उससे कोई सम्पर्क न रहेगा। मैं इस विषय में किसी से समझौता न करूँगा। पीछे से थुक्का-फजीहत करना मुझे पसन्द नहीं। आचार्य मुझे स्पष्ट बतला दें कि मुझे गृहस्थाश्रम का त्याग तो न करना पड़ेगा? मैं इसकी स्वाधीनता चाहता हूँ कि जितनी सन्तानें आवें उनका स्वागत करूँ; क्योंकि मैं जानता हूँ, जन्म देने वाले भगवान हैं और पालन करने वाले भी भगवान हैं। मैं तो निमित्त-मात्र हूँ।



क्या नाम है कि मैं पण्डित मोटेराम वल्द पण्डित छोटेराम स्वर्गवासी, साकिन विश्वनाथपुरी जो शंकर भगवान के तिरसूल पर बसी है, आज बम्बई में दनदना रहा हूँ। एक यजमान सेठजी ने तार भेजा, हम बड़े संकट में हैं, तुरन्त आओ। तार के साथ डबल तीसरे दरजे का किराया भी। इसलिए हमने चटपट बम्बई को प्रस्थान कर दिया! अपने यजमान पर संकट पड़े, तो हम कैसे रुक सकते थे। सेठजी एक बार काशी आये थे। वहाँ मैं भी निमन्त्रण में गया था। वहीं मेरी उनकी जान-पहचान हुई। बात करने में मैं पक्का फिकैत हूँ। बस यही समझ लो कि कोई मुझे निमन्त्रण भर दे दे, फिर मैं अपनी बातों से ज्ञान घोलता हूँ वेदों-शास्त्रों की ऐसी व्याख्या करता हूँ कि क्या मजाल जो यजमान उल्लू न हो जाए। योगासन, हस्तरेखा, सन्तानशास्त्र, वशीकरण आदि सभी विद्याएँ, जिन पर सेठ-महाजनों का पक्का विश्वास है, मेरी जिह्वा पर हैं। अगर पूछो कि क्यों पण्डित मोटेराम शास्त्री, आपने इन विद्याओं को पढ़ा भी है? तो मैं डंके की चोट पर कहता हूँ, मैंने कभी नहीं पढ़ा। इन विद्याओं का क्या रोना, हमने कुछ नहीं पढ़ा, पूरे लण्ठ हैं, निरक्षर महान : लेकिन फिर भी किसी बड़े-से-बड़े पुस्तकचाटू, शास्त्रघोंटू, पण्डित का सामना करा दो, चपेट न दूँ तो मोटेराम नहीं। जी हाँ, चपेट दूँ, ऐसा चपेटूँ, ऐसा रगेदूँ कि पण्डितजी को भागने का रास्ता न मिले! पाठक कहेंगे; यह असम्भव है, भला एक मूर्ख आदमी महान पण्डित कैसे रगेदेगा। मैं कहता हूँ प्रियवर, पुस्तक चाटने से कोई विद्वान नहीं हो जाता। जो विद्वान आज इस युग में श्राद्ध, पिण्डदान और वर्णाश्रम में विश्वास रखता हो, जो आज गोबर और गोमूत्र को पवित्र समझता हो, जो देवपूजा को मुक्ति का साधन समझता है, वह विद्वान कैसे हो सकता है? मैं खुद यजमानों में यह सब कृत्य कराता हूँ, नि:सन्देह जानता हूँ, हलवा और कलाकन्द किसी आत्मा के पेट में नहीं, मेरे पेट में जाता है, फिर भी यजमानों को मूड़ता हूँ, तो इसलिए कि मेरी यह जीविका है। जीविका नहीं छोड़ी जाती, और इसलिए यजमान खुद बेवकूफ बनना चाहता है, पाँच पैसे का गऊदान करके भवसागर पार उतरना चाहता है, तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा है जो कहूँ कि यह सब मिथ्या है। सरासर आती हुई लक्ष्मी को कौन दुत्कारता है? लेकिन पण्डितों के बीच में दूसरी बात हो जाती है। वहाँ मुझे अपनी जीविका का डर नहीं रहता और मैं भिगो-भिगोकर लगाता हूँ, कभी दाहिने, कभी बायें, चौंधिया देता हूँ, साँस नहीं लेने देता। बस पण्डितों के पास इसके सिवा और जवाब नहीं रहता कि तुम नास्तिक हो।

मगर मैं अपने विषय से बहककर कहाँ जा पहुँचा। जब मैं बम्बई चलने को तैयार हुआ, तो पण्डिताइन रोने लगीं। कहने लगीं, बताओ कै दिन में आओगे। दो-तीन दिन में जरूर से लौट आना। मैं जो उस वक्त बता दूँ कि दो दिन पहुँचने में लग जाएँगे, तो फिर वह मेरा पिण्ड न छोड़तीं। इसलिए बड़े प्रेम भरे शब्दों में कहा-प्रिये, मेरा जी तुम्हीं में लगा रहेगा। खाऊँगा तो तुम्हारे करकमलों की गुदगुदी रोटियाँ और पतली दाल याद आएगी। पानी पिऊँगा तो तुम्हारे पपडिय़ाये हुए अधरों का ध्यान बना रहेगा। सोते-जागते, उठते-बैठते, बस तुम्हारे ही पास मन मँडराता रहेगा। इससे उन्हें कुछ ढाढ़स हुआ। लेकिन क्या नाम कि स्त्री का हृदय कुछ अटपटा होता है। एकाएक बोल उठीं-मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं आता। कौन जाने तुम वहाँ कैसे जाओ। कहीं तुम कुछ गड़बड़ न कर बैठो। मैंने तुरन्त समझाया-प्राणप्रिये, मुझे तुम्हारे प्रेम में पगे लगभग ४५ साल हुए। क्या तुम समझती हो कि इतने दिनों में जो रंग जमा है, वह दो-चार दिन में फीका पड़ जाएगा? कहाँ तुम्हारा खयाल है! बोली-क्या जाने भाई, तुम मरदों का हाल कौन जाने? यहाँ तो ऐसी मीठी-मीठी बातें करते हो, वहाँ जाकर क्या जाने क्या कर बैठो। मैं वहाँ थोड़ी बैठी रहूँगी कि तुम्हारी देखभाल करती रहूँ। मैं तो एक सरियत पर जाने दूँगी, कि तुम गंगाजल हाथ से लेकर कहो कि वहाँ कुछ गड़बड़-सड़बड़ न करूँगा। मैं मन में हँसा और गंगाजल लेकर कसम खायी। तब जाके पण्डिताइन का चित्त शान्त हुआ।

चलने को तो चला; लेकिन हृदय मेरा भी काँपता था। प्रयाग तक तो मेरा मन ठिकाने रहा; लेकिन जब फिर भी बम्बई का कहीं पता न चला, तो मुझे रोना आ गया। भगवान! यह तो कालापानी है। दिन भर चला, बम्बई नदारद। रात-भर चला, बम्बई नदारद। समझ गया कि काशी में मरना न बदा था। मजे से गंगास्नान करता था, विश्वनाथ के दर्शनों का पुन्न लूटता था और धेली बारह आने कहीं-न-कहीं से पीट ही लाता था और यहाँ गाड़ी में बैठे न जाने किस लोक को चले जा रहे हैं। इतनी दूर तो चन्द्रमा भी न होंगे। मुझे भ्रम हो गया कि यात्री और रेल कर्मचारी सब मुझे धोखा दे रहे हैं। बम्बई जरूर पीछे छूट गयी। बारे कोई दस बजे बम्बई का नाम सुना। जान आयी। देखा तो यजमान सेठजी मेरा स्वागत करने के लिए खड़े थे। उन्होंने पालागन किया; मगर असीस कौन देता है, यहाँ तो चोला भसम हो रहा था। मैंने ब्रह्म तेज से गरजकर कहा-तुमने मुझे लिखा क्यों नहीं कि बम्बई लंका के पास है? अभी तक जल नहीं ग्रहण किया। प्राण छटपटा के निकलने जा रहा था; बारे मैंने योगबल से रोक लिया। मैं झूठ बोल रहा था। मैं रास्ते भर फलाहारी खाता रहा और रेल से उतरकर पानी पीता चला आ रहा था; लेकिन ऐसे यजमानों के सामने अपने नेम का डंका बजा देना फलदायक होता है। सेठजी ने दौडक़र मेरी अधारी कन्धे पर रखी और लगे घिघियाने-महाराज, क्षमा किया जाय, मैं क्या जानता था कि महाराज को बम्बई .......

मैंने फिर डाँटा-महाराज को बम्बई से क्या सम्बन्ध? अपने लोग तीर्थ स्थानों में रहते हैं कि राक्षसों के देश में? यहाँ वह रहे, जो धन का लोभी हो। हम ब्राह्मणों को अपना धर्म प्यारा है।

इस डाँट से सेठजी की नानी मर गयी। बाहर आये तो मोटर खड़ी थी। बैठकर यजमान के घर चले। वाह रे बम्बई! वहाँ तो आदमी पागल हो जाए। सडक़ें न जाने क्यों इतनी चौड़ी बनायी हैं। हमारी चौखम्भेवाली कितनी गुलजार गली है कि वाह! यहाँ की सडक़ें हैं कि बालेमियाँ का मैदान है। मगर बम्बई का हाल फिर लिखेंगे। इस वक्त तो सेठजी के संकट की कथा कहनी है, जिसके लिए हम इतनी दूर से बुलाये गये हैं। संकट यह कि सेठजी ने सट्टा खेला है और चाहते हैं; मैं कोई ऐसा अनुष्ठान करूँ कि सेठजी के पौ-बारह हो जाएँ। मामला गहरा है, कोई डेढ़ लाख का। मैंने यह वृत्तान्त सुनकर ऐसा गम्भीर मुँह बनाया, मानों सब कुछ मेरे हाथ में है। फिर बोला-सेठजी, आप जो हैं सो मेरे यजमान हैं और मुझे जो कुछ विद्या आती है, उसमें कुछ उठा न रखूँगा। और यह आप जानते हैं कि मुझे किसी बात से ममता नहीं रही। ब्राह्मण को धन से क्या प्रयोजन? धन चाहता तो अब तक लाखों बटोर लेता। कितने यजमान मेरे अनुष्ठानों से करोड़पति हो गये, लखपतियों की तो गिनती ही नहीं। मैं वही ब्राह्मण का ब्राह्मण बना हूँ। तो बात क्या है? हम ममता को पास नहीं आने देते। साढ़े सात सौ कोस से ही ललकारते हैं, खबरदार जो इधर मुँह किया! हाँ, बात इतनी है कि अनुष्ठानों में पैसे खरच होते हैं। अगर यही अनुष्ठान विधिपूर्वक करूँ तो डेढ़-दो सौ से कम न खर्च होंगे। यह समझ लीजिए।

लेकिन मैं इस ६५ साल की अवस्था में भी पोंगा ही रहा। मैंने डेढ़-दो सौ अपनी समझ में बहुत कहे थे। इससे ऊँचे जाने की मुझे हिम्मत ही न पड़ी। कभी इतना बड़ा शिकार तो फँसा नहीं था उसके दाँव-घात क्या समझता? सेठजी का मुँह लटक गया। उन्होंने दस-बारह हजार का अनुमान किया था। डेढ़-दो सौ सुनकर मेरी सारी प्रतिष्ठा उनके हृदय से निकल भागी। क्या स्वर्ण संयोग दिया था भगवान् विश्वनाथ ने, लेकिन तकदीर खोटी है तो उनका क्या बस? दस हजार कह देता तो जन्म भर के लिए अयाच्य हो जाता। बोलते-बोलते बोला क्या? डेढ़-दो सौ! धत् तेरे पोंगापन का सत्यानाश हो! अब तो यही जी चाहता है कि जाकर समुद्र में कूद पड़ूँ। उसी दिन एक दूसरे घोंघानाथ शास्त्री के नाम तार गया। अब यह पठ्ठा आकर इन सेठजी को मूँड़ेगा। २० हज़ार से कम न लेगा; लेकिन अब पछताने से क्या होता है। फिर भी मैंने सोचा, बला से मैं नहीं पा रहा हूँ। कोई दूसरा क्यों ले जावे? मेरा क्या? यह धर्म नहीं है कि अपने यजमान की इन लुटेरों से रक्षा करूँ? बोला मैंने केवल सामग्री का मूल्य दिया। दक्षिणा मैं लेता नहीं। एक हजार रुपये विप्रों की दक्षिणा भी समझ लीजिए।

सेठ बोले-उससे कोई मतलब नहीं, वह तो यहाँ से अलग दिया जाएगा। आपकी सामग्री तो कुल २००) की होगी?

मैंने कहा-बस, इससे अधिक नहीं। हाँ, ऐसे लोगों को भी जानता हूँ, जो इसी अनुष्ठान के लिए १० हज़ार, १५ हज़ार तक ले लेंगे। लगेगा तो ढाई-तीन सौ, शेष अपने पेट में ठूँस लेंगे। इसलिए ऐसे धूर्तों से सचेत रहिएगा।

लेकिन सेठ के कण्ठ तले से यह बात न धँसी। बोला-यह आप क्या कहते हो शास्त्रीजी? गुड़ जितना ही डालो उतना ही मीठा पकवान होगा। आपका अनुष्ठान २००) का है। आप कीजिए। लेकिन बिना बड़े अनुष्ठान के मेरा काम न चलेगा।

अब भी मुझे अपना उल्लू फाँसने का मौका था। कह सकता था, सेठजी, आपका काम तो छोटे अनुष्ठान से ही निकल सकता है, लेकिन आपकी इच्छा है तो मैं महा-महा-महा मृत्युञ्जय-पाठ और ब्रह्म-प्रवीक्षक क्रिया भी कर सकता हूँ। हाँ, उसमें कोई साढ़े तेरह हज़ार का खर्च है; मगर यह तो अब सूझ रही है। उस वक्त अक्ल पर पत्थर पड़ गया था। मेरी भी विचित्र खोपड़ी है। जब सूझती है, अवसर निकल जाने पर। हाँ, मैंने यह निश्चय कर लिया कि पण्डित घोंघानाथ को बिना दस-पाँच घिस्से दिये न छोड़ूँगा। या तो बेटा से आधा रखा लूँगा, या फिर यहीं बम्बई के मैदान में हमारी उनकी ठनेगी। वह विद्वान् होंगे। यहाँ सारी जवानी अखाड़े में कटी है। भुरकुस निकाल दूँगा।

अपनी इस पिछिल-सूझता पर पछता रहा था कि डाकिया एक तिकोना सा बैरंग लिफाफा लाकर मुझे दे गया। समझ गया, पण्डिताइन की कृपा है। आज यह पत्र हाथ में लेकर मुझे सचमुच उनकी याद आ गयी। बेचारी ने मेरे साथ ४५ साल काट दिये, और मैं बराबर उसे बातों में टालता रहा। आँखें सजल हो गयीं। पत्र खोला। लिखा था। स्वस्ति श्री सर्व उपमा योग ... सो तुम जाय के बम्बई में बैठि रह्यौ, कान में तेल डारिकै। हमका रोज सपना दिखात है। डरन के मारे नींद नहीं आवति है। कतों तुम कुछ गड़बडि़ न करि बैठो, यही चिन्ता में हमार परान सूखा जात है। तुम कहिहौ हम ६५ साल के होए गयेन, अबका जन्म भर गड़बड़े करत रहिबे। मुला सुनित है, बैदन सब अइस-अइस बिरवा निकारेन हैं कि ओहिका खायके मनई बौराय जात है। एक बैद झाँसी माँ है, एक और कतों है। तुमार हाथ जोरित है, तुम कौनो औखद न खायो। तुम गंगाजल उठाय के जौन परन किह्यौ ओहिका निबाह करै का परी। हम तुमका साँड़ न बनै देब।

लीजिए साहब, अब मैं साँड़ हो गया। कमर सीधी होती नहीं, डेढ़ सेर मलाई भी नहीं पचाये पचती, और वहाँ पण्डिताइन मुझे साँड़ बना रही हैं। सो यहाँ भी अपनी ही भूल है। मैं पण्डिताइन के सामने अपनी जवाँमरदी और पुरुषार्थ की डींग मारा करता हूँ। वह गऊ क्या जाने, यह लबाडिय़ा है। मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे ब्रह्मवाक्य समझ बैठती हैं और उसका यह फल है। इस यात्रा से संभवत: मेरी दृष्टि कुछ सूक्ष्म हो रही है।



क्या नाम कि जब मैंने देखा कि अब तो मुझसे भूल हो ही गयी और बहुत खींचतान करने पर भी दो से बेशी न मिलेंगे, तो मैंने सोचा, लाओ और कुछ न सही तो इसके सौ पचास रुपये भोजनों में ही बिगाड़ दो। यह भी क्या समझेगा कि किसी से पाला पड़ा था। बस, मैंने शंकर भगवान् का सुमिरन किया और विनती की-हे उमापति, अब तुम्हीं मेरी रक्षा करो, मैं तो अब प्राणों से हाथ धोकर भोजन पर जुटता हूँ। नाश्ता आया तो मैंने कह दिया-मुझे आपके महाराज के हाथ की बनी चीजों में कोई स्वाद नहीं आता, मुझे तो आप सामग्री दे दीजिए, मैं अपना भोजन आप पका लूँगा। भण्डारी ने कहा-जैसी आपकी इच्छा, जो आज्ञा हो वह हाजिर करूँ। मैंने नाश्ते का नुसखा बताया-सवा सेर ताजा मक्खन, आध सेर बादाम, आध सेर पिश्ते, आध तोले केसर, सेर भर सूजी और सेर भर शक्कर। भण्डारी मेरा मुँह ताकने लगा। मैंने कहा-मुँह क्या ताकते हो, क्या बाँधकर ले जाने को माँगता हूूँ। जाकर चटपट लाओ। बस मैंने घोटी भंग और चढ़ाया गोला और विश्वनाथ का नाम लेकर हलवा बनाने बैठ गया। शंकर की दया से ऐसा स्वादिष्ट पदार्थ बना कि क्या कहूँ। पलथी मारके जो बैठा, तो आध घण्टे में साफ। मक्खी के लिए भी न बचा। भण्डारी के होश उड़ गये। दोपहर को फिर मैंने पूरियाँ पकायीं। आधोआध मोयन देकर। रात को कुछ खाने की इच्छा न होने पर भी मैंने सवा सेर मलाई चढ़ा ली।

लेकिन अब वह जवानी तो है नहीं कि ईंट-पत्थर जो पेट में पहुँच जाए, वह सब भस्म। तीसरे ही दिन मुझे उदर-विकार के लक्षण दिखे। मैंने सोचा-यहाँ किसी से कहता हूँ, तो सब यही कहेंगे कि ब्राह्मण की जात, खाने के पीछे प्राण दे रहा है। इसलिए मुहल्ले ही में एक डाक्टर के पास कोई पाचक-बटी लेने चला गया। बड़ा भारी मकान, मोटर, फोन। मैंने अपना परिचय दिया तो डाक्टर ने मुझे गौर से देखा और बोले-काशी से आता है?

मैंने कहा-हाँ साहब, विश्वनाथजी आपको प्रसन्न रखें, यहाँ कुछ भोजन प्रकृति के अनुकूल न मिलने के कारण पाचन दूषित हो गया है। कोई औषधि प्रदान कीजिए।

डाक्टर मुझे एक अलग कमरे में ले गया और एक मेज पर लेटाकर मेरा पेट टटोलने लगा। फिर सीने की परीक्षा की; पीठ ठोंकी आँखें देखीं, जीभ निकलवाकर परीक्षा ली। इस तरह कोई आध घण्टे तक मेरी दलेल करने के बाद बोला-वेल पण्डितजी, आपको कुछ टी०बी० के आसार मालूम देता है। आपको उसका दवाई करने होगा। हम टी०बी० का इसपिसलिस्ट है। आपको अच्छा कर सकता है; पर आपको अभी एक दूसरा डाक्टर के पास अपने खून का मुलाहजा कराना होगा। बिना खून देखे हम कुछ नहीं कर सकता। हम आपको चिठ्ठी देता है। आप डाक्टर सूबेदार के पास जाएँ। वह चौपाटी में रहता है। हम चिठ्ठी देता है। आपके ब्लड का मुलाहजा करके हमको लिखेगा।

मेरे होश फ़ाखता हो गये। पण्डिताइन की याद आयी। भगवान्, क्या बम्बई में मेरी मिट्टी की दुर्दशा करोगे। आया था कि कुछ कमाकर जाऊँगा; सो यहाँ जान पर बीता चाहती है। अभी काशी से चला हूँ तो कोई बात न थी। खासा साठा-पाठा बना हुआ था कि बम्बई का पानी है, और कुछ नहीं। दुबे विजयानन्द ने कहा था, बम्बई का पानी खराब है, जरा सँभलकर रहना। लेकिन यह क्या जानता था कि दस-पाँच दिन में ही सिल धरे लेता है; लेकिन अब पछताये क्या होता है। चलो, लहू भी दिखा लो, और फिर डर किस बात का है। मर ही तो जाएँगे। यहाँ अमर कौन है। जरा कच्ची गिरस्ती है; यही चिन्ता है। अगर जानता कि अन्त इतना निकट है तो पिछले दो लड़के क्यों होते और तीसरा गर्भ में क्यों रहता। लेकिन हरि की इच्छा। तुलसीदासजी ने कहा भी तो है-

सुत बनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबही ते,

अन्तहुँ तोहि तजेंगे पामर, तू न तजे अबही ते।

मैं यहाँ से चला तो दिल बहुत छोटा हो गया था; लेकिन डाक्टर साहब ने तुरन्त टोका-हमारा फीस ३२ रुपया हुआ। सेठजी के पास बिल भेज देगा न?

अगर अभी तक यमराज न आये थे, तो अब आ गये, ३२ रुपया फीस! जो उमर में कभी नहीं दी! बैद, डाक्टर को अमीर लोग पैसा देते हैं? हम शंकर के उपासक तो केवल आशीर्वाद से काम निकालते हैं। काशी में जब कभी काम पड़ता था, डाक्टर चौधरी, डाक्टर बनर्जी, डॉ० सेठ आदि जिसके पास चला गया दवाई ले आया, ऊपर से रुपये-आठ आने बिदाई झटक आया। और यहाँ जरा-सी परीक्षा की तो ३२ रुपया फीस। आँखों तले अँधेरा छा गया; लेकिन फिर सोचा अब तो मर ही रहे हो, रुपये-पैसे के माया मोह में क्या पड़े हो। ३२ रुपया खर्च हुए तो हुए, मालूम तो हो गया कि तपेदिक हो गया है। नहीं यों ही एक दिन चल देते, किसी को पता न चलता। दवा दारू करने की नौबत ही न आती। भला, दवा करने का अवसर मिल गया। और आदमी कमाता ही किसलिए है। लेकिन यह पूछ लेना आवश्यक मालूम हुआ कि डॉ० सूबेदार को तो कुछ न देना पड़ेगा। अतएव मैंने इस विषय का प्रश्न किया।

डॉ० साहब जोर से हँसे। बोले-तुम काशी का विद्वान लोग बड़ा मजाक करता है। काशी के एक पण्डित को दक्षना देने से सब पण्डित तो नहीं परसन हो जाएगा। बोले?

हमने कलेजा थामकर पूछा-तो उनकी क्या फीस होगी?

‘उसका फीस केवल १० रुपया है।’

मैंने मन से कहा-चलो मन यह १० रुपया भी गम खाओ। बम्बई में जो कमाना है, वह सब देकर भी प्राण बचे तो समझना चाहिए, नया जीवन पाया। नहीं यहीं बैठे-बैठे टें हो जाएँगे, कोई रोने वाला भी न मिलेगा। उस वक्त ऐसा वैराग्य सवार हुआ कि सब छोड़-छाडक़र निकल भागूँ, कबीर का वह पद याद आया जिसे पढक़र मैं कभी-कभी हँसा करता था। धूर्तताई में जीवन कट गया। अब इस काया की क्या दुरदसा होगी भगवान-

दिवाने मन भजन दुख पैहो।

पहिला जनम भूत का पैहो, सात जनम पछतैहो;

कीरा पर के पानी पैहो, प्यासन ही मरि जैहो।

दूजा जनम सुवा का पैहो, बाग बसेरा लैहो;

टूटे पंख बाज मँडराने अधफड़ प्रान गँवैहो।

बाजीगर के बानर होइहौ, लकडिऩ नाच नचैहो;

ऊँच-नीच के हाथ पसरिहौ, माँगे भीख न पैहो।

तेलिन के घर बैला होइहौ, आँखिन ढाँप ढैपैहो;

कोस पचास घरै माँ चलिहो, बाहर होन न पैहो।

पाँचवाँ जनम ऊँट का पैहो, बिन तोले बो लदैहो;

बैठे तो उठन न पैहो, घुरच-घुरच मरि जैहो।

धोबी घाट के गदहा होइहौ, कटी घास न पैहो,

लादी लादि आपु चढ़ बैठे लैके घाट पहुँचैहो।

आखिर यही कहना पड़ा कि हाँ सेठजी के पास बिल भेज देना। फिर वहाँ का पता पूछता हुआ डाक्टर सूबेदार के पास पहुँचा। कोई दस बज गये थे, पेट में मीठा-मीठा दर्द होने लगा था; लेकिन सोचा इस झमेले से निबट लो, फिर विश्वनाथजी की जैसी इच्छा होगी, वह तो होगा ही।

डॉ० सूबेदार युवक-से लगते, कोट-पैण्ट से लैस। मैंने पत्र जो दिया, आपने ले जाकर भीतर के कमरे में लेटा दिया और ऐसे जोर से मेरी बाँह में सुई चुभो दिया कि मैं ऐंठकर रह गया। बाँह में से रक्त निकल पड़ा। उसने एक शीशे से नलकी में ले लिया और मेरी बाँह में कुछ पोतकर एक तीसरी कोठरी में जाकर न जाने क्या करता रहा। फिर आकर बोला-वेल पण्डितजी, आपके ब्लड में टी०बी० का जर्म दिखाई देता है। आपको किसी पहाड़ पर जाना होगा और वहाँ आराम से रहना होगा। आपको पढऩा-लिखना बन्द करना होगा, लेकिन अभी हम कुछ ठीक-ठीक नहीं कह सकता, आप डॉ० घोड़ेपुरकर के पास जाए, वह आपका यूरीन देखेगा। उसका रिपोर्ट लेकर तब हम अपना रिपोर्ट देगा। तब आप डाक्टर लम्पट के पास जाएगा। फिर वह कुछ कहेगा, वह आपको करना होगा।

मेरे बदन में आग लग गयी। जी में तो आया, मारूँ गोली इन डॉक्टरों को और चलकर दो पैसे की हरड़ मँगवाकर उसकी फंकी फाँक लूँ। मरना ही बदा है, तो सारी दुनिया के डाक्टर भी तो नहीं जिला सकते; लेकिन जान का लोभ बड़ा बलवान होता है। उनकी चिठ्ठी लेकर पता पूछता हुआ चला डाक्टर घोड़ेपुरकर के पास। इसने मुझसे एक चोंगे में लघुशंका करवायी और बड़ी देर तक न जाने क्या करता रहा। फिर मुझे रिपोर्ट लिखकर दी और कहा-डॉ० सूबेदार के पास जाइए। सूबेदार के पास फिर पहुँचा, तो तीन बज गये थे। आपने अपनी रिपोर्ट दी, तो आया डॉ० लम्पट के पास। डाक्टर लम्पट ने दोनों रिपोर्टों को बड़े ध्यान से देखा और बोले-मेरा अनुमान ठीक था पण्डितजी, आपको टी०बी० हो गया है।

मैंने सजल-नेत्र होकर पूछा-तो मैं मर जाऊँगा?

‘नहीं-नहीं, हम आपको मरने नहीं देगा। आपको पहाड़ पर रहना होगा। अच्छा भोजन करने से आप बच सकता है। आपको अण्डों का सेवन करना होगा।’

मैंने कानों पर हाथ रखकर कहा-क्या कहा, अण्डों का? मैं अण्डे हाथ से नहीं छू सकता, खाने की कौन कहे!

‘ओह! यह सब आरथोडाक्सी यहाँ नहीं चलेगा। तुमको अण्डे खाना होगा।’

‘अण्डे मैं किसी तरह नहीं खा सकता।’

‘तुम मर जाएगा।’

‘कोई चिन्ता नहीं।

‘हम दवाई देता है, इसे तो पी सकता है।’

‘ना! अब न कोई दवा खाऊँगा; न किसी डाक्टर के पास जाऊँगा।’

यह कहकर मैं सेठजी की कोठी पर लौट आया। दिन-भर जो कुछ भोजन न किया था, तो भूख चमचमा उठी थी। बूटी छानी, शौच गया और फिर खूब डटकर भोजन किया।

सहसा सेठजी घबड़ाये हुए आये और बोले-पण्डितजी, क्या आपका मुलाहजा किया था लम्पट साहब ने! आपको तो टी०बी० बताते हैं।

मैंने कहा-वह आपके घर आने का पुरसकार है, और क्या?

‘आप आज ही काशी चले जाइए।’

‘मैं बिना अनुष्ठान पूरा किये नहीं जा सकता।’

‘नहीं, नहीं, कोई दरकार नहीं, आप इसी नौ बजे की गाड़ी से चले जाएँ।’

मैंने उसकी घबराहट देखी तो समझ गया, वह ब्रह्महत्या से डर रहा है। बस, फिर क्या था। मेरी लह गयी।

मैंने कहा-बिना अनुष्ठान पूरा किये लौट जाने में प्राणों का भय है। इसका उपचार करने में कम-से-कम एक हज़ार का खरच है। मैं वह कहाँ से लाऊँगा। फिर मरने से क्या डरना! यहीं मर जाऊँगा तो क्या चिन्ता।

सेठजी काँपते हुए बोले-नहीं पण्डितजी, आपका जो कुछ खर्च पड़े, वह लीजिए और आज ही चल दीजिए।

बस मुनीमजी बुलाए गये और फिर सौ-सौ के दस नोट मेरे चरणों पर रख दिये। मैंने विश्वनाथजी को धन्यवाद दिया, नोट गाँठ में किये और टी०बी० को ऐसा भूला कि वह भी मुझे भूल गया।



क्या नाम कि मैं जहाँ जाता हूँ, वहीं कुछ-न-कुछ लोग मेरे पीछे पड़ जाते हैं, और आ-आकर मुझे दिक करते हैं। बम्बई में भी भले आदमियों से गला न छूटा। यह तो होता नहीं कि आकर एक मोहर मेरे चरणों पर रखें और तब अपनी कथा सुनायें। बस आकर लगते हैं अपनी कथा सुनाने और चाहते हैं कि मैं सेंत-मेंत में उन्हें अनुष्ठान बता दूँ। तो यहाँ ऐसे उल्लू नहीं हैं। सुनने को सुन लेते हैं, लेकिन अनुष्ठान बताने के लिए पचासों बार दौड़ते हैं, ऐसा पदाते हैं कि वह भाग खड़ा होता है। जब कोई डाक्टर सेंत-मेंत में किसी रोगी को नहीं देखता, कोई वकील सेंत में कोई मिसिल नहीं छूता तो मैं क्यों सेंत में अपनी विद्या लुटाता फिरूँ? वह विद्या क्या है, यह मैं जानता हूँ, उसी तरह जैसे वकील और डाक्टर अपनी विद्या को जानते हैं; लेकिन भाई, एक-दूसरे का पर्दा क्यों खोलो। संसार उसका है, जो उसे बेवकूफ बनाये, जिसे यह कला नहीं आती, वह कौड़ी का तीन है।

कल भंग-बूटी से निपटकर मलाई पर हाथ साफ कर रहा था कि एक सज्जन आकर बैठ गये। कोट, पैण्ट, कालर, बूट, हैट, खासे साहब बहादुर थे। चेहरा लटका हुआ, मानो पत्नी मर गयी हो, बोले-आपका नाम पण्डित मोटेराम शास्त्री है?

मैंने कहा-हाँ, मेरा ही नाम है। कहिए, आपकी क्या सेवा करूँ!

साहब बहादुर ने जेब से रूमाल निकाला और सिर का पसीना पोंछते हुए कहा-मैं बड़े संकट में पड़ गया हूँ महाशय! कुछ अक्ल काम नहीं करती। अब आप ही बेड़ा पार लगाइए तो लगे।

मेरे हृदय में गुदगुदी हुई। यह तो कोई शिकार मालूम होता है।

बोला-भगवान की दया से सारी बाधाएँ दूर हो जाएँगी, कुछ चिन्ता मत कीजिए।

‘क्या कहूँ महोदय, कहते संकोच हो रहा है।’

‘संकोच की कोई बात नहीं, सन्तान तो मेरी मुठ्ठी में है। कहिए तो बालकों से आपका घर भर दूँ। बस एक अनुष्ठान .....’

‘जी नहीं, बालकों से तो मुझे प्रेम नहीं। मैं सन्तान विरोधी हूँ।’

‘अच्छा तो क्या धन की इच्छा है?’

‘धन की इच्छा किसे न होगी; लेकिन इस वक्त मैं इस हेतु से आपकी सेवा में नहीं आया था।’

‘तो कहो न? पौष्टिक अनुष्ठानों की भी मेरे पास कमी नहीं। चूर्ण, अवलेह, गोली, भस्म, आसव, क्वाथ, किसी चीज के सेवन करने की आवश्यकता नहीं, बस पाँच बार उस मन्त्र की जप करके सो जाइए, फिर उसकी करामात देखिए।’

‘मैं इस समय एक दूसरे ही काम से सेवा में आया था।’

मुझे कुछ निराशा होने लगी। हत्थे पर चढऩे वाला नहीं जान पड़ता। फिर भी मैंने दिलासा दिया-जो इच्छा हो वह निस्संकोच कहो।

उसने पूछा-आप उसमें अपना अपमान तो न समझेंगे?

अब मेरे कान खड़े हुए, उत्सुकता और बढ़ी।

‘अपमान की बात होगी, तो अवश्य अपमान समझूँगा।’

‘बात यह है कि कल सन्ध्या समय मेरे माता-पिता देश से आ गये हैं।’

‘बहुत अच्छी बात है तुम्हें उनका आदर-सत्कार करना चाहिए।’

‘लेकिन करूँ कैसे यह समझ में नहीं आता। कल से उन्होंने भोजन नहीं किया!’

‘भोजन नहीं किया! यह तो बड़ा अनर्थ है। कुछ उदर विकार हो गया है। मैं आयुर्वेद भी जानता हूँ।’

‘नहीं-नहीं शास्त्रीजी, वह तो आपसे भी भारी डीलडौल के हैं।’

‘भारी डीलडौल के लोग क्या बीमार नहीं पड़ते?’

‘पड़ते होंगे; पर फादर कभी बीमार नहीं पड़ते और मदर के सिर में तो कभी दर्द भी नहीं हुआ।’

‘तो वह और आप दोनों भाग्यवान् हैं।’

‘समस्या यह है कि वे दोनों ही बड़े नेम से रहते हैं।’

‘बड़े हर्ष की बात है। आप वास्तव में भाग्यशाली हैं।’

‘लेकिन वह मेरे खानसामा के हाथ का भोजन तो नहीं कर सकते!’

‘तो एक-दो दिन तुम्हारी स्त्री ही भोजन पका लेगी तो क्या छोटी हो जाएगी? सास-ससुर की सेवा करना ही स्त्री का परम धर्म है।’

‘मैं इसे नहीं स्वीकार करता, महोदय। बुरा न मानिएगा। आप सौ बरस की पुरानी बात कह रहे हैं। सास-ससुर को ऐसी जरा-जरा की बातों के लिए पुत्र और पुत्रवधू को संकट में न डालना चाहिए। समय बहुत आगे बढ़ गया है। अब ऐसे माता-पिता के लिए स्थान नहीं रहा।’

‘यह आप बहुत ठीक कह रहे हैं; लेकिन जब माता-पिता दो-ही चार दिन के लिए आये हैं, तो स्त्री को थोड़ा-सा कष्ट भी तो सह लेना चाहिए।’ इस पर सज्जन ने कुछ भौंवे सिकोडक़र कहा-लेकिन भोजन पकाने का उन्हें अभ्यास नहीं है, श्रीमान! जब कभी खानसामा बैठ रहता है, तो हम लोग होटल में खा लेते हैं। एक बार घर में रुपये न थे, और होटल में नगद दाम देना पड़ता है; इसलिए स्त्री ने सोचा, कुछ पका लें, तो साहब, आटा ऐसा हो गया जैसे गाढ़ा दूध और चावल जलकर कोयला हो गया। उस पर तीन दिन श्रीमतीजी के सिर में दर्द होता रहा। हारकर हमें फाँका करना पड़ा। तो साहब, फिर वह विपत्ति नहीं मोल लेना चाहता। न जाने क्यों होटल में खाना खाते इन लोगों की नानी मरती है। मैं इसे उनकी कोरी जिद समझता हूँ। माँ-बाप हैं, क्या कहूँ। क्या आप इतनी कृपा न करेंगे कि एक-दो दिन जब तक वह लोग यहाँ रहें, उनका भोजन पका दें। आपको कष्ट तो होगा, लेकिन आप ब्राह्मण हैं और ब्राह्मण को परोपकार के लिए अपने कष्ट की परवाह नहीं होती।

मेरा खून खौल उठा। जी में आया, उठा के पटक दूँ, लेकिन मैंने सब्र किया। क्या कदर की है आपने ब्राह्मण की! और मज़ा यह है कि इस मूर्ख को मुझसे ऐसी बात कहते संकोच भी न हुआ। मुझे चुप देखकर उसने कहा-क्या बुरा मान गये?

मैंने कहा-नहीं, बुरा क्या मानूँगा, लेकिन आपने इस काम के लिए किसी पानी-पाँड़े को पकड़ा होता, मुझे आप शायद नहीं जानते?

उसने कहा-मैं आपको खूब जानता हूँ, आप काशी के शास्त्री हैं। जब मैं होस्टल में था, तो एक काशी के शास्त्री मेरे सहपाठी थे। वह बराबर अपना भोजन आप पकाया करते थे, और जब कभी हमारे मेस का रसोइयादार बीमार पड़ जाता या भाग जाता तो वह मेरा भोजन पका देते थे और आग्रह करके खिलाते थे। इसीलिए मैंने आपसे यह प्रार्थना की।

मेरे पास इसका क्या जवाब था। पुरखों ने जो कुछ किया है, उसका तावान तो देना ही पड़ेगा।

मैंने कहा-आपकी इच्छा है तो मैं चलकर भोजन बना दूँगा। लेकिन एक शर्त है, अगर आप उसे स्वीकार करें।

‘कहिए, कहिए, आप जो कुछ कहेंगे वह मुझे स्वीकार है। आपने आज मेरी लाज रख ली।’

‘मैं रसोई में बैठकर बताता जाऊँगा, काम श्रीमतीजी को करना पड़ेगा।’

‘लेकिन उनके सिर में दर्द हुआ तब?’

‘उसकी मेरे पास दवा है। सिर में चक्कर आ जाए, आँखों के सामने अँधेरा छा जाए, मैं बात-की-बात में अच्छा कर सकता हूँ।’

‘और जो उन्हें गर्मी लगे?’

‘आप खड़े पंखा झलते रहिएगा।’

‘और उन्होंने क्रोध में आकर आपको कुछ कह दिया?’

‘तो मुझे भी क्रोध आ जाएगा और क्रोध में मैं लाट साहब को भी कुछ नहीं समझता। हाँ, इतना कह सकता हूँ कि इसके बाद उन्हें फिर क्रोध न आएगा।’

‘और जो उन्होंने बहस शुरू कर दी? उनकी दलीलों का आप जवाब दे सकते हैं?’

‘वाह! और मैंने उम्र भर किया क्या है? पहले तो दलील का जवाब दलील से देता हूँ। जब इससे काम नहीं चलता तो हाथ-पाँव से भी काम लेता हूँ। कितने ही शास्त्रार्थों में सम्मिलित हुआ हूँ और कभी परास्त होकर नहीं आया। बड़े-बड़े महामहोपाध्यायों को गुड़-हल्दी पिलाकर छोड़ दिया।

सज्जन ने एक क्षण तक विचार किया और फिर आने का वादा करके चले गये। तब से अब तक सूरत नहीं दिखाई।


       

शीर्ष पर जाएँ

हिंदी समय में प्रेमचंद की रचनाएँ



उपन्यास 
अलंकारकर्मभूमिगबनगोदाननिर्मलाप्रतिज्ञाप्रेमामंगल सूत्ररंगभूमिवरदानकहानियाँ 
आहुतिकफ़नकश्मीरी सेबजुरमानाजीवन-सारतथ्यदुनिया का सबसे अनमोल रत्नदो बहनेंनादान दोस्तपण्डित मोटेराम की डायरीप्रेम की होलीपागल हाथीमेरी पहली रचनामिट्ठूयह भी नशा, वह भी नशायही मेरा वतनरक्षा में हत्यारहस्यलेखकशेख़ मख़मूरशोक का पुरस्कारसैलानी बंदरसांसारिक प्रेम और देश प्रेमहोली का उपहारकहानी संग्रह 
मानसरोवर भाग 1मानसरोवर भाग 2मानसरोवर भाग 3मानसरोवर भाग-4मानसरोवर भाग-5मानसरोवर भाग-6मानसरोवर भाग-7मानसरोवर भाग-8नाटक 
संग्रामसृष्टिजीवनी 
शेख़ सादीअन्य 
घृणा का स्थानबाल साहित्य 
दुर्गादासरामचर्चालोककथा 
राष्ट्र का सेवक

अनुवाद



उपन्यास 
आजाद-कथा
भाग एक 
भाग दो 

कहानियाँ 

एक चिनगारी घर को जला देती हैक्षमादानदो वृद्ध पुरुषध्रुवनिवासी रीछ का शिकारप्रेम में परमेश्वरमनुष्य का जीवन आधार क्या हैमूर्ख सुमंतराजपूत कैदी

पत्र 

पिता के पत्र पुत्री के नाम

लोककथा 

दयामय की दया

शीर्ष पर जाएँ

मुखपृष्ठउपन्यासकहानीकविताव्यंग्यनाटकनिबंधआलोचनाविमर्शबाल साहित्यविविधसमग्र-संचयनअनुवादहमारे रचनाकारहिंदी लेखकपुरानी प्रविष्टिविशेषांकखोजसंपर्कविश्वविद्यालय

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 07 May 2020 at 8:51 AM -

क्षमा - मुंशी प्रेम चंद

 
Hindi Kahani
हिंदी कहानी
Kshama - Munshi Premchand
क्षमा - मुंशी प्रेम चंद
1
मुसलमानों को स्पेन-देश पर राज्य करते कई शताब्दियाँ बीत चुकी थीं। कलीसाओं की जगह मसजिदें बनती जाती थीं, घंटों की जगह अजान की आवाजें सुनाई देती थीं। ग़रनाता और अलहमरा में वे समय की नश्वर गति ... पर हँसनेवाले प्रासाद बन चुके थे, जिनके खंडहर अब तक देखनेवालों को अपने पूर्व ऐश्वर्य की झलक दिखाते हैं। ईसाइयों के गण्यमान्य स्त्री और पुरुष मसीह की शरण छोड़कर इस्लामी भ्रातृत्व में सम्मिलित होते जाते थे, और आज तक इतिहासकारों को यह आश्चर्य है कि ईसाइयों का निशान वहाँ क्योंकर बाकी रहा ! जो ईसाई-नेता अब तक मुसलमानों के सामने सिर न झुकाते थे, और अपने देश में स्वराज्य स्थापित करने का स्वप्न देख रहे थे उनमें एक सौदागर दाऊद भी था। दाऊद विद्वान और साहसी था। वह अपने इलाके में इस्लाम को कदम न जमाने देता था। दीन और निर्धन ईसाई विद्रोही देश के अन्य प्रांतों से आकर उसके शरणागत होते थे और वह बड़ी उदारता से उनका पालन-पोषण करता था। मुसलमान दाऊद से सशंक रहते थे। वे धर्म-बल से उस पर विजय न पाकर उसे अस्‍त्र-बल से परास्त करना चाहते थे; पर दाऊद कभी उनका सामना न करता। हाँ, जहाँ कहीं ईसाइयों के मुसलमान होने की खबर पाता, हवा की तरह पहुँच जाता और तर्क या विनय से उन्हें अपने धर्म पर अचल रहने की प्रेरणा देता। अंत में मुसलमानों ने चारों तरफ से घेर कर उसे गिरफ्तार करने की तैयारी की। सेनाओं ने उसके इलाके को घेर लिया। दाऊद को प्राण-रक्षा के लिए अपने सम्बन्धियों के साथ भागना पड़ा। वह घर से भागकर ग़रनाता में आया, जहाँ उन दिनों इस्लामी राजधानी थी। वहाँ सबसे अलग रहकर वह अच्छे दिनों की प्रतीक्षा में जीवन व्यतीत करने लगा। मुसलमानों के गुप्तचर उसका पता लगाने के लिए बहुत सिर मारते थे, उसे पकड़ लाने के लिए बड़े-बड़े इनामों की विज्ञप्ति निकाली जाती थी; पर दाऊद की टोह न मिलती थी। 


एक दिन एकांतवास से उकताकर दाऊद ग़रनाता के एक बाग में सैर करने चला गया। संध्या हो गयी थी। मुसलमान नीची अबाएँ पहने, बड़े-बड़े अमामे सिर पर बाँधे, कमर से तलवार लटकाये रबिशों में टहल रहे थे। स्त्रियाँ सफेद बुरके ओढ़े, जरी की जूतियाँ पहने बेंचों और कुरसियों पर बैठी हुई थीं। दाऊद सबसे अलग हरी-हरी घास पर लेटा हुआ सोच रहा था कि वह दिन कब आयेगा जब हमारी जन्मभूमि इन अत्याचारियों के पंजे से छूटेगी ! वह अतीत काल की कल्पना कर रहा था, जब ईसाई स्त्री और पुरुष इन रबिशों में टहलते होंगे, जब यह स्थान ईसाइयों के परस्पर वाग्विलास से गुलजार होगा। 
सहसा एक मुसलमान युवक आकर दाऊद के पास बैठ गया। वह उसे सिर से पाँव तक अपमानसूचक दृष्टि से देखकर बोला- क्या अभी तक तुम्हारा हृदय इस्लाम की ज्योति से प्रकाशित नहीं हुआ ? 
दाऊद ने गम्भीर भाव से कहा- इस्लाम की ज्योति पर्वत-शृंगों को प्रकाशित कर सकती है। अँधेरी घाटियों में उसका प्रवेश नहीं हो सकता। 
उस मुसलमान अरब का नाम जमाल था। यह आक्षेप सुनकर तीखे स्वर में बोला- इससे तुम्हारा क्या मतलब है ? 
दाऊद- इससे मेरा मतलब यही है कि ईसाइयों में जो लोग उच्च-श्रेणी के हैं, वे जागीरों और राज्याधिकारों के लोभ तथा राजदंड के भय से इस्लाम की शरण में आ सकते हैं; पर दुर्बल और दीन ईसाइयों के लिए इस्लाम में वह आसमान की बादशाहत कहाँ है जो हजरत मसीह के दामन में उन्हें नसीब होगी ! इस्लाम का प्रचार तलवार के बल से हुआ है, सेवा के बल से नहीं। 
जमाल अपने धर्म का अपमान सुनकर तिलमिला उठा। गरम होकर बोला- यह सर्वथा मिथ्या है। इस्लाम की शक्ति उसका आंतरिक भ्रातृत्व और साम्य है, तलवार नहीं। 
दाऊद- इस्लाम ने धर्म के नाम पर जितना रक्त बहाया है, उसमें उसकी सारी मसजिदें डूब जायँगी। 
जमाल- तलवार ने सदा सत्य की रक्षा की है। 
दाऊद ने अविचलित भाव से कहा- जिसको तलवार का आश्रय लेना पड़े, वह सत्य ही नहीं। 
जमाल जातीय गर्व से उन्मत्त होकर बोला- जब तक मिथ्या के भक्त रहेंगे, तब तक तलवार की जरूरत भी रहेगी। 
दाऊद- तलवार का मुँह ताकनेवाला सत्य ही मिथ्या है। 
अरब ने तलवार के कब्जे पर हाथ रखकर कहा- खुदा की कसम, अगर तुम निहत्थे न होते, तो तुम्हें इस्लाम की तौहीन करने का मजा चखा देता। 
दाऊद ने अपनी छाती में छिपाई हुई कटार निकालकर कहा- नहीं, मैं निहत्था नहीं हूँ। मुसलमानों पर जिस दिन इतना विश्वास करूँगा, उस दिन ईसाई न रहूँगा। तुम अपने दिल के अरमान निकाल लो। 
दोनों ने तलवारें खींच लीं। एक-दूसरे पर टूट पड़े। अरब की भारी तलवार ईसाई की हलकी कटार के सामने शिथिल हो गयी। एक सर्प की भाँति फन से चोट करती थी, दूसरी नागिन की भाँति उठती थी। लहरों की भाँति लपकती थी, दूसरी जल की मछलियों की भाँति चमकती थी। दोनों योद्धाओं में कुछ देर तक चोटें होती रहीं। सहसा एक बार नागिन उछलकर अरब के अंतस्तल में जा पहुँची। वह भूमि पर गिर पड़ा। 

3

जमाल के गिरते ही चारों तरफ से लोग दौड़ पड़े। वे दाऊद को घेरने की चेष्टाकरने लगे। दाऊद ने देखा, लोग तलवारें लिये दौड़े चले आ रहे हैं। प्राण लेकर भागा; पर जिधर जाता था, सामने बाग की दीवार रास्ता रोक लेती थी। दीवार ऊँची थी, उसे फाँदना मुश्किल था। यह जीवन और मृत्यु का संग्राम था। कहीं शरण की आशा नहीं, कहीं छिपने का स्थान नहीं। उधर अरबों की रक्त-पिपासा प्रतिक्षण तीव्र होती जाती थी। यह केवल एक अपराधी को दंड देने की चेष्टा न थी। जातीय अपमान का बदला था। एक विजित ईसाई की यह हिम्मत कि अरब पर हाथ उठाये ! ऐसा अनर्थ ! 
जिस तरह पीछा करनेवाले कुत्तों के सामने गिलहरी इधर-उधर दौड़ती है, किसी वृक्ष पर चढ़ने की बार-बार चेष्टाकरती है, पर हाथ-पाँव फूल जाने के कारण बार-बार गिर पड़ती है, वही दशा दाऊद की थी। दौड़ते-दौड़ते उसका दम फूल गया; पैर मन-मन भर के हो गये। कई बार जी में आया इन सब पर टूट पड़े और जितने महँगे प्राण बिक सकें, उतने महँगे बेचे; पर शत्रुओं की संख्या देखकर हतोत्साह हो जाता था। लेना, दौड़ना, पकड़ना का शोर मचा हुआ था। कभी-कभी पीछा करनेवाले इतने निकट आ जाते थे कि मालूम होता था, अब संग्राम का अंत हुआ, वह तलवार पड़ी; पर पैरों की एक ही गति, एक कावा, एक कन्नी उसे खून की प्यासी तलवार से बाल-बाल बचा लेती थी। 
दाऊद को अब इस संग्राम में खिलाड़ियों का-सा आनंद आने लगा। यह निश्चय था कि उसके प्राण नहीं बच सकते, मुसलमान दया करना नहीं जानते, इसलिए उसे अपने दाँव-पेंच में मजा आ रहा था। किसी वार से बचकर उसे अब इसकी खुशी न होती थी कि उसके प्राण बच गये, बल्कि इसका आनंद होता था कि उसने कातिल को कैसा ज़िच किया। सहसा उसे अपनी दाहिनी ओर बाग की दीवार कुछ नीची नजर आयी। आह ! यह देखते ही उसके पैरों में एक नयी शक्ति का संचार हो गया, धमनियों में नया रक्त दौड़ने लगा। वह हिरन की तरह उस तरफ दौड़ा और एक छलाँग में बाग के उस पार पहुँच गया। जिन्दगी और मौत में सिर्फ एक कदम का फासला था। पीछे मृत्यु थी और आगे जीवन का विस्तृत क्षेत्र। जहाँ तक दृष्टि जाती थी, झाड़ियाँ ही झाड़ियाँ नजर आती थीं। जमीन पथरीली थी, कहीं ऊँची, कहीं, नीची। जगह-जगह पत्थर की शिलाएँ पड़ी हुई थीं। दाऊद एक शिला के नीचे छिपकर बैठ गया। दम-भर में पीछा करनेवाले भी वहाँ आ पहुँचे और इधर-उधर झाड़ियों में, वृक्षों पर, गड्ढे में शिलाओं के नीचे तलाश करने लगे। एक अरब उस चट्टान पर आकर खड़ा हो गया, जिसके नीचे दाऊद छिपा हुआ था। दाऊद का कलेजा धक्-धक् कर रहा था। अब जान गयी ! अरब ने जरा नीचे को झाँका और प्राणों का अंत हुआ ? संयोग- केवल संयोग पर अब उसका जीवन निर्भर था। दाऊद ने साँस रोक ली, सन्नाटा खींच लिया। एक निगाह पर उसकी जिंदगी का फैसला था, जिंदगी और मौत में कितना सामीप्य है ! 
मगर अरबों को इतना अवकाश कहाँ था कि वे सावधान होकर शिला के नीचे देखते। वहाँ तो हत्यारे को पकड़ने की जल्दी थी। दाऊद के सिर से बला टल गयी। वे इधर-उधर ताक-झाँककर आगे बढ़ गये। 

4

अँधेरा हो गया। आकाश में तारागण निकल आये और तारों के साथ दाऊद भी शिला के नीचे से निकला। लेकिन देखा, उस समय भी चारों तरफ हलचल मची हुई है, शत्रुओं का दल मशालें लिये झाड़ियों में घूम रहा है; नाकों पर भी पहरा है, कहीं निकल भागने का रास्ता नहीं है। दाऊद एक वृक्ष के नीचे खड़ा होकर सोचने लगा कि अब क्योंकर जान बचे। उसे अपनी जान की वैसी परवा न थी। वह जीवन के सुख-दुख सब भोग चुका था। अगर उसे जीवन की लालसा थी, तो केवल यही देखने के लिए कि इस संग्राम का अंत क्या होगा ? मेरे देशवासी हतोत्साह हो जायेंगे, या अदम्य धैर्य के साथ संग्रामक्षेत्र में अटल रहेंगे। 
जब रात अधिक बीत गयी और शत्रुओं की घातक चेष्टा कुछ कम न होती दीख पड़ी तो दाऊद खुदा का नाम लेकर झाड़ियों से निकला और दबे-पाँव, वृक्षों की आड़ में, आदमियों की नजर बचाता हुआ, एक तरफ को चला। वह इन झाड़ियों से निकलकर बस्ती में पहुँच जाना चाहता था। निर्जनता किसी की आड़ नहीं कर सकती। बस्ती का जनबाहुल्य स्वयं आड़ है। 
कुछ दूर तक तो दाऊद के मार्ग में कोई बाधा न उपस्थित हुई। वन के वृक्षों ने उसकी रक्षा की, किन्तु जब वह असमतल भूमि से निकलकर समतल भूमि पर आया, तो एक अरब की निगाह उस पर पड़ गयी। उसने ललकारा। दाऊद भागा। ‘कातिल भागा जाता है !’ यह आवाज हवा में एक ही बार गूँजी और क्षण-भर में चारों तरफ से अरबों ने उसका पीछा किया। सामने बहुत दूर तक आदमी का नामोनिशान न था। बहुत दूर पर एक धुँधला-सा दीपक टिमटिमा रहा था। किसी तरह वहाँ तक पहुँच जाऊँ। वह उस दीपक की ओर इतनी तेजी से दौड़ रहा था, मानो वहाँ पहुँचते ही अभय पा जायगा। आशा उसे उड़ाये लिये जाती थी। अरबों का समूह पीछे छूट गया; मशालों की ज्योति निष्प्रभ हो गयी। केवल तारागण उसके साथ दौड़े चले आते थे। अंत को वह आशामय दीपक के सामने आ पहुँचा। एक छोटा-सा फूस का मकान था। एक बूढ़ा अरब जमीन पर बैठा हुआ रेहल पर कुरान रखे उसी दीपक के मंद प्रकाश से पढ़ रहा था। दाऊद आगे न जा सका। उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। वह वहीं शिथिल होकर गिर पड़ा। रास्ते की थकन घर पहुँचने पर मालूम होती है। 
अरब ने उठकर कहा- तू कौन है ? 
दाऊद- एक गरीब ईसाई। मुसीबत में फँस गया हूँ। अब आप ही शरण दें, तो मेरे प्राण बच सकते हैं। 
अरब- खुदा-पाक तेरी मदद करेगा। तुम पर क्या मुसीबत पड़ी हुई है ? 
दाऊद- डरता हूँ कहीं कह दूँ तो आप भी मेरे खून के प्यासे न हो जायँ। 
अरब- अब तू मेरी शरण में आ गया, तो तुझे मुझसे कोई शंका न होनी चाहिए। हम मुसलमान हैं, जिसे एक बार अपनी शरण में ले लेते हैं उसकी जिंदगी-भर रक्षा करते हैं। 
दाऊद- मैंने एक मुसलमान युवक की हत्या कर डाली है।
वृद्ध अरब का मुख क्रोध से विकृत हो गया, बोला- उसका नाम ? 
दाऊद- उसका नाम जमाल था। 
अरब सिर पकड़कर वहीं बैठ गया। उसकी आँखें सुर्ख हो गयीं; गरदन की नसें तन गयीं; मुख पर अलौकिक तेजस्विता की आभा दिखायी दी, नथुने फड़कने लगे। ऐसा मालूम होता था कि उसके मन में भीषण द्वंद्व हो रहा है और वह समस्त विचार-शक्ति से अपने मनोभावों को दबा रहा है। दो-तीन मिनट तक वह इसी उग्र अवस्था में बैठा धरती की ओर ताकता रहा। अंत में अवरुद्ध कंठ से बोला- नहीं-नहीं, शरणागत की रक्षा करनी ही पड़ेगी। आह ! जालिम ! तू जानता है, मैं कौन हूँ। मैं उसी युवक का अभागा पिता हूँ, जिसकी आज तूने इतनी निर्दयता से हत्या की है। तू जानता है, तूने मुझ पर कितना बड़ा अत्याचार किया है ? तूने मेरे खानदान का निशान मिटा दिया है ! मेरा चिराग गुल कर दिया ! आह, जमाल मेरा इकलौता बेटा था। मेरी सारी अभिलाषाएँ उसी पर निर्भर थीं। वह मेरी आँखों का उजाला, मुझ अँधे का सहारा, मेरे जीवन का आधार, मेरे जर्जर शरीर का प्राण था। अभी-अभी उसे कब्र की गोद में लिटा आया हूँ। आह, मेरा शेर, आज खाक के नीचे सो रहा है। ऐसा दिलेर, ऐसा दीनदार, ऐसा सजीला जवान मेरी कौम में दूसरा न था। जालिम, तुझे उस पर तलवार चलाते जरा भी दया न आयी। तेरा पत्थर का कलेजा जरा भी न पसीजा ! तू जानता है, मुझे इस वक्त तुझ पर कितना गुस्सा आ रहा है ? मेरा जी चाहता है कि अपने दोनों हाथों से तेरी गरदन पकड़कर इस तरह दबाऊँ कि तेरी जबान बाहर निकल आये, तेरी आँखें कौड़ियों की तरह बाहर निकल पड़ें। पर नहीं, तूने मेरी शरण ली है, कर्तव्य मेरे हाथों को बाँधे हुए है, क्योंकि हमारे रसूल-पाक ने हिदायत की है, कि जो अपनी पनाह में आये, उस पर हाथ न उठाओ। मैं नहीं चाहता कि नबी के हुक्म को तोड़कर दुनिया के साथ अपनी आक़बत भी बिगाड़ लूँ। दुनिया तूने बिगाड़ी, दीन अपने हाथों बिगाड़ूँ ? नहीं। सब्र करना मुश्किल है; पर सब्र करूँगा ताकि नबी के सामने आँखें नीची न करनी पड़ें। आ, घर में आ। तेरा पीछा करनेवाले दौड़े आ रहे हैं। तुझे देख लेंगे, तो फिर मेरी सारी मिन्नत-समाजत तेरी जान न बचा सकेगी। तू नहीं जानता कि अरब लोग खून कभी माफ नहीं करते। 
यह कहकर अरब ने दाऊद का हाथ पकड़ लिया, और उसे घर में ले जाकर एक कोठरी में छिपा दिया। वह घर से बाहर निकला ही था कि अरबों का एक दल द्वार पर आ पहुँचा। 
एक आदमी ने पूछा- क्यों शेख हसन, तुमने इधर से किसी को भागते देखा है ? 
‘हाँ देखा है।’ 
‘उसे पकड़ क्यों न लिया ? वही तो जमाल का कातिल था !’ 
‘यह जानकर भी मैंने उसे छोड़ दिया।’ 
‘ऐं ! गजब खुदा का ! यह तुमने क्या किया ? जमाल हिसाब के दिन हमारा दामन पकड़ेगा तो हम क्या जवाब देंगे ?’ 
‘तुम कह देना कि तेरे बाप ने तेरे कातिल को माफ कर दिया।’ 
‘अरब ने कभी कातिल का खून नहीं माफ किया।’ 
‘यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, मैं उसे अपने सिर क्यों लूँ ?’ 
अरबों ने शेख हसन से ज्यादा हुज्जत न की, कातिल की तलाश में दौड़े। शेख हसन फिर चटाई पर बैठकर कुरान पढ़ने लगा, लेकिन उसका मन पढ़ने में न लगता था। शत्रु से बदला लेने की प्रवृत्ति अरबों की प्रवृत्ति में बद्धमूल होती थी। खून का बदला खून था। इसके लिए खून की नदियाँ बह जाती थीं, कबीले-के-कबीले मर मिटते थे, शहर-के-शहर वीरान हो जाते थे। उस प्रवृत्ति पर विजय पाना शेख हसन को असाध्य-सा प्रतीत हो रहा था। बार-बार प्यारे पुत्र की सूरत उसकी आँखों के आगे फिरने लगती थी, बार-बार उसके मन में प्रबल उत्तेजना होती थी कि चलकर दाऊद के खून से अपने क्रोध की आग बुझाऊँ। अरब वीर होते थे। कटना-मरना उनके लिए कोई असाधारण बात न थी। मरनेवालों के लिए वे आँसुओं की कुछ बूँदें बहाकर फिर अपने काम में प्रवृत्त हो जाते थे। वे मृत व्यक्ति की स्मृति को केवल उसी दशा में जीवित रखते थे, जब उसके खून का बदला लेना होता था। अन्त को शेख हसन अधीर हो उठा। उसको भय हुआ कि अब मैं अपने ऊपर काबू नहीं रख सकता। उसने तलवार म्यान से निकाल ली और दबे पाँव उस कोठरी के द्वार पर आकर खड़ा हो गया, जिसमें दाऊद छिपा हुआ था। तलवार को दामन में छिपाकर उसने धीरे से द्वार खोला। दाऊद टहल रहा था। बूढ़े अरब का रौद्र रूप देखकर दाऊद उसके मनोवेग को ताड़ गया। उसे बूढ़े से सहानुभूति हो गयी। उसने सोचा, यह धर्म का दोष नहीं, जाति का दोष नहीं। मेरे पुत्र की किसी ने हत्या की होती, तो कदाचित् मैं भी उसके खून का प्यासा हो जाता। यही मानव प्रकृति है। 
अरब ने कहा- दाऊद, तुम्हें मालूम है बेटे की मौत का कितना गम होता है। 
दाऊद- इसका अनुभव तो नहीं, पर अनुमान कर सकता हूँ। अगर मेरी जान से आपके उस गम का एक हिस्सा भी मिट सके, तो लीजिए, यह सिर हाजिर है। मैं इसे शौक से आपकी नजर करता हूँ। आपने दाऊद का नाम सुना होगा। 
अरब- क्या पीटर का बेटा ? 
दाऊद- जी हाँ। मैं वही बदनसीब दाऊद हूँ। मैं केवल आपके बेटे का घातक ही नहीं, इस्लाम का दुश्मन हूँ। मेरी जान लेकर आप जमाल के खून का बदला ही न लेंगे, बल्कि अपनी जाति और धर्म की सच्ची सेवा भी करेंगे। 
शेख हसन ने गम्भीर भाव से कहा- दाऊद, मैंने तुम्हें माफ किया। मैं जानता हूँ, मुसलमानों के हाथ ईसाइयों को बहुत तकलीफें पहुँची हैं, मुसलमानों ने उन पर बड़े-बड़े अत्याचार किये हैं, उनकी स्वाधीनता हर ली है ! लेकिन यह इस्लाम का नहीं, मुसलमानों का कसूर है। विजय-गर्व ने मुसलमानों की मति हर ली है। हमारे पाक नबी ने यह शिक्षा नहीं दी थी, जिस पर आज हम चल रहे हैं। वह स्वयं क्षमा और दया का सर्वोच्च आदर्श है। मैं इस्लाम के नाम को बट्टा न लगाऊँगा। मेरी ऊँटनी ले लो और रातों-रात जहाँ तक भागा जाय, भागो। कहीं एक क्षण के लिए भी न ठहरना। अरबों को तुम्हारी बू भी मिल गयी, तो तुम्हारी जान की खैरियत नहीं। जाओ, तुम्हें खुदा-ए-पाक घर पहुँचावे। बूढ़े शेख हसन और उसके बेटे जमाल के लिए खुदा से दुआ किया करना।

       ×        ×          ×          ×          × 
दाऊद खैरियत से घर पहुँच गया; किंतु अब वह दाऊद न था, जो इस्लाम को जड़ से खोदकर फेंक देना चाहता था। उसके विचारों में गहरा परिवर्तन हो गया था। अब वह मुसलमानों का आदर करता और इस्लाम का नाम इज्जत से लेता था।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 07 May 2020 at 6:48 AM -

हार की जीत - मुंशी प्रेम चंद

Hindi Kahani- हिंदी कहानी
Haar Ki Jeet - Munshi Premchand
हार की जीत - मुंशी प्रेम चंद

केशव से मेरी पुरानी लाग-डाँट थी। लेख और वाणी, हास्य और विनोद सभी क्षेत्रों में मुझसे कोसों आगे था। उसके गुणों की चंद्र-ज्योति में मेरे दीपक का प्रकाश कभी प्रस्फुटित न ... हुआ। एक बार उसे नीचा दिखाना मेरे जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा थी। उस समय मैंने कभी स्वीकार नहीं किया। अपनी त्रुटियों को कौन स्वीकार करता है पर वास्तव में मुझे ईश्वर ने उसकी जैसी बुद्धि-शक्ति न प्रदान की थी। अगर मुझे कुछ तस्कीन थी तो यह कि विद्याक्षेत्र में चाहे मुझे उनसे कंधा मिलाना कभी नसीब न हो, पर व्यवहार की रंगभूमि में सेहरा मेरे ही सिर रहेगा। लेकिन दुर्भाग्य से जब प्रणय-सागर में भी उसने मेरे साथ गोता मारा और रत्न उसी के हाथ लगता हुआ नजर आया तो मैं हताश हो गया। हम दोनों ने ही एम.ए. के लिए साम्यवाद का विषय लिया था। हम दोनों ही साम्यवादी थे। केशव के विषय में तो यह स्वाभाविक बात थी। उसका कुल बहुत प्रतिष्ठित न था, न वह समृद्धि ही थी जो इस कमी को पूरा कर देती। मेरी अवस्था इसके प्रतिकूल थी। मैं खानदान का ताल्लुकेदार और रईस था। मेरी साम्यवादिता पर लोगों को कुतूहल होता था। हमारे साम्यवाद के प्रोफेसर बाबू हरिदास भाटिया साम्यवाद के सिद्धांतों के कायल थे, लेकिन शायद धन की अवहेलना न कर सकते थे। अपनी लज्जावती के लिए उन्होंने कुशाग्र बुद्धि केशव को नहीं, मुझे पसंद किया। एक दिन संध्या-समय वह मेरे कमरे में आये और चिंतित भाव से बोले-शारदाचरण, मैं महीनों से एक बड़ी चिंता में पड़ा हुआ हूँ। मुझे आशा है कि तुम उसका निवारण कर सकते हो ! मेरे कोई पुत्र नहीं है। मैंने तुम्हें और केशव दोनों ही को पुत्र-तुल्य समझा है। यद्यपि केशव तुमसे चतुर है, पर मुझे विश्वास है कि विस्तृत संसार में तुम्हें जो सफलता मिलेगी, वह उसे नहीं मिल सकती। अतएव मैंने तुम्हीं को अपनी लज्जा के लिए वरा है। क्या मैं आशा करूँ कि मेरा मनोरथ पूरा होगा। 
मैं स्वतंत्र था, मेरे माता-पिता मुझे लड़कपन ही में छोड़ कर स्वर्ग चले गये थे। मेरे कुटुम्बियों में अब ऐसा कोई न था, जिसकी अनुमति लेने की मुझे जरूरत होती। लज्जावती जैसी सुशीला, सुन्दरी, सुशिक्षित स्त्री को पा कर कौन पुरुष होगा जो अपने भाग्य को न सराहता। मैं फूला न समाया। लज्जा एक कुसुमित वाटिका थी, जहाँ गुलाब की मनोहर सुगंधि थी और हरियाली की मनोरम शीतलता, समीर की शुभ्र तरंगे थीं और पक्षियों का मधुर संगीत। वह स्वयं साम्यवाद पर मोहित थी। स्त्रियों के प्रतिनिधित्व और ऐसे ही अन्य विषयों पर उसने मुझसे कितनी ही बार बातें की थीं। लेकिन प्रोफेसर भाटिया की तरह केवल सिद्धान्तों की भक्त न थी, उनको व्यवहार में भी लाना चाहती थी। उसने चतुर केशव को अपना स्नेह-पात्र बनाया था। तथापि मैं जानता था कि प्रोफेसर भाटिया के आदेश को वह कभी नहीं टाल सकती, यद्यपि उसकी इच्छा के विरुद्ध मैं उसे अपनी प्रणयिनी बनाने के लिए तैयार न था। इस विषय में मैं स्वेच्छा के सिद्धांत का कायल था। इसलिए मैं केशव की विरक्ति और क्षोभ से आशातीत आनन्द न उठा सका। हम दोनों ही दुःखी थे, और मुझे पहली बार केशव से सहानुभूति हुई। मैं लज्जावती से केवल इतना पूछना चाहता था कि उसने मुझे क्यों नजरों से गिरा दिया। पर उसके सामने ऐसे नाजुक प्रश्नों को छेड़ते हुए मुझे संकोच होता था, और यह स्वाभाविक था, क्योंकि कोई रमणी अपने अंतःकरण के रहस्यों को नहीं खोल सकती। लेकिन शायद लज्जावती इस परिस्थिति को मेरे सामने प्रकट करना अपना कर्तव्य समझ रही थी। वह इसका अवसर ढूँढ़ रही थी। संयोग से उसे शीघ्र ही अवसर मिल गया। 
संध्या का समय था। केशव राजपूत हॉस्टल में साम्यवाद पर एक व्याख्यान देने गया हुआ था। प्रोफेसर भाटिया उस जलसे के प्रधान थे। लज्जा अपने बँगले में अकेली बैठी हुई थी। मैं अपने अशांत हृदय के भाव छिपाये हुए, शोक और नैराश्य की दाह से जलता हुआ उसके समीप आ कर बैठ गया। लज्जा ने मेरी ओर एक उड़ती हुई निगाह डाली और सदय भाव से बोली-कुछ चिंतित जान पड़ते हो ? 
मैंने कृत्रिम उदासीनता से कहा-तुम्हारी बला से। 
लज्जा केशव का व्याख्यान सुनने नहीं गये ? 
मेरी आँखों से ज्वाला सी निकलने लगी। जब्त करके बोला आज सिर में दर्द हो रहा था। 
यह कहते-कहते अनायास ही मेरे नेत्रों से आँसू की कई बूँदें टपक पड़ीं। मैं अपने शोक को प्रदर्शित करके उसका करुणापात्र बनना नहीं चाहता था। मेरे विचार में रोना स्त्रियों के ही स्वाभावानुकूल था। मैं उस पर क्रोध प्रकट करना चाहता था और निकल पड़े आँसू। मन के भाव इच्छा के अधीन नहीं होते। 
मुझे रोते देख कर लज्जा की आँखों से आँसू गिरने लगे।
मैं कीना नहीं रखता, मलिन हृदय नहीं हूँ, लेकिन न मालूम क्यों लज्जा के रोने पर मुझे इस समय एक आनन्द का अनुभव हुआ। उस शोकावस्था में भी मैं उस पर व्यंग्य करने से बाज न रह सका। बोला लज्जा, मैं तो अपने भाग्य को रोता हूँ। शायद तुम्हारे अन्याय की दुहाई दे रहा हूँ; लेकिन तुम्हारे आँसू क्यों ? 
लज्जा ने मेरी ओर तिरस्कार-भाव से देखा और बोली-मेरे आँसुओं का रहस्य तुम न समझोगे क्योंकि तुमने कभी समझने की चेष्टा नहीं की। तुम मुझे कटु वचन सुना कर अपने चित्त को शांत कर लेते हो। मैं किसे जलाऊँ। तुम्हें क्या मालूम है कि मैंने कितना आगा-पीछा सोचकर, हृदय को कितना दबाकर, कितनी रातें करवटें बदल कर और कितने आँसू बहा कर यह निश्चय किया है। तुम्हारी कुल-प्रतिष्ठा, तुम्हारी रियासत एक दीवार की भाँति मेरे रास्ते में खड़ी है। उस दीवार को मैं पार नहीं कर सकती। मैं जानती हूँ कि इस समय तुम्हें कुल-प्रतिष्ठा और रियासत का लेशमात्र भी अभिमान नहीं है। लेकिन यह भी जानती हूँ कि तुम्हारा कालेज की शीतल छाया में पला हुआ साम्यवाद बहुत दिनों तक सांसारिक जीवन की लू और लपट को न सह सकेगा। उस समय तुम अवश्य अपने फैसले पर पछताओगे और कुढ़ोगे। मैं तुम्हारे दूध की मक्खी और हृदय का काँटा बन जाऊँगी। 
मैंने आर्द्र होकर कहा-जिन कारणों से मेरा साम्यवाद लुप्त हो जायगा, क्या वह तुम्हारे साम्यवाद को जीता छोड़ेगा ? 
लज्जा हाँ, मुझे पूरा विश्वास है कि मुझ पर उनका जरा भी असर न होगा। मेरे घर में कभी रियासत नहीं रही और कुल की अवस्था तुम भलीभाँति जानते हो। बाबू जी ने केवल अपने अविरल परिश्रम और अध्यवसाय से यह पद प्राप्त किया है। मुझे वह नहीं भूला है जब मेरी माता जीवित थीं और बाबू जी 11 बजे रात को प्राइवेट ट्यूशन कर के घर आते थे। तो मुझे रियासत और कुल-गौरव का अभिमान कभी नहीं हो सकता, उसी तरह जैसे तुम्हारे हृदय से यह अभिमान कभी मिट नहीं सकता। यह घमंड मुझे उसी दशा में होगा जब मैं स्मृतिहीन हो जाऊँगी। 
मैंने उद्दंडता से कहा-कुल-प्रतिष्ठा को तो मैं मिटा नहीं सकता, मेरे वश की बात नहीं है, लेकिन तुम्हारे लिए मैं आज रियासत को तिलांजलि दे सकता हूँ। 
लज्जा क्रूर मुस्कान से बोली-फिर वही भावुकता ! अगर यह बात तुम किसी अबोध बालिका से करते तो कदाचित् वह फूली न समाती। मैं एक ऐसे गहन विषय में, जिस पर दो प्राणियों के समस्त जीवन का सुख-दुःख निर्भर है, भावुकता का आश्रय नहीं ले सकती। शादी बनावट नहीं है। परमात्मा साक्षी है, मैं विवश हूँ, मुझे अभी तक स्वयं मालूम नहीं है कि मेरी डोंगी किधर जायेगी; लेकिन मैं तुम्हारे जीवन को कंटकमय नहीं बना सकती। 
मैं यहाँ से चला तो इतना निराश न था जितना सचिंत। लज्जा ने मेरे सामने एक नयी समस्या उपस्थित कर दी थी। 

हम दोनों साथ-साथ एम.ए. हुए। केशव प्रथम श्रेणी में आया, मैं द्वितीय श्रेणी में। उसे नागपुर के एक कालेज में अध्यापक का पद मिल गया। मैं घर आ कर अपनी रियासत का प्रबंध करने लगा। चलते समय हम दोनों गले मिल कर और रो कर विदा हुए। विरोध और ईर्ष्या को कालेज में छोड़ दिया। 
मैं अपने प्रांत का पहला ताल्लुकेदार था, जिसने एम.ए. पद प्राप्त किया हो। पहले तो राज्याधिकारियों ने मेरी खूब आवभगत की; लेकिन जब मेरे सामाजिक सिद्धांतों से अवगत हुए तो उनकी कृपादृष्टि कुछ शिथिल पड़ गयी। मैंने भी उनसे मिलना-जुलना छोड़ दिया। अपना अधिकांश समय असामियों के ही बीच में व्यतीत करता।
पूरा साल भर भी न गुजरने पाया कि एक ताल्लुकेदार की परलोक-यात्र ने कौंसिल में एक स्थान खाली कर दिया। मैंने कौंसिल में जाने की अपनी तरफ से कोई कोशिश नहीं की। लेकिन काश्तकारों ने अपने प्रतिनिधित्व का भार मेरे ही सिर रखा। बेचारा केशव तो अपने कालेज में लेक्चर देता था, किसी को खबर भी न थी कि वह कहाँ है और क्या कर रहा है और मैं अपने कुल-मर्यादा की बदौलत कौंसिल का मेम्बर हो गया। मेरी वक्तृताएँ समाचार-पत्रों में छपने लगीं। मेरे प्रश्नों की प्रशंसा होने लगी। कौंसिल में मेरा विशेष सम्मान होने लगा, कई सज्जन ऐसे निकल आये जो जनतावाद के भक्त थे। पहले वह परिस्थितियों से कुछ दबे हुए थे, अब वह खुल पड़े। हम लोगों ने लोकवादियों का अपना एक पृथक् दल बना लिया और कृषकों के अधिकारों को जोरों के साथ व्यक्त करना शुरू किया। अधिकांश भूपतियों ने मेरी अवहेलना की। कई सज्जनों ने धमकियाँ भी दीं; लेकिन मैंने अपने निश्चित पथ को न छोड़ा। सेवा के इस सुअवसर को क्योंकर हाथ से जाने देता। दूसरा वर्ष समाप्त होते-होते जाति के प्रधान नेताओं में मेरी गणना होने लगी। मुझे बहुत परिश्रम करना, बहुत पढ़ना, बहुत लिखना और बहुत बोलना पड़ता, पर जरा भी न घबराता। इस परिश्रमशीलता के लिए केशव का ऋणी था। उसी ने मुझे इतना अभ्यस्त बना दिया था। 
मेरे पास केशव और प्रोफेसर भाटिया के पत्र बराबर आते रहते थे। कभी-कभी लज्जावती भी मिलती थी। उसके पत्रों में श्रद्धा और प्रेम की मात्र दिनोंदिन बढ़ती जाती थी। वह मेरी राष्ट्रसेवा का बड़े उदार, बड़े उत्साहमय शब्दों में बखान करती। मेरे विषय में उसे पहले जो शंकाएँ थीं, वह मिटती जाती थीं। मेरी तपस्या की देवी को आकर्षित करने लगी थी। केशव के पत्रों से उदासीनता टपकती थी। उसके कालेज में धन का अभाव था। तीन वर्ष हो गये थे, पर उसकी तरक्की न हुई थी। पत्रों से ऐसा प्रतीत होता था मानो वह जीवन से असंतुष्ट है। कदाचित् इसका मुख्य कारण यह था कि अभी तक उसके जीवन का सुखमय स्वप्न चरितार्थ न हुआ था। 
तीसरे वर्ष गर्मियों की तातील में प्रोफेसर भाटिया मुझसे मिलने आये और बहुत प्रसन्न हो कर गये। उसके एक ही सप्ताह पीछे लज्जावती का पत्र आया, अदालत ने तजबीज सुना दी, मेरी डिग्री हो गयी। केशव की पहली बार मेरे मुकाबले में हार हुई। मेरे हर्षोल्लास की कोई सीमा न थी। प्रो. भाटिया का इरादा भारतवर्ष के सब प्रांतों में भ्रमण करने का था। वह साम्यवाद पर एक ग्रन्थ लिख रहे थे जिसके लिए प्रत्येक बड़े नगर में कुछ अन्वेषण करने की जरूरत थी। लज्जा को अपने साथ ले जाना चाहते थे। निश्चय हुआ कि उनके लौट आने पर आगामी चैत के महीने में हमारा संयोग हो जाय। मैं यह वियोग के दिन बड़ी बेसब्री से काटने लगा। अब तक मैं जानता था बाजी केशव के हाथ रहेगी, मैं निराश था, पर शांत था। अब आशा थी और उसके साथ घोर अशांति थी। 

मार्च का महीना था। प्रतीक्षा की अवधि पूरी हो चुकी थी। कठिन परिश्रम के दिन गये, फसल काटने का समय आया। प्रोफेसर साहब ने ढाका से पत्र लिखा था कि कई अनिवार्य कारणों से मेरा लौटना मार्च में नहीं मई में होगा। इसी बीच में कश्मीर के दीवान लाला सोमनाथ कपूर नैनीताल आये। बजट पेश था। उन पर व्यवस्थापक सभा में वाद-विवाद हो रहा था। गवर्नर की ओर से दीवान साहब को पार्टी दी गयी। सभा के प्रतिनिधियों को भी निमंत्रण मिला। कौंसिल की ओर से मुझे अभिवादन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मेरी बकवास को दीवान साहब ने बहुत पसंद किया। चलते समय मुझसे कई मिनट तक बातें कीं और मुझे अपने डेरे पर आने का आदेश दिया। उनके साथ उनकी पुत्री सुशीला भी थी। वह पीछे सिर झुकाये खड़ी रही। जान पड़ता था, भूमि को पढ़ रही है। पर मैं अपनी आँखों को काबू में न रख सका। वह उतनी ही देर में एक बार नहीं, कई बार उठी और जैसे बच्चा किसी अजनबी की चुमकार से उसकी ओर लपकता है, पर फिर डर कर माँ की गोद से चिमट जाता है; वह भी डर कर आधे रास्ते से लौट गयी। लज्जा अगर कुसुमित वाटिका थी तो सुशीला शीतल सलिल-धारा थी जहाँ वृक्षों के कुंज थे, विनोदशील मृगों के झुंड, विहगावली की अनंत शोभा और तरंगों का मधुर संगीत। 
मैं घर पर आया तो ऐसा थका हुआ था जैसे कोई मंजिल मारकर आया हूँ। सौंदर्य जीवन-सुधा है। मालूम नहीं क्यों इसका असर इतना प्राणघातक होता है। 
लेटा तो वही सूरत सामने थी। मैं उसे हटाना चाहता था। मुझे भय था कि एक क्षण भी उस भँवर में पड़ कर मैं अपने को सँभाल न सकूँगा। मैं अब लज्जावती का हो चुका था, वही अब मेरे हृदय की स्वामिनी थी। मेरा उस पर कोई अधिकार न था लेकिन मेरे सारे संयम, सारी दलीलें निष्फल हुईं। जल के उद्वेग में नौका को धागे से कौन रोक सकता है। अंत में हताश हो कर मैंने अपने को विचारों के प्रवाह में डाल दिया। कुछ दूर तक नौका वेगवती तरंगों के साथ चली, फिर उसी प्रवाह में विलीन हो गयी। 
दूसरे दिन मैं नियत समय पर दीवान साहब के डेरे पर जा पहुँचा, इस भाँति काँपता और हिचकता जैसे कोई बालक दामिनी की चमक से चौंक-चौंक कर आँख बंद कर लेता है कि कहीं वह चमक न जाय, कहीं मैं उसकी चमक न देख लूँ; भोला-भाला किसान भी अदालत के सामने इतना सशंक न होता होगा। यथार्थ यह था कि मेरी आत्मा परास्त हो चुकी थी, उसमें अब प्रतिकार की शक्ति न रही थी। 
दीवान साहब ने मुझसे हाथ मिलाया और कोई घंटे भर तक आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर वार्तालाप करते रहे। मुझे उनकी बहुज्ञता पर आश्चर्य होता था। ऐसा वाक्चतुर पुरुष मैंने कभी न देखा था। साठ वर्ष की वयस थी, पर हास्य और विनोद के मानो भंडार थे। न जाने कितने श्लोक, कितने कवित्त, कितने शेर उन्हें याद थे। बात-बात पर कोई न कोई सुयुक्ति निकाल लाते थे। खेद है उस प्रकृति के लोग अब गायब होते जाते हैं। वह शिक्षा प्रणाली न जाने कैसी थी, जो ऐसे-ऐसे रत्न उत्पन्न करती थी। अब तो सजीवता कहीं दिखायी ही नहीं देती। प्रत्येक प्राणी चिन्ता की मूर्ति है, उसके होंठों पर कभी हँसी आती ही नहीं। खैर, दीवान साहब ने पहले चाय मँगवायी, फिर फल और मेवे मँगवाये। मैं रह-रह कर इधर-उधर उत्सुक नेत्रों से देखता था। मेरे कान उसके स्वर का रसपान करने के लिए मुँह खोले हुए थे, आँखें द्वार की ओर लगी हुई थीं। भय भी था और लगाव भी, झिझक भी थी और खिंचाव भी। बच्चा झूले से डरता है पर उस पर बैठना भी चाहता है। 
लेकिन रात के नौ बज गये, मेरे लौटने का समय आ गया। मन में लज्जित हो रहा था कि दीवान साहब दिल में क्या कह रहे होंगे। सोचते होंगे इसे कोई काम नहीं है ? जाता क्यों नहीं, बैठे-बैठे दो ढाई घंटे तो हो गये। 
सारी बातें समाप्त हो गयीं। उनके लतीफे भी खत्म हो गये। वह नीरवता उपस्थित हो गयी, जो कहती है कि अब चलिए फिर मुलाकात होगी। यार जिंदा व सोहबत बाकी। मैंने कई बार उठने का इरादा किया, लेकिन इंतजार में आशिक की जान भी नहीं निकलती, मौत को भी इंतजार का सामना करना पड़ता है। यहाँ तक कि साढ़े नौ बज गये और अब मुझे विदा होने के सिवाय कोई मार्ग न रहा, जैसे दिल बैठ गया। 
जिसे मैंने भय कहा है, वह वास्तव में भय नहीं था, वह उत्सुकता की चरम सीमा थी। 
यहाँ से चला तो ऐसा शिथिल और निर्जीव था मानो प्राण निकल गये हों। अपने को धिक्कारने लगा। अपनी क्षुद्रता पर लज्जित हुआ। तुम समझते हो कि हम भी कुछ हैं। यहाँ किसी की तुम्हारे मरने-जीने की परवाह नहीं। माना उसके लक्षण क्वाँरियों के-से हैं। संसार में क्वाँरी लड़कियों की कमी नहीं। सौंदर्य भी ऐसी दुर्लभ वस्तु नहीं। अगर प्रत्येक रूपवती और क्वाँरी युवती को देख कर तुम्हारी वही हालत होती रही तो ईश्वर ही मालिक है।
वह भी तो अपने दिल में यही विचार करती होगी। प्रत्येक रूपवान युवक पर उसकी आँखें क्यों उठें। कुलवती स्त्रियों के यह ढंग नहीं होते। पुरुषों के लिए अगर यह रूप-तृष्णा निंदाजनक है तो स्त्रियों के लिए विनाशकारक है। द्वैत से अद्वैत को भी इतना आघात नहीं पहुँच सकता, जितना सौंदर्य को। 
दूसरे दिन शाम को मैं अपने बरामदे में बैठा पत्र देख रहा था। क्लब जाने को भी जी नहीं चाहता था। चित्त कुछ उदास था। सहसा मैंने दीवान साहब को फिटन पर आते देखा। मोटर से उन्हें घृणा थी। वह उसे पैशाचिक उड़नखटोला कहा करते थे। उसके बगल में सुशीला थी। मेरा हृदय धक्-धक् करने लगा। उसकी निगाह मेरी तरफ उठी हो या न उठी हो, पर मेरी टकटकी उस वक्त तक लगी रही जब तक फिटन अदृश्य न हो गयी। 
तीसरे दिन मैं फिर बरामदे में आ बैठा। आँखें सड़क की ओर लगी हुई थीं। फिटन आयी और चली गयी। अब यही उसका नित्यप्रति का नियम हो गया है। मेरा अब यही काम था कि सारे दिन बरामदे में बैठा रहूँ। मालूम नहीं फिटन कब निकल जाय। विशेषतः तीसरे पहर तो मैं अपनी जगह से हिलने का नाम भी न लेता था। 
इस प्रकार एक मास बीत गया। मुझे अब कौंसिल के कामों में कोई उत्साह न था। समाचार-पत्रों में, उपन्यासों में जी न लगता। कहीं सैर करने का भी जी न चाहता। प्रेमियों को न जाने जंगल-पहाड़ में भटकने की, काँटों में उलझने की सनक कैसे सवार होती है। मेरे तो जैसे पैरों में बेड़ियाँ-सी पड़ गयी थीं। बस बरामदा था और मैं, और फिटन का इंतजार। मेरी विचारशक्ति भी शायद अंतर्धान हो गयी थी। मैं दीवान साहब को या अँगरेजी शिष्टता के अनुसार सुशीला को ही, अपने यहाँ निमंत्रित कर सकता था, पर वास्तव में मैं अभी तक उससे भयभीत था। अब भी लज्जावती को अपनी प्रणयिनी समझता था। वह अब भी मेरे हृदय की रानी थी, चाहे उस पर किसी दूसरी शक्ति का अधिकार ही क्यों न हो गया हो ! 
एक महीना और निकल गया, लेकिन मैंने लज्जा को कोई पत्र न लिखा। मुझमें अब उसे पत्र लिखने की भी सामर्थ्य न थी। शायद उससे पत्र- व्यवहार करने को मैं नैतिक अत्याचार समझता था। मैंने उससे दगा की थी। मुझे अब उसे अपने मलिन अंतःकरण में भी अपवित्र करने का कोई अधिकार न था। इसका अन्त क्या होगा ? यही चिंता अहर्निश मेरे मन पर कुहर मेघ की भाँति शून्य हो गयी थी। चिंता-दाह से दिनोंदिन घुलता जाता था। मित्रजन अक्सर पूछा करते आपको क्या मरज है ? मुख निस्तेज, कांतिहीन हो गया। भोजन औषधि के समान लगता। सोने जाता तो जान पड़ता, किसी ने पिंजरे में बंद कर दिया है। कोई मिलने आता तो चित्त उससे कोसों भागता। विचित्र दशा थी। 
एक दिन शाम को दीवान साहब की फिटन मेरे द्वार पर आ कर रुकी। उन्होंने अपने व्याख्यानों का एक संग्रह प्रकाशित कराया था। उसकी प्रति मुझे भेंट करने के लिए आये थे। मैंने उन्हें बैठने के लिए बहुत आग्रह किया, लेकिन उन्होंने यही कहा, सुशीला को यहाँ आने में संकोच होगा और फिटन पर अकेली वह घबरायेगी। वह चले तो मैं भी साथ हो लिया और फिटन तक पीछे-पीछे आया। जब वह फिटन पर बैठने लगे तो मैंने सुशीला को निःशंक हो आँख भर कर देखा, जैसे कोई प्यासा पथिक गर्मी के दिन में अफर कर पानी पिये कि न जाने कब उसे जल मिलेगा। मेरी उस एक चितवन में उग्रता, वह याचना, वह उद्वेग, वह करुणा, वह श्रद्धा, वह आग्रह, वह दीनता थी, जो पत्थर की मूर्ति को भी पिघला देती। सुशीला तो फिर स्त्री थी। उसने भी मेरी ओर देखा, निर्भीक सरल नेत्रों से, जरा भी झेंप नहीं, जरा भी झिझक नहीं। मेरे परास्त होने में जो कसर रह गयी थी, वह पूरी हो गयी। इसके साथ उसने मुझ पर मानो अमृत वर्षा कर दी। मेरे हृदय और आत्मा में एक नयी शक्ति का संचार हो गया। मैं लौटा तो ऐसा प्रसन्नचित्त था मानो कल्पवृक्ष मिल गया हो। 
एक दिन मैंने प्रोफेसर भाटिया को पत्र लिखा- मैं थोड़े दिनों से किसी गुप्त रोग से ग्रस्त हो गया हूँ। सम्भव है, तपेदिक (क्षय) का आरम्भ हो इसलिए मैं इस मई में विवाह करना उचित नहीं समझता। मैं लज्जावती से इस भांति पराङ्मुख होना चाहता था कि उनकी निगाहों में मेरी इज्जत कम न हो। मैं कभी-कभी अपनी स्वार्थपरता पर क्रुद्ध होता। लज्जा के साथ यह छल-कपट, यह बेवफ़ाई करते हुए मैं अपनी ही नजरों में गिर गया था। लेकिन मन पर कोई वश न था। उस अबला को कितना दुःख होगा, यह सोच कर मैं कई बार रोया। अभी तक मैं सुशीला के स्वभाव, विचार, मनोवृत्तियों से जरा भी परिचित न था। केवल उसके रूप-लावण्य पर अपनी लज्जा की चिरसंचित अभिलाषाओं का बलिदान कर रहा था। अबोध बालकों की भाँति मिठाई के नाम पर अपने दूध-चावल को ठुकराये देता था। मैंने प्रोफेसर को लिखा था- लज्जावती से मेरी बीमारी का जिक्र न करें, लेकिन प्रोफेसर साहब इतने गहरे न थे। चौथे ही दिन लज्जा का पत्र आया, जिसमें उसने अपना हृदय खोल कर रख दिया था। वह मेरे लिए सब कुछ, यहाँ तक कि वैधव्य की यंत्रणाएँ भी सहने के लिए तैयार थी। उसकी इच्छा थी कि अब हमारे संयोग में एक क्षण का भी विलम्ब न हो, अस्तु ! इस पत्र को लिये घंटों एक संज्ञाहीन दशा में बैठा रहा। इस अलौकिक आत्मोत्सर्ग के सामने अपनी क्षुद्रता, अपनी स्वार्थपरता, अपनी दुर्बलता कितनी घृणित थी ! 

लज्जावती 
सावित्री ने क्या सब कुछ जानते हुए भी सत्यवान से विवाह नहीं किया था ? मैं क्यों डरूँ ? अपने कर्तव्य-मार्ग से क्यों डिगूँ। मैं उनके लिए व्रत रखूँगी, तीर्थ करूँगी, तपस्या करूँगी। भय मुझे उनसे अलग नहीं कर सकता। मुझे उनसे कभी इतना प्रेम न था। कभी इतनी अधीरता न थी। यह मेरी परीक्षा का समय है, और मैंने निश्चय कर लिया है। पिता जी अभी यात्रा से लौटे हैं, हाथ खाली हैं, कोई तैयारी नहीं कर सके हैं। इसलिए दो-चार महीनों के विलम्ब से उन्हें तैयारी करने का अवसर मिल जाता; पर मैं अब विलम्ब न करूँगी। हम और वह इसी महीने में एक दूसरे के हो जायँगे, हमारी आत्माएँ सदा के लिए संयुक्त हो जायँगी, फिर कोई विपत्ति, दुर्घटना मुझे उनसे जुदा न कर सकेगी। 
मुझे अब एक दिन की देर भी असह्य है। मैं रस्म और रिवाज की लौंडी नहीं हूँ। न वही इसके गुलाम हैं। बाबू जी रस्मों के भक्त नहीं। फिर क्यों न तुरंत नैनीताल चलूँ ? उनकी सेवा-शुश्रूषा करूँ, उन्हें ढाढ़स दूँ। मैं उन्हें सारी चिंताओं से, समस्त विघ्न-बाधाओं से मुक्त कर दूँगी। इलाके का सारा प्रबन्ध अपने हाथों में लूँगी। कौंसिल के कामों में इतना व्यस्त हो जाने के कारण ही उनकी यह दशा हुई। पत्रों में अधिकतर उन्हीं के प्रश्न, उन्हीं की आलोचनाएँ, उन्हीं की वक्तृताएँ दिखायी देती हैं। मैं उनसे याचना करूँगी कि कुछ दिनों के लिए कौंसिल से इस्तीफा दे दें। वह मेरा गाना कितने चाव से सुनते थे। मैं उन्हें अपने गीत सुना कर प्रसन्न करूँगी, किस्से पढ़ कर सुनाऊँगी, उनको समुचित रूप से शांत रखूँगी। इस देश में तो इस रोग की दवा नहीं हो सकती। मैं उनके पैरों पर गिर कर प्रार्थना करूँगी कि कुछ दिनों के लिए यूरोप के किसी सैनिटोरियम चलें और विधिपूर्वक इलाज करायें। मैं कल ही कालेज के पुस्तकालय से इस रोग के सम्बन्ध की पुस्तकें लाऊँगी, और विचारपूर्वक उनका अध्ययन करूँगी। दो-चार दिन में कालेज बन्द हो जायगा। मैं आज ही बाबू जी से नैनीताल चलने की चर्चा करूँगी 

आह ! मैंने कल उन्हें देखा तो पहचान न सकी। कितना सुर्ख चेहरा था, कितना भरा हुआ शरीर। मालूम होता था, ईंगुर भरी हुई है ! कितना सुन्दर अंग-विन्यास था ? कितना शौर्य्य था ! तीन ही वर्षों में यह कायापलट हो गयी, मुख पीला पड़ गया, शरीर घुल कर काँटा हो गया। आहार आधा भी नहीं रहा, हरदम चिंता में मग्न रहते हैं। कहीं आते-जाते नहीं देखती। इतने नौकर हैं, इतना सुरम्य स्थान है ! विनोद के सभी सामान मौजूद हैं; लेकिन इन्हें अपना जीवन अब अंधकारमय जान पड़ता है। इस कलमुँही बीमारी का सत्यानाश हो। अगर इसे ऐसी ही भूख थी तो मेरा शिकार क्यों न किया। मैं बड़े प्रेम से इसका स्वागत करती। कोई ऐसा उपाय होता कि यह बीमारी इन्हें छोड़कर मुझे पकड़ लेती ! मुझे देखकर कैसे खिल जाते थे और मैं मुस्कराने लगती थी। एक-एक अंग प्रफुल्लित हो जाता था। पर मुझे यहाँ दूसरा दिन है। एक बार भी उनके चेहरे पर हँसी न दिखायी दी। जब मैंने बरामदे में कदम रखा तब जरूर हँसे थे, किंतु कितनी निराश हँसी थी ! बाबू जी अपने आँसुओं को न रोक सके। अलग कमरे में जाकर देर तक रोते रहे। लोग कहते हैं, कौंसिल में लोग केवल सम्मान-प्रतिष्ठा के लोभ से जाते हैं। उनका लक्ष्य केवल नाम पैदा करना होता है। बेचारे मेम्बरों पर यह कितना कठोर आक्षेप है, कितनी घोर कृतघ्नता। जाति की सेवा में शरीर को घुलाना पड़ता है, रक्त को जलाना पड़ता है। यही जाति-सेवा का उपहार है। 
पर यहाँ के नौकरों को जरा भी चिंता नहीं है। बाबू जी ने इनके दो-चार मिलने वालों से बीमारी का जिक्र किया; पर उन्होंने भी परवाह न की। यह मित्रों की सहानुभूति का हाल है। सभी अपनी-अपनी धुन में मस्त हैं, किसी को खबर नहीं कि दूसरों पर क्या गुजरती है। हाँ, इतना मुझे भी मालूम होता है कि इन्हें क्षय का केवल भ्रम है। उसके कोई लक्षण नहीं देखती। परमात्मा करे मेरा अनुमान ठीक हो। मुझे तो कोई और ही रोग मालूम होता है। मैंने कई बार टेम्परेचर लिया। उष्णता साधारण थी। उसमें कोई आकस्मिक परिवर्तन भी न हुआ। अगर यही बीमारी है तो अभी आरम्भिक अवस्था है, कोई कारण नहीं कि उचित प्रयत्न से उसकी जड़ न उखड़ जाय। मैं कल से ही इन्हें नित्य सैर कराने ले जाऊँगी। मोटर की जरूरत नहीं, फिटन पर बैठने से ज्यादा लाभ होगा। मुझे यह स्वयं कुछ लापरवाह से जान पड़ते हैं। इस मरज के बीमारों को बड़ी एहतियात करते देखा है। दिन में बीसों बार तो थर्मामीटर देखते हैं। पथ्यापथ्य का बड़ा विचार रखते हैं। वे फल, दूध और पुष्टिकारक पदार्थों का सेवन किया करते हैं। यह नहीं कि जो कुछ रसोइये ने अपने मन से बनाकर सामने रख दिया, वही दो-चार ग्रास खा कर उठ आये। मुझे तो विश्वास होता जाता है कि इन्हें कोई दूसरी ही शिकायत है। जरा अवकाश मिले तो इसका पता लगाऊँ। कोई चिंता नहीं है ? रियासत पर कर्ज का बोझ तो नहीं है ? थोड़ा बहुत कर्ज तो अवश्य ही होगा। यह तो रईसों की शान है। अगर कर्ज ही इसका मूल कारण है तो अवश्य कोई भारी रकम होगी। 

चित्त विविध चिंताओं से इतना दबा हुआ है कि कुछ लिखने को जी नहीं चाहता ! मेरे समस्त जीवन की अभिलाषाएँ मिट्टी में मिल गयीं। हा हतभाग्य ! मैं अपने को कितनी खुशनसीब समझती थी। अब संसार में मुझसे ज्यादा बदनसीब और कोई न होगा। वह अमूल्य रत्न जो मुझे चिरकाल की तपस्या और उपासना से न मिला, वह इस मृगनयनी सुंदरी को अनायास मिल जाता है। शारदा ने अभी उसे हाल में ही देखा है। कदाचित् अभी तक उससे परस्पर बातचीत करने की नौबत नहीं आयी। लेकिन उससे कितने अनुरक्त हो रहे हैं। उसके प्रेम में कैसे उन्मत्त हो गये हैं। पुरुषों को परमात्मा ने हृदय नहीं दिया, केवल आँखें दी हैं। वह हृदय की कद्र नहीं करना जानते, केवल रूप-रंग पर बिक जाते हैं। अगर मुझे किसी तरह विश्वास हो जाय कि सुशीला उन्हें मुझसे ज्यादा प्रसन्न रख सकेगी, उनके जीवन को अधिक सार्थक बना देगी, तो मुझे उसके लिए जगह खाली करने में जरा भी आपत्ति न होगी। वह इतनी गर्ववती, इतनी निठुर है कि मुझे भय है कहीं शारदा को पछताना न पड़े। 
लेकिन यह मेरी स्वार्थ-कल्पना है। सुशीला गर्ववती सही, निठुर सही, विलासिनी सही, शारदा ने अपना प्रेम उस पर अर्पण कर दिया है। वह बुद्धिमान हैं, चतुर हैं, दूरदर्शी हैं। अपना हानि-लाभ सोच सकते हैं। उन्होंने सब कुछ सोच कर ही निश्चय किया होगा। जब उन्होंने मन में यह बात ठान ली तो मुझे कोई अधिकार नहीं है कि उनके सुख-मार्ग का काँटा बनूँ। मुझे सब्र करके, अपने मन को समझा कर यहाँ से निराश, हताश, भग्नहृदय, विदा हो जाना चाहिए। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि उन्हें प्रसन्न रखे। मुझे जरा भी ईर्ष्या, जरा भी दम्भ नहीं है। मैं तो उनकी इच्छाओं की चेरी हूँ। अगर उन्हें मुझको विष दे देने से खुशी होती तो मैं शौक से विष का प्याला पी लेती। प्रेम ही जीवन का प्राण है। हम इसी के लिए जीना चाहते हैं। अगर इसके लिए मरने का भी अवसर मिले तो धन्य भाग। यदि केवल मेरे हट जाने से सब काम सँवर सकते हैं तो मुझे कोई इनकार नहीं। हरि इच्छा ! लेकिन मानव शरीर पा कर कौन मायामोह से रहित होता है ? जिस प्रेम-लता को मुद्दतों से पाला था, आँसुओं से सींचा था, उसको पैरों तले रौंदा जाना नहीं देखा जाता। हृदय विदीर्ण हो जाता है। अब कागज तैरता जान पड़ता है, आँसू उमड़े चले आते हैं, कैसे मन को खींचूँ। हा ! जिसे अपना समझती थी, जिसके चरणों पर अपने को भेंट कर चुकी थी, जिसके सहारे जीवन-लता पल्लवित हुई थी, जिसे हृदय-मन्दिर में पूजती थी, जिसके ध्यान में मग्न हो जाना जीवन का सबसे प्यारा काम था, उससे अब अनन्त काल के लिए वियोग हो रहा है। आह ! किससे अब फरियाद करूँ ? किसके सामने जा कर रोऊँ ? किससे अपनी दुःख-कथा कहूँ। मेरा निर्बल हृदय यह वज्राघात नहीं सह सकता। यह चोट मेरी जान लेकर छोड़ेगी। अच्छा ही होगा। प्रेम-विहीन हृदय के लिए संसार कालकोठरी है, नैराश्य और अंधकार से भरी हुई। मैं जानती हूँ अगर आज बाबू जी उनसे विवाह के लिए जोर दें तो वह तैयार हो जायँगे, बस मुरौवत के पुतले हैं। केवल मेरा मन रखने के लिए अपनी जान पर खेल जायेंगे। वह उन शीलवान पुरुषों में हैं जिन्होंने ‘नहीं’ करना ही नहीं सीखा। अभी तक उन्होंने दीवान साहब से सुशीला के विषय में कोई बातचीत नहीं की। शायद मेरा रुख देख रहे हैं। इसी असमंजस ने उन्हें इस दशा को पहुँचा दिया है। वह मुझे हमेशा प्रसन्न रखने की चेष्टा करेंगे। मेरा दिल कभी न दुखावेंगे, सुशीला की चर्चा भूल कर भी न करेंगे। मैं उनके स्वभाव को जानती हूँ। वह नर-रत्न हैं। लेकिन मैं उनके पैरों की बेड़ी नहीं बनना चाहती। जो कुछ बीते अपने ही ऊपर बीते। उन्हें क्यों समेटूँ ? डूबना ही है तो आप क्यों न डूबूँ, उन्हें अपने साथ क्यों डुबाऊँ ? 
वह भी जानती हूँ कि यदि इस शोक ने घुला-घुला कर मेरी जान ले ली तो यह अपने को कभी क्षमा न करेंगे। उनका समस्त जीवन क्षोभ और ग्लानि को भेंट हो जायेगा, उन्हें कभी शांति न मिलेगी। कितनी विकट समस्या है। मुझे मरने की भी स्वाधीनता नहीं। मुझे इनको प्रसन्न रखने के लिए अपने को प्रसन्न रखना होगा। उनसे निष्ठुरता करनी पड़ेगी। त्रियाचरित्र खेलना पड़ेगा। दिखाना पड़ेगा कि इस बीमारी के कारण अब विवाह की बातचीत अनर्गल है। वचन को तोड़ने का अपराध अपने सिर लेना पड़ेगा। इसके सिवाय उद्धार की और कोई व्यवस्था नहीं ? परमात्मा मुझे बल दो कि इस परीक्षा में सफल हो जाऊँ। 

शारदाचरण 
एक ही निगाह ने निश्चय कर दिया। लज्जा ने मुझे जीत लिया। एक ही निगाह से सुशीला ने भी मुझे जीता था। उस निगाह में प्रबल आकर्षण था, एक मनोहर सारल्य, एक आनन्दोद्‌गार, जो किसी भाँति छिपाये नहीं छिपता था, एक बालोचित उल्लास, मानो उसे कोई खिलौना मिल गया हो। लज्जा की चितवन में क्षमा थी और थी करुणा, नैराश्य तथा वेदना। वह अपने को मेरी इच्छा पर बलिदान कर रही थी। आत्म-परिचय में उसे सिद्धि है। उसने अपनी बुद्धिमानी से सारी स्थिति ताड़ ली और तुरंत फैसला कर लिया। वह मेरे सुख में बाधक नहीं बनना चाहती थी। उसके साथ ही यह भी प्रकट करना चाहती थी कि मुझे तुम्हारी परवाह नहीं है। अगर तुम मुझसे जौ भर खिंचोगे तो मैं तुमसे गज भर खिंच जाऊँगी। लेकिन मनोवृत्तियाँ सुगंध के समान हैं जो छिपाने से नहीं छिपतीं। उसकी निठुरता में नैराश्यमय वेदना थी, उसकी मुस्कान में आँसुओं की झलक। वह मेरी निगाह बचा कर क्यों रसोई में चली जाती थी और कोई न कोई पाक, जिसे वह जानती है कि मुझे रुचिकर है, बना लाती थी ? वह मेरे नौकरों को क्यों आराम से रखने की गुप्त रीति से ताकीद किया करती थी ? समाचारपत्रों को क्यों मेरी निगाह से छिपा दिया करती थी ? क्यों संध्या समय मुझे सैर करने को मजबूर किया करती थी ? उसकी एक-एक बात उसके हृदय का परदा खोल देती थी। 
उसे कदाचित् मालूम नहीं है कि आत्म-परिचय रमणियों का विशेष गुण नहीं। उस दिन जब प्रोफेसर भाटिया ने बातों ही बातों में मुझ पर व्यंग्य किये, मुझे वैभव और सम्पत्ति का दास कहा और मेरे साम्यवाद की हँसी उड़ानी चाही तो उसने कितनी चतुरता से बात टाल दी। पीछे से मालूम नहीं उसने उन्हें क्या कहा; पर मैं बरामदे में बैठा सुन रहा था कि बाप और बेटी बगीचे में बैठे हुए किसी विषय पर बहस कर रहे हैं। कौन ऐसा हृदयशून्य प्राणी है जो निष्काम सेवा के वशीभूत न हो जाय। लज्जावती को मैं बहुत दिनों से जानता हूँ। पर मुझे ज्ञात हुआ कि इसी मुलाकात में मैंने उसका यथार्थ रूप देखा। पहले मैं उसकी रूपराशि का, उसके उदार विचारों का, उसकी मृदुवाणी का भक्त था। उसकी उज्ज्वल, दिव्य आत्मज्योति मेरी आँखों से छिपी हुई थी। मैंने अबकी ही जाना कि उसका प्रेम कितना गहरा, कितना पवित्र, कितना अगाध है। इस अवस्था में कोई दूसरी स्त्री ईर्ष्या से बावली हो जाती, मुझसे नहीं तो सुशीला से तो अवश्य ही जलने लगती, आप कुढ़ती, उसे व्यंग्यों से छेदती और मुझे धूर्त, कपटी, पाषाण, न जाने क्या-क्या कहती। पर लज्जा ने जितने विशुद्ध प्रेम-भाव से सुशीला का स्वागत किया, वह मुझे कभी न भूलेगा मालिन्य, संकीर्णता, कटुता का लेश न था। इस तरह उसे हाथों-हाथ लिये फिरती थी मानो छोटी बहिन उसके यहाँ मेहमान है। सुशीला इस व्यवहार पर मानो मुग्ध हो गयी। आह ! वह दृश्य भी चिरस्मरणीय है, जब लज्जावती मुझसे विदा होने लगी। प्रोफेसर भाटिया मोटर पर बैठे हुए थे। वह मुझसे कुछ खिन्न हो गये और जल्दी से जल्दी भाग जाना चाहते थे। लज्जा एक उज्ज्वल साड़ी पहने हुए मेरे सम्मुख आ कर खड़ी हो गयी। वह एक तपस्विनी थी, जिसने प्रेम पर अपना जीवन अर्पण कर दिया हो, श्वेत पुष्पों की माला थी जो किसी देवमूर्ति के चरणों पर पड़ी हुई हो। उसने मुस्करा कर मुझसे कहा-कभी-कभी पत्र लिखते रहना, इतनी कृपा की मैं अपने को अधिकारिणी समझती हूँ। 
मैंने जोश से कहा- हाँ, अवश्य। 
लज्जावती ने फिर कहा- शायद यह हमारी अंतिम भेंट हो। न जाने मैं कहाँ रहूँगी, कहाँ जाऊँगी; फिर कभी आ सकूँगी या नहीं। मुझे बिलकुल भूल न जाना। अगर मेरे मुँह से कोई ऐसी बात निकल आयी हो जिससे तुम्हें दुःख हुआ हो तो क्षमा करना और ... अपने स्वास्थ्य का बहुत ध्यान रखना। 
यह कहते हुए उसने मेरी तरफ हाथ बढ़ाये। हाथ काँप रहे थे। कदाचित् आँखों में आँसुओं का आवेग हो रहा था। वह जल्दी से कमरे के बाहर निकल जाना चाहती थी। अपने जब्त पर अब उसे भरोसा न था। उसने मेरी ओर दबी आँखों से देखा। मगर इस अर्द्ध-चितवन में दबे हुए पानी का वेग और प्रवाह था। ऐसे प्रवाह में मैं स्थिर न रह सका। इस निगाह ने हारी हुई बाजी जीत ली; मैंने उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और गद्गद स्वर से बोला नहीं लज्जा, अब हममें और तुममें कभी वियोग न होगा।

सहसा चपरासी ने सुशीला का पत्र लाकर सामने रख दिया। लिखा था- 
प्रिय श्री शारदाचरण जी, 
हम लोग कल यहाँ से चले जायँगे। मुझे आज बहुत काम करना है, इसलिए मिल न सकूँगी। मैंने आज रात को अपना कर्तव्य स्थिर कर लिया। मैं लज्जावती के बने-बनाये घर को उजाड़ना नहीं चाहती। मुझे पहले यह बात न मालूम थी, नहीं तो हममें इतनी घनिष्ठता न होती। मेरा आपसे यही अनुरोध है कि लज्जा को हाथ से न जाने दीजिए। वह नारी-रत्न है। मैं जानती हूँ कि मेरा रूप-रंग उससे कुछ अच्छा है और कदाचित् आप उसी प्रलोभन में पड़ गये; लेकिन मुझमें वह त्याग, वह सेवा भाव, वह आत्मोत्सर्ग नहीं है। मैं आपको प्रसन्न रख सकती हूँ, पर आपके जीवन को उन्नत नहीं कर सकती, उसे पवित्र और यशस्वी नहीं बना सकती। लज्जा देवी है, वह आपको देवता बना देगी। मैं अपने को इस योग्य नहीं समझती। कल मुझसे भेंट करने का विचार न कीजिए, रोने-रुलाने से क्या लाभ। क्षमा कीजिएगा। 
आपकी
सुशीला 
मैंने यह पत्र लज्जा के हाथ में रख दिया। वह पढ़ कर बोली- मैं उससे आज ही मिलने जाऊँगी। 
मैंने उसका आशय समझ कर कहा- क्षमा करो, तुम्हारी उदारता की दूसरी बार परीक्षा नहीं लेना चाहता। 
यह कह कर मैं प्रोफेसर भाटिया के पास गया। वह मोटर पर मुँह फुलाये बैठे थे। मेरे बदले लज्जावती आयी होती तो उस पर जरूर ही बरस पड़ते। 
मैंने उनके पद स्पर्श किये और सिर झुका कर बोला- आपने मुझे सदैव अपना पुत्र समझा है। अब उस नाते को और भी दृढ़ कर दीजिए। 
प्रोफेसर भाटिया ने पहले तो मेरी ओर अविश्वासपूर्ण नेत्रों से देखा तब मुस्करा कर बोले- यह तो मेरे जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा थी।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 07 May 2020 at 5:30 AM -

सवा सेर गेहूँ

Hindi Kahani
हिंदी कहानी

Sawa Ser Gehun
Munshi Premchand
सवा सेर गेहूँ
मुंशी प्रेम चंद

किसी गाँव में शंकर नाम का एक कुरमी किसान रहता था। सीधा-सादा गरीब आदमी था, अपने काम-से-काम, न किसी के लेने में, न किसी के देने में। छक्का-पंजा न जानता था, छल-प्रपंच की उसे ... छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की चिन्ता न थी, ठगविद्या न जानता था, भोजन मिला, खा लिया, न मिला, चबेने पर काट दी, चबैना भी न मिला, तो पानी पी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा। किन्तु जब कोई अतिथि द्वार पर आ जाता था तो उसे इस निवृत्तिमार्ग का त्याग करना पड़ता था। विशेषकर जब साधु-महात्मा पदार्पण करते थे, तो उसे अनिवार्यत: सांसारिकता की शरण लेनी पड़ती थी। खुद भूखा सो सकता था, पर साधु को कैसे भूखा सुलाता, भगवान् के भक्त जो ठहरे ! 
एक दिन संध्या समय एक महात्मा ने आकर उसके द्वार पर डेरा जमाया। तेजस्वी मूर्ति थी, पीताम्बर गले में, जटा सिर पर, पीतल का कमंडल हाथ में, खड़ाऊँ पैर में, ऐनक आँखों पर, सम्पूर्ण वेष उन महात्माओं का-सा था जो रईसों के प्रासादों में तपस्या, हवागाड़ियों पर देवस्थानों की परिक्रमा और योग-सिध्दि प्राप्त करने के लिए रुचिकर भोजन करते हैं। घर में जौ का आटा था, वह उन्हें कैसे खिलाता। प्राचीनकाल में जौ का चाहे जो कुछ महत्त्व रहा हो, पर वर्तमान युग में जौ का भोजन सिद्ध पुरुषों के लिए दुष्पाच्य होता है। बड़ी चिन्ता हुई, महात्माजी को क्या खिलाऊँ। आखिर निश्चय किया कि कहीं से गेहूँ का आटा उधार लाऊँ, पर गाँव-भर में गेहूँ का आटा न मिला। गाँव में सब मनुष्य-ही-मनुष्य थे, देवता एक भी न था, अतएव देवताओं का खाद्य पदार्थ कैसे मिलता। सौभाग्य से गाँव के विप्र महाराज के यहाँ से थोड़ा-सा मिल गए। उनसे सवा सेर गेहूँ उधार लिया और स्त्री से कहा, कि पीस दे। महात्मा ने भोजन किया, लम्बी तानकर सोये। प्रात:काल आशीर्वाद देकर अपनी 
राह ली। 
विप्र महाराज साल में दो बार खलिहानी लिया करते थे। शंकर ने दिल में कहा,सवा सेर गेहूँ इन्हें क्या लौटाऊँ, पंसेरी बदले कुछ ज्यादा खलिहानी दे दूँगा, यह भी समझ जायँगे, मैं भी समझ जाऊँगा। चैत में जब विप्रजी 
पहुँचे तो उन्हें डेढ़ पंसेरी के लगभग गेहूँ दे दिया और अपने को उऋण समझकर उसकी कोई चरचा न की। विप्रजी ने फिर कभी न माँगा। सरल शंकर को क्या मालूम था कि यह सवा सेर गेहूँ चुकाने के लिए मुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा। 
सात साल गुजर गये। विप्रजी विप्र से महाजन हुए, शंकर किसान से मजूर हो गया। उसका छोटा भाई मंगल उससे अलग हो गया था। एक साथ रहकर दोनों किसान थे, अलग होकर मजूर हो गये थे। शंकर ने चाहा कि द्वेष की आग भड़कने न पाये, किन्तु परिस्थिति ने उसे विवश कर दिया। जिस दिन अलग-अलग चूल्हे जले, वह फूट-फूटकर रोया। आज से भाई-भाई शत्रु हो जायँगे, एक रोयेगा, दूसरा हँसेगा, एक के घर मातम होगा तो दूसरे के घर गुलगुले पकेंगे, प्रेम का बंधन, खून का बंधन, दूध का बंधन आज टूटा जाता है। उसने भगीरथ परिश्रम से कुल-मर्यादा का वृक्ष लगाया था, उसे अपने रक्त से सींचा था, उसको जड़ से उखड़ता देखकर उसके ह्रदय के टुकड़े हुए जाते थे। सात दिनों तक उसने दाने की सूरत तक न देखी। दिन-भर जेठ की धूप में काम करता और रात को मुँह लपेटकर सो रहता। इस भीषण वेदना और दुस्सह कष्ट ने रक्त को जला दिया, मांस और मज्जा को घुला दिया। बीमार पड़ा तो महीनों खाट से न उठा। अब गुजर-बसर कैसे हो ? 
पाँच बीघे के आधे रह गये, एक बैल रह गया, खेती क्या खाक होती ! अन्त को यहाँ तक नौबत पहुँची कि खेती केवल मर्यादा-रक्षा का साधन-मात्र रह गयी, जीविका का भार मजूरी पर आ पड़ा। सात वर्ष बीत गये, एक दिन शंकर मजूरी करके लौटा, तो राह में विप्रजी ने टोककर कहा, ' शंकर, कल आकर के अपने बीज-बेंग का हिसाब कर ले। तेरे यहाँ साढ़े पाँच मन गेहूँ कबके बाकी पड़े हुए हैं और तू देने का नाम नहीं लेता, हजम करने का मन है क्या ? ' 
शंकर ने चकित होकर कहा, मैंने तुमसे कब गेहूँ लिए थे जो साढ़े पाँच मन हो गये ? तुम भूलते हो, मेरे यहाँ किसी का छटाँक-भर न अनाज है,न एक पैसा उधार। ' 
विप्र -'इसी नीयत का तो यह फल भोग रहे हो कि खाने को नहीं जुड़ता। ' 
यह कहकर विप्रजी ने उस सवा सेर गेहूँ का जिक्र किया, जो आज के सात वर्ष पहले शंकर को दिये थे। शंकर सुनकर अवाक् रह गया। ईश्वर मैंने इन्हें कितनी बार खलिहानी दी, इन्होंने मेरा कौन-सा काम किया ? जब 
पोथी-पत्र देखने, साइत-सगुन विचारने द्वार पर आते थे, कुछ-न-कुछ 'दक्षिणा' ले ही जाते थे। इतना स्वार्थ ! सवा सेर अनाज को अंडे की भाँति सेकर आज यह पिशाच खड़ा कर दिया, जो मुझे निगल जायगा। इतने दिनों में एक बार भी कह देते तो मैं गेहूँ तौलकर दे देता, क्या इसी नीयत से चुप साध बैठे रहे ? बोला, ' महाराज, नाम लेकर तो मैंने उतना अनाज नहीं दिया, पर कई बार खलिहानों में सेर-सेर, दो-दो सेर दिया है। अब आप आज साढ़े पाँच मन माँगते हैं, मैं कहाँ से दूँगा ? ' 
विप्र -'लेखा जौ-जौ, बखसीस सौ-सौ, तुमने जो कुछ दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं, चाहे एक की जगह चार पसेरी दे दो। तुम्हारे नाम बही में साढ़े पाँच मन लिखा हुआ है; जिससे चाहे हिसाब लगवा लो। दे दो तो 
तुम्हारा नाम छेक दूँ, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा। ' 
शंकर -'पाँडे, क्यों एक गरीब को सताते हो, मेरे खाने का ठिकाना नहीं, इतना गेहूँ किसके घर से लाऊँगा ? ' 
विप्र -'ज़िसके घर से चाहे लाओ, मैं छटाँक-भर भी न छोडूँगा, यहाँ न दोगे, भगवान् के घर तो दोगे। ' 
शंकर काँप उठा। हम पढ़े-लिखे आदमी होते तो कह देते, 'अच्छी बात है, ईश्वर के घर ही देंगे; वहाँ की तौल यहाँ से कुछ बड़ी तो न होगी। कम-से-कम इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं, फिर उसकी क्या चिन्ता। किन्तु शंकर इतना तार्किक, इतना व्यवहार-चतुर न था। एक तो ऋण वह भी ब्राह्मण का बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाऊँगा, इस खयाल ही से उसे रोमांच हो गया। बोला, ' महाराज, तुम्हारा जितना होगा यहीं दूँगा, ईश्वर के यहाँ क्यों दूँ, इस जनम में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जनम के लिए क्यों काँटे बोऊँ ? मगर यह कोई नियाव नहीं है। तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण हो के तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता। मैं तो दे 
दूँगा, लेकिन तुम्हें भगवान् के यहाँ जवाब देना पड़ेगा। ' 
विप्र -'वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं; देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगी, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो ? ' 
शंकर -'मेरे पास रक्खा तो है नहीं, किसी से माँग-जॉचकर लाऊँगा तभी न दूँगा ! ' 
विप्र -'मैं यह न मानूँगा। सात साल हो गये, अब एक दिन का भी मुलाहिजा न करूँगा। गेहूँ नहीं दे सकते, तो दस्तावेज लिख दो। ' 
शंकर -- ' मुझे तो देना है, चाहे गेहूँ लो चाहे दस्तावेज लिखाओ; किस हिसाब से दाम रक्खोगे ? ' 
विप्र -'बाजार-भाव पाँच सेर का है, तुम्हें सवा पाँच सेर का काट दूँगा।' 
शंकर-' ज़ब दे ही रहा हूँ तो बाजार-भाव काटूँगा, पाव-भर छुड़ाकर क्यों दोषी बनूँ। ' 
हिसाब लगाया तो गेहूँ के दाम 60) हुए। 60) का दस्तावेज लिखा गया, 3) सैकड़े सूद। साल-भर में न देने पर सूद की दर ढाई रुपये) सैकड़े। आठ आने) का स्टाम्प, चार आने) दस्तावेज की तहरीर शंकर को ऊपर से देनी 
पड़ी। 
गाँव भर ने विप्रजी की निन्दा की, लेकिन मुँह पर नहीं। महाजन से सभी का काम पड़ता है, उसके मुँह कौन आये। शंकर ने साल भर तक कठिन तपस्या की। मीयाद के पहले रुपये अदा करने का उसने व्रत-सा कर लिया। दोपहर को पहले भी चूल्हा न जलता था, चबैने पर बसर होती थी, अब वह भी बंद हुआ। केवल लड़के के लिए रात को रोटियाँ रख दी जातीं ! पैसे रोज का तंबाकू पी जाता था, यही एक व्यसन था जिसका वह कभी न त्याग कर सका था। अब वह व्यसन भी इस कठिन व्रत की भेंट हो गया। उसने चिलम पटक दी, हुक्का तोड़ दिया और तमाखू की हाँड़ी चूर-चूर कर डाली। कपड़े पहले भी त्याग की चरम सीमा तक पहुँच 
चुके थे, अब वह प्रकृति की न्यूनतम रेखाओं में आबद्ध हो गये। शिशिर की अस्थिबेधक शीत को उसने आग तापकर काट दिया। इस संकल्प का फल आशा से बढ़कर निकला। साल के अन्त में उसके पास 60) रु. 
जमा हो गये। उसने समझा पंडितजी को इतने रुपये दे दूँगा और कहूँगा महाराज, बाकी रुपये भी जल्द ही आपके सामने हाजिर करूँगा। 15) रु. की तो और बात है, क्या पंडितजी इतना भी न मानेंगे ! उसने रुपये लिये और ले जाकर पंडितजी के चरण-कमलों पर अर्पण कर दिये। पंडितजी ने विस्मित होकर 
पूछा, ' क़िसी से उधार लिये क्या ? ' 
शंकर -'नहीं महाराज, ' आपके असीस से अबकी मजूरी अच्छी मिली। ' 
विप्र -'लेकिन यह तो 60) रु. ही हैं ! ' 
शंकर -- ' हाँ महाराज, इतने अभी ले लीजिए, बाकी मैं दो-तीन महीने में दे दूँगा, मुझे उरिन कर दीजिए। ' 
विप्र -'उरिन तो जभी होगे जबकि मेरी कौड़ी-कौड़ी चुका दोगे। जाकर मेरे 15) रु. और लाओ। ' 
शंकर -'महाराज, इतनी दया करो; अब साँझ की रोटियों का भी ठिकाना नहीं है, गाँव में हूँ तो कभी-न-कभी दे ही दूँगा। ' 
विप्र -'मैं यह रोग नहीं पालता, न बहुत बातें करना जानता हूँ। अगर मेरे पूरे रुपये न मिलेंगे तो आज से 3) रु. सैकड़े का ब्याज लगेगा। अपने रुपये चाहे अपने घर में रक्खो, चाहे मेरे यहाँ छोड़ जाओ। 
शंकर -'अच्छा जितना लाया हूँ उतना रख लीजिए। मैं जाता हूँ, कहीं से 15) रु. और लाने की फिक्र करता हूँ। 
शंकर ने सारा गाँव छान मारा, मगर किसी ने रुपये न दिये, इसलिए नहीं कि उसका विश्वास न था, या किसी के पास रुपये न थे, बल्कि इसलिए कि पंडितजी के शिकार को छेड़ने की किसी की हिम्मत न थी। 
क्रिया के पश्चात् प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। शंकर साल-भर तक तपस्या करने पर भी जब ऋण से मुक्त होने में सफल न हो सका तो उसका संयम निराशा के रूप में परिणत हो गया। उसने समझ लिया कि जब इतना कष्ट सहने पर भी साल-भर में 60) रु. से अधिक न जमा कर सका, तो अब और कौन सा उपाय है जिसके द्वारा इसके दूने रुपये जमा हों। जब सिर पर ऋण का बोझ ही लादना है तो क्या मन-भर का और क्या सवा मन का। उसका उत्साह क्षीण हो गया, मिहनत से घृणा हो गयी। आशा उत्साह की जननी है, आशा में तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालक शक्ति है। शंकर आशाहीन होकर उदासीन हो गया। वह जरूरतें जिनको उसने साल-भर तक टाल रखा था, अब द्वार पर खड़ी होनेवाली भिखारिणी न थीं, बल्कि छाती पर सवार होनेवाली पिशाचनियाँ थीं, जो अपनी भेंट लिये बिना जान नहीं छोड़तीं। कपड़ों में चकत्तियों के लगने की भी एक सीमा होती है। अब शंकर को चिट्ठा मिलता तो वह रुपये जमा न करता, कभी कपड़े लाता, 
कभी खाने की कोई वस्तु। जहाँ पहले तमाखू ही पिया करता था, वहाँ अब गाँजे और चरस का चस्का भी लगा। उसे अब रुपये अदा करने की कोई चिन्ता न थी मानो उसके ऊपर किसी का एक पैसा भी नहीं आता। पहले जूड़ी चढ़ी होती थी, पर वह काम करने अवश्य जाता था, अब काम पर न जाने के लिए बहाना खोजा करता। 
इस भाँति तीन वर्ष निकल गये। विप्रजी महाराज ने एक बार भी तकाजा न किया। वह चतुर शिकारी की भाँति अचूक निशाना लगाना चाहते थे। पहले से शिकार को चौंकाना उनकी नीति के विरुद्ध था। एक दिन पंडितजी ने शंकर को बुलाकर हिसाब दिखाया। 60) रु. जो जमा थे वह मिनहा करने पर अब भी शंकर के जिम्मे 120) रु. निकले। शंकर -'इतने रुपये तो उसी जन्म में दूँगा, इस जन्म में नहीं हो सकते। ' 
विप्र -'मैं इसी जन्म में लूँगा। मूल न सही, सूद तो देना ही पड़ेगा। ' 
शंकर -- ' एक बैल है, वह ले लीजिए और मेरे पास रक्खा क्या है। ' 
विप्र -'मुझे बैल-बधिया लेकर क्या करना है। मुझे देने को तुम्हारे पास बहुत कुछ है। ' 
शंकर -'और क्या है महाराज ? ' 
विप्र -'क़ुछ है, तुम तो हो। आखिर तुम भी कहीं मजूरी करने जाते ही हो, मुझे भी खेती के लिए मजूर रखना ही पड़ता है। सूद में तुम हमारे यहाँ काम किया करो, जब सुभीता हो मूल को दे देना। सच तो यों है कि अब 
तुम किसी दूसरी जगह काम करने नहीं जा सकते जब तक मेरे रुपये नहीं चुका दो। तुम्हारे पास कोई जायदाद नहीं है, इतनी बड़ी गठरी मैं किस एतबार पर छोड़ दूँ। कौन इसका जिम्मा लेगा कि तुम मुझे महीने-महीने सूद देते जाओगे। और कहीं कमाकर जब तुम मुझे सूद भी नहीं दे सकते, तो मूल की कौन कहे ?' 
शंकर -'महाराज, सूद में तो काम करूँगा और खाऊँगा क्या ? ' 
विप्र -'तुम्हारी घरवाली है, लड़के हैं, क्या वे हाथ-पाँव कटाके बैठेंगे। रहा मैं, तुम्हें आधा सेर जौ रोज कलेवा के लिए दे दिया करूँगा। ओढ़ने को साल में एक कम्बल पा जाओगे, एक मिरजई भी बनवा दिया करूँगा, और 
क्या चाहिए। यह सच है कि और लोग तुम्हें छ: आने देते हैं लेकिन मुझे ऐसी गरज नहीं है, मैं तो तुम्हें रुपये भरने के लिए रखता हूँ। ' 
शंकर ने कुछ देर तक गहरी चिन्ता में पड़े रहने के बाद कहा, ' महाराज यह तो जन्म-भर की गुलामी हुई। ' 
विप्र -'ग़ुलामी समझो, चाहे मजूरी समझो। मैं अपने रुपये भराये बिना तुमको कभी न छोडूँगा। तुम भागोगे तो तुम्हारा लड़का भरेगा। हाँ, जब कोई न रहेगा तब की बात दूसरी है। ' 
इस निर्णय की कहीं अपील न थी। मजूर की जमानत कौन करता, कहीं शरण न थी, भागकर कहाँ जाता, दूसरे दिन से उसने विप्रजी के यहाँ काम करना शुरू कर दिया। सवा सेर गेहूँ की बदौलत उम्र-भर के लिए गुलामी 
की बेड़ी पैरों में डालनी पड़ी। उस अभागे को अब अगर किसी विचार से संतोष होता था तो यह था कि वह मेरे पूर्व-जन्म का संस्कार है। स्त्री को वे काम करने पड़ते थे, जो उसने कभी न किये थे, बच्चे दानों को तरसते 
थे, लेकिन शंकर चुपचाप देखने के सिवा और कुछ न कर सकता था। वह गेहूँ के दाने किसी देवता के शाप की भाँति यावज्जीवन उसके सिर से न उतरे। 
शंकर ने विप्रजी के यहाँ 20 वर्ष तक गुलामी करने के बाद इस दुस्सार संसार से प्रस्थान किया। 120) अभी तक उसके सिर पर सवार थे। पंडितजी ने उस गरीब को ईश्वर के दरबार में कष्ट देना उचित न समझा, इतने अन्यायी, इतने निर्दयी न थे। उसके जवान बेटे की गरदन पकड़ी। आज तक वह विप्रजी के यहाँ काम करता है। उसका उद्धार कब होगा; होगा भी या नहीं, ईश्वर ही जाने। 
पाठक ! इस वृत्तांत को कपोल-कल्पित न समझिए। यह सत्य घटना है। ऐसे शंकरों और ऐसे विप्रों से दुनिया खाली नहीं है। 

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 07 May 2020 at 5:27 AM -

शतरंज के खिलाड़ी

Hindi Kahani
हिंदी कहानी

Shatranj Ke Khiladi
Munshi Premchand

शतरंज के खिलाड़ी
मुंशी प्रेम चंद

वाजिदअली शाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था , तो कोई अफीम की ... पीनक ही के मजे लेता था। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद को प्राधान्य था। शासन विभाग में, साहित्य क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में, कला कौशल में, उद्योग-धन्धों में, आहार-विहार में, सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही था। कर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में , व्यावसायी सुर में, इत्र मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त था। सभी की आँखो में विलासिता का मद छाया हुआ था। संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी। बटेर लड़ रहे है। तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है। कही चौरस बिछी हुई है। पौ बारह का शोर मचा हुआ है। कही शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे। यहाँ तक कि फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न लेकर अफीम खाते या मदक पीते। शतरंज ताश, गंजीफा खेलने में बुद्धि तीव्र होती है, विचार शक्ति का विकास होता है, पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है, ये दलील जोर के साथ पेश की जाती थी। ( इस सम्प्रदाय के लोगो से दुनिया अब भी खाली नही है।) इसलिए अगर मिर्जा सज्जाद अली और मीर रौशन अली अपना अधिकांश समय बुद्धि-तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसी जागीरें थी, जीविका की कोई चिन्ता न थी। घर बैठे चखोतियाँ करते। आखिर और करते ही क्या? प्रातःकाल दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछा कर बैठ जाते, मुहरे सज जाते और लड़ाई के दाँवपेच होने लगते थे। फिर खबर न होती थी कि कब दोपहर हुई कब तीसरा पहल, कब शाम। घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता था - 'खाना तैयार है।' यहाँ से जबाव मिलता - 'चलो आते है, दस्तर ख्वान बिछाओ।' यहाँ तक कि बावरची विवश होकर कमरे में ही खाना रख जाता था, और दोनो मित्र दोनो काम साथ-साथ करते थे। मिर्जा सज्जाद अली के घर में कोई बड़ा-बूढा न था, इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाजियाँ होती थी; मगर यह बात न थी कि मिर्जा के घर के और लोग उसके व्यवहार से खुश हो। घरवाली का तो कहना ही क्या, मुहल्ले वाले, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेषपूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे 'बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे किसी को इसकी चाट पड़े। आदमी दीन दुनिया किसी के काम का नही रहता, न घर का न घाट का। बुरा रोग है यहाँ तक कि मिर्जा की बेगम इससे इतना द्वेष था कि अवसर खोज-खोज कर पति को लताड़ती थी। पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था । वह सोचती रहती थी, तब तक उधर बाजी बिछ जाती था। और रात को जब सो जाती थी, तब कही मिर्जा जी भीतर आते थे। हाँ नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थी - 'क्या पान माँगे है? कह दो आकर ले जायँ। खाने की भी फुर्सत नही हैं? ले जाकर खाना सिर पटक दो, खायँ चाहे कुत्ते को खिलावें।' पर रूबरु वह कुछ न कह सकती थी। उनको अपने पति से उतना मलाल न था जितना मीर साहब से। उन्होंने उसका नाम मीर बिगाड़ू रख छोड़ा था। शायद मिर्जा जी अपनी सफाई देने के लिए सारा इल्जाम मीर साहब ही के सिर थोप देते थे। 
एक दिन बेगम साहिबा के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौड़ी से कहा - 'जाकर मिर्जा साहब को बुला लो। किसी हकीम के यहाँ से दवा लाये। दौड़, जल्दी कर।' 
लौड़ी गयी तो मिर्जा ने कहा - 'चल, अभी आते है।' 
बेगम का मिजाज गरम था। इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो, और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौड़ी से कहा - 'जाकर कह, अभी चलिए नही तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जायँगी।' 
मिर्जा जी बड़ी दिलचस्प बाजी खेल रहे थे, दो ही किश्तो में मीर साहब की मात हुई जाती थी, झँललाकर बोले - 'क्या ऐसा दम लबो पर है? जरा सब्र नही होता?' 
मीर - अरे, तो जाकर सुन ही आइए न। औरते नाजुक-मिजाज होती है। 
मिर्जा - जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ। दो किश्तों में आपको मात होती है। 
मीर - जनाब, इस भरोसे में न रहिएगा। वह चाल सोची है कि आपके मुहरे धरे रहें, औऱ मात हो जाए। पर जाइए, सुन आइए, क्यों ख्वामह-ख्वाह उनका दिल दुखाइएगा? 
मिर्जा - इसी बात पर मात ही कर के जाऊँगा। 
मीर - मै खेलूँगा ही नही। आप जाकर सुन आइए। 
मिर्जा - अरे यार जाना, ही पड़ेगा हकीम के यहाँ। सिर-दर्द खाक नही है, मुझे परेशान करने का बहाना है। 
मीर - कुछ भी हो, उनकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी। 
मिर्जा - अच्छा, एक चाल और चल लूँ। 
मीर - हरगिज नही, जब तक आप सुन न आवेंगे, मै मुहरे में हाथ न लगाऊँगा। 
मिर्जा साहब मजबूर होकर अन्दर गये तो बेगम साहबा ने त्योरियाँ बदल कर लेकिन कराहते हुए कहा - तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है! चाहे कोई मर ही जाय, पर उठने का नाम नही लेते! नौज कोई तुम जैसा आदमी हो! 
मिर्जा - क्या कहूँ, मीर साहब मानते ही न थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ। 
बेगम - क्या जैसे वह खुद निखट्टू ही, वैसे ह सबको समझते है? उनके भी बाल बच्चे है, या सबका सफाया कर डाला है! 
मिर्जा - बड़ा लती आदमी है। जब आ जाता है तब मजबूर होकर खेलना पड़ता है। 
बेगम - दुत्कार क्यो नही देते? 
मिर्जा - बराबर का आदमी है, उम्र में, दर्जें मे, मुझसे दो अंगुल ऊँचे। मुलाहिजा करना ही पड़ता है। 
बेगम - तो मै ही दुत्कार देती हूँ। नाराज हो जायेंगे, हो जाएँ। कौन किसी की रोटियोँ चला देता है। रानी रूठेगी, अपना सुहाग लेंगी। हिरिया, बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना, मियाँ अब न खेलेगे, आप तशरीफ ले जाइए। 
मिर्जा - हाँ-हाँ, कहीं ऐसा गजब भी न कर ना! जलील करना चाहती हो क्या? ठहर हिरिया, कहाँ जाती है! 
बेगम - जाने क्यों नही देते? मेरे ही खून पिए, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोका, मुझे रोको तो जानूँ। 
यह कहकर बेगम साहिबा इल्लायी हुई दीवानखाने की तरफ चली। मिर्जा बेचारे का रंग उड़ गया। बीवी की मिन्नते करने लगे - खुदा के लिए, तुम्हे हजरत हुसेन की कसम। मेरी ही मैयत देखे, जो उधर जाए।' 
लेकिन बेगम ने एक न मानी। दीवानखाने के द्वार तक चली गयी। पर एकाएक पर पुरुष के सामने जाते हुए पाँव बँध गए। भीतर झाँका, संयोग से कमरा खाली था; मीर साहब ने दो मुहरे इधर-उधर कर दिये थे और अपनी सफाई बताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेगम ने अन्दर पहुँच कर बाजी उलट दी; मुहरे कुछ तख्त के नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर और किवाड़ अन्दर से बन्द करके कुंड़ी लगा दी। मीर साहब दरवाजे पर तो थे ही, मुहरे बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाजा बन्द हुआ, तो समझ गये बेगम बिगड़ गयी। घर की राह ली। 
मिर्जा ने कहा - तुमने गजब किया। 
बेगम - अब, मीर साहब इधर आये तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी। इतनी लौ खुदा से लगाते तो क्या गरीब हो जाते? आप तो शतरंज खेले और मैं यहाँ चूल्हे चक्की की फिक्र में सिर खपाऊँ। बोलो, जाते हो हकीम के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है। 
मिर्जा घर से निकले तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे, और सारा वृतान्त कहा। मीर साहब बोले - मैने तो जब मुहरे बाहर आते देखे तभी ताजड गया। फौरन भागा। बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं। मगर आपने उन्हे यो सिर पर चढ़ा रखा है यह मुनासिब नही। उन्हें इससे क्या मतलब की आप बाहर क्या करते है। घर का इन्तजाम करना उनका काम है, दूसरी बातो से उन्हें क्या सरोकार? 
मिर्जा - खैर, यह तो बताइए, अब कहाँ जमाव होगा? 
मीर - इसका क्या गम? इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है? बस यही जमे। 
मिर्जा - लेकिन बेगम साहब को कैसे मनाऊँगा ? जब घर पर बैठा रहता था तब तो वह इतना बिगड़ती थी, यहाँ बैठक होग तो शायद जिन्दा न छोड़ेगी। 
मीर - अजी बकने भी दीजिए, दो-चार रोज में आप ही ठीक हो जायँगी। हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से जरा तन जाइए! 
मीर साहब की बेग किसी अज्ञात कारण से उनका घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थी। इसलिए वह उनके शतरंज प्रेम की कभी आलोचना न करती बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती तो याद दिला देती थी। इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील और गम्भीर है। लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीर साहब दिन भर घर में रहने लगे तो उन्हें बड़ा कष्ट होने लगा। उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गयी। दिन भर दरवाजे पर झाँकने को तरस जाती। 
उधर नौकरो में काना-फूसी होने लगी। अब तक दिन भर पड़े-पड़े मक्खियाँ मारा करते थे। घर में चाहे कोई आवे, चाहे कोई जाय, इनसे कुछ मतलब न था। आठों पहर की धौस हो गयी। कभी पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई लाने का। और हु्क्का तो किसी प्रेमी के हृदय की भाँति नित्य जलता ही रहता था। वे बेगम साहब से जा-जाकर कहते - हुजूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गई! दिन भर दौड़ते-दौड़ते पैरौ में छाले पड़ गये। यह भी कोई खेल है कि सुबह को बैठे तो शाम ही कर दी। घड़ी आध घड़ी दिल-बहलाव के लिए खेल लेना बहुत है। खैर, हमें तो कोई शिकायत नही, हुजूर के गुलाम हो, जो हुक्म होगा बजा ही लावेंगे, मगर यह खेल मनहूस है । इसका खेलने वाला कभी पनपता नही, घर पर कोई न कोई आफत जरूर आता है। यहाँ तक कि एक के पीछे मुहल्ले के मुहल्ले तबाह हो जाते देखे गये है। सारे मुहल्ले मे यही चर्चा होती रहती है । हुजूर का नमक खाते है। अपने आका की बुराई सुन-सुनकर रंज होता है। मगर क्या करे? इसपर बेगम साहिबा कहती - मै तो खुद इसको पसन्द नही करती, पर वह किसी की सुनते ही नही, क्या किया जाय? 
मुहल्ले में भी दो-चार पुराने जमाने के लोग थे। वे आपस में भाँति-भाँति के अमंगल की कल्पनाएँ करने लगे - अब खैरियत नही है। जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफिज। यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी। आसार बुरे है। 
राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फरियाद सुनने वाला न था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिची चली आती थी, और वह वेश्याओ में, भाँड़ो में और विलासता के अन्य अंगों की पूर्ति मे उड़ जाती थी। अँगरेजी कम्पनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता थी। कमली दिन-दिन भीग कर भारी होती जाती थी। देख में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी न वसूल होता था। रेसिडेन्ट बार-बार चेतावनी देता था, पर यहाँ लोग विलासिता के नशे में चूर थे। किसी के कान में जूँ न रेंगती थी। 
खैर, मीर साहब के दीवानखाने में शतरंज होते महीने गुजर गये। नये-नये नक्शे हल किये जाते, नये-नये बनाये जाते, नित नयी ब्यूह रचना होती; कभी-कभी खेलते-खेलते भिड़ हो जाती। तू-तू मै-मै तक की नौबत आ जाती। पर शीध्र ही दोनो में मेल हो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि बाजी उठा दी जाती. मिर्जा जी रूठ कर अपने घर में जा बैठते। पर रातभर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शान्त हो जाता था। प्रातःकाल दोनो मित्र दीवानखाने में आ पहुँचते थे। 
एक दिन दोनो मित्र बैठे शतरंज की दलदल में गोते लगा रहे थे कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ पहुँचा। मीर साहब के होश उड़ गये। यह क्या बला सिर पर आयी? यह तलबी किस लिये हुई ? अब खैरियत नही नजर आती! घर के दरवाजे बन्द कर लिये। नौकर से बोले - कह दो घर में नही है। 
सवार - घर में नही, तो कहाँ है? 
नौकर - यह मैं नही जानता। क्या काम है? 
सवार - काम तुझे क्या बतालाऊँ? हुजूर से तलबी है - शायद फौज के लिए कुछ सिपाही माँगे गये है। जागीरदार है कि दिल्लगी? मोरचे पर जाना पड़ेगा तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा। 
नौकर - अच्छा तो जाइए, कह दिया जायेगा। 
सवार - कहने की बात नही। कल मै खुद आऊँगा। साथ ले जाने का हुक्म हुआ है। 
सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिर्जा जी से बोले - कहिए, जनाब, अब क्या होगा? 
मिर्जा - बड़ी मुसीबत बै। कहीं मेरी भी तलबी न हो। 
मीर - कम्बख्त कल आने को कह गया है। 
मिर्जा - आफत है, और क्या! कहीं मोरचे पर जाना पड़ा तो बेमौत मरे। 
मीर - बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलें ही नही। कल से गोमती पर कहीं वीराने नें नक्शा जमें। वहाँ किसे खबर होगी? हजरत आकर लौट जायेंगे। 
मिर्जा - वल्लाह, आपको खूब सूझी! इसके सिवा औऱ कोई तदबीर नही है। 
इधर मीर साहब की बेगम उस सवार से कह रही थी - तुमने खूब ध्रता बतायी। उसने जवाब दिया - ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ। इनकी सारी अकल और हिम्मत तो शतरंजे चर ली। अब भूलकर भी घर न रहेंगे। 
दूसरे दिन से दोनों मित्र मुँह अँधेरे घर से निकल खड़े होते। बगल में एक छोटी-सी दरी दबाये, डिब्बे में गिलोरियाँ भरे, गोमती पार कर एक पुरानी वीरान मस्जिद में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफउद्दौला ने बनवाया था। रास्ते में तम्बाकू, चिलम औऱ मदरिया ले लेते और मस्जिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भर शतरंज खेलने बैठ जाते थे। फिर उन्हें दीन-दुनिया की फिक्र न रहती थी। 'किस्त', 'शह' आदि दो-एक शब्दों के सिवा मुँह से और कोई वाक्य नही निकलता था। कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता। दो पहर को जब भूख मालूम होती तो दोनो मित्र किसी नानबाई की दूकान पर जाकर खाना खा आते और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम क्षेत्र में डट जाते। कभी कभी तो उन्हें भोजन का भी ख्याल न रहता था। 
इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चो को ले-ले कर देहातो में भाग रहे थे। पर हमारे दोनो खिलाड़ियो को इसकी जरा भी फिक्र न थी। वे घर से आते तो गलियो में होकर। डर था कि कही किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाय, नही तो बेगार में पकड़े जायँ हजारो रूपये सालाना की जागीर मुफ्त में ही हजम करना चाहते थे। 
एक दिन दोनो मित्र मस्जिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मिर्जा की बाजी कुछ कमजोर थी। मीर साहब को किश्त पर किश्त दे रहे थे। इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिये। यह गोरो की फौज थी जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी। 
मीर साहब - अंगरेजी फौज आ रही है खुदा खैर करे! 
मिर्जा - आने दीजिए, किश्त बचाइए। लो यह किश्त! 
मीर - तोरखाना भी है। कोई पाँच हजार आदमी होगे, कैसे जवान है। लाल बंदरो से मुँह है। सूरत देखकर खौफ मालूम होता है। 
मिर्जा - जनाब, हीले न कीजिए। ये चकमें किसी और को दीजिएगा - यह किश्त! 
मीर - आप भी अजीब आदमी है। यहाँ तो शहर पर आफत आयी हुई है, और आपको किश्त की सूझी है। कुछ खबर है कि शहर घिर गया तो घर कैसे चलेंगे? 
मिर्जा - जब घर चलने का वक्त आयेगा तो देखी जाएगी - यह किश्त, बस अब की शह में मात है। 
फौज निकल गयी। दस बजे का समय था। फिर बाजी बिछ गयी। मिर्जा बोले - आज खाने की कैसी ठहरेगा? 
मीर - अजी, आज तो रोजा है। क्या आपको भूख ज्यादा मालूम होती है? 
मिर्जा - जी नही। शहर में जाने क्या हो रहा है? 
मीर - शहर में कुछ न हो रहा होगा। लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होगे। हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होगे । 
दोनो सज्जन फिर जो खेलने बैठे तो तीन बज गए। अब की मिर्जा की बाजी कमजोर थी। चार का गजर बज रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिदअली शाह पकड़ लिए गये थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिए जा रही थी। शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूँद भी खून नही गिरा था। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शान्ति से इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। यह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते है। यह कायरपन था जिस पर बड़े से बड़े कायर आँसू बहाते है। अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी बना चला जाता था और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी। 
मिर्जा ने कहा - हुजूर नवाब को जालिमों नें कैद कर लिया है। 
मीर - होगा, यह लीजिए शह! 
मिर्जा - जनाब, जरा ठहरिए। इस वक्त इधर तबीयत ठीक नही लगती। बेचारे नवाब साहब इस वक्त खून के आँसू रो रहे होंगे। 
मीर - रोया ही चाहे, यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा? यह किश्त। 
मिर्जा - किसी के दिन बराबर नही जाते। कितनी दर्दनाक हालत है। 
मीर - हाँ, सो तो है ही, यह लो फिर किश्त! बस अब की किश्त में मात है। बच नहीं सकते। 
मिर्जा - खुदा की कसम, आप बड़े बे दर्द है। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नही होता। हाय, गरीब वाजिदअली शाह! 
मीर - पहले अपने बादशाह को तो बचाइए, फिर नवाब का मातम कीजिएगा। यह किश्त और मात! लाना हाथ! 
बादशाह को लिए हुए सेना सामने से निकल गयी। उनके जाते ही मिर्जा ने फिर बाजी बिछा ली। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा - आइए नवाब के मातम में मरसिया कह डाले। लेकिन मिर्जा की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी । वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो गए थे। 
शाम हो गयी। खंडहर मेमं चमगादड़ो ने चीखना शुरू किया। अबाबीले आ-आकर अपने घोंसलों में चिपटी। पर दोनों खिलाड़ी डटे हुए थे। मानो दोनों खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हो। मिर्जा जी तीन बाजियाँ लगातार हार चुके थे; इस चौथी बाजी का भी रंग अच्छा न था। वह बार-बार जीतने का दृढ़निश्चय कर सँभलकर खेलते थे लेकिन एक न एक चाल ऐसी बेढ़ब आ पड़ती थी जिससे बाजी खराब हो जाती थी। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और उग्र होती जाती थी। उधर मीर साहब मारे उमंग के गजले गाते थे, चुटकियाँ लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गये हो। मिर्जा सुन-सुनकर झुझलाते और हार की झेंप मिटाने कि लिए उनकी दाद देते थे। ज्यों-ज्यों बाजी कमजोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकलता जाता था। यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे। 'जनाब' आप चाल न बदला कीजिए।यह क्या कि चाल चले औऱ फिर उसे बदल दिया जाय। जो कुछ चलना है एक बार चल दीजिए। यह आप मुहरे पर ही क्यों हाथ रखे रहते है। मुहरे छोड़ दीजिए। जब तक आपको चाल न सूझे, मुहरा छुइए ही नही। आप एक-एक चाल आध-आध घंटे में चलते है। इसकी सनद नही। जिसे एक चाल चलनें में पाँच मिनट से ज्यादा लगे उसकी मात समझी जाय। फिर आपने चाल बदली? चुपके से मुहर वही रख दीजिए। 
मीर साहब की फरजी पिटता था। बोले - मैने चाल चली ही कब थी? 
मिर्जा - आप चाल चल चुके है। मुहरा वही रख दीजिए - उसी घर में। 
मीर - उसमें क्यो रखूँ? हाथ से मुहरा छोड़ा कब था? 
मिर्जा - मुहरा आप कयामत तक न छोड़े, तो क्या चाल ही न होगी? फरजी पिटते देखा तो धाँधली करने लगे। 
मीर - धाँधली आप करते है। हार-जीत तकदीर से होती है। धाँधली करने से कोई नही जीतता। 
मिर्जा - तो इस बाजी में आपकी मात हो गयी। 
मीर - मुझे क्यो मात होने लगी? 
मिर्जा - तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था। 
मीर - वहाँ क्यो रखूँ? नही रखता। 
मिर्जा - क्यों न रखिएगा? आपको रखना होगा। 
तकरार बढ़ने लगी। दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। न यह दबता था, न वह। अप्रासंगिक बाते होने लगी। मिर्जा बोले - किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती तब तो इसके कायदे जानते। वो तो हमेशा घास छीला किए, आप शतरंज क्या खेलिएगा? रियासत और ही चीज है। जागीर मिल जाने ही से कोई रईस नही हो जाता। 
मीर - क्या! घास आपके अब्बाजन छीलते होगे। यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आते है? 
मिर्जा - अजी जाइए भी, गाजीउद्दीन हैदर के यहाँ बावर्ची का काम करते-करते उम्र गुजर गयी। आज रईस बनने चले है। रईस बनना कुछ दिल्लगी नही। 
मीर - क्यो अपने बुजुर्गो के मुँह पर कालिख लगाते हो - वे बावर्ची का काम करते होंगे। यहाँ तो बादशाह के दस्तर ख्वान पर खाना खाते चले आये है। 
मिर्जा - अरे चल चरकटे, बहुत बढ़कर बातें न कर! 
मीर - जबान सँभालिए, वर्ना बुरा होगा। मै ऐसी बातें सुनने का आदी नही। यहाँ तो किसी ने आँखे दिखायी कि उसकी आँखें निकाली । है हौसला? 
मिर्जा - आप मेरा हौसला देखना चाहते है, तो फिर आइए, आज दो-दो हाथ हो जायँ, इधर या उधर। 
मीर - तो यहाँ तुमसे दबने वाला कौन है? 
दोनो दोस्तों ने कमर से तलवारे निकाल ली। नवाबी जमाना था। सभी तलवार, पेशकब्ज कटार वगैरह बाँधते थे। दोनो विलासी थे, पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था। बादशाह के लिए क्यों मरे? पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनो ने पैतरे बदले, तलवारे चमकी, छपाछप की आवाजे आयी। दोनो जख्मी होकर गिरे, दोनो न वहीं तड़प-तड़प कर जाने दी। अपने बादशाह के लिए उनकी आँखों से एक बूँद आँसू न निकला, उन्होने शतरंज के वजीर की रक्षा नें प्राण दे दिए। 
अँधेरा हो चला था। बाजी बिछी हुई थी। दोनो बादशाह अपने-अपने सिहांसन पर बैठे मानो इन वीरो की मृत्यु पर रो रहे थे। चारो तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। खँडहर की टूटी हुई, मेहराबे गिरी हुई दीवारे और धूल-धूसरितें मीनारे इन लाशों को देखती और सिर धुनती थी। 

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 05 May 2020 at 7:01 AM -

एक कुत्ते की आत्मकथा

Hindi Kahani

हिंदी कहानी

Kutte Ki Kahani Munshi Premchand

कुत्ते की कहानी मुंशी प्रेम चंद

बालको! तुमने राजाओं और वीरों की कहानियां बहुत सुनी होंगी, लेकिन किसी कुत्ते की जीवन-कथा शायद ही सुनी हो। कुत्तों के जीवन में एसी बात ही कौन-सी होती है जो सुनाई जा सके। न ... वह देवों से लड़ता है, न परियों के देश जाता है, न बड़ी-बड़ी लड़ाईयां जीतता है। किंतु मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि मेरे जीवन में एेसी कितनी ही बातें हुई हैं जो बड़े-बड़े आदमियों के जीवन में भी नहीं हुई होंगी। 
जब मेरा जन्म हुआ और आंखे खुलीं, तो मैंने देखा कि एक भाड़ की राख में अपनी माता की छाती से चिपटा पड़ा हूं। हम चार भाई थे। तीन लाल थे पर मैं काला था। उस पर सबसे छोटा और सबसे कमजोर।
माता जी हम लोगों के पास कम ही रहती थीं। वह रात-रात भर जागकर गांव की रक्षा करती थीं। पर इतना सब करने पड़ भी कोई उन्हें खाने को नहीं देता था। हम लोगों की चिंता उन्हें परेशान कर देती थीं। बेचारी को जब भूख सताती, तो चोरी से लोगों के घरों में घुस जातीं। उन्हें खाने की जो चीज मिल जाती, लेकर निकल भागती। 
एक दिन बड़ी ठंड पड़ी। बादल छा गए और हवा चलने लगी। हमारे दो भाई ठंड न सह सके और मर गए। हम दो भाई रह गए। हमारी मां बहुत रोईं ।
जब हम दो भाई बड़े हुए, तो लड़कों ने हमारे साथ खेलना शुरू किया। मैं बहुत खूबसूरत था। मुझे एक पंडित का लड़का पकड़कर ले गया। जबकि मेरे भाई को एक डफाली का लड़का पकड़कर ले गया। मैं पंडित जी के घर पलने लगा और मेरा भाई डफाली के घर। उसे लोग जकिया कहने लगे, तो काले रंग के कारण मेरा नाम पड़ा कल्लू।
जाड़े का मौसम था। सब लड़के धूप में जमा हो जाते, तो हमें गोद में ले लेते और चूमते। कोई कहता हमारा बच्चा है तो कोई कहता हमारा मुन्ना है। कभी-कभी बड़े लड़के छोटे बच्चों को मेरी पीठ पर बैठाकर कहते— ' मेरा लल्लू हाथी पर बैठा है।' भला मैं उन लड़कों का बोझ कैसे उठाता। जब चिल्लाने लगता, तो जान बचती। कभी-कभी लड़के मुझे एक तालाब में डाल देते और मेरी तैराकी का तमाशा देखते। जब मैं बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगता, तो लड़के हंस-हंसकर कहते—'देखो, कल्लू कैसे तैरता है।' क्या बतलाऊं कि उस समय कितना गुस्सा आता। बार-बार यह जी में आता था कि कोई इन दुष्टों को भी इसी तरह डुबकियां देता, तो इनकी आंखें खुलतीं।
हम दो भाइयों में सुखी तो कोई नहीं था परंतु जकिया की दशा मेरे से अच्छी थीं। पंडित जी के यहां मुझे रूखा-सूखा भोजन मिलता था और वह भी बहुत कम। इसलिए मुझे दूसरों के द्वार पर भी चक्कर लगाना पड़ता था। परंतु जकिया को काफी भोजन मिल जाता था। उसे किसी दूसरे के यहां जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। पूरी खुराक मिलने के कारण वह ताकतवर और तंदुरुस्त बन गया था। कई बार भूख से तंग आकर जब मैं उसके द्वार पर जाता, तो वह मुझपर एेसे झपटता जैसे मैं उसका दुश्मन हूं। वह मुझ कमजोर को खूब काटता। मैं उससे लडऩे का प्रयास करता पर हार जाता। लोग उकसाते, तो मैं फिर झपटता, पर हर बार मुझे मुंह की खानी पड़ती। 
रोज-रोज की जिल्लत से तंग आकर एक दिन मैं जान पर खेलकर जकिया से उलझ पड़ा। वह भी पूरे जोश से लडऩे लगा। संयोग से पंडित जी वहां पहुंच गए। उनके पहुंचते ही लोग कहने लगे— 'कल्लू भग्गू कुत्ता है, कभी जकिया का सामना नहीं कर सकता।' यह सुनकर पंडित जी का चेहरा फीका पड़ गया। यह देखकर मालिक की आन रखने के लिए मैं कुछ एेसे जीवट से लड़ा कि जकिया को छठी का दूध याद आ गया। यह देखकर मेरे मालिक का चेहरा खिल उठा था। इससे मुझे बहुत संतोष मिला।
जिस तालाब में बच्चे मुझे फेंककर खेलते थे, उसका गांव में बड़ा महत्व था। उसी तालाब में गांव के छोटे-बड़े सभी नहाते-धोते थे। एक बार गांव के कुछ लड़के उसमें तैर रहे थे। पंडित जी का छोटा लड़का भी वहां पहुंच गया। उसका पैर फिसला, तो वह पानी में डूबने लगा। लड़के उसे बचाने के लिए चिल्लाने लगे पर किसी की उसे निकालने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। संयोग से पंडित जी का बड़ा लड़का भी वहां आ गया। भाई को डूबते देखा, तो बचाने के लिए तालाब में कूद पड़ा। पर छोटे ने उसे कुछ ऐसे पकड़ लिया कि वह भी डूबने लगा। मैं वहां आ पहुंचा और सारी बातें मेरी समझ में आ गई। मैं तुरंत पानी में कूद पड़ा और बालों से पकड़कर दोनों को किनारे पर घसीट लाया। उस दिन से पंडित जी मुझे जान से अधिक प्यार करने लगे। अब पंडित जी घर में जो कुछ लाते, उसमें अपने लड़कों की तरह मेरा भी हिस्सा लगाते।
एक बार गांव में कई जंगली सूअर आ गए। उनके उत्पात से सारे गांव में हाहाकार मच गया। वे जिस खेत में घुस जाते, उसे बरबाद कर देते। आखिर लोगों ने थाने में फरियाद की। थाने का सबसे बड़ा अफसर कई शिकारी कुत्तों को लेकर गांव में आ पहुंचा। गांव के सब आदमी तमाशा देखने के लिए के लिए जमा हो गए। जब मैं साहब के पास पहुंचा तो मेरी निगाह उन कुत्तों पर पड़ी जो साहब के साथ आए थे। वे सब एक वाहन में बैठे हुए थे जिसे साहब लोग जीप कहते थे। अपने उन भाग्यवान भाइयों को देखकर मैं गर्व से फूल उठा कि मेरी जाति में भी ऐसे लोग हैं जो अफसर के साथ मोटर में बैठते हैं।
साहब बहादुर अपने कुत्तों के साथ वहां पहुंचे जहां सूअरों का अड्डा था। साहब के कुत्ते उन पर टूट पड़े। उनकी बहादुरी देखकर लोग वाह-वाह कर उठे। अब मेरे मन में भी उमंग उठी। सोचा एक दिन तो मरना ही है। क्यों न कछ एसा कर दिखाऊं कि इन कुत्तों को को भी पता चल जाए कि इस गांव में भी कोई वीर है। 
इतने में एक सूअर आता दिखाई दिया। मैंने उसे मार गिराया। सबने मेरी तारीफ की। साहब भी खुश हुए। साहब ने पूछा— ''यह किसका कुत्ता है?
पंडित जी ने गर्व से अपना नाम बताया। साहब ने कहा— ''आपका कुत्ता बड़ा बहादुर है।'' बात पूरी भी न हो पाई थी कि अचानक एक सूअर निकला और साहब पर झपटा। यदि एक क्षण की भी देरी हो जाती, तो सूअर उन्हें मार डालता। साहब के हाथ में बंदूक था पर घबराहट में वह उसे चलाना भूल गए। मैंने देखा, मामला नाजुक है। मैंने पीछे से लपककर सूअर की टांग पकड़ ली। इतने में साहब संभल गए और उन्होंने सूअर को गोली मार दी। पर मरने से पहले वह मुझे बुरी तरह घायल कर गया। मैं बेहोश हो गया। 
जब होश आया तो देखा, मैं रूई के गद्दे पर लेटा हूं। दो तीन लोग मेरी सेवा कर रहे हैं। फिर तो साहब के घर पर मुझे एेसी चीजें खाने को मिलीं जो मैंने सपने में भी न सोचा था। साहब मुझे अपने साथ घुमाने ले जाते। पर उनके साथ रहते हुए भी मुझे पंडित जी की बड़ी याद आती थी पर साहब ने मुझे अपने साथ रखने की जिद ठान ली थी। आखिर मैंने उनकी जान जो बचाई थी।
कुछ दिन रहने का बाद साहब अपनी मेम के साथ विदेश घूमने निकले। उन्होंने मुझे भी साथ ले लिया। हम लोग लगभग एक महीने तक जहाज पर रहे। यह लकड़ी का ऊंचा-सा मकान था। जहां तक निगाह जाती, ऊपर नीला आकाश दिखाई देता था, तो नीचे नीला पानी। मैं डर के मारे भौंकता ही रहता था। 
एक रात बादल घिर आए। तेज हवाएं चलने लगीं। हमारा जहाज लहरों पर ऊपर-नीचे हो रहा था। सब डरे हुए थे। एेसी आंधी मेरे जीवन में एक बार पहले भी आई थी। तब गांव में सैकड़ों मकान गिरने से हजारों जानवर मारे गए थे। पर समुद्री आंधी तो बहुत भयानक थी। अचानक बिजली चली गई और पूरे जहाज पर अंधकार हो गया। एकाएक जहाज किसी चीज से टकराया। एक भयंकर आवाज हुई और लगा कि जहाज नीचे पानी में घुसता जा रहा है। मेरे साहब और मेमसाहब एक दूसरे से मिलकर रो रहे थे। उनके लिए मेरा कलेजा फटा जा रहा था। सोच रहा था कि कैसे उन्हें बचाऊं। मेरा वश चलता तो दोनों को अपनी पीठ पर बैठाकर समुद्र में कूद पड़ता। 
तभी जहाज पूरी तरह से पानी में डूब गया। सभी तैरने का प्रयास करने लगे। कोई कहीं बहे जा रहा था तो कोई कहीं। मुझे अपने साहब के लिए रोना आ रहा था। 
तभी बिजली चमकी। उस रोशनी में मुझे अपने साहब और मेमसाहब तैरते दिखाई पड़े। हम साथ-साथ तैरने लगे। वे दोनों बेहोश थे और एक लकड़ी के एक तख्ते पर लेटे थे। मैं उस तख्ते को दिशा दे रहा था। कई घंटों तक तैरने के बाद मैं उनके साथ एक टापू पर पहुंचा। हम किनारे पर पहुंचे ही थे कि कुछ काले लोगों ने आकर हमें घेर लिया। थोड़ी ही देर में कुछ औरतें भी बाहर आ गईं। उन्होंने साहब और मेमसाहब को उलटा लिटा दिया। कोई उनका पेट दबाता था, तो कोई हाथ। मुझे लगा कि वे उन्हें मार रहे हैं। पर बाद में पता चला, वे तो उनके पेट से पानी निकाल रहे थे। उनके होश में आते ही सभी खुशी से नाचने-गाने लगे। उनका नाच देखकर मुझे हंसी आती थी।
पर कुछ ही समय में सब बदल गया। उन्होंने मेरे साहब और मेमसाहब को एक कमरे में बंद कर दिया। उन्हें खाने को कुछ नहीं दिया जाता था। मुझे कुछ नहीं कहा क्योंकि उनकी नजर में मैं एक अदना-सा जानवर था।
कुछ ही दिनों में मुझे पता चल गया कि वे तो मेरे मालिकों को मारने की तैयारी कर रहे हैं। मैंने निश्चय किया कि किसी भी कीमत पर उन्हें बचाऊंगा। मैं मौका पाकर किसी की रोटी उठाकर अपने मालिक के पास छोड़ आता था। भूख के कारण वे मेरे मुंह से रोटी निकालकर खाने को तैयार हो जाते थे। 
कुछ ही दिनों में मैं वहां के रास्ते जान गया। एक रात मौका मिला, तो मैंने साहब के कपड़े खींचे। वह मेरा इशारा समझ गए। दरवाजे खिड़की के रास्ते वे मेरे साथ भाग चले। अब मैं आगे-आगे था और वे मेरे पीछे। थोड़ी देर में ही वहां के लोगों को पता चल गया कि साहब भाग रहे हैं। सब हल्ला मचाते हुए हमारे पीछे भागे। कुछ ही देर में हमने समझ लिया कि हमारा बचना मुश्किल है। तभी मुझे एक गुफा दिखाई दिया। साहब को मैंने खींचा, तो वह मेमसाहब के साथ उसमें घुस गए।
पर हमारी परेशानियों का अंत नहीं हुआ था। वह गुफा एक शेर का था और वह उसमें बैठा हुआ था। शेर को देखते ही वे दोनों बेहोश हो गए। डर तो मैं भी गया, पर यह देखकर कुछ हिम्मत बंधी कि शेर हमें देखकर भी उठा नहीं। वह चुपचाप मेरी तरफ देख रहा था। मैं डरते-डरते उस तक पहुंचा, तो देखा उसका दायां पैर बुरी तरह फूला हुआ था। 
मैं साहब के होश में आने की राह देखने लगा। थोड़ी देर में उनको होश आया। मुझे शेर के पास बैठे देखकर उनकी हिम्मत बंधी। शेर ने उन्हें देखकर पूंछ को हिलाया। वह आगे बढ़े, तो शेर ने अपना पंजा आगे कर दिया। साहब ने देखा, वहां एक कांटा गड़ा था। साहब ने कांटे को निकाल दिया। शेर का दर्द जाता रहा।
तभी गुफा में जंगली लोग घुस आए। मैं आगे जाकर खड़ा हो गया कि लड़ मरूंगा पर साहब पर आंच न आने दूंगा। पर वे आगे बढऩे लगे। 
तभी गुफा शेर की दहाड़ से गूंज उठा। सारे जंगली लोग दुम दबाकर भागने लगे। शेर ने एक को पकड़ लिया और देखते-देखते सारे लोग भाग खड़े हुए। एक घंटे बाद हम सब बाहर निकले। शेर सिर झुकाए हमारे आगे इस तरह चला जा रहा था, जैसे गाय हो। शाम होते-होते हम एक दूसरे जंगल में पहुंच गए। वहां का रास्ता मैं तो जानता न था अत: अब शेर आगे-आगे चलने लगा और हम उसके पीछे पीछे चलने लगे। तभी एक आवाज सुनकर शेर ठिठक गया। उसके कान खड़े हो गए और वह गुर्राने लगा। सहसा सामने एक दूसरा शेर आ गया।
हम सब तो एक पेड़ के पीछ दुबक गए पर हमारा शेर नए शेर के सामने डटकर खड़ा हो गया जैसे कह रहा हो— 'अपनी जान बचाने वाले पर मैं आंच न आने दूंगा।''
पर दूसरा शेर गरजकर हमारी ओर चला। यह देखकर हमारा शेर उस पर टूट पड़ा। दोनों आपस में गुंथ गए। दोनो कभी पंजों से लड़ते तो कभी दांतों से। घंटे भर की लड़ाई के बाद हमारे शेर ने मैदान मार ही लिया। पर हमारे मित्र की हालत भी खराब हो गई थी।
दूसरे दिन हम लोग समुद्र के किनारे पहुंचे। वहां हमारे मित्र शेर ने दम तोड़ दिया। वह मर तो गया पर अपना कर्ज चुका गया। साहब उसके मरने पर खूब रोए। उनकी समझ में आ गया होगा कि अगर प्यार मिले तो हम जानवर आदमियों के मुकाबले ज्यादा वफादार होते हैं।
तभी किसी चीज के घरघराने की आवाज हमारे कानों में आई। हम सब ऊपर आसामन की ओर देखने लगे। मुझे आसमान में एक बड़ी-सी चील दिखाई दी। साहब ने अपनी टोपी उतारकर हवा में उछाली, मेमसाहब भी अपना रूमाल हवा में लहराने लगीं। मेरी समझ में नहीं आता था कि चील को देखकर इतना खुश होने की क्या जरूरत है?
तभी वह चील हमारी ओर आने लगी। देखते-देखते वह नीचे उतर आई। मैंने इतनी भीमकाय चिडिय़ा नहीं देखी थी। थोड़ी देर में उसमें से दो आदमी निकले। तब मुझे पता चला यह तो एक प्रकार की सवारी है जो लोगों को लेकर हवा में उड़ती है। उन्होंने मेरे साहब से कुछ बात की। फिर साहब ने मुझे गोद में उठा लिया। फिर हम सब उसी में बैठकर उड़ चले। हम पूरी रात उड़ते रहे। सब सो गए पर डर के मारे मैं जगा रहा कि कहीं यह गिर न पड़े। जब हम नीचे उतरे, तो दंग रह गया। इतनी मुश्किल यात्रा कर हम सब अपने पुराने घर पर ही लौट आए थे। उस यंत्र से उतरकर हम सब एक मोटर में बैठकर अपने बंगले की ओर चले।
घर पहुंचते ही मेरा तो आराम हराम हो गया। एक नौकर ने तुरंत मुझे नहलाया। फिर मुझे लाकर साहब के मुलाकाती कमरे में एक सोफा पर बैठा दिया। मेमसाहब अपने हाथों से मुझे खिलाने लगीं। खुशी के मारे मेरा जी चाहता था कि मेरी बिरादरी वाले आएं और मुझे देखें और मुझपर गर्व करें। मैं उनसे कहना चाहता था कि मैं आज भी वही कल्लू हूं, वही कमजोर, मरियल कल्लू। मगर मैंने अपने कर्तव्य-पालन में कभी चूक नहीं की। अवसर पडऩे पर खतरों का निडर होकर सामना किया। इसीलिए मैं आज इतना स्नेह और आदर पा रहा हूं। शहर के बड़े-बड़े लोग मुझे देखने आए मुझ पर फूलों की वर्षा की।
शाम को मुझे मौका मिला,तो मैं अपने जन्मस्थल की ओर भागा। मगर ज्योंही मैं गांव पहुंचा। कुत्तों के एक झुंड ने मुझपर आक्रमण कर दिया। मैं उन्हें बताना चाहता था कि मै उनकी मान बढ़ाने वाला कल्लू हूं। परंतु वे मुझपर आक्रमण करते ही जा रहे थे। 
सौभाग्य से तभी मेरे पुराने स्वामी पंडित जी लाठी टेकते चले आए। उन्हें देखते ही जैसे मेरे बदन में शक्ति आ गई। मैं दौड़कर पंडित जी के पास पहुंचा और दुम हिलाने लगा। पंडित जी मुझे पहचान गए। उन्होंने प्यार से हाथ फेरकर कहा— ''तुम तो बड़े आदमी बन गए हो कल्लू। तुम्हारी तो अखबारों में भी तारीफ हो रही है।''
उनके साथ मैं घर पर पहुंचा। पंडिताइन ने भी मुझे बड़ा प्यार दिया मेरे आने की खबर सुनते ही सारा गांव इकट्ठा हो गया। सबने मुझे खूब प्यार दिया। फिर भरे मन से मैं बंगले पर पहुंचा,पर मेरा सिर गर्व से तना हुआ था।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 04 May 2020 at 8:35 PM -

ईदगाह- मुंशी प्रेम चंद

Eidgah Munshi Premchand



1
रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी ... संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गॉंव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पेदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लोटना असम्भव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ो के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयां खाएँगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी ऑंखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर काधन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहनसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लाएँगें— खिलौने, मिठाइयां, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या। 
और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पॉँच साल का गरीब सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और मॉँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया,. तो संसार से विदा हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियाँ लेकर आएँगे। अम्मीजान अल्लहा मियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हे। हामिद के पॉंव में जूते नहीं हैं, सिर परएक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियमतें लेकर आएँगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अन्धकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने के क्या मतल? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितबन उसका विध्वसं कर देगी। 
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है—तुम डरना नहीं अम्मॉँ, मै सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना। अमीना का दिल कचोट रहा है। गॉँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे केसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जाएँगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहाँ सेवैयाँ कोन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते-लोटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। मॉँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पेसे मिले थे। उस उठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं हे, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पांच अमीना के बटुवें में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्ला ही बेड़ा पर लगाए। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आएँगी। सभी को सेवेयाँ चाहिए और थोड़ा किसी को ऑंखों नहीं लगता। किस-किस सें मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराए? साल-भर का त्योंहार हैं। जिन्दगी खैरियत से रहें, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है: बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें दिन भी कट जाएँगे। 
गॉँव से मेला चला। ओर बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नींचे खड़े होकर साथ वालों का इंतजार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फलॉँग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है। 
बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ते जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे ओर क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हें, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे ओर क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहाँ मुर्दो की खोपड़ियां दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हें, पर किसी कोअंदर नहीं जाने देते। और वहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हें, मूँछो-दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्मॉँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सके। घुमाते ही लुढ़क जाएँ। 
महमूद ने कहा—हमारी अम्मीजान का तो हाथ कॉँपने लगे, अल्ला कसम। 
मोहसिन बोल—चलों, मनों आटा पीस डालती हैं। जरा-सा बैट पकड़ लेगी, तो हाथ कॉँपने लगेंगे! सौकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पॉँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो ऑंखों तक अँधेरी आ जाए। 
महमूद—लेकिन दौड़तीं तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं। 
मोहसिन—हाँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्मॉँ इतना तेज दौड़ी कि में उन्हें न पा सका, सच। 
आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुई। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थें कि आधी रात को एक आदमी हर दूकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये। 
हामिद को यकीन न आया—ऐसे रूपये जिन्नात को कहाँ से मिल जाएँगी? 
मोहसिन ने कहा—जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहें चले जाएँ। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिए। अभी यहीं बैठे हें, पॉँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जाएँ। 
हामिद ने फिर पूछा—जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं? 
मोहसिन—एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाए तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाए। 
हामिद—लोग उन्हें केसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिनन को खुश कर लूँ। 
मोहसिन—अब यह तो न जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाए चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देगें। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गए। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं। 
अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है। 
आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जाएँ। मोहसिन ने प्रतिवाद किया—यह कानिसटिबिल पहरा देते हें? तभी तुम बहुत जानते हों अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हें, सब इनसे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जाते रहो!’ पुकारते हें। तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हें। मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हें। बरस रूपया महीना पाते हें, लेकिन पचास रूपये घर भेजते हें। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहाँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे—बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले—हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाएँ। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए। हामिद ने पूछा—यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं? 
मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला..अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गई। सारी लेई-पूँजी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोए, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिरन जाने कहाँ से एक सौ कर्ज लाए तो बरतन-भॉँड़े आए। 
हामिद—एक सौ तो पचार से ज्यादा होते है? 
‘कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आएँ? 
अब बस्ती घनी होने लगी। ईइगाह जाने वालो की टोलियाँ नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-तॉँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से आर्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा। 
सहसा ईदगाह नजर आई। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया हे। नाचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम ढिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ वक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं हे। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हें। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गए। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, कई बार यही क्रिया होती हे, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ, और यही ग्रम चलता, रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए हैं। 


नमाज खत्म हो गई। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दूकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला हें एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ो में लटके हुए हैं। एक पेसा देकर बैठ जाओं और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटो पर बैठते हें। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता। 
सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। अधर दूकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं—सिपाही और गुजरिया, राज ओर वकी, भिश्ती और धोबिन और साधु। वह! कत्ते सुन्दर खिलोने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता हे, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधें पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता हे, अभी कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए हैं मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी अड़ेला ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम हे। कैसी विद्वत्ता हे उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पौथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किए चले आ रहे है। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौन वह केसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए। जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के! 
मोहसिन कहता है—मेरा भिश्ती रोज पानी दे जाएगा सॉँझ-सबेरे 
महमूद—और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आएगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा। 
नूरे—ओर मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा। 
सम्मी—ओर मेरी धोबिन रोज कपड़े धोएगी। 
हामिद खिलौनों की निंदा करता है—मिट्टी ही के तो हैं, गिरे तो चकनाचूर हो जाएँ, लेकिन ललचाई हुई ऑंखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हें, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हें, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचता रह जाता है। खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ ली हें, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक् है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई ऑंखों से सबक ओर देखता है। 
मोहसिन कहता है—हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है! 
हामिद को सदेंह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद हें मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद नूरे ओर सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है। 
मोहसिन—अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जा। 
हामिद—रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं है? 
सम्मी—तीन ही पेसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगें? 
महमूद—हमसे गुलाबजामुन ले जाओ हामिद। मोहमिन बदमाश है। 
हामिद—मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं। 
मोहसिन—लेकिन दिन मे कह रहे होगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते? 
महमूद—इस समझते हें, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जाएँगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा। 
मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पररूक जात हे। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख्याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तबे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होगी! फिर उनकी ऊगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएगी। खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई ऑंख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जाएँगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो। कोई आग मॉँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मॉँ बेचारी को कहाँ फुरसत हे कि बाजार आएँ और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं। हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सबके सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कतने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करों। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खाएँ मिठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियॉं निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। तब घर से पैसे चुराएँगे और मार खाएँगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हें। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्मॉँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी—मेरा बच्चा अम्मॉँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआएँ देगा? बड़ों का दुआएँ सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। में भी इनसे मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ मॉँगने तो नहीं जाते। आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आएँगे। अम्मा भी ऑंएगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा हूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जात है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हंसें! मेरी बला से! उसने दुकानदार से पूछा—यह चिमटा कितने का है? 
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा—तुम्हारे काम का नहीं है जी! 
‘बिकाऊ है कि नहीं?’ 
‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहाँ क्यों लाद लाए हैं?’ 
तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’ 
‘छ: पैसे लगेंगे।' 
हामिद का दिल बैठ गया। 
‘ठीक-ठीक पॉँच पेसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।' 
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा तीन पैसे लोगे? 
यह कहता हुआ व आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानों बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाएँ करते हैं! 
मोहसिन ने हँसकर कहा—यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा? 
हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटकर कहा—जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियाँ चूर-चूर हो जाएँ बचा की। 
महमूद बोला—तो यह चिमटा कोई खिलौना है? 
हामिद—खिलौना क्यों नही है! अभी कन्धे पर रखा, बंदूक हो गई। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे काकाम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाए। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगाएँ, मेरे चिमटे का बाल भी बॉंका नही कर सकतें मेरा बहादुर शेर है चिमटा। सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला—मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है। 
हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा-मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खॅजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाए तो खत्म हो जाए। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, ऑंधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा। 
चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आए हें, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है। घर पहुंचने की जल्दी हो रही हे। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे। 
अब बालकों के दो दल हो गए हैं। मोहसिन, महमद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रर्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हा गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहनि, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाए मियाँ भिश्ती के छक्के छूट जाएँ, जो मियाँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागे, वकील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मुंह छिपाकर जमीन पर लेट जाएँ। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जाएगा और उसकी ऑंखे निकाल लेगा। 
मोहसिन ने एड़ी—चोटी का जारे लगाकर कहा—अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता? 
हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा—भिश्ती को एक डांट बताएगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा। 
मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई—अगर बचा पकड़ जाएँ तो अदालम में बँधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेगे। 
हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा—हमें पकड़ने कौने आएगा? 
नूरे ने अकड़कर कहा—यह सिपाही बंदूकवाला। 
हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा—यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे—हिंद को पकड़ेगें! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाए। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेगें क्या बेचारे! 
मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई—तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा। 
उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जाएगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया—आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लैडियों की तरह घर में घुस जाएँगे। आग में वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है। 
महमूद ने एक जोर लगाया—वकील साहब कुरसी—मेज पर बैठेगे, तुम्हारा चिमटा तो बाबरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है? 
इस तर्क ने सम्मी और नूरे को भी सजी कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही हे पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है? 
हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धॉँधली शुरू की—मेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेगें, तो जाकर उन्हे जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा। बात कुछ बनी नही। खाल गाली-गलौज थी, लेकिन कानून को पेट में डालनेवाली बात छा गई। ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए मानो कोई धेलचा कानकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज हे। उसको पेट के अन्दर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती हे। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द हे। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती। 
विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिल। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जाएँगी। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों? 
संधि की शर्ते तय होने लगीं। मोहसिन ने कहा—जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमार भिश्ती लेकर देखो। महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किए। 
हामिद को इन शर्तो को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए। कितने खूबसूरत खिलौने हैं। 
हामिद ने हारने वालों के ऑंसू पोंछे—मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबर करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले। 
लेकिन मोहसिन की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिल्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है। 
मोहसिन—लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा? 
महमूद—दुआ को लिय फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्मां जरूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले? 
हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की मां इतनी खुश न होगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब-कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयों पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमें—हिन्द हे ओर सभी खिलौनों का बादशाह। 
रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दियें। महमून ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुंह ताकते रह गए। यह उस चिमटे का प्रसाद थां। 


ग्यारह बजे गॉँव में हलचल मच गई। मेलेवाले आ गए। मोहसिन की छोटी बहन दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियॉं भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खुब रोए। उसकी अम्मॉँ यह शोर सुनकर बिगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चॉँटे और लगाए। मियाँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर हो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गई। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिदाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। आदालतों में खर की टट्टियाँ और बिजली के पंखे रहते हें। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जाएगी कि नहीं? बॉँस कापंखा आया ओर नूरे हवा करने लगें मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गई। 
अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गॉँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाए गए जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठाई और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते लहो’ पुकारते चलते हें। मगर रात तो अँधेरी होनी चाहिए, नूरे को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियाँ सिपाही अपनी बन्दूक लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टॉँग में विकार आ जाता है। 
महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टॉँग को आनन-फानन जोड़ सकता हे। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जावब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टॉँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहों, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है। 
अब मियाँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी। 
‘यह चिमटा कहॉं था?’ 
‘मैंने मोल लिया है।‘ 
‘कै पैसे में? 
‘तीन पैसे दिये।‘ 
अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! 
‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?’ 
हामिद ने अपराधी-भाव से कहा—तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया। 
बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता हे और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना व्याग, कितना सदभाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गदगद हो गया। 
और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद कें इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएँ देती जाती थी और आँसूं की बड़ी-बड़ी बूंदे गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 30 Apr 2020 at 9:24 PM -

अधर्म

कल एक तमाशा देखने का मौका हमें इरफान ने दिया था, दूसरा मौका ऋषि कपूर ने आज दिया है.. एक ने मुसलमान हो कर कुर्बानी को पसंद करने से इनकार किया था और दूसरे ने हिंदू हो कर बीफ खाने की आजादी का समर्थन किया ... था..

हम कहते हैं, जानते हैं और समझते हैं कि वे कलाकार के तौर पर जाति धर्म के दायरे से परे होते हैं लेकिन कुछ धार्मिक लोग इन्हें हमेशा धर्म के नजरिये से ही देखते हैं और यही चीज ऐसे संवेदनशील मौके पर नफरती आचरण करने पर उकसाती है और फिर यह दावा भी यही लोग करते ज्यादा पाये जाते हैं कि धर्म हमें यह अच्छाई सिखाता है, धर्म हमें वह सदाचरण सिखाता है.. इन दो दिनों में जाने कितने ऐसे ही लोग सच्चे मुस्लिम और सच्चे हिंदू बन कर सामने आये।

धर्म आपको क्या सिखाता है, या यह कितना अच्छा है.. लोग इसे आपके आचरण से जज करते हैं न कि आपके दावों से। अगर किसी इंसान की मौत पर आप सिर्फ इसलिये खुश हैं कि आपको अतीत में उसकी कही कोई बात पसंद नहीं थी, धर्म के खिलाफ लगी थी.. तो यकीन कीजिये कि आपकी वह खुशी आपके धर्म के अच्छे पहलू को नहीं बल्कि उसके कुरूप चेहरे को उजागर कर रही है।

ऐसे लोग असल में नफरत से भरे होते हैं, इनका नजरिया हमेशा नकारात्मक होता है.. आप इनसे संवेदनशीलता की उम्मीद नहीं कर सकते, हो सकता है कि इनके सामने कोई मदद का ख्वाहा #इंसान मर रहा हो और यह उसमें #हिंदू या #मुसलमान ढूंढ कर आगे बढ़ जायें। ऐसा नहीं है कि इनमें इंसानियत नहीं होती, लेकिन बेहद सीमित और सिलेक्टिव होती है।

खैर.. इनसे हट कर देखें तो मुझे यह अहसास हो रहा है कि यह सबसे बुरा साल गुजरना है हमारी अब तक की जिंदगी का.. तकलीफ इस बात की है कि अभी इस मनहूस साल के बस चार महीने ही गुजरे हैं।

ऋषि कपूर उन दो अभिनेताओं में से थे, बचपन में जिनकी फिल्में मैं बड़े चाव से देखता था.. एक अमिताभ और दूसरे ऋषि। बाद में बड़े होने पर और भी लोग पसंद आये लेकिन यह दोनों लोग हमेशा मेरी पसंद बने रहे। मेरे लिये वे कलाकार रहे, कभी उनमें कोई हिंदू मुस्लिम दिखा ही नहीं। इंसान के तौर पर कमियां हो सकती हैं, वह हर किसी में होती हैं। कौन है जो कमियों से पाक है.. मुझे कल भी बहुत अफसोस था, मुझे आज भी बहुत अफसोस है। वह ऋषि कपूर चला गया, जिसे बचपन से देखते मैं बड़ा हुआ।

छोड़िये इन नफरत करने वालों को.. न इन्हें आज ठीक से कोई जानता है न कल याद रखेगा लेकिन इरफान हों या ऋषि वे हमेशा याद रहेंगे। हमेशा याद रखे जायेंगे। उस कला की बदौलत जो इंसानी इतिहास में अमर हो जाती है।

#RIP_RishiKapoor

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 28 Apr 2020 at 7:20 PM -

bcg का टीका

"यह बचाएगा कोविड-19 से भारत को ... और दुनिया को भी ! यह !" मदन भाई अपनी टीशर्ट का आधा बाज़ू ऊपर मोड़ते हुए उल्लास-भरे स्वर में कहते हैं। उनकी उँगली का इशारा बायीं भुजा की सतह पर बने उस निशान की ओर है , ... जिसे संसार बीसीजी के नाम से जानता है।

"बैसिलस कैलमेट गीरैन। आपको इससे इतनी उम्मीद क्यों हैं ?" मैं उनके समाचारीय सुख को टटोलता हूँ।

"अख़बारों में , टीवी-चैनलों में हर जगह छाया हुआ है यह बीसीजी का टीका। जहाँ इसे जनता लगवाती रही है , वहाँ कोविड-मामले भी कम हैं और मृत्यु-दर भी। तुम्हें नहीं लगता ? कुछ दम तो है इसमें !"

"अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी पुख़्ता तौर पर। किन्तु चलिए इसी बात पर बीसीजी की कहानी कही-सुनी जाए। सुनेंगे आप ?"

मदन भाई की उत्साही भौहें खिंच जाती हैं।

"निन्यानवे साल पुराना टीका है बीसीजी। यानी बैसिलस कैलमेट गीरैन। इस टीके में एक ख़ास माइकोबैक्टीरियम बोविस नाम का जीवाणु है , जिसे क्षीण यानी एटेनुएट किया गया है। यह जीवाणु गायों में टीबी-रोग पैदा करता है।"

"गायों में टीबी करता है ! पर यह जीवाणु टीबी से हमें कैसे बचाता है ? बीसीजी तो टीबी में काम करता है --- ऐसा सुना था !" मदन भाई का प्रश्न है।

"जी। टीबी-रोग मायोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस से होता है। किन्तु बीसीजी में एक दूसरा मायकोबैक्टीरियम बोविस है। ये कई मामलों में मिलते-जुलते हैं। अलबर्ट कैलमेट और कैमिल गीरैन से इस टीका का निर्माण किया। मनुष्यों में इसका पहला प्रयोग सन् 1921 में किया गया। तबसे न जाने कितने ही शिशुओं और नवजातों को यह लगाया जा चुका है। इसका मुख्य उद्देश्य : ट्यूबरकुलर मेनिन्जायटिस व डिस्सेमिनेटेड टीबी से व्यक्ति की रक्षा।"

"ये दोनों अजीब-ओ-ग़रीब नाम ऐसे हैं ?"

"ये टीबी-रोग के दो गम्भीर स्वरूप हैं। ट्यूबरकुलर मेनिन्जायटिस मस्तिष्क की मेनिंजेज़ नामक बाहरी झिल्लियों को प्रभावित करने वाला रोग है और डिस्सेमिनेटेड टीबी उस स्थिति को कहा जाता है , जब टीबी पूरे शरीर में फैल जाती है।"

"अरे ! तब तो ये बड़ी घातक बीमारियाँ हुईं ! एक दिमाग़ पर असर डाल रही है , दूसरी समूचे जिस्म पर !"

"यक़ीनन। तो इन्हीं को रोकने के लिए बीसीजी का इस्तेमाल किया जाने लगा। कामयाबी भी काफ़ी मिली , हालांकि टीबी इ अन्य स्वरूपों में इसकी सफलता विवादास्पद रही।"

"इनके अलावा भी कहीं यह टीका इस्तेमाल हुआ ?"

"जी। मूत्राशय के कैंसर में। वहाँ भी इसके प्रयोग से यूरोलॉजिस्टों-ऑन्कोसर्जनों ने रोगियों में लाभ होता पाया। लेकिन बीसीजी बड़ी दिलचस्प वैक्सीन रही दूसरे मायनों में।"

"कैसे ?"

"बीसीजी का टीका जब नवजातों को लगने लगा , तब ओवरऑल शिशु-मृत्यु-दर में भी कमी पायी जाने लगी। केवल टीबी से ही बच्चे कम मर रहे हों , ऐसा नहीं था। बीसीजी का टीका लगने से बच्चों में फेफड़ों के संक्रमण और सेप्सिस जैसे गम्भीर भी घटते पाये गये।"

"अरे वाह ! यह तो कमाल हो गया ! आम-के-आम-गुठलियों-के दाम !"

"हाँ , पर विज्ञान तो मुहावरों के आधार बना कर उत्सव मनाता नहीं। उसकी उल्लासधर्मिता को तो प्रमाण चाहिए पहले। सो दुनिया-भर के इम्यूनोलॉजिस्ट जुटे बीसीजी का अध्ययन करने के लिए कि ये एक-से-अधिक लाभ मिल क्यों और कैसे रहे हैं ? जानते हैं उन्हें क्या मिला ?"

"अब थोड़ी इम्यूनोलॉजी की जटिल भाषा को सरल करके समझाने का प्रयास करता हूँ। मोटी बात यह समझिए कि वैज्ञानिकों ने पाया कि बीसीजी का टीका शरीर में अन्य संक्रमणों से बचाने के लिए तीन स्तर पर काम करता है। मान लीजिए किसी बच्चे को बीसीजी का टीका लगा। टीके में एक जीवाणु है , जिसका नाम आप जान चुके हैं। शरीर के भीतर जो प्रतिरक्षक लिम्फोसाइट-कोशिकाएँ हैं ( दो प्रकार की : टी-लिम्फोसाइट व बी-लिम्फोसाइट ) उन्हें इस बीसीजी के जीवाणु का प्रयोग करके टीबी से लड़ने की ट्रेनिंग दी जाती है। यानी शरीर के सैनिकों को ट्रेनिंग देने वाली कोशिकाएँ बीसीजी के टुकड़े ( यानी एंटीजन ) इन लिम्फोसाइट-सैनिकों के सामने प्रस्तुत करते हुए कहती हैं कि , "इसे देख रहे हो ? बाहर जो टीबी की बीमारी पैदा करने वाला दुश्मन है न , वह इसी से मिलता-जुलता है। इससे लड़ने का अभ्यास करो। इससे लड़ना सीख लोगे , तो उससे लड़ने में भी आसानी होगी।" इस तरह से शरीर की टी-लिम्फोसाइट व बी-लिम्फोसाइट बीसीजी के टीके से ट्रेनिंग लेकर टीबी-रोग से लड़ने के लिए तैयार हो जाती हैं। फिर ये शरीर में ट्रेनिंग की स्मृति लेकर चुपचाप पड़ी रहती हैं कि कब टीबी का जीवाणु भीतर दाखिल हो और कब वे इससे लड़ें। किन्तु जब टीबी के जीवाणु की जगह दूसरे श्वसन-रोग पैदा करने वाले विषाणु शरीर में घुसते हैं , तब ये स्मृतियुक्त लिम्फोसाइट इन विषाणुओं और बीसीजी-जीवाणु के टुकड़ों ( यानी एंटीजनों ) कुछ समानता पाते हैं और इन विषाणुओं पर हमला कर देते हैं।"

"यानी ट्रेनिंग बीसीजी से ली थी , टीबी के लिए ली थी और हमला करके मार दिये वायरस ! गज्जब भाई ! कमाल !"

"हाँ मदन भाई। आण्विक स्तर पर बीसीजी और विषाणुओं को एक-सा दिखना मॉलीक्यूलर मिमिक्री कहलाता है और इस मिमिक्री के कारण विषाणुओं का सफाया हो जाता है। यह बीसीजी-टीके का टीबी के अतिरिक्त अन्य संक्रामक रोगों में काम करने का पहला ढंग हुआ।"

"दूसरा ढंग क्या है ?"

"बीसीजी एक-दूसरे ढंग से सीधे प्रतिरक्षा-तन्त्र की इन बी व टी-लिम्फोसाइटों को विषाणुओं के खिलाफ़ सक्रिय कर सकता है। इस तरीक़े को हेटेरोलॉगस इम्यूनिटी कहा जाता है। इसमें बीसीजी और विषाणुओं के मिलते-जुलते एंटीजन ज़िम्मेदार नहीं होते , यह सीधे काम के लिए उन्हें तैयार करता है। यानी बीसीजी का टीका लगा तो केवल टीबी-रोग से लड़ने वाले सैनिक नहीं तैयार हुए , विषाणु से लड़ने वाले सैनिक भी तैयार हो गये।"

"और तीसरा ढंग क्या है ?"

"तीसरा ढंग अन्तिम और सर्वाधिक शोध का विषय बना हुआ है। इसे ख़ास नाम दिया गया है : ट्रेंड इम्यूनिटी। मोनोसाइट-मैक्रोफेजों जैसी प्रतिरक्षक कोशिकाओं के भीतर जीनों के ख़ास प्रमोटर नामके स्विचों को ऑन-ऑफ़ करके उनके भीतर प्रतिरक्षक रसायनों का निर्माण और स्राव कराया जाता है। यह रासायनिक निर्माण और स्राव भी बीसीजी कराता है। अब जब विषाणु शरीर में दाखिल होते हैं , तब बीसीजी के आधार पर मिली ट्रेनिंग के कारण ये मोनोसाइट-मैक्रोफेज उन्हीं रसायनों का उत्पादन और स्राव शुरू कर देते हैं , जिनकी ट्रेनिंग पहले बीसीजी ने उन्हें दी थी। इस रसायनों के तरह-तरह के प्रयोगों से विषाणु मारे जाते हैं।"

"यानी इन तीन तरीक़ों से बीसीजी विषाणुओं के खिलाफ़ इम्यूनिटी देता है। वाह ! तब तो कोविड-19 में इससे मिलने वाली प्रतिरक्षा की बात में दम है ! है न !"

"जैसा कि मैंने कहा कि विज्ञान उल्लास से पहले प्रमाण जुटाता है। बीसीजी काम करता है , इसके कुछ प्रमाण हैं। अवश्य हैं। पर यह काम करता है , तो क्या इतना जानने-भर से काम चल जाएगा ? यह सच है कि इटली और अमेरिका जैसे देशों में , जहाँ इस टीके का प्रयोग व्यापक रूप में नहीं है , वहाँ अधिक मौतें हुई हैं और दक्षिणी कोरिया , जापान और भारत जैसे देशों में कम , जहाँ इस टीके का ख़ूब इस्तेमाल होता रहा है। लेकिन यह प्रमाण परिवेश-जन्य भी हो सकता है और अनेक दूसरे कारण भी मौत के आँकड़ों में अन्तर के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं। अभी कई शोध चल रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया , नीदरलैंड्स व अमेरिका में बीसीजी का टीका स्वास्थ्य-कर्मियों को लगाया जा रहा है ताकि यह देखा जा सके कि क्या यह उनकी कोविड-19 से रक्षा करता है अथवा नहीं। फिर बुज़ुर्गों में इस टीके को लगाकर गम्भीर कोविड-संक्रमण की रोकथाम पर भी शोध चल रहे हैं। जर्मनी भी बीसीजी से मिलते-जुलते टीके को बुज़ुर्गों अथवा स्वास्थ्य-कर्मियों को लगाकर शोध में लगा हुआ है।"

"चलो यार ! बस नतीजे पॉज़िटिव आएँ !"

"केवल नतीजों के पॉज़िटिव आने से प्रश्न समाप्त नहीं होते मदन भाई। लोग पूछेंगे कि टीका लगने से कितने दिन-महीने-साल की सुरक्षा मिलेगी इस कोरोनाविषाणु से ? दूसरे देशों की जनता यह भी पूछेगी कि टीका लगवाने की सही उम्र क्या है ? कितनी बार ? क्या बचपन में लगा बीसीजी और जवानी या बुढ़ापे में लगा बीसीजी एक-सा काम करेंगे ?"

"सवाल तो लाज़िमी हैं ये सारे।"

"इसीलिए विज्ञान त्वरित उत्सवधर्मिता में कंजूसी दिखाता है। पहले वह यह सिद्ध करने में लगा है कि सचमुच बीसीजी कोविड-19 में काम करता है अथवा नहीं। फिर यह सिद्ध करने में की किस तरह। फिर बीसीजी-टीका देने-सम्बन्धी पॉलिसी के गठन के बारे में। इतना सब जानने के बाद ही वह उल्लसित हो सकता है।"

"तब तक हम आम लोग तो लॉकडाउन में ख़ुश हो ही सकते हैं न भाई ! टीका हम-हिन्दुस्तानियों को जन्म के तुरन्त बाद लगाया जाता है और सम्भावना जगा रहा है। इस बुरे दौर में उम्मीद पर इतना खुश होना तो बनता है न !" कहते हुए वे भुजा के उस बीसीजी के निशान को चूम लेते हैं।

"अन्वेषकों ने जनता को उम्मीद रखने से कहाँ रोका है ! वे तो बस इतना कह रहे हैं कि आसमान ताकते हुए ज़मीन पर जमे रहना है , गिरना नहीं। बीसीजी की इस नयी कहानी के सुखद अन्त की हम-सबको प्रतीक्षा है।"

--- स्कन्द।

#skandshukla
चिकित्सक-मित्र नेचर-रिव्यूज़-यूरोलॉजी

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 24 Apr 2020 at 10:21 PM -

इम्युनिटी

हमारा इम्यून सिस्टम क्या करता है वायरस को हराने के लिए ?
. ज्यादातर लोग कोरोना वायरस से इन्फेक्ट होके अपने आप ठीक हो जा रहे हैं। कैसे ? .

... एक बड़ा युद्ध होता है बाकायदा !
.

#वायरस_का_हमला :

वायरस आया शरीर में, 4 दिन गले में रहा, फिर लंग्स में उतर गया, लंग्स में एक सेल के अंदर घुसा और उसके रिप्रोडक्शन के तरीके को इस्तेमाल करके खुद की copies बना ली, फिर सारी copies मिलके अलग अलग सेल्स को अंदर घुसकर ख़त्म करना शुरू कर देती है। अब बहुत सारे वायरस हो गए हैं फेफड़ों में, मौत के करीब पहुँचने लगता है इंसान। शुरू में वायरस फेफड़ों के epithelial सेल्स को इन्फेक्ट करता है।

वायरस अभी जंग जीत रहा होता है।
.

#शरीर_के_सेनापति_तक_खबर_पहुँचती_है :

हमारे शरीर का सेनापति होता है हमारा इम्यून सिस्टम,
इम्यून सिस्टम के पास सभी दुश्मनों का लेखा जोखा होता है की किसपर कौनसा अटैक करना है,
एंटी-बॉडीज की एक सेना तैयार की जाती है और वायरस पर हमले के लिए भेज दी जाती है।
.

#एंटी_बॉडी_सेना_की_रचना :

एंटीबाडी सेना की रचना अटैक के तरीके को देखकर होती है,
अगर वो वायरस पहले अटैक कर चुका है तो उसकी एंटीबाडी रचना पहले से मेमोरी में होगी और उसे तुरत वायरस को मारने के लिए भेज दिया जाता है।
अगर वायरस नया है जैसा की कोविद 19 के केस में है तो इम्यून सिस्टम हिट एंड ट्रायल से सेना की रचना करता है।

सबसे पहले भेजा जाता है हमारे शरीर के सबसे फेमस योद्धा "इम्मुनोग्लोबिन g" को,
ये शरीर की सबसे कॉमन एंटीबाडी है और ज्यादातर युद्धों में जीत का सेहरा इसी के बंधता है।
इम्मुनोग्लोबिन g सेना शुरूआती अटैक करती है वायरस सेना पर और उसे काबू करने की कोशिश करती है।
इम्मुनोग्लोबिन g सेना को कवर फायर देती है एंटीबाडी इम्मुनोग्लोबिन m सेना जो अटैक की दूसरी लाइन होती है।
.

#युद्ध_की_शुरुआत :

भीषण युद्ध छिड़ता है दोनों ही पार्टियों में,
इम्मुनोग्लोबिन g वायरस पर टूट पड़ता है और उसे बेअसर करने की कोशिश करता है,
जो सेल्स अभी तक ख़त्म नहीं हुए होते हैं उन्हें बचाने की कोशिश की जाती है ताकि वो सुसाइड ना कर ले,
लेकिन वायरस क्यूंकि अभी ताकतवॉर है इसलिए वो इम्यून सेल्स को भी इन्फेक्ट करना शुरू कर देता है, जो की वायरस को अपनी जीत के तौर पर लगता है। लेकिन...
.

#इम्यून_सिस्टम_की_वानर_सेना :

इम्मुनोग्लोबिन g और इम्मुनोग्लोबिन m के अलावा हमारा इम्यून सिस्टम एक गुरिल्ला आर्मी भी छोड़ देता है खून में,
जिसमे की तीन टाइप के प्रमुख योद्धा हैं,
पहले हैं B सेल्स, जो जनरल सेना टाइप है, जैसे हर मिस्त्री के पास एक बंदा होता है जो सब कुछ जानता है,
दुसरे हैं हेल्पर T सेल्स, जो मददगार सेल्स होते हैं, और बाकी सेल्स को हेल्प करते हैं,
तीसरे और सबसे इम्पोर्टेन्ट होते हैं किलर T सेल्स, जो शिवाजी और मालिक काफूर की तरह चुस्त योद्धा होते हैं और आत्मघाती हमला टाइप करते हैं जिस से वायरस के छक्के छूट जाते हैं।
.

#युद्ध_का_लम्बा_खिंचना :

जितना युद्ध लम्बा खिंचता जाता है उतनी ही मात्रा में B और दोनों टाइप के T सेल्स की मात्रा खून में बढ़ती जाती है।
.

#ज़िन्दगी_और_मौत_का_फर्क :

इंसानी मौत के ज्यादा चांस तब हैं जब उसका इम्युनिटी का सेनापति पहले से किसी और बीमारी से लड़ रहा हो, इसलिए उसकी सेना को दो या ज्यादा fronts पर लड़ना होता है, और कुछ केसेस में हार भी हो जाती है।
वायरस इम्यून सेल्स को इन्फेक्ट करता रहता है और ट्रैप में फंसता रहता है, फिर इम्मुनोग्लोबिन g और इम्मुनोग्लोबिन m, खून से सप्लाई हो रही वानर सेना से मिल के वायरस को बुरी तरह रगड़ना शुरू कर देती है,
इस लड़ाई ट्रैप वगैरह में कई दिन लग जाते हैं, इसलिए बीमार और वृद्ध व्यक्ति इतना अगर झेल गया तो बच जाता है वरना lung बर्बाद हो जाता है मौत हो जाती है, लेकिन स्वस्थ इंसान में मौत का सवाल ही पैदा नहीं होता, वायरस की ही जीभ बाहर फिंकवा देता है हमारा इम्युनिटी सेनापति ।
इस युद्ध के दौरान इंसान को ज्यादा से ज्यादा आराम करना चाहिए ताकि सेनापति को युद्ध के अलावा बाकी चीज़ों की टेंशन ना लेनी पड़े।
.

#इम्युनिटी_सेनापति_की_जीत :

जीत के बाद जश्न होता है, इस समय आपके खून में बी और टी सेल्स भारी मात्रा में होते हैं और सारे इकट्ठे "इंक़लाब ज़िंदाबाद" बोल देते हैं,
जीत होते ही ये वाक़या इम्यून सिस्टम की मेमोरी के इतिहास में दर्ज़ हो जाता है,
कुछ वायरस जो की ताकतवर होते हैं उनका इतिहास हमेशा के लिए लिख लिया जाता है जैसे की चिकनपॉक्स और पोलियो वाले का, की जब भी ये शरीर पर दुबारा हमला करे तो कैसे जल्दी से निपटाना है इसको, ताकि देर ना हो जाए !
कुछ वायरस फालतू टाइप्स भी होते हैं जैसे जुकाम टाइप्स, उनको इम्यून सिस्टम मेमोरी महीना दो महीना रख के रद्दी में फेंक देती है, की फिर आएगा तो देख लेंगे दम नहीं है बन्दे में। इसीलिए इंसान को जुकाम होता रहता है साल दर साल, क्यूंकि ये सेनापति के हिसाब से हल्का वायरस है, कभी भी आसानी से ख़त्म किया जा सकता है इसे।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 28 Oct 2019 at 8:14 PM -

शिक्षक

"प्रणाम..सर! मुझे.. पहचाना??"

"कौन?" ..भाई, बता दो..शरीर साथ नहीं देता मेरा।

"सर, मैं आपका स्टूडेंट..45 साल पहले का..आपका विद्यार्थी।"

"ओह! अच्छा, आजकल ठीक से दिखता नही बेटा और याददाश्त भी कमज़ोर हो गयी है..इसलिए नही पहचान पाया..खैर..आओ, बैठो..क्या करते हो आजकल?" उन्होंने उसे प्यार से बैठाया और पीठ ... पर हाथ फेरते हुए पूछा..

"सर, मैं भी आपकी ही तरह शिक्षक बन गया हूँ।"

"वाह" यह तो अच्छी बात है लेकिन शिक्षक की पगार तो बहुत कम होती है फिर तुम क्यूं शिक्षक बने...???"

"सर, जब मैं ग्यारहवीं कक्षा में था तब हमारी कक्षा में एक घटना घटी थी..उसमें से आपने मुझे बचाया था..मैंने तभी शिक्षक बनने का निर्णय ले लिया था..वो घटना मैं आपको याद दिलाता हूँ..आपको मैं भी याद आ जाऊँगा।"

"अच्छा, क्या हुआ था तब?"

"सर, सातवीं में हमारी कक्षा में एक बहुत अमीर लड़का पढ़ता था..जबकि हम बाकी सब बहुत गरीब थे..एक दिन वह बहुत महंगी घड़ी पहनकर आया था और उसकी घड़ी चोरी हो गयी थी..कुछ याद आया सर?"

"सातवीं कक्षा???"

"हाँ सर..उस दिन मेरा मन उस घड़ी पर आ गया था और खेल के पिरेड में जब उसने वह घड़ी अपने पेंसिल बॉक्स में रखी तो मैंने मौका देखकर वह घड़ी चुरा ली थी..उसके बाद आपका पिरेड था..उस लड़के ने आपके पास घड़ी चोरी होने की शिकायत की..आपने कहा कि जिसने भी वह घड़ी चुराई है उसे वापस कर दो..मैं उसे सजा नही दूँगा..लेकिन डर के म