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user image Robertamony RobertamonyPT - Tuesday at 6:54 AM -

क्या आप प्रेम मंत्र और जादू में विश्वास करते हैं?

नमस्कार!
मैं जादू, प्रेम मंत्र या साजिशों के बारे में संदेह करता था, इससे हंसी और विडंबना होती थी ।
लेकिन एक बार एक दोस्त ने मुझे दिखाया कि प्रेम मंत्र और जादू उसके जीवन को कैसे प्रभावित करते हैं, और यह मेरे लिए ... दिलचस्प हो गया ।
विभिन्न पुस्तकों और सामग्रियों का अध्ययन करते हुए, मुझे एहसास हुआ कि जादू वास्तव में काम करता है और इसके बारे में जो पूछा जाता है वह लाता है ।
बस एक जीवन की स्थिति उत्पन्न हुई, और मैंने अच्छे जादूगरों की तलाश शुरू कर दी, अपील के बाद सब कुछ निकला, मैं आपको जादू के इन स्वामी की सिफारिश करना चाहता हूं:
https://tvoi54.ru/articles/15-12-2022/6631-otzyvy-o-privorotah-realnyi-lyudei-kto-delal-ritual-na-saite-magpomosh-ru.html
https://abc-24.info/otzyv-o-chernom-privorote-na-muzhchinu/
http://inmyway.org/news/otzyvy-o-privorotakh-realnyy-lyudey-kto-delal-ritual-na-sayte-magpomoshru-magpa666bkru
मैंने उन्हें ऊपर की साइटों पर समीक्षाओं में पाया!
और याद रखें, केवल अच्छे उद्देश्यों के लिए जादू का उपयोग करें)
गुड लक!

user image Robertamony RobertamonyPT - Tuesday at 12:18 AM -

क्या आप प्रेम मंत्र और जादू में विश्वास करते हैं?

नमस्कार!
मैं जादू, प्रेम मंत्र या साजिशों के बारे में संदेह करता था, इससे हंसी और विडंबना होती थी ।
लेकिन एक बार एक दोस्त ने मुझे दिखाया कि प्रेम मंत्र और जादू उसके जीवन को कैसे प्रभावित करते हैं, और यह मेरे लिए ... दिलचस्प हो गया ।
विभिन्न पुस्तकों और सामग्रियों का अध्ययन करते हुए, मुझे एहसास हुआ कि जादू वास्तव में काम करता है और इसके बारे में जो पूछा जाता है वह लाता है ।
बस एक जीवन की स्थिति उत्पन्न हुई, और मैंने अच्छे जादूगरों की तलाश शुरू कर दी, अपील के बाद सब कुछ निकला, मैं आपको जादू के इन स्वामी की सिफारिश करना चाहता हूं:
https://tvoi54.ru/articles/15-12-2022/6631-otzyvy-o-privorotah-realnyi-lyudei-kto-delal-ritual-na-saite-magpomosh-ru.html
https://abc-24.info/otzyv-o-chernom-privorote-na-muzhchinu/
http://inmyway.org/news/otzyvy-o-privorotakh-realnyy-lyudey-kto-delal-ritual-na-sayte-magpomoshru-magpa666bkru
मैंने उन्हें ऊपर की साइटों पर समीक्षाओं में पाया!
और याद रखें, केवल अच्छे उद्देश्यों के लिए जादू का उपयोग करें)
गुड लक!

user image Tonyanurge TonyanurgePM - Sunday at 12:30 AM -

कौन सी साइटें सेक्स को कला के रूप में प्रस्तुत करती हैं?

सभी को नमस्कार!

मैं सोच रहा था कि आप सही सलाह और व्यावहारिक पक्ष के विवरण के साथ सेक्स और कामुकता के बारे में अच्छे लेख कहां पा सकते हैं ।
बहुत सारी साइटों की समीक्षा करने के बाद, मैंने व्यक्तिगत रूप से ... एक विकल्प बनाया https://www.erotical.ru
कोई विज्ञापन नहीं है और कुछ अश्लील और गंदा है, बस पाठ और सबसे महत्वपूर्ण जानकारी है!
शर्मीली मत बनो, सेक्स और कामुकता लोगों और जोड़ों के जीवन में महत्वपूर्ण प्रेरक हैं)
मुझे खुशी होगी अगर यह जानकारी आपके लिए उपयोगी है!

मैं आपको अच्छे पढ़ने और विकास की कामना करता हूं!

user image Tonyanurge TonyanurgePM - Saturday at 2:57 PM -

कौन सी साइटें सेक्स को कला के रूप में प्रस्तुत करती हैं?

सभी को नमस्कार!

मैं सोच रहा था कि आप सही सलाह और व्यावहारिक पक्ष के विवरण के साथ सेक्स और कामुकता के बारे में अच्छे लेख कहां पा सकते हैं ।
बहुत सारी साइटों की समीक्षा करने के बाद, मैंने व्यक्तिगत रूप से ... एक विकल्प बनाया https://www.erotical.ru
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शर्मीली मत बनो, सेक्स और कामुकता लोगों और जोड़ों के जीवन में महत्वपूर्ण प्रेरक हैं)
मुझे खुशी होगी अगर यह जानकारी आपके लिए उपयोगी है!

मैं आपको अच्छे पढ़ने और विकास की कामना करता हूं!

user image IraEnviz IraEnvizZO - 31 Dec 2022 at 6:58 AM -

कामुकता और सेक्स के बारे में लेख पढ़ना बेहतर कहां है?

सभी को नमस्कार!

क्या आपने कभी सेक्स और कामुकता पर साहित्य का अध्ययन किया है?
सेक्स और कामुकता जीवन के महत्वपूर्ण पहलू हैं, और यह सही दृष्टिकोण है जो सुनिश्चित करता है
अपने साथी और सामान्य रूप से सद्भाव और ऊर्जा दोनों । ...
मैं लंबे समय से अश्लील चित्रों और विज्ञापन के बिना अच्छी परियोजनाओं की तलाश में हूं,
और मुझे यह साइट मिली - https://www.erotichouse.ru
यह दिलचस्प है, लेकिन कई चीजों का अध्ययन करने के बाद, मेरी सेक्स लाइफ तुरंत बेहतर हो गई,
यह पता चला कि सब कुछ उतना मुश्किल नहीं था जितना कि वे सेक्सोलॉजिस्ट के लेखों में डराते थे ।
मुझे खुशी होगी अगर यह जानकारी आपके लिए उपयोगी है!

गुड लक)

user image Aneeeh Swaroop - 26 Jul 2021 at 7:28 PM -

फर्जीवाड़ा का नया तरीका

जिन लोगों के पास एयरटेल का सिम कार्ड है, उनके मोबाइल नंबर पर 9114204378 से एक मैसेज आता है. इसमें लिखा होता है कि डियर एयरटेल यूजर, आज आपका सिम बंद हो जाएगा. कृपया अपना सिम कार्ड अपडेट करें. इसके लिए फौरन हमें 8582845285 नंबर ... पर फोन करें.

एयरटेल ग्राहक ये मोबाइल नंबर पहचान लें, भूल कर भी न करें फोन, मिनटों में खाली हो जाएगा खाता
मोबाइल पर ऐसा मैसेज आए तो हो जाएं सावधान

आजकल फर्जीवाड़े की कई नई तरकीब सामने आ रही है. इसका सबसे बड़ा असर मोबाइल फोन और उसमें डाउनलोड ऐप पर देखा जा रहा है. इन ऐप से कई तरह की ठगी होती है. बैंकिंग ऐप मोबाइल में है तो उस पर भी ठगी गिरोह अपना हाथ साफ कर रहे हैं. हालांकि यह तभी होगा जब आप किसी अनजान फोन कॉल पर अपनी बैंकिंग की जानकारी देंगे. किसी संदिग्ध लिंक पर क्लिक करेंगे या किसी अनजान व्यक्ति को अपना मोबाइल या लैपटॉप टीम व्यूअर पर देंगे. कुछ इसी तरह का मैसेज आजकल एयरटेल के ग्राहकों को आ रहे हैं.

जिन लोगों के पास एयरटेल का सिम कार्ड है, उनके मोबाइल नंबर पर 9114204378 से एक मैसेज आता है. इसमें लिखा होता है कि डियर एयरटेल यूजर, आज आपका सिम बंद हो जाएगा. कृपया अपना सिम कार्ड अपडेट करें. इसके लिए फौरन हमें 8582845285 नंबर पर फोन करें. आपका सिम कुछ देर बाद ब्लॉक कर दिया जाएगा.


फर्जीवाड़ा का नया तरीका
मोबाइल आजकल हमारे लिए हाथ-पैर सबकुछ है. इसके बिना कई काम रुक सकते हैं. यहां तक कि बैंक से जुड़े काम भी अब मोबाइल पर होने लगे हैं. ऐसे में किसी ग्राहक को ऐसा डरावना मैसेज आए तो वह क्या करेगा? जाहिर सी बात है कि मैसेज में बताए गए नंबर पर फोन करेगा. यही फोन कॉल पहला प्रयास होता है जब आप किसी फर्जीवाड़ा गिरोह की साजिश में फंसते हैं. इसके बाद फ्रॉड करने वाले लोग आपको तरह-तरह के प्रलोभन या डर-भय दिखाकर अपना काम बनाते हैं. अंत में नतीजा यह होता है कि आपके मोबाइल पर मैसेज आता है कि बैंक खाते से इतने रुपये डेबिट हो गए. आपको पता भी नहीं चलता और आपकी गाढ़ी कमाई किसी और की जेब में चली जाती है.



क्विक सपोर्ट डाउनलोड
इस तरह के फोन और मैसेज कई लोगों को आ रहे हैं. टि्वटर पर एक ग्राहक ने अपने साथ हुई वारदात का जिक्र किया है. निखिल मेहरा नाम के यूजर बताते हैं, मुझे भी इस तरह का मैसेज मिला है. अगर किसी को ऐसा मैसेज आता है तो उसे नजरंदाज किया जाना चाहिए. मुझे भी मैसेज आया जिसमें टीम व्यूअर का क्विक सपोर्ट डाउनलोड करने के लिए कहा गया. मैसेज में लिखा था कि इसे प्ले स्टोर से डाउनलोड कर लें और उसका पिन बता दें. अगर मैं ऐसा करता तो उस ऐप से मेरे फोन का कंट्रोल उनके पास चला जाता. मैंने ऐसा नहीं किया क्योंकि यह एक तरह का स्कैम है.

पिन-सीवीवी से धोखाधड़ी
ऐसा फर्जीवाड़ा थोड़ा हाईटेक है जिसमें पढ़े-लिखे लोगों को शिकार बनाया जाता है. गांवों में अब भी उसी तरह से ठगी हो रही है जैसे पहले होती थी. फ्रॉड करने वाले लोग मोबाइल पर फोन करते हैं. बोलते हैं कि आपका बैंक अकाउंट बंद होने वाला है क्योंकि आपने केवाईसी नहीं कराया है. अगर बैंक खाता चालू रखना चाहते हैं तो मैसेज में भेजे गए लिंक पर क्लिक करें. बात-बात में फोन करने वाला व्यक्ति आपसे एटीएम का पिन या सीवीवी भी पूछ सकता है. इसके बाद जो होगा, उसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते. एटीएम कार्ड आपके पास ही रहेगा और खाते से पैसा निकल जाएगा. इसलिए किसी भी संदिग्ध लिंक पर केवाईसी के बाबत भूल कर भी क्लिक न करें. बैंक इस तरह की जानकारी कभी नहीं मांगता. अब तो मोबाइल नंबर भी नहीं बताना चाहिए. फर्जीवाड़ा करने वाले आपसे पूछ सकते हैं कि बैंक में कौन सा मोबाइल नंबर रजिस्टर है.



फिंगरप्रिंट की क्लोनिंग
बात यही तक सीमित नहीं है. क्यूआर कोड को कभी सबसे सुरक्षित जरिया माना जाता था. अब उसमें भी फ्रॉड की शिकायतें आ रही हैं. जब तक सोर्स का पता न चल जाए, तब तक पैसे देने के लिए किसी भी क्यूआर कोड को स्कैन न करें. फ्रॉड करने वाले लोग एक कदम और आगे बढ़कर बायोमीट्रिक डेटा के साथ धोखाधड़ी कर रहे हैं. बायोमीट्रिक डेटा में आपकी अंगुलियों के निशान या आईरिस की स्कैनिंग आती है. इन माध्यमों से कोई भी सेवा लेने से पहले एक बार जरूर सोच लें कि सोर्स भरोसेमंद है या नहीं. फिंगरप्रिंट की क्लोनिंग की शिकायतें मिल रही हैं. इससे बड़े पैमाने पर धांधली हो सकती है.

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 25 Jul 2021 at 5:21 PM -

नेवला mongoose



https://youtu.be/Oxqx38WHDdw




आज हम बात कर रहे है नेवलों की जिनका वैज्ञानिक नाम herpestidae है निवास-यह भारत के अधिकतर जंगलो अफ्रीका जैसे जंगलो में तक निवास करते है रंग-भूरा उम्र 5 वर्ष तक आहार श्रंखला सर्प,कीड़े,बिछु,ओर पंछियो के अंडे तक खा लेते है इनकी रप्तार 32 किलोमीटर ... प्रतिघण्टा होती है इनकी कई प्रजातियां है यह 20 सेंटीमीटर से 50 सेंटीमीटर तक भी पाए जाते जिनका भार ग्राम से लेकर किलो तक भी होता है यह परिवार में रहना पसन्द करते है जिस्से इन्हे सुरक्षा बहोत मिल पाती है मादा एक बार मे 4 बच्चों को जन्म देती है लोगो मे भ्रंम होता है नेवले सर्प को काट कर पुनः जोड़ देते है यह गलत धारणा है और यह जीव आप के गार्डन के आस पास दिखता रहे तो यह आप के लिए वरदान से कम नही जहाँ यह रहता है वह सर्प,बिच्छू नही होते व शिकारी लोग इनका शिकार कर इनके बालो से पेंटिंग ब्रश का निर्माण करने लगे है यह जीव अपने आप मे एक अलग ही अपनी जगह बनाए हुए है आप को ऐसे लोगो कहीं दिखे तो आप अपने नजदीकी फारेस्ट या पुलिस डिपॉर्टमेंट में शिकायत कीजिए और यह जीव बहोत सीधे साधे होते है यह कोइ नुकसान नही पहुचाता

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 22 Jul 2021 at 9:34 PM -

कानपुर के कुछ मशहूर व्यक्ति-

नाना साहब पेशवा
गणेशशंकर विद्यार्थी
चंद्रशेखर आज़ाद
प्रतापनारायण मिश्र
बालकृष्ण शर्मा नवीन
गोपाल दास नीरज
शिव वर्मा
बटुकेश्वर दत्त
राजू श्रीवास्तव
अनिल धवन
अभिजीत भट्टाचार्य
कुलदीप यादव
रामनाथ कोविन्द
आदि

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 08 Jun 2021 at 3:46 PM -

prd bahraich के महत्वपूर्ण फोन नम्बर-

जिला कमांडेंट बहराइच- 9997 101113
कुमैल बाबू- 86012 79830
शिखर- 9792 781526
शौकत अली- 831880 8817
लालजी मौर्य- 933 578 2512
हरि प्रकाश पांडेय- 9792 484546
राम गोपाल शुक्ल- 97920 74771
जगराम वर्मा- 63933 00891
अरविंद गुप्ता- 74080 61897
जवाहर लाल शर्मा- 87954 91652
नवल किशोर दीक्षित- 6388 569 388
देव नारायण ... पांडेय- 94521 81514
राम नंदन शर्मा- 88744 04515
राकेश वर्मा- 76072 62660
राजेन्द्र सिंह- 99196 25676
राज कुमार यादव- 99195 15740
सूर्य मणि वर्मा- 99564 23774

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 03 May 2021 at 8:13 AM -

जनता के कोरोना संबंधी सवालों के जवाब

अगर मास्क कारगर हैं तो 6 फिट की दूरी क्यों ?
क्योंकि कुछ लोग मास्क ठीक से नहीं लगाते।

अगर 6 फिट की दूरी कारगर हैं तो मास्क क्यों ? क्योंकि लोग अक्सर एक दूसरे के बहुत करीब पहुंच जाते हैं। और कभी कभी तो ... 6 फुट दूर रहना संभव ही नहीं।

अगर यह दोनो कारगर हैं तो लाॅक डाउन क्यों ? क्योंकि न तो सभी लोग ठीक से मास्क लगा रहे हैं न ही 6 फुट की दूरी बना कर रह पा रहे हैं।

अगर यह तीनो कारगर हैं तो वेक्सीन क्यों? क्योंकि न तो सभी लोग ठीक से मास्क लगा रहे हैं, न ही हमेशा 6 फुट दूरी मेंटेन कर पा रहे हैं न ही लॉक डाउन का ठीक से पालन ही कर पा रहे हैं।

अगर वेक्सीन कारगर हैं तो फिर मौतें क्यों ? वैक्सीनेशन के बाद भी कोविड पाँजिटिव क्यों ? क्योंकि अभी भी सिर्फ दो प्रतिशत लोगों को ही वैक्सीन लग पाई है और वैक्सीन लगने के बावजूद कुछ लोगों में इम्युनिटी विकसित नहीं हो पा रही है।

वैक्सीनेशन के बाद मौत होने पर जिम्मेदारी किसकी ? किसी की नहीं। एक तो मुफ्त में वैक्सीन लगाओ ऊपर से जिम्मेदारी भी लो। क्या दूसरे कारणों से कभी कोई मरता ही नहीं है।

अगर इसके बाद भी मान लिया जाए कि वैक्सीन सच में कारगर हैं तो फिर लाक डाउन, नाइट कफ्यू क्यों ? क्योंकि वैक्सीन सिर्फ इम्युनिटी बढ़ाती है कोरोना संक्रमण को नहीं रोक सकती।

अगर 6 फिट की दूरी इतना ही जरूरी तो लाखो की राजनीतिक रैली क्यों ,

अगर वास्तव में ही कोरोना हैं तो जांचें नियमित क्यों नहीं? जांचें तो हो रही हैं। कराने वाले करा भी रहे हैं।

मौसम बदलते ही हमेशा हर आदमी को जुकाम बुखार होना आम बात हैं तो जांचें उसी वक्त क्यों ? जांच तो उसी वक्त की जाएगी। पहले से जांच कर लेने से ऐसा तो है नहीं कि जांच हो गयी है तो बाद में कोरोना नहीं हो सकता।

ट्रक ड्राइवर पूरे भारत में घूमते हुए हर होटल का खाना खाते हैं तो भी पोजिटिव क्यों नहीं ? हो तो रहे हैं और मर भी रहे हैं। वो परिश्रमी होते हैं उनके फेफड़े बहुत दमदार होते हैं इसलिए वो कोरोना संक्रमण को आसानी से झेल लेते हैं।

गरीब आदमी को कोरोना क्यों नहीं ? क्योंकि गरीब आदमी के फेफड़े दमदार हैं। वो आसानी से इसे झेल लेते हैं। फिर भी गरीबों को भी कोरोना होने की घटनाएं हो रही हैं।

जब वेक्सिनेशन इसका उपाय हैं तो सबसे पहले स्कूलों के बच्चों को क्यों नहीं? ऐसा ना करके उनकी पढ़ाई बर्बाद क्यों ? क्योंकि जब से वैक्सीन बनी है तब से लग ही रही है। पहले 45 वर्ष तक के लोगों को लगाई गई क्योंकि उनको सबसे ज्यादा खतरा है। अब 18 वर्ष से ऊपर के सभी लोगों को लगाई जा रही है क्योंकि वो काम के लिए घर से बाहर निकलने के मजबूर होते हैं। बाद में बच्चों को भी टीके लगाए जाएंगे।

मैंने रैली वाले प्रश्न को छोड़कर सभी सवालों का जवाब दे दिया है। रैली वाले प्रश्न का जवाब पोलिटिकल लोगों को देना होगा।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 22 Mar 2021 at 7:00 AM -

टिप्स

1
कुछ हंस कर बोल दिया करें।
कुछ हंस कर टाल दिया करें।
परेशानियां तो अनंत हैं
कुछ को वक्त के निर्णय डाल दिया करे।

2
जिंदगी नामक tv में मनचाहा प्रोग्राम नहीं चलता। बल्कि यह पुराने जमाने की एक ही चैनल वाली tv है। इसमें जो आये उसी से ... मनोरंजन करना होता है।

3
जीने के लिए बार बार जहर के घूंट पीने पड़ते हैं।
मरने के लिए बस एक ही बून्द काफी है।

4
भगवान देख रहा है। अगर ऐसा मानते हो तो डरो नहीं भरोसा रखो।

5
हर ईंट सोचती है कि बिल्डिंग तो मुझपर ही टिकी हुई है।


user image Arvind Swaroop Kushwaha - 17 Mar 2021 at 7:22 PM -

स्तूपों की परंपरा

इतिहास - लेखन में इतिहासकार कुछ जोड़ते हैं, कुछ छोड़ते हैं और कुछ का चयन करते हैं। यह छोड़ना, जोड़ना और चयन ही इतिहास का स्वरूप तय करता है। फिर तो तय है कि ऐसा इतिहास - लेखन पूरी मानव - जाति का ... इतिहास नहीं हो सकता है।

वास्तविकता का इतिहास और इतिहासकारों के उपलब्ध इतिहास में फर्क होता है। जैसा कि कहा गया है कि इतिहास - लेखन में इतिहासकार कुछ छोड़ते हैं, कुछ जोड़ते हैं और कुछ का चयन करते हैं और फिर इसे ही किसी देश के इतिहास की संज्ञा प्रदान कर दिया करते हैं। ऐसा इतिहास वस्तुतः राजनीतिक शक्ति मात्र का इतिहास होता है जो भारी पैमाने पर हुई हत्याओं तथा अपराधों के इतिहास से भिन्न नहीं है।

चिनुआ अचैबी ने लिखा है कि जब तक हिरन अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, तब तक हिरनों के इतिहास में शिकारियों की शौर्य - गाथाएँ गाई जाती रहेंगी।

इसीलिए भारत के इतिहास में वैदिक संस्कृति उभरी हुई है, बौद्ध सभ्यता पिचकी हुई है और मूल निवासियों का इतिहास बीच - बीच में उखड़ा हुआ है।

इतिहास सिर्फ वो नहीं है, जिसे शासकों ने लिखवाया है और जो लिखा गया है बल्कि इतिहास वो भी है, जिसे हमारे पुरखों ने सहा है, लेकिन लिखा नहीं गया है।

छद्म इतिहास क्या है?

इतिहास - लेखन में वह दावा जो इतिहास की तरह प्रस्तुत किया जाता है, पर वह इतिहास नहीं होता है बल्कि इतिहास जैसा होता है, वह छद्म इतिहास है।

छद्म इतिहास और वास्तविक इतिहास की पहचान करना ही सही इतिहास - दृष्टि है।

2.

यह विचित्र इतिहास - बोध है कि सिंधु घाटी की सभ्यता के बाद वैदिक युग आया। सिंधु घाटी की सभ्यता नगरीय थी, जबकि वैदिक संस्कृति ग्रामीण थी। उल्टा है।

भला कोई सभ्यता नगरीय जीवन से ग्रामीण जीवन की ओर चलती है क्या?

सिंधु घाटी में बड़े - बड़े नगर थे, स्नागार थे, चौड़ी - चौड़ी सड़कें थीं। बेहद उम्दा किस्म की सभ्यता थी। वहीं वैदिक युग में पशुचारक थे, कच्ची मिट्टी के घर थे, नरकूलों की झोंपड़ियाँ थीं। तुर्रा यह कि ये नरकूलों की झोंपड़ियाँ उसी पश्चिमोत्तर भारत में उगीं, जहाँ बड़े -बड़े सिंधु साम्राज्य के भवन थे।

आपको ऐसा इतिहास - बोध उलटा नहीं लगता है?

आप पढ़ाते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता में लेखन - कला विकसित थी और फिर उसके बाद की वैदिक संस्कृति में पढ़ाने लगते हैं कि वैदिक युग में लेखन - कला का विकास नहीं हुआ था। वैदिक युग में लोग मौखिक याद करते थे और लिखते नहीं थे।

ऐसा भी होता है क्या? पढ़ी - लिखी सभ्यता अचानक अनपढ़ हो जाती है क्या?

आप यह भी पढ़ाते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता में मूर्ति - कला थी। फिर उसके बाद पढ़ाते हैं कि वैदिक युग में मूर्ति - कला नहीं थी।

क्या यह सब उलटा नहीं है?

भारत में स्तूप - स्थापत्य, लेखन - कला, मूर्ति - कला, बर्तन - कला आदि का विकास निरंतर हुआ है। कोई गैप नहीं है। यदि इतिहास में ऐसा गैप आपको दिखाई पड़ रहा है तो वह वैदिक संस्कृति को भारतीय इतिहास में ऐडजस्ट करने के कारण दिखाई पड़ रहा है।

यह कैसा इतिहास - लेखन है कि जिन वेदों के खुद का ही ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त नहीं हैं, उन्हें ही ऐतिहासिक साक्ष्य मान लिया गया है।

ऋग्वैदिक युग, फिर उत्तर वैदिक युग, फिर सूत्रों का युग, फिर महाकाव्यों का युग, फिर धर्मशास्त्रों का युग - ये भारत का भौतिक इतिहास नहीं है।

ये तो संस्कृत साहित्य का इतिहास है। किसी भी देश का भौतिक इतिहास ऐसे नहीं लिखा जाता है, लिखा भी नहीं गया है। साहित्य का इतिहास ऐसे लिखा जाता है।

वैदिक युग सही मायने में इतिहास का टर्मिनोलाॅजी है ही नहीं ! कहीं पढ़े हैं बाइबिल युग, कुरान युग?

वैदिक युग, महाकाव्य युग और सूत्र युग मूलतः इतिहास का नहीं बल्कि संस्कृत साहित्य के चैप्टर्स हैं वरना दुनिया के इतिहास में किसी देश का ऐतिहासिक चैप्टर्स के नाम बाइबिल युग, कुरान युग और हदीस युग नहीं हैं।

वैदिक भाषा पुरानी है और वैदिक संस्कृति भी पुरानी है, तब इस तथ्य की भी पड़ताल की जानी चाहिए कि वैदिक युग के तथाकथित सोने के सिक्के " निष्क " और चाँदी के सिक्के " रजत " कहाँ गए, जबकि धातु के सिक्के सबसे पहले गौतम बुद्ध के युग में मिलते हैं, जिसे " आहत मुद्रा " कहा जाता है।

3.

आज का अध्ययन जबकि पुरावशेषों में फ्लोरीन की मात्रा के मापन, काठ कोयले और हड्डी में रेडियोधर्मिता की मात्रा, भूचुंबकीय अवलोकन और वृक्ष - तैथिकी पर आधारित है, तब सत्ययुग या द्वापर जैसे भोथरे काल मापक से किसी नायक या वस्तु की उम्र तय करना निरर्थक है।

मिसाल के तौर पर, वेदों की रचना सृष्टि के आरंभ में हुई है। केतु वृक्ष 1100 योजन ऊँचे हैं। देवताओं का एक वर्ष मनुष्यों के 131521 दिनों का होता है।

ऐसे मामलों में भारत का भौतिक इतिहास ताम्र, कांस्य, लौह जैसी धातुओं और धूसर, काले, गेरुए जैसे मृद्भांडों की राह पकड़ेगा। मगर सावधानी की जरूरत यहाँ भी है।

आपने एक बार झूठ बोल दिया है कि हड़प्पा सभ्यता के बाद उत्तरी भारत में वैदिक युग आया है। अब इसे साबित करने के लिए आप दूसरा झूठ बोल रहे हैं कि उत्तरी भारत में ताम्र युग के बाद सीधे लौह युग आ गया।

आपने कांस्य युग की सभ्यता को वैदिक युग की झूठी तोप से उड़ा दिया।

पश्चिमोत्तर भारत में ताम्र युग के बाद कांस्य युग आया था। सिंधु घाटी की सभ्यता कांस्य युग का प्रतीक है। मगर पूर्वी भारत में इतिहासकारों ने ताम्र युग के बाद सीधे लौह युग ला दिया और वे कांस्य युग को खा गए।

जब लोहे की खोज नहीं हुई थी, तब लोग ताँबे को ही लोहा कहा करते थे।

ताँबे को लोहा इसलिए कहते थे कि ताँबे का रंग लोहित होता है।

लोहित का अर्थ है - लाल रंग का। लाल रंग का कौन होता है - ताँबा या लोहा ?

जाहिर है कि लाल रंग का ताँबा होता है। इसलिए लोग ताँबे को लोहा कहते थे।

लोहा से ही लहू शब्द बना है। लहू का अर्थ है - खून। खून के रंग का कौन होता है - ताँबा या लोहा?

पालि में ताँबे को लोह (लोहा ) भी कहा गया है। अर्थात पालि तब की है, जब लोहे की खोज नहीं हुई थी। तब सरसरी नजर से ही पालि का इतिहास उत्तरी भारत में ईसा से हजार साल पहले छलाँग मार देता है।

4.

स्तूपों का इतिहास, लेखन -कला का इतिहास, मूर्ति-कला का इतिहास सभी कुछ सिंधु घाटी सभ्यता से निरंतर मौर्य काल और आगे तक जाता है।

बशर्ते कि आप मान लीजिए कि सिंधु साम्राज्य से लेकर मौर्य साम्राज्य और आगे तक टूटती - जुड़ती बौद्ध सभ्यता की कड़ियाँ थीं।

भारत में मौजूद सभी स्तूपों को मौर्य काल के बाद का बताया जाना गलत है। अनेक स्तूप सिंधु घाटी सभ्यता के काल के हैं, कुछ सिंधु घाटी सभ्यता के बाद के हैं, कुछ मौर्य काल के हैं, कुछ मौर्य काल के बाद के भी हैं।

कहीं मिट्टी का स्तूप है, कहीं पत्थर का स्तूप है, कहीं ईंट का स्तूप है तो कहीं संगमरमर का स्तूप है। मनौती स्तूप ... छोटा स्तूप ... मझोला स्तूप ... बड़ा स्तूप ... गोल स्तूप ... चौकोर स्तूप ... अति प्राचीन स्तूप ... प्राचीन स्तूप ...वेदी का स्तूप ...बिना वेदी का स्तूप ... सीढ़ीदार स्तूप ... बिना सीढ़ी का स्तूप !

सभी अलग - अलग प्रकार के सैकड़ों स्तूपों को इतिहासकारों ने मौर्य काल से लेकर कुषाण काल के चंद पन्नों में समेट लिया है।

जबकि इतिहास गवाह है कि सिंधु घाटी सभ्यता में भी स्तूप था और पूर्व मौर्य काल में भी स्तूप था। पिपरहवा का स्तूप मौर्य काल से पहले का है। खुद मौर्य काल में नए स्तूप बने और कई पूर्व मौर्य काल के स्तूपों की मरम्मत हुई, जिसमें निग्लीवा सागर का स्तूप शामिल है।

अभिलेखीय साक्ष्य पुख्ता सबूत देता है कि सम्राट अशोक से पहले भी स्तूपों की परंपरा थी।

आप सम्राट अशोक के निग्लीवा अभिलेख को पढ़ लीजिए, जिसमें लिखा है कि अपने अभिषेक के 14 वें वर्ष में उन्होंने निगाली गाँव में जाकर कोनागमन (कनकमुनि ) बुद्ध के स्तूप के आकार को वर्धित करवाया था। ( चित्र - 1 )

कनकमुनि ( कोनागमन ) बुद्ध का स्तूप सम्राट अशोक के काल से पहले बना था, जिसका संवर्धन उन्होंने कराया था। गौतम बुद्ध से कनकमुनि बुद्ध अलग थे और पहले थे।

भारत और भारत के बाहर जो बड़े पैमाने पर स्तूप मिलते हैं, वे सभी मौर्य काल के बाद के नहीं हैं बल्कि अनेक सिंधु घाटी और मौर्य काल के बीच के भी हैं। मगर इतिहासकार गौतम बुद्ध से पहले स्तूप होने की बात सोचते ही नहीं हैं।

परिणामतः वे मौर्य काल से पहले के बने सभी स्तूपों को भी खींचकर मौर्य काल तथा उसके बाद लाते हैं। यदि वे ऐसा नहीं करते तो सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर मौर्य काल तक कहीं भी स्तूपों की श्रृंखला नहीं टूटेगी।

बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बाँटा गया तथा उन पर स्तूपों का निर्माण किया गया। जाहिर है कि स्तूपों की निर्माण - कला बुद्ध से पहले भी मौजूद थी।

बुद्ध ने खुद महापुरुषों की शरीर धातु पर स्तूप बनाने को कहा था। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य आनंद को चौराहे पर स्तूप निर्मित करने की बात कही थी।

कोई भी शिल्प - कला रातों -रात पैदा नहीं होती है। स्तूप - कला का भी बाकायदे विकास हुआ है। कई पीढ़ियों ने, कई गणों ने इसके विकास में अपना - अपना योगदान किया है।

5.

दुनिया की टाॅप अकादमिक पत्रिकाओं में " साइंस " शुमार है। इसे अमेरीकन एसोसिएशन फाॅर दि एडवांस आॅफ साइंस प्रकाशित करता है।

" साइंस " के अंक 320 में यूनिवर्सिटी ऑफ नेपल्स, इटली के भारत और सेंट्रल एशिया की सभ्यताओं के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर जिओवान्नि वेरार्डी का मुअनजोदड़ो के स्तूप पर एक लेख छपा है। ( चित्र - 2 )

पुरातत्ववेत्ता वेरार्डी ने गहन जाँच के बाद बताए हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता का स्तूप कोई 2100 ई. पू. का है। स्तूप के नाम को लेकर विवाद हो सकता है। मगर वह इमारत सिंधु घाटी सभ्यता के समकालीन है। यह स्तूप भिक्षुओं के आवास से घिरा है।

आर डब्ल्यू टी एच आकिन विश्वविद्यालय, जर्मनी के पुरातत्ववेत्ता माइकल जेंसन ने वेरार्डी की रिसर्च पर मुहर लगाते हुए लिखा है कि मुअनजोदड़ो का स्तूप सिंधु घाटी सभ्यता के काल का है।

पुरातत्ववेत्ता द्वय ने कहा है कि सिंधु घाटी सभ्यता पर पुनर्विचार करने की जरूरत है क्योंकि यह स्तूप कुषाण काल का नहीं है।

इसीलिए मैं भी कहता हूँ कि सिंधु घाटी की सभ्यता मूलतः बौद्ध सभ्यता है।

जैसा कि भारत और सेंट्रल एशिया की सभ्यताओं के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर जिओवान्नि वेरार्डी ने जाँचोपरांत बताया है कि मुअनजोदड़ो का स्तूप सिंधु घाटी की सभ्यता के समय का है। यह कुषाण कालीन नहीं है।

अब तक इतिहासकार इसे कुषाण कालीन मानते रहे हैं। कारण कि स्तूप के पूरबी बौद्ध मठ से कुषाण कालीन सिक्के मिले हैं।

प्रोफेसर जिओवान्नि वेरार्डी ने कहा है कि स्तूप के काल - निर्धारण में इन सिक्कों की कोई खास भूमिका नहीं है। स्तूप का अस्तित्व सिक्कों से अलग है।

स्तूप की निर्माण-सामग्री, अभिकल्पन, ईंटें, प्लेटफार्म - सब कुछ सिंधु घाटी सभ्यता के समकालीन हैं। ( चित्र - 3 )

चूँकि कुषाण काल बौद्धों के लिए सुनहरा काल था। बौद्धों को पता रहा होगा कि मुअनजोदड़ो का स्तूप किसी पूर्व बुद्ध का है।

शायद यहीं कारण था कि उनकी आवाजाही उस स्तूप तक थी और ऐसे में वहाँ कुषाण कालीन सिक्कों का मिलना असंभव नहीं है।

मोहनजोदड़ो की खुदाई में विशाल स्नानागार मिला है। स्नानागार के आँगन में जलाशय है। जलाशय के तीन ओर बरामदे और उनके पीछे कई कमरे थे।

इतिहासकार मैके ने बताया है कि कमरे वाला स्नानागार पुरोहितों के लिए था, जबकि विशाल स्नानागार सामान्य जनता के लिए था तथा इसका उपयोग धार्मिक समारोहों के अवसर पर किया जाता था।

डी. डी. कोसंबी ने लिखा है कि पूरे ऐतिहासिक युग में ऐसे कृत्रिम ताल बनाए गए हैं : पहले स्वतंत्र रूप में, बाद में मंदिरों के समीप।

सवाल उठता है कि सिंधु घाटी के लोग विशेष धार्मिक अवसरों पर विशाल स्नानागार में पुरोहितों के संग स्नान तथा शुद्धिकरण करके कहाँ जाते थे? मंदिर तो था नहीं। वहीं स्तूप में! स्नानागार के बगल के स्तूप में !!

उत्तरी बिहार के वैशाली में पुरातत्वविदों ने आनंद स्तूप के बगल में ठीक ऐसा ही विशाल स्नानागार खोज निकाला है, जैसा कि मोहनजोदड़ो में है।

1826 में मैसन ने पहली बार हड़प्पा में स्तूप ही देखा था, बर्नेस ( 1831 ) और कनिंघम ( 1853 ) ने भी स्तूप ही देखा था। सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई बाद में हुई।

राखालदास बंदोपाध्याय ने भी 1922 में मोहनजोदड़ो के बौद्ध स्तूप की खुदाई में ही सिंधु घाटी की सभ्यता की खोज की थी।

इसलिए; सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई में स्तूप नहीं मिला है बल्कि स्तूप की खुदाई में सिंधु घाटी की सभ्यता मिली है।

मगर इतिहासकारों को सिंधु घाटी की सभ्यता के इतिहास को ऐसे लिखने में जाने क्या परेशानी है, जबकि सच यही है।

मोहनजोदड़ो की खुदाई में सिर्फ स्तूप ही नहीं, बौद्ध विहार भी मिला था, जिसका विवरण स्वामी शंकरानंद ने " हिस्ट्री आफ मोहनजोदड़ो एण्ड हड़प्पा " में प्रस्तुत किया है। लिखा है कि राखालदास बंदोपाध्याय को 1922 - 23 के शरद मौसम में खुदाई करते एक बौद्ध विहार मिला। विहार का मुख पूरब की तरफ था। पूरबी भाग में दो बड़े सामान्य कक्ष, एक प्रवेश द्वार, गुफानुमा सुरंग, मूर्ति कक्ष एवं सीढ़ियाँ हैं। कुछ छोटे कक्षों का उपयोग भिक्खुओं के अवशेष रखने के लिए किया जाता है। कमरा सं. 22, 27 एवं 29 ऐसे ही कमरे हैं।
( संदर्भ: बौद्ध धर्म: हड़प्पा मोहनजोदड़ो नगरों का धर्म, पृ. 144 )

गुजरात स्थित धोलावीरा सिंधु घाटी सभ्यता का एक महत्वपूर्ण नगर है। यहाँ स्तूप मिले हैं। उनमें से एक पंजाब स्थित संघोल के धम्म चक्र स्तूप से मेल खाता है। ऐसे स्तूपों में आरे ( वृत में तिल्ली ) बने होते हैं। ( चित्र- 4 )

स्तूप का नाम सुनते ही दिमाग में एक अर्द्ध गोलाकार संरचना की तस्वीर उभरती है।

मगर हर जगह का स्तूप अर्द्ध गोलाकार नहीं है।स्तूप धम्म चक्क के आकार के भी हैं, जिनमें आठ आरे बने हुए हैं। धम्म चक्क में भी 8 आरे हैं।

एक दूसरे स्तूप में आरों की संख्या क्रमशः 12, 24 और 32 है। 24 और 32 की संख्या अशोक - चक्र की याद दिलाती है। अशोक - चक्र में भी 32 और 24 आरे हैं।

ऐसे स्तूप पंजाब के जिला फतेहगढ़ साहिब के गाँव संघोल में मिले हैं। कभी संघोल में भिक्षु संघ था। इसीलिए इसका नाम संघोल है। ( चित्र - 5 )

स्तूप की खुदाई 1968 में हुई थी। स्तूप से एक सोप पत्थर की मंजूषा मिली है।

मंजूषा के ढक्कन पर खरोष्ठी लिपि में एक बौद्ध स्काॅलर का नाम लिखा है। वह स्काॅलर भद्रक थे। उन्हीं का अस्थि - भस्म उस मंजूषा में है।

धोलावीरा का स्तूप संघोल के स्तूप से मेल खाता है।

सिंध साम्राज्य के अनेक नगरों में स्तूप मिले हैं। हड़प्पा में स्तूप मिला है, मोहनजोदड़ो में स्तूप मिला है और फिर धोलावीरा में भी स्तूप मिला है।

जाने क्यों, इतिहासकार बताते हैं कि ये स्तूप कुषाण काल के हैं। भाई, कुषाण काल तो बुद्ध की मूर्तियों के लिए जाना जाता है। यदि सिंधु घाटी सभ्यता के ये स्तूप कुषाणों ने बनवाए तो वे सिर्फ स्तूप ही क्यों बनवाते?

वे तो सिंधु घाटी की गली - गली में ... हर चौक - चौराहे पर बुद्ध की मूर्तियाँ बनवाते। वे तो गांधार कला के आविष्कारक थे और बुद्ध की मूर्तियों के लिए तो कुषाण राजे इतिहास में जाने जाते हैं।

यदि सिंध साम्राज्य के ये स्तूप कुषाण काल के हैं तो कुषाणों से करीब डेढ हजार साल पहले तो आपके अनुसार आर्य आए थे, जो सिंध साम्राज्य पर कब्जा किए। फिर वे सिंधु घाटी के डगर - डगर में मंदिर, अवतारों की मूर्तियाँ क्यों नहीं बनवाए?

मान लीजिए कि 1500 ई. पू. में आर्यों का आक्रमण हुआ और हड़प्पा - मुअनजोदड़ो नेस्तनाबूद हो गए। सिंध साम्राज्य जीत लिया गया और आर्य साम्राज्य स्थापित हो गया तो क्या सिंध साम्राज्य के ऊपरी लेयर पर आर्य साम्राज्य के निशान मिलते हैं?

क्या मंदिर मिलते हैं ? ... क्या संस्कृत मिलती है ? ... कोई वैदिक देवी - देवता मिलते हैं? ...क्या इंद्र वंश का शासन आया?... क्या वरूण वंश का राज आया?... नहीं।

6.

इतिहासकार मौर्य साम्राज्य पर शुंगों के कब्जे को ही आर्य आक्रमण बताते हैं और उसे पीछे खींचकर 1500 ई. पू. में ले जाते हैं क्योंकि इसके बाद धीरे- धीरे आर्य- सभ्यता के तमाम निशान मिलने लगते हैं ... संस्कृत ... यज्ञ ... मंदिर आदि- आदि।

वैदिक साहित्य में लिखित " दास " कौन है?

भारत और पश्चिम के अनेक इतिहासकारों ने " दास " की अनेक व्याख्याएँ की हैं। उस भूल - भुलैया में हमें नहीं पड़ना है।

दास मूल रूप से " बौद्ध " थे। साँची और भरहुत के स्तूपों पर अनेक दास तथा दासी उपाधिधारक बौद्धों के शिलालेख हैं, जिन्होंने स्तूप - निर्माण में मदद की थी।

अरहत दास थे ....अरहत दासी थीं ....यमी दास थे.... जख दासी थीं .....अनेक ...सभी के नाम लिखे हुए हैं।

साँची स्तूप पर थूप दास का वर्णन है। लिखा है - मोरगिरिह्मा थूपदासस दान थंभे। ( चित्र - 6 )

थूप दास मोरगिरि ( महाराष्ट्र ) के निवासी थे और भरहुत के एक स्तंभ - निर्माण में मदद की थी।

वैदिक साहित्य में वर्णित आर्यों का सांस्कृतिक संघर्ष इन्हीं बौद्ध दास - दासियों से हुआ था।

वैदिक साहित्य इन दास - दासियों के बारे में बताता है कि ये लोग यज्ञ नहीं करते और न ये इंद्र - वरुण की पूजा करते हैं...स्पष्ट है कि ये बौद्ध हैं।

प्राकृत भाषा में " दास " ( दसन ) का अर्थ द्रष्टा है। मगर आर्यों ने सांस्कृतिक दुश्मनी के कारण अपनी पुस्तकों में " दास " का अर्थ " गुलाम/ नौकर " कर लिए हैं।

दास और आर्यों का यह सांस्कृतिक संघर्ष 1500 ई.पू. में नहीं बल्कि मौर्य काल के बाद हुआ था।

सभी शिलालेख पढ़ जाइए। मौर्य काल तक किसी भी पुरुष और महिला के नाम में " दास / दासी " नहीं जुड़ा है।

दास/ दासी जुड़े नाम शिलालेखों में मौर्य काल के बाद दिखाई पड़ते हैं। साँची - भरहुत के स्तूपों पर पहली बार अनेक नाम दास / दासी से जुड़े दिखाई पड़ते हैं।

दास / दासी से जुड़े ये सभी नाम बौद्धों के हैं।

इन्हीं दास / दासियों से आर्यों का वैचारिक संघर्ष हुआ था, जो वेदों में लिखा हुआ है।

वेदों में लिखे आर्य - दास संघर्ष को हम कतई मौर्य काल से पहले नहीं ले जा सकते हैं। कारण कि मौर्य काल तक हमें दास/ दासी उपाधि धारक कोई नाम मिलता ही नहीं है।

वेद और वेदों में वर्णित यह सांस्कृतिक संघर्ष की गाथा मौर्य काल के बाद की है।

यहीं कारण है कि ऋग्वेद में भी स्तूपों के संदर्भ मिलते हैं और रामायण में चैत्यों के मिलते हैं।

यह तो बहुत बताया जाता है कि ऋग्वेद में गंगा का एक बार और यमुना का तीन बार वर्णन है, मगर यह बहुत कम बताया जाता है कि ऋग्वेद में स्तूप का वर्णन दो बार है।

संस्कृत का स्तूप मूल रूप से पालि थूप का बिगड़ा हुआ रूप है। पालि में थूप से अनेक शब्द बनते हैं जैसे थूप, थूपिका, थूपीकत, थूपारह आदि।

मगर संस्कृत में स्तूप से अनेक शब्द नहीं बनेंगे। कारण कि स्तूप संस्कृत के लिए बाहरी शब्द है। किसी भी भाषा में अमूमन बाहरी शब्द बाँझ होते हैं। उनमें शब्दों को जनने की क्षमता नहीं होती है।

संस्कृत के लिए स्तूप बाँझ शब्द है। इसीलिए संस्कृत का स्तूप पालि थूप का रूपांतरण है और वे भाष्यकार जो ऋग्वेद में प्राप्त स्तूप की व्याख्या किसी अन्य अर्थ में करते हैं, वे गलत हैं।

"स्तूप ....बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः"
अर्थात इसमें बुद्ध अन्तर्निहित हैं।

यह ऋग्वेद के प्रथम मंडल, सूक्त 24, छठवाँ अनुवाक का श्लोक संख्या 7 है। इसमें राजा वरुण को अबौद्ध (अबुध्ने) राजा भी कहा गया है। पूरा का पूरा अर्थ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है।

सायण भाष्य में अर्थ कुछ भिन्न है।

"अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः नीचीना स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः॥७॥" ( चित्र - 7)

अर्थात पवित्र पराक्रम युक्त राजा वरुण (सबको आच्छादित करने वाले) दिव्य तेज पुञ्ज सूर्यदेव को आधाररहित आकाश में धारण करते हैं। इस तेज पुञ्ज सूर्यदेव का मुख नीचे की ओर और मूल ऊपर की ओर है। इससे मध्य में दिव्य किरणें विस्तीर्ण होती चलती हैं।

परन्तु यह अर्थ जो सायण भाष्य पर आधारित है, गलत है। लगभग सभी अनुवादकों ने ऐसा ही अर्थ किया है। अर्थ करते वक्त संदर्भ को देखना जरूरी होता है। जैसा कि उपरोक्त से स्वतः स्पष्ट है कि वरुण राजा की उपाधि अबुध्ने है। मतलब कि वरुण बौद्ध विरोधी राजा थे। आगे स्तूप को उलटने की बात है।

अशोक द्वारा 84000 स्तूप बनाए जाने का जिक्र फाहियान ने अपने यात्रा - विवरण के 27 वें खंड में किए हैं।

साँची एवं भरहुत स्तूपों का निर्माण मूल रूप से अशोक ने ही कराया था। ह्वेनसांग ने अशोक द्वारा निर्मित अनेक स्तूपों का उल्लेख किया है, जिन्हें उसने खुद देखा था।

सारनाथ तथा तक्षशिला स्थित धर्मराजिका स्तूप का निर्माण भी मूलतः अशोक के समय में ही कराया गया था। बाद के शासकों ने उन्हें परिवर्धित करवाए।

मीनाण्डर यवन थे। विदेशी थे। लेकिन धम्म की राह चुनी थी। बुतकारा स्तूप के पहले लेयर को अशोक ने बनवाए थे तो दूसरे को मीनाण्डर ने बनवाए थे। दूसरे लेयर से मीनाण्डर का सिक्का मिला है।

मीनाण्डर बड़े दार्शनिक थे...इंडो -यूनानी इतिहास में दूजा नहीं हुआ।

सो वे बड़े न्यायप्रिय थे। न्यायप्रियता ने इन्हें जनता में बड़ी शोहरत दिलाई थी।

एक दिन एक शिविर में अचानक इनकी मृत्यु हुई।

प्लूटार्क ने लिखा है कि मीनाण्डर के भस्म को लेकर जनता में झगड़े उठ खड़े हुए ....क्योंकि वे इतना जनप्रिय थे कि लोग उनके भस्म पर अलग - अलग स्तूप बनाना चाहते थे।

भारत के इतिहास में बुद्ध के बाद मीनाण्डर, मीनाण्डर के बाद कबीर और कबीर के बाद नानक का नाम आता है, जिनके मृत शरीर को भी अपनाने के लिए जनता व्याकुल थी।

क्षेमेन्द्र रचित अवदानकल्पलता से पता चलता है कि मीनाण्डर ने अनेक स्तूपों का निर्माण कराया था।

सम्राट अशोक के बाद पश्चिमोत्तर तथा उत्तरी भारत में सर्वाधिक स्तूप बनवाने का श्रेय कनिष्क को है।

उन्होंने विभिन्न स्थानों पर अनेक स्तूप बनवाए। पेशावर के निकट कनिष्क ने एक बड़ा स्तूप बनवाए थे, जिसमें बुद्ध के अवशेष रखे गए थे। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसे एक यूनानी इंजीनियर अगिलस ने बनाया था।

जाहिर है कि यूनानी अभियंताओं ने यूनानी तकनीक का प्रयोग किया। यहीं ग्रीको - बुद्धिस्ट कला है, जिससे स्तूप - निर्माण भी अछूता नहीं रहा।

गंधार क्षेत्र के स्तूपों का वास्तु - विन्यास मध्य भारतीय स्तूपों जैसा नहीं है। गंधार स्तूप काफी ऊँचे हैं, चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ हैं और संपूर्ण स्तूप एक बुर्ज जैसा दिखाई देता है।

कनिष्क के पुरुषपुर स्थित 400 फीट ऊँचा स्तूप का विवरण फाहियान तथा ह्वेनसांग दोनों ने दिए हैं। फाहियान ने लिखा है कि उसने जितने भी स्तूप देखे थे, उनमें यह सर्वाधिक प्रभावशाली है।

तक्षशिला स्थित धर्मराजिका स्तूप का निर्माण अशोक के समय में हुआ, किंतु कनिष्क के समय में आकारवर्धन हुआ। ऊँचे चबूतरे पर निर्मित यह स्तूप गोलाकार है। चारों दिशाओं में चार सीढ़ियाँ हैं। ( चित्र - 8 )

कनिष्क के काल में बल्ख तथा खोतान तक अनेक स्तूप निर्मित करवाए गए थे। मनिक्याल क्षेत्र में कई स्तूप बने थे। मनिक्याल, रावलपिंडी से 20 मील की दूरी पर है। यहाँ से प्राप्त एक अभिलेख से पता चलता है कि कनिष्क के 18 वें वर्ष में इन स्तूपों को बनवाया गया था।

सिर्फ बुद्ध के अवशेषों पर ही नहीं बल्कि कनिष्क ने बौद्ध साहित्य की टीकाओं को भी ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण करा कर विशेष रूप से निर्मित एक स्तूप में सुरक्षित रखवाया था। ह्वेनसांग ने इस पर विस्तार से लिखा है।

स्तूप- निर्माण की परंपरा अशोक और कनिष्क के बाद हर्षवर्धन के शासन-काल में सर्वाधिक समृद्ध हुई।

सम्राट हर्षवर्धन ने विक्रमादित्य की नहीं बल्कि शीलादित्य की उपाधि धारण की थी। शीलादित्य वह है, जिसे विक्रम ( बल ) से अधिक शील पसंद हो।

वहीं शील जिसे बुद्ध ने अपनी देशना में प्रमुख स्थान दिया था।

वो शिलादित्य ऐसे शीलवान निकले कि हर 5 वें वर्ष अपना संपूर्ण खजाना गरीबों- असहायों को दान कर देते थे।

ह्वेनसांग ने लिखा है कि उन्होंने गंगा के किनारों पर कई हजार स्तूप सौ - सौ फीट ऊँचे बनवाए।

सब स्थानों पर जहाँ - जहाँ गौतम बुद्ध के कुछ भी चिह्न थे, संघाराम स्थापित किए।

इतिहास से सवाल है कि आखिर शीलादित्य के बनवाए हजारों स्तूप और संघाराम कहाँ गए?

ह्वेनसांग ने पूर्वी भारत में अशोक द्वारा निर्मित ताम्रलिप्ति, कर्णसुवर्ण, समतट और पुण्ड्रवर्धन में स्तूपों का उल्लेख किया है। महास्थानगढ़ अभिलेख से भी यह पुष्ट होता है। बाद के पाल शासकों ने पूर्वी भारत में बौद्ध धर्म का संरक्षण प्रदान किए।

पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार में पाल कालीन अनेक स्तूपों के अवशेष मिलते हैं।

पाल वंश के बड़े राजाओं में देवपाल ( 810 - 850 ) शुमार हैं। उत्साही बौद्ध थे। 40 बरसों का शासन था। सुजाता स्तूप का आखिरी पुनर्निर्माण इन्होंने ने ही कराए थे। वहाँ के उत्खनन से प्राप्त एक अभिलेख से इसकी पुष्टि होती है। ( चित्र - 9 )

पश्चिमोत्तर और उत्तरी भारत में स्तूप - निर्माण की जो परंपरा सिंधु घाटी सभ्यता से चली थी, वह पाल कालीन पूर्वी भारत में 12 वीं सदी तक अनवरत चलती रही।

7.

बौद्ध सभ्यता के प्रचार - प्रसार का जो काम उत्तर के मौर्यों ने किया, वही काम दक्षिण में सातवाहनों ने किया।

अशोक के सभी अभिलेख प्राकृत में हैं तो सातवाहनों के भी सभी अभिलेख प्राकृत में हैं।

उत्तर में मौर्य काल तक संस्कृत के अभिलेख नहीं मिलते हैं तो दक्षिण में भी सातवाहन काल तक संस्कृत के अभिलेख नहीं मिलते हैं।

मौर्यों ने अनेक स्तूप, चैत्य और विहार बनवाए तो सातवाहनों ने भी अनेक स्तूप, चैत्य और विहार बनवाए।

अमरावती, गोली, जगय्यपेटा, घंटसाल, भट्टीप्रोलु, नागार्जुन कोंडा जैसे स्थानों के स्तूप इन्हीं सातवाहनों के हैं। ( चित्र- 10 )

बौद्ध स्थलों में से पूर्वोत्तर भारत स्थित बौद्ध स्मारकों का जिक्र कम होता है। हिंदी इतिहासों में इसका उल्लेख नगण्य है।

त्रिपुरा के सेपहीजाला जिले में बोक्सानगर है। बोक्सानगर का प्राचीन नाम अभिलेखों के आधार पर बिराक बताया जाता है। यह एक विराट बौद्ध स्थल है।

इस विराट बौद्ध स्थल को खुदाई से पहले मानसा का स्मारक कहा जाता था। मानसा सर्पों की देवी हैं। साल 1997 के जुलाई महीने में पुरातत्वविद डाॅ. जीतेन्द्र दास यहाँ आए। उन्हें यहाँ गौतम बुद्ध की मूर्ति मिली। वे अनुमान कर लिए कि बोक्सानगर बौद्ध स्थल है और इसकी सूचना उन्होंने पुरातत्व विभाग को दे दी।

पुरातत्व विभाग ने 2001 से 2004 तक बोक्सानगर की खुदाई की। खुदाई में विशाल बौद्ध स्तूप, चैत्यगृह, बौद्ध विहार, बुद्ध की कांस्य मूर्तियाँ, ब्राह्मी अभिलेखित सील तथा अन्य बौद्ध अवशेष मिले। ( चित्र - 11)

स्तूप विशाल और शानदार है। चैत्यगृह आयताकार और स्तूप के पूरब दिशा में है। चैत्यगृह से पूरब बौद्ध विहार है। बौद्ध विहार का गलियारा काफी लंबा है। गलियारा के दोनों ओर भिक्षुओं के लिए कमरे बने हैं।

दक्षिण त्रिपुरा में पिलक है। पिलक का प्राचीन नाम पिरोक बताया जाता है। पिलक की पहचान भी बौद्ध स्थल के रूप में हुई है। पिलक के उत्खनन से भी बौद्ध स्तूप और बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।

पूर्वोत्तर भारत कभी बौद्ध सभ्यता के प्रभाव में था।

न केवल संपूर्ण भारत में बल्कि भारत के बाहर भी स्तूप बनाए जाने की समृद्ध परंपरा रही है।स्तूपों की परंपरा

इतिहास - लेखन में इतिहासकार कुछ जोड़ते हैं, कुछ छोड़ते हैं और कुछ का चयन करते हैं। यह छोड़ना, जोड़ना और चयन ही इतिहास का स्वरूप तय करता है। फिर तो तय है कि ऐसा इतिहास - लेखन पूरी मानव - जाति का इतिहास नहीं हो सकता है।

वास्तविकता का इतिहास और इतिहासकारों के उपलब्ध इतिहास में फर्क होता है। जैसा कि कहा गया है कि इतिहास - लेखन में इतिहासकार कुछ छोड़ते हैं, कुछ जोड़ते हैं और कुछ का चयन करते हैं और फिर इसे ही किसी देश के इतिहास की संज्ञा प्रदान कर दिया करते हैं। ऐसा इतिहास वस्तुतः राजनीतिक शक्ति मात्र का इतिहास होता है जो भारी पैमाने पर हुई हत्याओं तथा अपराधों के इतिहास से भिन्न नहीं है।

चिनुआ अचैबी ने लिखा है कि जब तक हिरन अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, तब तक हिरनों के इतिहास में शिकारियों की शौर्य - गाथाएँ गाई जाती रहेंगी।

इसीलिए भारत के इतिहास में वैदिक संस्कृति उभरी हुई है, बौद्ध सभ्यता पिचकी हुई है और मूल निवासियों का इतिहास बीच - बीच में उखड़ा हुआ है।

इतिहास सिर्फ वो नहीं है, जिसे शासकों ने लिखवाया है और जो लिखा गया है बल्कि इतिहास वो भी है, जिसे हमारे पुरखों ने सहा है, लेकिन लिखा नहीं गया है।

छद्म इतिहास क्या है?

इतिहास - लेखन में वह दावा जो इतिहास की तरह प्रस्तुत किया जाता है, पर वह इतिहास नहीं होता है बल्कि इतिहास जैसा होता है, वह छद्म इतिहास है।

छद्म इतिहास और वास्तविक इतिहास की पहचान करना ही सही इतिहास - दृष्टि है।

2.

यह विचित्र इतिहास - बोध है कि सिंधु घाटी की सभ्यता के बाद वैदिक युग आया। सिंधु घाटी की सभ्यता नगरीय थी, जबकि वैदिक संस्कृति ग्रामीण थी। उल्टा है।

भला कोई सभ्यता नगरीय जीवन से ग्रामीण जीवन की ओर चलती है क्या?

सिंधु घाटी में बड़े - बड़े नगर थे, स्नागार थे, चौड़ी - चौड़ी सड़कें थीं। बेहद उम्दा किस्म की सभ्यता थी। वहीं वैदिक युग में पशुचारक थे, कच्ची मिट्टी के घर थे, नरकूलों की झोंपड़ियाँ थीं। तुर्रा यह कि ये नरकूलों की झोंपड़ियाँ उसी पश्चिमोत्तर भारत में उगीं, जहाँ बड़े -बड़े सिंधु साम्राज्य के भवन थे।

आपको ऐसा इतिहास - बोध उलटा नहीं लगता है?

आप पढ़ाते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता में लेखन - कला विकसित थी और फिर उसके बाद की वैदिक संस्कृति में पढ़ाने लगते हैं कि वैदिक युग में लेखन - कला का विकास नहीं हुआ था। वैदिक युग में लोग मौखिक याद करते थे और लिखते नहीं थे।

ऐसा भी होता है क्या? पढ़ी - लिखी सभ्यता अचानक अनपढ़ हो जाती है क्या?

आप यह भी पढ़ाते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता में मूर्ति - कला थी। फिर उसके बाद पढ़ाते हैं कि वैदिक युग में मूर्ति - कला नहीं थी।

क्या यह सब उलटा नहीं है?

भारत में स्तूप - स्थापत्य, लेखन - कला, मूर्ति - कला, बर्तन - कला आदि का विकास निरंतर हुआ है। कोई गैप नहीं है। यदि इतिहास में ऐसा गैप आपको दिखाई पड़ रहा है तो वह वैदिक संस्कृति को भारतीय इतिहास में ऐडजस्ट करने के कारण दिखाई पड़ रहा है।

यह कैसा इतिहास - लेखन है कि जिन वेदों के खुद का ही ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त नहीं हैं, उन्हें ही ऐतिहासिक साक्ष्य मान लिया गया है।

ऋग्वैदिक युग, फिर उत्तर वैदिक युग, फिर सूत्रों का युग, फिर महाकाव्यों का युग, फिर धर्मशास्त्रों का युग - ये भारत का भौतिक इतिहास नहीं है।

ये तो संस्कृत साहित्य का इतिहास है। किसी भी देश का भौतिक इतिहास ऐसे नहीं लिखा जाता है, लिखा भी नहीं गया है। साहित्य का इतिहास ऐसे लिखा जाता है।

वैदिक युग सही मायने में इतिहास का टर्मिनोलाॅजी है ही नहीं ! कहीं पढ़े हैं बाइबिल युग, कुरान युग?

वैदिक युग, महाकाव्य युग और सूत्र युग मूलतः इतिहास का नहीं बल्कि संस्कृत साहित्य के चैप्टर्स हैं वरना दुनिया के इतिहास में किसी देश का ऐतिहासिक चैप्टर्स के नाम बाइबिल युग, कुरान युग और हदीस युग नहीं हैं।

वैदिक भाषा पुरानी है और वैदिक संस्कृति भी पुरानी है, तब इस तथ्य की भी पड़ताल की जानी चाहिए कि वैदिक युग के तथाकथित सोने के सिक्के " निष्क " और चाँदी के सिक्के " रजत " कहाँ गए, जबकि धातु के सिक्के सबसे पहले गौतम बुद्ध के युग में मिलते हैं, जिसे " आहत मुद्रा " कहा जाता है।

3.

आज का अध्ययन जबकि पुरावशेषों में फ्लोरीन की मात्रा के मापन, काठ कोयले और हड्डी में रेडियोधर्मिता की मात्रा, भूचुंबकीय अवलोकन और वृक्ष - तैथिकी पर आधारित है, तब सत्ययुग या द्वापर जैसे भोथरे काल मापक से किसी नायक या वस्तु की उम्र तय करना निरर्थक है।

मिसाल के तौर पर, वेदों की रचना सृष्टि के आरंभ में हुई है। केतु वृक्ष 1100 योजन ऊँचे हैं। देवताओं का एक वर्ष मनुष्यों के 131521 दिनों का होता है।

ऐसे मामलों में भारत का भौतिक इतिहास ताम्र, कांस्य, लौह जैसी धातुओं और धूसर, काले, गेरुए जैसे मृद्भांडों की राह पकड़ेगा। मगर सावधानी की जरूरत यहाँ भी है।

आपने एक बार झूठ बोल दिया है कि हड़प्पा सभ्यता के बाद उत्तरी भारत में वैदिक युग आया है। अब इसे साबित करने के लिए आप दूसरा झूठ बोल रहे हैं कि उत्तरी भारत में ताम्र युग के बाद सीधे लौह युग आ गया।

आपने कांस्य युग की सभ्यता को वैदिक युग की झूठी तोप से उड़ा दिया।

पश्चिमोत्तर भारत में ताम्र युग के बाद कांस्य युग आया था। सिंधु घाटी की सभ्यता कांस्य युग का प्रतीक है। मगर पूर्वी भारत में इतिहासकारों ने ताम्र युग के बाद सीधे लौह युग ला दिया और वे कांस्य युग को खा गए।

जब लोहे की खोज नहीं हुई थी, तब लोग ताँबे को ही लोहा कहा करते थे।

ताँबे को लोहा इसलिए कहते थे कि ताँबे का रंग लोहित होता है।

लोहित का अर्थ है - लाल रंग का। लाल रंग का कौन होता है - ताँबा या लोहा ?

जाहिर है कि लाल रंग का ताँबा होता है। इसलिए लोग ताँबे को लोहा कहते थे।

लोहा से ही लहू शब्द बना है। लहू का अर्थ है - खून। खून के रंग का कौन होता है - ताँबा या लोहा?

पालि में ताँबे को लोह (लोहा ) भी कहा गया है। अर्थात पालि तब की है, जब लोहे की खोज नहीं हुई थी। तब सरसरी नजर से ही पालि का इतिहास उत्तरी भारत में ईसा से हजार साल पहले छलाँग मार देता है।

4.

स्तूपों का इतिहास, लेखन -कला का इतिहास, मूर्ति-कला का इतिहास सभी कुछ सिंधु घाटी सभ्यता से निरंतर मौर्य काल और आगे तक जाता है।

बशर्ते कि आप मान लीजिए कि सिंधु साम्राज्य से लेकर मौर्य साम्राज्य और आगे तक टूटती - जुड़ती बौद्ध सभ्यता की कड़ियाँ थीं।

भारत में मौजूद सभी स्तूपों को मौर्य काल के बाद का बताया जाना गलत है। अनेक स्तूप सिंधु घाटी सभ्यता के काल के हैं, कुछ सिंधु घाटी सभ्यता के बाद के हैं, कुछ मौर्य काल के हैं, कुछ मौर्य काल के बाद के भी हैं।

कहीं मिट्टी का स्तूप है, कहीं पत्थर का स्तूप है, कहीं ईंट का स्तूप है तो कहीं संगमरमर का स्तूप है। मनौती स्तूप ... छोटा स्तूप ... मझोला स्तूप ... बड़ा स्तूप ... गोल स्तूप ... चौकोर स्तूप ... अति प्राचीन स्तूप ... प्राचीन स्तूप ...वेदी का स्तूप ...बिना वेदी का स्तूप ... सीढ़ीदार स्तूप ... बिना सीढ़ी का स्तूप !

सभी अलग - अलग प्रकार के सैकड़ों स्तूपों को इतिहासकारों ने मौर्य काल से लेकर कुषाण काल के चंद पन्नों में समेट लिया है।

जबकि इतिहास गवाह है कि सिंधु घाटी सभ्यता में भी स्तूप था और पूर्व मौर्य काल में भी स्तूप था। पिपरहवा का स्तूप मौर्य काल से पहले का है। खुद मौर्य काल में नए स्तूप बने और कई पूर्व मौर्य काल के स्तूपों की मरम्मत हुई, जिसमें निग्लीवा सागर का स्तूप शामिल है।

अभिलेखीय साक्ष्य पुख्ता सबूत देता है कि सम्राट अशोक से पहले भी स्तूपों की परंपरा थी।

आप सम्राट अशोक के निग्लीवा अभिलेख को पढ़ लीजिए, जिसमें लिखा है कि अपने अभिषेक के 14 वें वर्ष में उन्होंने निगाली गाँव में जाकर कोनागमन (कनकमुनि ) बुद्ध के स्तूप के आकार को वर्धित करवाया था। ( चित्र - 1 )

कनकमुनि ( कोनागमन ) बुद्ध का स्तूप सम्राट अशोक के काल से पहले बना था, जिसका संवर्धन उन्होंने कराया था। गौतम बुद्ध से कनकमुनि बुद्ध अलग थे और पहले थे।

भारत और भारत के बाहर जो बड़े पैमाने पर स्तूप मिलते हैं, वे सभी मौर्य काल के बाद के नहीं हैं बल्कि अनेक सिंधु घाटी और मौर्य काल के बीच के भी हैं। मगर इतिहासकार गौतम बुद्ध से पहले स्तूप होने की बात सोचते ही नहीं हैं।

परिणामतः वे मौर्य काल से पहले के बने सभी स्तूपों को भी खींचकर मौर्य काल तथा उसके बाद लाते हैं। यदि वे ऐसा नहीं करते तो सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर मौर्य काल तक कहीं भी स्तूपों की श्रृंखला नहीं टूटेगी।

बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बाँटा गया तथा उन पर स्तूपों का निर्माण किया गया। जाहिर है कि स्तूपों की निर्माण - कला बुद्ध से पहले भी मौजूद थी।

बुद्ध ने खुद महापुरुषों की शरीर धातु पर स्तूप बनाने को कहा था। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य आनंद को चौराहे पर स्तूप निर्मित करने की बात कही थी।

कोई भी शिल्प - कला रातों -रात पैदा नहीं होती है। स्तूप - कला का भी बाकायदे विकास हुआ है। कई पीढ़ियों ने, कई गणों ने इसके विकास में अपना - अपना योगदान किया है।

5.

दुनिया की टाॅप अकादमिक पत्रिकाओं में " साइंस " शुमार है। इसे अमेरीकन एसोसिएशन फाॅर दि एडवांस आॅफ साइंस प्रकाशित करता है।

" साइंस " के अंक 320 में यूनिवर्सिटी ऑफ नेपल्स, इटली के भारत और सेंट्रल एशिया की सभ्यताओं के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर जिओवान्नि वेरार्डी का मुअनजोदड़ो के स्तूप पर एक लेख छपा है। ( चित्र - 2 )

पुरातत्ववेत्ता वेरार्डी ने गहन जाँच के बाद बताए हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता का स्तूप कोई 2100 ई. पू. का है। स्तूप के नाम को लेकर विवाद हो सकता है। मगर वह इमारत सिंधु घाटी सभ्यता के समकालीन है। यह स्तूप भिक्षुओं के आवास से घिरा है।

आर डब्ल्यू टी एच आकिन विश्वविद्यालय, जर्मनी के पुरातत्ववेत्ता माइकल जेंसन ने वेरार्डी की रिसर्च पर मुहर लगाते हुए लिखा है कि मुअनजोदड़ो का स्तूप सिंधु घाटी सभ्यता के काल का है।

पुरातत्ववेत्ता द्वय ने कहा है कि सिंधु घाटी सभ्यता पर पुनर्विचार करने की जरूरत है क्योंकि यह स्तूप कुषाण काल का नहीं है।

इसीलिए मैं भी कहता हूँ कि सिंधु घाटी की सभ्यता मूलतः बौद्ध सभ्यता है।

जैसा कि भारत और सेंट्रल एशिया की सभ्यताओं के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर जिओवान्नि वेरार्डी ने जाँचोपरांत बताया है कि मुअनजोदड़ो का स्तूप सिंधु घाटी की सभ्यता के समय का है। यह कुषाण कालीन नहीं है।

अब तक इतिहासकार इसे कुषाण कालीन मानते रहे हैं। कारण कि स्तूप के पूरबी बौद्ध मठ से कुषाण कालीन सिक्के मिले हैं।

प्रोफेसर जिओवान्नि वेरार्डी ने कहा है कि स्तूप के काल - निर्धारण में इन सिक्कों की कोई खास भूमिका नहीं है। स्तूप का अस्तित्व सिक्कों से अलग है।

स्तूप की निर्माण-सामग्री, अभिकल्पन, ईंटें, प्लेटफार्म - सब कुछ सिंधु घाटी सभ्यता के समकालीन हैं। ( चित्र - 3 )

चूँकि कुषाण काल बौद्धों के लिए सुनहरा काल था। बौद्धों को पता रहा होगा कि मुअनजोदड़ो का स्तूप किसी पूर्व बुद्ध का है।

शायद यहीं कारण था कि उनकी आवाजाही उस स्तूप तक थी और ऐसे में वहाँ कुषाण कालीन सिक्कों का मिलना असंभव नहीं है।

मोहनजोदड़ो की खुदाई में विशाल स्नानागार मिला है। स्नानागार के आँगन में जलाशय है। जलाशय के तीन ओर बरामदे और उनके पीछे कई कमरे थे।

इतिहासकार मैके ने बताया है कि कमरे वाला स्नानागार पुरोहितों के लिए था, जबकि विशाल स्नानागार सामान्य जनता के लिए था तथा इसका उपयोग धार्मिक समारोहों के अवसर पर किया जाता था।

डी. डी. कोसंबी ने लिखा है कि पूरे ऐतिहासिक युग में ऐसे कृत्रिम ताल बनाए गए हैं : पहले स्वतंत्र रूप में, बाद में मंदिरों के समीप।

सवाल उठता है कि सिंधु घाटी के लोग विशेष धार्मिक अवसरों पर विशाल स्नानागार में पुरोहितों के संग स्नान तथा शुद्धिकरण करके कहाँ जाते थे? मंदिर तो था नहीं। वहीं स्तूप में! स्नानागार के बगल के स्तूप में !!

उत्तरी बिहार के वैशाली में पुरातत्वविदों ने आनंद स्तूप के बगल में ठीक ऐसा ही विशाल स्नानागार खोज निकाला है, जैसा कि मोहनजोदड़ो में है।

1826 में मैसन ने पहली बार हड़प्पा में स्तूप ही देखा था, बर्नेस ( 1831 ) और कनिंघम ( 1853 ) ने भी स्तूप ही देखा था। सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई बाद में हुई।

राखालदास बंदोपाध्याय ने भी 1922 में मोहनजोदड़ो के बौद्ध स्तूप की खुदाई में ही सिंधु घाटी की सभ्यता की खोज की थी।

इसलिए; सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई में स्तूप नहीं मिला है बल्कि स्तूप की खुदाई में सिंधु घाटी की सभ्यता मिली है।

मगर इतिहासकारों को सिंधु घाटी की सभ्यता के इतिहास को ऐसे लिखने में जाने क्या परेशानी है, जबकि सच यही है।

मोहनजोदड़ो की खुदाई में सिर्फ स्तूप ही नहीं, बौद्ध विहार भी मिला था, जिसका विवरण स्वामी शंकरानंद ने " हिस्ट्री आफ मोहनजोदड़ो एण्ड हड़प्पा " में प्रस्तुत किया है। लिखा है कि राखालदास बंदोपाध्याय को 1922 - 23 के शरद मौसम में खुदाई करते एक बौद्ध विहार मिला। विहार का मुख पूरब की तरफ था। पूरबी भाग में दो बड़े सामान्य कक्ष, एक प्रवेश द्वार, गुफानुमा सुरंग, मूर्ति कक्ष एवं सीढ़ियाँ हैं। कुछ छोटे कक्षों का उपयोग भिक्खुओं के अवशेष रखने के लिए किया जाता है। कमरा सं. 22, 27 एवं 29 ऐसे ही कमरे हैं।
( संदर्भ: बौद्ध धर्म: हड़प्पा मोहनजोदड़ो नगरों का धर्म, पृ. 144 )

गुजरात स्थित धोलावीरा सिंधु घाटी सभ्यता का एक महत्वपूर्ण नगर है। यहाँ स्तूप मिले हैं। उनमें से एक पंजाब स्थित संघोल के धम्म चक्र स्तूप से मेल खाता है। ऐसे स्तूपों में आरे ( वृत में तिल्ली ) बने होते हैं। ( चित्र- 4 )

स्तूप का नाम सुनते ही दिमाग में एक अर्द्ध गोलाकार संरचना की तस्वीर उभरती है।

मगर हर जगह का स्तूप अर्द्ध गोलाकार नहीं है।स्तूप धम्म चक्क के आकार के भी हैं, जिनमें आठ आरे बने हुए हैं। धम्म चक्क में भी 8 आरे हैं।

एक दूसरे स्तूप में आरों की संख्या क्रमशः 12, 24 और 32 है। 24 और 32 की संख्या अशोक - चक्र की याद दिलाती है। अशोक - चक्र में भी 32 और 24 आरे हैं।

ऐसे स्तूप पंजाब के जिला फतेहगढ़ साहिब के गाँव संघोल में मिले हैं। कभी संघोल में भिक्षु संघ था। इसीलिए इसका नाम संघोल है। ( चित्र - 5 )

स्तूप की खुदाई 1968 में हुई थी। स्तूप से एक सोप पत्थर की मंजूषा मिली है।

मंजूषा के ढक्कन पर खरोष्ठी लिपि में एक बौद्ध स्काॅलर का नाम लिखा है। वह स्काॅलर भद्रक थे। उन्हीं का अस्थि - भस्म उस मंजूषा में है।

धोलावीरा का स्तूप संघोल के स्तूप से मेल खाता है।

सिंध साम्राज्य के अनेक नगरों में स्तूप मिले हैं। हड़प्पा में स्तूप मिला है, मोहनजोदड़ो में स्तूप मिला है और फिर धोलावीरा में भी स्तूप मिला है।

जाने क्यों, इतिहासकार बताते हैं कि ये स्तूप कुषाण काल के हैं। भाई, कुषाण काल तो बुद्ध की मूर्तियों के लिए जाना जाता है। यदि सिंधु घाटी सभ्यता के ये स्तूप कुषाणों ने बनवाए तो वे सिर्फ स्तूप ही क्यों बनवाते?

वे तो सिंधु घाटी की गली - गली में ... हर चौक - चौराहे पर बुद्ध की मूर्तियाँ बनवाते। वे तो गांधार कला के आविष्कारक थे और बुद्ध की मूर्तियों के लिए तो कुषाण राजे इतिहास में जाने जाते हैं।

यदि सिंध साम्राज्य के ये स्तूप कुषाण काल के हैं तो कुषाणों से करीब डेढ हजार साल पहले तो आपके अनुसार आर्य आए थे, जो सिंध साम्राज्य पर कब्जा किए। फिर वे सिंधु घाटी के डगर - डगर में मंदिर, अवतारों की मूर्तियाँ क्यों नहीं बनवाए?

मान लीजिए कि 1500 ई. पू. में आर्यों का आक्रमण हुआ और हड़प्पा - मुअनजोदड़ो नेस्तनाबूद हो गए। सिंध साम्राज्य जीत लिया गया और आर्य साम्राज्य स्थापित हो गया तो क्या सिंध साम्राज्य के ऊपरी लेयर पर आर्य साम्राज्य के निशान मिलते हैं?

क्या मंदिर मिलते हैं ? ... क्या संस्कृत मिलती है ? ... कोई वैदिक देवी - देवता मिलते हैं? ...क्या इंद्र वंश का शासन आया?... क्या वरूण वंश का राज आया?... नहीं।

6.

इतिहासकार मौर्य साम्राज्य पर शुंगों के कब्जे को ही आर्य आक्रमण बताते हैं और उसे पीछे खींचकर 1500 ई. पू. में ले जाते हैं क्योंकि इसके बाद धीरे- धीरे आर्य- सभ्यता के तमाम निशान मिलने लगते हैं ... संस्कृत ... यज्ञ ... मंदिर आदि- आदि।

वैदिक साहित्य में लिखित " दास " कौन है?

भारत और पश्चिम के अनेक इतिहासकारों ने " दास " की अनेक व्याख्याएँ की हैं। उस भूल - भुलैया में हमें नहीं पड़ना है।

दास मूल रूप से " बौद्ध " थे। साँची और भरहुत के स्तूपों पर अनेक दास तथा दासी उपाधिधारक बौद्धों के शिलालेख हैं, जिन्होंने स्तूप - निर्माण में मदद की थी।

अरहत दास थे ....अरहत दासी थीं ....यमी दास थे.... जख दासी थीं .....अनेक ...सभी के नाम लिखे हुए हैं।

साँची स्तूप पर थूप दास का वर्णन है। लिखा है - मोरगिरिह्मा थूपदासस दान थंभे। ( चित्र - 6 )

थूप दास मोरगिरि ( महाराष्ट्र ) के निवासी थे और भरहुत के एक स्तंभ - निर्माण में मदद की थी।

वैदिक साहित्य में वर्णित आर्यों का सांस्कृतिक संघर्ष इन्हीं बौद्ध दास - दासियों से हुआ था।

वैदिक साहित्य इन दास - दासियों के बारे में बताता है कि ये लोग यज्ञ नहीं करते और न ये इंद्र - वरुण की पूजा करते हैं...स्पष्ट है कि ये बौद्ध हैं।

प्राकृत भाषा में " दास " ( दसन ) का अर्थ द्रष्टा है। मगर आर्यों ने सांस्कृतिक दुश्मनी के कारण अपनी पुस्तकों में " दास " का अर्थ " गुलाम/ नौकर " कर लिए हैं।

दास और आर्यों का यह सांस्कृतिक संघर्ष 1500 ई.पू. में नहीं बल्कि मौर्य काल के बाद हुआ था।

सभी शिलालेख पढ़ जाइए। मौर्य काल तक किसी भी पुरुष और महिला के नाम में " दास / दासी " नहीं जुड़ा है।

दास/ दासी जुड़े नाम शिलालेखों में मौर्य काल के बाद दिखाई पड़ते हैं। साँची - भरहुत के स्तूपों पर पहली बार अनेक नाम दास / दासी से जुड़े दिखाई पड़ते हैं।

दास / दासी से जुड़े ये सभी नाम बौद्धों के हैं।

इन्हीं दास / दासियों से आर्यों का वैचारिक संघर्ष हुआ था, जो वेदों में लिखा हुआ है।

वेदों में लिखे आर्य - दास संघर्ष को हम कतई मौर्य काल से पहले नहीं ले जा सकते हैं। कारण कि मौर्य काल तक हमें दास/ दासी उपाधि धारक कोई नाम मिलता ही नहीं है।

वेद और वेदों में वर्णित यह सांस्कृतिक संघर्ष की गाथा मौर्य काल के बाद की है।

यहीं कारण है कि ऋग्वेद में भी स्तूपों के संदर्भ मिलते हैं और रामायण में चैत्यों के मिलते हैं।

यह तो बहुत बताया जाता है कि ऋग्वेद में गंगा का एक बार और यमुना का तीन बार वर्णन है, मगर यह बहुत कम बताया जाता है कि ऋग्वेद में स्तूप का वर्णन दो बार है।

संस्कृत का स्तूप मूल रूप से पालि थूप का बिगड़ा हुआ रूप है। पालि में थूप से अनेक शब्द बनते हैं जैसे थूप, थूपिका, थूपीकत, थूपारह आदि।

मगर संस्कृत में स्तूप से अनेक शब्द नहीं बनेंगे। कारण कि स्तूप संस्कृत के लिए बाहरी शब्द है। किसी भी भाषा में अमूमन बाहरी शब्द बाँझ होते हैं। उनमें शब्दों को जनने की क्षमता नहीं होती है।

संस्कृत के लिए स्तूप बाँझ शब्द है। इसीलिए संस्कृत का स्तूप पालि थूप का रूपांतरण है और वे भाष्यकार जो ऋग्वेद में प्राप्त स्तूप की व्याख्या किसी अन्य अर्थ में करते हैं, वे गलत हैं।

"स्तूप ....बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः"
अर्थात इसमें बुद्ध अन्तर्निहित हैं।

यह ऋग्वेद के प्रथम मंडल, सूक्त 24, छठवाँ अनुवाक का श्लोक संख्या 7 है। इसमें राजा वरुण को अबौद्ध (अबुध्ने) राजा भी कहा गया है। पूरा का पूरा अर्थ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है।

सायण भाष्य में अर्थ कुछ भिन्न है।

"अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः नीचीना स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः॥७॥" ( चित्र - 7)

अर्थात पवित्र पराक्रम युक्त राजा वरुण (सबको आच्छादित करने वाले) दिव्य तेज पुञ्ज सूर्यदेव को आधाररहित आकाश में धारण करते हैं। इस तेज पुञ्ज सूर्यदेव का मुख नीचे की ओर और मूल ऊपर की ओर है। इससे मध्य में दिव्य किरणें विस्तीर्ण होती चलती हैं।

परन्तु यह अर्थ जो सायण भाष्य पर आधारित है, गलत है। लगभग सभी अनुवादकों ने ऐसा ही अर्थ किया है। अर्थ करते वक्त संदर्भ को देखना जरूरी होता है। जैसा कि उपरोक्त से स्वतः स्पष्ट है कि वरुण राजा की उपाधि अबुध्ने है। मतलब कि वरुण बौद्ध विरोधी राजा थे। आगे स्तूप को उलटने की बात है।

अशोक द्वारा 84000 स्तूप बनाए जाने का जिक्र फाहियान ने अपने यात्रा - विवरण के 27 वें खंड में किए हैं।

साँची एवं भरहुत स्तूपों का निर्माण मूल रूप से अशोक ने ही कराया था। ह्वेनसांग ने अशोक द्वारा निर्मित अनेक स्तूपों का उल्लेख किया है, जिन्हें उसने खुद देखा था।

सारनाथ तथा तक्षशिला स्थित धर्मराजिका स्तूप का निर्माण भी मूलतः अशोक के समय में ही कराया गया था। बाद के शासकों ने उन्हें परिवर्धित करवाए।

मीनाण्डर यवन थे। विदेशी थे। लेकिन धम्म की राह चुनी थी। बुतकारा स्तूप के पहले लेयर को अशोक ने बनवाए थे तो दूसरे को मीनाण्डर ने बनवाए थे। दूसरे लेयर से मीनाण्डर का सिक्का मिला है।

मीनाण्डर बड़े दार्शनिक थे...इंडो -यूनानी इतिहास में दूजा नहीं हुआ।

सो वे बड़े न्यायप्रिय थे। न्यायप्रियता ने इन्हें जनता में बड़ी शोहरत दिलाई थी।

एक दिन एक शिविर में अचानक इनकी मृत्यु हुई।

प्लूटार्क ने लिखा है कि मीनाण्डर के भस्म को लेकर जनता में झगड़े उठ खड़े हुए ....क्योंकि वे इतना जनप्रिय थे कि लोग उनके भस्म पर अलग - अलग स्तूप बनाना चाहते थे।

भारत के इतिहास में बुद्ध के बाद मीनाण्डर, मीनाण्डर के बाद कबीर और कबीर के बाद नानक का नाम आता है, जिनके मृत शरीर को भी अपनाने के लिए जनता व्याकुल थी।

क्षेमेन्द्र रचित अवदानकल्पलता से पता चलता है कि मीनाण्डर ने अनेक स्तूपों का निर्माण कराया था।

सम्राट अशोक के बाद पश्चिमोत्तर तथा उत्तरी भारत में सर्वाधिक स्तूप बनवाने का श्रेय कनिष्क को है।

उन्होंने विभिन्न स्थानों पर अनेक स्तूप बनवाए। पेशावर के निकट कनिष्क ने एक बड़ा स्तूप बनवाए थे, जिसमें बुद्ध के अवशेष रखे गए थे। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसे एक यूनानी इंजीनियर अगिलस ने बनाया था।

जाहिर है कि यूनानी अभियंताओं ने यूनानी तकनीक का प्रयोग किया। यहीं ग्रीको - बुद्धिस्ट कला है, जिससे स्तूप - निर्माण भी अछूता नहीं रहा।

गंधार क्षेत्र के स्तूपों का वास्तु - विन्यास मध्य भारतीय स्तूपों जैसा नहीं है। गंधार स्तूप काफी ऊँचे हैं, चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ हैं और संपूर्ण स्तूप एक बुर्ज जैसा दिखाई देता है।

कनिष्क के पुरुषपुर स्थित 400 फीट ऊँचा स्तूप का विवरण फाहियान तथा ह्वेनसांग दोनों ने दिए हैं। फाहियान ने लिखा है कि उसने जितने भी स्तूप देखे थे, उनमें यह सर्वाधिक प्रभावशाली है।

तक्षशिला स्थित धर्मराजिका स्तूप का निर्माण अशोक के समय में हुआ, किंतु कनिष्क के समय में आकारवर्धन हुआ। ऊँचे चबूतरे पर निर्मित यह स्तूप गोलाकार है। चारों दिशाओं में चार सीढ़ियाँ हैं। ( चित्र - 8 )

कनिष्क के काल में बल्ख तथा खोतान तक अनेक स्तूप निर्मित करवाए गए थे। मनिक्याल क्षेत्र में कई स्तूप बने थे। मनिक्याल, रावलपिंडी से 20 मील की दूरी पर है। यहाँ से प्राप्त एक अभिलेख से पता चलता है कि कनिष्क के 18 वें वर्ष में इन स्तूपों को बनवाया गया था।

सिर्फ बुद्ध के अवशेषों पर ही नहीं बल्कि कनिष्क ने बौद्ध साहित्य की टीकाओं को भी ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण करा कर विशेष रूप से निर्मित एक स्तूप में सुरक्षित रखवाया था। ह्वेनसांग ने इस पर विस्तार से लिखा है।

स्तूप- निर्माण की परंपरा अशोक और कनिष्क के बाद हर्षवर्धन के शासन-काल में सर्वाधिक समृद्ध हुई।

सम्राट हर्षवर्धन ने विक्रमादित्य की नहीं बल्कि शीलादित्य की उपाधि धारण की थी। शीलादित्य वह है, जिसे विक्रम ( बल ) से अधिक शील पसंद हो।

वहीं शील जिसे बुद्ध ने अपनी देशना में प्रमुख स्थान दिया था।

वो शिलादित्य ऐसे शीलवान निकले कि हर 5 वें वर्ष अपना संपूर्ण खजाना गरीबों- असहायों को दान कर देते थे।

ह्वेनसांग ने लिखा है कि उन्होंने गंगा के किनारों पर कई हजार स्तूप सौ - सौ फीट ऊँचे बनवाए।

सब स्थानों पर जहाँ - जहाँ गौतम बुद्ध के कुछ भी चिह्न थे, संघाराम स्थापित किए।

इतिहास से सवाल है कि आखिर शीलादित्य के बनवाए हजारों स्तूप और संघाराम कहाँ गए?

ह्वेनसांग ने पूर्वी भारत में अशोक द्वारा निर्मित ताम्रलिप्ति, कर्णसुवर्ण, समतट और पुण्ड्रवर्धन में स्तूपों का उल्लेख किया है। महास्थानगढ़ अभिलेख से भी यह पुष्ट होता है। बाद के पाल शासकों ने पूर्वी भारत में बौद्ध धर्म का संरक्षण प्रदान किए।

पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार में पाल कालीन अनेक स्तूपों के अवशेष मिलते हैं।

पाल वंश के बड़े राजाओं में देवपाल ( 810 - 850 ) शुमार हैं। उत्साही बौद्ध थे। 40 बरसों का शासन था। सुजाता स्तूप का आखिरी पुनर्निर्माण इन्होंने ने ही कराए थे। वहाँ के उत्खनन से प्राप्त एक अभिलेख से इसकी पुष्टि होती है। ( चित्र - 9 )

पश्चिमोत्तर और उत्तरी भारत में स्तूप - निर्माण की जो परंपरा सिंधु घाटी सभ्यता से चली थी, वह पाल कालीन पूर्वी भारत में 12 वीं सदी तक अनवरत चलती रही।

7.

बौद्ध सभ्यता के प्रचार - प्रसार का जो काम उत्तर के मौर्यों ने किया, वही काम दक्षिण में सातवाहनों ने किया।

अशोक के सभी अभिलेख प्राकृत में हैं तो सातवाहनों के भी सभी अभिलेख प्राकृत में हैं।

उत्तर में मौर्य काल तक संस्कृत के अभिलेख नहीं मिलते हैं तो दक्षिण में भी सातवाहन काल तक संस्कृत के अभिलेख नहीं मिलते हैं।

मौर्यों ने अनेक स्तूप, चैत्य और विहार बनवाए तो सातवाहनों ने भी अनेक स्तूप, चैत्य और विहार बनवाए।

अमरावती, गोली, जगय्यपेटा, घंटसाल, भट्टीप्रोलु, नागार्जुन कोंडा जैसे स्थानों के स्तूप इन्हीं सातवाहनों के हैं। ( चित्र- 10 )

बौद्ध स्थलों में से पूर्वोत्तर भारत स्थित बौद्ध स्मारकों का जिक्र कम होता है। हिंदी इतिहासों में इसका उल्लेख नगण्य है।

त्रिपुरा के सेपहीजाला जिले में बोक्सानगर है। बोक्सानगर का प्राचीन नाम अभिलेखों के आधार पर बिराक बताया जाता है। यह एक विराट बौद्ध स्थल है।

इस विराट बौद्ध स्थल को खुदाई से पहले मानसा का स्मारक कहा जाता था। मानसा सर्पों की देवी हैं। साल 1997 के जुलाई महीने में पुरातत्वविद डाॅ. जीतेन्द्र दास यहाँ आए। उन्हें यहाँ गौतम बुद्ध की मूर्ति मिली। वे अनुमान कर लिए कि बोक्सानगर बौद्ध स्थल है और इसकी सूचना उन्होंने पुरातत्व विभाग को दे दी।

पुरातत्व विभाग ने 2001 से 2004 तक बोक्सानगर की खुदाई की। खुदाई में विशाल बौद्ध स्तूप, चैत्यगृह, बौद्ध विहार, बुद्ध की कांस्य मूर्तियाँ, ब्राह्मी अभिलेखित सील तथा अन्य बौद्ध अवशेष मिले। ( चित्र - 11)

स्तूप विशाल और शानदार है। चैत्यगृह आयताकार और स्तूप के पूरब दिशा में है। चैत्यगृह से पूरब बौद्ध विहार है। बौद्ध विहार का गलियारा काफी लंबा है। गलियारा के दोनों ओर भिक्षुओं के लिए कमरे बने हैं।

दक्षिण त्रिपुरा में पिलक है। पिलक का प्राचीन नाम पिरोक बताया जाता है। पिलक की पहचान भी बौद्ध स्थल के रूप में हुई है। पिलक के उत्खनन से भी बौद्ध स्तूप और बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।

पूर्वोत्तर भारत कभी बौद्ध सभ्यता के प्रभाव में था।

न केवल संपूर्ण भारत में बल्कि भारत के बाहर भी स्तूप बनाए जाने की समृद्ध परंपरा रही है prof Dr Rajendra Prasad Singh

user image ArunKumar PRASAD - 06 Feb 2021 at 7:09 PM -

शाश्वत हो हमारा गणतन्त्र दिवस

शाश्वत हो हमारा गणतन्त्र दिवस।
हमें रहे बचाए सदा होने से परवश।
हमारी आकांक्षा को प्रभु का वर रहे।
स्वतंत्रताएँ सारे विश्व में अमर रहे।
प्राप्त हो गणतन्त्र को नेतृत्व श्रेष्ठ।
पारित,संचालित हो होता हुआ ज्येष्ठ।
शब्दों की भाषा ही कर्म भी बोले।
नेतृत्व सर्वदा ही अपने को तौले।
न्याय की प्रक्रिया हो ... शुद्ध जीवंत।
दंड का विधान कभी न बने आतंक।
शासन में शासित की अदम्य आस्था,
बनी रहे अखंडित, प्रभु का वास्ता!
गणतन्त्र एकता, अनेकता का है।
यह विचार हो परम,देवता का है।
‘वाद’ सारे ढोंग के पर्याय हैं बने।
देखिये हैं कैसे आमने-सामने तने।
सुख मर्यादित हो स्वच्छ्न्द नहीं।
जबतक दु:खों का हो विघटन नहीं।
संसाधन साधन हो कल्याण का।
रक्षक बन खड़ा रहे सारे प्राण का।
शिक्षा ही शौर्य हो शिक्षा सौंदर्य।
शिक्षा से बढ़कर क्या कोई ऐश्वर्य!
गणतन्त्र प्रतिज्ञा हो और संकल्प।
इसके सिवा न मानो कोई विकल्प।
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अरुण कुमार प्रसाद

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 01 Feb 2021 at 5:31 AM -

मेलेनिन या मेलानिन

भारत में 80% से भी ज्यादा लोग सांवले या काले होंगे। उनमें से ज्यादातर गरीब भी हैं। इसलिए उनके चेहरे से या कपड़ों से उतना सौंदर्य नहीं झलकता जितना कि गोरे और धनवान लोगों में झलकता है।

उक्त कारणों से भारत में गोरा होना एक बहुत ... बड़ी उपलब्धि जैसा प्रतीत होता है।

इसके विपरीत सत्यता यह है कि गोरापन एक अत्यंत उपयोगी यौगिक मेलानिन की कमी के कारण होता है।

मेलानिन काला होता है और इसका अधिकांश भाग चमड़ी में पाया जाता है। यह धूप सोखने में तथा धूप से होने वाले कैंसर को रोकने में मददगार होता है। इस तरह विटामिन डी की कमी दूर करने के लिए काले व्यक्ति को धूप में ज्यादा देर तक रहने की जरूरत नहीं पड़ती।

इस तरह हम देखते हैं कि यह विटामिन डी बनाने में जितना ज्यादा मददगार होता है उससे भी कई गुना ज्यादा यह कैंसर रोकने में मददगार होता है।

इसलिए सांवले या काले लोगों को अपने काले होने के कारण कोई हीन भावना पालने के बजाय उसका फायदा उठाना चाहिए और गोरे लोगों को अपना डीएनए श्रेष्ठ होने की गलतफहमी पालने से बचना चाहिए।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 08 Jul 2020 at 9:38 AM -

बड़ा कौन

एक सूफी कहानी आप सबके साथ साझा कर रहा हूँ..

एक हाजी साहब थे जो एक कपड़े की बहुत बड़ी फैक्ट्री के मालिक थे.. कुछ दिनों बाद हाजी साहब को अल्लाह से लौ लग गयी.. उनके जीवन में ऐसा कुछ घटा कि उन्होंने अपनी फैक्ट्री और ... सारा कारोबार बंद कर दिया और सूफ़ी बन गए.. अब लोग उन्हें सूफ़ी साहब के नाम से जानने लगे.. अब सूफ़ी साहब सिर्फ अल्लाह की इबादत करते और शाम को बैठते और अपने मुरीदों को प्रवचन देते।

एक दिन सूफ़ी साहब ने अपने मुरीदों को अपने व्यवसायी से सूफ़ी बनने की घटना सुनाई..

सूफी साहब ने कहा कि "एक दिन जब मैं अपनी फैक्ट्री में बैठा था उसी समय एक कुत्ता घायल अवस्था में वहां आता है.. वो किसी गाड़ी से कुचल गया था जिससे उसके तीन पैर टूट गए थे और वो सिर्फ एक पैर से घिसटते हुवे फैक्ट्री तक आया.. मुझे बहुत तरस आया और मैंने सोचा कि उस कुत्ते को किसी जानवरों के अस्पताल में ले जाऊं. मगर फिर अस्पताल के लिए तैयार होते समय मेरे दिमाग़ में एक बात आई और मैं रुक गया.. मैंने सोचा कि अगर अल्लाह हर किसी को खाना देता है तो मुझे अब देखना है कि इस कुत्ते को कैसे खाना मिलेगा.. रात तक दूर बैठे उसे मैं देखता रहा और फिर अचानक मैंने देखा कि एक दूसरा कुत्ता फैक्टरी के दरवाज़े से नीचे घुसा और उसके मुह में रोटी का एक टुकड़ा था.. उस कुत्ते ने वो रोटी उस कुत्ते को दी और घायल कुत्ते ने किसी तरह उसे खाया.. फिर ये रोज़ का काम हो गया.. वो कुत्ता वहां आता और उसे रोटी देता या कोई और खाने की चीज़ और वो घायल कुत्ता ऐसे खा खा के चलने के क़ाबिल बन गया.. मुझे ये देखकर अल्लाह पर अब ऐसा भरोसा हो गया कि मैंने अपनी फैक्ट्री बंद की.. कारोबार पर ताला लगाया और अल्लाह की राह में निकल पड़ा.. और सूफ़ी बनने के बाद भी मेरे पास पैसे उसी तरह किसी न किसी बहाने आते रहे जैसे पहले आते थे.. ठीक वैसे जैसे उस कुत्ते को दूसरा कुत्ता रोटी खिलाता था रोज़"

सूफ़ी साहब की ये कहानी सुनकर उनका एक मुरीद ज़ोर ज़ोर से हंसने लगा.. सूफ़ी साहब ने जब वजह पूछी तो उसने कहा कि "आपने ये तो देख लिया सूफ़ी साहब कि अल्लाह ने उस कुत्ते का पेट भरा मगर आप ये न समझ सके कि उन दो कुत्तों में से बड़ा कुत्ता कौन है? जो खाना खा रहा है वो बड़ा है या जो कुत्ता उसे ला कर खिला रहा है वो बड़ा है? आप खाना खाने वाले घायल कुत्ते बन गए और अपना कारोबार बंद कर दिया.. जबकि पहले आप खाना खिलाने वाले कुत्ते थे क्यूंकि आपकी फैक्ट्री से हज़ारों लोगों को खाना मिलता था.. आप खुद बताईये कि पहले जो काम आप कर रहे थे वो अल्लाह की नज़र में बड़ा था या अब जो कर रहे हैं वो?"

सूफ़ी साहब की आँखें खुल गयीं.. और उन्होंने दूसरे ही दिन अपना कारोबार फिर से शुरू कर दिया और सूफ़ी साहब फिर से व्यवसायी हाजी साहब बन गए

~सिद्धार्थ ताबिश

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 04 Jul 2020 at 7:27 AM -

पागी अर्थात पग विशेषज्ञ

Anil Malikजी ओर Hukma Ram Jhorar जी की वाल से

नीचे फोटो में जो वृद्ध गड़रिया है वास्तव में ये सेना का सबसे बड़ा राजदार था पूरी पोस्ट पड़ो इनके चरणों मे आपका सर अपने आप झुक जाएगा, 2008 फील्ड मार्शल *मानेक शॉ* वेलिंगटन अस्पताल, ... तमिलनाडु में भर्ती थे। गम्भीर अस्वस्थता तथा अर्धमूर्छा में वे एक नाम अक्सर लेते थे - *'पागी-पागी!'* डाक्टरों ने एक दिन पूछ दिया “Sir, who is this Paagi?”

सैम साहब ने खुद ही brief किया...

1971 भारत युद्ध जीत चुका था, जनरल मानेक शॉ *ढाका* में थे। आदेश दिया कि पागी को बुलवाओ, dinner आज उसके साथ करूँगा! हेलिकॉप्टर भेजा गया। हेलिकॉप्टर पर सवार होते समय पागी की एक थैली नीचे रह गई, जिसे उठाने के लिए हेलिकॉप्टर वापस उतारा गया था। अधिकारियों ने नियमानुसार हेलिकॉप्टर में रखने से पहले थैली खोलकर देखी तो दंग रह गए, क्योंकि उसमें दो रोटी, प्याज तथा बेसन का एक पकवान (गाठिया) भर था। Dinner में एक रोटी सैम साहब ने खाई एवं दूसरी पागी ने।

*उत्तर गुजरात* के *सुईगाँव* अन्तर्राष्ट्रीय सीमा क्षेत्र की एक border post को *रणछोड़दास post* नाम दिया गया। यह पहली बार हुआ कि किसी आम आदमी के नाम पर सेना की कोई post हो, साथ ही उनकी मूर्ति भी लगाई गई हो।

पागी यानी *'मार्गदर्शक'*, वो व्यक्ति जो रेगिस्तान में रास्ता दिखाए। *'रणछोड़दास रबारी'* को जनरल सैम मानिक शॉ इसी नाम से बुलाते थे।

गुजरात के *बनासकांठा* ज़िले के पाकिस्तान सीमा से सटे गाँव *पेथापुर गथड़ों* के थे रणछोड़दास। भेड़, बकरी व ऊँट पालन का काम करते थे। जीवन में बदलाव तब आया जब उन्हें 58 वर्ष की आयु में बनासकांठा के पुलिस अधीक्षक *वनराज सिंह झाला* ने उन्हें पुलिस के मार्गदर्शक के रूप में रख लिया।

*हुनर इतना कि ऊँट के पैरों के निशान देखकर बता देते थे कि उस पर कितने आदमी सवार हैं। इन्सानी पैरों के निशान देखकर वज़न से लेकर उम्र तक का अन्दाज़ा लगा लेते थे। कितनी देर पहले का निशान है तथा कितनी दूर तक गया होगा सब एकदम सटीक आँकलन जैसे कोई कम्प्यूटर गणना कर रहा हो।*

1965 युद्ध की आरम्भ में पाकिस्तान सेना ने भारत के गुजरात में *कच्छ* सीमा स्थित *विधकोट* पर कब्ज़ा कर लिया, इस मुठभेड़ में लगभग 100 भारतीय सैनिक हत हो गये थे तथा भारतीय सेना की एक 10000 सैनिकोंवाली टुकड़ी को तीन दिन में *छारकोट* पहुँचना आवश्यक था। तब आवश्यकता पड़ी थी पहली बार रणछोडदास पागी की! रेगिस्तानी रास्तों पर अपनी पकड़ की बदौलत उन्होंने सेना को तय समय से 12 घण्टे पहले मञ्ज़िल तक पहुँचा दिया था। सेना के मार्गदर्शन के लिए उन्हें सैम साहब ने खुद चुना था तथा सेना में एक विशेष पद सृजित किया गया था *'पागी'* अर्थात पग अथवा पैरों का जानकार।

भारतीय सीमा में छिपे 1200 पाकिस्तानी सैनिकों की location तथा अनुमानित संख्या केवल उनके पदचिह्नों से पता कर भारतीय सेना को बता दी थी, तथा इतना काफ़ी था भारतीय सेना के लिए वो मोर्चा जीतने के लिए।

1971 युद्ध में सेना के मार्गदर्शन के साथ-साथ अग्रिम मोर्चे तक गोला-बारूद पहुँचवाना भी पागी के काम का हिस्सा था। *पाकिस्तान* के *पालीनगर* शहर पर जो भारतीय तिरंगा फहरा था उस जीत में पागी की भूमिका अहम थी। सैम साब ने स्वयं ₹300 का नक़द पुरस्कार अपनी जेब से दिया था।

पागी को तीन सम्मान भी मिले 65 व 71 युद्ध में उनके योगदान के लिए - *संग्राम पदक, पुलिस पदक* व *समर सेवा पदक*!

27 जून 2008 को सैम मानिक शॉ की मृत्यु हुई तथा 2009 में पागी ने भी सेना से 'स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति' ले ली। तब पागी की उम्र 108 वर्ष थी ! जी हाँ, आपने सही पढ़ा... 108 वर्ष की उम्र में 'स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति'! सन् 2013 में 112 वर्ष की आयु में पागी का निधन हो गया।

आज भी वे गुजराती लोकगीतों का हिस्सा हैं। उनकी शौर्य गाथाएँ युगों तक गाई जाएँगी। अपनी देशभक्ति, वीरता, बहादुरी, त्याग, समर्पण तथा शालीनता के कारण भारतीय सैन्य इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गए रणछोड़दास रबारी यानि हमारे 'पागी'।

चित्र उन्हीं का है।
साभार

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 02 Jul 2020 at 6:04 AM -

टाइटन titan

दोस्तो मैं आज आपको शनि ग्रह के चंद्रमा टाइटन के बारे में कुछ बताना चाहता हूँ।
टाइटन शनि ग्रह का उपग्रह होने के साथ साथ अपनी विशेषताएँ भी रखता है क्योंकि इसका आकार बुध ग्रह से बड़ा है -
टाइटन (Titan), सौर मंडल के शनि ... ग्रह का सबसे बड़ा चंद्रमा है। यह सौर मंडल के सभी चंद्रमाओं में वातावरण वाला एकमात्र ज्ञात चंद्रमा है, और पृथ्वी के अलावा एकमात्र ऐसा खगोलीय पिंड है जिसके सतही तरल स्थानों, जैसे नहरों, सागरों आदि के ठोस प्रमाण उपलब्ध हों।
शनि के इस उपग्रह और पृथ्वी के बीच और भी कई समानताएं हैं। टाइटन पर ज्वालामुखी जैसी क्रियाएं भी देखने में आती हैं और यहां खाइयां, नदियों के पाट और मुहाने भी दिखते हैं, किन्तु बड़े पहाड़ नहीं दिखे। बहुत कम क्रेटर-जैसे गोलाकार गड्ढे हैं और किसी प्रकार का जीवन नहीं है। वातावरण अत्यंत ठंडा है। तरल मीथेन यहां पानी का काम करती है। हवा में प्रतिध्वनि भी होती है, पृथ्वी की तरह तरंगें भी पैदा होती हैं।
यह चंद्रमा पृथ्वी की अपेक्षा बेहद ठंडा है और औसत तापमान शून्य से भी 180 डिग्री सेल्सियस नीचे है, जो साइबेरिया से भी तीन गुना ठंडा है। नदियों और झीलों में पानी के बदले तरल मीथेन गैस बहती है। ज्वालामुखी से बर्फीली अमोनिया निकलती है। वायुमंडल में 98.4 प्रतिशत नाइट्रोजन गैस है और शेष 1.6 प्रतिशत अन्य गैसें हैं जिसमें मीथेन का अनुपात सर्वाधिक है। वायुमंडल बहुत सघन और गुरुत्वाकर्षण बल कम है। टाइटन शनि का सबसे बड़ा उपग्रह है। 5.150 किलोमीटर व्यास वाला ये चंद्रमा पृथ्वी के चंद्रमा से 1.624 किलोमीटर बड़ा है। उसका घना वायुमंडल पृथ्वी के वायुमंडल के विपरीत एक ऐसा विलोम ग्रीनहाउस प्रभाव पैदा करता है कि सूर्य की किरणें अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाती हैं। इस कारण उसे जितना ठंडा होना चाहिये, उससे कहीं अधिक ठंडा है।
अफसोस की बात ये है कि टाइटन तेज गति से शनि ग्रह से दूर होता जा रहा है ठीक उसी प्रकार जैसे चांद पृथ्वी से हर साल 1.5 इंच दूर हो जाता है।

राहुल सेन से साभार

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 27 Jun 2020 at 3:10 PM -

भारतीय संविधान

भारत में संविधान का पालन बल पूर्वक कराए जाने की कोई व्यवस्था नहीं है।
सरकार करे तो ठीक, न करे तो ठीक।
मैं बीसों साल से बोल रहा हूँ कि संविधान की महानता के भ्रम में मत रहो। कोई सरकार इसको नहीं मानेगी तो उसका क्या कर ... लोगे।

आखिरकार मोदी जी ने मेरी बात को सच साबित कर दिया। अब मैं आरएसएस वालों को भी समझाना चाहता हूँ कि संविधान बदलने का पागलपन करने से भी क्या फायदा जब चुनी हुई सरकारों को मानना ही न हो। हमारा संविधान वर्तमान संविधान से करीब एक तिहाई होना चाहिए ताकि अधिसंख्य मतदाताओं को पढ़वाया जा सके और फिर यदि कोई सरकार उसका उल्लंघन करे तो अगले चुनाव में उसको सबक सिखाया जा सके।

हमारा संविधान तो बहुत बड़ा है लेकिन अधिसंख्य मतदाताओं को पढ़ने में रुचि ही नहीं है। अधिकांश को लॉजिक भी नहीं पता बस सरकार चुनने का अधिकार है उनके पास। वास्तविक दशा ऐसी है कि देश का बुद्धिमान वर्ग अल्पसंख्यक होने के कारण मजबूर है और वोट का अधिकार रखते हुए भी मूकदर्शक जैसा है और जनप्रतिनिधि वो लोग चुन रहे हैं जिनको अपना घर संवारने तक की सलाहियत नहीं है। यही वजह है कि हम सरकार बदल बदल कर भी अपेक्षित परिणाम नहीं हासिल कर पा रहे हैं।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 23 Jun 2020 at 8:04 AM -

अष्टांग योग

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि।।

ये 8 चरण योग के बताए गए हैं। ये काफी हद तक अनुमानित हैं। इन शब्दों का प्रयोग आज या तो नहीं हो रहा या फिर भिन्न अर्थों में ज्यादा हो रहा है।

यह वह शास्त्र है जिसके वास्तविक ... जानकार की पहचान होना आसान नहीं है।

सामान्य व्यक्ति के लिए योग का मतलब आसन, प्राणायाम तथा व्यायाम ही है।

जो इससे थोड़ा ऊपर हैं वो धारणा और ध्यान तक पहुंच जाते हैं।

समाधि तक पहुंचने वाले मुझ जैसे विरले ही हैं।

यह जिस प्रकार 8 चरणों मे बांटा गया है वैसा आवश्यक नहीं है।

इसको निम्नवत समझना चाहिए-
1- समाधि के लिए तन, इंद्रियों और मन पर पूर्ण नियंत्रण का अभ्यास होना चाहिए। शरीर मे हीमोग्लोबिन पर्याप्त होना चाहिए। हीमोग्लोबिन के साथ ऑक्सीजन की सर्वांग अबाध आपूर्ति के लिए नसों, धमनियों, हृदय और फेफड़ों का स्वस्थ तथा बाधामुक्त होना आवश्यक है। मनुष्य को साहसी और गुरु पर विश्वास करने वाला होना चाहिए क्योंकि समाधि में पहुंचते समय मृत्यु न हो जाये ऐसी आशंका जन्म लेने लगती है। समाधि के दौरान व्यक्ति सांस भी नहीं लेता किन्तु जिस प्रकार एक कमरे में एक खिड़की खुली हो तो अणुओं की स्वाभाविक गति के कारण कुछ न कुछ ताजी हवा अपने आप अंदर आती रहती है उसी प्रकार नासिकाओं से मंद गति से ऑक्सीजन फेफड़ों तक पहुंचती रहती है। पहले पहल समाधि में एक घंटे से अधिक देर रहना खतरनाक हो सकता है किंतु बार बार अभ्यास करने से यह अवधि 3 या 4 घंटे तक बढ़ सकती है।
2- ध्यान के लिए मस्तिष्क में अबाध रक्तसंचार और अन्य इंद्रियों पर नियंत्रण आवश्यक है।
3- धारणा का यौगिक तात्पर्य वायु अर्थात ऑक्सीजन धारण करने की क्षमता है। जब आप करीब आधा मिनट से पौने दो मिनट प्रति स्वास की अति मंद गति पर घंटे भर तक रह सकने की क्षमता हासिल कर लें तो यह मानना चाहिए कि आपमे धारणा शक्ति आ गयी है। ऊपरी सीमा आपके समाधि में रह सकने की शारीरिक क्षमता का द्योतक है।
4- आसन और प्राणायाम के बिना ध्यान और धारणा का विकास संभव नहीं है।
5- नियमित व्यायाम के बिना समाधि संभव नहीं है। ध्यान के विकास के लिए भी नियमित व्यायाम बहुत फायदेमंद है।
6- बाकी बातें गुरु जी की अपनी शर्तें हैं।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 22 Jun 2020 at 8:09 AM -

भारतीय व्यवस्था

बहुत जबरदस्त लिखा है लेखक का नाम है चित्रगुप्त। .....
साँप का काटा
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आदमी को मारने के लिए सरकारी वायदे, विपक्ष के ताने, कवियों की कविताएं और सरकारी कर्मचारियों की धूर्तताएँ कम थीं क्या जो अब साँप ने भी काट लिया? अरे भाई मरने का भी कोई ... कायदा कानून होता है? इतने चुस्त और दुरुस्त प्रशासन में सरकारी अनुमति के बगैर कोई ऐसे कैसे मर सकता है? टीवी पर बैठा एंकर अभी पैनल में शामिल अन्य कुछ बयान बहादुरों को गरम करने की कोशिश कर ही रहा था कि बिजली चली गई।
...और उधर कार का शीशा नीचे करते हुए सीएमओ साब ने धरने पर बैठे सुग्घरवा से पूछा- "काहे बैठे हो?"
"बेटे को सांप ने काट लिया है सरकार और उसका इलाज हो नहीं रहा..." सुग्घरवा ने उत्तर दिया।
"सांप ने तो पुत्तनवा के बेटे को भी काटा था और इलाज तो उसका भी नहीं हुआ था तब तुम धरना देने नहीं आये थे?" सीएमओ साहब इतना बोलकर आगे बढ़ गए तब तक इलाके की पुलिस चौकी के इंचार्ज की आमद हुई...
"का रे सुग्घरवा ...! काहे धरना दे रहा है, सुना है बेटे को सांप ने काट लिया?"
"हां सरकार..." इस बार जवाब सुग्घरवा की बीवी ने दिया था।
"तुम गांव वाले पूरे ही बुड़बक हो यही तो है। जब सांप काटने के लिए आ रहा था उसी समय तुमने उसके खिलाफ एफआईआर करवाना चाहिए था। फिर देखते वो स्साला सांप एक बार थाने पुलिस के चक्कर में आ जाता तब हम बताते कि ज्यादा जहर किसमें है।"
सुग्घरवा रोते बिलखते इंचार्ज साहब का मुंह देख ही रहा था कि नेता विपक्ष सफेद कुर्ता अपनी चमक बिखेरता हुआ उसकी आँखों में धंस गया। सांप वाले डॉक्टर इन्ही नेता जी के बहनोई थे। सुग्घरवा उनके ओर बढ़ने ही वाला था कि ब्यवस्थापकों द्वारा रोक दिया गया। "अरे रुको रुको अभी हमारा कैमरे वाला नहीं आया है। पहले उसे आने दो फिर मिलना भेटना सब होगा नेता जी की पूरी संवेदना आपके साथ है ।
"सरकार अपने बहनोई से कहकर अगर इलाज करा देते तो मेरा कुल दीपक बुझने से बच जाता...." सुग्घर ने हाथ जोड़ते हुए कहा
"अगले चुनाव में नेता जी को जिताइये फिर होगा ये सब अभी तो ये बस अपना सपोर्ट दिखाने आये हैं।" नेता जी के आगे खड़े मार्गदर्शक मंडल के प्रतिनिधि टाइप नेता ने कहा...
ये सब चल ही रहा था कि सरकार की आकाशवाणी गूंजने लगी.....
"सुग्घर .... ये सुग्घर...! शायद तुम्हें पता नहीं होगा कि हमारी सरकार ने ऐसी योजना बनाई है जिसमें तुम्हारे पूरे परिवार का मुफ्त में इलाज होगा। तुम्हे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमने एक मोबाइल एप्प भी बनाया है जिसे मोबाइल में डालकर रखो तो वो बताएगा कि सांप किस तरफ से आने वाला है और इसके अलावा हमने ऐसी व्यवस्था भी की है कि सांप अगर काटने के लिए आएगा तो हम तुरंत नेवला छोड़ देंगे। तुम्हें बस नेवला छोड़ने के लिए अपने पास वाले नेवला केंद्र में जाकर एक अर्जी ही लगानी होगी बस....."
"पर सरकार ये नेवला केंद्र है कहाँ?" वहीं पर मौजूद एक सफाई कर्मचारी जिसने आज तक झाड़ू का मुंह तक नहीं देखा पर तनख्वाह में एक दिन भी लेट मंजूर नहीं, ने पूछा-
आकाशवाणी ने थोड़ा सा खिसियाया हुआ सा मुंह बनाया (ऐसा अनुमान है, पर नेता खिसियाये ये जरूरी भी नहीं है) और बोली उसे बनाने पर अभी विचार चल रहा है।
आकाशवाणी भाइयों बहनों करती हुई बंद हुई तब तक सरकारी सपेरा कहीं से अपनी बीन पकड़े हुए प्रकट हुआ। जिसे बीन बजाना और सांप पकड़ना छोड़कर सारे काम आते थे। इसलिए उसनेे बीन इसके लिए अलग से खानदानी गरीब टाइप का एक सपेरा रख रखा था। जिसने आते ही बीन बजानी शुरू कर दी। अभी तक जितने भी लोग सुग्घर का धरना देखने के लिए जुटे थे वे सब अब उसका बीन बजाना देखने लगे। थोड़ी देर में ही सांप का भी आगमन हुआ जिसे देखकर सरकारी सपेरा डरके मारे बीन बजाने वाले के पीछे छुप गया।
"तुमने इस गरीब बालक को क्यों काटा...?"बीन बजाने वाले ने पूछा
"सरकार हम कोई आदमी नहीं हैं जो आदमी को काटें" सांप ने उत्तर दिया।
"तो फिर ....?"
"तो फिर क्या? ये बांस के झुरमुट में कुछ कर रहा था वहीं इसे कोई कांटा गड़ गया ठीक उसी समय मैं भी वहाँ से जा रहा था तो ये साँप साँप चिल्लाकर वहाँ से भाग खड़ा हुआ।
"मल्लब तुमने काटा ही नहीं..."
"न सरकार"
इतना सुनना था कि अब तक अचेत पड़ा सुग्घरवा का बेटा उठकर बैठ गया।
#चित्रगुप्त

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 21 Jun 2020 at 6:53 PM -

आत्मनिर्भर भारत

चीन दुनिया की फैक्ट्री है,आप इसे स्वीकार कीजिये या मत कीजिये । क्या हमारे कारखाने उस क्वालिटी का और उतना माल बनाने के लिए तैयार हैं ? फैक्ट्री मालिकों से नजदीकी होने के नाते मेरा अनुभव यह है कि हम लोग इंजीनियरिंग और खासकर मैन्युफैक्चरिंग ... के मामले में दुनिया से बहुत पिछड़े हुए हैं।

अपनी फैक्ट्री में एक छोटी सी मशीन बनवाने, या किसी डाई को रिपेयर कराने के लिए हमे जो संघर्ष करना पड़ता है, वह सबको हैरान करता है कि हर साल करोड़ों ग्रैजुएट्स उगलने वाले इस देश के महान शिक्षा संस्थान क्यों कुछ ऐसे लोग नहीं दे पाते जो ठीक से एक डाई भी बना सकें। पिछले 20 सालों की आर्थिक तेजी में जो थोड़ा बहुत कमाल हमने दिखाया है, वह बस सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में है, मैन्युफैक्चरिंग के मामले में हम निकम्मे हैं।

क्या ऐसा इसलिए है कि भारत चिंतन करने वालों का देश रहा है। हाथ से काम करने को यहां नीची निगाह से देखा जाता है , इसलिए हमारी आबादी के सारे तेज दिमाग लोग किसी ऐसे पेशे में नहीं जाते जिसमे हाथ का काम हो। वे सिर्फ पढ़ते, सोचते हैं ! एक अमूर्त कंप्यूटर प्रोग्राम को डिकोड करना हमारे लिए अधिक आसान है बजाएं रंदा चलाकर एक लकड़ी को सीधा करने के ।

हमारे सारे शिक्षा संस्थान सिर्फ सोचना सिखाते हैं, करना नहीं। ऐसे में उस चीन से हम कैसे जीतेंगे जो आठवीं क्लास पास करने के बाद ही बच्चे को सीधे ही कोई हुनर सिखाते हैं,वोकेशनल कोर्स कराते हैं। साथियों ने चीन यात्रा से लौटने के बाद बताया कि चीन ने अपने हुनरमंदों की इज्जत की,उन्हें उद्यमी बनाया। दूसरी तरफ सरकार ने इनफॉरमल इकोनामी कह कर उनकी बेइज्जती की। सरकारी अफसरों ने उन्हें इतना डराया धमकाया कि वे बड़े होने से डरने लगे।
हमारे देश में परंपरा से जो हुनरमंद आते हैं उनकी कद्र बड़ी इंजीनियरिंग इंडस्ट्रीज़ ने भी नहीं की। सिर्फ इसलिए क्योंकि ये हुनरमंद एक अलग भाषा में बात करते हैं। उनकी शब्दावली उनकी दुनिया की है। इसलिए हमारे यहां ये दोनों दुनियाऐं अलग अलग समानांतर चलती रहीं और एक दूसरे को कोई फायदा नहीं पहुंचा पााईं। अगर पढ़े-लिखे इंजीनियर अपना अहंकार छोड़ कर इन दोनों दुनियाओं के बीच में पुल बनाने की कोशिश करते तो आज हम मैन्युफैक्चरिंग के मामले में इतने पिछड़े ना होते।
अब आइए जिसे हम डेमोग्राफिक डिविडेंड मानकर इतराते हैं, उसकी पड़ताल करें।

बेशक हमारे युवा संख्या में बहुत हैं, पर एक बार उनकी क्वालिटी पर भी नजर डालिये। स्कूल कालेजों से कच्ची पक्की परीक्षाएं पास किए यह लोग अब खेती करने में बेइज्जती महसूस करते हैं, पर उनके पास ऐसा कोई ज्ञान या हुनर नहीं है जो फैक्ट्रियों के काम का हो। बारहवीं पास बच्चा किराने की दुकान पर सामान का हिसाब भी ठीक से नहीं जोड़ सकता। हमारे स्कूलों के पाठ्यक्रमों में ऐसा कुछ नहीं है जो बाजार के काम का हो।

चीन से बराबरी करने का सपना देखने वालों को वहां काम करने वाली महिलाओं की संख्या भी देखना चाहिए। हमने देश की 50% आबादी को बेकार घर पर बिठा रखा है। पिछले कुछ सालों की कालेजों की मेरिट लिस्ट उठा कर देखिए। ज्यादातर गोल्ड मेडल लड़कियों ने हासिल किये हैं। वे लड़कियां दफ्तरों दुकानों में क्यों दिखाई नहीं देतीं ? जो समाज इन गोल्ड मेडलों को बैंगल बॉक्स की मखमली कब्रगाहों में दफन कर देता हो उसे डेमोग्राफिक डिविडेंड पर बात करने का क्या हक है ?

मगर सरकार की आर्थिक नीतियों के आधार जीडीपी की ग्रोथ का अंदाज़ा लगाने वाला समाज अपनी बुराइयों पर बात करना नहीं चाहता । तरक्की का सारा जिम्मा हमने फाइनेंस मिनिस्टरी पर ही डाल रखा है जो बेहद गलत है ।

चीन से बराबरी के सपने देखता समाज चीन की कार्य संस्कृति को क्यों नहीं देखता ? हमारे कारखानों में कामगारों के साल के औसत कार्य दिवस दुनिया के मुकाबले बहुत कम हैं। व्रत, उपवास, शादी ब्याह, त्यौहार , भोजन भंडारे का एक लगातार सिलसिला है जो हमारे लिए काम से ज़्यादा बड़ी प्राथमिकता है।

होली दिवाली, ईद, शादी ब्याह का मौसम, हमारे फैक्ट्री मैनेजर और कंस्ट्रक्शन साइट के सुपरवाइजरोंं के लिए डरावने ख्वाब की तरह आते हैंं, इन सब का मतलब होता हैै हफ्तों के लिए काम बन्द.... भले ही कितने ही जरूरी आर्डर पेंडिंग पड़े रहें।

कारपोरेट के हमारे मैनेजर इंनइफिशिएंट हैं । हमने मैनेजर बनने की एकमात्र योग्यता टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलना बना रखी है। ज्यादातर मैनेजर बस यही एक काम जानते हैं, वह भी ठीक से नहीं जानते । कनेक्टिंग फ्लाइट पकड़ने को अपने व्यस्त रहने का प्रमाण मानते हैं,फाइव स्टार होटलों में बेतुके प्रेजेंटेशन करते ये मैनेजर दुनिया मे हो रहे बदलावों के बारे में कुछ नहीं जानते।

ज्यादातर कारपोरेट मैनेजर बस एक दूसरे को रिपोर्ट देने का काम करते हैं, जिसमें कोई काम की बात नहीं होती। सरकारी तंत्र की जिन बुराइयों से घबरा कर हम प्राइवेट कारपोरेट की शरण में आए थे, अब वह भी उसी भ्रष्टाचार और अक्षमता के शिकार हो गए हैं। वे रिश्वत नहीं लेते, पर मोटी तनख्वाह लेकर बस एक दूसरे के ईगो को सहलाना, जिम्मेदारी से भागना, निर्णय न ले पाना भी एक किस्म का भ्रष्टाचार है। यह बात मैं किसी किताब में पढ़कर नहीं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कहता हूं।

आप सोचेंगे यदि भारतीय समाज में इतनी बुराइयां हैं तो फिर 20 -30 सालों में हमने इतनी तरक्की कैसे की है ???

मेरे विचार में इसकी एक बड़ी वजह है ज़मीन का पैसा...
1991 में पी वी नरसिम्हा राव की सरकार ने आर्थिक सुधार लागू किए। उससे विदेशी निवेश आया, फिर अटल सरकार ने बड़े राजमार्ग बनाए, होमलोन सस्ते हुए। इन वजहों से जमीन के दामों में बहुत बड़ा उछाल आया। इसने बड़ी मात्रा में काला धन पैदा किया। यह धन किसी मेहनत या हुनर से कमाया हुआ धन नहीं था। यह जमीन के सट्टे की फसल थी।
इस काले धन ने जो डिमांड पैदा की उसके लिए हमारी सप्लाई साइड तैयार नहीं थी। क्योंकि उसके पहले के 20- 25 साल देश में मंदी की वजह से नई फैक्ट्रीयां, नए कारोबार उस तादाद में नहीं लग पाए थे। रातों रात नई फैक्ट्रियां लगना संभव नहीं थी, इसलिये सप्लाई साइड की इनएफिशिएंसी के बावजूद बाजार उछलता रहा।

बाप दादाओं के खेत बेचकर स्कॉर्पियो खरीदने वाला एक नया वर्ग पैदा हुआ। विदेश यात्राएं, होटलिंग, महंगा इंटीरियर डेकोरेशन, बड़ी कारें, नए मॉडल के मोबाइल। पान ठेलों पर दिन काटने वाले आवारा लड़के जब जमीनों की दलाली में धनकुबेर बने, तो इन नये पीरों को अपने जैसे मुरीद चाहिए थे। उन्होंने आलीशान बंगले बनाए, जिनके बाथरूम में पचास हज़ार का एक नल लगाने को आर्किटेक्ट और इंटीरियर डिजाइनर्स ने इसे कला का नाम दिया और बाल बढ़ा कर खुद को विंची और पिकासो के समकक्ष घोषित कर दिया।

आर्किटेक्टस के ऑफिस के बाहर ठेकेदार और कंपनियों के सेल्समैन लाइन लगाकर मंगल गीत गाते रहे, ताकि वे अपने देवत्व को भूलकर कहीं गरीबों के लिए अच्छे और सस्ते मकान बनाने की तकनीक ना खोजने में लग जाएं।

पिछले 20 सालों में हमारे डिजाइनर, इंजीनियर और उद्यमियों की ऊर्जा और समय इस आवारा पूंजी की अश्लील चाकरी में बीता।
अपने देश की परिस्थितियों और गरीबी के हिसाब से कोई नया सस्ता मकान या अन्य कोई तकनीक ढूंढ़ने में किसी का ध्यान नहीं था..जैसे एक पार्टी चल रही थी,किसी ने यह नहीं सोचा इस दौरान कुछ ऐसा किया जाए कि पार्टी खत्म ना हो।

कोरोना इस तरह से वरदान है कि ईजी मनी के नशे में ग़ाफ़िल हमारे देश की प्रतिभाओं को शायद यह नींद से जगा दे। मजबूरी में ही सही हम अपने कंफर्ट जोन से बाहर आएं।

शायद हम सोचें कि ऑपरेशनल एफिशिएंसी क्या है कि मुंह बनाकर अंग्रेजी बोलना सिर्फ भाषाई योग्यता है, तरक्की के लिए मेहनत भी करनी होती है।

शायद हम सीखें कि 'आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग' का मुहावरा किसी कॉरपोरेट कांफ्रेंस में तालियां हासिल कर भूल जाने के लिए नहीं है, अब वह जिंदा बचे रहने की तरकीब है। शायद हमें एहसास हो कि धर्म और जाति नहीं गरीबी और भुखमरी अधिक महत्वपूर्ण है। और इस वक्त हमें एक दूसरे का हाथ पकड़कर इस मुसीबत से पार पाना है।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब दुनिया ने जर्मनी का बहिष्कार कर दिया, तब वहां के इंजीनियरों ने लगभग हर मामले में अपने देश को आत्मनिर्भर बना लिया। हर आपदा हमें झकझोरती है, हमें कंफर्ट जोन से निकालती है। कोरोना में यदि कुछ अच्छा है तो बस यही है ।

उपेंद्र सिंह

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 19 Jun 2020 at 2:44 AM -

जनसंख्या नियंत्रण

दोस्त शराफत खान का सवाल है कि- लोग भारतीय महाद्वीप में ही इतने बच्चे पैदा क्यों करते है जबकि अफ्रीका में यहाँ से ज़्यादा अशिक्षा और दरिद्रता है।

शराफत खान ने बहुत ठीक पकड़ा है। बच्चे पैदा करने का कारण अशिक्षा और दरिद्रता नहीं है ... और वातावरण भी नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण तो कुछ और ही है जिसे हम सब नकारते आए है।

यह बात झूठी है कि भारत कस्बों और गांवों में बसता है, असल में भारत कस्बों और गांवों में पैदा होता है और भाग कर शहरों में जा बसता है।

इन ग्रामीण और कस्बाई और कुछ शहरी लोगो में ही सबसे बड़ी समस्या छिपी है। वह समस्या है रंगदारी, दादागिरी। हर कस्बाई और ग्रामीण अपने क़स्बे और गांव में यह फिर शहरों के किसी विशेष इलाके में अपनी दबंगई चाहता है। यह दबंगई संख्या से मिलती है। हर ग्रामीण ख़ूब बच्चे पैदा करके खासकर लड़के पैदा करके गांव में दादागिरी चाहता है। कस्बों में धनवान वही बनता है जो खूब सारे बच्चे पैदा करता है क्योंकि फिर यह खूब सारे बच्चे वाले कम बच्चो वालो को ठोका पीटा करते है और रंगदारी से माल कमाते है, चुनाव जीतते लड़ते है।

लोकतंत्र ने तो और अधिक बच्चे पैदा करने की सनक को जन्म दिया है। भारत की बढ़ती जनसंख्या का कारण लोकतंत्र भी है। लोग यहां खूब बच्चे जन कर प्रधान सरपंच बनना चाहते है। मार धाड़ करके मंदिर मस्जिद पर कब्जे जमाना चाहते है।

मंझले शहरों के भी थोड़े बहुत यही हाल है। वहां भी गुंडागर्दी चलाने के लिए पांच से सात लड़के पैदा करना लक्ष्य होता है। मैं देखता हूँ इंदौर के सारे बड़े बड़े माफिया लोगों के माता पिता ने खूब बच्चे जने है और बड़ी बड़ी बिरादरियां बनायी है। कभी कभी इन लड़को के चक्कर में अनचाही लड़कियां पैदा होती है। दो लड़कों के चक्कर में पांच लड़कियां पैदा की जाती है।

आप कितने भी लोगों को संगठित कर लो पर व्यक्तिगत लड़ाई दंगे तो परिवार के लोग ही करते है, रंगदारी तो वही जमवाते है। सारे भारत का यही हाल है।

सरकारों में भी यही लोग बैठे रहे। इन लोगों ने जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए कोई कानून नहीं बनाया। आज़ादी के बाद ही एक बच्चा नियम कर देना था और दूसरे बच्चे पर नागरिक अधिकार छीन लिए जाने का प्रावधान कर देना था। नेहरू ने यहां मात खायी है क्योंकि इस प्रवृत्ति पर उनका ध्यान नहीं गया वरना नेहरू से बड़ा क्रांतिकारी भारत में कोई नहीं हुआ, नेहरू का इस पर थोड़ा भी ध्यान जाता तो कहीं न कहीं तो लपेट ही देते। इंदिरा ने प्रयास किया था परंतु फेल हो गयी थी। मोदी यह कर सकते है उनके पास समय भी है और शक्ति भी है।

गुंडागर्दी समाप्त करनी है, धरती का बोझ कम करना है, शांति को जन्म देना है और देश को बचाना है तो यह कर ही दिया जाना चाहिए। अगले सौ साल बाद का भारत बहुत सुंदर होगा।

शादाब सलीम-

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 14 Jun 2020 at 11:55 AM -

सकारात्मक सोच

#बैक बेंचर्स महान नहीं होते है-

एक बड़ी ऊंची बात बाज़ार में चलने लगी है। वे बात यह है कि- बैक बेंचर्स बड़े महान लोग बन जाते है।बैक बेंचर्स कहलाना बड़ा ट्रेंड हो गया है। मैं तो बड़ा बैक बेंचर्स और निकम्मा नहीं पढ़ने लिखने वाला ... था या थी और देखिए आज कितना कामयाब हूँ।

यह सब मूर्खता और झूठ फैलाने वाली बातें है और नितांत अव्यवहारिक बात है। सारे बैक बेंचर्स महान ही नहीं होते, सब मार्क जुकरबर्ग, कबीर और कितनी लिस्ट है आपके पास दस बीस लोगों की वे ही नहीं बनते है, कहीं दो चार यह महान लोग बन गए बाकी का भी ज़रा हाल पूछ कर आओ। और तुम्हे यही बैक बेंचर्स महान दिखते है पढ़ने लिखने वाले महान बने बच्चे तुम्हे नज़र नहीं आते है ज़रा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का रिज़्यूमे देखना आंखे फटी रह जायेगी, पांचवी क्लास से टॉप करते आ रहे है।

मैं अपने जीवन के लोग बताता हूँ। मेरे साथ के बहुत सारे पढ़े लिखे जो पढ़ने लिखने में बहुत अव्वल थे सॉफ्टवेयर इंजीनियर हुए और आज बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते है और करोड़ो कमाते है वे भी घर बैठकर।कितने चार्टर्ड अकाउंटेंट और कितने अफसर भी हुए और बाकी कुछ अच्छे कामयाब लोग है हालांकि कुछ पढ़ने लिखने वाले पीछे भी रह गए और आज भी बेरोजगार है पर उनकी संख्या दो चार है।

बैक बेंचर्स का क्या हुआ? बताता हूँ। उनमे आधे धक्के लगाकर 12वी पास हुए और आधे दसवीं बारवी के ऊपर ही नहीं जा पाए। जैसे तैसे आर्ट्स या कॉमर्स से कॉलेज निकाला और कॉलेज निकाल कर बेरोजगार हो गए। जो अमीर घरो के थे या जिनके पिता के पास अच्छे काम थे उन्होंने तो वे काम संभाल लिए और जिनके पिता फक्कड़ थे वह कॉल सेंटर में नोकरी या गली गली भटक कर मार्केटिंग की नोकरी करने लगे अब उनकी शादियां हो गयी है और बच्चे पालना उनके लिए कयामत से कम नहीं है।

बाकी जो दसवीं बारवी के ऊपर भी नहीं जा पाए उनका भी हाल सुनिए। उनमे भी यही हुआ जो अमीर घरो के थे वह तो बच गए पर जो बिल्कुल लुल थे और न्यूट्रल वह सब तो नोकरी के लायक भी नहीं थे क्योंकि कोई उन्हें कॉल सेंटर में भी नहीं रखता क्योंकि वह भी बारवी पास या ग्रेजुएट मांगते थे।

अब वह आपके यह मस्ताने बैक बेंचर्स ऑटो रिक्शा वह भी किराये की चलाते है, इंदौर के सीतलामाता बाजार में किसी बनिये की कपड़े की दुकान पर काम करते है वह भी आज इस जबरदस्त महंगाई में आठ से दस हजार रुपए महीना में। कुछ जिनके पास उम्र बची थी वह कार और बाइक के मेकेनिक हो गए और बड़े सर्विस सेंटर पर दस बारह हजार में काम करने लगे। इन बैक बेंचर्स में कुछ ट्रैक्टर भी चला रहे है, कुछ जूते चप्पल की दुकान पर काम कर रहे है।

इन बैक बेंचर्स में कुछ ने तो वह कालजयी प्रोफेशन प्रोपर्टी ब्रोकर इख्तियार कर लिया। इतना याद रखना प्रोपर्टी ब्रोकर मतलब कुछ नहीं करने की अपनी बेबसी और बेकारी पर पर्दा डालना है।

बैक बेंचर्स को महिमामंडित करना बंद कीजिए और बच्चों को बैक बेंचर्स बनने के लिए उत्साहित करना भी फ़ौरन बंद कीजिए। बैक बेंचर्स कुछ नहीं होते है, कहीं लाखो में दो चार निकल आते है, इन दो चार के चक्कर में आपने उन असंख्य बच्चो की अनदेखी कर दी जो पढ़ने लिखने में लाजवाब थे और बहुत बड़े आदमी बने।

शादाब सलीम~

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 12 Jun 2020 at 6:46 AM -

पुलिस चालान

पुलिस चालान क्या होता है, लेख के माध्यम से आप चालान को आसानी से बहुत विस्तार में समझ सकते है। कभी न कभी आपका भी कोरट कचहरी से पाला पड़ सकता है या पड़ ही रहा हो।

ऐसी जानकारियां यूँ तो रुपयों में दी जाती है ... पर यहां निशुल्क दी जाएगी। यह आप लाइव लॉ न्यूज़ पोर्टल पर भी पढ़ सकते है, यह पोर्टल सुप्रीम कोर्ट के कुछ अच्छे दानिशवर वकीलों की बनायी हुई है जो भारतीय जनमानस तक कानून की जानकारी के उद्देश्य से चलायी जा रही है।

चालान क्या होता है या पुलिस रिपोर्ट एवं धारा 173 का अर्थ-

पुलिस द्वारा न्यायालय में पेश किया जाने वाला चालान एक सामान्य सा शब्द है और नए लॉ छात्रों के लिए यह शब्द कभी-कभी कठिनाई का विषय बन जाता है। इस आलेख के माध्यम से धारा 173 के अंतर्गत 'चालान' पर प्रकाश डाला जा रहा है।

'चालान' अंतिम प्रतिवेदन-

पुलिस अपने अन्वेषण में अलग-अलग स्तर पर रिपोर्ट प्रेषित करती है। पुलिस अन्वेषण के चरणों में तीन प्रकार की रिपोर्ट भेजती है, धारा 157 के अधीन पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी मामले की प्रारंभिक रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को प्रेषित करता है।

दूसरी रिपोर्ट उसे कहा जाता है जो इस संहिता की धारा 168 में यह अपेक्षित है कि अधीनस्थ पुलिस अधिकारी द्वारा अपराध के मामले की रिपोर्ट संबंधित थाने के भारसाधक पुलिस अधिकारी को भेजी जानी चाहिए।

तीसरी रिपोर्ट जिसे चालान कहा जाता है उसे धारा 173 के अंतर्गत अन्वेषण की समाप्ति हो जाने के पश्चात पुलिस द्वारा मामले की अंतिम रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है। एक प्रकार से अंतिम प्रतिवेदन भी कहा जाता है।

यह पुलिस द्वारा की गयी समस्त अन्वेषण की कार्यवाही का एक ब्योरा होता है जो कि मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।

इसे दो नामों से जाना जाता है। साधारण भाषा में इसे पुलिस चालान कहा जाता है परंतु विधि के संदर्भ में यहां पर अंतिम प्रतिवेदन अर्थात अंग्रेजी में फाइनल रिपोर्ट कहा जाता है।

हरदीप सिंह बनाम पंजाब राज्य एआईआर 2009 उच्चतम न्यायालय 483 के वाद में पुलिस द्वारा अन्वेषण की अंतिम रिपोर्ट मजिस्ट्रेट न्यायालय को सौंपी जाने को आपराधिक कार्यवाही का एक महत्वपूर्ण चरण मानते हुए अभिकथन किया गया-

'इसे अन्वेषण पूर्ण होते ही मजिस्ट्रेट को प्रेषित किया जाना आवश्यक है यह रिपोर्ट निर्धारित प्रपत्र में प्रेषित की जानी चाहिए तथा इसमें धारा 173 की धारा दो का मजबूती से पालन किया जाना चाहिए'

धारा 173 के अंतर्गत पुलिस की अंतिम रिपोर्ट के संदर्भ में संपूर्ण जानकारियां दी गयी है। वह संपूर्ण प्रावधान रखे गए है कि पुलिस की अंतिम रिपोर्ट के भीतर किन-किन चीजों को शामिल किया जाएगा और क्या क्या रिपोर्ट में स्थान होगा तथा रिपोर्ट कब प्रस्तुत की जाएगी।

अनावश्यक विलंब के बिना अन्वेषण का पूरा किया जाना-

धारा 173 उपधारा (1) इस बात का उल्लेख करती है के बगैर विलंब के अन्वेषण पूरा किया जाना चाहिए तथा शीघ्र से शीघ्र अन्वेषण पूरा होते ही यह रिपोर्ट मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जाने चाहिए।

अंतिम प्रतिवेदन प्रस्तुत करने की निश्चित अवधि-

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 आजीवन कारावास और मृत्युदंड से दंडित अपराधों के लिए अधिकतम 3 महीने की अवधि का समय अंतिम प्रतिवेदन रिपोर्ट पेश करने के लिए पुलिस को देती है और आजीवन कारावास से कम अवधि के कारावास से दंडित अपराधों के लिए 60 दिन का समय पुलिस अधिकारी को या जांच एजेंसी को अपनी रिपोर्ट पेश करने के लिए दिया जाता है।

यदि जांच एजेंसी या पुलिस अधिकारी इस समय अवधि के भीतर अपनी पुलिस रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं करता है तो अभियुक्त जमानत प्राप्त करने का अधिकारी होता है, परंतु दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 के अंतर्गत कहीं पर भी किसी विशेष समय अवधि का कतई प्रावधान नहीं किया गया है, केवल बलात्कार के मामले में मामले में 3 माह के भीतर अन्वेषण पूरा करने का प्रावधान धारा 173 के अंतर्गत रखा गया है कोई समय अवधि नहीं है।

आरोप के संदर्भ में संपूर्ण जानकारी-

धारा 173 उपधारा (2) इस धारा की महत्वपूर्ण उपधारा है। इस धारा के अंतर्गत वह समस्त बातें दी गयी है जिसका उल्लेख पुलिस अपनी रिपोर्ट में करेगी। उन बातों का स्पष्ट उल्लेख दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 की उपधारा 2 के अंतर्गत कर दिया गया है। पुलिस अपना अंतिम प्रतिवेदन धारा 173 (2) के अंतर्गत ही मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करती है।

धारा 173 (2) के अंतर्गत दी जाने वाली जानकारियां निम्नलिखित है-

पक्षकारों के नाम.

सूचना का स्वरूप.

मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होने वाले व्यक्तियों के नाम.

क्या कोई अपराध किया गया है प्रतीत होता है यदि किया गया प्रतीत होता है तो किसके द्वारा.

क्या अभियुक्त गिरफ्तार कर लिया गया है.

क्या बंद पत्र पर छोड़ दिया गया है यदि छोड़ दिया गया है तो वह बंद पत्र पत्र प्रतिभू सहित है या प्रतिभू रहित है.

क्या बात धारा 170 के अधीन अभिरक्षा में भेजा जा चुका है.

धारा 173 की उपधारा (5)-

सामान्यता पुलिस द्वारा अंतिम रिपोर्ट के साथ सभी आवश्यक दस्तावेज संलग्न करके मजिस्ट्रेट को भेजे जाते है, परंतु यदि इनमें से कुछ दस्तावेज पुलिस द्वारा अंतिम रिपोर्ट के साथ ना भेजे गए हो तो इसके कारण पुलिस द्वारा प्रेषित रिपोर्ट आग्रहम( जिसे साक्ष्य में स्वीकार नहीं किया जाए) नहीं हो जाती।

पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित प्रत्यक्ष कार्यवाही में धारा 207 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट से यह उपेक्षा की जाती है कि वह उपधारा में उल्लेखित सभी दस्तावेजों की प्रतियां अभियुक्त को उपलब्ध कराएं।

इन दस्तावेजों में वह दस्तावेज भी शामिल थे। धारा 173 (5) में उल्लेखित है सुविधा की दृष्टि से वह धारा साथ में यह व्यवस्था की गयी है कि यदि अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी अभियुक्तों को धारा 5 में दर्शाए गए सभी दस्तावेजों को देना सुविधाजनक समझता है ऐसा कर सकता है।

धारा 173 की उपधारा (5) स्पष्ट इस बात का उल्लेख कर रही है के अभियोजन जिन साक्ष्य के आधार पर चलेगा जिनमें कोई वस्तुएं भी हो सकती है यदि उन्हें मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश नहीं किया गया है तो धारा 173 के अंतिम प्रतिवेदन के साथ धारा 161 के बयान जो पुलिस के समक्ष दिए जाते हैं उन्हें भी अंतिम प्रतिवेदन के साथ लगा दिया जाए।

धारा 173 की उपधारा (8) महत्वपूर्ण धारा है-

173 धारा की उपधारा (8) के अंतर्गत अन्वेषण को अधिकृत करती है कि अंतिम रिपोर्ट फाइल कर दी गयी है, इसके पश्चात भी यदि आवश्यक हो तो अन्वेषण कार्यवाही जारी रख सकती है। पुलिस की भले ही उस रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय ने अपराध का संज्ञान कर लिया हो।

उच्चतम न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि जब तक अनवेषण अधिकारी द्वारा धारा 173 (2) के अंतर्गत अंतिम रिपोर्ट न्यायालय को प्रेषित नहीं कर दी जाती है यह माना जाएगा कि अन्वेषण कार्रवाई जारी है। कतिपय परिस्थितियों में इस धारा की उपधारा 8 के अंतर्गत अंतिम रिपोर्ट न्यायालय को प्रेषित कर दी जाने के पश्चात भी आगे अन्वेषण अनुज्ञ है, भले ही मजिस्ट्रेट ने अपराध का संज्ञान कर लिया हो।

अन्वेषण अधिकारी की अन्वेषण करने की शक्ति समाप्त नहीं होती है। यदि कोई आरोपी फरार है जिनके नाम अभियोजन में है तो ऐसे फरार आरोपियों के संदर्भ में धारा 173 की उपधारा 8 का प्रयोग किया जाता है और अन्वेषण को जारी रखा जाता है। अन्वेषण अधिकारी जो आरोपी उपस्थित होते है उनके लिए अंतिम प्रतिवेदन पेश कर देता है।

कारी चौधरी बनाम श्रीमती सीता देवी एआरआई 2002 सुप्रीम कोर्ट 441 के वाद में मृतका की हत्या के बारे में एफआईआर उसकी सास द्वारा दर्ज करायी गयी जिसके आधार पर अन्वेषण प्रारंभ किया गया।

अन्वेषण के दौरान पुलिस ने पाया कि सास द्वारा दर्ज करायी गयी प्राथमिकी झूठी थी और वास्तव में मृतका की हत्या के लिए सास ही दोषी थी।

उसने यह हत्या नियोजित षड्यंत्र पूर्वक की थी, अतः पुलिस ने मजिस्ट्रेट को सूचित किया कि सास द्वारा दायर की गयी प्रथम सूचना रिपोर्ट झूठी थी। मजिस्ट्रेट ने उक्त रिपोर्ट स्वीकार कर ली परंतु अभियुक्ता द्वारा इसके विरुद्ध उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण आवेदन किया जाने पर उच्च न्यायालय ने मजिस्ट्रेट द्वारा दिया गया आदेश रद्द कर दिया। पुलिस ने अपनी अन्वेषण कार्यवाही जारी रखते हुए न्यायालय को सूचित किया कि उसने दूसरी प्राथमिकी दर्ज कर ली है। इस आधार पर सास के विरुद्ध आरोपपत्र विरचित किया गया। सास के विरुद्ध प्रारंभ की गयी दांडिक कार्यवाही को उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया।

उच्च न्यायालय के उक्त निर्णय के विरुद्ध अपील में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि यह कहना कि- पुलिस द्वारा अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत कर दिए जाने पर सास द्वारा दायर की गयी प्राथमिकी झूठी थी उसके विरुद्ध कार्यवाही संस्थित की जाना जिसे की उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था पुलिस द्वारा सास के विरुद्ध दूसरी प्राथमिकी दर्ज करके कार्यवाही नहीं की जा सकती न्यायोचित नहीं होगा। अतः हत्या जैसे जघन्य अपराध के मामले में पुलिस द्वारा दूसरी प्राथमिकी दर्ज करके अन्वेषण कार्यवाही की जाना उचित था अपील स्वीकार की गयी।

हरमिंदर पाल सिंह बनाम पंजाब राज्य 2004 क्रिमिनल लॉ 2648 के वाद में पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने विनीत किया है कि-

जहां किसी भ्रष्टाचार के प्रकरण में पुलिस द्वारा अंतिम अन्वेषण रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी हो लेकिन उसे न्यायालय द्वारा स्वीकार ना कि जाकर मामले का पुनः अन्वेषण आदेशित किया गया हो वह न्यायालय के आदेश का अनुपालन करते हुए पुनः अन्वेषण के पश्चात पुलिस पुनः अपने पूर्ववर्ती निष्कर्ष पर पहुंची हो कि अभियुक्त का रिश्वत लेने का कोई उद्देश्य प्रकट नहीं होता है।

ऐसी दशा में न्यायालय मामले का तीसरी बार फिर से अन्वेषण किए जाने का आदेश नहीं दे सकेगा। इसका कारण स्पष्ट करते हुए न्यायालय ने कथन किया है कि पुलिस द्वारा मामले के पुनः अन्वेषण से इंकार ना किया जाना तथा ऐसे अन्वेषण के पश्चात अपने पूर्ववर्ती निष्कर्ष पर कायम रहना यह दर्शाता है कि पुलिस ने प्रकरण का भली-भांति अन्वेषण कर लिया है और किसी नए आधार के बिना उसका तृतीय बार अन्वेषण कराया जाना व्यर्थ होगा।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 12 Jun 2020 at 6:41 AM -

कोरोना संघर्ष

कोरोना के संदर्भ में पिछले दो दिन भारत के मामले में थोड़ा सा अधिक नकारात्मक रहे। इन दो दिनों में प्रति मृत्यु के सापेक्ष ठीक होने वालों की संख्या 20 से कम(16) रही है।

इन्हीं दो दिनों में नए मरीजों की संख्या भी 10 हजार से ... काफी ज्यादा रही।

ऐसा लगता है कि मरीजों की बढ़ती संख्या के कारण कुछ नए डॉक्टरों की सेवाएं इस क्षेत्र में ली गयी होंगी।

यदि मेरा विश्लेषण ठीक है तो एक बार पुनः उन क्षेत्रों में सतर्कता बढ़ाने की जरूरत है जहाँ मौतों का अनुपात अधिक आ रहा है।

यदि 10 और 11 जून को छोड़ दें तो अभी तक भारत में कोरोना से मुकाबला करने के लिए जो कुछ भी किया गया है वह विश्व की तुलना में काफी ज्यादा अच्छा रहा है।

सक्रिय केसों की वृद्धि दर लगातार घट रही है और इस समय यह प्रतिदिन 3.5% से नीचे चल रही है। संख्या के आकार से घबराने की जरूरत नहीं है।
बल्कि यह समझने की जरूरत है कि किनको हो रहा है और किनको नहीं हो रहा है। होने के बाद कौन मर रहे हैं और कौन नहीं मर रहे हैं।
जनपद बहराइच में करीब एक लाख तथा श्रावस्ती में करीब 30 हजार मजदूर बाहर से लौटे हैं। ज्यादातर मरीज इन्हीं में से निकले हैं। यहां तक कि इनके घर वाले भी उतनी संख्या में संक्रमित नहीं हुए। इसका मतलब ग्रामीण जीवन शैली में पर्याप्त रोग प्रतिरोधक क्षमता है। इन दोनों जिलों में 130 से ज्यादा हुए मरीजों में कोरोना के कारण शायद एक मौत हुई है। एक अन्य मौत में दूसरे स्वास्थ्य कारणों का भी असर था। एक का अभी मुझे पता नहीं चला है। इसका मतलब यह है कि ग्रामीण खानपान भी रोग का मुकाबला करने के लिए काफी हद तक उपयुक्त है।

यह मेरा अपना विचार है कि लोगों को चिकनाई का प्रयोग कम कर देना चाहिए। तली हुई चीजें तो बिल्कुल नहीं खानी चाहिए।

ताजे फल सब्जियों का ज्यादा प्रयोग करना चाहिए। तथा
परिश्रम, कसरत, प्राणायाम आदि करते रहना चाहिए।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 10 Jun 2020 at 6:29 AM -

लफ्फाजी

मुसीबत को अवसर बनाने के अपने अपने तरीके-
1- भारत के pm ने कोरोना से लड़ने के लिए थाली बजवाई और दिए जलवाए। और एक प्रकार से धार्मिक अंधविश्वास की कमजोर होती जड़ों को मजबूत करने की कोशिश की।
2 चीन 'बायकाट चाइना' लिखी बनियाइन बनाकर दुनिया ... भर को बेचने जा रहा है।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 10 Jun 2020 at 6:08 AM -

माइकल जैक्सन

#माइकल_जैक्सन 150 साल जीना चाहता था ! किसी से साथ हाथ मिलाने से पहले दस्ताने पहनता था! लोगों के बीच में जाने से पहले मुंह पर मास्क लगाता था !अपनी देखरेख करने के लिए उसने अपने घर पर 12 डॉक्टर्स नियुक्त किए हुए थे !जो ... उसके सर के बाल से लेकर पांव के नाखून तक की जांच प्रतिदिन किया करते थे ! उसका खाना लैबोरेट्री में चेक होने के बाद उसे खिलाया जाता था! स्वयं को व्यायाम करवाने के लिए उसने 15 लोगों को रखा हुआ था! माइकल जैकसन अश्वेत था,उसने 1987 में प्लास्टिक सर्जरी करवाकर अपनी त्वचा को गोरा बनवा लिया था!अपने काले मां-बाप और काले दोस्तों को भी छोड़ दिया!गोरा होने के बाद उसने गोरे मां-बाप को किराए पर लिया! औरअपने दोस्त भी गोरे बनाए शादी भी गोरी औरतों के साथ की ! माइकल ने अपनी नर्स डेबी रो से विवाह किया,जिसने प्रिंस माइकल जैक्सन जूनियर (1997) तथा पेरिस माइकल केथरीन (3 अपैल 1998) को जन्म दिया।वो डेढ़ सौ साल तक जीने के लक्ष्य को लेकरचल रहा था! हमेशा ऑक्सीजन वाले बेड पर सोता था उसने अपने लिए अंगदान करने वालेडोनर भी तैयार कर रखे थे! जिन्हें वह खर्चा देता था,ताकि समय आने पर उसे किडनी, फेफड़े, आंखेंया किसी भी शरीर के अन्य अंग की जरूरत पड़ने पर वह आकर दे दें, उसको लगता था वह पैसे और अपने रसूख की बदौलत मौत को भी चकमा दे सकता है, लेकिन वह गलत साबित हुआ 25 जून 2009 को उसके दिल की धड़कनरुकने लगी, उसके घर पर 12 डॉक्टर की मौजूदगी मेंहालत काबू में नहीं आए,सारे शहर के डाक्टर उसके घर पर जमा हो गएवह भी उसे नहीं बचा पाए । उसने 25 साल तक डॉक्टर की सलाह के विपरीत, कुछ नहीं खाया ! अंत समय में उसकी हालत बहुत खराब हो गई थी 50 साल तक आते-आते वह पतन के करीब ही पहुंच गया थाऔर 25 जून 2009 को वह इस दुनिया से चला गया !जिसने अपने लिए डेढ़ सौ साल जीने का इंतजाम कर रखा था ! उसका इंतजाम धरा का धरा रह गया ! जब उसकी बॉडी का पोस्टमार्टम हुआ तोडॉक्टर ने बताया कि,उसका शरीर हड्डियों का ढांचा बन चुका था!उसका सिर गंजा था, उसकी पसलियां कंधे हड्डियां टूट चुके थे, उसके शरीर पर अनगिनत सुई के निशान थे, प्लास्टिक सर्जरी के कारण होने वाले दर्द सेछुटकारा पाने के लिए एंटीबायोटिक वालेदर्जनों इंजेक्शन उसे दिन में लेने पड़ते थे ! माइकल जैक्सन की अंतिम यात्रा को 2.5 अरब लोगो ने लाइव देखा था। यह अब तक की सबसे ज़्यादा देखे जाने वाली लाइव ब्रॉडकास्ट हैं। माइकल जैक्सन की मृत्यु के दिन यानी 25 जून 2009 को 3:15 PM पर, Wikipedia, Twitter और AOL’sinstant Messenger यह सभी क्रैश हो गए थे।उसकी मौत की खबर का पता चलता हीगूगल पर 8 लाख लोगों ने माइकल जैकसन को सर्च किया!ज्यादा सर्च होने के कारण गूगल पर सबसे बड़ा ट्रैफिक जाम हुआ था! औरगूगल क्रैश हो गया,ढाई घंटे तक गूगल काम नहीं कर पाया!

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 07 Jun 2020 at 6:02 AM -

छोटा परिवार

तथाकथित मूल निवासियों से अनुरोध है कि खुद भी परिवार छोटा रखें और दूसरों को भी परिवार छोटा रखने को बाध्य करें। इसके निम्नलिखित फायदे हो सकते हैं-
1, कमजोर होती आर्थिक दशा में सुधार आएगा।
2, गरीबों की संख्या कम होगी।
3, बौद्धिक विकास में तेजी आएगी।
4, ... बेरोजगारों की संख्या घटेगी।
5, लुटेरों शोषकों के पास शोषण के अवसर घटेंगे।
6, अंधविश्वास और अंधविश्वासियों की संख्या में कमी आएगी।
7, मूर्ख बनाने वाले नेताओं को सपोर्ट करने वालों की संख्या कम होने से देश को बेहतर नेतृत्व मिलेगा।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 06 Jun 2020 at 8:56 AM -

महपुरुषों को सम्मान

जब डाक टिकट का प्रचलन ज्यादा था तब सरकारें लोगों के नाम चित्र आदि से डाक टिकट और सिक्के जारी करती थीं।

सरकार को चाहिए कि महापुरुषों के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिये अब डाक टिकट सर्व-प्राप्य माध्यम नहीं रहा। अब कागजी मुद्रा को भी ... इस हेतु प्रयोग करना चाहिए।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 06 Jun 2020 at 7:36 AM -

भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने की मंशा बहुत लोगों में रहती है लेकिन धीरे-2 सब टूट जाते हैं।
कुछ सवाल दिल को ऐसा चुभते हैं कि स्थिर रहना मुश्किल हो जाता है-
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क्या हम ईमानदारी के नाम पर जो मुसीबतें उठा रहे हैं उससे किसी को सत्प्रेरणा ... मिल पायेगी।

क्या 8 घंटे के बजाय 12-16 घंटे काम करने पर ओवर time नहीं मिलना चाहिए।

क्या चार चार आदमियों का काम अकेले करने पर अतिरिक्त मेहनताना नहीं मिलना चाहिए।

अनुदान का पैसा इनके बाप का है क्या? हम दिलवा रहे हैं तो हमको भी तो कुछ मिलना चाहिए।

मंत्री जी से लेकर संतरी जी तक किसी के भी मन में इस तरह के सवाल उठ सकते हैं।

आखिर किसके लिए बलिदान किया जाये, जो परीक्षा में नकल करते हैं उनके लिए, जो ट्रेन में बेटिकट चलते हैं उनके लिए, जो बटवारे में सगे भाई तक से बेईमानी करते हैं, जो मंदिरों में चोरी करते हैं, जो बच्चों की फीस न भरके शराब पीते हैं, जो वोट के बदले पाउच पीते हैं।।।।।।।।

इतने सारे तर्कों से खुद को मनाने के बाद कौन नहीं पिघल जायेगा।

अगर किसी ने मजबूरी में भी समझौता कर लिया तो ताने सुनो "तुम कोई हरिश्चन्द्र हो क्या?"
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यह अनुदान, यह नकल की सुविधा, ये पाउच, यह लैपटॉप, यह कोटे का राशन।।।।। आदि सब रिश्वत ही तो है वोटर को भ्रष्टाचार में शामिल करने के लिए।

रिश्वत लेना बंद नहीं कर सकते तो देने वाले को तवज्जो देना ही बन्द कर दीजिये। जो जनता खुद रिश्वत लेगी वह रिश्वत लेने वालों को कैसे रोकेगी।।।।

यह देश नैतिक पतन की असीम गहराइयों में डूबता जा रहा है।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 05 Jun 2020 at 7:54 AM -

ओवर लोडिंग

ओवरलोडिंग का महत्व-
1- सामग्री कम फेरों में पहुंच जाती है।
2- गाड़ी के इंजन पर अधिक लोड पड़ता है, जिससे इंजन जल्दी खराब होता है, फलतः इंजन बनाने वालों को रोजगार मिलता है। इंजन अल्युमिनियम से बनता है, अल्युमिनियम भारत में ही निकलता है, इसलिए चिंता ... की कोई बात नहीं।
3- ओवरलोड से यातायात में वाहनों की संख्या कम होती है, जिससे जाम की समस्या से काफी हद तक निजात मिलती है, जो भारतीय शहरों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
4- ओवरलोड से डीजल की बचत होती है, डीजल आयात करना पड़ता है, इसलिए डीजल की बचत से विदेशी मुद्रा की भी बचत होती है।
5- डीजल का आयात अरब देशों से होता है, जो आतंकवादियों को वित्तीय मदद पहुंचाते हैं, अतः डीजल के आयात में कमी आने से आतंकवाद में भी कमी आयेगी।
6- डीजल का उपयोग कम होने से ऑक्सीजन भी कम खर्च होगी और वातावरण में धुआं भी कम फैलेगा, अतः पर्यावरण प्रदूषण भी कम होगा।
7- ओवरलोड से गाड़ियां धीमी चलती हैं जिससे दुर्घटनाएं भी कम होती हैं।
8- ओवरलोड से ट्रक पलटने का खतरा बढ़ जाता है। ट्रक पलटने से सड़क किनारे रह रहे लोगों को न सिर्फ रोजगार मिलता है बल्कि अक्सर मुफ्त का माल भी मिलता है।
9- ओवरलोडिंग से सड़कें जल्दी खराब हो जाती हैं जिससे बचने के लिए pwd को सड़कें भी मजबूत बनानी पड़ती हैं, इस प्रकार रोड बनाने में कमीशनबाजी भी कम होती है।
10- ओवरलोडिंग से मोरंग, गिट्टी आदि सस्ती मिलती है जिससे सड़क एवं भवन निर्माण की लागत कम आती है।
11- अधिक सवारी बैठाना भी ओवर लोडिंग का एक विशिष्ट उदाहरण है। ट्रेनें और रोडवेज बसें इस विधा की एक्सपर्ट हैं।
12- ऑटो और टेम्पो भी ओवरलोडिंग में किसी से कम नहीं हैं।
13- ओवरलोडिंग के क्षेत्र में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान isro ने भी एक ही यान में 105 सैटेलाइट अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक भेज कर विश्व कीर्तिमान बनाते हुए देश का गौरव बढ़ाया है।
14- ओवरलोडिंग का डायरेक्ट लाभ गाड़ी मालिक और ड्राइवर को मिलता है जो इनडायरेक्टली दूसरों तक भी पहुंचता है।

जिस तरह से गाय को राष्ट्रीय पशु तथा बन्दर को राष्ट्रीय देवता घोषित किये जाने की योजना है, उसी तरह से ओवरलोडिंग को राष्ट्रीय व्यापार घोषित किया जाना चाहिए।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 04 Jun 2020 at 8:58 PM -

फितूर

एक सहेली ने दूसरी सहेली से पूछा:- बच्चा पैदा होने की खुशी में तुम्हारे पति ने तुम्हें क्या तोहफा दिया ?

सहेली ने कहा - कुछ भी नहीं!

उसने सवाल करते हुए पूछा कि क्या ये अच्छी बात है ?
क्या उस की नज़र में तुम्हारी कोई ... कीमत नहीं ?

लफ्ज़ों का ये ज़हरीला बम गिरा कर वह सहेली दूसरी सहेली को अपनी फिक्र में छोड़कर चलती बनी।।

थोड़ी देर बाद शाम के वक्त उसका पति घर आया और पत्नी का मुंह लटका हुआ पाया।।
फिर दोनों में झगड़ा हुआ।।
एक दूसरे को लानतें भेजी।।
मारपीट हुई, और आखिर पति पत्नी में तलाक हो गया।।

जानते हैं प्रॉब्लम की शुरुआत कहां से हुई ? उस फिजूल जुमले से जो उसका हालचाल जानने आई सहेली ने कहा था।।

II. रवि ने अपने जिगरी दोस्त पवन से पूछा:- तुम कहां काम करते हो?
पवन- फला दुकान में। रवि- कितनी तनख्वाह देता है मालिक?
पवन - 18 हजार।।
रवि - 18000 रुपये बस, तुम्हारी जिंदगी कैसे कटती है इतने पैसों में ?
पवन- (गहरी सांस खींचते हुए)- बस यार क्या बताऊं।।

मीटिंग खत्म हुई, कुछ दिनों के बाद पवन अब अपने काम से बेरूखा हो गया। और तनख्वाह बढ़ाने की डिमांड कर दी। जिसे मालिक ने रद्द कर दिया। पवन ने जॉब छोड़ दी और बेरोजगार हो गया। पहले उसके पास काम था अब वह भी नहीं रहा।।

III. एक साहब ने एक शख्स से कहा जो अपने बेटे से अलग रहता था।। तुम्हारा बेटा तुमसे बहुत कम मिलने आता है।। क्या उसे तुमसे मोहब्बत नहीं रही?
बाप ने कहा बेटा ज्यादा व्यस्त रहता है, उसका काम का शेड्यूल बहुत सख्त है।। उसके बीवी बच्चे हैं, उसे बहुत कम वक्त मिलता है।।

पहला आदमी बोला- वाह!! यह क्या बात हुई, तुमने उसे पाला-पोसा उसकी हर ख्वाहिश पूरी की, अब उसको बुढ़ापे में व्यस्तता की वजह से मिलने का वक्त नहीं मिलता है।। तो यह ना मिलने का बहाना है।।

इस बातचीत के बाद बाप के दिल में बेटे के प्रति शंका पैदा हो गई।। बेटा जब भी मिलने आता वो ये ही सोचता रहता कि उसके पास सबके लिए वक्त है सिवाय मेरे।।

*याद रखिए जुबान से निकले शब्द दूसरे पर बड़ा गहरा असर डाल देते हैं।। बेशक कुछ लोगों की जुबानों से शैतानी बोल निकलते हैं।। हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बहुत से सवाल हमें बहुत मासूम लगते हैं।।*

जैसे-
तुमने यह क्यों नहीं खरीदा।।

तुम्हारे पास यह क्यों नहीं है।।

तुम इस शख्स के साथ पूरी जिंदगी कैसे चल सकती हो।।

तुम उसे कैसे मान सकते हो।।
वगैरा वगैरा।।

इस तरह के बेमतलबी फिजूल के सवाल नादानी में या बिना मकसद के हम पूछ बैठते हैं।।

जबकि हम यह भूल जाते हैं कि हमारे ये सवाल सुनने वाले के दिल में नफरत या मोहब्बत का कौन सा बीज बो रहे हैं।।

आज के दौर में हमारे इर्द-गिर्द, समाज या घरों में जो टेंशन टाइट होती जा रही है, उनकी जड़ तक जाया जाए तो अक्सर उसके पीछे किसी और का हाथ होता है।।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 04 Jun 2020 at 4:30 AM -

मानवता

आस्था जनित धारणा से श्रेष्ठ कौन है?
तर्क।

तर्क से श्रेष्ठ कौन है?
प्रयोग आधारित तथ्य।

प्रयोग आधारित तथ्य से श्रेष्ठ कौन है?
सुपरिणाम आधारित तथ्य।

सुपरिणाम कौन तय करेगा?
मानवता।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 02 Jun 2020 at 9:41 PM -

भारत का विकास

रूस का क्षेत्रफल - 1 करोड़ 71 लाख वर्ग किमी और जनसंख्या 14.5 करोड़ के आसपास
कनाडा का क्षेत्रफल - 99.84 लाख वर्ग किमी और जनसंख्या 3.7 करोड़ के आसपास
अमेरिका का क्षेत्रफल - 98.26 लाख वर्ग किमी और जनसंख्या 33 करोड़ के आसपास
चीन ... का क्षेत्रफल - 95.96 लाख वर्ग किमी और जनसंख्या 143 करोड़ के आसपास
ब्राजील का क्षेत्रफल - 85.14 लाख वर्ग किमी और जनसंख्या 21 करोड़ के आसपास
ऑस्ट्रेलिया का क्षेत्रफल - 77.41 लाख वर्ग किमी और जनसंख्या 2.5 करोड़ के आसपास
और देखिए
*भारत का क्षेत्रफल - 32.87 लाख वर्ग किमी और जनसंख्या 130 करोड़ के आसपास*
अब बताइए भारत उन्नति करेगा तो कैसे। रूस, अमेरिका, कनाडा, चीन, ब्राजील और ऑस्ट्रेलिया उन्नति क्यों न करें। क्योंकि वहाँ #जमीन अधिक और #जनसंख्या कम है। केवल और *केवल चीन को छोड़कर । लेकिन जमीन के मामले में वो भी हमसे तीन गुना ज्यादा हैं*।
यानी चीन की जमीन इतनी ज्यादा है कि 3 हिंदुस्तान बन सकते है। चीन इतना बड़ा है।
*इतना छोटा सा भारत और 130 करोड़ आबादी*।
*इसलिए बेरोजगारी और गरीबी के स्थाई समाधान के लिए जनसँख्या नियंत्रण कानून बहुत जरूरी है *।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 01 Jun 2020 at 6:27 PM -

आजादी

दुनिया के सबसे बड़े दादा अमरीका का राष्ट्रपति जनता के डर से तहखाने मे छुपा दिया गया
सभी शहरो मे एक काले की हत्या के खिलाफ गोरे सडको पर है
पुलिस न लाठी चला पा रही है और न गोली
और मारे भी तो कितनो ... को मारेगी ?
अमेरिका वास्तव मे लोकतंत्र है , मानव का मूल्य है वहा और सबसे बडी बात अमरीकी कौंम ने बता दिया की वो जिन्दा है
चुनाव जीत लेने का मतलब किसी का कुछ भी मूर्खतापूर्ण करते जाना बर्दाश्त नही किया जा सकता है । मार्टिन लूथर किंग ने कहा था "No Justice No Peace."

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 01 Jun 2020 at 4:47 AM -

कोरोना संघर्ष

कल से लॉक डाउन की उलटी गिनती के साथ ही उम्मीदों और अपेक्षाओं के बयार के बीच नयी चिंताएं भी अपने लिए स्थान बना रही हैं। कुछ करोड़ मजदूर घर लौट गए, कुछ लाख लघु-मध्यम उत्पादन इक्काई, व्यापार बंद हो गए। आये दिन सफ़ेद ... कालर कम्पनियाँ जैसे - उबर , ज़ोमेटो, आदि से लोगों की नौकरियां जाने की खबरें आ रही हैं। नोयडा, गुरुग्राम में कई सौ कम्पनियां ऐसी हैं जो दस से सौ लोगों के साथ सॉफ्टवेयर, आउटसोर्स मेंटेनेंस जैसे काम करती हैं। टूरिज्म, होटल जैसे क्षेत्रों में काम करने वालों में से लगभग पचास फीसदी लोगों की नौकरियां छूट चुकी हैं। अकेले दिल्ली एन सी आर में मीडिया से जुड़े दो हज़ार लोग घर बैठ चुके हैं। कार बेचने वाली कम्पनी हों या हाई एंड शो रूम, बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हो रहे हैं।
कामगार घर लौटे तो वे मेहनत- मजदूरी कर सकते हैं लेकिन जीवन के पच्चीस साल किसी अखबार के सम्पादकीय विभाग में जुड़े रहे तो परचून की दूकान भी नहीं चला सकते. छोटे कस्बों में जाओ तो इस तरह का कोई रोजगार नहीं मिलेगा। गगन चुम्बी ईमारतों में ऐसी कई आवाज़े घुट रही हैं, जिनमें अभी तीन महीने पहले तक पति-पत्नी दोनों काम करते थे लेकिन अब एक की नौकरी गयी और दूसरे का वेतन आधा हो गया। कहने को घर में दो कारें खड़ी हैं लेकिन किश्तें देने को पैसा नहीं। मकान की किश्त तो दूर सोसायटी का मेंटेनेंस देने के भी लाले पड़े हैं। इस समय न तो कार बिक रही है न ही फ्लेट। न किसी को बोल सकते हैं न बच्चों की जरूरतों में कटौती कर सकते हैं। अधिकांश घर ऐसी ही अनेक दुविधाओं में घुट रहे हैं।
इंदौर में एक औद्योगिक ईकाई है। उन्होंने जो समान बाज़ार में उधार दिया उसका पैसा लगभग डूब गया है। नया काम शुरू करना हो तो पूंजी नहीं क्योंकि सारी बचत तीन महीने में खा गये। कुछ नया माल बना लो तो बाज़ार में खपत नहीं है। फिर मजदुर को नगद देना है। ऐसे परिवार भी देश भर में लाखों में हैं। उनकी कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है, लेकिन अपना जीवन स्तर बनाये रखने का दवाब जबर्दस्त है।
ऐसा ही एक और वर्ग है, सरकारी सेवा से रिटायर्ड, या जमापूंजी को बैंक या रियल एस्टेट या शेयर में लगा कर जीवकोपार्जन करने वाला। बैंक में जमा पर ब्याज दरें गिरने, प्रोपर्टी का किराया न मिलने और शेयर बाज़ार के लगातार नकारात्मक होने से इस वर्ग के करोड़ों लोग बेहद दुविधा और कुंठा में हैं। महंगाई बढ़ी लेकिन आय कम हो गयी ऊपर से महंगाई भत्ता बन्द।
कोरोना का हल्ला जैसे जैसे शांत होगा इस मध्य वर्ग के दर्द गहरे होंगे। ये पलायन नहीं कर सकते। ये कोई दूसरा काम नहीं कर सकते। जीवन स्तर में बदलाव के लिए इन्हें अपनी आत्मा को कुचलना होगा।
आपके आस पास यदि ऐसे लोग हैं जिनकी नौकरी का संकट है, जिनके वेतन कम हो गए हिं उनसे बातचीत करते रहें। उनका हौसला भी बढ़ाएं। वे अपनी ओर से कुछ कहेंगे नहीं लेकिन यदि महसूस हो तो उनका सहयोग भी करें। ये लोग न सरकारी राशन ले सकते हैं और न ही खाने की लाईन में लग पायेंगे, लेकिन जरूरतें इनकी भी वही हो चुकी हैं।
यह वर्ग बहुत बेसहारा और उपेक्षित छोड़ दिया गया है और यह बेहद भावुक भी है। इसे नए हालात में ढलने की आदत नहीं। इन्होने केवल प्रगति, विकास और जीडीपी देखी है और उसको ही लक्ष्य माना है। पराभव इनके लिए अकल्पनीय है। इनका साथ भी वैसे ही देना है जैसे हमने कामगारों का दिया है या देने की बात कर रहे हैं

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 31 May 2020 at 7:33 PM -

रानी अहिल्या बाई होल्कर

आज पाल धनगर गड़ेरिया समाज के बहुत ही साधारण परिवार में जन्मी महान विभूति अहिल्याबाई होल्कर का जन्मदिन है । उनका बाल्यकाल से लेकर सम्पूर्ण जीवन इस देश में साधारण सामाजिक और पारिवारिक परिस्थितियों में पैदा हुई महिलाओं के लिए एक प्रेरणास्रोत और एक ... प्रकाशपुंज हैं।
ऐसी महान विभूति को कोटि कोटि नमन के साथ सभी देशवासियों को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामना।

31 मई सन् 1725 को जन्मी अहिल्याबाई होल्कर 40 साल की उम्र में मालवा राज्य की रानी बनी ।उन्होंने 30 वर्ष तक मालवा देश को बहुत ही उत्तम यादगार सुशासन दिया ।
उनका जीवन बहुत ही क्रांतिकारी था ।एक छोटे से गाँव में साधारण परिवार में जन्मी अहिल्याबाई असाधारण प्रतिभा की धनी थी ।ये तीक्ष्ण बुद्धि, अद्भुत साहस और करुणा पूरित व्यक्तित्व की शुरू से ही धनी थी।
अठाईस साल के युवावस्था में पति की मृत्यु हो गई। उस समय जहाँ विधवा होने पर सती होने की प्रथा राज घरानों में थी , अहिल्या बाई होलकर ने उस प्रथा के विरुद्ध जाकर अपने ससुर के साथ राजकार्य में हाथ बँटाने का निर्णय लिया। जहाँ पेशवा राज्य में महिलाओं की स्थिति मात्र हरम की शोभा बढ़ाना था ,वहाँ अहिल्याबाई होलकर ने राजकाज में सक्रिय भूमिका निभाई और अपने ससुर की मृत्यु के पश्चात 40 वर्ष की अवस्था में मालवा राज्य की महारानी बनी।
मालवा राज्य के शासन की बागडोर को एक विधवा महिला द्वारा संभालना वास्तव में उस समय के परंपरा के दृष्टिगत बहुत ही क्रांतिकारी और साहसिक निर्णय था।

अहिल्याबाई होल्कर जहाँ एक ओर मानवीय संवेदना से ओत प्रोत एक कुशल प्रशासक, कुशल संगठनकर्ता और दयालु प्रजापालक थीं ,वहीं दूसरी ओर एक कुशल योद्धा भी थीं । उन्होंने अपना सेनापति तुको जी होलकर को बनाया और स्वयं युद्ध के दौरान सेना का नेतृत्व किया।
उस समय एक महिला का राज्य का मुखिया होना, खुलकर युद्ध का नेतृत्व करना और राज्य में प्रजा के बीच जाकर उनके सुख दुःख में भागीदारी करना निश्चित रूप से एक महिला के लिए बहुत क्रांतिकारी जीवन निर्णय था। तमाम ब्रितानी इतिहासकारों ने और उनके समकालीन ब्रितानी लेखकों ने भी उन्हें एक संत शासक या दार्शनिक शासक की संज्ञा दी है । बहुत बिरले ही शासक उस समय के होंगे ,जिन्हें प्रजा के सुख और समृद्धि में प्रसन्नता मिलती हो, अन्यथा ज़्यादातर शासक अपने बीच किसी भी प्रजा को कम से कम समृद्ध तो नहीं ही देख सकते थे। मालवा राज्य में उनके शासन का यह काल खंड शोषण उत्पीड़न से मुक्त शांति ,विकास और प्रजा के सुख और कल्याण के युग के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज है।
राजतंत्र में ऐसे सह्रृदय, ईमानदार ,दयालु और अपने राज्य में सुख ,समृद्धि और विकास का कार्य करने वाले राजे महाराजे इस काल में बिरले ही हुए हैं ।उनके बीच अहिल्याबाई होल्कर का नाम प्रकाशपुंज की भाँति है।


user image Jigyasa Editor - 31 May 2020 at 6:23 PM -

मुस्कुराना

मुस्कुराता हुआ चेहरा यह सिद्ध नहीं करता कि व्यक्ति को कोई दुख नहीं है।

बस बात यह है कि उसने जीने की कला सीख ली है।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 31 May 2020 at 8:29 AM -

मूल भारतीयों की औसत लंबाई राजपूतों की औसत लंबाई से कम क्यों है?
क्योंकि-
1, उनके भोजन में कैल्शियम की मात्रा कम रहती है।
2, बढ़ने की उम्र में भी बच्चों से ज्यादा ताकत लगाने वाले या थका देने वाले कार्य करवाये जाते हैं जिससे मांशपेशियां सख्त हो ... जाती हैं फलतः हड्डियों की वृद्धि में बाधक बनती हैं।
3, बढ़ने की उम्र में भी कुछ लोग कसरत ज्यादा करवा देते हैं।
4, जिनके पास खाने की कमी नहीं है वो कार्बोहाइड्रेट ज्यादा खाने लगते हैं जिससे मोटापा आ जाता है जिससे हड्डियां लम्बी होने के बजाय चौड़ी होने लगती हैं।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 30 May 2020 at 9:20 PM -

मनाने की कला।

टूटे सुजन मनाइए,
जो टूटे सौ बार।
रहिमन फिर फिर पाइए,
टूटे मुक्ताहार।।

मनाने की कला बहुत महत्वपूर्ण है। मनाने की कला सीखिए। यह एक ऐसी कला है जो आपको मनचाही ऊंचाई तक पहुंचने में मददगार हो सकती है।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 30 May 2020 at 7:24 PM -

सजीवी ग्रह

#दूसरे_ग्रह_के_लोग

जब भी इस विषय पर कोई बात होती है, पृथ्वी पर जीवन को ईश्वरीय चमत्कार मानने वालों का तर्क होता है कि अगर कहीं और जीवन है तो अब तक उसके सबूत क्यों नहीं मिले.. दूसरे शब्दों में एक तरह से इस संभावना को नकारना ... कहते हैं लेकिन अगर दूसरे तमाम ग्रहों पर जीवन है भी, तो उसका पता लगाना क्या हमारे लिये संभव है या कहीं से भी आसान है? जी नहीं.. यह हमारे लिये फिलहाल सिर्फ तुक्कों पर आधारित एक संभावना ही है, हकीकत यह है कि हमें सबसे नजदीकी ग्रह प्राॅक्सिमा बी को भी ठीक से देखने के लिये पृथ्वी के आकार का टेलिस्कोप चाहिये।

दरअसल पृथ्वी से या अभी स्पेस में मौजूद टेलिस्कोप से ऑब्जर्वर सिर्फ तारों को देखते हैं और उन तारों के प्रकाश में डिस्टर्बेंस से उनकी परिक्रमा करते ग्रहों का अनुमान लगाते हैं। ग्रहों का अपना कोई प्रकाश तो नहीं होता इसलिये वे दिखते भी नहीं, उनके बारे में जो भी डिटेल ली जाती है वह उस वक्त ली जाती है जब वे अपने होस्ट तारे के सामने से गुजरते हैं। इस मैथड को ट्रांजिट मैथड कहते हैं। इससे यह पता चल जाता है कि टार्गेटेड तारे की कोई पिंड परिक्रमा कर रहा है। इस मैथड के सिवा रेडियल विलाॅसिटी मैथड की सहायता भी ली जाती है।

यानि तारे की परिक्रमा करते पिंड की ग्रेविटी अपने स्टार पर असर डालती है जिससे वह पृथ्वी से देखने पर नजदीक आता या दूर जाता दिखता है, यह शिफ्ट बहुत मामूली होता है लेकिन डाॅप्लर स्पेक्ट्रोस्कोपी ऑब्जर्वेशन का यह एक मुख्य पहलू है जिससे पिंड का साईज, माॅस या तारे से उसकी दूरी वगैरह का अनुमान लगाया जाता है। अब इन दो तरीकों से किसी तारे के गिर्द किसी ग्रह की उपस्थिति तो पता चल जाती है लेकिन वह जीवन जीने लायक भी है या नहीं, यह इससे पता नहीं चलता।

बल्कि उस ग्रह की हैबिटेब्लिटी जानने के लिये अब बायो सिग्नेचर की मदद ली जाती है.. यानि उस ग्रह के कैमिकल्स, मिनरल्स और एटमास्फियर में मौजूद गैसों की स्टडी.. यानि ग्रह पर पड़ कर हमारे टेलिस्कोप में रिसीव हुई उस तारे की रोशनी के स्पेक्ट्रम में गैस और कम्पाउंड के साइन खोजे जाते हैं। यही बायो सिग्नेचर मैथड है.. लेकिन किसी प्लेनेट के एटमास्फियर में जीवन के सबूत देने वाली गैसों का मिलना भी यह निश्चित नहीं करता कि वहां जीवन है ही। जैसे मीथेन भी जीवन की एक पहचान है लेकिन मार्स और शनि के उपग्रह टाईटन पर इसकी मौजूदगी के बाद भी जीवन का न होना, कम से कम मंगल पर तो गारंटीड।

अब इन तुक्के टाईप अनुमानों से जो सबसे नजदीकी एक्सो प्लेनेट खोजे गये हैं, उनमें प्राॅक्सिमा B 4.2 लाईट ईयर, राॅस 128 B 11 लाईट ईयर और लुईटन B लगभग 12.2 लाईट ईयर दूर है.. यानि यह इतनी ज्यादा दूरी है कि हम कहीं भी कोई प्रोब तक नहीं भेज सकते, डायरेक्ट इन्हें देख नहीं सकते, बस इनसे गुजर कर हम तक पहुंची लाईट को ऑब्जर्व कर के ही तुक्के भिड़ा रहे हैं और हम कैसे भी इस बात की गारंटी नहीं पा सकते कि वहां जीवन है या नहीं जबकि हो सकता है कि वहां भी ठीक पृथ्वी जैसी ही इंटेलिजेंट लाईफ फल फूल रही हो। यह हमारे सबसे नजदीकी ग्रहों को ले कर हमारी औकात है, बाकी अपनी ही गैलेक्सी के दूर दराज के ग्रहों या दूसरी गैलेक्सीज के ग्रहों के बारे में खुद ही अंदाजा लगा लीजिये।

तो सारी बकवास का अर्थ यह है कि जीवन तो लाखों अरबों ग्रहों पर हो सकता है लेकिन यूनिवर्स के साईज के हिसाब से गैलेक्सीज और इन गैलेक्सीज में भी सोलर सिस्टमों के बीच की जो दूरी है, उसे देखते हुए हमारी औकात बस इतनी ही है कि हम टेलिस्कोपिक ऑब्जर्वेशन के सहारे अफसाने गढ़ते रहें और आसपास के सटे हुए दूसरे सोलर सिस्टम तक की जेम्स वेब टेलिस्कोप या पार्कर प्रोब जैसे मिशनों के सहारे जांच पड़ताल करते रहें। उन दूसरे जीवन से भरे ग्रहों के बारे में पता लगा पाना, उन्हें देख पाना, उनसे संपर्क कर पाना या उन तक पहुंच पाना फिलहाल हमारी औकात से बाहर है।

~ अशफ़ाक़ अहमद

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 29 May 2020 at 5:51 PM -

मांसाहार_वर्सेस_शाकाहार

#मांसाहार_वर्सेस_शाकाहार

जब तब इसपे बहस होती रहती है और शाकाहार समर्थक इस मुद्दे पर मांसाहारियों को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं लेकिन क्या वाकई खानपान का मुद्दा नैतिकता या संवेदनशीलता से जुड़ा होता है, जैसा इसे साबित करने की कोशिश की जाती है? इस सवाल ... से एक तुक्का और जुड़ा है कि जैसा फलाने ने जीव को बनाया है वह वैसा है, मतलब जीवों की वर्तमान स्थिति को फलाने की सुप्रीमेसी साबित करने के लिये इस्तेमाल होती है।

अब इसे बेहद सरल रूप में सर्वाइवल के मुख्य सिद्धांत के रूप में समझिये। दरअसल हमारे आसपास इस यूनिवर्स में जितना भी कुछ है, वह सब एक तरह की इनफार्मेशन है जो आगे सरकती रहती है। जब सिंगल सेल आर्गेनिजम कांपलेक्स आर्गेनिजम के रूप में ढला तो वह सर्वाइवल के लिहाज से अपने आसपास मौजूद स्थितियों के दोहन के हिसाब से ढलता गया और उसमें उत्तरोत्तर सुधार भी आता गया जिससे आगे चल कर जीवन का विभिन्नताओं से भरा वह जटिल रूप सामने आया जो हम आज अपने आसपास देखते हैं।

आप एक बया को देखिये, क्या आप इंटेलिजेंट स्पिसीज होते हुए भी उसके जैसा घोसला बना सकते हैं? पर कोई बया जिसे आप जन्म से ही बिलकुल अलग माहौल में रखें कि उसे यह घोसला बनाने की झलक भी न मिले लेकिन उसके प्राकृतिक आवास में पहुंचते ही वह वैसे ही घोसला बना लेगा.. कछुए/मगरमच्छ के बच्चों को देखा है, पानी से दूर रेत में गड्ढे खोद कर दिये गये अंडों से निकलते ही पानी की तरफ भागते हैं न कि सूखी जमीन की तरफ.. क्यों? क्योंकि उन्हें पता है कि उनका जीवन उधर है। कौन सिखाता है उन्हें? इंसान के सिवा सभी जीवों को पता रहता है कि उन्हें मेटिंग करने का मौका तभी मिलेगा जब वे मादा को रिझाने में कामयाब रहेंगे, इसके लिये वे जान की बाजी तक लगा देते हैं.. कौन सिखाता है उन्हें?

दरअसल सर्वाइवल सबसे अहम कड़ी है जीवन की.. अगर जीवों को उसकी समझ नहीं होगी तो जीवन का पनपना मुमकिन नहीं.. और यह सर्वाइवल तीन मूलभूत पिलर पर डिपेंड रहता है। पहला भोजन क्या हो सकता है और इसे कैसे हासिल करना है, दूसरा प्रजनन कैसे करना है ताकि अपने जींस आगे बढ़ाये जा सकें और तीसरा खतरा क्या है और इसके अगेंस्ट हमें सुरक्षा कैसे करनी है। यह सब इन्फोर्मेशन जीवों के जींस में रहती है जो वे आगे सरका देते हैं अपनी अगली नस्ल में.. तो यह बेसिक समझ सभी जीवों में रहती है और उनका शरीर उसी इनफार्मेशन के हिसाब से ड्वेलप होता है।

मतलब शेर के बच्चे को पता होता है कि उसका भोजन मांस है, घास नहीं। हिरण को पता होता है कि उसका भोजन घास है, मांस नहीं। इनके शरीर का पाचन तंत्र उसी हिसाब से विकसित हुआ है.. आप चाह कर भी शेर को घास और हिरण को मांस नहीं खिला सकते। हर जीव को जन्मजात पता होता है कि उसे अपना वंश कैसे आगे बढ़ाना है और उसके लिये उसके पास क्या स्किल होनी चाहिये.. बया के घोसले या दो जवान नर शेरों की लड़ाई को इसी से जोड़ कर देखिये। उन्हें खतरे का अंदाजा रहता है और उससे सुरक्षा कैसे करनी है, वह भी मोटे तौर पर पता रहता है.. इसे खुद पर अप्लाई करके देख सकते हैं। अंजानी चीजों से कैसे डरते हैं और बचने की कैसे कोशिश करते हैं।

हाँ एक बात यह भी है कि इस इनफार्मेशन के साथ कई बार आदतें और बीमारियां भी ट्रांसफर हो जाती हैं जिन्हें हम अनुवांशिकता के रूप में देखते हैं। बाकी इस जेनेटिक इनफार्मेशन के हिसाब से इंसान सर्वाहारी होता है न कि सिर्फ मांसाहारी या शाकाहारी.. ठीक कुत्ते या भालू की तर्ज पर। कहने का अर्थ यह है कि इंसान का शुद्ध शाकाहारी होना प्राकृतिक नहीं बल्कि यह एक कला है जिसे सीखना पड़ता है, एक नियंत्रण है जिसे पाना पड़ता है तो इस मामले में मांसाहारी तो प्राकृतिक है क्योंकि वह दोनों तरह के भोजन करता है और उसका शरीर उसी हिसाब से डिजाइन हुआ है.. जबकि शुद्ध शाकाहारी होना एक अप्राकृतिक अवस्था है जिसे आपको सीखना पड़ता है।

अब आइये फलाने की सुप्रीमेसी पर कि उसने बनाया तो सब ऐसे हैं.. सब जैसे भी हैं वह इवाॅल्यूशन प्रोसेस का हिस्सा है, उनकी अगली पीढ़ी का भोजन क्या रहेगा, यह इस बात पे निर्भर करता है कि उन्हें कौन सा भोजन आसपास प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है.. आगे की इनफार्मेशन उसी हिसाब से बदलती जाती है, जैसे इंसान में अपेंडिक्स उस दौर की पहचान है जब हमने भोजन पका कर खाना नहीं सीखा था, लेकिन फिर सीख लिया तो उसकी जरूरत नहीं रही और देर सवेर इसका सबूत भी शरीर से हट जायेगा।

अब आइये इस मुद्दे पर कि जहाँ फसल उपलब्ध है वहां लोग मांसाहार से परहेज कर सकते हैं क्योंकि है तो यह जीव हत्या पर ही आधारित। बात तार्किक है लेकिन व्यवहारिक नहीं.. हम साढ़े सात सौ करोड़ इंसान हैं और अस्सी प्रतिशत से ऊपर लोग मांसाहार करते होंगे और अगर एक पल के लिये मान लें कि सब शाकाहार अपना लें तो क्या सब्जियों और दालों की उपलब्धता इतनी है कि सबको अन्न मिल सके? क्या हमारे पास इतनी खेती लायक जमीन है? क्या हम जंगल काट कर खेत बनाने की कीमत पर पर्यावरणीय असंतुलन के साइड इफेक्ट समझते हैं? फिर कमी के साथ जो इस खाद्यान्न की कीमत होगी, क्या वह सब लोग चुका पायेंगे.. अभी तो दो सौ रुपये की दाल और सौ रुपये की प्याज के नाम से आंसू आ जाते हैं।

थोड़ा सोचियेगा कि अकाल कैसे पड़ते हैं और इसके क्या प्रभाव होते हैं.. और जब सभी शाकाहारी हो जायेंगे तो इसकी क्या स्थिति बनेगी? ग्लोबल वार्मिंग के दौर में फसल उत्पादन तो वैसे भी अनिश्चित हो चुका है.. जो जैसे तैसे करके उगा भी पायेंगे वह क्या सबका पेट भरने लायक होगा और क्या सब सोने के भाव बिकते उस अनाज की कीमत चुकाने में सक्षम भी होंगे। हाँ सबसे अहम बात.. शाकाहार हो या मांसाहार, इसका नैतिकता या संवेदनशीलता से कोई लेना-देना नहीं होता।

~ अशफ़ाक़ अहमद

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 29 May 2020 at 5:42 PM -

अवश्य पढ़ें

सावधान दोस्तो

कोरोना को हल्के में लेते हुए लॉक डाऊन में बाहर निकलने वालों का हश्र . . .देख लो
एक दिन अचानक बुख़ार आता है !
गले में दर्द होता है !
साँस लेने में कष्ट होता है !
Covid टेस्ट की जाती है !
1 दिन तनाव में बीतत ... हैं . .
अब टेस्ट + ve आने पर रिपोर्ट नगर पालिका जाती है !
रिपोर्ट से हॉस्पिटल तय होता है !
फिर एम्बुलेंस कॉलोनी में आती है !
कॉलोनीवासी खिड़की से झाँक कर तुम्हें देखते हैं !
कुछ लोग आपके लिए टिप्पणियां करते है !
कुछ मन ही मन हँस रहे होते हैं !
एम्बुलेंस वाले उपयोग के कपड़े रखने का कहते हैं !
बेचारे घरवाले तुम्हें जी भर कर देखते हैं !
ओर वो भी टेन्सन में आ जाते है ,
और सोचने लगते है कि अब किसका नम्बर है !
तुम्हारी आँखों से आँसू बोल रहे होते हैं !
तभी . . .
प्रशाशन बोलता है...
चलो जल्दी बैठो आवाज़ दी जाती है ...
एम्बुलेंस का दरवाजा बन्द . . .
सायरन बजाते रवानगी . . .
फिर कॉलोनी वाले बाहर निकलते है ..
फिर कॉलोनी सील कर दी जाती है . . .
14 दिन पेट के बल सोने को कहा जाता है . . .
दो वक्त का जीवन योग्य खाना मिलता है . . .
Tv , Mobile सब अदृश्य हो जाते हैं . .
सामने की खाली दीवार पर अतीत , और भविष्य के दृश्य दिखने लगते..
ओर वहा पर बुरे बुरे सपने आने लगते है..
अब आप ठीक हो गए तो ठीक . . .
वो भी जब 3 टेस्ट रिपोर्ट नेगेटिव आ जाएँ . . .
तो घर वापसी . . .
लेकिन इलाज के दौरान यदि आपके साथ कोई अनहोनी हो गई तो . . .?
तो आपके शरीर को प्लास्टिक के कवर में पैक कर सीधे शवदाहगृह . . .
शायद अपनों को अंतिमदर्शन भी नसीब नहीं . . .
कोई अंत्येष्टि क्रिया भी नहीं . . .
सिर्फ परिजनों को एक *डेथ सर्टिफिकेट..

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 28 May 2020 at 8:33 PM -

बकरी

Koi Dukh Na Ho To Bakri Kharid Lo Munshi Premchand

कोई दुख न हो तो बकरी ख़रीद लो -
मुंशी प्रेम चंद

उन दिनों दूध की तकलीफ थी। कई डेरी फर्मों की आजमाइश की, अहारों का इम्तहान लिया, कोई नतीजा नहीं। दो-चार दिन तो दूध अच्छा, मिलता ... फिर मिलावट शुरू हो जाती। कभी शिकायत होती दूध फट गया, कभी उसमें से नागवार बू आने लगी, कभी मक्खन के रेजे निकलते। आखिर एक दिन एक दोस्त से कहा-भाई, आओ साझे में एक गाय ले लें, तुम्हें भी दूध का आराम होगा, मुझे भी। लागत आधी-आधी, खर्च आधा-आधा, दूध भी आधा-आधा। दोस्त साहब राजी हो गए। मेरे घर में जगह न थी और गोबर वगैरह से मुझे नफरत है। उनके मकान में काफी जगह थी इसलिए प्रस्ताव हुआ कि गाय उन्हीं के घर रहे। इसके बदले में उन्हें गोबर पर एकछत्र अधिकार रहे। वह उसे पूरी आजादी से पाथें, उपले बनाएं, घर लीपें, पड़ोसियों को दें या उसे किसी आयुर्वेदिक उपयोग में लाएं, इकरार करनेवाले को इसमें किसी प्रकार की आपत्ति या प्रतिवाद न होगा और इकरार करनेवाला सही होश-हवास में इकरार करता है कि वह गोबर पर कभी अपना अधिकार जमाने की कोशिश न करेगा और न किसी का इस्तेमाल करने के लिए आमादा करेगा। 
दूध आने लगा, रोज-रोज की झंझट से मुक्ति मिली। एक हफ्ते तक किसी तरह की शिकायत न पैदा हुई। गरम-गरम दूध पीता था और खुश होकर गाता था- 
रब का शुक्र अदा कर भाई जिसने हमारी गाय बनाई। 
ताजा दूध पिलाया उसने लुत्फे हयात चखाया उसने। 
दूध में भीगी रोटी मेरी उसके करम ने बख्शी सेरी। 
खुदा की रहमत की है मूरत कैसी भोली-भाली सूरत। 
मगर धीरे-धीरे यहां पुरानी शिकायतें पैदा होने लगीं। यहां तक नौबत पहुंची कि दूध सिर्फ नाम का दूध रह गया। कितना ही उबालो, न कहीं मलाई का पता न मिठास। पहले तो शिकायत कर लिया करता था इससे दिल का बुखार निकल जाता था। शिकायत से सुधार न होता तो दूध बन्द कर देता था। अब तो शिकायत का भी मौका न था, बन्द कर देने का जिक्र ही क्या। भिखारी का गुस्सा अपनी जान पर, पियो या नाले में डाल दो। आठ आने रोज का नुस्खा किस्मत में लिखा हुआ। बच्चा दूध को मुंह न लगाता, पीना तो दूर रहा। आधों आध शक्कर डालकर कुछ दिनों दूध पिलाया तो फोड़े निकलने शुरू हुए और मेरे घर में रोज बमचख मची रहती थी। बीवी नौकर से फरमाती-दूध ले जाकर उन्हीं के सर पटक आ। मैं नौकर को मना करता। वह कहतीं-अच्छे दोस्त है तुम्हारे, उसे शरम भी नहीं आती। क्या इतना अहमक है कि इतना भी नहीं समझता कि यह लोग दूध देखकर क्या कहेंगे! गाय को अपने घर मंगवा लो, बला से बदबू आयगी, मच्छर होंगे, दूध तो अच्छा मिलेगा। रुपये खर्चे हैं तो उसका मजा तो मिलेगा। 
चड्ढा साहब मेरे पुराने मेहरबान हैं। खासी बेतकल्लुफी है उनसे। यह हरकत उनकी जानकारी में होती हो यह बात किसी तरह गले के नीचे नहीं उतरती। या तो उनकी बीवी की शरारत है या नौकर की लेकिन जिक्र कैसे करूं। और फिर उनकी बीवी से भी तो राह-रस्म है। कई बार मेरे घर आ चुकी हैं। मेरी बीवी जी भी उनके यहां कई बार मेहमान बनकर जा चुकी हैं। क्या वह यकायक इतनी बेवकूफ हो जायेंगी, सरीहन आंखों में धूल झोंकेंगी! और फिर चाहे किसी की शरारत हो, मेरे लिएयह गैरमुमकिन था कि उनसे दूध की खराबी की शिकायत करता। खैरियत यह हुई कि तीसरे महीने चड्ढा का तबादला हो गया। मैं अकेले गाय न रख सकता था। साझा टूट गया। गाय आधे दामों बेच दी गई। मैंने उस दिन इत्मीनान की सांस ली। 
आखिर यह सलाह हुई कि एक बकरी रख ली जाय। वह बीच आंगन के एक कोने में पड़ी रह सकती है। उसे दुहने के लिए न ग्वाले की जरूरत न उसका गोबर उठाने, नांद धोने, चारा-भूसा डालने के लिए किसी अहीरिन की जरूरत। बकरी तो मेरा नौकरभी आसानी से दुह लेगा। थोड़ी-सी चोकर डाल दी, चलिये किस्सा तमाम हुआ। फिर बकरी का दूध फायदेमंद भी ज्यादा है, बच्चों के लिए खास तौर पर। जल्दी हजम होता है, न गर्मी करे न सर्दी, स्वास्थ्यवर्द्धक है। संयोग से मेरे यहां जो पंडित जी मेरे मसौदे नकल करने आया करते थे, इन मामलों में काफी तजुर्बेकार थे। उनसे जिक्र आया तो उन्होंने एक बकरी की ऐसी स्तुति गाई, उसका ऐसा कसीदा पढ़ा कि मैं बिन देखे ही उसका प्रेमी हो गया। पछांही नसल की बकरी है, ऊंचे कद की, बड़े-बड़े थन जो जमीन से लगते चलते हैं। बेहद कमखोर लेकिन बेहद दुधार। एक वक्त में दो-ढाई सेर दूध ले लीजिए। अभी पहली बार ही बियाई है। पच्चीस रुपये में आ जायगी। मुझे दाम कुछ ज्यादा मालूम हुए लेकिन पंडितजी पर मुझे एतबार था। फरमाइश कर दी गई और तीसरे दिन बकरी आ पहुंची। मैं देखकर उछल पड़ा। जो-जो गुण बताये गये थे उनसे कुछ ज्यादा ही निकले। एक छोटी-सी मिट्टी की नांद मंगवाई गई, चोकर का भी इन्तजाम हो गया। शाम को मेरे नौकर ने दूध निकाला तो सचमुच ढाई सेर। मेरी छोटी पतीली लबालब भर गई थी। अब मूसलों ढोल बजायेंगे। यह मसला इतने दिनों के बाद जाकर कहीं हल हुआ। पहले ही यह बात सूझती तो क्यों इतनी परेशानी होती। पण्डितजी का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा किया। मुझे सवेरे तड़के और शाम को उसकी सींग पकड़ने पड़ते थे तब आदमी दुह पाता था। लेकिन यह तकलीफ इस दूध के मुकाबले में कुछ न थी। बकरी क्या है कामधेनु है। बीवी ने सोचा इसे कहीं नजर न लग जाय इसलिए उसके थन के लिए एक गिलाफ तैयार हुआ, इसकी गर्दन में नीले चीनी के दानों का एक माला पहनाया गया। घर में जो कुछ जूठा बचता, देवी जी खुद जाकर उसे खिला आती थीं। 
लेकिन एक ही हफ्ते में दूध की मात्रा कम होने लगी। जरूर नजर लग गई। बात क्या है। पण्डितजी से हाल कहा तो उन्होंने कहा-साहब, देहात की बकरी है, जमींदार की। बेदरेग अनाज खाती थी और सारे दिन बाग में घूमा-चरा करती थी। यहॉँ बंधे-बंधे दूध कम हो जाये तो ताज्जुब नहीं। इसे जरा टहला दिया कीजिए। लेकिन शहर में बकरी को टहलाये कौन और कहां? इसलिए यह तय हुआ कि बाहर कहीं मकान लिया जाय। वहां बस्ती से जरा निकलकर खेत और बाग है। कहार घण्टे-दो घण्टे टहला लाया करेगा। झटपट मकान बदला और गौ कि मुझे दफ्तर आने-जाने में तीन मील का फासला तय करना पड़ता था लेकिन अच्छा दूधमिले तो मैं इसका दुगना फासला तय करने को तैयार था। यहां मकान खूब खुला हुआ था, मकान के सामने सहन था, जरा और बढ़कर आम और महुए का बाग। बाग से निकलिए तो काछियों के खेत थे, किसी में आलू, किसी में गोभी। एक काछी से तय कर लिया कि रोजना बकरी के लिए कुछ हरियाली जाया करे। मगर इतनी कोशिश करने पर भी दूध की मात्रा में कुछ खास बढ़त नहीं हुई। ढाई सेर की जगह मुश्किल से सेर-भर दूध निकलता था लेकिन यह तस्कीन थी कि दूध खालिस है, यही क्या कम है! मै। यह कभी नहीं मान सकता कि खिदमतगारी के मुकाबले में बकरी चराना ज्यादा जलील काम है। हमारे देवताओं और नबियों का बहुत सम्मानित वर्ग गल्ले चराया करते था। कृष्ण जी गायें चराते थे। कौन कह सकता है कि उस गल्ले में बकरियां न रही होंगी। हजरत ईसा और हजरत मुहम्मद दोनों ही भेड़े चराते थे। लेकिन आदमी रूढ़ियों का दास है। जो कुछ बुजुर्गों ने नहीं किया उसे वह कैसे करे। नये रास्ते पर चलने के लिए जिस संकल्प और दृढ़ आस्था की जरूरत है वह हर एक में तो होती नहीं। धोबी आपके गन्दे कपड़े धो लेगा लेकिन आपके दरवाजे पर झाड़ू लगाने में अपनी हतक समझता है। जरायमपेशा कौमों के लोग बाजार से कोई चीज कीमत देकर खरीदना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। मेरे खितमतगार को बकरी लेकर बाग में जाना बुरा मालूम होता था। घरसे तो ले जाय लेकिन बाग में उसे छोड़कर खुद किसी पेड़ के नीचे सो जाता। बकरी पत्तियां चर लेती थी। मगर एक दिन उसके जी में आया कि जरा बाग से निकलकर खेतों की सैर करें। यों वह बहुत ही सभ्य और सुसंस्कृत बकरी थी, उसके चेहरे से गम्भीरता झलकती थी। लेकिन बाग और खेत में घुस गई आजादी नहीं है, इसे वह शायद न समझ सकी। एक रोज किसी खेत में घुस गई और गोभी की कई क्यारियां साफ कर गई। काछी ने देखा तो उसके कान पकड़ लिये और मेरे पास लाकर बोला-बाबजी, इस तरह आपकी बकरी हमारे खेत चरेगी तो हम तो तबाह हो जायेंगे। आपको बकरी रखने का शौक है तो इस बांधकर रखिये। आज तो हमने आपका लिहाज किया लेकिन फिर हमारे खेत में गई तो हम या तो उसकी टॉँग तोड़ देंगे या कानीहौज भेज देंगे। 
अभी वह अपना भाषण खत्म न कर पाया था कि उसकी बीवी आ पहुंची और उसने इसी विचार को और भी जोरदार शब्दों में अदा किया-हां, हां, करती ही रही मगर रांड खेत में घुस गई और सारा खेत चौपट कर दिया, इसके पेट में भवनी बैठे! यहॉँ कोई तुम्हारा दबैल नहीं है। हाकिम होंगे अपने घर के होंगे। बकरी रखना है तो बांधकर रखो नहीं गला ऐंठ दूंगी! 
मैं भीगी बिल्ली बना हुआ खड़ा था। जितनी फटकर आज सहनी पड़ी उतनी जिन्दगी में कभी न सही। और जिस धीरज से आज काम लिया अगरउसे दूसरे मौकों पर काम लिया होतातो आज आदमी होता। कोई जवाब नहीं सूझता था। बस यही जी चाहता थाकि बकरी का गला घोंट दूं ओर खिदमतगार को डेढ़ सौ हण्टर जमाऊं। मेरी खामोशी से वह औरत भी शेर होती जाती थी। आज मुझे मालूम हुआ कि किन्हीं-किन्हीं मौकों पर खामोशी नुकसानदेह साबित होती है। खैर, मेरी बीवी ने घर में यह गुल-गपाड़ा सुना तो दरवाजे पर आ गई तो हेकड़ी से बोली-तू कानीहौज पहुंचा दे और क्या करेगी, नाहक टर्र-टर्र कर रही है, घण्टे-भर से। जानवर ही है, एक दिन खुल गई तो क्या उसकी जान लेगी? खबरदार जो एक बात भी मुंह से निकाली। क्यों नहीं खेत के चारों तरफ झाड़ लगा देती, कॉँटों से रूंध दे। अपनी गती तो मानती नहीं, ऊपर से लड़ने आई है। अभी पुलिस में इत्तला कर दें तो बंधे-बंधे फिरो। 
बात कहने की इस शासनपूर्ण शैली ने उन दोनों को ठण्डा कर दिया। लेकिन उनके चले जाने के बाद मैंने देवी जी की खूब खबर ली-गरीबों का नुकसन भी करती हो और ऊपर से रोब जमाती हो। इसी का नाम इंसाफ है? 
देवी जी ने गर्वपूर्वक उत्तर दिया-मेरा एहसान तो न मानोगे कि शैतनों को कितनी आसानी से भगा दिया, लगे उल्टे डांटने। गंवारों को राह बतलाने का सख्ती के सिवा दूसरा कोई तरीका नहीं। सज्जनता या उदारता उनकी समझ में नहीं आती। उसे यह लोग कमजोरी समझते हैं और कमजोर को कोन नहीं दबाना चाहता। 
खिदमतगार से जवाब तलब किया तो उसने साफ कह दिया-साहब, बकरी चराना मेरा काम नहीं है। 
मैंने कहा-तुमसे बकरी चराने को कौन कहता है, जरा उसे देखते रहो करो कि किसी खेत में न जाय, इतना भी तुमसे नहीं हो सकता? मैं बकरी नहीं चरा सकता साहब, कोई दूसरा आदमी रख लीजिए। 
आखिरी मैंने खुद शाम को उसे बाग में चरा लाने का फैसला किया। इतने जरा-से काम के लिए एक नया आदमी रखना मेरी हैसियत से बाहर था। और अपने इस नौकर को जवाब भी नहीं देना चाहता था जिसने कई साल तक वफादारी से मेरी सेवा की थी और ईमानदार था। दूसरे दिन में दफ्तर से जरा जल्द चला आया और चटपट बकरी को लेकर बाग में जा पहुंचा। जोड़ों के दिन थे। ठण्डी हवा चल रही थी। पेड़ों के नीचे सूखी पत्तियॉँ गिरी हुई थीं। बकरी एक पल में वह जा पहुंची। मेरी दलेल हो रही थी, उसके पीछे-पीछे दौड़ता फिरता था। दफ्तर से लौटकर जरा आराम किया करता था, आज यह कवायद करना पड़ी, थक गया, मगर मेहनत सफल हो गई, आज बकरी ने कुछ ज्यादा दूध पिया। 
यह खयाल आया, अगर सूखी पत्तियां खाने से दूध की मात्रा बढ़ गई तो यकीनन हरी पत्तियॉँ खिलाई जाएं तो इससे कहीं बेहतर नतीजा निकले। लेकिन हरी पत्तियॉँ आयें कहॉँ से? पेड़ों से तोडूं तो बाग का मालिक जरूर एतराज करेगा, कीमत देकर हरी पत्तियां मिल न सकती थीं। सोचा, क्यों एक बार बॉँस के लग्गे से पत्तियां तोड़ें। मालिक ने शोर मचाया तो उससे आरजू-मिन्नत कर लेंगे। राजी हो गया तो खैर, नहीं देखी जायगी। थोड़ी-सी पत्तियॉँ तोड़ लेने से पेड़ का क्या बिगड़ जाता है। चुनाचे एक पड़ोसी से एकपतला-लम्बा बॉँस मॉँग लाया, उसमें एक ऑंकुस बॉँधा और शाम को बकरी को साथ लेकर पत्तियॉँ तोड़ने लगा। चोर ऑंखों से इधर-उधर देखता जाता था, कहीं मालिक तो नहीं आरहा है। अचानक वही काछी एक तरफ से आ निकला और मुझे पत्तियां तोड़ते देखकर बोला-यह क्या करते हो बाबूजी, आपके हाथ में यह लग्गा अच्छा नहीं लगता। बकरी पालना हम गरीबों का काम है कि आप जैसे शरीफों का। मैं कट गया, कुछ जवाब नसूझा। इसमें क्या बुराई है, अपने हाथ से अपना काम करने में क्या शर्म वगैरह जवाब कुछ हलके, बेहकीकत, बनावटी मालूम हुए। सफेदपोशी के आत्मगौरव के जबान बन्द कर दी। काछी ने पास आकर मेरे हाथ से लग्गा ले लिया और देखते-देखते हरी पत्तियों का ढेर लगा दिया और पूछा-पत्तियॉँ कहॉँ रख जाऊं? 
मैंने झेंपते हुए कहा-तुम रहने दो? मैं उठा ले जाऊंगा। 
उसने थोड़ी-सी पत्तियॉं बगल में उठा लीं और बोला-आप क्या पत्तियॉँ रखने जायेंगे, चलिए मैं रख आऊं। 
मैंने बरामदे में पत्तियॉँ रखवा लीं। उसी पेड़ के नीचे उसकी चौगुनी पत्तियां पड़ी हुई थी। काछी ने उनका एक गट्ठा बनाया और सर पर लादकर चला गया। अब मुझे मालूम हुआ, यह देहाती कितने चालाक होते हैं। कोई बात मतलब से खाली नहीं। 
मगर दूसरे दिन बकरी को बाग में ले जाना मेरे लिए कठिन हो गया। काछी फिर देखेगा और न जाने क्या-क्या फिकरे चुस्त करे। उसकी नजरों में गिर जाना मुंह से कालिख लगाने से कम शर्मनाक न था। हमारे सम्मान और प्रतिष्ठा की जो कसौटी लोगों ने बना रक्खी है, हमको उसका आदर करना पड़ेगा, नक्कू बनकर रहे तो क्या रहे। 
लेकिन बकरी इतनी आसानी से अपनी निर्द्वन्द्व आजाद चहलकदमी से हाथ न खींचना चाहती थी जिसे उसने अपने साधारण दिनचर्या समझना शुरू कर दिया था। शाम होते ही उसने इतने जोर-शोर से प्रतिवाद का स्वर उठायया कि घर में बैठना मुश्किल हो गय। गिटकिरीदार ‘मे-मे’ का निरन्तर स्वर आ-आकर कान के पर्दों को क्षत-विक्षत करने लगा। कहां भाग जाऊं? बीवी ने उसे गालियां देना शुरू कीं। मैंने गुससे में आकर कई डण्डे रसीदे किये, मगर उसे सत्याग्रह स्थागित न करना था न किया। बड़े संकट में जान थी। 
आखिर मजबूर हो गया। अपने किये का, क्या इलाज! आठ बजे रात, जाड़ों के दिन। घर से बाहर मुंह निकालना मुश्किल और मैं बकरी को बाग में टहला रहा था और अपनी किस्मत को कोस रहा था। अंधेरे में पांव रखते मेरी रूह कांपती है। एक बार मेरे सामने से एक सांप निकल गया था। अगर उसके ऊपर पैर पड़ जाता तो जरूर काट लेता। तब से मैं अंधेरे में कभी न निकलता था। मगर आज इस बकरी के कारण मुझे इस खतरे का भी सामना करना पड़ा। जरा भी हवा चलती और पत्ते खड़कते तो मेरी आंखें ठिठुर जातीं और पिंडलियां कॉँपने लगतीं। शायद उस जन्म में मैं बकरी रहा हूंगा और यह बकरी मेरी मालकिन रही होगी। उसी का प्रायश्चित इस जिन्दगी में भोग रहा था। बुरा हो उस पण्डित का, जिसने यह बला मेरे सिर मढी। गिरस्ती भी जंजाल है। बच्चा न होता तो क्यों इस मूजी जानवर की इतनी खुशामद करनी पड़ती। और यह बच्चा बड़ा हो जायगा तो बात न सुनेगा, कहेगा, आपने मेरे लिए क्या किया है। कौन-सी जायदाद छोड़ी है! यह सजा भुगतकर नौ बजे रात को लौटा। अगररात को बकरी मर जाती तो मुझे जरा भी दु:ख न होता। 
दूसरे दिन सुबह से ही मुझे यह फिक्र सवार हुई कि किसी तरह रात की बेगार से छुट्टी मिले। आज दफ्तर में छुट्टी थी। मैंने एक लम्बी रस्सी मंगवाई और शाम को बकरी के गले में रस्सी डाल एक पेड़ की जड़ से बांधकर सो गया-अब चरे जितना चाहे। अब चिराग जलते-जलते खोल लाऊंगा। छुट्टी थी ही, शाम को सिनेमा देखने की ठहरी। एक अच्छा-सा खेल आया हुआ था। नौकर को भी साथ लिया वर्ना बच्चे को कौन सभालाता। जब नौ बजे रात को घर लोटे और में लालटेन लेकर बकरी लेनो गया तो क्या देखता हूं कि उसने रस्सी को दो-तीन पेड़ों से लपेटकर ऐसा उलझा डाला है कि सुलझना मुश्किल है। इतनी रस्सी भी न बची थी कि वह एक कदम भी चल सकती। लाहौलविकलाकूवत, जी में आया कि कम्बख्त को यहीं छोड़ दूं, मरती है तो मर जाय, अब इतनी रात को लालटेन की रोशनी में रस्सी सुलझाने बैठे। लेकिन दिल न माना। पहले उसकी गर्दन से रस्सी खोली, फिर उसकी पेंच-दर-पेंच ऐंठन छुड़ाई, एक घंटा लग गया। मारे सर्दी के हाथ ठिठुरे जाते थे और जी जल रहा था वह अलग। यह तरकीब। और भी तकलीफदेह साबित हुई। 
अब क्या करूं, अक्ल काम न करती थी। दूध का खयाल न होता तो किसी को मुफ्त दे देता। शाम होते ही चुड़ैल अपनी चीख-पुकार शुरू कर देगी और घर में रहना मुश्किल हो जायगा, और आवाज भी कितनी कर्कश और मनहूस होती है। शास्त्रों में लिखा भी है, जितनी दूर उसकी आवाज जाती है उतनी दूर देवता नहीं आते। स्वर्ग की बसनेवाली हस्तियां जो अप्सराओं के गाने सुनने की आदी है, उसकी कर्कश आवाज से नफरत करें तो क्या ताज्जुब! मुझ पर उसकी कर्ण कटु पुकारों को ऐसा आंतक सवार था कि दूसरे दिन दफ्तर से आते ही मैं घर से निकल भागा। लेकिन एक मील निकल जाने पर भी ऐसा लग रहा था कि उसकी आवाज मेरा पीछा किये चली आती है। अपने इस चिड़चिड़ेपन पर शर्म भी आ रही थी। जिसे एक बकरीरखने की भी सामर्थ्य न हो वह इतना नाजुक दिमाग क्यों बने और फिर तुम सारी रात तो घर से बाहर रहोगे नहीं, आठ बजे पहुंचोगे तो क्या वह गीत तुम्हारा स्वागत न करेगा? 
सहसा एक नीची शाखोंवाला पेड़ देखकर मुझे बरबस उस पर चढ़ने की इच्छा हुई। सपाट तनों पर चढ़ना मुश्किल होता है, यहां तो छ: सात फुट की ऊंचाई पर शाखें फूट गयी थीं। हरी-हरी पत्तियों से पेड़ लदा खड़ा था और पेड़ भी था गूलर का जिसकी पत्तियों से बकरियों को खास प्रेम है। मैं इधर तीस साल से किसी रुख पर नहीं चढ़ा। वहआदत जाती रही। इसलिए आसान चढ़ाई के बावजूद मेरे पांव कांप रहे थे पर मैंने हिम्मत न हारी और पत्तियों तोड़-तोड़ नीचे गिराने लगा। यहां अकेले में कौन मुझे देखता है कि पत्तियां तोड़ रहा हूं। अभी अंधेरा हुआ जाता है। पत्तियों का एक गट्ठा बगल में दबाऊंगा और घर जा पहुंचूंगा। अगर इतने पर भी बकरी ने कुछ चीं-चपड़ की तो उसकी शामत ही आ जायगी।
मैं अभी ऊपर ही था कि बकरियों और भेड़ों काएक गोल न जाने किधर से आ निकला और पत्तियों पर पिल पड़ा। मैं ऊपर से चीख रहा हूं मगर कौन सुनता है। चरवाहे का कहीं पता नहीं । कहीं दुबक रहा होगा कि देख लिया जाऊंगा तो गालियां पड़ेंगी। झल्लाकर नीचे उतरने लगा। एक-एक पल में पत्तियां गायब होती जाती थी। उतरकर एक-एक की टांग तोडूंगा। यकायक पांव फिसला और मैं दस फिट की ऊंचाई से नीचे आ रहा। कमर में ऐसी चोट आयी कि पांच मिनट तक आंखों तले अंधेरा छा गया। खैरियत हुई कि और ऊपर से नहीं गिरा, नहीं तो यहीं शहीद हो जाता। बारे, मेरे गिरने के धमाके से बकरियां भागीं और थोड़ी-सी पत्तियां बच रहीं। जब जरा होश ठिकाने हुए तो मैंने उन पत्तियों को जमा करके एक गट्ठा बनाया और मजदूरों की तरह उसे कंधे पर रखकर शर्म की तरह छिपाये घर चला। रास्ते में कोई दुर्घटना न हुई। जब मकान कोई चार फलांग रह गया और मैंने कदम तेज किये कि कहीं कोई देख न ले तो वह काछी समाने से आता दिखायी दिया। कुछ न पूछो उस वक्त मेरी क्या हालत हुई। रास्ते के दोनो तरफ खेतों की ऊंची मेड़ें थीं जिनके ऊपर नागफनी निकलेगा और भगवान् जाने क्या सितम ढाये। कहीं मुड़ने का रास्ता नहीं और बदल ली और सिर झुकाकर इस तरह निकल जाना चाहता था कि कोई मजदूर है। तले की सांस तले थी, ऊपर की ऊपर, जैसे वह काछी कोई खूंखार शोरहो। बार-बार ईश्वर को याद कर रहा था कि हे भगवान्, तू ही आफत के मारे हुओं का मददगार है, इस मरदूद की जबान बन्द कर दे। एक क्षण के लिए, इसकी आंखों की रोशनी गायब कर दे...आह, वह यंत्रणा का क्षण जब मैं उसके बराबर एक गज के फासले से निकला! एक-एक कदम तलवार की धार पर पड़ रहा था शैतानी आवाज कानों में आयी-कौन है रे, कहां से पत्तियां तोड़े लाता है! 
मुझे मालूम हुआ, नीचे से जमीन निकल गयी है और मैं उसके गहरे पेट में जा पहुंचा हूं। रोएं बर्छियां बने हुए थे, दिमाग में उबाल-सा आ रहा था, शरीर को लकवा-सा मार गया, जवाब देने का होश न रहा। तेजी से दो-तीन कदम आगे बढ़ गया, मगर वह ऐच्छिक क्रिया न थी, प्राण-रक्षा की सहज क्रिया थी कि एक जालिम हाथ गट्ठे पर पड़ा और गट्ठा नीचे गिर पड़ा। फिर मुझे याद नहीं, क्या हुआ। मुझे जब होश आया तो मैं अपने दरवाजे पर पसीने से तर खड़ा था गोया मिरगी के दौरे के बाद उठा हूं। इस बीच मेरी आत्मा पर उपचेतना का आधिपत्य था और बकरी की वह घृणित आवाज, वह कर्कश आवाज, वह हिम्मत तोड़नेवाली आवाज, वह दुनिया की सारी मुसीबतों का खुलसा, वह दुनिया की सारी लानतों की रूह कानों में चुभी जा रही थी। 
बीवी ने पूछा-आज कहां चले गये थे? इस चुड़ैल को जरा बाग भी न ले गये,जीना मुहाल किये देती है। घर से निकलकर कहां चली जाऊ! 
मैंने इत्मीनान दिलाया-आज चिल्ला लेने दो, कल सबसे पहला यह काम करूंगा कि इसे घर से निकाल बाहर करूंगा, चाहे कसाई को देना पड़े। 
‘और लोग न जाने कैसे बकरियां पालते हैं।’ 
‘बकरी पालने के लिए कुत्ते का दिमाग चाहिए।’ 
सुबह को बिस्तर से उठकर इसी फिक्र में बैठा था कि इस काली बलासे क्योंकर मुक्ति मिले कि सहसा एक गड़रिया बकरियों का एक गल्ला चराता हुआ आ निकला। मैंने उसे पुकारा और उससे अपनी बकरी को चराने की बात कही। गड़रिया राजी हो गया। यही उसका काम था। मैंने पूछा-क्या लोगे? 
‘आठ आने बकरी मिलते हैं हजूर।’ 
‘मैं एक रुपया दूंगा लेकिन बकरी कभी मेरे सामने न आवे।’ 
गड़रिया हैरत में रह गया-मरकही है क्या बाबूजी
‘नही, नहीं, बहुत सीधी है, बकरी क्या मारेगी, लेकिन मैं उसकी सूरत नहीं देखना चाहता।’ 
‘अभी तो दूध देती है?’ 
‘हां, सेर-सवा सेर दूध देती है।’ 
‘दूध आपके घर पहुंच जाया करेगा।’ 
‘तुम्हारी मेहरबानी।’ 
जिस वक्त बकरी घर से निकली है मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मेरे घर का पाप निकला जा रहा है। बकरी भी खुश थी गोया कैद से छूटी है, गड़रिये ने उसी वक्त दूध निकाला और घर में रखकर बकरी को लिये चला गया। ऐसा बेगराज गाहक उसे जिन्दगी में शायद पहली बार ही मिला होगा। 
एक हफ्ते तक दूध थोड़ा-बहुत आता रहा फिर उसकी मात्रा कम होने लगी, यहां तक कि एक महीना खतम होते-होते दूध बिलकुल बन्द हो गया। मालूम हुआ बकरी गाभिन हो गयी है। मैंने जरा भी एतराज न किया काछी के पास गाय थी, उससे दूध लेने लगा। मेरा नौकर खुद जाकर दुह लाता था। 
कई महीने गुजर गये। गड़रिया महीने में एक बार आकर अपना रुपया ले जाता। मैंने कभी उससे बकरी का जिक्र न किया। उसके खयाल ही से मेरी आत्मा कांप जाती थी। गड़रिये को अगर चेहरे का भाव पढ़ने की कला आती होती तो वह बड़ी आसानी से अपनी सेवा का पुरस्कार दुगना कर सकता था। 
एक दिन मैं दरवाजे पर बैठा हुआ था कि गड़रिया अपनी बकरियों का गल्ला लिये आ निकला। मैं उसका रुपया लाने अन्दर गया, कि क्या देखता हूं मेरी बकरी दो बच्चों के साथ मकान में आ पहुंची। वह पहले सीधी उस जगह गयी जहां बंधा करती थी फिर वहां से आंगन में आयी और शायद परिचय दिलाने के लिए मेरी बीवी की तरफ ताकने लगी। उन्होंने दौड़कर एक बच्चे को गोद में ले लिया और कोठरी में जाकर महीनों का जमा चोकर निकाल लायीं और ऐसी मुहब्बत से बकरी को खिलाने लगीं कि जैसे बहुत दिनों की बिछुड़ी हुई सहेली आ गयी हो। न व पुरानी कटुता थी न वह मनमुटाव। कभी बच्चे को चुमकारती थीं। कभी बकरी को सहलाती थीं और बकरी डाकगड़ी की रफ्तार से चोकर उड़ा रही थी। 
तब मुझसे बोलीं-कितने खूबसूरत बच्चे है! 
‘हां, बहुत खूबसूरत।’ 
जी चाहता है, एक पाल लूं।’ 
‘अभी तबियत नहीं भरी?’ 
‘तुम बड़े निर्मोही हो।’ 
चोकर खत्म हो गया, बकरी इत्मीनान से विदा हो गयी। दोनों बच्चे भी उसके पीछे फुदकते चले गये। देवी जी आंख में आंसू भरे यह तमाशा देखती रहीं। 
गड़रिये ने चिलम भरी और घर से आग मांगने आया। चलते वक्त बोला-कल से दूध पहुंचा दिया करूंगा। मालिक। 
देवीजी ने कहा-और दोनों बच्चे क्या पियेंगे? 
‘बच्चे कहां तक पियेंगे बहूजी। दो सेर दूध अच्छा न होता था, इस मारे नहीं लाया।’ 
मुझे रात को वह मर्मान्तक घटना याद आ गयी। 
मैंने कहा-दूध लाओ या न लाओ, तुम्हारी खुशी, लेकिन बकरी को इधर न लाना। 
उस दिन से न वह गड़रिया नजर आया न वह बकरी, और न मैंने पता लगाने की कोशिश की। लेकिन देवीजी उसके बच्चों को याद करके कभी-कभी आंसू बहा रोती हैं। 
(‘वारदात’ से) 

  

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स्वैच्छिक योगदान


user image Arvind Swaroop Kushwaha - 28 May 2020 at 7:03 PM -

दृष्टिदोष

दृष्टिदोष दो प्रकार के होते हैं-
1 Shortsightedness- इसमें दूर की चीज स्पष्ट नहीं दिखती।
इसको हिंदी में निकटदृष्टि दोष कहते हैं जो कि भ्रामक है।
अंग्रेजी शब्द का अनुवाद करने के बजाय मौलिक शब्दों का चयन करना चाहिए।
इसको 'निकट-दृश्यता' कहा जाना चाहिए।
2- Longsightedness- इसमें पास की वस्तुएं ... स्पष्ट नहीं दिखाई पड़तीं।
हिंदी में इसको दूरदृष्टिदोष कहा जाता है। यह भी भ्रामक है। इसको 'दूर दृश्यता' कहा जाना चाहिए

निकट दृश्यता = चित्र का आंख के पर्दे से पहले बन जाना।
दूर दृश्यता = चित्र का आंख के पर्दे से भी आगे जाकर बनना।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 27 May 2020 at 7:01 PM -

स्त्री और पुरुष

पोस्ट बडी़ है. धैर्य पूर्वक पढे़ (सत्य पर आधारित यह पोस्ट)

मैं यह समझा सकता हूँ कि क्यों लोग (प्रेमी जोड़े या पति-पत्नी) एक दूसरे को कुछ समय बाद छोड़ देते हैं!

क्योकि इंसान मौलिक रूप से पोलिगेमस होता है, वैसे 99% सभी जीव ऐसे ही होते ... हैं तो कुछ नया नहीं है। विवाह का अर्थ सेक्स होता है विज्ञान में और लोगों की राय में भी, तो पोलिगेमस को हिंदी में बहुविवाही कह सकते हैं।

दुनिया मे सबसे सम्भोग नहीं किया जा सकता लेकिन जितनों से भी कर लिया जाए, ये मानव का मूलभूत प्रयास रहता है। क्योंकि न तो हर एक सम्भोग में बच्चे हो सकते हैं और न ही हर जन्तु प्रजनन क्रिया करने में सफल ही हो पाता है।

(मानवों में तो यह इसलिए भी बेमौसम होता है क्योंकि एक महिला सिर्फ ४०० अंडे पैदा करने की क्षमता लेकर दुनिया में आती है और माह में केवल एक दिन ही प्रजनन योग्य स्थिति में होती है जो हर माह का 14वां दिन होता है (यदि महिला स्वस्थ है और उसका माहवारी चक्र 28 दिन पर टिका हो)। बच्चे होने के सम्भावित दिवस 14वें दिन से 3 दिन पहले और 3 दिन बाद तक के हो सकते हैं। लेकिन ovolution (अन्डोत्सर्ग) वाले दिन न सिर्फ 100% बच्चे होने की सम्भावना होती है बल्कि महिला इसी दिन सम्भोग के प्रति वास्तविक रूप से लालायित होती है। उसकी योनी में श्लेष्मा का स्राव अधिक होने से सम्भोग की इच्छा अपने आप जागृत हो जाती है। इस एक हफ्ते में यदि वीर्य योनी से गर्भाशय में पहुचता है तो निषेचन की प्रक्रिया होगी अन्यथा यह अंडा आत्महत्या कर लेगा। इसी अंडे की प्रतिमाह आत्महत्या को हम माहवारी कह कर सम्बोधित करते हैं। (है न रोचक जानकारी, अब मत कहना कभी कि मैं महिलाओं को समझ नहीं सकता)।

अब सवाल उठता है कि कैसे पता चले कि अन्डोत्सर्ग वाला दिन कौन सा है? यह पता नहीं लगाया जा सकता क्योंकि अब मानव कपड़े पहन कर रहते हैं। पहले माहवारी के रक्त को बहता देख कर माहवारी के दिन का पता चल जाता था उसके बाद दिनों की गिनती करके अन्डोत्सर्ग का समय पता लगाया जा सकता था लेकिन अब इसे गंदा-घिनौना बता कर छिपा लिया जाता है।

(इससे दाग न लग जाए, इसलिए लोग आज भी गंदा कपड़ा इस्तेमाल करना उचित समझते हैं। सेनेटरी पैड महंगा जो है। अरे हाँ २ रूपये वाला भी आ गया है। लेकिन सिर्फ फिल्म में। अब आ गया है pad man से बढ़ कर चमत्कारी menstrual cup man! (ही ही ही)। जी हाँ, 150 (सिफ़ारिश करता हूँ) रुपए से लेकर 2000 रुपए तक की प्रारम्भिक खर्च के बाद 5 से 10 वर्ष तक माहवारी और कपड़े, सेनेटरी पैड से छुट्टी। खरीदने के लिए सम्पर्क करें)।

इसलिए कुल मिला कर पुरुष जानता ही नहीं कि प्रजनन का दिवस कब है। परिणामस्वरूप पुरुष हर समय सम्भोग की इच्छा जताता रहता है।

ये मानव दिमाग मे भरा हुआ है (coded in gene) कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा किये जायें ताकि मानव जाति या कोई भी जाति (अन्य जीवों के मामले में) बची रहे। इस प्रावस्था को natalism कहते हैं।

प्रकृति में ये ऐसा इसलिये था क्योंकि जब विवाह नहीं था और विज्ञान नहीं था तो सभी मानव बहुत कम समय तक जी पाते थे (अन्य जंतुओं की तरह)।

ऐसे में सिर्फ वही प्रजाति जीवित बची रह सकी जो ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने में सफल हुई। Evolution (उद्विकास) के दौरान केवल वही मानव जीवित बचे जो सम्भोग करने में और अधिक बच्चे पैदा करने में ज्यादा सफल हुए।

इन मानवों में सम्भोग के प्रति बहुत तीव्र इच्छा थी और इसी कारण ये यहाँ तक पहुच सके। यही तीव्र इच्छा आज के मेडिकल साइंस के आ जाने के कारण जनसँख्या बढ़ाने की ज़िम्मेदार कहलाई क्योकि अब लोग चिकित्सा विज्ञान के कारण कम मरते हैं।

लेकिन इंसान की प्रवृत्ति (instinct) नहीं बदली। वह वैसी ही रह गई।

लोगों ने इस प्रवृत्ति को बदलने के लिये monogamy (एकल विवाह) को अनिवार्य बनाया ताकि समाज मे धन का विनिमय करने के लिये मजदूर मिल सकें और प्रति व्यक्ति परिवार के होने के कारण बच्चों का पालनपोषण सुनिश्चित हो सके। इस प्रकार जनसँख्या तीव्र गति से बढ़ने लगी। समाज की अर्थव्यवस्था को चलाने के लिये मोनोगैमी काम आई और एक व्यक्ति से विवाह बहुत प्रसिद्ध हुआ।

लेकिन इसके दुष्परिणाम भी समय के साथ सामने आने लगे। एक समाज एक निश्चित स्थान पर स्थित परिवार के समान होता है। प्रायः समाज एक शहर, राज्य या एक देश तक सीमित होता है। संगठित रूप में यह एक समुदाय के रूप में होता है। इसकी एक निश्चित सीमा होती है, निश्चित संसाधन (resources) होते हैं और उनकी जीवटता उन्हीं पर निर्भर होती है। अर्थात यदि संसाधनों में कमी आयी तो समाज में समस्याएं आनी तय हैं।

उदाहरण 1: एक छोटे शहर में 50 घर हैं। वे लोग वर्तमान परिस्थितियों में 60 घरो का खर्च उठा सकें इतना ही कमाते हैं। यानी अभी इसमें 10 और घर बसाए जा सकते हैं। लेकिन जगह की कमी है। इसलिये वह संख्या 50 से आगे कभी नहीं बढ़ सकती। यह 10 घरों की अतिरिक्त राशि सभी परिवार आंशिक रूप से अपने भविष्य की विकट परिस्थितियों (आपातकाल) के लिये सुरक्षित रखते हैं।

लेकिन जनसँख्या समानुपातिक ढंग से बढ़ रही है। कारण है नेटालिस्टिक भावना और संस्कृति द्वारा इसके सन्दर्भ में बनाये गये विवाह और शीघ्र बच्चों को पैदा करने जैसे अनिवार्य व्यवहार/परम्पराएं।

नतीजा साफ है। अपराध जन्म ले चुका है। अतिरिक्त लोग सड़कों पर भिखारी, विकलांग, बेकार, बेरोजगार और गुंडे/चोर बनकर जीवन गुजारने लगे हैं। इससे उन 50 घरों को ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। उनका वह 10 घरों के बराबर का आंशिक जमा धन इनको पाल रहा है।

लोगों ने कानून बनाया लेकिन फिर भी भृष्टाचारी समाज उसका पालन नहीं कर सका। यही एक सामान्य समाज का आर्थिक ढांचा है। इस प्रकार लोग मरते और नए पैदा होते रहते हैं। लेकिन सिर्फ तभी तक जब तक मृत्युदर और जन्म दर -50 और +60 रहती है। +10 परिवारों की वह अतिरिक्त जनसँख्या है जो अपराध/छेड़छाड़/बलात्कार की जड़ है लेकिन घटिया/भृष्ट समाज में स्वीकार्य है।

उदाहरण 2: उपर्युक्त उदाहरण में एक नियमित समन्वय दिखाया गया है जब परिस्थिति नियंत्रण में है। अब आती है अनियंत्रित परिस्थिति (वर्तमान)। वर्तमान समय में चिकित्सा विज्ञान उत्तरोत्तर प्रगति कर चुका हैं। असाध्य रोग और समस्याएं सुलझाई जा रही हैं। जनसंख्या नियंत्रण खतरे में है। इंसान की औसत आयु 80 तक खिंच गई है। जो भविष्य में और ऊपर जा सकती है।

अब क्या होगा? सीमित जगह, सीमित संसाधन, सीमित स्थान लेकिन अधिक आबादी।

1. आपके बच्चे: मम्मी-पापा का कमरा खाली हो जाता तो उनके पोते-पोतियों को दूसरे शहर में ऋण लेकर नया घर न लेना पड़ता।

2. आपके पोते-पोती: ये बुड्ढे-बुढ़िया मरते क्यों नही? मुझे सम्पत्ति की ज़रूरत है और ये कुंडली मारे बैठे हैं।

3. बैंक: 100 साल तक ही पेंशन मिलेगी माता जी। उसके बाद भी जिंदा रहीं तो कुछ और जुगाड़ ढूंढ लो।

जब लोग ज्यादा और संसाधन कम होंगे तो क्या होगा? सब एक दूसरे का मुहँ ताकना शुरू।

अब क्या करें? फिर से मौत पीछे? फिर क्या फायदा जीकर जब जीने को साधन नहीं। फिर से आदिमकाल शुरू। फिर से संघर्ष? फिर से एक दूसरे से छीनने का दौर शुरू। हिंसात्मक दृश्य। सब लड़-भिड़ के पुनः समाप्ति की ओर। यह क्या? तो क्या करें? बच्चे न पैदा करें? नेटालिस्टिक प्रवृत्ति का लोप कर दें? तब anti-natalist समाज समाप्ति की ओर नहीं बढ़ जाएगा? मानव जाति समाप्त नहीं हो जाएगी?

चलिये देखते हैं। अभी हमने बात की थी कि पोलिगेमस मानव को सदियों से मोनोगेमस बनाये जाने का प्रयास किया गया। लेकिन फिर भी इसका उल्लंघन हुआ और आज भी विश्व के 80% परिवार अपने वंश को नहीं चला रहे हैं।

(असल में तो कोई भी नहीं चला रहा* लेकिन जो सोचते हैं कि वे चला रहे हैं तो उनके लिये बुरी खबर। विदेशों में कुछ वर्ष पूर्व एक सर्वे हुआ। जिसमें कई परिवारों के DNA जांच की गयी और समझिये विस्फोट सा हुआ। कोई भी बच्चा उनके माता-पिता का नहीं निकला। पड़ोसियों के निकले।

*वंश चलाने के लिये यह परम आवश्यक है कि सभी 28 गुणसूत्र एक ही वंश से आये हों। अर्थात आपके माता-पिता एक ही माता-पिता की सन्तानें होना परमावश्यक है। इसी सिद्धान्त पर मिस्र में सदियों तक वंश चले। यदि आपके माता-पिता एक ही परिवार के रक्त सम्बन्धी नहीं हैं तो आपके आधे गुणसूत्र आपके पिता के और आधे आपकी माता के वंश के होंगे। यानी अशुद्ध वंश)।

तो क्या सीखा? मतलब प्रवृत्ति पर पूरी तरह रोक लगाना असम्भव। इसलिये मोनोगैमी की तरह एन्टी नेटालिस्ट सोच लाइये। जनसँख्या को स्वेच्छा से रोकिये। गर्भनिरोधकों का जम कर उपयोग करें। सरकार का सहयोग लें। कंडोम, नसबंदी, मैथुन भंग, डायफ्राम, IUV (आधुनिक और सुरक्षित 3 से 5 वर्ष तक), copper T, फीमेल कंडोम (reusable), 72 घंटे, आई पिल, माला-डी, सहेली, डिम्पा इंजेक्शन इत्यादि का विकल्प चुनें। अनजान साथी से सम्भोग करते समय कंडोम प्रयोग करें या उसकी STD/HIV जांच अवश्य करवा लें।

कुछ लोग मेरी बात कभी नहीं मानेंगे और जो विवाह को त्यागेंगे वे live-in-relationship में बच्चे पैदा करेंगे ही और जनसँख्या संतुलित हो जाएगी।

अब बात आती है कि हम पोलिगेमस हैं तो यह प्यार किस चिड़िया का नाम है? क्यों एक के साथ चिपक जाता है यदि इंसान पोलिगेमस है असल में?

तो दिल थाम कर इसका विश्व में प्रथम बार रहस्योद्घाटन देखिये शुभाँशु की कलम से।

इंसान खाली नहीं बैठ सकता। इसलिये उसे कोई न कोई काम चाहिए। कुछ नहीं तो मनोरंजन या गप शप करने के लिये ही सही, एक साथी। ये बात सिर्फ इंसान के लिये ही सही नहीं है। लगभग सभी जीव-जंतु ऐसा ही करते हैं। उनको भी कोई न कोई चाहिए ताकि अपना फालतू समय काट सकें। जिनको यह साथी नहीं मिल पाता वे या तो निर्जीव वस्तुओं से मनोरंजन करते हैं। जैसे खेल इत्यादि या वे सोते रहते हैं।

इस प्रकार जो आनन्द प्राप्त होता है, उससे सभी के मस्तिष्क से डोपामिन, सेरोटोनिन, ऑक्सीटोसिन तथा एंडोर्फिन्स हार्मोन निकलता है जो एडिक्टिव (जिसकी लत लग जाती है) होता है। इनके अतिरिक्त विशेष प्रकार के शरीर से जोड़ रखने वाले फेरोमोन भी होते हैं जो मानव की पसीने की ग्रन्थियों से स्रावित होते हैं। यह ऐसे गुण रखते हैं जो केवल नाक् के विशेष ग्राहियों (receptors) को ही महसूस होते हैं। जिनको आप पहचान नहीं सकते अर्थात गन्धहीन होते हैं। यह सीधे कामोत्तेजना पैदा कर सकते हैं। आपने इसी के कारण पहली ही मुलाकात में प्यार हो जाने वाला गुण पाया है। भाई-बहन-माता-पिता-पुत्री-पुत्र के फेरोमोन समान होने के कारण उनमें इनका प्रभाव हल्का होता है। लेकिन साफसफाई से रहने के कारण यह फेरोमोन अब बेकार हो गए। विपरीत फेरोमोन एक दूसरे को आकर्षित और समान प्रतिकर्षित करते हैं।

प्राचीन काल में पसीने की गंध सेक्स का turn on होती थी। लेकिन आज डिओडरेंट ने इसको एक बुराई में बदल दिया है। अब हम बैक्टीरिया जनित मल की गंध को साफ करने के चक्कर में असली फेरोमोन को भी ख़त्म कर रहे हैं।

इसी लत को प्यार/love/मोहब्बत/इश्क/प्रेम कहते हैं। ये किसी भी चीज से हो सकता है। जिससे भी आनन्द की प्राप्ति हो। परंतु संभोग की इच्छा ऑक्सीटोसिन और डोपामिन का मिला जुला प्रभाव होता है जिसमें ऑक्सीटोसिन love को बढाने वाला addictive हार्मोन कहा जाता है। इसके प्रभाव से यौनांगों का विकास शीघ्र हो जाता है। यह माता में दुग्ध उत्पादन में भी सहयोग करता है।

आवश्यकतानुसार इसमें भेद भी उत्पन्न हुए और जब मानव समाज रिश्ते बना रहा था तो उसने प्रेम को तरह-तरह के भेदों में बांट लिया।

माता-पिता का प्यार, भाई-बहन का प्यार, रिश्तेदारों का प्यार, दोस्तों का प्यार, शिक्षक और विद्यार्थियों का प्यार और सबसे महत्वपूर्ण, रोमांस वाला प्यार (विश्व प्रसिद्ध), आकर्षण का सुख, कामोत्तेजना का आनन्द, संभोग का आनंद।*

(*सम्भोग का आनंद एक ऐसा आनंद है जिसके कारण प्रजनन की भावना जीवित है। यह सभ्यता के साथ-साथ मनोरंजन में बदल गया। इसी के चलते पोलिगेमस स्वभाव फलाफूला। इसे आम भाषा में हवस (lust) कहते हैं। यह डोपामिन और ऑक्सीटोसिन का मिला जुला प्रभाव हैं। यह एक सम्पन्न समाज में एक अनिवार्य समझी जाने वाली बुराई* यानि वैश्यावृत्ति और पोर्न बन कर उभरा। पोलिगेमस पुरुषों ने सत्ता में आकर नगर वधु का चलन शुरू किया। नाम से ही स्पष्ट है कि सारे नगर की पत्नी। यह विधुरों (जिसकी पत्नी मर गई हो) के लिए शुरू की गई सेवा रही होगी लेकिन जल्द ही इसने पूरे नगर को अपनी चपेट में ले लिया। कारण वही, एक बार से दिल नहीं भरता, जाऊंगा मैं फिर दोबारा। क्यों? आखिर क्यों एक साथी से दिल नहीं भरता?

*बुराई इसलिए क्योंकि कुछ लोगों ने इनके चक्कर में अपनी पत्नी ही छोड़ दी।

प्रश्न: इन वैश्याओं के बच्चों का क्या होता है?

उत्तर: लड़की को रख लिया जाता है और लड़के को मार डाला जाता है। जी हाँ, आज भी)।

ऐसा पाया गया है कि एक ही साथी से सम्भोग करते-करते बोरियत हो जाती है। यानि कामोत्तेजना ही समाप्त हो जाती है। अब क्या करें? वियाग्रा/केलियास खाएं? अगर एक के साथ ही रहना है तो अवश्य खाइए लेकिन इसके दुष्परिणाम भी इन्टरनेट पर देखें। बहुत लोग मर गए इन दवाओं के प्रयोग से।

कमाल देखिये, नयी/नया साथी देखते ही ये बंद कलियाँ खिलने लगती हैं। जगह/स्थान/रोल बदलने से भी कुछ समय तक यही असर। फिर क्या कोई 1500-2000 रुपये की गोली लेगा या नया साथी? (अरे भई सेक्स गुरु नहीं हूँ। जानकारी रखता हूँ। अनुभव भी है कुछ।)

प्रारम्भ में केवल विपरीत लिंग के लोगों में ही रोमांस सम्भव माना जाता था परंतु कालांतर में इसके अन्य भेद भी सामने आए। जैसे LGBTQ*

(LGBTQ = Lesbian, Gay, Bisexual, Transgender, Questioned)।

इन सभी रोमांटिक प्रेमों के खिलाफ धर्म और कानूनों ने व्यापक मुहिम छेड़ दी।

खरबों जोड़ो को मार डाला गया, उनके ही, अपने घरवालों के द्वारा, या जो जोड़े नहीं मार पाए गए, उनको बाकायदा पापी घोषित करके धर्म के ठेकेदारों ने कत्ल कर दिया।

क्यों?

बहुत कड़वा जवाब है इस क्यों का। जानने से पहले खुद को मजबूत कर लो...

तो चलो कुछ सवालों का जवाब ढूंढते हैं पहले:

विवाह जो समर्थन प्राप्त संस्था है, उसकी सामान्य विधि क्या है?

1. अपनी ही जाति और स्टेटस वाले, सुदंर चेहरे वाले या उनसे ऊपर के खानदान से बात चलाई जाती है।

2. यदि बात नहीं बनती तो कम से कम में जो भी मानक पूरे करता हो उसके साथ रिश्ता पक्का किया जाता है।

3. धन का लेनदेन शुरू।

4. विवाह के उम्मीदवारों से या तो कुछ नहीं पूछा जाता है या कुछ लोग (जो खुद को आधुनिक कहते हैं) फ़ोटो दिखा कर या आमने-सामने बिठा कर परिचय करवा देते हैं। ज्यादा सम्पन्न हैं तो आपस में फोन पर बकलोली भी होती है।

5. फिर उचित समय निर्धारित करके, विवाह समारोह आयोजित किया जाता है जिसमे ज्यादा से ज्यादा लोगों को, अपना स्टेटस दिखाने और जान पहचान बढ़ाने के लिये, तथा नेग/उपहार रूपी धन की वापसी की उम्मीद में, बुलाया जाता है।

इनकी आव-भगत की जाती है, वर पक्ष और वधू पक्ष के तमाम लोग इस तमाशे में शामिल होते हैं। जिनको भोजन कराने, ठहराने, घुमाने, लाने और ले जाने की व्यवस्था मेजबान करता है। भारी धन हानि। सूट बूट में तोंद वाले लोग आकर गरिष्ठ और महंगा भोजन भकोसते हैं और भरी हुई प्लेट कूड़े के ढेर में फेंक देते हैं।

6. इस सब के बाद या पहले (परम्परानुसार) विवाह की रस्म होती है। जिसमे कोई धार्मिक पुजारी/काजी/मुल्ला/पादरी आकर वर और वधु को सैकडों लोगों की मौजूदगी में जीवन भर साथ रहने की शपथ दिलवाता है और ईश्वर का डर दिखाता है कि यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो बुरा होगा। सभी लोग इस agreement के गवाह बनते हैं और आज कल तो इसकी वीडियो रिकॉर्डिंग भी करा ली जाती है कि कहीं दोनों में से कोई भाग निकला तो पकड़ा जा सके।

7. सम्भोग रात्रि (सुहाग रात): दो अनजान लोग सीधे कुश्ती लड़ते हैं। समाज का कुंवारी कन्या को प्रथम सम्भोग में रक्त रंजित करके यह कहना कि उसकी इस रक्त पात में सहमति थी। कमाल का समाज है न?

(यह तथ्य है कि बिना foreplay के कुवारी कन्या कभी कौमार्य भंग करवाने की इच्छुक नहीं हो सकती। भारतवासी ये foreplay किस चिड़िया का नाम है यही पूछते रहते हैं, आप अब समझ गए होंगे कि बलात्कार संस्कृति कैसे बनता है। कानून भी संस्कृति से प्रेरित। मेरिटल रेप पहले दिन ही हुआ है तो सभी पति जेल में होंगे। इसलिए जज दुरूपयोग का बहाना बना कर इसे टाल देते हैं। कुछ ऐसा ही जैसे पुरुष का बलात्कार कानून में अपराध नहीं है। बस खाली कहने को सम्विधान में समानता का अधिकार है)।

इतनी बड़ी परियोजना केवल 2 लोगों के बच्चे पैदा करने के लिये? नहीं मित्रों, बहुत बड़ी साजिश है इसके पीछे।

ये सब इसलिये ताकि कोई भी अपनी मर्जी से विवाह न कर ले। एक विवाह एक व्यापारी के लिए विज्ञापन, एक कारपोरेट के लिये नए व्यापार के लिये रास्ते खोलने वाला और बड़े लोगो से सम्पर्क बनाना हो सकता है।

धर्म को क्या फायदा है? जितने ज्यादा कमाने वाले होंगे उतना ज्यादा दान। उतने ज्यादा नामकरण, यग्योपवीत संस्कार, मुंडन, इत्यादि 16 संस्कारों में धन कमाने का अवसर। और फिर खानदानी लॉयल्टी।

अब अगर उन माता-पिता के बच्चे खुद ही अपना जीवन साथी चुन लेंगे तो उनके इस प्लान का क्या होगा?

भारत के परिपेक्ष्य में:

वधू पक्ष: कितने निष्ठुर हैं न ये माता पिता? एक तो लड़की को घर से विदा कर दिया जबरन और फिर रोने का नाटक भी? ज़िन्दगी भर अपमान करवाने और ससुराल वालों के नखरे और फरमाइशों को पूरा करने का वादा भी कर लिया। उनकी तरफ के बच्चे का भी चरणस्पर्श। दान देने वाला बाप छोटा और लेने वाला बड़ा?

वर पक्ष: एक तो लड़की ले आये दूसरे की खा पी कर, साथ में पैसा भी ले आये, फिर भी dowry चाहिए? नहीं दें तो?

1. लड़की केरोसीन stove से जल मरी। दुर्घटना है।

2. लड़की ने जहर खा लिया। कायर है।

3. लड़की के फांसी लगा ली। चाय में चीनी डालने को कह दिया, इतनी सी बात पर नाराज हो गई थी।

4. नई शादी...

5. Repeat...

यदि दहेज की मांग पूरी करते रहे:

वधू पक्ष:

1. गरीबी में जीवन।

2. अपनी ही लड़की को कोसना।

3. किस्मत को कोसना।

4. अपने लड़के की शादी में 2 गुना दहेज माँगूँगा तब जा कर कुछ आराम मिलेगा।

उधर वर-वधु का जीवन:

पति:

1. तू लाई ही क्या थी? ये दो कौड़ी का सामान?

2. तेरे बाप ने तुझे यही सिखा पढ़ा के भेजा है कि तू हमसे जुबान लड़ाती है?

3. अब तेरे में वो पहले वाली बात नहीं रही, अब तेरे साथ मज़ा नहीं आता।

4. आफिस में अपनी जूनियर को पटाऊंगा। वो नया माल लगती है।

5. अब मस्त ज़िंदगी है, घरवाली और बाहरवाली दोनों होनी चाहिए।

सास:

1. अरे करमजली, फिर दूध जला दिया, यही सिखा कर भेजा है तेरी माँ ने?

2. अरे नास पीटी, तुझ से कहा था कि मुझे नाश्ता टाइम पर चाहिए, अभी तेरे बाप को बुलाती हूँ ठहर जा।

3. अरे ये पोछे का पानी अब तक नहीं सूखा? अभी मैं गिर जाती तो? मार डालने का प्लान है।

4. फिर लड़की? लड़का कब देगी तू डायन?

ससुर:

1. बहू, ज़रा मेरा भी थोड़ा ध्यान रख लिया कर, तेरी सास तो कुछ करती नहीं है, तू आ गई तो लगा कि जीवन आराम से कट जाएगा, मेरे कपड़े, सामान वगेरह का ध्यान तुमको ही रखना है अब।

बहू:

1. एक आदमी से शादी की थी, ये तो पूरा कुटुंब ही पल्ले पड़ गया। क्या क्या कर लूँ अकेले मैं?

2. इज़्ज़त तो कोई है नहीं, नौकर बन कर जीना पड़ रहा है।

3. लड़का क्या पड़ोस से कर लूं? जो होगा वही तो मिलेगा? में क्या जानू पेट मे क्या पल रहा है?

4. मैं कहाँ फंस गई?

5. वो पी कर आते हैं, 1 मिनट से ज्यादा सम्भोग नहीं करते, में तड़पती रहती हूं।

6. देवर की नज़र मेरे ऊपर है, अब तक खुद को रोका लेकिन अब कहीं फिसल न जाऊं।

7. पड़ौस का लड़का बहुत लाइन मारता है, इधर मुझे ये खुश कर नहीं पाते, कहीं मन बहक न जाये।

8. अब क्या कर सकती हूं, ऐसे ही जीना है अब मुझको। चुप रहूंगी।

ऑफिस की जूनियर:

1. Sir ने मेरा रेप किया। किस से कहूं? सहेली से कहती हूँ।

2. पागल हो गई क्या? वो तेरे से मजे ले रहा है तो लेने दे, मैंने भी यही झेला है। कुछ कहेगी तो demotion करवा देगा या निकलवा देगा, कॉन्ट्रासेप्टिव लेती रहना। सब ठीक होगा। किसी से कहना मत, नहीं तो सब तुझे ही गलत कहेंगे। सोसायटी लड़कियों को जॉब करते नहीं देख सकती, उनके लिये तो हम हमेशा धंधे वाली ही रहेंगे। और तुझे करना क्या है? शादी ही न? कर देगा तेरा बाप।

परिणाम: विवाह सफल! बधाई हो। लड़का हुआ है।

गुलामी स्वीकार कर लो तो कोई दिक्कत नहीं है। लड़की समाज के पांव की जूती ही तो है। लड़की का तो नाम ही समर्पण है। बोले तो आत्मसमर्पण (surrender)।

विरोध किया तो? समस्या शुरू। यहीं से सब दिक्कत शुरू है। समाज कहता है कि विरोध मत करो।

तो मत करिए, यही चाहते हैं न आप सब भी? जो चलता है चलने दो न। शुभांशु जी काहे पंगा ले रहे हैं दुनिया से? उंगली न करें। अच्छा नहीं होगा। है न?

इस सब का विरोध शुरू से क्यों नहीं हुआ? क्योकि इसको चलाने में धर्म का बहुत बड़ा हाथ था जिसके डर से लोगों ने विरोध नहीं किया।

"लड़की की अब लाश ही वापस आएगी।"

"पति का घर ही अब उसका घर है।"

इसी तरह लोग अपनी वास्तविक पृवृत्ति को छुपा कर जीने लगे, अपने पोलिगेमस होने को दबाए रहे, लेकिन समय बदला और इसके बुरे परिणाम सामने आने लगे, क्योकि इंसान अपनी पृवृत्ति को नहीं बदल सकता और बलात्कार का आविष्कार हुआ।

विवाहेतर सम्बन्ध, बलात्कार और हत्या सब अवैध कहलाने के डर से चुप चाप होने लगीं।

समाज के ठेकेदारों ने इस पर सजा रख दी लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, बलात्कार के बाद सज़ा के डर से लड़की को मारा जाने लगा, यानी सज़ा से फायदे के स्थान पर नुकसान हो गया।

आज भी यही हो रहा है, दिल्ली रेप केस में ज्यादातर लड़के शादी शुदा थे। जो नाबालिग थे उनको शादीशुदा लोग भड़काते और उकसाते हैं। कहते हैं, नहीं करेगा? मर्द नही है साला।

शादी शुदा जीवन तो पत्नी का बलात्कार ही होता है 90%। कितनी पत्नियां होंगी जो खुद पति से आकर कहती हैं, "ऐ जी बहुत मन कर रहा है आज, चलो कमरे में।"

हमेशा पति ही अपनी इच्छा पूर्ति करता रहता है, महिला तो कह तक नहीं पाती। और यदि कहे तो? रंडी है, छिनाल है। पति भी कौन सा स्टैमिना वाला होता है, 1 या 2 मिनट में out। मौसम की तरह। जब मौसम का मजा आने लगता है तभी खत्म।

जो लोग बलात्कार नही कर सकते थे वो gf-bf खेलने लगे। वैसे इसमें भी पहले दिन बलात्कार होता ही है। इसे डेट रेप कहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि ये बलात्कारी प्यार का वास्ता देकर मना लेता है, जबकि दूसरे बन्दूक दिखा कर या ब्लैकमेल करके।

और क्या आपको सबसे बढ़िया उपाय पता है बलात्कार के केस से बचने का? लड़की से समझौता करके शादी कर लो। वह केस अपने आप ही निरस्त हो जाएगा। फिर चाहे उसी दिन तलाक/divorce देकर मुक्त हो जाओ। कमाते हो तो गुजारा भत्ता देने का नुकसान होगा। साथ ही कभी-कभी माफी मांगने भी जा सकते हैं, रात भर माफी मांगिये फिर अपने रस्ते। लड़की तलाक न दे तो? घरेलू हिंसा है न। झक मार के देगी...तलाक।

जब मुझे ये सब पता है तो मैं प्यार का नाटक नहीं करता, जिसके साथ सेक्स का मन है उस से सेक्स करो और जिस से प्यार करना है उस से प्यार करो। दोनों को मिलाने से ही क्लेश और अपराध होते हैं। सेक्स लोयल्टी की निशानी नहीं होता, लेकिन प्यार होता है।

इतना गन्दा समाज, इतना घटिया सिस्टम, इतने घटिया लोग। फिर क्यों न मैं साथ दूँ लिव इन रिलेशनशिप का? कोई दखल नहीं दूसरे का। आज़ादी, दो लोगों का व्यक्तिगत सम्बन्ध। ये उनके लिए जो बच्चे चाहते हैं।

जिनके बच्चे नहीं और अलग/व्यस्त रहते हैं तो वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिये नौकर रख लें और माता-पिता स्वीकार लें इस सम्बंध को। नौकर, जिसकी पुलिस पड़ताल हो चुकी हो।

जो Antinatalist Vegans* हैं, वे Freesex का concept पढ़ें और सेफ सेक्स और प्यार को कायदे से मैनेज करें।

*Vegan: बहुत हो गया और जानकारी फिर कभी! इतने में ही मेरे को मारने को ढूंढ रहे होंगे आप सब। सबकी पोल जो खोल के फैला दी है! (ही ही ही) फिर से पिटने के लिए जल्द ही आऊंगा। डंडों को तेल पिला कर लगे रहिये मेरी जासूसी में।

अस्वीकरण: मेरी व्यक्तिगत सोच, किसी को बाध्य नहीं किया गया है। वही करें जो दिल कहे। धन्यवाद।

Final Edited: 2018/02/16 17:55 IST, First written: 2017/06/16 06:51 IST

मौलिक लेख: ~ Shubhanshu Singh Chauhan.....

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 27 May 2020 at 10:22 AM -

लेटने की दिशा

किस ओर पैर करके सोना अच्छा होता है और किस ओर बुरा।

हिन्दू मानते हैं कि दक्षिण की ओर पैर करके नहीं सोना चाहिए। अपने पक्ष में वो चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा का सहारा लेते हैं।

उनका तर्क उनकी ज्ञानहीनता को दर्शाता है, क्योंकि खून में लोहा ... होने के बावजूद उसमे चुम्बकत्व नहीं होता, अर्थात चुम्बकीय क्षेत्र से रक्त संचार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आप लेटते समय यह देखें कि अमाशय कमर की अपेक्षा कुछ ऊंचाई पर रहे ताकि भोजन अमाशय की पाचन क्रिया के उपरान्त ससमय पतली आंत में चला जाये। लेटने की दिशा बस इसी आधार पर तय करनी चाहिए। अर्थात सिर ऊंचाई की तरफ और कमर नीचे की तरफ।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 27 May 2020 at 6:40 AM -

कोरोना पर पहली जीत

कोरोना के मामले में ठीक हो चुके और ठीक नहीं हुए लोगों की संख्याएं ही सबसे महत्वपूर्ण हैं।

जिस दिन ठीक हो चुके व्यक्तियों की संख्या सक्रिय केसों की संख्या से अधिक हो जाये समझ लीजिए उस दिन से हम कोरोना पर हावी हो ... जाएंगे।

वह दिन अब दूर नहीं है। विश्व तथा भारत दोनों ही के मामले में दस से बारह दिन लगने की संभावना है।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 27 May 2020 at 6:07 AM -

कोरोना संघर्ष

नए मरीज सिर्फ सक्रिय केसों से ही हो सकते हैं। जो ठीक हो चुके हैं उनसे नहीं।

कुल केसों की संख्या तो केवल भय पैदा करने के लिए रह गयी है। कोरोना के खिलाफ जंग में सक्रिय केसों का ही महत्व है।

इस समय भारत में सक्रिय ... केसों की वृद्धि दर औसतन 5% से नीचे तथा विश्व में 1% से नीचे आ गयी है।

अब स्पष्ट दिख रहा है कि हम इस जंग को जीत जाएंगे।

user image Arvind Swaroop Kushwaha - 26 May 2020 at 8:09 PM -

कोरोना

बाहर सड़क पर जाए तो जूतों और पैरों में वायरस लगता है।

आंखे नंगी रखी तो वैज्ञानिकों ने कहा सबसे ज्यादा वायरस तो आंखों से ही जाता है।

बताया कि 6फिट की दूरी से वायरस नहीं लगता है फिर कुछ वैज्ञानिकों ने कह दिया कि खांसने छींकने ... से 18फिट तक आ जाता है।

वैज्ञानिकों ने बताया कोविड के मरीज में लक्षण भी नहीं आते है मतलब आपको अंदाजा भी नहीं कि कौनसी बॉडी वायरस देकर चली जाए, कोई पहचान ही नहीं है।

वैज्ञानिकों ने बताया किराना सामान, सब्ज़ी और दूध की थैली से बहुत फैलता है, धरती का कोई मनुष्य नाम का जीव इन सामान के बगैर नहीं रह सकता।

वैज्ञानिकों ने बताया यह वायरस तीन दिन तक जीवित रहता है और 72 डिग्री पर जाकर मरता है मतलब धरती का तापमान तो इसे मार ही नहीं सकता है इसे मारने के लिए शुक्र ग्रह का तापमान चाहिए।

वैज्ञानिकों के बताए अनुसार संक्रमण इतना तेज़ है कि एक छोटी सी भूल आदमी को संक्रमित कर देगी जैसे किसी एयर कंडीशनर रूम में कोई कोविड वाला खांस दिया तो पूरा रूम गया काम से।

अब आप कल्पना कीजिए। आप रोज के जीवन में कितने कितने और कितने हज़ारो व्यवहार करते है। एक छोटी सी भूल आपकी महीनो की तपस्या भंग कर देगी और आप संक्रमित हो जाएंगे और आप संक्रमित हो गए तो सारा खानदान सारी नस्ल संक्रमित कर देंगे। संक्रमित हो जाना तो तय ही है, आज हुए के कल हुए फर्क क्या पड़ता है? वायरस कहीं जाने वाला नहीं, वैक्सीन के भरोसे क्या जीना! लगवा लिया और फेल हो गया तो? भारत में तो बच्चे बंद होने के ऑपरेशन तक फैल हो जाते है, वैक्सीन की तो छोड़ो।

हम केवल मास्क लगा सकते है और इससे अधिक कुछ नहीं कर सकते, सब मुबालगे है, वैज्ञानिक जो बताते है उसके हिसाब तो महादेव भी धरती पर आ जाए तो भी आप संक्रमित होने से नहीं बच सकते। मैं कहता हूं यदि आप स्पेस में बैठकर मंगल या शुक्र ग्रह पर भाग गए तो भी आप संक्रमित हो जाएंगे क्योंकि आपके पीछे आपका पड़ोसी दुगना किराया देकर आ जाएगा जिसे डॉक्टरों कोविड पॉज़िटिव बताया है।

मास्क लगाओ और दुनिया आबाद करो दोस्तो, अब हम इस स्थिति में है कि पॉज़िटिव होने से कोई नहीं बचा सकता जितना हो जाए उतना कर लो बाकी मौत का कुआ है कब किसका टिकट कट जाए।

शादाब सलीम~