सरकारें तो आती जाती रहेंगी लेकिन मूर्ख मतदाता लंबे समय तक रहेंगे। । और जब तक मूर्ख मतदाता इस देश में बहुसंख्यक रहेंगे तब तक अच्छी सरकारें मिलना आश्चर्यजनक सौभाग्य ही हुआ करेगा। । इसलिए जो लोग वास्तव में देश को प्यार करते हैं उनका यह दायित्व है कि- खुद
...
में और अन्य लोगों में विज्ञान सम्मत मानवता का विकास करें। और जिनमें विज्ञानसम्मत मानवता का विकास करना संभव न दिखे उनको आबादी बढ़ाने से रोकें।
पोस्ट बडी़ है. धैर्य पूर्वक पढे़ (सत्य पर आधारित यह पोस्ट)
मैं यह समझा सकता हूँ कि क्यों लोग (प्रेमी जोड़े या पति-पत्नी) एक दूसरे को कुछ समय बाद छोड़ देते हैं!
क्योकि इंसान मौलिक रूप से पोलिगेमस होता है, वैसे 99% सभी जीव ऐसे ही होते
...
हैं तो कुछ नया नहीं है। विवाह का अर्थ सेक्स होता है विज्ञान में और लोगों की राय में भी, तो पोलिगेमस को हिंदी में बहुविवाही कह सकते हैं।
दुनिया मे सबसे सम्भोग नहीं किया जा सकता लेकिन जितनों से भी कर लिया जाए, ये मानव का मूलभूत प्रयास रहता है। क्योंकि न तो हर एक सम्भोग में बच्चे हो सकते हैं और न ही हर जन्तु प्रजनन क्रिया करने में सफल ही हो पाता है।
(मानवों में तो यह इसलिए भी बेमौसम होता है क्योंकि एक महिला सिर्फ ४०० अंडे पैदा करने की क्षमता लेकर दुनिया में आती है और माह में केवल एक दिन ही प्रजनन योग्य स्थिति में होती है जो हर माह का 14वां दिन होता है (यदि महिला स्वस्थ है और उसका माहवारी चक्र 28 दिन पर टिका हो)। बच्चे होने के सम्भावित दिवस 14वें दिन से 3 दिन पहले और 3 दिन बाद तक के हो सकते हैं। लेकिन ovolution (अन्डोत्सर्ग) वाले दिन न सिर्फ 100% बच्चे होने की सम्भावना होती है बल्कि महिला इसी दिन सम्भोग के प्रति वास्तविक रूप से लालायित होती है। उसकी योनी में श्लेष्मा का स्राव अधिक होने से सम्भोग की इच्छा अपने आप जागृत हो जाती है। इस एक हफ्ते में यदि वीर्य योनी से गर्भाशय में पहुचता है तो निषेचन की प्रक्रिया होगी अन्यथा यह अंडा आत्महत्या कर लेगा। इसी अंडे की प्रतिमाह आत्महत्या को हम माहवारी कह कर सम्बोधित करते हैं। (है न रोचक जानकारी, अब मत कहना कभी कि मैं महिलाओं को समझ नहीं सकता)।
अब सवाल उठता है कि कैसे पता चले कि अन्डोत्सर्ग वाला दिन कौन सा है? यह पता नहीं लगाया जा सकता क्योंकि अब मानव कपड़े पहन कर रहते हैं। पहले माहवारी के रक्त को बहता देख कर माहवारी के दिन का पता चल जाता था उसके बाद दिनों की गिनती करके अन्डोत्सर्ग का समय पता लगाया जा सकता था लेकिन अब इसे गंदा-घिनौना बता कर छिपा लिया जाता है।
(इससे दाग न लग जाए, इसलिए लोग आज भी गंदा कपड़ा इस्तेमाल करना उचित समझते हैं। सेनेटरी पैड महंगा जो है। अरे हाँ २ रूपये वाला भी आ गया है। लेकिन सिर्फ फिल्म में। अब आ गया है pad man से बढ़ कर चमत्कारी menstrual cup man! (ही ही ही)। जी हाँ, 150 (सिफ़ारिश करता हूँ) रुपए से लेकर 2000 रुपए तक की प्रारम्भिक खर्च के बाद 5 से 10 वर्ष तक माहवारी और कपड़े, सेनेटरी पैड से छुट्टी। खरीदने के लिए सम्पर्क करें)।
इसलिए कुल मिला कर पुरुष जानता ही नहीं कि प्रजनन का दिवस कब है। परिणामस्वरूप पुरुष हर समय सम्भोग की इच्छा जताता रहता है।
ये मानव दिमाग मे भरा हुआ है (coded in gene) कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा किये जायें ताकि मानव जाति या कोई भी जाति (अन्य जीवों के मामले में) बची रहे। इस प्रावस्था को natalism कहते हैं।
प्रकृति में ये ऐसा इसलिये था क्योंकि जब विवाह नहीं था और विज्ञान नहीं था तो सभी मानव बहुत कम समय तक जी पाते थे (अन्य जंतुओं की तरह)।
ऐसे में सिर्फ वही प्रजाति जीवित बची रह सकी जो ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने में सफल हुई। Evolution (उद्विकास) के दौरान केवल वही मानव जीवित बचे जो सम्भोग करने में और अधिक बच्चे पैदा करने में ज्यादा सफल हुए।
इन मानवों में सम्भोग के प्रति बहुत तीव्र इच्छा थी और इसी कारण ये यहाँ तक पहुच सके। यही तीव्र इच्छा आज के मेडिकल साइंस के आ जाने के कारण जनसँख्या बढ़ाने की ज़िम्मेदार कहलाई क्योकि अब लोग चिकित्सा विज्ञान के कारण कम मरते हैं।
लेकिन इंसान की प्रवृत्ति (instinct) नहीं बदली। वह वैसी ही रह गई।
लोगों ने इस प्रवृत्ति को बदलने के लिये monogamy (एकल विवाह) को अनिवार्य बनाया ताकि समाज मे धन का विनिमय करने के लिये मजदूर मिल सकें और प्रति व्यक्ति परिवार के होने के कारण बच्चों का पालनपोषण सुनिश्चित हो सके। इस प्रकार जनसँख्या तीव्र गति से बढ़ने लगी। समाज की अर्थव्यवस्था को चलाने के लिये मोनोगैमी काम आई और एक व्यक्ति से विवाह बहुत प्रसिद्ध हुआ।
लेकिन इसके दुष्परिणाम भी समय के साथ सामने आने लगे। एक समाज एक निश्चित स्थान पर स्थित परिवार के समान होता है। प्रायः समाज एक शहर, राज्य या एक देश तक सीमित होता है। संगठित रूप में यह एक समुदाय के रूप में होता है। इसकी एक निश्चित सीमा होती है, निश्चित संसाधन (resources) होते हैं और उनकी जीवटता उन्हीं पर निर्भर होती है। अर्थात यदि संसाधनों में कमी आयी तो समाज में समस्याएं आनी तय हैं।
उदाहरण 1: एक छोटे शहर में 50 घर हैं। वे लोग वर्तमान परिस्थितियों में 60 घरो का खर्च उठा सकें इतना ही कमाते हैं। यानी अभी इसमें 10 और घर बसाए जा सकते हैं। लेकिन जगह की कमी है। इसलिये वह संख्या 50 से आगे कभी नहीं बढ़ सकती। यह 10 घरों की अतिरिक्त राशि सभी परिवार आंशिक रूप से अपने भविष्य की विकट परिस्थितियों (आपातकाल) के लिये सुरक्षित रखते हैं।
लेकिन जनसँख्या समानुपातिक ढंग से बढ़ रही है। कारण है नेटालिस्टिक भावना और संस्कृति द्वारा इसके सन्दर्भ में बनाये गये विवाह और शीघ्र बच्चों को पैदा करने जैसे अनिवार्य व्यवहार/परम्पराएं।
नतीजा साफ है। अपराध जन्म ले चुका है। अतिरिक्त लोग सड़कों पर भिखारी, विकलांग, बेकार, बेरोजगार और गुंडे/चोर बनकर जीवन गुजारने लगे हैं। इससे उन 50 घरों को ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। उनका वह 10 घरों के बराबर का आंशिक जमा धन इनको पाल रहा है।
लोगों ने कानून बनाया लेकिन फिर भी भृष्टाचारी समाज उसका पालन नहीं कर सका। यही एक सामान्य समाज का आर्थिक ढांचा है। इस प्रकार लोग मरते और नए पैदा होते रहते हैं। लेकिन सिर्फ तभी तक जब तक मृत्युदर और जन्म दर -50 और +60 रहती है। +10 परिवारों की वह अतिरिक्त जनसँख्या है जो अपराध/छेड़छाड़/बलात्कार की जड़ है लेकिन घटिया/भृष्ट समाज में स्वीकार्य है।
उदाहरण 2: उपर्युक्त उदाहरण में एक नियमित समन्वय दिखाया गया है जब परिस्थिति नियंत्रण में है। अब आती है अनियंत्रित परिस्थिति (वर्तमान)। वर्तमान समय में चिकित्सा विज्ञान उत्तरोत्तर प्रगति कर चुका हैं। असाध्य रोग और समस्याएं सुलझाई जा रही हैं। जनसंख्या नियंत्रण खतरे में है। इंसान की औसत आयु 80 तक खिंच गई है। जो भविष्य में और ऊपर जा सकती है।
अब क्या होगा? सीमित जगह, सीमित संसाधन, सीमित स्थान लेकिन अधिक आबादी।
1. आपके बच्चे: मम्मी-पापा का कमरा खाली हो जाता तो उनके पोते-पोतियों को दूसरे शहर में ऋण लेकर नया घर न लेना पड़ता।
2. आपके पोते-पोती: ये बुड्ढे-बुढ़िया मरते क्यों नही? मुझे सम्पत्ति की ज़रूरत है और ये कुंडली मारे बैठे हैं।
3. बैंक: 100 साल तक ही पेंशन मिलेगी माता जी। उसके बाद भी जिंदा रहीं तो कुछ और जुगाड़ ढूंढ लो।
जब लोग ज्यादा और संसाधन कम होंगे तो क्या होगा? सब एक दूसरे का मुहँ ताकना शुरू।
अब क्या करें? फिर से मौत पीछे? फिर क्या फायदा जीकर जब जीने को साधन नहीं। फिर से आदिमकाल शुरू। फिर से संघर्ष? फिर से एक दूसरे से छीनने का दौर शुरू। हिंसात्मक दृश्य। सब लड़-भिड़ के पुनः समाप्ति की ओर। यह क्या? तो क्या करें? बच्चे न पैदा करें? नेटालिस्टिक प्रवृत्ति का लोप कर दें? तब anti-natalist समाज समाप्ति की ओर नहीं बढ़ जाएगा? मानव जाति समाप्त नहीं हो जाएगी?
चलिये देखते हैं। अभी हमने बात की थी कि पोलिगेमस मानव को सदियों से मोनोगेमस बनाये जाने का प्रयास किया गया। लेकिन फिर भी इसका उल्लंघन हुआ और आज भी विश्व के 80% परिवार अपने वंश को नहीं चला रहे हैं।
(असल में तो कोई भी नहीं चला रहा* लेकिन जो सोचते हैं कि वे चला रहे हैं तो उनके लिये बुरी खबर। विदेशों में कुछ वर्ष पूर्व एक सर्वे हुआ। जिसमें कई परिवारों के DNA जांच की गयी और समझिये विस्फोट सा हुआ। कोई भी बच्चा उनके माता-पिता का नहीं निकला। पड़ोसियों के निकले।
*वंश चलाने के लिये यह परम आवश्यक है कि सभी 28 गुणसूत्र एक ही वंश से आये हों। अर्थात आपके माता-पिता एक ही माता-पिता की सन्तानें होना परमावश्यक है। इसी सिद्धान्त पर मिस्र में सदियों तक वंश चले। यदि आपके माता-पिता एक ही परिवार के रक्त सम्बन्धी नहीं हैं तो आपके आधे गुणसूत्र आपके पिता के और आधे आपकी माता के वंश के होंगे। यानी अशुद्ध वंश)।
तो क्या सीखा? मतलब प्रवृत्ति पर पूरी तरह रोक लगाना असम्भव। इसलिये मोनोगैमी की तरह एन्टी नेटालिस्ट सोच लाइये। जनसँख्या को स्वेच्छा से रोकिये। गर्भनिरोधकों का जम कर उपयोग करें। सरकार का सहयोग लें। कंडोम, नसबंदी, मैथुन भंग, डायफ्राम, IUV (आधुनिक और सुरक्षित 3 से 5 वर्ष तक), copper T, फीमेल कंडोम (reusable), 72 घंटे, आई पिल, माला-डी, सहेली, डिम्पा इंजेक्शन इत्यादि का विकल्प चुनें। अनजान साथी से सम्भोग करते समय कंडोम प्रयोग करें या उसकी STD/HIV जांच अवश्य करवा लें।
कुछ लोग मेरी बात कभी नहीं मानेंगे और जो विवाह को त्यागेंगे वे live-in-relationship में बच्चे पैदा करेंगे ही और जनसँख्या संतुलित हो जाएगी।
अब बात आती है कि हम पोलिगेमस हैं तो यह प्यार किस चिड़िया का नाम है? क्यों एक के साथ चिपक जाता है यदि इंसान पोलिगेमस है असल में?
तो दिल थाम कर इसका विश्व में प्रथम बार रहस्योद्घाटन देखिये शुभाँशु की कलम से।
इंसान खाली नहीं बैठ सकता। इसलिये उसे कोई न कोई काम चाहिए। कुछ नहीं तो मनोरंजन या गप शप करने के लिये ही सही, एक साथी। ये बात सिर्फ इंसान के लिये ही सही नहीं है। लगभग सभी जीव-जंतु ऐसा ही करते हैं। उनको भी कोई न कोई चाहिए ताकि अपना फालतू समय काट सकें। जिनको यह साथी नहीं मिल पाता वे या तो निर्जीव वस्तुओं से मनोरंजन करते हैं। जैसे खेल इत्यादि या वे सोते रहते हैं।
इस प्रकार जो आनन्द प्राप्त होता है, उससे सभी के मस्तिष्क से डोपामिन, सेरोटोनिन, ऑक्सीटोसिन तथा एंडोर्फिन्स हार्मोन निकलता है जो एडिक्टिव (जिसकी लत लग जाती है) होता है। इनके अतिरिक्त विशेष प्रकार के शरीर से जोड़ रखने वाले फेरोमोन भी होते हैं जो मानव की पसीने की ग्रन्थियों से स्रावित होते हैं। यह ऐसे गुण रखते हैं जो केवल नाक् के विशेष ग्राहियों (receptors) को ही महसूस होते हैं। जिनको आप पहचान नहीं सकते अर्थात गन्धहीन होते हैं। यह सीधे कामोत्तेजना पैदा कर सकते हैं। आपने इसी के कारण पहली ही मुलाकात में प्यार हो जाने वाला गुण पाया है। भाई-बहन-माता-पिता-पुत्री-पुत्र के फेरोमोन समान होने के कारण उनमें इनका प्रभाव हल्का होता है। लेकिन साफसफाई से रहने के कारण यह फेरोमोन अब बेकार हो गए। विपरीत फेरोमोन एक दूसरे को आकर्षित और समान प्रतिकर्षित करते हैं।
प्राचीन काल में पसीने की गंध सेक्स का turn on होती थी। लेकिन आज डिओडरेंट ने इसको एक बुराई में बदल दिया है। अब हम बैक्टीरिया जनित मल की गंध को साफ करने के चक्कर में असली फेरोमोन को भी ख़त्म कर रहे हैं।
इसी लत को प्यार/love/मोहब्बत/इश्क/प्रेम कहते हैं। ये किसी भी चीज से हो सकता है। जिससे भी आनन्द की प्राप्ति हो। परंतु संभोग की इच्छा ऑक्सीटोसिन और डोपामिन का मिला जुला प्रभाव होता है जिसमें ऑक्सीटोसिन love को बढाने वाला addictive हार्मोन कहा जाता है। इसके प्रभाव से यौनांगों का विकास शीघ्र हो जाता है। यह माता में दुग्ध उत्पादन में भी सहयोग करता है।
आवश्यकतानुसार इसमें भेद भी उत्पन्न हुए और जब मानव समाज रिश्ते बना रहा था तो उसने प्रेम को तरह-तरह के भेदों में बांट लिया।
माता-पिता का प्यार, भाई-बहन का प्यार, रिश्तेदारों का प्यार, दोस्तों का प्यार, शिक्षक और विद्यार्थियों का प्यार और सबसे महत्वपूर्ण, रोमांस वाला प्यार (विश्व प्रसिद्ध), आकर्षण का सुख, कामोत्तेजना का आनन्द, संभोग का आनंद।*
(*सम्भोग का आनंद एक ऐसा आनंद है जिसके कारण प्रजनन की भावना जीवित है। यह सभ्यता के साथ-साथ मनोरंजन में बदल गया। इसी के चलते पोलिगेमस स्वभाव फलाफूला। इसे आम भाषा में हवस (lust) कहते हैं। यह डोपामिन और ऑक्सीटोसिन का मिला जुला प्रभाव हैं। यह एक सम्पन्न समाज में एक अनिवार्य समझी जाने वाली बुराई* यानि वैश्यावृत्ति और पोर्न बन कर उभरा। पोलिगेमस पुरुषों ने सत्ता में आकर नगर वधु का चलन शुरू किया। नाम से ही स्पष्ट है कि सारे नगर की पत्नी। यह विधुरों (जिसकी पत्नी मर गई हो) के लिए शुरू की गई सेवा रही होगी लेकिन जल्द ही इसने पूरे नगर को अपनी चपेट में ले लिया। कारण वही, एक बार से दिल नहीं भरता, जाऊंगा मैं फिर दोबारा। क्यों? आखिर क्यों एक साथी से दिल नहीं भरता?
*बुराई इसलिए क्योंकि कुछ लोगों ने इनके चक्कर में अपनी पत्नी ही छोड़ दी।
प्रश्न: इन वैश्याओं के बच्चों का क्या होता है?
उत्तर: लड़की को रख लिया जाता है और लड़के को मार डाला जाता है। जी हाँ, आज भी)।
ऐसा पाया गया है कि एक ही साथी से सम्भोग करते-करते बोरियत हो जाती है। यानि कामोत्तेजना ही समाप्त हो जाती है। अब क्या करें? वियाग्रा/केलियास खाएं? अगर एक के साथ ही रहना है तो अवश्य खाइए लेकिन इसके दुष्परिणाम भी इन्टरनेट पर देखें। बहुत लोग मर गए इन दवाओं के प्रयोग से।
कमाल देखिये, नयी/नया साथी देखते ही ये बंद कलियाँ खिलने लगती हैं। जगह/स्थान/रोल बदलने से भी कुछ समय तक यही असर। फिर क्या कोई 1500-2000 रुपये की गोली लेगा या नया साथी? (अरे भई सेक्स गुरु नहीं हूँ। जानकारी रखता हूँ। अनुभव भी है कुछ।)
प्रारम्भ में केवल विपरीत लिंग के लोगों में ही रोमांस सम्भव माना जाता था परंतु कालांतर में इसके अन्य भेद भी सामने आए। जैसे LGBTQ*
इन सभी रोमांटिक प्रेमों के खिलाफ धर्म और कानूनों ने व्यापक मुहिम छेड़ दी।
खरबों जोड़ो को मार डाला गया, उनके ही, अपने घरवालों के द्वारा, या जो जोड़े नहीं मार पाए गए, उनको बाकायदा पापी घोषित करके धर्म के ठेकेदारों ने कत्ल कर दिया।
क्यों?
बहुत कड़वा जवाब है इस क्यों का। जानने से पहले खुद को मजबूत कर लो...
तो चलो कुछ सवालों का जवाब ढूंढते हैं पहले:
विवाह जो समर्थन प्राप्त संस्था है, उसकी सामान्य विधि क्या है?
1. अपनी ही जाति और स्टेटस वाले, सुदंर चेहरे वाले या उनसे ऊपर के खानदान से बात चलाई जाती है।
2. यदि बात नहीं बनती तो कम से कम में जो भी मानक पूरे करता हो उसके साथ रिश्ता पक्का किया जाता है।
3. धन का लेनदेन शुरू।
4. विवाह के उम्मीदवारों से या तो कुछ नहीं पूछा जाता है या कुछ लोग (जो खुद को आधुनिक कहते हैं) फ़ोटो दिखा कर या आमने-सामने बिठा कर परिचय करवा देते हैं। ज्यादा सम्पन्न हैं तो आपस में फोन पर बकलोली भी होती है।
5. फिर उचित समय निर्धारित करके, विवाह समारोह आयोजित किया जाता है जिसमे ज्यादा से ज्यादा लोगों को, अपना स्टेटस दिखाने और जान पहचान बढ़ाने के लिये, तथा नेग/उपहार रूपी धन की वापसी की उम्मीद में, बुलाया जाता है।
इनकी आव-भगत की जाती है, वर पक्ष और वधू पक्ष के तमाम लोग इस तमाशे में शामिल होते हैं। जिनको भोजन कराने, ठहराने, घुमाने, लाने और ले जाने की व्यवस्था मेजबान करता है। भारी धन हानि। सूट बूट में तोंद वाले लोग आकर गरिष्ठ और महंगा भोजन भकोसते हैं और भरी हुई प्लेट कूड़े के ढेर में फेंक देते हैं।
6. इस सब के बाद या पहले (परम्परानुसार) विवाह की रस्म होती है। जिसमे कोई धार्मिक पुजारी/काजी/मुल्ला/पादरी आकर वर और वधु को सैकडों लोगों की मौजूदगी में जीवन भर साथ रहने की शपथ दिलवाता है और ईश्वर का डर दिखाता है कि यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो बुरा होगा। सभी लोग इस agreement के गवाह बनते हैं और आज कल तो इसकी वीडियो रिकॉर्डिंग भी करा ली जाती है कि कहीं दोनों में से कोई भाग निकला तो पकड़ा जा सके।
7. सम्भोग रात्रि (सुहाग रात): दो अनजान लोग सीधे कुश्ती लड़ते हैं। समाज का कुंवारी कन्या को प्रथम सम्भोग में रक्त रंजित करके यह कहना कि उसकी इस रक्त पात में सहमति थी। कमाल का समाज है न?
(यह तथ्य है कि बिना foreplay के कुवारी कन्या कभी कौमार्य भंग करवाने की इच्छुक नहीं हो सकती। भारतवासी ये foreplay किस चिड़िया का नाम है यही पूछते रहते हैं, आप अब समझ गए होंगे कि बलात्कार संस्कृति कैसे बनता है। कानून भी संस्कृति से प्रेरित। मेरिटल रेप पहले दिन ही हुआ है तो सभी पति जेल में होंगे। इसलिए जज दुरूपयोग का बहाना बना कर इसे टाल देते हैं। कुछ ऐसा ही जैसे पुरुष का बलात्कार कानून में अपराध नहीं है। बस खाली कहने को सम्विधान में समानता का अधिकार है)।
इतनी बड़ी परियोजना केवल 2 लोगों के बच्चे पैदा करने के लिये? नहीं मित्रों, बहुत बड़ी साजिश है इसके पीछे।
ये सब इसलिये ताकि कोई भी अपनी मर्जी से विवाह न कर ले। एक विवाह एक व्यापारी के लिए विज्ञापन, एक कारपोरेट के लिये नए व्यापार के लिये रास्ते खोलने वाला और बड़े लोगो से सम्पर्क बनाना हो सकता है।
धर्म को क्या फायदा है? जितने ज्यादा कमाने वाले होंगे उतना ज्यादा दान। उतने ज्यादा नामकरण, यग्योपवीत संस्कार, मुंडन, इत्यादि 16 संस्कारों में धन कमाने का अवसर। और फिर खानदानी लॉयल्टी।
अब अगर उन माता-पिता के बच्चे खुद ही अपना जीवन साथी चुन लेंगे तो उनके इस प्लान का क्या होगा?
भारत के परिपेक्ष्य में:
वधू पक्ष: कितने निष्ठुर हैं न ये माता पिता? एक तो लड़की को घर से विदा कर दिया जबरन और फिर रोने का नाटक भी? ज़िन्दगी भर अपमान करवाने और ससुराल वालों के नखरे और फरमाइशों को पूरा करने का वादा भी कर लिया। उनकी तरफ के बच्चे का भी चरणस्पर्श। दान देने वाला बाप छोटा और लेने वाला बड़ा?
वर पक्ष: एक तो लड़की ले आये दूसरे की खा पी कर, साथ में पैसा भी ले आये, फिर भी dowry चाहिए? नहीं दें तो?
1. लड़की केरोसीन stove से जल मरी। दुर्घटना है।
2. लड़की ने जहर खा लिया। कायर है।
3. लड़की के फांसी लगा ली। चाय में चीनी डालने को कह दिया, इतनी सी बात पर नाराज हो गई थी।
4. नई शादी...
5. Repeat...
यदि दहेज की मांग पूरी करते रहे:
वधू पक्ष:
1. गरीबी में जीवन।
2. अपनी ही लड़की को कोसना।
3. किस्मत को कोसना।
4. अपने लड़के की शादी में 2 गुना दहेज माँगूँगा तब जा कर कुछ आराम मिलेगा।
उधर वर-वधु का जीवन:
पति:
1. तू लाई ही क्या थी? ये दो कौड़ी का सामान?
2. तेरे बाप ने तुझे यही सिखा पढ़ा के भेजा है कि तू हमसे जुबान लड़ाती है?
3. अब तेरे में वो पहले वाली बात नहीं रही, अब तेरे साथ मज़ा नहीं आता।
4. आफिस में अपनी जूनियर को पटाऊंगा। वो नया माल लगती है।
5. अब मस्त ज़िंदगी है, घरवाली और बाहरवाली दोनों होनी चाहिए।
सास:
1. अरे करमजली, फिर दूध जला दिया, यही सिखा कर भेजा है तेरी माँ ने?
2. अरे नास पीटी, तुझ से कहा था कि मुझे नाश्ता टाइम पर चाहिए, अभी तेरे बाप को बुलाती हूँ ठहर जा।
3. अरे ये पोछे का पानी अब तक नहीं सूखा? अभी मैं गिर जाती तो? मार डालने का प्लान है।
4. फिर लड़की? लड़का कब देगी तू डायन?
ससुर:
1. बहू, ज़रा मेरा भी थोड़ा ध्यान रख लिया कर, तेरी सास तो कुछ करती नहीं है, तू आ गई तो लगा कि जीवन आराम से कट जाएगा, मेरे कपड़े, सामान वगेरह का ध्यान तुमको ही रखना है अब।
बहू:
1. एक आदमी से शादी की थी, ये तो पूरा कुटुंब ही पल्ले पड़ गया। क्या क्या कर लूँ अकेले मैं?
2. इज़्ज़त तो कोई है नहीं, नौकर बन कर जीना पड़ रहा है।
3. लड़का क्या पड़ोस से कर लूं? जो होगा वही तो मिलेगा? में क्या जानू पेट मे क्या पल रहा है?
4. मैं कहाँ फंस गई?
5. वो पी कर आते हैं, 1 मिनट से ज्यादा सम्भोग नहीं करते, में तड़पती रहती हूं।
6. देवर की नज़र मेरे ऊपर है, अब तक खुद को रोका लेकिन अब कहीं फिसल न जाऊं।
7. पड़ौस का लड़का बहुत लाइन मारता है, इधर मुझे ये खुश कर नहीं पाते, कहीं मन बहक न जाये।
8. अब क्या कर सकती हूं, ऐसे ही जीना है अब मुझको। चुप रहूंगी।
ऑफिस की जूनियर:
1. Sir ने मेरा रेप किया। किस से कहूं? सहेली से कहती हूँ।
2. पागल हो गई क्या? वो तेरे से मजे ले रहा है तो लेने दे, मैंने भी यही झेला है। कुछ कहेगी तो demotion करवा देगा या निकलवा देगा, कॉन्ट्रासेप्टिव लेती रहना। सब ठीक होगा। किसी से कहना मत, नहीं तो सब तुझे ही गलत कहेंगे। सोसायटी लड़कियों को जॉब करते नहीं देख सकती, उनके लिये तो हम हमेशा धंधे वाली ही रहेंगे। और तुझे करना क्या है? शादी ही न? कर देगा तेरा बाप।
परिणाम: विवाह सफल! बधाई हो। लड़का हुआ है।
गुलामी स्वीकार कर लो तो कोई दिक्कत नहीं है। लड़की समाज के पांव की जूती ही तो है। लड़की का तो नाम ही समर्पण है। बोले तो आत्मसमर्पण (surrender)।
विरोध किया तो? समस्या शुरू। यहीं से सब दिक्कत शुरू है। समाज कहता है कि विरोध मत करो।
तो मत करिए, यही चाहते हैं न आप सब भी? जो चलता है चलने दो न। शुभांशु जी काहे पंगा ले रहे हैं दुनिया से? उंगली न करें। अच्छा नहीं होगा। है न?
इस सब का विरोध शुरू से क्यों नहीं हुआ? क्योकि इसको चलाने में धर्म का बहुत बड़ा हाथ था जिसके डर से लोगों ने विरोध नहीं किया।
"लड़की की अब लाश ही वापस आएगी।"
"पति का घर ही अब उसका घर है।"
इसी तरह लोग अपनी वास्तविक पृवृत्ति को छुपा कर जीने लगे, अपने पोलिगेमस होने को दबाए रहे, लेकिन समय बदला और इसके बुरे परिणाम सामने आने लगे, क्योकि इंसान अपनी पृवृत्ति को नहीं बदल सकता और बलात्कार का आविष्कार हुआ।
विवाहेतर सम्बन्ध, बलात्कार और हत्या सब अवैध कहलाने के डर से चुप चाप होने लगीं।
समाज के ठेकेदारों ने इस पर सजा रख दी लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, बलात्कार के बाद सज़ा के डर से लड़की को मारा जाने लगा, यानी सज़ा से फायदे के स्थान पर नुकसान हो गया।
आज भी यही हो रहा है, दिल्ली रेप केस में ज्यादातर लड़के शादी शुदा थे। जो नाबालिग थे उनको शादीशुदा लोग भड़काते और उकसाते हैं। कहते हैं, नहीं करेगा? मर्द नही है साला।
शादी शुदा जीवन तो पत्नी का बलात्कार ही होता है 90%। कितनी पत्नियां होंगी जो खुद पति से आकर कहती हैं, "ऐ जी बहुत मन कर रहा है आज, चलो कमरे में।"
हमेशा पति ही अपनी इच्छा पूर्ति करता रहता है, महिला तो कह तक नहीं पाती। और यदि कहे तो? रंडी है, छिनाल है। पति भी कौन सा स्टैमिना वाला होता है, 1 या 2 मिनट में out। मौसम की तरह। जब मौसम का मजा आने लगता है तभी खत्म।
जो लोग बलात्कार नही कर सकते थे वो gf-bf खेलने लगे। वैसे इसमें भी पहले दिन बलात्कार होता ही है। इसे डेट रेप कहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि ये बलात्कारी प्यार का वास्ता देकर मना लेता है, जबकि दूसरे बन्दूक दिखा कर या ब्लैकमेल करके।
और क्या आपको सबसे बढ़िया उपाय पता है बलात्कार के केस से बचने का? लड़की से समझौता करके शादी कर लो। वह केस अपने आप ही निरस्त हो जाएगा। फिर चाहे उसी दिन तलाक/divorce देकर मुक्त हो जाओ। कमाते हो तो गुजारा भत्ता देने का नुकसान होगा। साथ ही कभी-कभी माफी मांगने भी जा सकते हैं, रात भर माफी मांगिये फिर अपने रस्ते। लड़की तलाक न दे तो? घरेलू हिंसा है न। झक मार के देगी...तलाक।
जब मुझे ये सब पता है तो मैं प्यार का नाटक नहीं करता, जिसके साथ सेक्स का मन है उस से सेक्स करो और जिस से प्यार करना है उस से प्यार करो। दोनों को मिलाने से ही क्लेश और अपराध होते हैं। सेक्स लोयल्टी की निशानी नहीं होता, लेकिन प्यार होता है।
इतना गन्दा समाज, इतना घटिया सिस्टम, इतने घटिया लोग। फिर क्यों न मैं साथ दूँ लिव इन रिलेशनशिप का? कोई दखल नहीं दूसरे का। आज़ादी, दो लोगों का व्यक्तिगत सम्बन्ध। ये उनके लिए जो बच्चे चाहते हैं।
जिनके बच्चे नहीं और अलग/व्यस्त रहते हैं तो वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिये नौकर रख लें और माता-पिता स्वीकार लें इस सम्बंध को। नौकर, जिसकी पुलिस पड़ताल हो चुकी हो।
जो Antinatalist Vegans* हैं, वे Freesex का concept पढ़ें और सेफ सेक्स और प्यार को कायदे से मैनेज करें।
*Vegan: बहुत हो गया और जानकारी फिर कभी! इतने में ही मेरे को मारने को ढूंढ रहे होंगे आप सब। सबकी पोल जो खोल के फैला दी है! (ही ही ही) फिर से पिटने के लिए जल्द ही आऊंगा। डंडों को तेल पिला कर लगे रहिये मेरी जासूसी में।
अस्वीकरण: मेरी व्यक्तिगत सोच, किसी को बाध्य नहीं किया गया है। वही करें जो दिल कहे। धन्यवाद।
Final Edited: 2018/02/16 17:55 IST, First written: 2017/06/16 06:51 IST
जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुध्दिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पल्ले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है, या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे
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दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता।
गायें सींग मारती हैं, ब्यायी हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है। किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहे गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सडी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी न दिखाई देगी। वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता हो, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा।
उसके चेहरे पर एक स्थायी विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दु:ख, हानि-लाभ, किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा। ॠषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गए हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सद्गुणों का इतना अनादर कहीं न देखा। कादचित सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है।
देखिए न, भारतवासियों की अफ्रीका में क्यों दुर्दशा हो रही है? क्यों अमेरिका में उन्हें घुसने नहीं दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीते, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी तोडकर काम करते हैं, किसी से लडाई-झगडा नहीं करते, चार बातें सुनकर गम खा जाते हैं, फिर भी बदनाम हैं। कहा जाता है, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं। अगर वे भी ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते, तो शायद सभ्य कहलाने लगते। जापान की मिसाल समाने है। एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया। लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कम ही गधा है, और वह है 'बैल। जिस अर्थ में हम गधा का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में 'बछिया के ताऊ का भी प्रयोग करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं है। बैल कभी-कभी मारता भी है, कभी-कभी अडियल बैल भी देखने में आता है। और भी कई रीतियों से अपना असंतोष प्रकट कर देता है, अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है।
झूरी काछी के दोनों बैलों के नाम थे हीरा और मोती। दोनों पछाई जाति के थे- देखने में सुन्दर, काम में चौकस, डील में ऊँचे। बहुत दिनों से साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आसपास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाता था, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है।
दोनों एक-दूसरे को चाटकर और सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे- विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोस्तों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हल्की-सी रहती है, जिस पर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता।
जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाडी में जोत दिए जाते और गर्दन हिला-हिलाकर चलते उस वक्त हर एक की यही चेष्टा होती थी कि ज्याद-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे। दिनभर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते, तो एक-दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लेते। नाँद में खली-भूसा पड जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुँह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता था।
संयोग की बात है, झूरी ने एक बार गोईं को ससुराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम वे क्यों भेजे जा रहे हैं। समझे, मालिक ने हमे बेच दिया। अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने पर झूरी के साले गया को घर तक गोईं ले जाने में दाँतों पसीना आ गया। पीछे से हाँकता तो दोनों दाएँ-बाएँ भागते, पगहिया पकडकर आगे से खींचता तो दोनों पीछे को जोर लगाते। मारता तो दोनों सींग नीचे करके हुँकरते।
अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती, तो झूरी से पूछते- तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो? हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था, और काम ले लेते, हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथों क्यों बेच दिया?
संध्या समय दोनों बैल अपने नए स्थान पर पहुँचे। दिनभर के भूखे थे, लेकिन जब नाँद में लगाए गए, तो एक ने भी उसमें मुँह न डाला। दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया था। यह नया घर, नया गाँव, नए आदमी, उन्हें बेगानों से लगते थे।
दोनों ने अपनी मूक भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गए। जब गाँव में सोता पड गया, तो दोनों ने जोर मारकर पगहे तुडा डाले और घर की तरफ चले। पगहे बहुत मजबूत थे। अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड सकेगा: पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गई थी। एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गईं।
झूरी प्रात: सोकर उठा, तो देखा कि दोनों बैल चरनी पर खडे हैं। दोनों ही गर्दनों में आधा-आधा गराँव लटक रहा है। घुटने तक पाँव कीचड से भरे हैं और दोनों की ऑंखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है।
झूरी बैलों को देखकर स्नेह से गद्गद् हो गया। दौडकर उन्हें गले लगा लिया। प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह दृश्य बडा ही मनोहर था।
घर और गाँव के लडके जमा हो गए और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे। गाँव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्वपूर्ण थी। बाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशु-वीरों को अभिनंदन-पत्र देना चाहिए। कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड, कोई चोकर, कोई भूसी।
एक बालक ने कहा- ऐसे बैल किसी के पास न होंगे।
दूसरे ने समर्थन किया- इतनी दूर से दोनों अकेले चले आए।
तीसरा बोला- बैल नहीं हैं वे, उस जनम के आदमी हैं।
इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस न हुआ।
झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा, तो जल उठी। बोली- कैसे नमक-हराम बैल हैं कि एक दिन वहाँकाम न किया, भाग खडे हुए।
झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका- नमकहराम क्यों हैं? चारा-दाना न दिया होगा, तो क्या करते?
स्त्री ने रोब के साथ कहा- बस, तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो, और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं।
झूरी ने चिढाया- चारा मिलता तो क्यों भागते?
स्त्री चिढी- भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुध्दुओं की तरह बैलों को सहलाते नहीं। खिलाते हैं, तो रगडकर जोतते भी हैं। ये दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले। अब देखूँ? कहाँ से खली और चोकर मिलता है, सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूँगी, खाएँ चाहे मरें।
वही हुआ। मजूर को बडी ताकीद कर दी गई कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाए।
बैलों ने नाँद में मुँह डाला तो फीका-फीका। न कोई चिकनाहट, न कोई रस। क्याखाएँ? आशा भरी ऑंखों से द्वार की ओर ताकने लगे।
झूरी ने मजूर से कहा- थोडी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बे?
'मालिकन मुझे मार ही डालेंगी।
'चुराकर डाल आ।
'ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे।
दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। अबकी उसने दोनों को गाडी में जोता।
दो-चार बार मोती ने गाडी को सडक की खाई में गिराना चाहा, पर हीरा ने संभाल लिया। वह ज्यादा सहनशील था।
संध्या समय घर पहुँचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बाँधा और कल की शरारत का मजा चखाया। फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली, चूनी सब कुछ दी।
दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी इन्हें फूल की छडी से भी न छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उडने लगते थे। यहाँ मार पडी। आहत-सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा!
नाँद की तरफ ऑंखें तक न उठाईं।
दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पाँव न उठाने की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया, पर दोनों ने पाँव न उठाया। एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर खूब डण्डे जमाए, तो मोती का गुस्सा काबू के बाहर हो गया। हल लेकर भागा। हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाट कर बराबर हो गया। गले में बडी-बडी रस्सियाँ न होती तो दोनों पकडाई में न आते।
हीरा ने मूक भाषा में कहा- भागना व्यर्थ है।
मोती ने उत्तर दिया- तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी।
'अबकी बडी मार पडेगी।
'पडने दो, बैल का जन्म लिया है तो मार से कहाँ तक बचेंगे।
'गया दो आदमियों के साथ दौडा आ रहा है। दोनों के हाथों में लाठियाँ हैं।
मोती बोला- कहो तो दिखा दूँ कुछ मजा मैं भी। लाठी लेकर आ रहा है।
हीरा ने समझाया- नहीं भाई! खडे हो जाओ।
'मुझे मारेगा, तो मैं भी एक-दो को गिरा दूँगा।
'नहीं। हमारी जाति का यह धर्म नहीं है।
मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुँचा और दोनों को पकडकर ले चला। कुशल हुई कि उसने इस वक्त मारपीट न की, नहीं तो मोती भी पलट पडता। उसके तेवर देखकर गया और उसके सहायक समझ गए कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत है।
आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया। दोनों चुपचाप खडे रहे। घर के लोग भोजन करने लगे। उस वक्त छोटी-सी लडकी दो रोटियाँ लिए निकली, और दोनों के मुँह में देकर चली गई।
उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शांत होती, पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया। यहाँ भी किसी सज्जन का बास है। लडकी भैरो की थी। उसकी माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ मारती रहती थी, इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गई थी।
दोनों दिनभर जोते जाते, डण्डे खाते, अडते। शाम को थान पर बाँध दिए जाते और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती। प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे, मगर दोनों की ऑंखों में, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था।
एक दिन मोती ने मूक भाषा में कहा- अब तो नहीं सहा जाता हीरा!
'क्या करना चाहते हो?
'एकाध को सीगों पर उठाकर फेंक दूँगा।
'लेकिन जानते हो, वह प्यारी लडकी, जो हमें रोटियाँ खिलाती है, उसी की लडकी है, जो इस घर का मालिक है। यह बेचारी अनाथ न हो जाएगी?
'तो मालकिन को न फेंक दूँ। वही तो उस लडकी को मारती है।
'लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूले जाते हो।
'तुम तो किसी तरह निकलने ही नहीं देते। बताओ, तुडाकर भाग चलें।
'हाँ, यह मैं स्वीकार करता, लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे?
'इसका उपाय है। पहले रस्सी को थोडा-सा चबा लो। फिर एक झटके में जाती है।
रात को जब बालिका रोटियाँ खिलाकर चली गई, दोनों रस्सियाँ चबाने लगे, पर मोटी रस्सी मुँह में न आती थी। बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे।
सहसा घर का द्वार खुला और वही बालिका निकली। दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे। दोनों की पूँछें खडी हो गईं।
उसने उनके माथे सहलाए और बोली- खोले देती हूँ। चुपके से भाग जाओ, नहीं तो यहाँ लोग मार डालेंगे। आज घर में सलाह हो रही है कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जाएँ।
उसने गराँव खोल दिया, पर दोनों चुपचाप खडे रहे।
मोती ने अपनी भाषा में पूछा- अब चलते क्यों नहीं?
हीरा ने कहा- चलें तो लेकिन कल इस अनाथ पर आफत आएगी। सब इसी पर संदेह करेंगे।
सहसा बालिका चिल्लाई- दोनों फूफा वाले बैल भागे जा रहे हैं। ओ दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, जल्दी दौडो।
गया हडबडाकर भीतर से निकला और बैलों को पकडने चला। वे दोनों भागे। गया ने पीछा किया। और भी तेज हुए। गया ने शोर मचाया। फिर गाँव के कुछ आदमियों को भी साथ लेने के लिए लौटा। दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया। सीधे दौडते चले गए। यहाँ तक कि मार्ग का ज्ञान न रहा। जिस परिचित मार्ग से आए थे, उसका यहाँ पता न था। नए-नए गाँव मिलने लगे। तब दोनों एक खेत के किनारे खडे होकर सोचने लगे, अब क्या करना चाहिए?
हीरा ने कहा- मालूम होता है, राह भूल गए।
'तुम भी बेतहाशा भागे। वहीं उसे मार गिराना था।
'उसे मार गिराते, तो दुनिया क्या कहती? वह अपना धर्म छोड दे, लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोडें?
Karmon Ka Phal - Munshi Premchand कर्मों का फल - मुंशी प्रेम चंद
1 मुझे हमेशा आदमियों के परखने की सनक रही है और अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि यह अध्ययन जितना मनोरंजक, शिक्षाप्रद और उदधाटनों से भरा हुआ है, उतना शायद और कोई अध्ययन
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न होगा। लेकिन अपने दोस्त लाला साईंदयाल से बहुत अर्से तक दोस्ती और बेतकल्लुफी के सम्बन्ध रहने पर भी मुझे उनकी थाह न मिली। मुझे ऐसे दुर्बल शरीर में ज्ञानियों की-सी शान्ति और संतोष देखकर आश्चर्य होता था जो एक़ नाजुक पौधे की तरह मुसीबतों के झोंकों में भी अचल और अटल रहता था। ज्यों वह बहुत ही मामूली दरजे का आदमी था जिसमें मानव कमजोरियों की कमी न थी। वह वादे बहुत करता था लेकिन उन्हें पूरा करने की जरूरत नहीं समझता था। वह मिथ्याभाषी न हो लेकिन सच्चा भी न था। बेमुरौवत न हो लेकिन उसकी मुरौवत छिपी रहती थी। उसे अपने कर्त्तव्य पर पाबन्द रखने के लिए दबाव ओर निगरानी की जरुरत थी, किफायतशारी के उसूलों से बेखबर, मेहनत से जी चुराने वाला, उसूलों का कमजोर, एक ढीला-ढाला मामूली आदमी था। लेकिन जब कोई मुसीबत सिर पर आ पड़ती तो उसके दिल में साहस और दृढ़ता की वह जबर्दस्त ताकत पैदा हो जाती थी जिसे शहीदों का गुण कह सकते हैं। उसके पास न दौलत थी न धार्मिक विश्वास, जो ईश्वर पर भरोसा करने और उसकी इच्छाओं के आगे सिर झुका देने का स्त्रोत है। एक छोटी-सी कपड़े की दुकान के सिवाय कोई जीविका न थी। ऐसी हालतों में उसकी हिम्मत और दृढ़ता का सोता कहॉँ छिपा हुआ है, वहॉँ तक मेरी अन्वेषण-दृष्टि नहीं पहुँचती थी।
2 बाप के मरते ही मुसीबतों ने उस पर छापा मारा कुछ थोड़ा-सा कर्ज विरासत में मिला जिसमें बराबर बढ़ते रहने की आश्चर्यजनक शक्ति छिपी हुई थी। बेचारे ने अभी बरसी से छुटकारा नहीं पाया था कि महाजन ने नालिश की और अदालत के तिलस्मी अहाते में पहुँचते ही यह छोटी-सी हस्ती इस तरह फूली जिस तरह मशक फलती है। डिग्री हुई। जो कुछ जमा-जथा थी; बर्तन-भॉँड़ें, हॉँडी-तवा, उसके गहरे पेट में समा गये। मकान भी न बचा। बेचारे मुसीबतों के मारे साईंदयाल का अब कहीं ठिकाना न था। कौड़ी-कौड़ी को मुहताज, न कहीं घर, न बार। कई-कई दिन फाके से गुजर जाते। अपनी तो खैर उन्हें जरा भी फिक्र न थी लेकिन बीवी थी, दो-तीन बच्चे थे, उनके लिए तो कोई-न-कोई फिक्र करनी पड़ती थी। कुनबे का साथ और यह बेसरोसामानी, बड़ा दर्दनाक दृश्य था। शहर से बाहर एक पेड़ की छॉँह में यह आदमी अपनी मुसीबत के दिन काट रहा था। सारे दिन बाजारों की खाक छानता। आह, मैंने एक बार उस रेलवे स्टेशन पर देखा। उसके सिर पर एक भारी बोझ था। उसका नाजुग, सुख-सुविधा में पला हुआ शरीर, पसीना-पसीना हो रहा था। पैर मुश्किल से उठते थे। दम फूल रहा था लेकिन चेहरे से मर्दाना हिम्मत और मजबूत इरादे की रोशनी टपकती थी। चेहरे से पूर्ण संतोष झलक रहा था। उसके चेहरे पर ऐसा इत्मीनान था कि जैसे यही उसका बाप-दादों का पेशा है। मैं हैरत से उसका मुंह ताकता रह गया। दुख में हमदर्दी दिखलाने की हिम्मत न हुई। कई महीने तक यही कैफियत रही। आखिरकार उसकी हिम्मत और सहनशक्ति उसे इस कठिन दुर्गम घाटी से बाहर निकल लायी।
3 थोड़े ही दिनों के बाद मुसीबतों ने फिर उस पर हमला किया। ईश्वर ऐसा दिन दुश्मन को भी न दिखलाये। मैं एक महीने के लिए बम्बई चला गया था, वहॉँ से लौटकर उससे मिलने गया। आह, वह दृश्य याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ओर दिल डर से कॉँप उठता है। सुबह का वक्त था। मैंने दरवाजे पर आवाज दी और हमेशा की तरह बेतकल्लुफ अन्दर चला गया, मगर वहॉँ साईंदयाल का वह हँसमुख चेहरा, जिस पर मर्दाना हिम्मत की ताजगी झलकती थी, नजर न आया। मैं एक महीने के बाद उनके घर जाऊँ और वह आँखों से रोते लेकिन होंठों से हँसते दौड़कर मेरे गले लिपट न जाय! जरूर कोई आफत है। उसकी बीवी सिर झुकाये आयी और मुझे उसके कमरे में ले गयी। मेरा दिल बैठ गया। साईंदयाल एक चारपाई पर मैले-कुचैले कपड़े लपेटे, आँखें बन्द किये, पड़ा दर्द से कराह रहा था। जिस्म और बिछौने पर मक्खियों के गुच्छे बैठे हुए थे। आहट पाते ही उसने मेरी तरफ देखा। मेरे जिगर के टुकड़े हो गये। हड्डियों का ढॉँचा रह गया था। दुर्बलता की इससे ज्यादा सच्ची और करुणा तस्वीर नहीं हो सकती। उसकी बीवी ने मेरी तरफ निराशाभरी आँखों से देखा। मेरी आँसू भर आये। उस सिमटे हुए ढॉँचे में बीमारी को भी मुश्किल से जगह मिलती होगी, जिन्दगी का क्या जिक्र! आखिर मैंने धीरे पुकारा। आवाज सुनते ही वह बड़ी-बड़ी आँखें खुल गयीं लेकिन उनमें पीड़ा और शोक के आँसू न थे, सन्तोष और ईश्वर पर भरोसे की रोशनी थी और वह पीला चेहरा! आह, वह गम्भीर संतोष का मौन चित्र, वह संतोषमय संकल्प की सजीव स्मृति। उसके पीलेपन में मर्दाना हिम्मत की लाली झलकती थी। मैं उसकी सूरत देखकर घबरा गया। क्या यह बुझते हुए चिराग की आखिरी झलक तो नहीं है? मेरी सहमी हुई सूरत देखकर वह मुस्कराया और बहुत धीमी आवाज में बोला—तुम ऐसे उदास क्यों हो, यह सब मेरे कर्मों का फल है।
4 मगर कुछ अजब बदकिस्मत आदमी था। मुसीबतों को उससे कुछ खास मुहब्बत थी। किसे उम्मीद थी कि वह उस प्राणघातक रोग से मुक्ति पायेगा। डाक्टरों ने भी जवाब दे दिया था। मौत के मुंह से निकल आया। अगर भविष्य का जरा भी ज्ञान होता तो सबसे पहले मैं उसे जहर दे देता। आह, उस शोकपूर्ण घटना को याद करके कलेजा मुंह को आता है। धिककार है इस जिन्दगी पर कि बाप अपनी आँखों से अपनी इकलौते बेटे का शोक देखे। कैसा हँसमुख, कैसा खूबसूरत, होनहार लड़का था, कैसा सुशील, कैसा मधुरभाषी, जालिम मौत ने उसे छॉँट लिया। प्लेग की दुहाई मची हुई थी। शाम को गिल्टी निकली और सुबह को—कैसी मनहूस, अशुभ सुबह थी—वह जिन्दगी सबेरे के चिराग की तरह बुझ गयी। मैं उस वक्त उस बच्चे के पास बैठा हुआ था और साईंदयाल दीवार का सहारा लिए हुए खामोशा आसमान की तरफ देखता था। मेरी और उसकी आँखों के सामने जालिम और बेरहम मौत ने उस बचे को हमारी गोद से छीन लिया। मैं रोते हुए साईंदयाल के गले से लिपट गया। सारे घर में कुहराम मचा हुआ था। बेचारी मॉँ पछाड़ें खा रही थी, बहनें दौड-दौड़कर भाई की लाश से लिपटती थीं। और जरा देर के लिए ईर्ष्या ने भी समवेदना के आगे सिर झुका दिया था—मुहल्ले की औरतों को आँस बहाने के लिए दिल पर जोर डालने की जरूरत न थी। जब मेरे आँसू थमे तो मैंने साईंदयाल की तरफ देखा। आँखों में तो आँसू भरे हुए थे—आह, संतोष का आँखों पर कोई बस नहीं, लेकिन चेहरे पर मर्दाना दृढ़ता और समर्पण का रंग स्पष्ट था। इस दुख की बाढ़ और तूफानों मे भी शान्ति की नैया उसके दिल को डूबने से बचाये हुए थी। इस दृश्य ने मुझे चकित नहीं स्तम्भित कर दिया। सम्भावनाओं की सीमाएँ कितनी ही व्यापक हों ऐसी हृदय-द्रावक स्थिति में होश-हवास और इत्मीनान को कायम रखना उन सीमाओं से परे है। लेकिन इस दृष्टि से साईंदयाल मानव नहीं, अति-मानव था। मैंने रोते हुए कहा—भाईसाहब, अब संतोष की परीक्षा का अवसर है। उसने दृढ़ता से उत्तर दिया—हॉँ, यह कर्मों का फल है। मैं एक बार फिर भौंचक होकर उसका मुंह ताकने लगा।
5 लेकिन साईंदयाल का यह तपस्वियों जैसा धैर्य और ईश्वरेच्छा पर भरोसा अपनी आँखों से देखने पर भी मेरे दिल में संदेह बाकी थे। मुमकिन है, जब तक चोट ताजी है सब्र का बाँध कायम रहे। लेकिन उसकी बुनियादें हिल गयी हैं, उसमें दरारें पड़ गई हैं। वह अब ज्यादा देर तक दुख और शोक की जहरों का मुकाबला नहीं कर सकता। क्या संसार की कोई दुर्घटना इतनी हृदयद्रावक, इतनी निर्मम, इतनी कठोर हो सकता है! संतोष और दृढ़ता और धैर्य और ईश्वर पर भरोसा यह सब उस आँधी के समान घास-फूस से ज्यादा नहीं। धार्मिक विश्वास तो क्या, अध्यात्म तक उसके सामने सिर झुका देता है। उसके झोंके आस्था और निष्ठा की जड़ें हिला देते हैं। लेकिन मेरा अनुमान गलत निकला। साईंदयाल ने धीरज को हाथ से न जाने दिया। वह बदस्तूर जिन्दगी के कामों में लग गया। दोस्तों की मुलाकातें और नदी के किनारे की सैर और तफरीह और मेलों की चहल-पहल, इन दिलचस्पियों में उसके दिल को खींचने की ताकत अब भी बाकी थी। मैं उसकी एक-एक क्रिया को, एक-एक बात को गौर से देखता और पढ़ता। मैंने दोस्ती के नियम-कायदों को भुलाकर उसे उस हालत में देखा जहॉँ उसके विचारों के सिवा और कोई न था। लेकिन उस हालत में भी उसके चेहरे पर वही पुरूषोचित धैर्य था और शिकवे-शिकायत का एक शब्द भी उसकी जबान पर नहीं आया।
6 इसी बीच मेरी छोटी लड़की चन्द्रमुखी निमोनिया की भेंट चढ़ गयी। दिन के धंधे से फुरसत पाकर जब मैं घर पर आता और उसे प्यार से गोद में उठा लेता तो मेरे हृदय को जो आनन्द और आत्मिक शक्ति मिलती थी, उसे शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकता। उसकी अदाएँ सिर्फ दिल को लुभानेवाली नहीं गम को भुलानेवाली हैं। जिस वक्त वह हुमककर मेरी गोद में आती तो मुझे तीनों लोक की संपत्ति मिल जाती थी। उसकी शरारतें कितनी मनमोहक थीं। अब हुक्के में मजा नहीं रहा, कोई चिलम को गिरानेवाला नहीं! खाने में मजा नहीं आता, कोई थाली के पास बैठा हुआ उस पर हमला करनेवाला नहीं! मैं उसकी लाश को गोद में लिये बिलख-बिलखकर रो रहा था। यही जी चाहता था कि अपनी जिन्दगी का खात्मा कर दूँ। यकायक मैंने साईंदयाल को आते देखा। मैंने फौरन आँसू पोंछ डाले और उस नन्हीं-सी जान को जमीन पर लिटाकर बाहर निकल आया। उस धैर्य और संतोष के देवता ने मेरी तरफ संवेदनशील की आँखों से देखा और मेरे गले से लिपटकर रोने लगा। मैंने कभी उसे इस तरह चीखें मारकर रोते नहीं देखा। रोते-रोते उसी हिचकियॉँ बंध गयीं, बेचैनी से बेसुध और बेहार हो गया। यह वही आदमी है जिसका इकलौता बेटा मरा और माथे पर बल नहीं आया। यह कायापलट क्यों?
7 इस शोक पूर्ण घटना के कई दिन बाद जबकि दुखी दिल सम्हलने लगा, एक रोज हम दोनों नदी की सैर को गये। शाम का वक्त था। नदी कहीं सुनहरी, कहीं नीली, कहीं काली, किसी थके हुए मुसाफिर की तरह धीरे-धीरे बह रही थी। हम दूर जाकर एक टीले पर बैठ गये लेकिन बातचीत करने को जी न चाहता था। नदी के मौन प्रवाह ने हमको भी अपने विचारों में डुबो दिया। नदी की लहरें विचारों की लहरों को पैदा कर देती हैं। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि प्यारी चन्द्रमुखी लहरों की गोद में बैठी मुस्करा रही है। मैं चौंक पड़ा ओर अपने आँसुओं को छिपाने के लिए नदी में मुंह धोने लगा। साईंदयाल ने कहा—भाईसाहब, दिल को मजबूत करो। इस तरह कुढ़ोगे तो जरूर बीमार हो जाओगे। मैंने जवाब दिया—ईश्वर ने जितना संयम तुम्हें दिया है, उसमें से थोड़ा-सा मुझे भी दे दो, मेरे दिल में इतनी ताकत कहॉँ। साईंदयाल मुस्कराकर मेरी तरफ ताकने लगे। मैंने उसी सिलसिले में कहा—किताबों में तो दृढ़ता और संतोष की बहुत-सी कहानियॉँ पढ़ी हैं मगर सच मानों कि तुम जैसा दृढ़, कठिनाइयों में सीधा खड़ा रहने वाला आदमी आज तक मेरी नजर से नहीं गुजरा। तुम जानते हो कि मुझे मानव स्वभाव के अध्ययन का हमेशा से शौक है लेकिन मेरे अनुभव में तुम अपनी तरह के अकेले आदमी हो। मैं यह न मानूँगा कि तुम्हारे दिल में दर्द और घुलावट नहीं है। उसे मैं अपनी आँखों से देख चुका हूँ। फिर इस ज्ञानियों जैसे संतोष और शान्ति का रहस्य तुमने कहॉँ छिपा रक्खा है? तुम्हें इस समय यह रहस्य मुझसे कहना पड़ेगा। साईंदयाल कुछ सोच-विचार में पड़ गया और जमीन की तरफ ताकते हुए बोला—यह कोई रहस्य नहीं, मेरे कर्मों का फल है। यह वाक्य मैंने चौथी बार उसकी जबान से सुना और बोला—जिन, कर्मों का फल ऐसा शक्तिदायक है, उन कर्मों की मुझे भी कुछ दीक्षा दो। मैं ऐसे फलों से क्यों वंचित रहूँ। साईंदयाल ने व्याथापूर्ण स्वर में कहा—ईश्वर न करे कि तुम ऐसा कर्म करो और तुम्हारी जिन्दगी पर उसका काला दाग लगे। मैंने जो कुछ किया है, व मुझे ऐसा लज्जाजनक और ऐसा घृणित मालूम होता है कि उसकी मुझे जो कुछ सजा मिले, मैं उसे खुशी के साथ झेलने को तैयार हूँ। आह! मैंने एक ऐसे पवित्र खानदान को, जहॉँ मेरा विश्वास और मेरी प्रतिष्ठा थी, अपनी वासनाओं की गन्दगी में लिथेड़ा और एक ऐसे पवित्र हृदय को जिसमें मुहब्बत का दर्द था, जो सौन्दर्य-वाटिका की एक अनोखी-नयी खिली हुई कली थी, और सच्चाई थी, उस पवित्र हृदय में मैंने पाप और विश्वासघात का बीज हमेशा के लिएबो दिया। यह पाप है जो मुझसे हुआ है और उसका पल्ला उन मुसीबतों से बहुत भारी है जो मेरे ऊपर अब तक पड़ी हैं या आगे चलकर पडेंगी। कोई सजा, कोई दुख, कोई क्षति उसका प्रायश्चित नहीं कर सकती। मैंने सपने में भी न सोचा था कि साईंदयाल अपने विश्वासों में इतना दृढ़ है। पाप हर आदमी से होते हैं, हमारा मानव जीवन पापों की एक लम्बी सूची है, वह कौन-सा दामन है जिस पर यह काले दाग न हों। लेकिन कितने ऐसे आदमी हैं जो अपने कर्मों की सजाओं को इस तरह उदारतापूर्वक मुस्कराते हुए झेलने के लिए तैयार हों। हम आग में कूदते हैं लेकिन जलने के लिए तैयार नहीं होते। मैं साईंदयाल को हमेशा इज्जत की निगाह से देखता हूँ, इन बातों को सुनकर मेरी नजरों में उसकी इज्जत तिगुनी हो गयी। एक मामूली दुनियादार आदमी के सीने में एक फकीर का दिल छिपा हुआ था जिसमें ज्ञान की ज्योति चमकती थी। मैंने उसकी तरफ श्रद्धापूर्ण आँखों से देखा और उसके गले से लिपटकर बोला—साईंदयाल, अब तक मैं तुम्हें एक दृढ़ स्वभाव का आदमी समझता था, लेकिन आज मालूम हुआ कि तुम उन पवित्र आत्माओं में हो, जिनका अस्तित्व संसार के लिए वरदान है। तुम ईश्वर के सच्चे भक्त हो और मैं तुम्हारे पैरों पर सिर झुकाता हूँ।
एक 6 वर्ष का लडका अपनी 4 वर्ष की छोटी बहन के साथ बाजार से जा रहा था। अचानक से उसे लगा की,उसकी बहन पीछे रह गयी है। वह रुका, पीछे मुडकर देखा तो जाना कि, उसकी बहन एक खिलौने के दुकान के सामने खडी कोई चीज
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निहार रही है। लडका पीछे आता है और बहन से पुछता है, "कुछ चाहिये तुम्हे ?" लडकी एक गुड़िया की तरफ उंगली उठाकर दिखाती है। बच्चा उसका हाथ पकडता है, एक जिम्मेदार बडे भाई की तरह अपनी बहन को वह गुड़िया देता है। बहन बहुत खुश हो गयी है। दुकानदार यह सब देख रहा था, बच्चे का व्यवहार देखकर आश्चर्यचकित भी हुआ .... अब वह बच्चा बहन के साथ काउंटर पर आया और दुकानदार से पुछा, "सर, कितनी कीमत है इस गुड़िया की ?" दुकानदार एक शांत व्यक्ती है, उसने जीवन के कई उतार चढाव देखे होते है। उन्होने बडे प्यार और अपनत्व से बच्चे से पुछा, "बताओ बेटे, आप क्या दे सकते हो?" बच्चा अपनी जेब से वो सारी सीपें बाहर निकालकर दुकानदार को देता है जो उसने थोडी देर पहले बहन के साथ समुंदर किनारे से चुन चुन कर लायी थी। दुकानदार वो सब लेकर युं गिनता है जैसे पैसे गिन रहा हो। सीपें गिनकर वो बच्चे की तरफ देखने लगा तो बच्चा बोला,"सर कुछ कम है क्या?" दुकानदार :-" नही नही, ये तो इस गुड़िया की कीमत से ज्यादा है, ज्यादा मै वापिस देता हूं" यह कहकर उसने 4 सीपें रख ली और बाकी की बच्चे को वापिस दे दी। बच्चा बडी खुशी से वो सीपें जेब मे रखकर बहन को साथ लेकर चला गया। यह सब उस दुकान का नौकर देख रहा था, उसने आश्चर्य से मालिक से पुछा, " मालिक ! इतनी महंगी गुड़िया आपने केवल 4 सिपों के बदले मे दे दी ?" दुकानदार हंसते हुये बोला, "हमारे लिये ये केवल सीप है पर उस 6साल के बच्चे के लिये अतिशय मूल्यवान है। और अब इस उम्र मे वो नही जानता की पैसे क्या होते है ? पर जब वह बडा होगा ना... और जब उसे याद आयेगा कि उसने सिपों के बदले बहन को गुड़िया खरीदकर दी थी, तब ऊसे मेरी याद जरुर आयेगी, वह सोचेगा कि,,,,,, "यह विश्व अच्छे मनुष्यों से भरा हुआ है।" यही बात उसके अंदर सकारात्मक दृष्टीकोण बढाने मे मदद करेगी और वो भी अच्छा इंन्सान बनने के लिये प्रेरित होगा। ............................................................ #राधे_राधे
भूतकाल में भी और वर्तमानकाल मे भी इन ही पुरषों का दबदबा रहा स्त्री का शोषण करने में स्त्री को अपने जाल में फंसाने में इन्होंने ही धर्म बनाए, इन्होंने ही रीति रिवाज़ बनाए, औऱ रूढ़िवादी व्यवस्थाएं बनाईं क्योंकि ये पुरुष दिमाग़ से चाल चलते है।
जो पुरुष दिल से
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स्त्री को समझा वो स्त्री द्वारा नकारा गया स्त्री ने उसका मजाक बनाया उसको गलत ठहराया उसको मानसिक रोगी करार दिया। दिल से चाहने वाले पुरुषों से स्त्रियों ने दूरी बनाई दूरी बनाती आई बनाती रहेगी ।
आज आप बात करती हो स्त्रीवादी की स्त्रियों के दुःख की फेमनिज़्म की तुम्हारे वो मित्र तुम्हारा समर्थन करते है वो नकली समर्थन करते है ये आज भी अपने घर में स्त्री को घूँघट में रखना चाहते है वुरके में रखना चाहते है
जो पुरुष अपनी दिल की बात लिखें अपने अनुभव लिखें विरोध करें आपको बर्दाश्त नहीं होता है आपको वो पुरुष गलत लगता है आपको वो कुण्ठित लगता है मानसिक रोगी लगता है
कभी गौर किया अपने दिमाग़ में प्रश्न किया की क्यूँ कोई पुरुष स्त्री विरोधी होता है कोई पुरुष नहीं होना चाहता स्त्री विरोधी लेकिन उसको बनाया गया ऐसा कुछ स्त्रियों के गलत व्यवहार से झूठे आरोपों से झूठे छेड़खानी के आरोपों से झूठे दहेज़ के आरोपों से घरेलू हिंसा के झूठे आरोपों से प्यार का इजहार करने पर उसको प्यार से no ना बोलकर उसको अपनी खूबसूरती का अहंकार करके उसके साथ गलत व्यवहार किया गया
पर आप नहीं मानती हो की स्त्री कभी गलत होती है
पर पुरुष जरूर मानता है की कुछ पुरुष गलत होते है
ये ही अन्तर है पुरुष और स्त्री में
गलत कोई भी हो सकता है फिर पुरुष हो या स्त्री
अगर पुरषों ने स्त्रियों पर शोषण किया है तो पुरषों ने स्त्रियों के शोषण को भी मुक्त किया है
बाल विवाह विधवा विवाह ट्रिपल तलाक स्त्रियों को राजनीति हक काम का हक कानून कठोर सजा सती प्रथा ये सभी स्त्रियों ने ही नहीं किये है । इनमें पुरुषों का ज्यादा रोल रहा है।
हम उनके पास चंदा माँगने गए थे। चंदे के पुराने अभ्यासी का चेहरा बोलता है। वे हमें भाँप गए। हम भी उन्हें भाँप गए। चंदा माँगनेवाले और देनेवाले एक-दूसरे के शरीर की गंध बखूबी पहचानते हैं।
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लेनेवाला गंध से जान लेता है कि यह देगा या नहीं। देनेवाला भी माँगनेवाले के शरीर की गंध से समझ लेता है कि यह बिना लिए टल जाएगा या नहीं। हमें बैठते ही समझ में आ गया कि ये नहीं देंगे। वे भी शायद समझ गए कि ये टल जाएँगे। फिर भी हम दोनों पक्षों को अपना कर्तव्य तो निभाना ही था। हमने प्रार्थना की तो वे बोले - आपको चंदे की पड़ी है, हम तो टैक्सों के मारे मर रहे हैं। सोचा, यह टैक्स की बीमारी कैसी होती है। बीमारियाँ बहुत देखी हैं - निमोनिया, कालरा, कैंसर; जिनसे लोग मरते हैं। मगर यह टैक्स की कैसी बीमारी है जिससे वे मर रहे थे! वे पूरी तरह से स्वस्थ और प्रसन्न थे। तो क्या इस बीमारी में मजा आता है ? यह अच्छी लगती है जिससे बीमार तगड़ा हो जाता है। इस बीमारी से मरने में कैसा लगता होगा ?
अजीब रोग है यह। चिकित्सा-विज्ञान में इसका कोई इलाज नहीं है। बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखाइए और कहिए - यह आदमी टैक्स से मर रहा है। इसके प्राण बचा लीजिए। वह कहेगा - इसका हमारे पास कोई इलाज नहीं है। लेकिन इसके भी इलाज करनेवाले होते हैं, मगर वे एलोपैथी या होमियोपैथी पढ़े नहीं होते। इसकी चिकित्सा पद्धति अलग है। इस देश में कुछ लोग टैक्स की बीमारी से मरते हैं और काफी लोग भुखमरी से।
टैक्स की बीमारी की विशेषता यह है कि जिसे लग जाए वह कहता है - हाय, हम टैक्स से मर रहे हैं। और जिसे न लगे वह कहता है - हाय, हमें टैक्स की बीमारी ही नहीं लगती। कितने लोग हैं कि जिनकी महत्त्वाकांक्षा होती है कि टैक्स की बीमारी से मरें, पर मर जाते हैं निमोनिया से। हमें उन पर दया आई। सोचा, कहें कि प्रापर्टी समेत यह बीमारी हमें दे दीजिए। पर वे नहीं देते। यह कमबख्त बीमारी ही ऐसी है कि जिसे लग जाए, उसे प्यारी हो जाती है।
मुझे उनसे ईर्ष्या हुई। मैं उन जैसा ही बीमार होना चाहता हूँ। उनकी तरह ही मरना चाहता हूँ। कितना अच्छा होता अगर शोक-समाचार यों छपता - बड़ी प्रसन्नता की बात है कि हिंदी के व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई टैक्स की बीमारी से मर गए। वे हिंदी के प्रथम लेखक हैं जो इस बीमारी से मरे। इस घटना से समस्त हिंदी संसार गौरवान्वित है। आशा है आगे भी लेखक इसी बीमारी से मरेंगे ! मगर अपने भाग्य में यह कहाँ ? अपने भाग्य में तो टुच्ची बीमारियों से मरना लिखा है।
उनका दुख देखकर मैं सोचता हूँ, दुख भी कैसे-कैसे होते हैं। अपना-अपना दुख अलग होता है। उनका दुख था कि टैक्स मारे डाल रहे हैं। अपना दुख है कि प्रापर्टी नहीं है जिससे अपने को भी टैक्स से मरने का सौभाग्य प्राप्त हो। हम कुल 50 रु. चंदा न मिलने के दुख में मरे जा रहे थे।
मेरे पास एक आदमी आता था, जो दूसरों की बेईमानी की बीमारी से मरा जाता था। अपनी बेईमानी प्राणघातक नहीं होती, बल्कि संयम से साधी जाए तो स्वास्थ्यवर्द्धक होती है। कई पतिव्रताएँ दूसरी औरतों के कुलटापन की बीमारी से परेशान रहती हैं। वह आदर्श प्रेमी आदमी था। गांधीजी के नाम से चलनेवाले किसी प्रतिष्ठान में काम करता था। मेरे पास घंटो बैठता और बताता कि वहाँ कैसी बेईमानी चल रही है। कहता, युवावस्था में मैंने अपने को समर्पित कर दिया था। किस आशा से इस संस्था में गया और क्या देख रहा हूँ। मैंने कहा - भैया, युवावस्था में जिनने समर्पित कर दिया वे सब रो रहे हैं। फिर तुम आदर्श लेकर गए ही क्यों ? गांधीजी दुकान खोलने का आदेश तो मरते-मरते दे नहीं गए थे। मैं समझ गया, उसके कष्ट को। गांधीजी का नाम प्रतिष्ठान में जुड़ा होने के कारण वह बेईमानी नहीं कर पाता था और दूसरों की बेईमानी से बीमार था। अगर प्रतिष्ठान का नाम कुछ और हो जाता तो वह भी औरों जैसा करता और स्वस्थ रहता। मगर गांधीजी ने उसकी जिंदगी बरबाद की थी। गांधीजी विनोबा जैसों की जिंदगी बरबाद कर गए। बड़े-बड़े दुख हैं ! मैं बैठा हूँ। मेरे साथ 2-3 बंधु बैठे हैं। मैं दुखी हूँ। मेरा दुख यह है कि मुझे बिजली का 40 रु. का बिल जमा करना है और मेरे पास इतने रुपए नहीं हैं।
तभी एक बंधु अपना दुख बताने लगता है। उसने 8 कमरों का मकान बनाने की योजना बनाई थी। 6 कमरे बन चुके हैं। 2 के लिए पैसे की तंगी आ गई है। वह बहुत-बहुत दुखी है। वह अपने दुख का वर्णन करता है। मैं प्रभावित नहीं होता। मगर उसका दुख कितना विकट है कि मकान को 6 कमरों का नहीं रख सकता। मुझे उसके दुख से दुखी होना चाहिए, पर नहीं हो पाता। मेरे मन में बिजली के बिल के 40 रु. का खटका लगा है।
दूसरे बंधु पुस्तक-विक्रेता हैं। पिछले साल 50 हजार की किताबें पुस्तकालयों को बेची थीं। इस साल 40 हजार की बिकीं। कहते हैं - बड़ी मुश्किल है। सिर्फ 40 हजार की किताबें इस साल बिकीं। ऐसे में कैसे चलेगा ? वे चाहते हैं, मैं दुखी हो जाऊँ, पर मैं नहीं होता। इनके पास मैंने अपनी 100 किताबें रख दी थीं। वे बिक गईं। मगर जब मैं पैसे माँगता हूँ, तो वे ऐसे हँसने लगते हैं जैसे मैं हास्यरस पैदा कर रहा हूँ। बड़ी मुसीबत है व्यंग्यकार की। वह अपने पैसे माँगे, तो उसे भी व्यंग्य-विनोद में शामिल कर लिया जाता है। मैं उनके दुख से दुखी नहीं होता।
मेरे मन में बिजली कटने का खटका लगा हुआ है। तीसरे बंधु की रोटरी मशीन आ गई। अब मोनो मशीन आने में कठिनाई आ गई है। वे दुखी हैं। मैं फिर दुखी नहीं होता। अंतत: मुझे लगता है कि अपने बिजली के बिल को भूलकर मुझे इन सबके दुख में दुखी हो जाना चाहिए। मैं दुखी हो जाता हूँ। कहता हूँ - क्या ट्रेजडी है मनुष्य-जीवन की कि मकान कुल 6 कमरों का रह जाता है। और कैसी निर्दय यह दुनिया है कि सिर्फ 40 हजार की किताबें खरीदती है। कैसा बुरा वक्त आ गया है कि मोनो मशीन ही नहीं आ रही है।
वे तीनों प्रसन्न हैं कि मैं उनके दुःखों से आखिर दुखी हो ही गया। तरह-तरह के संघर्ष में तरह-तरह के दुख हैं। एक जीवित रहने का संघर्ष है और एक संपन्नता का संघर्ष है। एक न्यूनतम जीवन-स्तर न कर पाने का दुख है, एक पर्याप्त संपन्नता न होने का दुख है। ऐसे में कोई अपने टुच्चे दुखों को लेकर कैसे बैठे ? मेरे मन में फिर वही लालसा उठती है कि वे सज्जन प्रापर्टी समेत अपनी टैक्सों की बीमारी मुझे दे दें और मैं उससे मर जाऊँ। मगर वे मुझे यह चांस नहीं देंगे। न वे प्रापर्टी छोड़ेंगे, न बीमारी, और मुझे अंततः किसी ओछी बीमारी से ही मरना होगा।
पैदा होते ही इस देश में तथाकथित संस्कृति के नाम पर लड़कियों का शोषण और दोहन शुरू हो जाता है..अरे कुछ निम्न विचारधारा वाले तो अब भी कोख में ही बेटियों को मारने से बाज नहीं आते.
संस्कृति के नाम पर बंधुआ बनी महिला 100
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में से 90 परिवारों में मिल जायेगी..जो या तो खुद समाज के सामने घुटने टेक कर sacrifice कर जाती हैं या फिर जिनका समाज और संस्कृति के नाम पर दोहन बदस्तूर अब भी जारी है.
बेटियों को पराया धन किसने बोला कौन था वो मूर्ख.. जिसने ये कुत्सित विचारधारा को समाज पर थोंप गया? कन्यादान महादान कहने वाला निम्न स्तर का पशुप्रवृत्ति का मूर्ख प्राणी कौन था..?हम कोई निर्जीव वस्तु हैं जिसका दान करोगे बिना हमारी स्वेच्छा जाने. और उस जानवर का भी पता करो जिसने सारे एकाधिकार तथाकथित मर्दों को दे दिये और महिलाओं को मानसिक गुलाम बना कर हमेशा से बेडियों में जकडकर रखा? एक बेटी इस मानसिकता से आजाद हुई तो पर्वत चढ़ गयी..एक ने 22बलात्कारियों को एक लाइन में खड़ा करके गोलियों से छलनी कर अपनी अस्मिता का प्रतिशोध ले लिया, तो एक अंतरिक्ष पर पहुँच गयी, एक देश के लिये गोल्ड मेडल ले आयी,एक कोरोंना से लड़ने का भीलवाड़ा माडल रख दिया..हजारों उदाहरण हैं..कितने गिनवाऊँ. और कितना सबूत चाहिए तुम्हें महिला के साहस और प्रतिभा का ..जिसका दमन करने तरह तरह के जतन और शोषण करते हो. महिला बच्चा पैदा करने की मशीन भर नहीं है. महिला देश की हर संसाधनो की बराबर की हकदार है. जागो उठो बालिकाओं. ये समाज तुम्हें कभी बराबरी पर नहीं लाना चाहेगा..परदे से बाहर निकलकर देखो..ये दुनिया उतनी ही खूबसूरत दिखेगी जितनी तुम हो. हमारी खूबसूरती हमारे रंग रूप में नहीं होती.बहुत दुख होता है जब रंग की वजह से किसी बेटी का घर नहीं बस पाता..तरह तरह के ताने सुनना पड़ता है उसे. मानसिकता बदल लो पुरूषों.. स्री सम्मान और प्यार की भूखी है..ना कि तुम्हारे धन दौलत और तथाकथित वर्चस्व की. जाग जाओ..मेरी नारी शक्तियों. हक माँगना छोड़ो. हक के लिये लड़ने आगे आओ. अधिकार माँगे नहीं जाते. मर्दवादी समाज के एकाधिकार को खत्म करना है तो खुद से अपने अधिकारों पर अधिकार रखना शुरू कर दो.. हज़ारों सालों से महिलाएं मंदिर जा रही है क्या मिला उन्हें बदले में ? सती प्रथा, विधवा आश्रम, बाल विवाह, छोटी उम्र में विवाह अब और नहीं ?? महिला शक्ति को नमन #Happy Mother's Day❤
Hindi Kahani- हिंदी कहानी Gareeb Ki Haay Munshi Premchand
गरीब की हाय- मुंशी प्रेम चंद
मुंशी रामसेवक भौंहे चढ़ाए हुए घर से निकले और बोले- ‘इस जीने से तो मरना भला है।’ मृत्यु को प्रायः इस तरह के जितने निमंत्रण दिये जाते हैं, यदि वह सबको स्वीकार करती,
...
तो आज सारा संसार उजाड़ दिखाई देता। मुंशी रामसेवक चांदपुर गाँव के एक बड़े रईस थे। रईसों के सभी गुण इनमें भरपूर थे। मानव चरित्र की दुर्बलताएँ उनके जीवन का आधार थीं। वह नित्य मुन्सिफी कचहरी के हाते में एक नीम के पेड़ के नीचे कागजों का बस्ता खोल एक टूटी-सी चौकी पर बैठे दिखाई देते थे। किसी ने कभी उन्हें किसी इजलास पर कानूनी बहस या मुकदमे की पैरवी करते नहीं देखा। परंतु उन्हें सब लोग मुख्तार साहब कहकर पुरकारते थे। चाहे तूफान आये, पानी बरसे, ओले गिरें पर मुख्तार साहब वहां से टस से मस न होते। जब वह कचहरी चलते तो देहातियों के झुण्ड-के-झुण्ड उनके साथ हो लेते। चारों ओर से उन पर विश्वास और आदर की दृष्टि पड़ती। सबमें प्रसिद्ध था कि उनकी जीभ पर सरस्वती विराजती हैं। इसे वकालत कहो या मुख्तारी, परन्तु यह केवल कुल-मर्यादा की प्रतिष्ठा का पालन था। आमदनी अधिक न होती थी। चाँदी के सिक्कों की तो चर्चा ही क्या, कभी-कभी ताँबे के सिक्के भी निर्भय उनके पास आने से हिचकते थे।
मुंशीजी की कानूनदानी में कोई संदेह न था। परन्तु ‘पास’ के बखेड़े ने उन्हें विवश कर दिया था। खैर, जो हो, उनका यह पेशा केवल प्रतिष्ठा-पालन के निमित्त था; नहीं तो उनके निर्वाह का मुख्य साधन आस-पास की अनाथ, पर खाने-पीने में सुखी विधवाओं और भोले-भाले किन्तु धनी वृद्धों की श्रद्धा थी। विधवाएँ अपना रुपया उनके यहां अमानत रखतीं। बूढ़े अपने कपूतों के डर से अपना धन उन्हें सौंप देते। पर रुपया एक बार उनकी मुठ्ठी में जाकर फिर निकलना भूल जाता था। वह जरूरत पड़ने पर कभी-कभी कर्ज ले लेते थे। भला, बिना कर्ज लिए किसी का काम चल सकता है ? भोर को सांझ के करार पर रुपया लेते, पर वह साँझ कभी नहीं आती थी। सारांश मुंशीजी कर्ज लेकर देना सीखे नहीं थे। यह उनकी कुल-प्रथा थी। यही सब मामले बहुधा मुंशी जी के सुख-चैन में विघ्न डालते थे। कानून और अदालत से तो उन्हें कोई डर न था। इस मैदान में उसका सामना करना पानी में मगर से लड़ना था। परन्तु जब कोई दुष्ट उनसे भिड़ जाता, उनकी ईमानदारी पर संदेह करता और उनके मुँह पर बुरा-भला कहने पर उतारू हो जाता, तब मुंशीजी के हृदय पर बड़ी चोट लगती। इस प्रकार की दुर्घटनाएँ प्रायः होती थीं। हर जगह ऐसे ओछे लोग रहते हैं, जिन्हें दूसरों को नीचा दिखाने में ही आनंद आता है। ऐसे लोगों का सहारा पाकर कभी-कभी छोटे आदमी मुंशीजी के मुँह लग जाते थे। नहीं तो, एक कुँजड़िन की इतनी मजाल नहीं थी कि आँगन में जाकर उन्हें बुरा-भला कहे। मुंशीजी उसके पुराने गाहक थे; बरसों तक उससे साग-भाजी ली थी। यदि दाम न दिया जाय, तो कुँजड़िन को सन्तोष करना चाहिए था। दाम जल्दी या देर से मिल ही जाते। परन्तु वह मुँहफट कुँजड़िन दो ही बरसों में घबरा गई, और उसने कुछ आने पैसों के लिए एक प्रतिष्ठित आदमी का पानी उतार लिया। झुँझलाकर मुंशीजी अपने को मृत्यु का कलेवा बनाने पर उतारू हो गए, तो इसमें उनका कुछ दोष न था।
इसी गाँव में मूँगा नाम की एक विधवा ब्राह्मणी रहती थी। उसका पति ब्रह्मा की काली पलटन में हवलदार था और लड़ाई में वहीं मारा गया। सरकार की ओर से उसके अच्छे कामों के बदले मूँगा को पाँच सौ रुपये मिले थे। विधवा स्त्री, जमाना नाजुक था, बेचारी ने सब रुपये मुंशी रामसेवक को सौंप दिए, और महीने-महीने थोड़ा-थोड़ा उसमें से माँगकर अपना निर्वाह करती रही। मुंशीजी ने यह कर्तव्य कई वर्ष तक तो बड़ी ईमानदारी के साथ पूरा किया पर जब बूढ़ होने पर भी मूँगा नहीं मरी और मुंशी जी को यह चिंता हुई कि शायद उसमें से आधी रकम भी स्वर्ग-यात्रा के लिए नहीं छोड़ना चाहती, तो एक दिन उन्होंने कहा—मूँगा! तुम्हें मरना है या नहीं ? साफ-साफ कह दो कि मैं अपने मरने की फिक्र करूं ? उस दिन मूँगा की आँखे खुलीं, उसकी नींद टूटी, बोली—मेरा हिसाब कर दो। हिसाब का चिट्ठा तैयार था। ‘अमानत’ में अब एक कौड़ी बाकी न थी। मूँगा ने बड़ी कड़ाई से मुंशीजी का हाथ पकड़ कर कहा—अभी मेरे ढाई सौ रुपये तुमने दबा रखे हैं। मैं एक कौड़ी भी न छोड़ूंगी। परन्तु अनाथों का क्रोध पटाखे की आवाज है, जिससे बच्चे डर जाते हैं और असर कुछ नहीं होता। अदालत में उसका कुछ जोर न था। न लिखा-पढ़ी थी, न हिसाब-किताब। हाँ, पंचायत से कुछ आसरा था। पंचायत बैठी, कई गाँव के लोग इकट्ठे हुए। मुंशीजी नीयत और मामले के साफ थे, उन्हें पंचों का क्या डर ! सभा में खड़े होकर पंचों से कहा— ‘भाइयों! आप लोग सत्यनारायण और कुलीन हैं। मैं आप सब साहबों का दास हूँ। आप सब साहबों की उदारता और कृपा से, दया और प्रेम से मेरा रोम-रोम कृतज्ञ है और आप लोग सोचते हैं कि इस अनाथिनी और विधवा स्त्री के रुपये हड़प कर गया हूं?’ पंचों ने एक स्वर से कहा—नहीं, नहीं ! आपसे ऐसा नहीं हो सकता। रामसेवक—यदि आप सब सज्जनों का विचार हो कि मैंने रुपये दबा लिये, तो मेरे लिए डूब मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं। मैं धनाढ्य नहीं हूँ, न मुझे उदार होने का घमंड है, पर अपनी कलम की कृपा से, आप लोगों की कृपा से किसी का मोहताज नहीं हूँ क्या मैं ऐसा ओछा हो जाऊँगा कि एक अनाथिनी के रुपये पचा लूँ ? पंचों ने एक स्वर से फिर कहा—नहीं, नहीं ! आपसे ऐसा नहीं हो सकता। मुँह देखकर टीका काढ़ा जाता है। पंचों ने मुंशीजी को छोड़ दिया। पंचायत उठ गई। मूँगा ने आह भरकर संतोष किया और मन में कहा—अच्छा, अच्छा ! यहा न मिला तो न सही, वहाँ कहाँ जायेगा?
अब कोई मूँगा का दुःख सुननेवाला और सहायक न था। दरिद्रता से जो कुछ दुःख भोगने पड़ते हैं, वह सब उसे झेलने पड़े। वह शरीर से पुष्ट थी, चाहती तो परिश्रम कर सकती थी; पर जिस दिन पंचायत पूरी हुई, उसी दिन उसने काम न करने की कसम खा ली। अब उसे रात-दिन रुपयों की रट लगी रहती। उठते-बैठते, सोते-जागते, उसे केवल एक काम था और वह मुंशी रामसेवक का भला मनाना। अपने झोपड़े के दरवाजे पर बैठी हुई वह रात-दिन उन्हें सच्चे मन से असीसा करती। बहुधा अपने असीस के वाक्यों में ऐसे कविता के वाक्य और उपमाओं का व्यवहार करती कि लोग सुनकर अचम्भे में आ जाते। धीरे-धीरे मूँगा पगली हो चली। नंगे-सिर, नंगे शरीर, हाथ में एक कुल्हाड़ी लिये हुए सुनसान स्थानों में जा बैठती। झोपड़ी के बदले अब वह मरघट पर, नदी के किनारे खंडहरों में घूमती दिखाई देती। बिखरी हुई लटें, लाल-लाल आँखें, पागलों-सा चेहरा, सूखे हुए हाथ-पाँव। उसका यह स्वरूप देखकर लोग डर जाते थे। अब कोई उसे हँसी में भी नहीं छेड़ता। यदि वह कभी गाँव में निकल आती, तो स्त्रियाँ घरों के किवाड़ बंद कर लेतीं। पुरुष कतराकर इधर-उधर से निकल जाते और बच्चे चीख मारकर भागते। यदि कोई लड़का भागता न था, तो वह मुंशी रामसेवक का सुपुत्र रामगुलाम था। बाप में जो कुछ कोर-कसर रह गई थी, वह बेटे में पूरी हो गई थी ! लड़कों का उसके मारे नाक में दम था। गाँव के काने लँगड़े आदमी उसकी सूरत से चिढ़ते थे और गालियाँ खाने में तो शायद ससुराल में आनेवाले दमाद को भी इतना आनंद न आता हो ! वह मूँगा के पीछे तालियाँ बजाता, कुत्तों को साथ लिए हुए उस समय तक रहता, जब तक वह बेचारी तंग आकर गाँव से निकल न जाती। रुपया-पैसा, होश-हवास खोकर उसे पगली की पदवी मिली और अब वह सचमुच पगली थी। अकेली बैठी अपने-आप घण्टों बातें किया करती जिसमें रामसेवक के मांस, हड्डी, चमड़े, आँखें, कलेजा आदि को खाने, मसलने, नोचने, खसोटने की बड़ी उत्कट इच्छा प्रकट की जाती थी और जब उसकी यह इच्छा सीमा तक पहुंच जाती, तो वह रामसेवक के घर की ओर मुँह करके खूब चिल्लाकर और डरावने शब्दों में हाँक लगाती, तेरा लोहू पीऊँगी।
प्रायः रात के सन्नाटे में यह गरजती हुई आवाज सुनकर स्त्रियाँ चौंक पड़ती थीं। परन्तु इस आवाज से भयानक उसका ठठाकर हँसना था ! मुंशीजी के लहू पीने की कल्पित खुशी में वह जोर से हँसा करती थी। इस, ठठाने से ऐसी आसुरिक उद्दण्डता, ऐसी पाशविक उग्रता टपकती थी कि रात को सुनकर लोगों का खून ठंडा हो जाता था। मालूम होता, मानो, सैकड़ों उल्लू एक साथ हँस रहे हैं। मुंशी रामसेवक बड़े हौसले और कलेजे के आदमी थे। न उन्हें दीवानी का डर था न फौजदारी का। परंतु मूंगा के इन डरावने शब्दों को सुनकर वह भी सहम जाते। हमें मनुष्य के न्याय का डर न हो, परंतु ईश्वर के न्याय का डर प्रत्येक मनुष्य के मन में कभी-कभी ऐसी ही भावना उत्पन्न कर देता—उनसे अधिक उनकी स्त्री के मन में। उनकी स्त्री बड़ी ही चतुर थी। वह उनको इन सब बातों में प्रायः सलाह दिया करती थी। उन लोगों की भूल थी, जो लोग कहते थे कि मुंशीजी की जीभ पर सरस्वती विराजती हैं। वह गुण तो उनकी स्त्री को प्राप्त था। बोलने में वह उतनी ही तेज थी, जितना मुंशीजी लिखने में थे और यह दोनों स्त्री-पुरुष प्रायः अपनी अवश दशा में सलाह करते कि अब क्या करना चाहिए?
आधी रात का समय था। मुंशीजी नित्य नियम के अनुसार अपनी चिंता दूर करने के लिए शराब के दो-चार घूँट पीकर सो गए थे। यकायक मूँगा ने उनके दरवाजे पर आकर जोर से हाँक लगायी, ‘तेरा लहू पीऊँगी’ और खूब खिलखिलाकर हँसी। मुंशीजी यह भयावह ठहाका सुनकर चौंक पड़े। डर के मारे पैर थर-थर काँपने लगे। कलेजा धक-धक करने लगा दिल पर बहुत जोर डाल कर उन्होंने दरवाजा खोला, जाकर नागिन को जगाया। नागिन ने झुँझलाकर कहा—क्या है; क्या कहते हो ? मुंशीजी ने दबी आवाज से कहा—वह दरवाजे पर खड़ी है। नागिन उठ बैठी—क्या कहती है ? ‘तुम्हारा सिर।’ ‘क्या दरवाजे पर आ गई ?’ ‘हाँ, आवाज नहीं सुनती हो।’ नागिन मूँगा से नहीं, परन्तु उसके ध्यान से बहुत डरती थी, तो भी उसे विश्वास था कि मैं बोलने में उसे जरूर नीचा दिखा सकती हूँ। सँभलकर बोली—कहो तो मैं उससे दो-दो बातें कर लूं ? परंतु मुंशीजी ने मना किया। दोनों आदमी पैर दबाए ड्योढ़ी में गये और दरवाजे से झाँककर देखा मूँगा की धुँधली मूरत धरती पर पड़ी थी और उसकी साँस तेजी से चलती हुई सुनाई देती थी। रामसेवक के लहू मांस की भूख में वह अपना लहू और मांस सुखा चुकी थी। एक बच्चा भी उसे गिरा सकता था। परंतु उससे सारा गाँव थर-थर काँपता था। हम जीते मनुष्य से नहीं डरते, पर मुर्दे से डरते हैं। रात गुजरी। दरवाजा बंद था, पर मुंशीजी और नागिन ने बैठकर रात काटी, मूँगा भीतर नहीं घुस सकती थी, पर उसकी आवाज को कौन रोक सकता था मूंगा से अधिक डरावनी उसकी आवाज थी। भोर को मुंशीजी बाहर निकले और मूँगा से बोले—यहाँ क्यों पड़ी है ? मूँगा बोली— तेरा लहू पीऊँगी। नागिन ने बल खाकर कहा—तेरा मुँह झुलस दूंगी। पर नागिन के विष ने मूँगा पर कुछ असर न किया। उसने जोर से ठहाका लगाया, नागिन खिसियानी-सी हो गई। हंसी के सामने मुँह बंद हो जाता है। मुंशीजी फिर बोले— यहां से उठ जा। ‘न उठूँगी।’ ‘कब तक पड़ी रहेगी ?’ ‘तेरा लहू पीकर जाऊंगी।’ मुंशीजी की प्रखर लेखनी का यहाँ कुछ जोर न चला और नागिन की आग-भरी बातें यहाँ सर्द हो गईं। दोनों घर में जाकर सलाह करने लगे, यह बला कैसे टलेगी ? इस आपत्ति से कैसे छुटकारा होगा ?
देवी आती है तो बकरे का खून पीकर चली जाती है, पर यह डाइन मनुष्य का खून पीने आयी है। वह खून, जिसका अगर एक बूँद भी कलम बनाने के समय निकल पड़ती थी, तो अठवारों और महीनों सारे कुनबे को अफसोस रहता और यह घटना गाँव में घर-घर फैल जाती। क्या वही लहू पीकर मूँगा का सूखा शरीर हरा हो जाएगा ? गाँव में यह चर्चा फैल गई, मूँगा मुंशीजी के दरवाजे पर धरना दिये बैठी है। मुंशीजी के आगमन में गाँववालों को बड़ा मजा आता था। देखते-देखते सैकड़ों आदमियों की भीड़ लग गई। इस दरवाजे पर कभी-कभी भीड़ लगी रहती थी। यह भीड़ रामगुलाम को पसंद न थी। मूँगा पर उसे ऐसा क्रोध आ रहा था कि यदि उसका वश चलता, तो वह इसे कुएँ में ढकेल देता। इस तरह का विचार उठते ही रामगुलाम के मन में गुदगुदी समा गई और वह बड़ी कठिनता से अपनी हँसी रोक सका। अहा ! वह कुएँ में गिरती तो क्या मजे की बात होती ! परन्तु यह चुड़ैल यहाँ से टलती ही नहीं क्या करूं ? मुंशीजी के घर में एक गाय थी, जिसे खाली, दाना और भूसा तो खूब खिलाया जाता, पर वह सब उसकी हड्डियों में मिल जाता, उसका ढांचा पुष्ट होता जाता था। रामगुलाम ने उसी गाय का गोबर एक हाँड़ी में घोला और सबका-सब बेचारी मूँगा पर उँड़ेल दिया। उसके थोड़े-बहुत छींटे दर्शकों पर भी डाल दिये। बेचारी मूँगा लदफद हो गई और लोग भाग खड़े हुए। कहने लगे, यह मुंशी रामगुलाम का दरवाजा है। यहाँ इसी प्रकार का शिष्टाचार किया जाता है। जल्द भाग चलो, नहीं तो अब इससे भी बढ़ कर खातिर की जायगी। इधर भीड़ कम हुई, उधर रामगुलाम घर में जाकर खूब हँसा और खूब तालियाँ बजायीं। मुंशीजी ने व्यर्थ की भीड़ को ऐसे सहज में और ऐसे सुन्दर रूप से हटा देने के उपाय पर अपने सुशील लड़के की पीठ ठोकी। सब लोग तो चम्पत हो गए, पर बेचारी मूँगा ज्यों-की-त्यों बैठी रह गई।
दोपहर हुई। मूँगा ने कुछ नहीं खाया। साँझ हुई। हजार कहने-सुने से भी खाना नहीं खाया। गाँव के चौधरी ने बड़ी खुशामद की। यहाँ तक कि मुंशीजी ने हाथ तक जोड़े, पर देवी प्रसन्न न हुई। निदान मुंशीजी उठकर भीतर चले गए। वह कहते थे कि रूठने वाले को भूख आप ही मना लिया करती है। मूँगा ने यह रात भी बिना दाना-पानी के काट दी। लालाजी और ललाइन ने आज फिर जाग-जागकर भोर किया। आज मूँगा की गरज और हँसी बहुत कम सुनाई पड़ती थी। घरवालों ने समझा, बला टली, सबेरा होते ही जो दरवाजा खोलकर देखा, तो वह अचेत पड़ी थी, मुंह पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं और उसके प्राण-पखेरू उड़ चुके हैं। वह इस दरवाजे पर मरने ही आयी थी। जिसने उसके जीवन की जमा-पूंजी हर ली थी, उसी को अपनी जान भी सौंप दी। अपने शरीर की मिट्टी तक उसको भेंट कर दी। धन से मनुष्य को कितना प्रेम होता है ! धन अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा होता है, विशेषकर बुढ़ापे में। ऋण चुकाने के दिन ज्यों-ज्यों पास आते जाते हैं, त्यों-त्यों उसका ब्याज बढ़ता जाता है।
यह कहना यहाँ व्यर्थ है कि गांव में इस घटना से कैसी हलचल मची और मुंशी रामसेवक कैसे अपमानित हुए। एक छोटे-से गाँव में ऐसी असाधारण घटना होने पर जितनी हलचल हो सकती, उससे अधिक ही हुई। मुंशीजी का अपमान जितना होना चाहिए था, उससे बाल बराबर भी कम न हुआ। उनका बचा-खुचा पानी भी इस घटना से चला गया। अब गाँव का चमार भी उनके हाथ का पानी पीने का, उन्हें छूने का रवादार न था। यदि किसी घर से कोई गाय खूँटे पर मर जाती है, तो वह आदमी महीनों द्वार-द्वार भी माँगता फिरता है। न नाई उसकी हजामत बनावे, न कहार उसका पानी भरे, न कोई उसे छुए। यह गोहत्या का प्रयाश्चित था। ब्रह्महत्या का दंड तो इससे भी कड़ा है और इसमें अपमान भी बहुत है। मूंगा यह जानती थी और इसीलिए इस दरवाजे पर आकर मरी थी। वह जानती थी मैं जीते-जी तो कुछ नहीं कर सकती, मरकर उससे बहुत कुछ कर सकती हूँ। गोबर का उपला जब जल कर खाक हो जाता है,, तब साधु-संत उसे माथे पर चढ़ाते हैं; पत्थर का ढेला आग में जलाकर आग से अधिक तीखा और मारक होता है।
मुंशी रामसेवक कानूनदाँ थे। कानून ने उन पर कोई दोष नहीं लगाया था। मूँगा किसी कानूनी दफा के अनुसार नहीं मरी थी। ताजीरात हिन्द में उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता था। इसलिए जो लोग उनसे प्रायश्चित करवाना चाहते थे, उनकी भारी भूल थी। कुछ हर्ज नहीं, कहार पानी न भरे, न सही। वह पानी भर लेंगे। अपना काम आप करने में भला लाज ही क्या ? बला से नाई बाल न बनावेगा। हजामत बनाने का काम ही क्या है ? दाढ़ी बहुत सुन्दर वस्तु है। दाढ़ी मर्द की शोभा और सिंगार है और जो फिर बालों से ऐसी घिन होगी, तो एक-एक आने में तो अस्तुरे मिलते हैं। धोबी कपड़े न धोएगा, इसकी भी कुछ परवाह नहीं। साबुन तो गली-गली कौड़ियों के मोल आता है। एक बट्टी साबुन में दर्जनों कपड़े ऐसे साफ हो जाते हैं, जैसे बगुले के पर। धोबी क्या खाकर ऐसा साफ कपड़ा धोएगा ? पत्थर पर पटक-पटकर कपड़ों का लत्ता निकाल लेता है। आप पहने, दूसरों को भाड़े पर पहनाए, भट्टी में चढ़ाए, रेह में भिगोए ! कपड़ों की तो दुर्गति कर डालता है। जभी तो कुर्ते दो-तीन साल से अधिक नहीं चलते। नहीं तो दादा हर पाँचवें बरस दो-तीन अचकन और दो कुरते बनवाया करते थे। मुंशी रामसेवक और उनकी स्त्री ने दिन-भर तो यों ही कहकर अपने मन को समझाया। साँझ होते ही उनकी तर्कनाएं शिथिल हो गईं।
अब उनके मन पर भय ने चढ़ाई की। जैसे-तैसे रात बीतती थी, भय भी बढ़ता जाता था। बाहर का दरवाजा भूल से खुला रह गया था, पर किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि जाकर बन्द तो कर आये। निदान नागिन ने हाथ में दीया लिया। मुंशीजी ने कुल्हाड़ा, रामगुलाम ने गँड़ासा, इस ढंग से तीनों आदमी चौंकते-हिचकते दरवाजे पर आये। यहाँ मुंशीजी ने बहादुरी से काम लिया। उन्होंने निधड़क दरवाजे से बाहर निकलने की कोशिश की। काँपते हुए, पर ऊँची आवाज में नागिन से बोले—तुम व्यर्थ डरती हो, वह क्या यहाँ बैठी है ? पर उनकी प्यारी नागिन ने उन्हें अंदर खींच लिया और झुँझलाकर बोली—तुम्हारा यही लड़कपन तो अच्छा नहीं। यह दंगल जीतकर तीनों आदमी रसोई के कमरे में आये और खाना पकने लगा। परन्तु मूँगा उनकी आँखों में घुसी हुई थी। अपनी परछाई को देखकर मूँगा का भय होता था। अँधेरे कोने में मूँगा बैठी मालूम होती थी। वही हड्डियों का ढाँचा, वही बिखरे हुए बाल, वही पागलपन, वही डरावनी आँख, मूँगा का नखशिख दिखाई देता था। इसी कोठरी में आटे दाल के कई मटके रखे हुए थे, वहां कुछ पुराने चिथड़े भी पड़े हुए थे। एक चूहे को भूख ने बेचैन किया (मटकों ने कभी अनाज की सूरत न देखी थी; पर सारे गांव में मशहूर था कि इस घर के चूहे गजब के डाकू हैं), तो वह उन दानों की खोज में, जो मटकों से कभी नहीं गिरे थे, रेंगता हुआ इस चिथड़े के नीचे आ निकला। कपड़े में खड़खड़ाहट हुई। फैले हुए चिथड़े मूँगा की पतली टाँगे बन गईं, नागिन देखकर झिझकी और चीक उठी। मुंशीजी बदहवास होकर दरवाजे की ओर लपके, रामगुलाम दौड़कर उनकी टाँगे से लिपट गया। चूहा बाहर निकल आया। उसे देखकर इन लोगों के होश ठिकाने हुए। अब मुंशीजी साहस करके मटके की ओर चले। नागिन ने कहा—रहने भी दो, देख ली तुम्हारी मरदानगी। मुंशीजी अपनी प्रिया नागिन के इस अनादर पर बहुत बिगड़े—क्या तुम समझती हो, मैं डर गया ? भला, डर की क्या बात थी ! मूँगा मर गयी; क्या वह बैठी है ? मैं कल नहीं दरवाजे के बाहर निकल गया था। तुम रोकती रहीं मैं न माना। मुंशीजी की इस दलील ने नागिन को निरुत्तर कर दिया। कल दरवाजे के बाहर निकल जाना या निकलने की कोशिश करना साधारण काम न था। जिसके साहस का ऐसा प्रमाण मिल चुका हो, उसे डरपोक कौन कह सकता है ? यह नागिन की हठधर्मी थी। खाना खाकर तीनों आदमी सोने के कमरे में आये। परन्तु मूँगा ने यहाँ भी पीछा न छोड़ा। बातें करते थे, दिल को बहलाते थे, नागिन ने राजा हरदौल और रानी सारंधा की कहानियाँ कहीं, मुंशीजी ने फौजदारी के कई मुकदमों का हाल कह सुनाया। परन्तु तो भी, इन उपायों से भी मूँगा की मूर्ति उनकी आँखों के सामने से न हटती थी। जरा खटखटाहट होती तब तीनों चौंक पड़ते। उधर पत्तियों में सनसनाहट हुई कि इधर तीनों के रोंगटे खड़े हो गए। रह-हकर एक धीमी आवाज धरती के भीतर से उनके कानों में आती थी—‘तेरा लहू पीऊँगी’।
आधी रात को नागिन नींद से चौंक पड़ी। वह इन दिनों गर्भवती थी लाल-लाल आँखोंवाली, तेज और नुकीले दाँतोंवाली मूँगा उसी की छाती पर बैठी हुई जान पड़ती थी। नागिन चीख उठी। बावली की तरह आँगन में भाग आयी और यकायक धरती पर चित्त गिर पड़ी। सारा शरीर पसीने-पसीने हो गया। मुंशीजी भी उसकी चीख सुनकर चौंके, पर डर के मारे आँखें न खुलीं। अंधों की तरह दरवाजा टटोलते रहे। बहुत देर के बाद उन्हें दरवाजा मिला। आँगन में आये नागिन जमीन पर पड़ी हाथ-पाँव पटक रही थी। उसे उठाकर भीतर लाये, पर रात-भर उसने आँखें न खोलीं। भोर को अकबक बकने लगी। थोड़ी देर में ज्वर हो आया। बदन लाल तवा-सा हो गया। साँज होते-होते सन्निपात हो आया और आधी रात के समय जब संसार में सन्नाटा छाया हुआ था, नागिन इस संसार से चल बसी। मूंगा के डर ने उसकी जान ली जब तक मूँगा जीती रही, वह नागिन की फुफकार से सदा डरती रही। पगली होने पर भी उसने कभी नागिन का सामना नहीं किया, पर अपनी जान देकर उसने आज नागिन की जान ली भय में बड़ी शक्ति है। मनुष्य हवा में एक गिरह भी नहीं लगा सकता, पर इसने हवा में एक संसार रच डाला है। रात बीत गयी। दिन चढ़ता आता था, पर गाँव का कोई आदमी नागिन की लाश उठाने को आता न दिखाई दिया। मुंशीजी घर-घर घूमे पर कोई न निकला। भला, हत्यारे के दरवाजे पर कौन जाए ? हत्यारे की लाश कौन उठाए ? इस समय मुंशीजी का रोबदाब, उनकी प्रबल लेखनी का भय और उनकी कानूनी प्रतिभा एक भी काम न आयी। चारों ओर से हारकर मुंशीजी फिर अपने घर आये। यहाँ उन्हें अंधकार-ही-अंधकार दीखता था, दरवाजे तक तो आये, पर भीतर पैर नहीं रखा जाता था। न बाहर ही खड़े रह सकते थे। बाहर मूंगा थी, भीतर नागिन। जी को कड़ा करके ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करते हुए घर में घुसे। उस समय उनके मन पर जो बीतती थी, वही जानते थे। उनका अनुमान करना कठिन है। घर में लाश पड़ी हुई; न कोई आगे, न पीछे। दूसरा ब्याह तो हो सकता था। अभी इसी फागुन में तो पचासवाँ लगा है। पर ऐसी सुयोग्य और मीठी बोलीवाली स्त्री कहाँ मिलेगी ? अफसोस ! अब तगादा करने वालों से बहस कौन करेगा, कौन उन्हें निरुत्तर करेगा? लेन-देन का हिसाब-किताब कौन इतनी खूबी से करेगा ? किसकी कड़ी आवाज तीर की तरह तगादेदारों की छाती में चुभेगी ? यह नुकसान अब पूरा नहीं हो सकता। दूसरे दिन मुंशीजी लाश को एक ठेलेगाड़ी पर लादकर गंगाजी की तरफ चले।
शव के साथ जाने वालों की संख्या कुछ भी न थी। एक स्वयं मुंशीजी, दूसरे उनके पुत्ररत्न रामगुलामजी ! इस बेइज्जती से मूँगा की लाश भी नहीं उठी थी। मूँगा ने नागिन की जान लेकर भी मुंशीजी का पिंड न छोड़ा। उनके मन में हर घडी मूंगा की मूर्ति विराजमान रहती थी। कहीं रहते, उनका ध्यान इसी ओर रहा करता था। यदि दिल-बहलाव का कोई उपाय होता, तो शायद वह इतने बेचैन न होते; पर गाँव का एक पुतली भी उनके दरवाजे की ओर न झाँकता था। बेचारे अपने हाथों पानी भरते, आप ही बरतन धोते। सोच और क्रोध, चिंता और भय, इतने शत्रुओं के सामने एक दिमाग कब तक ठहर सकता ? विशेषकर वह दिमाग, जो रोज,-रोज कानून की बहसों में खर्च हो जाता था। अकेले कैदी की तरह उनके दस-बारह दिन तो ज्यों-त्यों कर कटे। चौदहवें दिन मुंशीजी ने कपड़े बदले और बोरिया-बस्ता लिये हुए कचहरी चले। आज उनका चेहरा कुछ खिला हुआ था। जाते ही मेरे मुवक्किल मुझे घेर लेंगे। मेरी मातमपुर्सी करेंगे। मैं आँसुओं की दो-चार बूँदें गिरा दूंगा। फिर बैनामों, रेहनामों और सुलहनामों की भरमार हो जाएगी। मुट्ठी गरम होगी। शाम को जरा नशेपानी का रंग जम जाएगा, जिसके छूट जाने से जी और भी उचाट हो रहा था। इन्हीं विचारों में मग्न मुंशीजी कचहरी पहुँचे।
पर वहां रेहनामों की भरमार और बैनामों की बाढ़ और मुवक्किलों की चहल-पहल के बदले निराशा की रेतीली भूमि नजर आयी। बस्ता खोले घंटो बैठे रहे, पर कोई नजदीक भी न आया। किसी ने इतना भी न पूछा कि आप कैसे हैं ? नए मुवक्किल तो खैर, बड़े-बड़े पुराने मुवक्किल, जिनका मुंशीजी से कई पीढ़ियों से सरोकार था, आज उनसे मुँह छिपाने लगे। वह नालायक और अनाड़ी रमजान, जिसकी मुंशीजी हँसी उड़ाते थे और जिसे शुद्ध लिखना भी न आता था, गोपियों में कन्हैया बना हुआ था। वाह रे भाग्य ! मुवक्किल यों मुँह फेरे चले जाते हैं, मानो कभी की जान-पहचान ही नहीं। दिन-भर कचहरी की खाक छानने के बाद मुंशीजी अपने घर चले। निराशा और चिन्ता में डूबे हुए ज्यों-ज्यों घर के निकट आते थे, मूँगा का चित्र सामने आता जाता था। यहाँ तक कि जब घर का द्वार खोला और दो कुत्ते, जिन्हें रामगुलाम ने बन्द कर रखा था, झटपट बाहर निकले, तो मुंशीजी के होश उड़ गए; एक चीख मारकर जमीन पर गिर पड़े।
मनुष्य के मन और मस्तिष्क पर भय का जितना प्रभाव होता है, उतना और किसी शक्ति का नहीं ! प्रेम, चिन्ता, निराशा, हानि यह सब मन को अवश्य दुखित करते हैं; यह हवा के हलके झोंके हैं और भय प्रचंड आँधी है। मुंशीजी पर इसके बाद क्या बीती, मालूम नहीं। कई दिन तक लोगों ने उन्हें कचहरी जाते और वहाँ से मुरझाए हुए लौटते देखा। कचहरी जाना उनका कर्तव्य था और यद्यपि वहाँ मुवक्किलों का अकाल था, तो भी तगादेवालों से गला छुड़ाने और उनको भरोसा दिलाने के लिए अब यही एक लटका रह गया था। इसके बाद वह कई महीने तक दीख न पड़े। बद्रीनाथ चले गये। एक दिन गाँव में एक साधु आया, भभूत रमाए, लम्बी-लम्बी जटाएँ, हाथ में कमण्डल। इसका चेहरा मुंशी रामसेवक से बहुत मिलता-जुलता था। बोलचाल भी अधिक भेद न था। वह एक पेड़ के नीचे धूनी रमाए बैठा रहा। उसी रात को मुंशी रामसेवक के घर धुआँ उठा, फिर आग की ज्वाला दीखने लगी और आग भड़क उठी। गांव के सैकड़ों आदमी दौड़े, आग बुझाने के लिए नहीं, तमाशा देखने के लिए। एक गरीब की हाय में कितना प्रभाव है ! रामगुलाम मुंशीजी के गायब हो जाने पर अपने मामा के यहाँ चल गया और वहाँ कुछ दिनों रहा, पर वहाँ उसकी चाल-ढाल किसी को पसंद न आयी। एक दिन उसने किसी के खेत में मूली नोची। उसने दो-चार धौल लगाए। उस पर वह इस तरह बिगड़ा कि जब उसके चने खलिहान में आये, तो उसने आग लगा दी। सारा-का-सारा खलिहान जलकर खाक हो गया। हजारों रुपयों का नुकसान हुआ। पुलिस ने तहकीकातकी, रामगुलाम पकड़ा गया। इसी अपराध में वह चुनार के रिफार्मेटरी स्कूल में मौजूद है ।
Hindi Kahani - हिंदी कहानी Ishwariya Nyaya - Munshi Premchand ईश्वरीय न्याय - मुंशी प्रेम चंद
1 कानपुर जिले में पंडित भृगुदत्त नामक एक बड़े जमींदार थे। मुंशी सत्यनारायण उनके कारिंदा थे। वह बड़े स्वामिभक्त और सच्चरित्र मनुष्य थे। लाखों रुपये की तहसील और हजारों मन अनाज का लेन-देन
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उनके हाथ में था; पर कभी उनकी नियत डावॉँडोल न होती। उनके सुप्रबंध से रियासत दिनोंदिन उन्नति करती जाती थी। ऐसे कत्तर्व्यपरायण सेवक का जितना सम्मान होना चाहिए, उससे अधिक ही होता था। दु:ख-सुख के प्रत्येक अवसर पर पंडित जी उनके साथ बड़ी उदारता से पेश आते। धीरे-धीरे मुंशी जी का विश्वास इतना बढ़ा कि पंडित जी ने हिसाब-किताब का समझना भी छोड़ दिया। सम्भव है, उनसे आजीवन इसी तरह निभ जाती, पर भावी प्रबल है। प्रयाग में कुम्भ लगा, तो पंडित जी भी स्नान करने गये। वहॉँ से लौटकर फिर वे घर न आये। मालूम नहीं, किसी गढ़े में फिसल पड़े या कोई जल-जंतु उन्हें खींच ले गया, उनका फिर कुछ पता ही न चला। अब मुंशी सत्यनाराण के अधिकार और भी बढ़े। एक हतभागिनी विधवा और दो छोटे-छोटे बच्चों के सिवा पंडित जी के घर में और कोई न था। अंत्येष्टि-क्रिया से निवृत्त होकर एक दिन शोकातुर पंडिताइन ने उन्हें बुलाया और रोकर कहा—लाला, पंडित जी हमें मँझधार में छोड़कर सुरपुर को सिधर गये, अब यह नैया तुम्ही पार लगाओगे तो लग सकती है। यह सब खेती तुम्हारी लगायी हुई है, इसे तुम्हारे ही ऊपर छोड़ती हूँ। ये तुम्हारे बच्चे हैं, इन्हें अपनाओ। जब तक मालिक जिये, तुम्हें अपना भाई समझते रहे। मुझे विश्वास है कि तुम उसी तरह इस भार को सँभाले रहोगे। सत्यनाराण ने रोते हुए जवाब दिया—भाभी, भैया क्या उठ गये, मेरे तो भाग्य ही फूट गये, नहीं तो मुझे आदमी बना देते। मैं उन्हीं का नमक खाकर जिया हूँ और उन्हीं की चाकरी में मरुँगा भी। आप धीरज रखें। किसी प्रकार की चिंता न करें। मैं जीते-जी आपकी सेवा से मुँह न मोडूँगा। आप केवल इतना कीजिएगा कि मैं जिस किसी की शिकायत करुँ, उसे डॉँट दीजिएगा; नहीं तो ये लोग सिर चढ़ जायेंगे।
2 इस घटना के बाद कई वर्षो तक मुंशीजी ने रियासत को सँभाला। वह अपने काम में बड़े कुशल थे। कभी एक कौड़ी का भी बल नहीं पड़ा। सारे जिले में उनका सम्मान होने लगा। लोग पंडित जी को भूल-सा गये। दरबारों और कमेटियों में वे सम्मिलित होते, जिले के अधिकारी उन्हीं को जमींदार समझते। अन्य रईसों में उनका आदर था; पर मान-वृद्वि की महँगी वस्तु है। और भानुकुँवरि, अन्य स्त्रियों के सदृश पैसे को खूब पकड़ती। वह मनुष्य की मनोवृत्तियों से परिचित न थी। पंडित जी हमेशा लाला जी को इनाम इकराम देते रहते थे। वे जानते थे कि ज्ञान के बाद ईमान का दूसरा स्तम्भ अपनी सुदशा है। इसके सिवा वे खुद भी कभी कागजों की जॉँच कर लिया करते थे। नाममात्र ही को सही, पर इस निगरानी का डर जरुर बना रहता था; क्योंकि ईमान का सबसे बड़ा शत्रु अवसर है। भानुकुँवरि इन बातों को जानती न थी। अतएव अवसर तथा धनाभाव-जैसे प्रबल शत्रुओं के पंजे में पड़ कर मुंशीजी का ईमान कैसे बेदाग बचता? कानपुर शहर से मिला हुआ, ठीक गंगा के किनारे, एक बहुत आजाद और उपजाऊ गॉँव था। पंडित जी इस गॉँव को लेकर नदी-किनारे पक्का घाट, मंदिर, बाग, मकान आदि बनवाना चाहते थे; पर उनकी यह कामना सफल न हो सकी। संयोग से अब यह गॉँव बिकने लगा। उनके जमींदार एक ठाकुर साहब थे। किसी फौजदारी के मामले में फँसे हुए थे। मुकदमा लड़ने के लिए रुपये की चाह थी। मुंशीजी ने कचहरी में यह समाचार सुना। चटपट मोल-तोल हुआ। दोनों तरफ गरज थी। सौदा पटने में देर न लगी, बैनामा लिखा गया। रजिस्ट्री हुई। रुपये मौजूद न थे, पर शहर में साख थी। एक महाजन के यहॉँ से तीस हजार रुपये मँगवाये गये और ठाकुर साहब को नजर किये गये। हॉँ, काम-काज की आसानी के खयाल से यह सब लिखा-पढ़ी मुंशीजी ने अपने ही नाम की; क्योंकि मालिक के लड़के अभी नाबालिग थे। उनके नाम से लेने में बहुत झंझट होती और विलम्ब होने से शिकार हाथ से निकल जाता। मुंशीजी बैनामा लिये असीम आनंद में मग्न भानुकुँवरि के पास आये। पर्दा कराया और यह शुभ-समाचार सुनाया। भानुकुँवरि ने सजल नेत्रों से उनको धन्यवाद दिया। पंडित जी के नाम पर मन्दिर और घाट बनवाने का इरादा पक्का हो गया। मुँशी जी दूसरे ही दिन उस गॉँव में आये। आसामी नजराने लेकर नये स्वामी के स्वागत को हाजिर हुए। शहर के रईसों की दावत हुई। लोगों के नावों पर बैठ कर गंगा की खूब सैर की। मन्दिर आदि बनवाने के लिए आबादी से हट कर रमणीक स्थान चुना गया।
3 यद्यपि इस गॉँव को अपने नाम लेते समय मुंशी जी के मन में कपट का भाव न था, तथापि दो-चार दिन में ही उनका अंकुर जम गया और धीरे-धीरे बढ़ने लगा। मुंशी जी इस गॉँव के आय-व्यय का हिसाब अलग रखते और अपने स्वामिनों को उसका ब्योरो समझाने की जरुरत न समझते। भानुकुँवरि इन बातों में दखल देना उचित न समझती थी; पर दूसरे कारिंदों से बातें सुन-सुन कर उसे शंका होती थी कि कहीं मुंशी जी दगा तो न देंगे। अपने मन का भाव मुंशी से छिपाती थी, इस खयाल से कि कहीं कारिंदों ने उन्हें हानि पहुँचाने के लिए यह षड़यंत्र न रचा हो। इस तरह कई साल गुजर गये। अब उस कपट के अंकुर ने वृक्ष का रुप धारण किया। भानुकुँवरि को मुंशी जी के उस मार्ग के लक्षण दिखायी देने लगे। उधर मुंशी जी के मन ने कानून से नीति पर विजय पायी, उन्होंने अपने मन में फैसला किया कि गॉँव मेरा है। हॉँ, मैं भानुकुँवरि का तीस हजार का ऋणी अवश्य हूँ। वे बहुत करेंगी तो अपने रुपये ले लेंगी और क्या कर सकती हैं? मगर दोनों तरफ यह आग अन्दर ही अन्दर सुलगती रही। मुंशी जी अस्त्रसज्जित होकर आक्रमण के इंतजार में थे और भानुकुँवरि इसके लिए अवसर ढूँढ़ रही थी। एक दिन उसने साहस करके मुंशी जी को अन्दर बुलाया और कहा—लाला जी ‘बरगदा’ के मन्दिर का काम कब से लगवाइएगा? उसे लिये आठ साल हो गये, अब काम लग जाय तो अच्छा हो। जिंदगी का कौन ठिकाना है, जो काम करना है; उसे कर ही डालना चाहिए। इस ढंग से इस विषय को उठा कर भानुकुँवरि ने अपनी चतुराई का अच्छा परिचय दिया। मुंशी जी भी दिल में इसके कायल हो गये। जरा सोच कर बोले—इरादा तो मेरा कई बार हुआ, पर मौके की जमीन नहीं मिलती। गंगातट की जमीन असामियों के जोत में है और वे किसी तरह छोड़ने पर राजी नहीं। भानुकुँवरि—यह बात तो आज मुझे मालूम हुई। आठ साल हुए, इस गॉँव के विषय में आपने कभी भूल कर भी दी तो चर्चा नहीं की। मालूम नहीं, कितनी तहसील है, क्या मुनाफा है, कैसा गॉँव है, कुछ सीर होती है या नहीं। जो कुछ करते हैं, आप ही करते हैं और करेंगे। पर मुझे भी तो मालूम होना चाहिए? मुंशी जी सँभल उठे। उन्हें मालूम हो गया कि इस चतुर स्त्री से बाजी ले जाना मुश्किल है। गॉँव लेना ही है तो अब क्या डर। खुल कर बोले—आपको इससे कोई सरोकार न था, इसलिए मैंने व्यर्थ कष्ट देना मुनासिब न समझा। भानुकुँवरि के हृदय में कुठार-सा लगा। पर्दे से निकल आयी और मुंशी जी की तरफ तेज ऑंखों से देख कर बोली—आप क्या कहते हैं! आपने गॉँव मेरे लिये लिया था या अपने लिए! रुपये मैंने दिये या आपने? उस पर जो खर्च पड़ा, वह मेरा था या आपका? मेरी समझ में नहीं आता कि आप कैसी बातें करते हैं। मुंशी जी ने सावधानी से जवाब दिया—यह तो आप जानती हैं कि गॉँव हमारे नाम से बसा हुआ है। रुपया जरुर आपका लगा, पर मैं उसका देनदार हूँ। रहा तहसील-वसूल का खर्च, यह सब मैंने अपने पास से दिया है। उसका हिसाब-किताब, आय-व्यय सब रखता गया हूँ। भानुकुँवरि ने क्रोध से कॉँपते हुए कहा—इस कपट का फल आपको अवश्य मिलेगा। आप इस निर्दयता से मेरे बच्चों का गला नहीं काट सकते। मुझे नहीं मालूम था कि आपने हृदय में छुरी छिपा रखी है, नहीं तो यह नौबत ही क्यों आती। खैर, अब से मेरी रोकड़ और बही खाता आप कुछ न छुऍं। मेरा जो कुछ होगा, ले लूँगी। जाइए, एकांत में बैठ कर सोचिए। पाप से किसी का भला नहीं होता। तुम समझते होगे कि बालक अनाथ हैं, इनकी सम्पत्ति हजम कर लूँगा। इस भूल में न रहना, मैं तुम्हारे घर की ईट तक बिकवा लूँगी। यह कहकर भानुकुँवरि फिर पर्दे की आड़ में आ बैठी और रोने लगी। स्त्रियॉँ क्रोध के बाद किसी न किसी बहाने रोया करती हैं। लाला साहब को कोई जवाब न सूझा। यहॉँ से उठ आये और दफ्तर जाकर कागज उलट-पलट करने लगे, पर भानुकुँवरि भी उनके पीछे-पीछे दफ्तर में पहुँची और डॉँट कर बोली—मेरा कोई कागज मत छूना। नहीं तो बुरा होगा। तुम विषैले साँप हो, मैं तुम्हारा मुँह नहीं देखना चाहती। मुंशी जी कागजों में कुछ काट-छॉँट करना चाहते थे, पर विवश हो गये। खजाने की कुन्जी निकाल कर फेंक दी, बही-खाते पटक दिये, किवाड़ धड़ाके-से बंद किये और हवा की तरह सन्न-से निकल गये। कपट में हाथ तो डाला, पर कपट मन्त्र न जाना। दूसरें कारिंदों ने यह कैफियत सुनी, तो फूले न समाये। मुंशी जी के सामने उनकी दाल न गलने पाती। भानुकुँवरि के पास आकर वे आग पर तेल छिड़कने लगे। सब लोग इस विषय में सहमत थे कि मुंशी सत्यनारायण ने विश्वासघात किया है। मालिक का नमक उनकी हड्डियों से फूट-फूट कर निकलेगा। दोनों ओर से मुकदमेबाजी की तैयारियॉँ होने लगीं! एक तरफ न्याय का शरीर था, दूसरी ओर न्याय की आत्मा। प्रकृति का पुरुष से लड़ने का साहस हुआ। भानकुँवरि ने लाला छक्कन लाल से पूछा—हमारा वकील कौन है? छक्कन लाल ने इधर-उधर झॉँक कर कहा—वकील तो सेठ जी हैं, पर सत्यनारायण ने उन्हें पहले गॉँठ रखा होगा। इस मुकदमें के लिए बड़े होशियार वकील की जरुरत है। मेहरा बाबू की आजकल खूब चल रही है। हाकिम की कलम पकड़ लेते हैं। बोलते हैं तो जैसे मोटरकार छूट जाती है सरकार! और क्या कहें, कई आदमियों को फॉँसी से उतार लिया है, उनके सामने कोई वकील जबान तो खोल नहीं सकता। सरकार कहें तो वही कर लिये जायँ। छक्कन लाल की अत्युक्ति से संदेह पैदा कर लिया। भानुकुँवरि ने कहा—नहीं, पहले सेठ जी से पूछ लिया जाय। उसके बाद देखा जायगा। आप जाइए, उन्हें बुला लाइए। छक्कनलाल अपनी तकदीर को ठोंकते हुए सेठ जी के पास गये। सेठ जी पंडित भृगुदत्त के जीवन-काल से ही उनका कानून-सम्बन्धी सब काम किया करते थे। मुकदमे का हाल सुना तो सन्नाटे में आ गये। सत्यनाराण को यह बड़ा नेकनीयत आदमी समझते थे। उनके पतन से बड़ा खेद हुआ। उसी वक्त आये। भानुकुँवरि ने रो-रो कर उनसे अपनी विपत्ति की कथा कही और अपने दोनों लड़कों को उनके सामने खड़ा करके बोली—आप इन अनाथों की रक्षा कीजिए। इन्हें मैं आपको सौंपती हूँ। सेठ जी ने समझौते की बात छेड़ी। बोले—आपस की लड़ाई अच्छी नहीं। भानुकुँवरि—अन्यायी के साथ लड़ना ही अच्छा है। सेठ जी—पर हमारा पक्ष निर्बल है। भानुकुँवरि फिर पर्दे से निकल आयी और विस्मित होकर बोली—क्या हमारा पक्ष निर्बल है? दुनिया जानती है कि गॉँव हमारा है। उसे हमसे कौन ले सकता है? नहीं, मैं सुलह कभी न करुँगी, आप कागजों को देखें। मेरे बच्चों की खातिर यह कष्ट उठायें। आपका परिश्रम निष्फल न जायगा। सत्यनारायण की नीयत पहले खराब न थी। देखिए जिस मिती में गॉँव लिया गया है, उस मिती में तीस हजार का क्या खर्च दिखाया गया है। अगर उसने अपने नाम उधार लिखा हो, तो देखिए, वार्षिक सूद चुकाया गया या नहीं। ऐसे नरपिशाच से मैं कभी सुलह न करुँगी। सेठ जी ने समझ लिया कि इस समय समझाने-बुझाने से कुछ काम न चलेगा। कागजात देखें, अभियोग चलाने की तैयारियॉँ होने लगीं।
4 मुंशी सत्यनारायणलाल खिसियाये हुए मकान पहुँचे। लड़के ने मिठाई मॉँगी। उसे पीटा। स्त्री पर इसलिए बरस पड़े कि उसने क्यों लड़के को उनके पास जाने दिया। अपनी वृद्धा माता को डॉँट कर कहा—तुमसे इतना भी नहीं हो सकता कि जरा लड़के को बहलाओ? एक तो मैं दिन-भर का थका-मॉँदा घर आऊँ और फिर लड़के को खेलाऊँ? मुझे दुनिया में न और कोई काम है, न धंधा। इस तरह घर में बावैला मचा कर बाहर आये, सोचने लगे—मुझसे बड़ी भूल हुई। मैं कैसा मूर्ख हूँ। और इतने दिन तक सारे कागज-पत्र अपने हाथ में थे। चाहता, कर सकता था, पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहा। आज सिर पर आ पड़ी, तो सूझी। मैं चाहता तो बही-खाते सब नये बना सकता था, जिसमें इस गॉँव का और रुपये का जिक्र ही न होता, पर मेरी मूर्खता के कारण घर में आयी हुई लक्ष्मी रुठी जाती हैं। मुझे क्या मालूम था कि वह चुड़ैल मुझसे इस तरह पेश आयेगी, कागजों में हाथ तक न लगाने देगी। इसी उधेड़बुन में मुंशी जी एकाएक उछल पड़े। एक उपाय सूझ गया—क्यों न कार्यकर्त्ताओं को मिला लूँ? यद्यपि मेरी सख्ती के कारण वे सब मुझसे नाराज थे और इस समय सीधे बात भी न करेंगे, तथापि उनमें ऐसा कोई भी नहीं, जो प्रलोभन से मुठ्ठी में न आ जाय। हॉँ, इसमें रुपये पानी की तरह बहाना पड़ेगा, पर इतना रुपया आयेगा कहॉँ से? हाय दुर्भाग्य? दो-चार दिन पहले चेत गया होता, तो कोई कठिनाई न पड़ती। क्या जानता था कि वह डाइन इस तरह वज्र-प्रहार करेगी। बस, अब एक ही उपाय है। किसी तरह कागजात गुम कर दूँ। बड़ी जोखिम का काम है, पर करना ही पड़ेगा। दुष्कामनाओं के सामने एक बार सिर झुकाने पर फिर सँभलना कठिन हो जाता है। पाप के अथाह दलदल में जहॉँ एक बार पड़े कि फिर प्रतिक्षण नीचे ही चले जाते हैं। मुंशी सत्यनारायण-सा विचारशील मनुष्य इस समय इस फिक्र में था कि कैसे सेंध लगा पाऊँ! मुंशी जी ने सोचा—क्या सेंध लगाना आसान है? इसके वास्ते कितनी चतुरता, कितना साहब, कितनी बुद्वि, कितनी वीरता चाहिए! कौन कहता है कि चोरी करना आसान काम है? मैं जो कहीं पकड़ा गया, तो मरने के सिवा और कोई मार्ग न रहेगा। बहुत सोचने-विचारने पर भी मुंशी जी को अपने ऊपर ऐसा दुस्साहस कर सकने का विश्वास न हो सका। हॉँ, इसमें सुगम एक दूसरी तदबीर नजर आयी—क्यों न दफ्तर में आग लगा दूँ? एक बोतल मिट्टी का तेल और दियासलाई की जरुरत हैं किसी बदमाश को मिला लूँ, मगर यह क्या मालूम कि वही उसी कमरे में रखी है या नहीं। चुड़ैल ने उसे जरुर अपने पास रख लिया होगा। नहीं; आग लगाना गुनाह बेलज्जत होगा। बहुत देर मुंशी जी करवटें बदलते रहे। नये-नये मनसूबे सोचते; पर फिर अपने ही तर्को से काट देते। वर्षाकाल में बादलों की नयी-नयी सूरतें बनती और फिर हवा के वेग से बिगड़ जाती हैं; वही दशा इस समय उनके मनसूबों की हो रही थी। पर इस मानसिक अशांति में भी एक विचार पूर्णरुप से स्थिर था—किसी तरह इन कागजात को अपने हाथ में लाना चाहिए। काम कठिन है—माना! पर हिम्मत न थी, तो रार क्यों मोल ली? क्या तीस हजार की जायदाद दाल-भात का कौर है?—चाहे जिस तरह हो, चोर बने बिना काम नहीं चल सकता। आखिर जो लोग चोरियॉँ करते हैं, वे भी तो मनुष्य ही होते हैं। बस, एक छलॉँग का काम है। अगर पार हो गये, तो राज करेंगे, गिर पड़े, तो जान से हाथ धोयेंगे।
5 रात के दस बज गये। मुंशी सत्यनाराण कुंजियों का एक गुच्छा कमर में दबाये घर से बाहर निकले। द्वार पर थोड़ा-सा पुआल रखा हुआ था। उसे देखते ही वे चौंक पड़े। मारे डर के छाती धड़कने लगी। जान पड़ा कि कोई छिपा बैठा है। कदम रुक गये। पुआल की तरफ ध्यान से देखा। उसमें बिलकुल हरकत न हुई! तब हिम्मत बॉँधी, आगे बड़े और मन को समझाने लगे—मैं कैसा बौखल हूँ अपने द्वार पर किसका डर और सड़क पर भी मुझे किसका डर है? मैं अपनी राह जाता हूँ। कोई मेरी तरफ तिरछी ऑंख से नहीं देख सकता। हॉँ, जब मुझे सेंध लगाते देख ले—नहीं, पकड़ ले तब अलबत्ते डरने की बात है। तिस पर भी बचाव की युक्ति निकल सकती है। अकस्मात उन्होंने भानुकुँवरि के एक चपरासी को आते हुए देखा। कलेजा धड़क उठा। लपक कर एक अँधेरी गली में घुस गये। बड़ी देर तक वहॉँ खड़े रहे। जब वह सिपाही ऑंखों से ओझल हो गया, तब फिर सड़क पर आये। वह सिपाही आज सुबह तक इनका गुलाम था, उसे उन्होंने कितनी ही बार गालियॉँ दी थीं, लातें मारी थीं, पर आज उसे देखकर उनके प्राण सूख गये। उन्होंने फिर तर्क की शरण ली। मैं मानों भंग खाकर आया हूँ। इस चपरासी से इतना डरा मानो कि वह मुझे देख लेता, पर मेरा कर क्या सकता था? हजारों आदमी रास्ता चल रहे हैं। उन्हीं में मैं भी एक हूँ। क्या वह अंतर्यामी है? सबके हृदय का हाल जानता है? मुझे देखकर वह अदब से सलाम करता और वहॉँ का कुछ हाल भी कहता; पर मैं उससे ऐसा डरा कि सूरत तक न दिखायी। इस तरह मन को समझा कर वे आगे बढ़े। सच है, पाप के पंजों में फँसा हुआ मन पतझड़ का पत्ता है, जो हवा के जरा-से झोंके से गिर पड़ता है। मुंशी जी बाजार पहुँचे। अधिकतर दूकानें बंद हो चुकी थीं। उनमें सॉँड़ और गायें बैठी हुई जुगाली कर रही थी। केवल हलवाइयों की दूकानें खुली थी और कहीं-कहीं गजरेवाले हार की हॉँक लगाते फिरते थे। सब हलवाई मुंशी जी को पहचानते थे, अतएव मुंशी जी ने सिर झुका लिया। कुछ चाल बदली और लपकते हुए चले। एकाएक उन्हें एक बग्घी आती दिखायी दी। यह सेठ बल्लभदास सवकील की बग्घी थी। इसमें बैठकर हजारों बार सेठ जी के साथ कचहरी गये थे, पर आज वह बग्घी कालदेव के समान भयंकर मालूम हुई। फौरन एक खाली दूकान पर चढ़ गये। वहॉँ विश्राम करने वाले सॉँड़ ने समझा, वे मुझे पदच्युत करने आये हैं! माथा झुकाये फुंकारता हुआ उठ बैठा; पर इसी बीच में बग्घी निकल गयी और मुंशी जी की जान में जान आयी। अबकी उन्होंने तर्क का आश्रय न लिया। समझ गये कि इस समय इससे कोई लाभ नहीं, खैरियत यह हुई कि वकील ने देखा नहीं। यह एक घाघ हैं। मेरे चेहरे से ताड़ जाता। कुछ विद्वानों का कथन है कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति पाप की ओर होती है, पर यह कोरा अनुमान ही अनुमान है, अनुभव-सिद्ध बात नहीं। सच बात तो यह है कि मनुष्य स्वभावत: पाप-भीरु होता है और हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि पाप से उसे कैसी घृणा होती है। एक फर्लांग आगे चल कर मुंशी जी को एक गली मिली। वह भानुकुँवरि के घर का एक रास्ता था। धुँधली-सी लालटेन जल रही थी। जैसा मुंशी जी ने अनुमान किया था, पहरेदार का पता न था। अस्तबल में चमारों के यहॉँ नाच हो रहा था। कई चमारिनें बनाव-सिंगार करके नाच रही थीं। चमार मृदंग बजा-बजा कर गाते थे— ‘नाहीं घरे श्याम, घेरि आये बदरा। सोवत रहेउँ, सपन एक देखेउँ, रामा। खुलि गयी नींद, ढरक गये कजरा। नाहीं घरे श्याम, घेरि आये बदरा।’ दोनों पहरेदार वही तमाशा देख रहे थे। मुंशी जी दबे-पॉँव लालटेन के पास गए और जिस तरह बिल्ली चूहे पर झपटती है, उसी तरह उन्होंने झपट कर लालटेन को बुझा दिया। एक पड़ाव पूरा हो गया, पर वे उस कार्य को जितना दुष्कर समझते थे, उतना न जान पड़ा। हृदय कुछ मजबूत हुआ। दफ्तर के बरामदे में पहुँचे और खूब कान लगाकर आहट ली। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। केवल चमारों का कोलाहल सुनायी देता था। इस समय मुंशी जी के दिल में धड़कन थी, पर सिर धमधम कर रहा था; हाथ-पॉँव कॉँप रहे थे, सॉँस बड़े वेग से चल रही थी। शरीर का एक-एक रोम ऑंख और कान बना हुआ था। वे सजीवता की मूर्ति हो रहे थे। उनमें जितना पौरुष, जितनी चपलता, जितना-साहस, जितनी चेतना, जितनी बुद्वि, जितना औसान था, वे सब इस वक्त सजग और सचेत होकर इच्छा-शक्ति की सहायता कर रहे थे। दफ्तर के दरवाजे पर वही पुराना ताला लगा हुआ था। इसकी कुंजी आज बहुत तलाश करके वे बाजार से लाये थे। ताला खुल गया, किवाड़ो ने बहुत दबी जबान से प्रतिरोध किया। इस पर किसी ने ध्यान न दिया। मुंशी जी दफ्तर में दाखिल हुए। भीतर चिराग जल रहा था। मुंशी जी को देख कर उसने एक दफे सिर हिलाया, मानो उन्हें भीतर आने से रोका। मुंशी जी के पैर थर-थर कॉँप रहे थे। एड़ियॉँ जमीन से उछली पड़ती थीं। पाप का बोझ उन्हें असह्य था। पल-भर में मुंशी जी ने बहियों को उलटा-पलटा। लिखावट उनकी ऑंखों में तैर रही थी। इतना अवकाश कहॉँ था कि जरुरी कागजात छॉँट लेते। उन्होंनें सारी बहियों को समेट कर एक गट्ठर बनाया और सिर पर रख कर तीर के समान कमरे के बाहर निकल आये। उस पाप की गठरी को लादे हुए वह अँधेरी गली से गायब हो गए। तंग, अँधेरी, दुर्गन्धपूर्ण कीचड़ से भरी हुई गलियों में वे नंगे पॉँव, स्वार्थ, लोभ और कपट का बोझ लिए चले जाते थे। मानो पापमय आत्मा नरक की नालियों में बही चली जाती थी। बहुत दूर तक भटकने के बाद वे गंगा किनारे पहुँचे। जिस तरह कलुषित हृदयों में कहीं-कहीं धर्म का धुँधला प्रकाश रहता है, उसी तरह नदी की काली सतह पर तारे झिलमिला रहे थे। तट पर कई साधु धूनी जमाये पड़े थे। ज्ञान की ज्वाला मन की जगह बाहर दहक रही थी। मुंशी जी ने अपना गट्ठर उतारा और चादर से खूब मजबूत बॉँध कर बलपूर्वक नदी में फेंक दिया। सोती हुई लहरों में कुछ हलचल हुई और फिर सन्नाटा हो गया।
6 मुंशी सत्यनारायण लाल के घर में दो स्त्रियॉँ थीं—माता और पत्नी। वे दोनों अशिक्षिता थीं। तिस पर भी मुंशी जी को गंगा में डूब मरने या कहीं भाग जाने की जरुरत न होती थी ! न वे बॉडी पहनती थी, न मोजे-जूते, न हारमोनियम पर गा सकती थी। यहॉँ तक कि उन्हें साबुन लगाना भी न आता था। हेयरपिन, ब्रुचेज, जाकेट आदि परमावश्यक चीजों का तो नाम ही नहीं सुना था। बहू में आत्म-सम्मान जरा भी नहीं था; न सास में आत्म-गौरव का जोश। बहू अब तक सास की घुड़कियॉँ भीगी बिल्ली की तरह सह लेती थी—हा मूर्खे ! सास को बच्चे के नहलाने-धुलाने, यहॉँ तक कि घर में झाड़ू देने से भी घृणा न थी, हा ज्ञानांधे! बहू स्त्री क्या थी, मिट्टी का लोंदा थी। एक पैसे की जरुरत होती तो सास से मॉँगती। सारांश यह कि दोनों स्त्रियॉँ अपने अधिकारों से बेखबर, अंधकार में पड़ी हुई पशुवत् जीवन व्यतीत करती थीं। ऐसी फूहड़ थी कि रोटियां भी अपने हाथों से बना लेती थी। कंजूसी के मारे दालमोट, समोसे कभी बाजार से न मँगातीं। आगरे वाले की दूकान की चीजें खायी होती तो उनका मजा जानतीं। बुढ़िया खूसट दवा-दरपन भी जानती थी। बैठी-बैठी घास-पात कूटा करती। मुंशी जी ने मॉँ के पास जाकर कहा—अम्मॉँ ! अब क्या होगा? भानुकुँवरि ने मुझे जवाब दे दिया। माता ने घबरा कर पूछा—जवाब दे दिया? मुंशी—हॉँ, बिलकुल बेकसूर! माता—क्या बात हुई? भानुकुँवरि का मिजाज तो ऐसा न था। मुंशी—बात कुछ न थी। मैंने अपने नाम से जो गॉँव लिया था, उसे मैंने अपने अधिकार में कर लिया। कल मुझसे और उनसे साफ-साफ बातें हुई। मैंने कह दिया कि गॉँव मेरा है। मैंने अपने नाम से लिया है, उसमें तुम्हारा कोई इजारा नहीं। बस, बिगड़ गयीं, जो मुँह में आया, बकती रहीं। उसी वक्त मुझे निकाल दिया और धमका कर कहा—मैं तुमसे लड़ कर अपना गॉँव ले लूँगी। अब आज ही उनकी तरफ से मेरे ऊपर मुकदमा दायर होगा; मगर इससे होता क्या है? गॉँव मेरा है। उस पर मेरा कब्जा है। एक नहीं, हजार मुकदमें चलाएं, डिगरी मेरी होगी? माता ने बहू की तरफ मर्मांतक दृष्टि से देखा और बोली—क्यों भैया? वह गॉँव लिया तो था तुमने उन्हीं के रुपये से और उन्हीं के वास्ते? मुंशी—लिया था, तब लिया था। अब मुझसे ऐसा आबाद और मालदार गॉँव नहीं छोड़ा जाता। वह मेरा कुछ नहीं कर सकती। मुझसे अपना रुपया भी नहीं ले सकती। डेढ़ सौ गॉँव तो हैं। तब भी हवस नहीं मानती। माना—बेटा, किसी के धन ज्यादा होता है, तो वह उसे फेंक थोड़े ही देता है? तुमने अपनी नीयत बिगाड़ी, यह अच्छा काम नहीं किया। दुनिया तुम्हें क्या कहेगी? और दुनिया चाहे कहे या न कहे, तुमको भला ऐसा करना चाहिए कि जिसकी गोद में इतने दिन पले, जिसका इतने दिनों तक नमक खाया, अब उसी से दगा करो? नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिया? मजे से खाते हो, पहनते हो, घर में नारायण का दिया चार पैसा है, बाल-बच्चे हैं, और क्या चाहिए? मेरा कहना मानो, इस कलंक का टीका अपने माथे न लगाओ। यह अपजस मत लो। बरक्कत अपनी कमाई में होती है; हराम की कौड़ी कभी नहीं फलती। मुंशी—ऊँह! ऐसी बातें बहुत सुन चुका हूँ। दुनिया उन पर चलने लगे, तो सारे काम बन्द हो जायँ। मैंने इतने दिनों इनकी सेवा की, मेरी ही बदौलत ऐसे-ऐसे चार-पॉँच गॉँव बढ़ गए। जब तक पंडित जी थे, मेरी नीयत का मान था। मुझे ऑंख में धूल डालने की जरुरत न थी, वे आप ही मेरी खातिर कर दिया करते थे। उन्हें मरे आठ साल हो गए; मगर मुसम्मात के एक बीड़े पान की कसम खाता हूँ; मेरी जात से उनको हजारों रुपये-मासिक की बचत होती थी। क्या उनको इतनी भी समझ न थी कि यह बेचारा, जो इतनी ईमानदारी से मेरा काम करता है, इस नफे में कुछ उसे भी मिलना चाहिए? यह कह कर न दो, इनाम कह कर दो, किसी तरह दो तो, मगर वे तो समझती थी कि मैंने इसे बीस रुपये महीने पर मोल ले लिया है। मैंने आठ साल तक सब किया, अब क्या इसी बीस रुपये में गुलामी करता रहूँ और अपने बच्चों को दूसरों का मुँह ताकने के लिए छोड़ जाऊँ? अब मुझे यह अवसर मिला है। इसे क्यों छोडूँ? जमींदारी की लालसा लिये हुए क्यों मरुँ? जब तक जीऊँगा, खुद खाऊँगा। मेरे पीछे मेरे बच्चे चैन उड़ायेंगे। माता की ऑंखों में ऑंसू भर आये। बोली—बेटा, मैंने तुम्हारे मुँह से ऐसी बातें कभी नहीं सुनी थीं, तुम्हें क्या हो गया है? तुम्हारे आगे बाल-बच्चे हैं। आग में हाथ न डालो। बहू ने सास की ओर देख कर कहा—हमको ऐसा धन न चाहिए, हम अपनी दाल-रोटी में मगन हैं। मुंशी—अच्छी बात है, तुम लोग रोटी-दाल खाना, गाढ़ा पहनना, मुझे अब हल्वे-पूरी की इच्छा है। माता—यह अधर्म मुझसे न देखा जायगा। मैं गंगा में डूब मरुँगी। पत्नी—तुम्हें यह सब कॉँटा बोना है, तो मुझे मायके पहुँचा दो, मैं अपने बच्चों को लेकर इस घर में न रहूँगी! मुंशी ने झुँझला कर कहा—तुम लोगों की बुद्वि तो भॉँग खा गयी है। लाखों सरकारी नौकर रात-दिन दूसरों का गला दबा-दबा कर रिश्वतें लेते हैं और चैन करते हैं। न उनके बाल-बच्चों ही को कुछ होता है, न उन्हीं को हैजा पकड़ता है। अधर्म उनको क्यों नहीं खा जाता, जो मुझी को खा जायगा। मैंने तो सत्यवादियों को सदा दु:ख झेलते ही देखा है। मैंने जो कुछ किया है, सुख लूटूँगा। तुम्हारे मन में जो आये, करो। प्रात:काल दफ्तर खुला तो कागजात सब गायब थे। मुंशी छक्कनलाल बौखलाये से घर में गये और मालकिन से पूछा—कागजात आपने उठवा लिए हैं। भानुकुँवरि ने कहा—मुझे क्या खबर, जहॉँ आपने रखे होंगे, वहीं होंगे। फिर सारे घर में खलबली पड़ गयी। पहरेदारों पर मार पड़ने लगी। भानुकुँवरि को तुरन्त मुंशी सत्यनारायण पर संदेह हुआ, मगर उनकी समझ में छक्कनलाल की सहायता के बिना यह काम होना असम्भव था। पुलिस में रपट हुई। एक ओझा नाम निकालने के लिए बुलाया गया। मौलवी साहब ने कुर्रा फेंका। ओझा ने बताया, यह किसी पुराने बैरी का काम है। मौलवी साहब ने फरमाया, किसी घर के भेदिये ने यह हरकत की है। शाम तक यह दौड़-धूप रही। फिर यह सलाह होने लगी कि इन कागजातों के बगैर मुकदमा कैसे चले। पक्ष तो पहले से ही निर्बल था। जो कुछ बल था, वह इसी बही-खाते का था। अब तो सबूत भी हाथ से गये। दावे में कुछ जान ही न रही, मगर भानकुँवरि ने कहा—बला से हार जाऍंगे। हमारी चीज कोई छीन ले, तो हमारा धर्म है कि उससे यथाशक्ति लड़ें, हार कर बैठना कायरों का काम है। सेठ जी (वकील) को इस दुर्घटना का समाचार मिला तो उन्होंने भी यही कहा कि अब दावे में जरा भी जान नहीं है। केवल अनुमान और तर्क का भरोसा है। अदालत ने माना तो माना, नहीं तो हार माननी पड़ेगी। पर भानुकुँवरि ने एक न मानी। लखनऊ और इलाहाबाद से दो होशियार बैरिस्टिर बुलाये। मुकदमा शुरु हो गया। सारे शहर में इस मुकदमें की धूम थी। कितने ही रईसों को भानुकुँवरि ने साथी बनाया था। मुकदमा शुरु होने के समय हजारों आदमियों की भीड़ हो जाती थी। लोगों के इस खिंचाव का मुख्य कारण यह था कि भानुकुँवरि एक पर्दे की आड़ में बैठी हुई अदालत की कारवाई देखा करती थी, क्योंकि उसे अब अपने नौकरों पर जरा भी विश्वास न था। वादी बैरिस्टर ने एक बड़ी मार्मिक वक्तृता दी। उसने सत्यनाराण की पूर्वावस्था का खूब अच्छा चित्र खींचा। उसने दिखलाया कि वे कैसे स्वामिभक्त, कैसे कार्य-कुशल, कैसे कर्म-शील थे; और स्वर्गवासी पंडित भृगुदत्त का उस पर पूर्ण विश्वास हो जाना, किस तरह स्वाभाविक था। इसके बाद उसने सिद्ध किया कि मुंशी सत्यनारायण की आर्थिक व्यवस्था कभी ऐसी न थी कि वे इतना धन-संचय करते। अंत में उसने मुंशी जी की स्वार्थपरता, कूटनीति, निर्दयता और विश्वास-घातकता का ऐसा घृणोत्पादक चित्र खींचा कि लोग मुंशी जी को गोलियॉँ देने लगे। इसके साथ ही उसने पंडित जी के अनाथ बालकों की दशा का बड़ा करूणोत्पादक वर्णन किया—कैसे शोक और लज्जा की बात है कि ऐसा चरित्रवान, ऐसा नीति-कुशल मनुष्य इतना गिर जाय कि अपने स्वामी के अनाथ बालकों की गर्दन पर छुरी चलाने पर संकोच न करे। मानव-पतन का ऐसा करुण, ऐसा हृदय-विदारक उदाहरण मिलना कठिन है। इस कुटिल कार्य के परिणाम की दृष्टि से इस मनुष्य के पूर्व परिचित सदगुणों का गौरव लुप्त हो जाता है। क्योंकि वे असली मोती नहीं, नकली कॉँच के दाने थे, जो केवल विश्वास जमाने के निमित्त दर्शाये गये थे। वह केवल सुंदर जाल था, जो एक सरल हृदय और छल-छंद से दूर रहने वाले रईस को फँसाने के लिए फैलाया गया था। इस नर-पशु का अंत:करण कितना अंधकारमय, कितना कपटपूर्ण, कितना कठोर है; और इसकी दुष्टता कितनी घोर, कितनी अपावन है। अपने शत्रु के साथ दया करना एक बार तो क्षम्य है, मगर इस मलिन हृदय मनुष्य ने उन बेकसों के साथ दगा दिया है, जिन पर मानव-स्वभाव के अनुसार दया करना उचित है! यदि आज हमारे पास बही-खाते मौजूद होते, अदालत पर सत्यनारायण की सत्यता स्पष्ट रुप से प्रकट हो जाती, पर मुंशी जी के बरखास्त होते ही दफ्तर से उनका लुप्त हो जाना भी अदालत के लिए एक बड़ा सबूत है। शहर में कई रईसों ने गवाही दी, पर सुनी-सुनायी बातें जिरह में उखड़ गयीं। दूसरे दिन फिर मुकदमा पेश हुआ। प्रतिवादी के वकील ने अपनी वक्तृता शुरु की। उसमें गंभीर विचारों की अपेक्षा हास्य का आधिक्य था—यह एक विलक्षण न्याय-सिद्धांत है कि किसी धनाढ़य मनुष्य का नौकर जो कुछ खरीदे, वह उसके स्वामी की चीज समझी जाय। इस सिद्धांत के अनुसार हमारी गवर्नमेंट को अपने कर्मचारियों की सारी सम्पत्ति पर कब्जा कर लेना चाहिए। यह स्वीकार करने में हमको कोई आपत्ति नहीं कि हम इतने रुपयों का प्रबंध न कर सकते थे और यह धन हमने स्वामी ही से ऋण लिया; पर हमसे ऋण चुकाने का कोई तकाजा न करके वह जायदाद ही मॉँगी जाती है। यदि हिसाब के कागजात दिखलाये जायँ, तो वे साफ बता देंगे कि मैं सारा ऋण दे चुका। हमारे मित्र ने कहा कि ऐसी अवस्था में बहियों का गुम हो जाना भी अदालत के लिये एक सबूत होना चाहिए। मैं भी उनकी युक्ति का समर्थन करता हूँ। यदि मैं आपसे ऋण ले कर अपना विवाह करुँ तो क्या मुझसे मेरी नव-विवाहित वधू को छीन लेंगे? ‘हमारे सुयोग मित्र ने हमारे ऊपर अनाथों के साथ दगा करने का दोष लगाया है। अगर मुंशी सत्यनाराण की नीयत खराब होती, तो उनके लिए सबसे अच्छा अवसर वह था जब पंडित भृगुदत्त का स्वर्गवास हुआ था। इतने विलम्ब की क्या जरुरत थी? यदि आप शेर को फँसा कर उसके बच्चे को उसी वक्त नहीं पकड़ लेते, उसे बढ़ने और सबल होने का अवसर देते हैं, तो मैं आपको बुद्विमान न कहूँगा। यथार्थ बात यह है कि मुंशी सत्यनाराण ने नमक का जो कुछ हक था, वह पूरा कर दिया। आठ वर्ष तक तन-मन से स्वामी के संतान की सेवा की। आज उन्हें अपनी साधुता का जो फल मिल रहा है, वह बहुत ही दु:खजनक और हृदय-विदारक है। इसमें भानुकुँवरि का दोष नहीं। वे एक गुण-सम्पन्न महिला हैं; मगर अपनी जाति के अवगुण उनमें भी विद्यमान हैं! ईमानदार मनुष्य स्वभावत: स्पष्टभाषी होता है; उसे अपनी बातों में नमक-मिर्च लगाने की जरुरत नहीं होती। यही कारण है कि मुंशी जी के मृदुभाषी मातहतों को उन पर आक्षेप करने का मौका मिल गया। इस दावे की जड़ केवल इतनी ही है, और कुछ नहीं। भानुकुँवरि यहॉँ उपस्थित हैं। क्या वे कह सकती हैं कि इस आठ वर्ष की मुद्दत में कभी इस गॉँव का जिक्र उनके सामने आया? कभी उसके हानि-लाभ, आय-व्यय, लेन-देन की चर्चा उनसे की गयी? मान लीजिए कि मैं गवर्नमेंट का मुलाजिम हूँ। यदि मैं आज दफ्तर में आकर अपनी पत्नी के आय-व्यय और अपने टहलुओं के टैक्सों का पचड़ा गाने लगूँ, तो शायद मुझे शीघ्र ही अपने पद से पृथक होना पड़े, और सम्भव है, कुछ दिनों तक बरेली की अतिथिशाला में भी रखा जाऊँ। जिस गॉँव से भानुकुँवरि का सरोवार न था, उसकी चर्चा उनसे क्यों की जाती?’ इसके बाद बहुत से गवाह पेश हुए; जिनमें अधिकांश आस-पास के देहातों के जमींदार थे। उन्होंने बयान किया कि हमने मुंशी सत्यनारायण असामियों को अपनी दस्तखती रसीदें और अपने नाम से खजाने में रुपया दाखिल करते देखा है। इतने में संध्या हो गयी। अदालत ने एक सप्ताह में फैसला सुनाने का हुक्म दिया।
7 सत्यनारायण को अब अपनी जीत में कोई सन्देह न था। वादी पक्ष के गवाह भी उखड़ गये थे और बहस भी सबूत से खाली थी। अब इनकी गिनती भी जमींदारों में होगी और सम्भव है, यह कुछ दिनों में रईस कहलाने लगेंगे। पर किसी न किसी कारण से अब शहर के गणमान्य पुरुषों से ऑंखें मिलाते शर्माते थे। उन्हें देखते ही उनका सिर नीचा हो जाता था। वह मन में डरते थे कि वे लोग कहीं इस विषय पर कुछ पूछ-ताछ न कर बैठें। वह बाजार में निकलते तो दूकानदारों में कुछ कानाफूसी होने लगती और लोग उन्हें तिरछी दृष्टि से देखने लगते। अब तक लोग उन्हें विवेकशील और सच्चरित्र मनुष्य समझते, शहर के धनी-मानी उन्हें इज्जत की निगाह से देखते और उनका बड़ा आदर करते थे। यद्यपि मुंशी जी को अब तक इनसे टेढ़ी-तिरछी सुनने का संयोग न पड़ा था, तथापि उनका मन कहता था कि सच्ची बात किसी से छिपी नहीं है। चाहे अदालत से उनकी जीत हो जाय, पर उनकी साख अब जाती रही। अब उन्हें लोग स्वार्थी, कपटी और दगाबाज समझेंगे। दूसरों की बात तो अलग रही, स्वयं उनके घरवाले उनकी उपेक्षा करते थे। बूढ़ी माता ने तीन दिन से मुँह में पानी नहीं डाला! स्त्री बार-बार हाथ जोड़ कर कहती थी कि अपने प्यारे बालकों पर दया करो। बुरे काम का फल कभी अच्छा नहीं होता! नहीं तो पहले मुझी को विष खिला दो। जिस दिन फैसला सुनाया जानेवाला था, प्रात:काल एक कुंजड़िन तरकारियॉँ लेकर आयी और मुंशियाइन से बोली— ‘बहू जी! हमने बाजार में एक बात सुनी है। बुरा न मानों तो कहूँ? जिसको देखो, उसके मुँह से यही बात निकलती है कि लाला बाबू ने जालसाजी से पंडिताइन का कोई हलका ले लिया। हमें तो इस पर यकीन नहीं आता। लाला बाबू ने न सँभाला होता, तो अब तक पंडिताइन का कहीं पता न लगता। एक अंगुल जमीन न बचती। इन्हीं में एक सरदार था कि सबको सँभाल लिया। तो क्या अब उन्हीं के साथ बदी करेंगे? अरे बहू! कोई कुछ साथ लाया है कि ले जायगा? यही नेक-बदी रह जाती है। बुरे का फल बुरा होता है। आदमी न देखे, पर अल्लाह सब कुछ देखता है।’ बहू जी पर घड़ों पानी पड़ गया। जी चाहता था कि धरती फट जाती, तो उसमें समा जाती। स्त्रियॉँ स्वभावत: लज्जावती होती हैं। उनमें आत्माभिमान की मात्रा अधिक होती है। निन्दा-अपमान उनसे सहन नहीं हो सकता है। सिर झुकाये हुए बोली—बुआ! मैं इन बातों को क्या जानूँ? मैंने तो आज ही तुम्हारे मुँह से सुनी है। कौन-सी तरकारियॉँ हैं? मुंशी सत्यनारायण अपने कमरे में लेटे हुए कुंजड़िन की बातें सुन रहे थे, उसके चले जाने के बाद आकर स्त्री से पूछने लगे—यह शैतान की खाला क्या कह रही थी। स्त्री ने पति की ओर से मुंह फेर लिया और जमीन की ओर ताकते हुए बोली—क्या तुमने नहीं सुना? तुम्हारा गुन-गान कर रही थी। तुम्हारे पीछे देखो, किस-किसके मुँह से ये बातें सुननी पड़ती हैं और किस-किससे मुँह छिपाना पड़ता है। मुंशी जी अपने कमरे में लौट आये। स्त्री को कुछ उत्तर नहीं दिया। आत्मा लज्जा से परास्त हो गयी। जो मनुष्य सदैव सर्व-सम्मानित रहा हो; जो सदा आत्माभिमान से सिर उठा कर चलता रहा हो, जिसकी सुकृति की सारे शहर में चर्चा होती हो, वह कभी सर्वथा लज्जाशून्य नहीं हो सकता; लज्जा कुपथ की सबसे बड़ी शत्रु है। कुवासनाओं के भ्रम में पड़ कर मुंशी जी ने समझा था, मैं इस काम को ऐसी गुप्त-रीति से पूरा कर ले जाऊँगा कि किसी को कानों-कान खबर न होगी, पर उनका यह मनोरथ सिद्ध न हुआ। बाधाऍं आ खड़ी हुई। उनके हटाने में उन्हें बड़े दुस्साहस से काम लेना पड़ा; पर यह भी उन्होंने लज्जा से बचने के निमित्त किया। जिसमें यह कोई न कहे कि अपनी स्वामिनी को धोखा दिया। इतना यत्न करने पर भी निंदा से न बच सके। बाजार का सौदा बेचनेवालियॉँ भी अब अपमान करतीं हैं। कुवासनाओं से दबी हुई लज्जा-शक्ति इस कड़ी चोट को सहन न कर सकी। मुंशी जी सोचने लगे, अब मुझे धन-सम्पत्ति मिल जायगी, ऐश्वर्यवान् हो जाऊँगा, परन्तु निन्दा से मेरा पीछा न छूटेगा। अदालत का फैसला मुझे लोक-निन्दा से न बचा सकेगा। ऐश्वर्य का फल क्या है?—मान और मर्यादा। उससे हाथ धो बैठा, तो ऐश्वर्य को लेकर क्या करुँगा? चित्त की शक्ति खोकर, लोक-लज्जा सहकर, जनसमुदाय में नीच बन कर और अपने घर में कलह का बीज बोकर यह सम्पत्ति मेरे किस काम आयेगी? और यदि वास्तव में कोई न्याय-शक्ति हो और वह मुझे इस कुकृत्य का दंड दे, तो मेरे लिए सिवा मुख में कालिख लगा कर निकल जाने के और कोई मार्ग न रहेगा। सत्यवादी मनुष्य पर कोई विपत्त पड़ती हैं, तो लोग उनके साथ सहानुभूति करते हैं। दुष्टों की विपत्ति लोगों के लिए व्यंग्य की सामग्री बन जाती है। उस अवस्था में ईश्वर अन्यायी ठहराया जाता है; मगर दुष्टों की विपत्ति ईश्वर के न्याय को सिद्ध करती है। परमात्मन! इस दुर्दशा से किसी तरह मेरा उद्धार करो! क्यों न जाकर मैं भानुकुँवरि के पैरों पर गिर पड़ूँ और विनय करुँ कि यह मुकदमा उठा लो? शोक! पहले यह बात मुझे क्यों न सूझी? अगर कल तक में उनके पास चला गया होता, तो बात बन जाती; पर अब क्या हो सकता है। आज तो फैसला सुनाया जायगा। मुंशी जी देर तक इसी विचार में पड़े रहे, पर कुछ निश्चय न कर सके कि क्या करें। भानुकुँवरि को भी विश्वास हो गया कि अब गॉँव हाथ से गया। बेचारी हाथ मल कर रह गयी। रात-भर उसे नींद न आयी, रह-रह कर मुंशी सत्यनारायण पर क्रोध आता था। हाय पापी! ढोल बजा कर मेरा पचास हजार का माल लिए जाता है और मैं कुछ नहीं कर सकती। आजकल के न्याय करने वाले बिलकुल ऑंख के अँधे हैं। जिस बात को सारी दुनिया जानती है, उसमें भी उनकी दृष्टि नहीं पहुँचती। बस, दूसरों को ऑंखों से देखते हैं। कोरे कागजों के गुलाम हैं। न्याय वह है जो दूध का दूध, पानी का पानी कर दे; यह नहीं कि खुद ही कागजों के धोखे में आ जाय, खुद ही पाखंडियों के जाल में फँस जाय। इसी से तो ऐसी छली, कपटी, दगाबाज, और दुरात्माओं का साहस बढ़ गया है। खैर, गॉँव जाता है तो जाय; लेकिन सत्यनारायण, तुम शहर में कहीं मुँह दिखाने के लायक भी न रहे। इस खयाल से भानुकुँवरि को कुछ शान्ति हुई। शत्रु की हानि मनुष्य को अपने लाभ से भी अधिक प्रिय होती है, मानव-स्वभाव ही कुछ ऐसा है। तुम हमारा एक गॉँव ले गये, नारायण चाहेंगे तो तुम भी इससे सुख न पाओगे। तुम आप नरक की आग में जलोगे, तुम्हारे घर में कोई दिया जलाने वाला न रह जायगा। फैसले का दिन आ गया। आज इजलास में बड़ी भीड़ थी। ऐसे-ऐसे महानुभाव उपस्थित थे, जो बगुलों की तरह अफसरों की बधाई और बिदाई के अवसरों ही में नजर आया करते हैं। वकीलों और मुख्तारों की पलटन भी जमा थी। नियत समय पर जज साहब ने इजलास सुशोभित किया। विस्तृत न्याय भवन में सन्नाटा छा गया। अहलमद ने संदूक से तजबीज निकाली। लोग उत्सुक होकर एक-एक कदम और आगे खिसक गए। जज ने फैसला सुनाया—मुद्दई का दावा खारिज। दोनों पक्ष अपना-अपना खर्च सह लें। यद्यपि फैसला लोगों के अनुमान के अनुसार ही था, तथापि जज के मुँह से उसे सुन कर लोगों में हलचल-सी मच गयी। उदासीन भाव से फैसले पर आलोचनाऍं करते हुए लोग धीरे-धीरे कमरे से निकलने लगे। एकाएक भानुकुँवरि घूँघट निकाले इजलास पर आ कर खड़ी हो गयी। जानेवाले लौट पड़े। जो बाहर निकल गये थे, दौड़ कर आ गये। और कौतूहलपूर्वक भानुकुँवरि की तरफ ताकने लगे। भानुकुँवरि ने कंपित स्वर में जज से कहा—सरकार, यदि हुक्म दें, तो मैं मुंशी जी से कुछ पूछूँ। यद्यपि यह बात नियम के विरुद्ध थी, तथापि जज ने दयापूर्वक आज्ञा दे दी। तब भानुकुँवरि ने सत्यनारायण की तरफ देख कर कहा—लाला जी, सरकार ने तुम्हारी डिग्री तो कर ही दी। गॉँव तुम्हें मुबारक रहे; मगर ईमान आदमी का सब कुछ है। ईमान से कह दो, गॉँव किसका है? हजारों आदमी यह प्रश्न सुन कर कौतूहल से सत्यनारायण की तरफ देखने लगे। मुंशी जी विचार-सागर में डूब गये। हृदय में संकल्प और विकल्प में घोर संग्राम होने लगा। हजारों मनुष्यों की ऑंखें उनकी तरफ जमी हुई थीं। यथार्थ बात अब किसी से छिपी न थी। इतने आदमियों के सामने असत्य बात मुँह से निकल न सकी। लज्जा से जबान बंद कर ली—‘मेरा’ कहने में काम बनता था। कोई बात न थी; किंतु घोरतम पाप का दंड समाज दे सकता है, उसके मिलने का पूरा भय था। ‘आपका’ कहने से काम बिगड़ता था। जीती-जितायी बाजी हाथ से निकली जाती थी, सर्वोत्कृष्ट काम के लिए समाज से जो इनाम मिल सकता है, उसके मिलने की पूरी आशा थी। आशा के भय को जीत लिया। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे ईश्वर ने मुझे अपना मुख उज्जवल करने का यह अंतिम अवसर दिया है। मैं अब भी मानव-सम्मान का पात्र बन सकता हूँ। अब अपनी आत्मा की रक्षा कर सकता हूँ। उन्होंने आगे बढ़ कर भानुकुँवरि को प्रणाम किया और कॉँपते हुए स्वर से बोले—आपका! हजारों मनुष्यों के मुँह से एक गगनस्पर्शी ध्वनि निकली—सत्य की जय! जज ने खड़े होकर कहा—यह कानून का न्याय नहीं, ईश्वरीय न्याय है! इसे कथा न समझिएगा; यह सच्ची घटना है। भानुकुँवरि और सत्य नारायण अब भी जीवित हैं। मुंशी जी के इस नैतिक साहस पर लोग मुगध हो गए। मानवीय न्याय पर ईश्वरीय न्याय ने जो विलक्षण विजय पायी, उसकी चर्चा शहर भर में महीनों रही। भानुकुँवरि मुंशी जी के घर गयी, उन्हें मना कर लायीं। फिर अपना सारा कारोबार उन्हें सौंपा और कुछ दिनों उपरांत यह गॉँव उन्हीं के नाम हिब्बा कर दिया। मुंशी जी ने भी उसे अपने अधिकार में रखना उचित न समझा, कृष्णार्पण कर दिया। अब इसकी आमदनी दीन-दुखियों और विद्यार्थियों की सहायता में खर्च होती।
Aansuon Ki Holi Munshi-Premchand आँसुओं की होली - मुंशी प्रेम चंद
Hindi Kahani - हिंदी कहानी Aansuon Ki Holi Munshi-Premchand आँसुओं की होली - मुंशी प्रेम चंद
नामों को बिगाड़ने की प्रथा न-जाने कब चली और कहाँ शुरू हुई। इस संसारव्यापी रोग का पता लगाये तो ऐतिहासिक संसार में अवश्य ही अपना नाम छोड़ जाए। पंडित जी का नाम
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तो श्रीविलास था; पर मित्र लोग सिलबिल कहा करते थे। नामों का असर चरित्र पर कुछ न कुछ पड़ जाता है। बेचारे सिलबिल सचमुच ही सिलबिल थे। दफ्तर जा रहे हैं; मगर पाजामे का इजारबंद नीचे लटक रहा है। सिर पर फेल्ट-कैप है; पर लम्बी-सी चुटिया पीछे झाँक रही है, अचकन यों बहुत सुन्दर है। न जाने उन्हें त्योहारों से क्या चिढ़ थी। दिवाली गुजर जाती पर वह भलामानस कौड़ी हाथ में न लेता। और होली का दिन तो उनकी भीषण परीक्षा का दिन था। तीन दिन वह घर से बाहर न निकलते। घर पर भी काले कपड़े पहने बैठे रहते थे। यार लोग टोह में रहते थे कि कहीं बचा फँस जाएँ मगर घर में घुस कर तो फौजदारी नहीं की जाती। एक-आधा बार फँसे भी, मगर घिघिया-पुदिया कर बेदाग निकल गये। लेकिन अबकी समस्या बहुत कठिन हो गयी थी। शास्त्रों के अनुसार ह्म वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने के बाद उन्होंने विवाह किया था। ब्रह्मचर्य के परिपक्व होने में जो थोड़ी-बहुत कसर रही, वह तीन वर्ष के गौने की मुद्दत ने पूरी कर दी। यद्यपि स्त्री से कोई शंका न थी, तथापि वह औरतों को सिर चढ़ाने के हामी न थे। इस मामले में उन्हें अपना वही पुराना-धुराना ढंग पसंद था। बीबी को जब कस कर डॉट दिया, तो उसकी मजाल है कि रंग हाथ से छुए। विपत्ति यह थी कि ससुराल के लोग भी होली मनाने आनेवाले थे। पुरानी मसल है : 'बहन अंदर तो भाई सिकंदर'। इन सिकंदरों के आक्रमण से बचने का उन्हें कोई उपाय न सूझता था। मित्र लोग घर में न जा सकते थे; लेकिन सिकंदरों को कौन रोक सकता है ? स्त्री ने आँख फाड़ कर कहा -अरे भैया ! क्या सचमुच रंग न घर लाओगे ? यह कैसी होली है, बाबा ? सिलबिल ने त्योरियाँ चढ़ा कर कहा -बस, मैंने एक बार कह दिया और बात दोहराना मुझे पसंद नहीं। घर में रंग नहीं आयेगा और न कोई छुएगा ? मुझे कपड़ों पर लाल छींटे देख कर मचली आने लगती है। हमारे घर में ऐसी ही होली होती है। स्त्री ने सिर झुका कर कहा -तो न लाना रंग-संग, मुझे रंग ले कर क्या करना है। जब तुम्हीं रंग न छुओगे, तो मैं कैसे छू सकती हूँ। सिलबिल ने प्रसन्न हो कर कहा -निस्संदेह यही साधवी स्त्री का धर्म है। 'लेकिन भैया तो आनेवाले हैं। वह क्यों मानेंगे ?' 'उनके लिए भी मैंने एक उपाय सोच लिया है। उसे सफल बनाना तुम्हारा काम है। मैं बीमार बन जाऊँगा। एक चादर ओढ़ कर लेट रहूँगा। तुम कहना इन्हें ज्वर आ गया। बस; चलो छुट्टी हुई।' स्त्री ने आँख नचा कर कहा -ऐ नौज; कैसी बातें मुँह से निकालते हो ! ज्वर जाए मुद्दई के घर, यहाँ आये तो मुँह झुलस दूँ निगोड़े का। 'तो फिर दूसरा उपाय ही क्या है ?' 'तुम ऊपरवाली छोटी कोठरी में छिप रहना, मैं कह दूँगी, उन्होंने जुलाब लिया है। बाहर निकलेंगे तो हवा लग जायगी।' पंडित जी खिल उठे , बस, बस, यही सबसे अच्छा। 1389 होली का दिन है। बाहर हाहाकार मचा हुआ है। पुराने जमाने में अबीर और गुलाल के सिवा और कोई रंग न खेला जाता था। अब नीले, हरे, काले, सभी रंगों का मेल हो गया है और इस संगठन से बचना आदमी के लिए तो संभव नहीं। हाँ, देवता बचें। सिलबिल के दोनों साले मुहल्ले भर के मर्दों, औरतों, बच्चों और बूढ़ों का निशाना बने हुए थे। बाहर के दीवानखाने के फर्श, दीवारें , यहाँ तक की तसवीरें भी रंग उठी थीं। घर में भी यही हाल था। मुहल्ले की ननदें भला कब मानने लगी थीं। परनाला तक रंगीन हो गया था। बड़े साले ने पूछा-क्यों री चम्पा, क्या सचमुच उनकी तबीयत अच्छी नहीं ? खाना खाने भी न आये ? चम्पा ने सिर झुका कर कहा -हाँ भैया, रात ही से पेट में कुछ दर्द होने लगा। डाक्टर ने हवा में निकलने को मना कर दिया है। जरा देर बाद छोटे साले ने कहा -क्यों जीजी जी, क्या भाई साहब नीचे नहीं आयेंगे ? ऐसी भी क्या बीमारी है ! कहो तो ऊपर जा कर देख आऊँ। चम्पा ने उसका हाथ पकड़ कर कहा -नहीं-नहीं, ऊपर मत जैयो ! वह रंग-वंग न खेलेंगे। डाक्टर ने हवा में निकलने को मना कर दिया है। दोनों भाई हाथ मल कर रह गये।
सहसा छोटे भाई को एक बात सूझी , जीजा जी के कपड़ों के साथ क्यों न होली खेलें। वे तो नहीं बीमार हैं। बड़े भाई के मन में यह बात बैठ गयी। बहन बेचारी अब क्या करती ? सिकंदरों ने कुंजियाँ उसके हाथ से लीं और सिलबिल के सारे कपड़े निकाल-निकाल कर रंग डाले। रूमाल तक न छोड़ा। जब चम्पा ने उन कपड़ों को आँगन में अलगनी पर सूखने को डाल दिया तो ऐसा जान पड़ा, मानो किसी रंगरेज ने ब्याह के जोड़े रँगे हों। सिलबिल ऊपर बैठे-बैठे यह तमाशा देख रहे थे; पर जबान न खोलते थे। छाती पर साँप-सा लोट रहा था। सारे कपड़े खराब हो गये, दफ्तर जाने को भी कुछ न बचा। इन दुष्टों को मेरे कपड़ों से न जाने क्या बैर था। घर में नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बन रहे थे। मुहल्ले की एक ब्राह्मणी के साथ चम्पा भी जुटी हुई थी। दोनों भाई और कई अन्य सज्जन आँगन में भोजन करने बैठे, तो बड़े साले ने चम्पा से पूछा-कुछ उनके लिए भी खिचड़ी-विचड़ी बनायी है ? पूरियाँ तो बेचारे आज खा न सकेंगे ! चम्पा ने कहा -अभी तो नहीं बनायी, अब बना लूँगी। 'वाह री तेरी अक्ल ! अभी तक तुझे इतनी फिक्र नहीं कि वह बेचारे खायेंगे क्या। तू तो इतनी लापरवाह कभी न थी। जा निकाल ला जल्दी से चावल और मूँग की दाल।' लीजिए , खिचड़ी पकने लगी। इधर मित्रों ने भोजन करना शुरू किया। सिलबिल ऊपर बैठे अपनी किस्मत को रो रहे थे। उन्हें इस सारी विपत्ति का एक ही कारण मालूम होता था , विवाह ! चम्पा न आती, तो ये साले क्यों आते, कपड़े क्यों खराब होते, होली के दिन मूँग की खिचड़ी क्यों खाने को मिलती ? मगर अब पछताने से क्या होता है। जितनी देर में लोगों ने भोजन किया, उतनी देर में खिचड़ी तैयार हो गयी। बड़े साले ने खुद चम्पा को ऊपर भेजा कि खिचड़ी की थाली ऊपर दे आये। सिलबिल ने थाली की ओर कुपित नेत्रों से देख कर कहा -इसे मेरे सामने से हटा ले जाव। 'क्या आज उपवास ही करोगे ?' 'तुम्हारी यही इच्छा है, तो यही सही।' 'मैंने क्या किया। सबेरे से जुती हुई हूँ। भैया ने खुद खिचड़ी डलवायी और मुझे यहाँ भेजा।' 'हाँ, वह तो मैं देख रहा हूँ कि मैं घर का स्वामी नहीं। सिकंदरों ने उस पर कब्जा जमा लिया है, मगर मैं यह नहीं मान सकता कि तुम चाहतीं तो और लोगों के पहले ही मेरे पास थाली न पहुँच जाती। मैं इसे पतिव्रत धर्म के विरुद्ध समझता हूँ, और क्या कहूँ !' 'तुम तो देख रहे थे कि दोनों जने मेरे सिर पर सवार थे।' 'अच्छी दिल्लगी है कि और लोग तो समोसे और खस्ते उड़ायें और मुझे मूँग की खिचड़ी दी जाए। वाह रे नसीब !' 'तुम इसे दो-चार कौर खा लो, मुझे ज्यों ही अवसर मिलेगा, दूसरी थाली लाऊँगी।' 'सारे कपड़े रँगवा डाले, दफ्तर कैसे जाऊँगा ? यह दिल्लगी मुझे जरा भी नहीं भाती। मैं इसे बदमाशी कहता हूँ। तुमने संदूक की कुंजी क्यों दे दी ? क्या मैं इतना पूछ सकता हूँ ?' 'जबरदस्ती छीन ली। तुमने सुना नहीं ? करती क्या ?' 'अच्छा, जो हुआ सो हुआ, यह थाली ले जाव। धर्म समझना तो दूसरी थाली लाना, नहीं तो आज व्रत ही सही।' एकाएक पैरों की आहट पा कर सिलबिल ने सामने देखा, तो दोनों साले आ रहे हैं। उन्हें देखते ही बिचारे ने मुँह बना लिया, चादर से शरीर ढँक लिया और कराहने लगे। बड़े साले ने कहा -कहिए, कैसी तबीयत है ? थोड़ी-सी खिचड़ी खा लीजिए। सिलबिल ने मुँह बना कर कहा -अभी तो कुछ खाने की इच्छा नहीं है। 'नहीं, उपवास करना तो हानिकर होगा। खिचड़ी खा लीजिए।' बेचारे सिलबिल ने मन में इन दोनों शैतानों को खूब कोसा और विष की भाँति खिचड़ी कंठ के नीचे उतारी। आज होली के दिन खिचड़ी ही भाग्य में लिखी थी ! जब तक सारी खिचड़ी समाप्त न हो गयी, दोनों वहाँ डटे रहे, मानो जेल के अधिकारी किसी अनशन व्रतधारी कैदी को भोजन करा रहे हों। बेचारे को ठूँस-ठूँस कर खिचड़ी खानी पड़ी। पकवानों के लिए गुंजायश ही न रही। दस बजे रात को चम्पा उत्तम पदार्थों का थाल लिये पतिदेव के पास पहुँची ! महाशय मन ही मन झुँझला रहे थे। भाइयों के सामने मेरी परवाह कौन करता है। न जाने कहाँ से दोनों शैतान फट पड़े। दिन भर उपवास कराया और अभी तक भोजन का कहीं पता नहीं। बारे चम्पा को थाल लाते देख कर कुछ अग्नि शांत हुई। बोले - अब तो बहुत सबेरा है, एक-दो घंटे बाद क्यों न आयीं ? चम्पा ने सामने थाली रख कर कहा -तुम तो न हारी ही मानते हो, न जीती। अब आखिर ये दो मेहमान आये हुए हैं, इनकी सेवा-सत्कार न करूँ तो भी तो काम नहीं चलता। तुम्हीं को बुरा लगेगा। कौन रोज आयेंगे। 'ईश्वर न करे कि रोज आयें, यहाँ तो एक ही दिन में बधिया बैठ गयी।' थाल की सुगंधमय, तरबतर चीजें देख कर सहसा पंडित जी के मुखारविंद पर मुस्कान की लाली दौड़ गयी। एक-एक चीज खाते थे और चम्पा को सराहते थे , सच कहता हूँ, चम्पा; मैंने ऐसी चीजें कभी नहीं खायी थीं। हलवाई साला क्या बनायेगा। जी चाहता है, कुछ इनाम दूँ। 'तुम मुझे बना रहे हो। क्या करूँ जैसा बनाना आता है, बना लायी।' 'नहीं जी, सच कह रहा हूँ। मेरी तो आत्मा तक तृप्त हो गयी। आज मुझे ज्ञात हुआ कि भोजन का सम्बन्ध उदर से इतना नहीं, जितना आत्मा से है। बतलाओ, क्या इनाम दूँ ?' 'जो मागूँ, वह दोगे ?' 'दूँगा , जनेऊ की कसम खा कर कहता हूँ !' 'न दो तो मेरी बात जाए।' 'कहता हूँ भाई, अब कैसे कहूँ। क्या लिखा-पढ़ी कर दूँ ?' 'अच्छा, तो माँगती हूँ। मुझे अपने साथ होली खेलने दो। 'पंडित जी का रंग उड़ गया। आँखें फाड़ कर बोले - होली खेलने दूँ ? मैं तो होली खेलता नहीं। कभी नहीं खेला। होली खेलना होता, तो घर में छिप कर क्यों बैठता। 'और के साथ मत खेलो; लेकिन मेरे साथ तो खेलना ही पड़ेगा।' 'यह मेरे नियम के विरुद्ध है। जिस चीज को अपने घर में उचित समझूँ उसे किस न्याय से घर के बाहर अनुचित समझूँ, सोचो। ' चम्पा ने सिर नीचा करके कहा -घर में ऐसी कितनी बातें उचित समझते हो, जो घर के बाहर करना अनुचित ही नहीं पाप भी है। पंडित जी झेंपते हुए बोले - अच्छा भाई, तुम जीती, मैं हारा। अब मैं तुम से यही दान माँगता हूँ... 'पहले मेरा पुरस्कार दे दो, पीछे मुझसे दान माँगना' , यह कहते हुए चम्पा ने लोटे का रंग उठा लिया और पंडित जी को सिर से पाँव तक नहला दिया। जब तक वह उठ कर भागें उसने मुट्ठी भर गुलाल ले कर सारे मुँह में पोत दिया। पंडित जी रोनी सूरत बना कर बोले- अभी और कसर बाकी हो, तो वह भी पूरी कर लो। मैं जानता था कि तुम मेरी आस्तीन का साँप बनोगी। अब और कुछ रंग बाकी नहीं रहा ? चम्पा ने पति के मुख की ओर देखा, तो उस पर मनोवेदना का गहरा रंग झलक रहा था। पछता कर बोली- क्या तुम सचमुच बुरा मान गये हो ? मैं तो समझती थी कि तुम केवल मुझे चिढ़ा रहे हो। श्रीविलास ने काँपते हुए स्वर में कहा- नहीं चम्पा, मुझे बुरा नहीं लगा। हाँ, तुमने मुझे उस कर्तव्य की याद दिला दी, जो मैं अपनी कायरता के कारण भुला बैठा था। वह सामने जो चित्र देख रही हो, मेरे परम मित्र मनहरनाथ का है, जो अब संसार में नहीं है। तुमसे क्या कहूँ, कितना सरस, कितना भावुक, कितना साहसी आदमी था ! देश की दशा देख-देख कर उसका खून जलता रहता था। ह्म भी कोई उम्र होती है, पर वह उसी उम्र में अपने जीवन का मार्ग निश्चित कर चुका था। सेवा करने का अवसर पा कर वह इस तरह उसे पकड़ता था, मानो सम्पत्ति हो। जन्म का विरागी था। वासना तो उसे छू ही न गयी थी। हमारे और साथी सैर-सपाटे करते थे; पर उसका मार्ग सबसे अलग था। सत्य के लिए प्राण देने को तैयार, कहीं अन्याय देखा और भवें तन गयीं, कहीं पत्रों में अत्याचार की खबर देखी और चेहरा तमतमा उठा। ऐसा तो मैंने आदमी ही नहीं देखा। ईश्वर ने अकाल ही बुला लिया, नहीं तो वह मनुष्यों में रत्न होता। किसी मुसीबत के मारे का उद्धार करने को अपने प्राण हथेली पर लिये फिरता था। स्त्री-जाति का इतना आदर और सम्मान कोई क्या करेगा ? स्त्री उसके लिए पूजा और भक्ति की वस्तु थी। पाँच वर्ष हुए, यही होली का दिन था। मैं भंग के नशे में चूर, रंग में सिर से पाँव तक नहाया हुआ, उसे गाना सुनने के लिए बुलाने गया, तो देखा कि वह कपड़े पहने कहीं जाने को तैयार है। पूछा-कहाँ जा रहे हो ? उसने मेरा हाथ पकड़ कर कहा -तुम अच्छे वक्त पर आ गये, नहीं तो मुझे जाना पड़ता। एक अनाथ बुढ़िया मर गयी है, कोई उसे कंधा देनेवाला नहीं मिलता। कोई किसी मित्र से मिलने गया हुआ है, कोई नशे में चूर पड़ा हुआ है, कोई मित्रों की दावत कर रहा है, कोई महफिल सजाये बैठा है। कोई लाश को उठानेवाला नहीं। ब्राह्मण-क्षत्री उस चमारिन की लाश कैसे छुएँगे, उनका तो धर्म भ्रष्ट होता है, कोई तैयार नहीं होता ! बड़ी मुश्किल से दो कहार मिले हैं। एक मैं हूँ, चौथे आदमी की कमी थी, सो ईश्वर ने तुम्हें भेज दिया। चलो, चलें। हाय ! अगर मैं जानता कि यह प्यारे मनहर का आदेश है, तो आज मेरी आत्मा को इतनी ग्लानि न होती। मेरे घर कई मित्र आये हुए थे। गाना हो रहा था। उस वक्त लाश उठा कर नदी जाना मुझे अप्रिय लगा। बोला - इस वक्त तो भाई, मैं नहीं जा सकूँगा। घर पर मेहमान बैठे हुए हैं। मैं तुम्हें बुलाने आया था। मनहर ने मेरी ओर तिरस्कार के नेत्रों से देख कर कहा -अच्छी बात है, तुम जाओ; मैं और कोई साथी खोज लूँगा। मगर तुमसे मुझे ऐसी आशा नहीं थी। तुमने भी वही कहा, जो तुमसे पहले औरों ने कहा था। कोई नयी बात नहीं थी। अगर हम लोग अपने कर्तव्य को भूल न गये होते, तो आज यह दशा ही क्यों होती ? ऐसी होली को धिक्कार है ! त्योहार, तमाशा देखने, अच्छी-अच्छी चीजें खाने और अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने का नाम नहीं है। यह व्रत है, तप है, अपने भाइयों से प्रेम और सहानुभूति करना ही त्योहार का खास मतलब है और कपड़े लाल करने के पहले खून को लाल कर लो। सफेद खून पर यह लाली शोभा नहीं देती। यह कह कर वह चला गया। मुझे उस वक्त यह फटकारें बहुत बुरी मालूम हुईं। अगर मुझमें वह सेवा-भाव न था, तो उसे मुझे यों धिक्कारने का कोई अधिकार न था। घर चला आया; पर वे बातें बराबर मेरे कानों में गूँजती रहीं। होली का सारा मजा बिगड़ गया। एक महीने तक हम दोनों की मुलाकात न हुई। कालेज इम्तहान की तैयारी के लिए बंद हो गया था। इसलिए कालेज में भी भेंट न होती थी। मुझे कुछ खबर नहीं, वह कब और कैसे बीमार पड़ा, कब अपने घर गया। सहसा एक दिन मुझे उसका एक पत्र मिला। हाय ! उस पत्र को पढ़कर आज भी छाती फटने लगती है। श्रीविलास एक क्षण तक गला रुक जाने के कारण बोल न सके। फिर बोले - किसी दिन तुम्हें फिर दिखाऊँगा। लिखा था, मुझसे आखिरी बार मिल जा, अब शायद इस जीवन में भेंट न हो। खत मेरे हाथ से छूट कर गिर पड़ा। उसका घर मेरठ के जिले में था। दूसरी गाड़ी जाने में आधा घंटे की कसर थी। तुरंत चल पड़ा। मगर उसके दर्शन न बदे थे। मेरे पहुँचने के पहले ही वह सिधार चुका था। चम्पा, उसके बाद मैंने होली नहीं खेली, होली ही नहीं, और सभी त्योहार छोड़ दिये। ईश्वर ने शायद मुझे क्रिया की शक्ति नहीं दी। अब बहुत चाहता हूँ कि कोई मुझसे सेवा का काम ले। खुद आगे नहीं बढ़ सकता; लेकिन पीछे चलने को तैयार हूँ। पर मुझसे कोई काम लेनेवाला भी नहीं; लेकिन आज वह रंग डाल कर तुमने मुझे उस धिक्कार की याद दिला दी। ईश्वर मुझे ऐसी शक्ति दे कि मैं मन में ही नहीं, कर्म में भी मनहर बनूँ। यह कहते हुए श्रीविलास ने तश्तरी से गुलाल निकाला और उसे चित्र पर छिड़क कर प्रणाम किया।
पांचवीं तक स्लेट की बत्ती को जीभ से चाटकर कैल्शियम की कमी पूरी करना हमारी स्थाई आदत थी लेकिन इसमें पापबोध भी था कि कहीं विद्यामाता नाराज न हो जायें । पढ़ाई का तनाव हमने पेन्सिल का पिछला हिस्सा चबाकर मिटाया था ।
पुस्तक के
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बीच विद्या , पौधे की पत्ती और मोरपंख रखने से हम होशियार हो जाएंगे ऐसा हमारा दृढ विश्वास था ।
कपड़े के थैले में किताब कॉपियां जमाने का विन्यास हमारा रचनात्मक कौशल था ।
हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते तब कॉपी किताबों पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का वार्षिक उत्सव था ।
माता पिता को हमारी पढ़ाई की कोई फ़िक्र नहीं थी , न हमारी पढ़ाई उनकी जेब पर बोझा थी । सालों साल बीत जाते पर माता पिता के कदम हमारे स्कूल में न पड़ते थे ।
एक दोस्त को साईकिल के डंडे पर और दूसरे को पीछे कैरियर पर बिठा हमने कितने रास्ते नापें हैं , यह अब याद नहीं बस कुछ धुंधली सी स्मृतियां हैं ।
स्कूल में पिटते हुए और मुर्गा बनते हमारा ईगो हमें कभी परेशान नहीं करता था , दरअसल हम जानते ही नही थे कि ईगो होता क्या है ?
पिटाई हमारे दैनिक जीवन की सहज सामान्य प्रक्रिया थी ,पीटने वाला और पिटने वाला दोनो खुश थे , पिटने वाला इसलिए कि कम पिटे , पीटने वाला इसलिए खुश कि हाथ साफ़ हुआ।
हम अपने माता पिता को कभी नहीं बता पाए कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं क्योंकि हमें आई लव यू कहना नहीं आता था ।
आज हम गिरते - सम्भलते , संघर्ष करते दुनियां का हिस्सा बन चुके हैं , कुछ मंजिल पा गये हैं तो कुछ न जाने कहां खो गए हैं ।
हम दुनिया में कहीं भी हों लेकिन यह सच है , हमे हकीकतों ने पाला है , हम सच की दुनियां में थे ।
कपड़ों को सिलवटों से बचाए रखना और रिश्तों को औपचारिकता से बनाए रखना हमें कभी नहीं आया इस मामले में हम सदा मूर्ख ही रहे ।
हम आज भी ख्वाब बुन रहे हैं , शायद ख्वाब बुनना ही हमें जिन्दा रखे है वरना जो जीवन हम जीकर आये हैं उसके सामने यह वर्तमान कुछ भी नहीं ।
Mata Ka Hriday Munshi Premchand माता का हृदय - मुंशी प्रेम चंद
1 माधवी की आँखों में सारा संसार अँधेरा हो रहा था। कोई अपना मददगार न दिखायी देता था। कहीं आशा की झलक न थी। उस निर्धन घर में वह अकेली पड़ी रोती थी और
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कोई आँसू पोंछनेवाला न था। उसके पति को मरे हुए 22 वर्ष हो गये थे। घर में कोई सम्पत्ति न थी। उसने न-जाने किन तकलीफों से अपने बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा किया था। वही जवान बेटा आज उसकी गोद से छीन लिया गया था और छीननेवाले कौन थे ? अगर मृत्यु ने छीना होता तो वह सब्र कर लेती। मौत से किसी को द्वेष नहीं होता। मगर स्वार्थियों के हाथों यह अत्याचार असह्य हो रहा था। इस घोर संताप की दशा में उसका जी रह-रहकर इतना विकल हो जाता कि इसी समय चलूँ और उस अत्याचारी से इसका बदला लूँ जिसने उस पर यह निष्ठुर आघात किया है। मारूँ या मर जाऊँँ। दोनों ही में संतोष हो जायगा। कितना सुन्दर, कितना होनहार बालक था ! यही उसके पति की निशानी, उसके जीवन का आधार, उसकी उम्र-भर की कमाई थी। वही लड़का इस वक्त जेल में पड़ा न जाने क्या-क्या तकलीफें झेल रहा होगा ! और उसका अपराध क्या था ? कुछ नहीं। सारा मुहल्ला उस पर जान देता था। विद्यालय के अध्यापक उस पर जान देते थे। अपने-बेगाने सभी तो उसे प्यार करते थे। कभी उसकी कोई शिकायत सुनने ही में नहीं आयी। ऐसे बालक की माता होने पर अन्य माताएँ उसे बधाई देती थीं। कैसा सज्जन, कैसा उदार, कैसा परमार्थी ! खुद भूखों सो रहे मगर क्या मजाल कि द्वार पर आनेवाले अतिथि को रूखा जवाब दे। ऐसा बालक क्या इस योग्य था कि जेल में जाता ! उसका अपराध यही था, वह कभी-कभी सुनने वालों को अपने दुखी भाइयों का दुखड़ा सुनाया करता था, अत्याचार से पीड़ित प्राणियों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहता था। क्या यही उसका अपराध था ? दूसरों की सेवा करना भी अपराध है ? किसी अतिथि को आश्रय देना भी अपराध है ? इस युवक का नाम आत्मानंद था। दुर्भाग्यवश उसमें वे सभी सद्गुण थे जो जेल का द्वार खोल देते हैं। वह निर्भीक था, स्पष्टवादी था, साहसी था, स्वदेशप्रेमी था, निःस्वार्थ था, कर्त्तव्यपरायण था। जेल जाने के लिए इन्हीं गुणों की जरूरत है। स्वाधीन प्राणियों के लिए वे गुण स्वर्ग का द्वार खोल देते हैं, पराधीनों के लिए नरक के ! आत्मानंद के सेवा-कार्य ने, उसकी वक्तृताओं ने और उसके राजनीतिक लेखों ने उसे सरकारी कर्मचारियों की नजरों में चढ़ा दिया था। सारा पुलिस-विभाग नीचे से ऊपर तक उससे सतर्क रहता था, सबकी निगाहें उस पर लगी रहती थीं। आखिर जिले में एक भयंकर डाके ने उन्हें इच्छित अवसर प्रदान कर दिया। आत्मानंद के घर की तलाशी हुई, कुछ पत्र और लेख मिले, जिन्हें पुलिस ने डाके का बीजक सिद्ध किया। लगभग 20 युवकों की एक टोली फाँस ली गयी। आत्मानंद इसका मुखिया ठहराया गया। शहादतें हुईं। इस बेकारी और गिरानी के जमाने में आत्मा से ज्यादा सस्ती और कौन वस्तु हो सकती है ! बेचने को और किसी के पास रह ही क्या गया है ! नाममात्र का प्रलोभन देकर अच्छी-से-अच्छी शहादतें मिल सकती हैं, और पुलिस के हाथ पड़कर तो निकृष्ट-से-निकृष्ट गवाहियाँ भी देववाणी का महत्त्व प्राप्त कर लेती हैं। शहादतें मिल गयीं, महीने-भर तक मुकदमा चला, मुकदमा क्या चला एक स्वाँग चलता रहा और सारे अभियुक्तों को सजाएँ दे दी गयीं। आत्मानंद को सबसे कठोर दंड मिला, 8 वर्ष का कठिन कारावास ! माधवी रोज कचहरी जाती; एक कोने में बैठी सारी कार्रवाई देखा करती। मानवीय चरित्र कितना दुर्बल, कितना निर्दय, कितना नीच है, इसका उसे तब तक अनुमान भी न हुआ था। जब आत्मानंद को सजा सुना दी गयी और वह माता को प्रणाम करके सिपाहियों के साथ चला तो माधवी मूर्छित होकर जमीन पर गिर पड़ी। दो-चार दयालु सज्जनों ने उसे एक ताँगे पर बैठाकर घर तक पहुँचाया। जब से वह होश में आयी है उसके हृदय में शूल-सा उठ रहा है। किसी तरह धैर्य नहीं होता। उस घोर आत्म-वेदना की दशा में अब अपने जीवन का केवल एक लक्ष्य दिखायी देता है और वह इस अत्याचार का बदला है। अब तक पुत्र उसके जीवन का आधार था। अब शत्रुओं से बदला लेना ही उसके जीवन का आधार होगा। जीवन में अब उसके लिए कोई आशा न थी। इस अत्याचार का बदला लेकर वह अपना जन्म सफल समझेगी। इस अभागे नर-पिशाच बागची ने जिस तरह उसे रक्त के आँसू रुलाये हैं उसी भाँति यह भी उसे रुलायेगी। नारी-हृदय कोमल है, लेकिन केवल अनुकूल दशा में; जिस दशा में पुरुष दूसरों को दबाता है, स्त्री शील और विनय की देवी हो जाती है। लेकिन जिसके हाथों अपना सर्वनाश हो गया हो उसके प्रति स्त्री को पुरुष से कम घृणा और क्रोध नहीं होता। अंतर इतना ही है कि पुरुष शस्त्रों से काम लेता है, स्त्री कौशल से। रात भीगती जाती थी और माधवी उठने का नाम न लेती थी। उसका दुःख प्रतिकार के आवेश में विलीन होता जाता था। यहाँ तक कि इसके सिवा उसे और किसी बात की याद ही न रही। उसने सोचा, कैसे यह काम होगा ? कभी घर से नहीं निकली। वैधव्य के 22 साल इसी घर में कट गये; लेकिन अब निकलूँगी। जबरदस्ती निकलूँगी, भिखारिन बनूँगी, टहलनी बनूँगी, झूठ बोलूँगी, सब कुकर्म करूँगी। सत्कर्म के लिए संसार में स्थान नहीं। ईश्वर ने निराश होकर कदाचित् इसकी ओर से मुँह फेर लिया है। जभी तो यहाँ ऐसे-ऐसे अत्याचार होते हैं और पापियों को दंड नहीं मिलता। अब इन्हीं हाथों से उसे दंड दूँगी।
2 संध्या का समय था। लखनऊ के एक सजे हुए बँगले में मित्रों की महफिल जमी हुई थी। गाना-बजाना हो रहा था। एक तरफ आतशबाजियाँ रखी हुई थीं। दूसरे कमरे में मेजों पर खाना चुना जा रहा था। चारों तरफ पुलिस के कर्मचारी नजर आते थे। वह पुलिस के सुपरिंटेंडेंट मिस्टर बागची का बँगला है। कई दिन हुए उन्होंने एक मार्के का मुकदमा जीता था। अफसरों ने खुश होकर उनकी तरक्की कर दी थी। और उसी की खुशी में यह उत्सव मनाया जा रहा था। यहाँ आये दिन ऐसे उत्सव होते रहते थे। मुफ्त के गवैये मिल जाते थे, मुफ्त की आतशबाजी; फल और मेवे और मिठाइयाँ आधे दामों पर बाजार से आ जाती थीं और चट दावत हो जाती थी। दूसरों के जहाँ सौ लगते, वहाँ इनका दस से काम चल जाता था। दौड़-धूप करने को सिपाहियों की फौज थी ही। और यह मार्के का मुकदमा क्या था ? वह जिसमें निरपराध युवकों को बनावटी शहादत से जेल में ठूँस दिया गया था। गाना समाप्त होने पर लोग भोजन करने बैठे। बेगार के मजदूर और पल्लेदार जो बाजार से दावत और सजावट के सामान लाये थे, रोते या दिल में गालियाँ देते चले गये थे; पर एक बुढ़िया अभी तक द्वार पर बैठी हुई थी। अन्य मजदूरों की तरह वह भुनभुनाकर काम न करती थी। हुक्म पाते ही खुश-दिल मजदूर की तरह दौड़-दौड़कर हुक्म बजा लाती थी। यह माधवी थी, जो इस समय मज़ूरनी का वेष धारण करके अपना घातक संकल्प पूरा करने आयी थी। मेहमान चले गये। महफिल उठ गयी। दावत का सामान समेट दिया गया। चारों ओर सन्नाटा छा गया; लेकिन माधवी अभी तक यहीं बैठी थी। सहसा मिस्टर बागची ने पूछा- बुड्ढी, तू यहाँ क्यों बैठी है ? तुझे कुछ खाने को मिल गया ? माधवी- हाँ हुजूर, मिल गया। बागची- तो जाती क्यों नहीं ? माधवी- कहाँ जाऊँ सरकार, मेरा कोई घर-द्वार थोड़े ही है। हुकुम हो तो यहीं पड़ी रहूँ। पाव-भर आटे की परवस्ती हो जाय हुजूर। बागची- नौकरी करेगी ? माधवी- क्यों न करूँगी सरकार, यही तो चाहती हूँ। बागची- लड़का खेला सकती है ? माधवी- हाँ हुजूर, वह मेरे मन का काम है। बागची- अच्छी बात है। तू आज ही से रह। जा, घर में देख, जो काम बतायें, वह कर।
3 एक महीना गुजर गया। माधवी इतना तन-मन से काम करती है कि सारा घर उससे खुश है। बहूजी का मिजाज बहुत ही चिड़चिड़ा है। वह दिन-भर खाट पर पड़ी रहती हैं और बात-बात पर नौकरों पर झल्लाया करती हैं। लेकिन माधवी उनकी घुड़कियों को भी सहर्ष सह लेती है। अब तक मुश्किल से कोई दाई एक सप्ताह से अधिक ठहरी थी। माधवी ही का कलेजा है कि जली-कटी सुनकर भी मुख पर मैल नहीं आने देती। मिस्टर बागची के कई लड़के हो चुके थे, पर यही सबसे छोटा बच्चा बच रहा था। बच्चे पैदा तो हृष्ट-पुष्ट होते, किन्तु जन्म लेते ही उन्हें एक-न-एक रोग लग जाता था और कोई दो-चार महीने, कोई साल-भर जीकर चल देते थे। माँ-बाप दोनों इस शिशु पर प्राण देते थे। उसे जरा जुकाम भी हो तो दोनों विकल हो जाते। स्त्री-पुरुष दोनों शिक्षित थे, पर बच्चे की रक्षा के लिए टोना-टोटका, दुआ-ताबीज, जंतर-मंतर एक से भी उन्हें इनकार न था। माधवी से यह बालक इतना हिल गया कि एक क्षण के लिए भी उसकी गोद से न उतरता। वह कहीं एक क्षण के लिए चली जाती तो रो-रोकर दुनिया सिर पर उठा लेता। वह सुलाती तो सोता, वह दूध पिलाती तो पीता, वह खेलाती तो खेलता, उसी को वह अपनी माता समझता। माधवी के सिवा उसके लिए संसार में कोई अपना न था। बाप को तो वह दिन-भर में केवल दो-चार बार देखता और समझता यह कोई परदेशी आदमी है। माँ आलस्य और कमजोरी के मारे गोद में लेकर टहल न सकती थी। उसे वह अपनी रक्षा का भार सँभालने के योग्य न समझता था, और नौकर-चाकर उसे गोद में लेते तो इतनी बेदर्दी से कि उसके कोमल अंगों में पीड़ा होने लगती थी। कोई उसे ऊपर उछाल देता था, यहाँ तक कि अबोध शिशु का कलेजा मुँह को आ जाता था। उन सबों से वह डरता था। केवल माधवी थी जो उसके स्वभाव को समझती थी। वह जानती थी कि कब क्या करने से बालक प्रसन्न होगा। इसीलिए बालक को भी उससे प्रेम था। माधवी ने समझा था, यहाँ कंचन बरसता होगा; लेकिन उसे देखकर कितना विस्मय हुआ कि बड़ी मुश्किल से महीने का खर्च पूरा पड़ता है। नौकरों से एक-एक पैसे का हिसाब लिया जाता था और बहुधा आवश्यक वस्तुएँ भी टाल दी जाती थीं। एक दिन माधवी ने कहा- बच्चे के लिए कोई तेज गाड़ी क्यों नहीं मँगवा देतीं। गोद में उसकी बाढ़ मारी जाती है। मिसेज़ बागची ने कुंठित होकर कहा- कहाँ से मँगवा दूँ, कम-से-कम 50-60 रुपये में आयेगी। इतने रुपये कहाँ हैं ? माधवी- मालकिन, आप भी ऐसा कहती हैं ! मिसेज़ बागची- झूठ नहीं कहती। बाबूजी की पहली स्त्री से पाँच लड़कियाँ और हैं। सब इस समय इलाहाबाद के एक स्कूल में पढ़ रही हैं। बड़ी की उम्र 15-16 वर्ष से कम न होगी। आधा वेतन तो उधर ही चला जाता है। फिर उनकी शादी की भी तो फिक्र है। पाँचों के विवाह में कम-से-कम 25 हजार लगेंगे। इतने रुपये कहाँ से आयेंगे। मैं चिंता के मारे मरी जाती हूँ। मुझे कोई दूसरी बीमारी नहीं है, केवल यही चिंता का रोग है। माधवी- घूस भी तो मिलती है। मिसेज़ बागची- बुढ़िया, ऐसी कमाई में बरकत नहीं होती। यही क्यों, सच पूछो तो इसी घूस ने हमारी यह दुर्गति कर रखी है। क्या जानें औरों को कैसे हजम होती है। यहाँ तो जब ऐसे रुपये आते हैं तो कोई-न-कोई नुकसान भी अवश्य हो जाता है। एक आता है तो दो लेकर जाता है। बार-बार मना करती हूँ, हराम की कौड़ी घर में न लाया करो, लेकिन मेरी कौन सुनता ! बात यह थी कि माधवी को बालक से स्नेह होता जाता था। उसके अमंगल की कल्पना भी वह न कर सकती थी। वह अब उसी की नींद सोती और उसी की नींद जागती थी। अपने सर्वनाश की बात याद करके एक क्षण के लिए उसे बागची पर क्रोध तो हो आता था और घाव फिर हरा हो जाता था; पर मन पर कुत्सित भावों का आधिपत्य न था। घाव भर रहा था, केवल ठेस लगने से दर्द हो जाता था। उसमें स्वयं टीस या जलन न थी। इस परिवार पर अब उसे दया आती थी। सोचती, बेचारे यह छीन-झपट न करें तो कैसे गुजर हो। लड़कियों का विवाह कहाँ से करेंगे ! स्त्री को जब देखो बीमार ही रहती है। उन पर बाबूजी को एक बोतल शराब भी रोज चाहिए। यह लोग तो स्वयं अभागे हैं। जिसके घर में 5-5 क्वाँरी कन्याएँ हों, बालक हो-होकर मर जाते हों, घरनी सदा बीमार रहती हो, स्वामी शराब का लती हो, उस पर तो यों ही ईश्वर का कोप है। इनसे तो मैं अभागिनी ही अच्छी !
4 दुर्बल बालकों के लिए बरसात बुरी बला है। कभी खाँसी है, कभी ज्वर, कभी दस्त। जब हवा में ही शीत भरी हो तो कोई कहाँ तक बचाये। माधवी एक दिन अपने घर चली गयी थी। बच्चा रोने लगा तो माँ ने एक नौकर को दिया, इसे बाहर से बहला ला। नौकर ने बाहर ले जाकर हरी-हरी घास पर बैठा दिया। पानी बरस कर निकल गया था। भूमि गीली हो रही थी। कहीं-कहीं पानी भी जमा हो गया था। बालक को पानी में छपके लगाने से ज्यादा प्यारा और कौन खेल हो सकता है। खूब प्रेम से उमग-उमगकर पानी में लोटने लगा। नौकर बैठा और आदमियों के साथ गप-शप करता रहा। इस तरह घंटों गुजर गये। बच्चे ने खूब सर्दी खायी। घर आया तो उसकी नाक बह रही थी। रात को माधवी ने आकर देखा तो बच्चा खाँस रहा था। आधी रात के करीब उसके गले से खुरखुर की आवाज निकलने लगी। माधवी का कलेजा सन से हो गया। स्वामिनी को जगाकर बोली- देखो तो, बच्चे को क्या हो गया है। क्या सर्दी-वर्दी तो नहीं लग गयी। हाँ, सर्दी ही तो मालूम होती है। स्वामिनी हकबका कर उठ बैठी और बालक की खुरखुराहट सुनी तो पाँव तले से जमीन निकल गयी। यह भयंकर आवाज उसने कई बार सुनी थी और उसे खूब पहचानती थी। व्यग्र होकर बोली- जरा आग जलाओ। थोड़ा-सा चोकर लाकर एक पोटली बनाओ, सेंकने से लाभ होता है। इन नौकरों से तंग आ गयी। आज कहार जरा देर के लिए बाहर ले गया था, उसी ने सर्दी में छोड़ दिया होगा। सारी रात दोनों बालक को सेंकती रहीं। किसी तरह सबेरा हुआ। मिस्टर बागची को खबर मिली तो सीधे डाक्टर के यहाँ दौड़े। खैरियत इतनी थी कि जल्द एहतियात की गयी। तीन दिन में बच्चा अच्छा हो गया; लेकिन इतना दुर्बल हो गया था कि उसे देखकर डर लगता था। सच पूछो तो माधवी की तपस्या ने बालक को बचाया। माता सोती, पिता सो जाता, किंतु माधवी की आँखों में नींद न थी। खाना-पीना तक भूल गयी। देवताओं की मनौतियाँ करती थी, बच्चे की बलाएँ लेती थी, बिलकुल पागल हो गयी थी। यह वही माधवी है जो अपने सर्वनाश का बदला लेने आयी थी। अपकार की जगह उपकार कर रही थी। विष पिलाने आयी थी, सुधा पिला रही थी। मनुष्य में देवता कितना प्रबल है ! प्रातःकाल का समय था। मिस्टर बागची शिशु के झूले के पास बैठे हुए थे। स्त्री के सिर में पीड़ा हो रही थी। वहीं चारपाई पर लेटी हुई थी और माधवी समीप बैठी बच्चे के लिए दूध गरम कर रही थी। सहसा बागची ने कहा- बूढ़ा, हम जब तक जियेंगे तुम्हारा यश गायेंगे। तुमने बच्चे को जिला लिया। स्त्री- यह देवी बनकर हमारा कष्ट निवारण करने के लिए आ गयी। यह न होती तो न-जाने क्या होता। बूढ़ा, तुमसे मेरी एक विनती है। यों तो मरना-जीना प्रारब्ध के हाथ है, लेकिन अपना-अपना पौरा भी बड़ी चीज है। मैं अभागिनी हूँ। अबकी तुम्हारे ही पुण्य-प्रताप से बच्चा सँभल गया। मुझे डर लग रहा है कि ईश्वर इसे हमारे हाथ से छीन न लें। सच कहती हूँ बूढ़ा, मुझे इसको गोद में लेते डर लगता है। इसे तुम आज से अपना बच्चा समझो। तुम्हारा होकर शायद बच जाय, हम अभागे हैं, हमारा होकर इस पर कोई-न-कोई संकट आता रहेगा। आज से तुम इसकी माता हो जाओ। तुम इसे अपने घर ले जाओ, जहाँ चाहे ले जाओ, तुम्हारी गोद में देकर मुझे फिर कोई चिंता न रहेगी। वास्तव में तुम्हीं इसकी माता हो, मैं तो राक्षसी हूँ। माधवी- बहूजी, भगवान् सब कुशल करेंगे, क्यों जी इतना छोटा करती हो ? मिस्टर बागची- नहीं-नहीं बूढ़ी माता, इसमें कोई हरज नहीं है। मैं मस्तिष्क से तो इन बातों को ढकोसला ही समझता हूँ; लेकिन हृदय से इन्हें दूर नहीं कर सकता। मुझे स्वयं मेरी माताजी ने एक धोबिन के हाथ बेच दिया था। मेरे तीन भाई मर चुके थे। मैं जो बच गया तो माँ-बाप ने समझा बेचने से ही इसकी जान बच गयी। तुम इस शिशु को पालो-पोसो। इसे अपना पुत्र समझो। खर्च हम बराबर देते रहेंगे। इसकी कोई चिंता मत करना। कभी-कभी जब हमारा जी चाहेगा, आकर देख लिया करेंगे। हमें विश्वास है कि तुम इसकी रक्षा हम लोगों से कहीं अच्छी तरह कर सकती हो। मैं कुकर्मी हूँ। जिस पेशे में हूँ, उसमें कुकर्म किये बगैर काम नहीं चल सकता। झूठी शहादतें बनानी ही पड़ती हैं, निरपराधों को फँसाना ही पड़ता है। आत्मा इतनी दुर्बल हो गयी है कि प्रलोभन में पड़ ही जाता हूँ। जानता हूँ कि बुराई का फल बुरा ही होता है; पर परिस्थिति से मजबूर हूँ। अगर न करूँ तो आज नालायक बनाकर निकाल दिया जाऊँ। अँग्रेज हजारों भूलें करें, कोई नहीं पूछता। हिंदुस्तानी एक भूल भी कर बैठे तो सारे अफसर उसके सिर हो जाते हैं। हिंदुस्तानियों को तो कोई बड़ा पद न मिले, वही अच्छा। पद पाकर तो उनकी आत्मा का पतन हो जाता है। उनको हिन्दुस्तानियत का दोष मिटाने के लिए कितनी ही ऐसी बातें करनी पड़ती हैं जिनका अंग्रेज के दिल में कभी खयाल ही पैदा नहीं हो सकता। तो बोलो, स्वीकार करती हो ? माधवी गद्गद होकर बोली- बाबूजी, आपकी इच्छा है तो मुझसे भी जो कुछ बन पड़ेगा, आपकी सेवा कर दूँगी। भगवान् बालक को अमर करें, मेरी तो उनसे यही विनती है। माधवी को ऐसा मालूम हो रहा था कि स्वर्ग के द्वार सामने खुले हैं और स्वर्ग की देवियाँ अंचल फैला-फैलाकर आशीर्वाद दे रही हैं, मानो उसके अंतस्तल में प्रकाश की लहरें-सी उठ रही हैं। इस स्नेहमय सेवा में कितनी शांति थी। बालक अभी तक चादर ओढ़े सो रहा था। माधवी ने दूध गरम हो जाने पर उसे झूले पर से उठाया, तो चिल्ला पड़ी। बालक की देह ठंडी हो गयी थी और मुँह पर पीलापन आ गया था जिसे देखकर कलेजा हिल जाता है, कंठ से आह निकल जाती है और आँखों से आँसू बहने लगते हैं। जिसने उसे एक बार देखा है फिर कभी नहीं भूल सकता। माधवी ने शिशु को गोद से चिपटा लिया, हालाँकि नीचे उतार देना चाहिए था। कुहराम मच गया। माँ बच्चे को गले से लगाये रोती थी; पर उसे जमीन पर न सुलाती थी। क्या बातें हो रही थीं और क्या हो गया। मौत को धोखा देने में आनंद आता है। वह उस वक्त कभी नहीं आती जब लोग उसकी राह देखते हैं। रोगी जब सँभल जाता है, जब वह पथ्य लेने लगता है, उठने-बैठने लगता है, घर-भर खुशियाँ मनाने लगता है, सबको विश्वास हो जाता है कि संकट टल गया, उस वक्त घात में बैठी हुई मौत सिर पर आ जाती है। यही उसकी निठुर लीला है। आशाओं के बाग लगाने में हम कितने कुशल हैं। यहाँ हम रक्त के बीज बोकर सुधा के फल खाते हैं। अग्नि से पौधों को सींचकर शीतल छाँह में बैठते हैं। हा, मंदबुद्धि ! दिन-भर मातम होता रहा; बाप रोता था, माँ तड़पती थी और माधवी बारी-बारी से दोनों को समझाती थी। यदि अपने प्राण देकर वह बालक को जिला सकती तो इस समय अपना धन्य भाग समझती। वह अहित का संकल्प करके यहाँ आयी थी और आज जब उसकी मनोकामना पूरी हो गयी और उसे खुशी से फूला न समाना चाहिए था, उसे उससे कहीं घोर पीड़ा हो रही थी जो अपने पुत्र की जेल-यात्रा से हुई थी। रुलाने आयी थी और खुद रोती जा रही थी। माता का हृदय दया का आगार है। उसे जलाओ तो उसमें दया की ही सुगंध निकलती है, पीसो तो दया का ही रस निकलता है। वह देवी है। विपत्ति की क्रूर लीलाएँ भी उस स्वच्छ निर्मल स्रोत को मलिन नहीं कर सकतीं।
Budhi Kaki - Munshi Premchand बूढ़ी काकी - मुंशी प्रेम चंद
1 जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी
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पर पड़ी रहतीं और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिमाण पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थीं। उनका रोना-सिसकना साधारण रोना न था, वे गला फाड़-फाड़कर रोती थीं। उनके पतिदेव को स्वर्ग सिधारे कालांतर हो चुका था। बेटे तरुण हो-होकर चल बसे थे। अब एक भतीजे के अलावा और कोई न था। उसी भतीजे के नाम उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति लिख दी। भतीजे ने सारी सम्पत्ति लिखाते समय ख़ूब लम्बे-चौड़े वादे किए, किन्तु वे सब वादे केवल कुली-डिपो के दलालों के दिखाए हुए सब्ज़बाग थे। यद्यपि उस सम्पत्ति की वार्षिक आय डेढ़-दो सौ रुपए से कम न थी तथापि बूढ़ी काकी को पेट भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था। इसमें उनके भतीजे पंडित बुद्धिराम का अपराध था अथवा उनकी अर्धांगिनी श्रीमती रूपा का, इसका निर्णय करना सहज नहीं। बुद्धिराम स्वभाव के सज्जन थे, किंतु उसी समय तक जब कि उनके कोष पर आँच न आए। रूपा स्वभाव से तीव्र थी सही, पर ईश्वर से डरती थी। अतएव बूढ़ी काकी को उसकी तीव्रता उतनी न खलती थी जितनी बुद्धिराम की भलमनसाहत। बुद्धिराम को कभी-कभी अपने अत्याचार का खेद होता था। विचारते कि इसी सम्पत्ति के कारण मैं इस समय भलामानुष बना बैठा हूँ। यदि भौतिक आश्वासन और सूखी सहानुभूति से स्थिति में सुधार हो सकता हो, उन्हें कदाचित् कोई आपत्ति न होती, परन्तु विशेष व्यय का भय उनकी सुचेष्टा को दबाए रखता था। यहाँ तक कि यदि द्वार पर कोई भला आदमी बैठा होता और बूढ़ी काकी उस समय अपना राग अलापने लगतीं तो वह आग हो जाते और घर में आकर उन्हें जोर से डाँटते। लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है और फिर जब माता-पिता का यह रंग देखते तो वे बूढ़ी काकी को और सताया करते। कोई चुटकी काटकर भागता, कोई इन पर पानी की कुल्ली कर देता। काकी चीख़ मारकर रोतीं परन्तु यह बात प्रसिद्ध थी कि वह केवल खाने के लिए रोती हैं, अतएव उनके संताप और आर्तनाद पर कोई ध्यान नहीं देता था। हाँ, काकी क्रोधातुर होकर बच्चों को गालियाँ देने लगतीं तो रूपा घटनास्थल पर आ पहुँचती। इस भय से काकी अपनी जिह्वा कृपाण का कदाचित् ही प्रयोग करती थीं, यद्यपि उपद्रव-शान्ति का यह उपाय रोने से कहीं अधिक उपयुक्त था। सम्पूर्ण परिवार में यदि काकी से किसी को अनुराग था, तो वह बुद्धिराम की छोटी लड़की लाडली थी। लाडली अपने दोनों भाइयों के भय से अपने हिस्से की मिठाई-चबैना बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी। यही उसका रक्षागार था और यद्यपि काकी की शरण उनकी लोलुपता के कारण बहुत मंहगी पड़ती थी, तथापि भाइयों के अन्याय से सुरक्षा कहीं सुलभ थी तो बस यहीं। इसी स्वार्थानुकूलता ने उन दोनों में सहानुभूति का आरोपण कर दिया था।
2 रात का समय था। बुद्धिराम के द्वार पर शहनाई बज रही थी और गाँव के बच्चों का झुंड विस्मयपूर्ण नेत्रों से गाने का रसास्वादन कर रहा था। चारपाइयों पर मेहमान विश्राम करते हुए नाइयों से मुक्कियाँ लगवा रहे थे। समीप खड़ा भाट विरुदावली सुना रहा था और कुछ भावज्ञ मेहमानों की 'वाह, वाह' पर ऐसा ख़ुश हो रहा था मानो इस 'वाह-वाह' का यथार्थ में वही अधिकारी है। दो-एक अंग्रेज़ी पढ़े हुए नवयुवक इन व्यवहारों से उदासीन थे। वे इस गँवार मंडली में बोलना अथवा सम्मिलित होना अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते थे। आज बुद्धिराम के बड़े लड़के मुखराम का तिलक आया है। यह उसी का उत्सव है। घर के भीतर स्त्रियाँ गा रही थीं और रूपा मेहमानों के लिए भोजन में व्यस्त थी। भट्टियों पर कड़ाह चढ़ रहे थे। एक में पूड़ियाँ-कचौड़ियाँ निकल रही थीं, दूसरे में अन्य पकवान बनते थे। एक बड़े हंडे में मसालेदार तरकारी पक रही थी। घी और मसाले की क्षुधावर्धक सुगंधि चारों ओर फैली हुई थी। बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमय विचार की भाँति बैठी हुई थीं। यह स्वाद मिश्रित सुगंधि उन्हें बेचैन कर रही थी। वे मन-ही-मन विचार कर रही थीं, संभवतः मुझे पूड़ियाँ न मिलेंगीं। इतनी देर हो गई, कोई भोजन लेकर नहीं आया। मालूम होता है सब लोग भोजन कर चुके हैं। मेरे लिए कुछ न बचा। यह सोचकर उन्हें रोना आया, परन्तु अपशकुन के भय से वह रो न सकीं। 'आहा... कैसी सुगंधि है? अब मुझे कौन पूछता है। जब रोटियों के ही लाले पड़े हैं तब ऐसे भाग्य कहाँ कि भरपेट पूड़ियाँ मिलें?' यह विचार कर उन्हें रोना आया, कलेजे में हूक-सी उठने लगी। परंतु रूपा के भय से उन्होंने फिर मौन धारण कर लिया। बूढ़ी काकी देर तक इन्ही दुखदायक विचारों में डूबी रहीं। घी और मसालों की सुगंधि रह-रहकर मन को आपे से बाहर किए देती थी। मुँह में पानी भर-भर आता था। पूड़ियों का स्वाद स्मरण करके हृदय में गुदगुदी होने लगती थी। किसे पुकारूँ, आज लाडली बेटी भी नहीं आई। दोनों छोकरे सदा दिक दिया करते हैं। आज उनका भी कहीं पता नहीं। कुछ मालूम तो होता कि क्या बन रहा है। बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। ख़ूब लाल-लाल, फूली-फूली, नरम-नरम होंगीं। रूपा ने भली-भाँति भोजन किया होगा। कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की महक आ रही होगी। एक पूड़ी मिलती तो जरा हाथ में लेकर देखती। क्यों न चल कर कड़ाह के सामने ही बैठूँ। पूड़ियाँ छन-छनकर तैयार होंगी। कड़ाह से गरम-गरम निकालकर थाल में रखी जाती होंगी। फूल हम घर में भी सूँघ सकते हैं, परन्तु वाटिका में कुछ और बात होती है। इस प्रकार निर्णय करके बूढ़ी काकी उकड़ूँ बैठकर हाथों के बल सरकती हुई बड़ी कठिनाई से चौखट से उतरीं और धीरे-धीरे रेंगती हुई कड़ाह के पास जा बैठीं। यहाँ आने पर उन्हें उतना ही धैर्य हुआ जितना भूखे कुत्ते को खाने वाले के सम्मुख बैठने में होता है। रूपा उस समय कार्यभार से उद्विग्न हो रही थी। कभी इस कोठे में जाती, कभी उस कोठे में, कभी कड़ाह के पास जाती, कभी भंडार में जाती। किसी ने बाहर से आकर कहा--'महाराज ठंडई मांग रहे हैं।' ठंडई देने लगी। इतने में फिर किसी ने आकर कहा--'भाट आया है, उसे कुछ दे दो।' भाट के लिए सीधा निकाल रही थी कि एक तीसरे आदमी ने आकर पूछा--'अभी भोजन तैयार होने में कितना विलम्ब है? जरा ढोल, मजीरा उतार दो।' बेचारी अकेली स्त्री दौड़ते-दौड़ते व्याकुल हो रही थी, झुंझलाती थी, कुढ़ती थी, परन्तु क्रोध प्रकट करने का अवसर न पाती थी। भय होता, कहीं पड़ोसिनें यह न कहने लगें कि इतने में उबल पड़ीं। प्यास से स्वयं कंठ सूख रहा था। गर्मी के मारे फुँकी जाती थी, परन्तु इतना अवकाश न था कि जरा पानी पी ले अथवा पंखा लेकर झले। यह भी खटका था कि जरा आँख हटी और चीज़ों की लूट मची। इस अवस्था में उसने बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास बैठी देखा तो जल गई। क्रोध न रुक सका। इसका भी ध्यान न रहा कि पड़ोसिनें बैठी हुई हैं, मन में क्या कहेंगीं। पुरुषों में लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे। जिस प्रकार मेंढक केंचुए पर झपटता है, उसी प्रकार वह बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झटक कर बोली-- ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? कोठरी में बैठते हुए क्या दम घुटता था? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका? आकर छाती पर सवर हो गई। जल जाए ऐसी जीभ। दिन भर खाती न होती तो जाने किसकी हांडी में मुँह डालती? गाँव देखेगा तो कहेगा कि बुढ़िया भरपेट खाने को नहीं पाती तभी तो इस तरह मुँह बाए फिरती है। डायन न मरे न मांचा छोड़े। नाम बेचने पर लगी है। नाक कटवा कर दम लेगी। इतनी ठूँसती है न जाने कहां भस्म हो जाता है। भला चाहती हो तो जाकर कोठरी में बैठो, जब घर के लोग खाने लगेंगे, तब तुम्हे भी मिलेगा। तुम कोई देवी नहीं हो कि चाहे किसी के मुँह में पानी न जाए, परन्तु तुम्हारी पूजा पहले ही हो जाए। बूढ़ी काकी ने सिर उठाया, न रोईं न बोलीं। चुपचाप रेंगती हुई अपनी कोठरी में चली गईं। आवाज़ ऐसी कठोर थी कि हृदय और मष्तिष्क की सम्पूर्ण शक्तियाँ, सम्पूर्ण विचार और सम्पूर्ण भार उसी ओर आकर्षित हो गए थे। नदी में जब कगार का कोई वृहद खंड कटकर गिरता है तो आस-पास का जल समूह चारों ओर से उसी स्थान को पूरा करने के लिए दौड़ता है।
3 भोजन तैयार हो गया है। आंगन में पत्तलें पड़ गईं, मेहमान खाने लगे। स्त्रियों ने जेवनार-गीत गाना आरम्भ कर दिया। मेहमानों के नाई और सेवकगण भी उसी मंडली के साथ, किंतु कुछ हटकर भोजन करने बैठे थे, परन्तु सभ्यतानुसार जब तक सब-के-सब खा न चुकें कोई उठ नहीं सकता था। दो-एक मेहमान जो कुछ पढ़े-लिखे थे, सेवकों के दीर्घाहार पर झुंझला रहे थे। वे इस बंधन को व्यर्थ और बेकार की बात समझते थे। बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में जाकर पश्चाताप कर रही थी कि मैं कहाँ-से-कहाँ आ गई। उन्हें रूपा पर क्रोध नहीं था। अपनी जल्दबाज़ी पर दुख था। सच ही तो है जब तक मेहमान लोग भोजन न कर चुकेंगे, घर वाले कैसे खाएंगे। मुझ से इतनी देर भी न रहा गया। सबके सामने पानी उतर गया। अब जब तक कोई बुलाने नहीं आएगा, न जाऊंगी। मन-ही-मन इस प्रकार का विचार कर वह बुलाने की प्रतीक्षा करने लगीं। परन्तु घी की रुचिकर सुवास बड़ी धैर्य़-परीक्षक प्रतीत हो रही थी। उन्हें एक-एक पल एक-एक युग के समान मालूम होता था। अब पत्तल बिछ गई होगी। अब मेहमान आ गए होंगे। लोग हाथ पैर धो रहे हैं, नाई पानी दे रहा है। मालूम होता है लोग खाने बैठ गए। जेवनार गाया जा रहा है, यह विचार कर वह मन को बहलाने के लिए लेट गईं। धीरे-धीरे एक गीत गुनगुनाने लगीं। उन्हें मालूम हुआ कि मुझे गाते देर हो गई। क्या इतनी देर तक लोग भोजन कर ही रहे होंगे। किसी की आवाज़ सुनाई नहीं देती। अवश्य ही लोग खा-पीकर चले गए। मुझे कोई बुलाने नहीं आया है। रूपा चिढ़ गई है, क्या जाने न बुलाए। सोचती हो कि आप ही आवेंगीं, वह कोई मेहमान तो नहीं जो उन्हें बुलाऊँ। बूढ़ी काकी चलने को तैयार हुईं। यह विश्वास कि एक मिनट में पूड़ियाँ और मसालेदार तरकारियां सामने आएंगीं, उनकी स्वादेन्द्रियों को गुदगुदाने लगा। उन्होंने मन में तरह-तरह के मंसूबे बांधे-- पहले तरकारी से पूड़ियाँ खाऊंगी, फिर दही और शक्कर से, कचौरियाँ रायते के साथ मज़ेदार मालूम होंगी। चाहे कोई बुरा माने चाहे भला, मैं तो मांग-मांगकर खाऊंगी। यही न लोग कहेंगे कि इन्हें विचार नहीं? कहा करें, इतने दिन के बाद पूड़ियाँ मिल रही हैं तो मुँह झूठा करके थोड़े ही उठ जाऊंगी । वह उकड़ूँ बैठकर सरकते हुए आंगन में आईं। परन्तु हाय दुर्भाग्य! अभिलाषा ने अपने पुराने स्वभाव के अनुसार समय की मिथ्या कल्पना की थी। मेहमान-मंडली अभी बैठी हुई थी। कोई खाकर उंगलियाँ चाटता था, कोई तिरछे नेत्रों से देखता था कि और लोग अभी खा रहे हैं या नहीं। कोई इस चिंता में था कि पत्तल पर पूड़ियाँ छूटी जाती हैं किसी तरह इन्हें भीतर रख लेता। कोई दही खाकर चटकारता था, परन्तु दूसरा दोना मांगते संकोच करता था कि इतने में बूढ़ी काकी रेंगती हुई उनके बीच में आ पहुँची। कई आदमी चौंककर उठ खड़े हुए। पुकारने लगे-- अरे, यह बुढ़िया कौन है? यहाँ कहाँ से आ गई? देखो, किसी को छू न दे। पंडित बुद्धिराम काकी को देखते ही क्रोध से तिलमिला गए। पूड़ियों का थाल लिए खड़े थे। थाल को ज़मीन पर पटक दिया और जिस प्रकार निर्दयी महाजन अपने किसी बेइमान और भगोड़े कर्ज़दार को देखते ही उसका टेंटुआ पकड़ लेता है उसी तरह लपक कर उन्होंने काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए लाकर उन्हें अंधेरी कोठरी में धम से पटक दिया। आशारूपी वटिका लू के एक झोंके में विनष्ट हो गई। मेहमानों ने भोजन किया। घरवालों ने भोजन किया। बाजे वाले, धोबी, चमार भी भोजन कर चुके, परन्तु बूढ़ी काकी को किसी ने न पूछा। बुद्धिराम और रूपा दोनों ही बूढ़ी काकी को उनकी निर्लज्जता के लिए दंड देने क निश्चय कर चुके थे। उनके बुढ़ापे पर, दीनता पर, हत्ज्ञान पर किसी को करुणा न आई थी। अकेली लाडली उनके लिए कुढ़ रही थी। लाडली को काकी से अत्यंत प्रेम था। बेचारी भोली लड़की थी। बाल-विनोद और चंचलता की उसमें गंध तक न थी। दोनों बार जब उसके माता-पिता ने काकी को निर्दयता से घसीटा तो लाडली का हृदय ऎंठकर रह गया। वह झुंझला रही थी कि हम लोग काकी को क्यों बहुत-सी पूड़ियाँ नहीं देते। क्या मेहमान सब-की-सब खा जाएंगे? और यदि काकी ने मेहमानों से पहले खा लिया तो क्या बिगड़ जाएगा? वह काकी के पास जाकर उन्हें धैर्य देना चाहती थी, परन्तु माता के भय से न जाती थी। उसने अपने हिस्से की पूड़ियाँ बिल्कुल न खाईं थीं। अपनी गुड़िया की पिटारी में बन्द कर रखी थीं। उन पूड़ियों को काकी के पास ले जाना चाहती थी। उसका हृदय अधीर हो रहा था। बूढ़ी काकी मेरी बात सुनते ही उठ बैठेंगीं, पूड़ियाँ देखकर कैसी प्रसन्न होंगीं! मुझे खूब प्यार करेंगीं।
4 रात को ग्यारह बज गए थे। रूपा आंगन में पड़ी सो रही थी। लाडली की आँखों में नींद न आती थी। काकी को पूड़ियाँ खिलाने की खुशी उसे सोने न देती थी। उसने गु़ड़ियों की पिटारी सामने रखी थी। जब विश्वास हो गया कि अम्मा सो रही हैं, तो वह चुपके से उठी और विचारने लगी, कैसे चलूँ। चारों ओर अंधेरा था। केवल चूल्हों में आग चमक रही थी और चूल्हों के पास एक कुत्ता लेटा हुआ था। लाडली की दृष्टि सामने वाले नीम पर गई। उसे मालूम हुआ कि उस पर हनुमान जी बैठे हुए हैं। उनकी पूँछ, उनकी गदा, वह स्पष्ट दिखलाई दे रही है। मारे भय के उसने आँखें बंद कर लीं। इतने में कुत्ता उठ बैठा, लाडली को ढाढ़स हुआ। कई सोए हुए मनुष्यों के बदले एक भागता हुआ कुत्ता उसके लिए अधिक धैर्य का कारण हुआ। उसने पिटारी उठाई और बूढ़ी काकी की कोठरी की ओर चली।
5 बूढ़ी काकी को केवल इतना स्मरण था कि किसी ने मेरे हाथ पकड़कर घसीटे, फिर ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कोई पहाड़ पर उड़ाए लिए जाता है। उनके पैर बार-बार पत्थरों से टकराए तब किसी ने उन्हें पहाड़ पर से पटका, वे मूर्छित हो गईं। जब वे सचेत हुईं तो किसी की ज़रा भी आहट न मिलती थी। समझी कि सब लोग खा-पीकर सो गए और उनके साथ मेरी तकदीर भी सो गई। रात कैसे कटेगी? राम! क्या खाऊँ? पेट में अग्नि धधक रही है। हा! किसी ने मेरी सुधि न ली। क्या मेरा पेट काटने से धन जुड़ जाएगा? इन लोगों को इतनी भी दया नहीं आती कि न जाने बुढ़िया कब मर जाए? उसका जी क्यों दुखावें? मैं पेट की रोटियाँ ही खाती हूँ कि और कुछ? इस पर यह हाल। मैं अंधी, अपाहिज ठहरी, न कुछ सुनूँ, न बूझूँ। यदि आंगन में चली गई तो क्या बुद्धिराम से इतना कहते न बनता था कि काकी अभी लोग खाना खा रहे हैं फिर आना। मुझे घसीटा, पटका। उन्ही पूड़ियों के लिए रूपा ने सबके सामने गालियाँ दीं। उन्हीं पूड़ियों के लिए इतनी दुर्गति करने पर भी उनका पत्थर का कलेजा न पसीजा। सबको खिलाया, मेरी बात तक न पूछी। जब तब ही न दीं, तब अब क्या देंगे? यह विचार कर काकी निराशामय संतोष के साथ लेट गई। ग्लानि से गला भर-भर आता था, परन्तु मेहमानों के भय से रोती न थीं। सहसा कानों में आवाज़ आई-- 'काकी उठो, मैं पूड़ियां लाई हूँ।' काकी ने लाड़ली की बोली पहचानी। चटपट उठ बैठीं। दोनों हाथों से लाडली को टटोला और उसे गोद में बिठा लिया। लाडली ने पूड़ियाँ निकालकर दीं। काकी ने पूछा-- क्या तुम्हारी अम्मा ने दी है? लाडली ने कहा-- नहीं, यह मेरे हिस्से की हैं। काकी पूड़ियों पर टूट पडीं। पाँच मिनट में पिटारी खाली हो गई। लाडली ने पूछा-- काकी पेट भर गया। जैसे थोड़ी-सी वर्षा ठंडक के स्थान पर और भी गर्मी पैदा कर देती है उस भाँति इन थोड़ी पूड़ियों ने काकी की क्षुधा और इक्षा को और उत्तेजित कर दिया था। बोलीं-- नहीं बेटी, जाकर अम्मा से और मांग लाओ। लाड़ली ने कहा-- अम्मा सोती हैं, जगाऊंगी तो मारेंगीं। काकी ने पिटारी को फिर टटोला। उसमें कुछ खुर्चन गिरी थी। बार-बार होंठ चाटती थीं, चटखारे भरती थीं। हृदय मसोस रहा था कि और पूड़ियाँ कैसे पाऊँ। संतोष-सेतु जब टूट जाता है तब इच्छा का बहाव अपरिमित हो जाता है। मतवालों को मद का स्मरण करना उन्हें मदांध बनाता है। काकी का अधीर मन इच्छाओं के प्रबल प्रवाह में बह गया। उचित और अनुचित का विचार जाता रहा। वे कुछ देर तक उस इच्छा को रोकती रहीं। सहसा लाडली से बोलीं-- मेरा हाथ पकड़कर वहाँ ले चलो, जहाँ मेहमानों ने बैठकर भोजन किया है। लाडली उनका अभिप्राय समझ न सकी। उसने काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर झूठे पत्तलों के पास बिठा दिया। दीन, क्षुधातुर, हत् ज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुनकर भक्षण करने लगी। ओह... दही कितना स्वादिष्ट था, कचौड़ियाँ कितनी सलोनी, ख़स्ता कितने सुकोमल। काकी बुद्धिहीन होते हुए भी इतना जानती थीं कि मैं वह काम कर रही हूं, जो मुझे कदापि न करना चाहिए। मैं दूसरों की झूठी पत्तल चाट रही हूँ। परन्तु बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है, जब सम्पूर्ण इच्छाएँ एक ही केन्द्र पर आ लगती हैं। बूढ़ी काकी में यह केन्द्र उनकी स्वादेन्द्रिय थी। ठीक उसी समय रूपा की आँख खुली। उसे मालूम हुआ कि लाड़ली मेरे पास नहीं है। वह चौंकी, चारपाई के इधर-उधर ताकने लगी कि कहीं नीचे तो नहीं गिर पड़ी। उसे वहाँ न पाकर वह उठी तो क्या देखती है कि लाड़ली जूठे पत्तलों के पास चुपचाप खड़ी है और बूढ़ी काकी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठा-उठाकर खा रही है। रूपा का हृदय सन्न हो गया। किसी गाय की गरदन पर छुरी चलते देखकर जो अवस्था उसकी होती, वही उस समय हुई। एक ब्राह्मणी दूसरों की झूठी पत्तल टटोले, इससे अधिक शोकमय दृश्य असंभव था। पूड़ियों के कुछ ग्रासों के लिए उसकी चचेरी सास ऐसा निष्कृष्ट कर्म कर रही है। यह वह दृश्य था जिसे देखकर देखने वालों के हृदय काँप उठते हैं। ऐसा प्रतीत होता मानो ज़मीन रुक गई, आसमान चक्कर खा रहा है। संसार पर कोई आपत्ति आने वाली है। रूपा को क्रोध न आया। शोक के सम्मुख क्रोध कहाँ? करुणा और भय से उसकी आँखें भर आईं। इस अधर्म का भागी कौन है? उसने सच्चे हृदय से गगन मंडल की ओर हाथ उठाकर कहा-- परमात्मा, मेरे बच्चों पर दया करो। इस अधर्म का दंड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जाएगा। रूपा को अपनी स्वार्थपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप में कभी न दिख पड़े थे। वह सोचने लगी-- हाय! कितनी निर्दय हूँ। जिसकी सम्पति से मुझे दो सौ रुपया आय हो रही है, उसकी यह दुर्गति। और मेरे कारण। हे दयामय भगवान! मुझसे बड़ी भारी चूक हुई है, मुझे क्षमा करो। आज मेरे बेटे का तिलक था। सैकड़ों मनुष्यों ने भोजन पाया। मैं उनके इशारों की दासी बनी रही। अपने नाम के लिए सैकड़ों रुपए व्यय कर दिए, परन्तु जिसकी बदौलत हज़ारों रुपए खाए, उसे इस उत्सव में भी भरपेट भोजन न दे सकी। केवल इसी कारण तो, वह वृद्धा असहाय है। रूपा ने दिया जलाया, अपने भंडार का द्वार खोला और एक थाली में सम्पूर्ण सामग्रियां सजाकर बूढ़ी काकी की ओर चली। आधी रात जा चुकी थी, आकाश पर तारों के थाल सजे हुए थे और उन पर बैठे हुए देवगण स्वर्गीय पदार्थ सजा रहे थे, परन्तु उसमें किसी को वह परमानंद प्राप्त न हो सकता था, जो बूढ़ी काकी को अपने सम्मुख थाल देखकर प्राप्त हुआ। रूपा ने कंठारुद्ध स्वर में कहा---काकी उठो, भोजन कर लो। मुझसे आज बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना। परमात्मा से प्रार्थना कर दो कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दें। भोले-भोले बच्चों की भाँति, जो मिठाइयाँ पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाता है, बूढ़ी काकी वैसे ही सब भुलाकर बैठी हुई खाना खा रही थी। उनके एक-एक रोंए से सच्ची सदिच्छाएँ निकल रही थीं और रूपा बैठी स्वर्गीय दृश्य का आनन्द लेने में निमग्न थी।
Hindi Kahani हिंदी कहानी Dil Ki Rani - Munshi Premchand
दिल की रानी - मुंशी प्रेम चंद
1 जिन वीर तुर्कों के प्रखर प्रताप से ईसाई-दुनिया काँप रही थी, उन्हीं का रक्त आज कुस्तुनतुनिया की गलियों में बह रहा है। वही कुस्तुनतुनिया जो सौ साल पहले तुर्कों के आतंक से
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आहत हो रहा था, आज उनके गर्म रक्त से अपना कलेजा ठंडा कर रहा है। और तुर्की सेनापति एक लाख सिपाहियों के साथ तैमूरी तेज के सामने अपनी किस्मत का फैसला सुनने के लिये खड़ा है। तैमूर ने विजय से भरी आँखें उठाई और सेनापति यजदानी की ओर देख कर सिंह के समान गरजा- क्या चाहते हो ज़िंदगी या मौत ? यजदानी ने गर्व से सिर उठाकार कहा- इज्जत की ज़िंदगी मिले तो ज़िंदगी, वरना मौत। तैमूर का क्रोध प्रचंड हो उठा। उसने बड़े-बड़े अभिमानियों का सिर नीचा कर दिया था। यह जबाब इस अवसर पर सुनने की उसे ताव न थी । इन एक लाख आदमियों की जान उसकी मुट्ठी में है। इन्हें वह एक क्षण में मसल सकता है। उस पर इतना अभिमान ! इज्जत की ज़िंदगी ! इसका यही तो अर्थ है कि ग़रीबों का जीवन अमीरों के भोग-विलास पर बलिदान किया जाय, वही शराब की मजलिसें, वही अरमीनिया और काफ की परियाँ। नहीं, तैमूर ने खलीफा बायजीद का घमंड इसलिये नहीं तोड़ा है कि तुर्कों को फिर उसी मदांध स्वाधीनता में इस्लाम का नाम डुबाने को छोड़ दे । तब उसे इतना रक्त बहाने की क्या ज़रूरत थी । मानव-रक्त का प्रवाह संगीत का प्रवाह नहीं, रस का प्रवाह नहीं- एक बीभत्स दृश्य है, जिसे देखकर आँखें मुँह फेर लेती हैं दृश्य सिर झुका लेता है। तैमूर हिंसक पशु नहीं है, जो यह दृश्य देखने के लिये अपने जीवन की बाज़ी लगा दे। वह अपने शब्दों में धिक्कार भरकर बोला- जिसे तुम इज्जत की ज़िंदगी कहते हो, वह गुनाह और जहन्नुम की ज़िंदगी है। यजदानी को तैमूर से दया या क्षमा की आशा न थी। उसकी या उसके योद्धाओं की जान किसी तरह नहीं बच सकती। फिर यह क्यों दबे और क्यों न जान पर खेलकर तैमूर के प्रति उसके मन में जो घृणा है, उसे प्रकट कर दे। उसने एक बार कातर नेत्रों से उस रूपवान युवक की ओर देखा, जो उसके पीछे खड़ा, जैसे अपनी जवानी की लगाम खींच रहा था। सान पर चढ़े हुए, इस्पात के समान उसके अंग-अंग से अतुल क्रोध की चिनगारियाँ निकल रही थीं। यजदानी ने उसकी सूरत देखी और जैसे अपनी खींची हुई तलवार म्यान में कर ली और ख़ून के घूँट पीकर बोला- जहाँपनाह इस वक्त फ़तहमंद हैं लेकिन अपराध क्षमा हो तो कह दूँ कि अपने जीवन के विषय में तुर्कों को तातारियों से उपदेश लेने की ज़रूरत नहीं। दुनिया से अलग, तातार के ऊसर मैदानों में न त्याग और व्रत की उपासना की जा सकती है और न मयस्सर होने वाले पदार्थों का बहिष्कार किया जा सकता है; पर जहाँ खुदा ने नेमतों की वर्षा की हो, वहाँ उन नेमतों का भोग न करना नाशुक्री है। अगर तलवार ही सभ्यता की सनद होती, तो गाल कौम रोमनों से कहीं ज़्यादा सभ्य होती। तैमूर ज़ोर से हँसा और उसके सिपाहियों ने तलवारों पर हाथ रख लिये। तैमूर का ठहाका मौत का ठहाका था या गिरनेवाले वज्र का तड़ाका । ‘तातारवाले पशु हैं क्यों ?’ ‘मैं यह नहीं कहता।’ तुम कहते हो, खुदा ने तुम्हें ऐश करने के लिये पैदा किया है। मैं कहता हूँ, यह कुफ्र है। खुदा ने इन्सान को बंदगी के लिये पैदा किया है और इसके ख़िलाफ़ जो कोई कुछ करता है, वह काफिर है, जहन्नुमी है। रसूलेपाक हमारी ज़िंदगी को पाक करने के लिये, हमें सच्चा इन्सान बनाने के लिये आये थे, हमें हराम की तालीम देने नहीं। तैमूर दुनिया को इस कुफ्र से पाक कर देने का बीड़ा उठा चुका है। रसूलेपाक के कदमों की कसम, मैं बेरहम नहीं हूँ जालिम नहीं हूँ, खूँख्वार नहीं हूँ, लेकिन कुफ्र की सज़ा मेरे ईमान में मौत के सिवा कुछ नहीं है। उसने तातारी सिपहसालार की तरफ कातिल नजरों से देखा और तत्क्षण एक देव-सा आदमी तलवार सौंतकर यजदानी के सिर पर आ पहुँचा। तातारी सेना भी तलवारें खींच-खींचकर तुर्की सेना पर टूट पड़ी और दम-के-दम में कितनी ही लाशें ज़मीन पर फड़कने लगीं।
2 सहसा वही रूपवान युवक, जो यजदानी के पीछे खड़ा था, आगे बढ़कर तैमूर के सामने आया और जैसे मौत को अपनी दोनों बँधी हुई मुट्ठियों में मसलता हुआ बोला- ऐ अपने को मुसलमान कहने वाले बादशाह! क्या यही वह इस्लाम है,जिसकी तबलीग का तूने बीड़ा उठाया है ? इस्लाम की यही तालीम है कि तू उन बहादुरों का इस बेदर्दी से ख़ून बहाये, जिन्होंने इसके सिवा कोई गुनाह नहीं किया कि अपने खलीफा और मुल्क की हिमायत की। चारों तरफ सन्नाटा छा गया। एक युवक, जिसकी अभी मसें भी न भीगी थीं; तैमूर जैसे तेजस्वी बादशाह का इतने खुले हुए शब्दों में तिरस्कार करे और उसकी जबान तालू से न खिंचवा ली जाय ! सभी स्तंभित हो रहे थे और तैमूर सम्मोहित-सा बैठा , उस युवक की ओर ताक रहा था। युवक ने तातारी सिपाहियों की तरफ, जिनके चेहरों पर कुतूहलमय प्रोत्साहन झलक रहा था, देखा और बोला- तू इन मुसलमानों को काफिर कहता है और समझता है कि तू इन्हें कत्ल करके खुदा और इस्लाम की खिदमत कर रहा है ? मैं तुमसे पूछता हूँ, अगर वह लोग जो खुदा के सिवा और किसी के सामने सिजदा नहीं करते, जो रसूलेपाक को अपना रहबर समझते हैं, मुसलमान नहीं हैं तो कौन मुसलमान है ? मैं कहता हूँ, हम काफिर सही लेकिन तेरे तो हैं क्या इस्लाम जंजीरों में बंधे हुए कैदियों के कत्ल की इजाजत देता है? खुदा ने अगर तुझे ताकत दी है, अख्तियार दिया है तो क्या इसीलिये कि तू खुदा के बंदों का ख़ून बहाये ? क्या गुनाहगारों को कत्ल करके तू उन्हें सीधे रास्ते पर ले जायगा? तूने कितनी बेहरमी से सत्तर हज़ार बहादुर तुर्कों को धोखा देकर सुरंग से उड़वा दिया और उनके मासूम बच्चों और निरपराध स्त्रियों को अनाथ कर दिया, तूझे कुछ अनुमान है। क्या यही कारनामे हैं, जिन पर तू अपने मुसलमान होने का गर्व करता है। क्या इसी कत्ल, ख़ून और बहते दरिया से तू दुनिया में अपना नाम रोशन करेगा ? तूने तुर्कों के ख़ून बहते दरिया में अपने घोड़ों के सुम नहीं भिगाये हैं, बल्कि इस्लाम को जड़ से खोदकर फेंक दिया है। यह वीर तुर्कों का ही आत्मोत्सर्ग है, जिसने यूरोप में इस्लाम की तौहीद फैलाई। आज सोफिया के गिरजे में तूझे अल्लाहो अकबर की सदा सुनाई दे रही है, सारा यूरोप इस्लाम का स्वागत करने को तैयार है। क्या यह कारनामे इसी लायक़ हैं कि उनका यह इनाम मिले। इस खयाल को दिल से निकाल दे कि तू खूँरेजी से इस्लाम की खिदमत कर रहा है। एक दिन तुझे भी परवरदिगार के सामने अपने कर्मों का जवाब देना पड़ेगा और तेरा कोई उज्र न सुना जायगा; क्योंकि अगर तुझमें अब भी नेक और बद की तमीज बाकी है, तो अपने दिल से पूछ। तूने यह जिहाद खुदा की राह में किया या अपनी हविस के लिये और मैं जानता हूँ, तुझे जो जवाब मिलेगा, वह तेरी गर्दन शर्म से झुका देगा। खलीफा अभी सिर झुकाये ही था कि यजदानी ने काँपते हुए शब्दों में अर्ज की- जहाँपनाह, यह ग़ुलाम का लड़का है। इसके दिमाग में कुछ फितूर है। हुज़ूर इसकी गुस्ताखियों को मुआफ करें । मैं उसकी सज़ा झेलने को तैयार हूँ। तैमूर उस युवक के चेहरे की तरफ स्थिर नेत्रों से देख रहा था। आज जीवन में पहली बार उसे निर्भीक शब्दों को सुनने का अवसर मिला। उसके सामने बड़े-बड़े सेनापतियों, मंत्रियों और बादशाहों की जबान न खुलती थी। वह जो कुछ कहता था, वही क़ानून था, किसी को उसमें चूँ करने की ताकत न थी। उनकी खुशामदों ने उसकी अहमन्यता को आसमान पर चढ़ा दिया था। उसे विश्वास हो गया था कि खुदा ने इस्लाम को जगाने और सुधारने के लिये ही उसे दुनिया में भेजा है। उसने पैगंबरी का दावा तो नहीं किया, पर उसके मन में यह भावना दृढ़ हो गयी थी; इसलिये जब आज एक युवक ने प्राणों का मोह छोड़कर उसकी कीर्ति का परदा खोल दिया, तो उसकी चेतना जैसे जाग उठी। उसके मन में क्रोध और हिंसा की जगह श्रद्धा का उदय हुआ। उसकी आँखों का एक इशारा इस युवक की ज़िंदगी का चिराग गुल कर सकता था । उसकी संसार विजयिनी शक्ति के सामने यह दुधमुँहा बालक मानो अपने नन्हे-नन्हे हाथों से समुद्र के प्रवाह को रोकने के लिये खड़ा हो। कितना हास्यास्पद साहस था; पर उसके साथ ही कितना आत्म विश्वास से भरा हुआ। तैमूर को ऐसा जान पड़ा कि इस निहत्थे बालक के सामने वह कितना निर्बल है। मनुष्य मे ऐसे साहस का एक ही स्रोत हो सकता है और वह सत्य पर अटल विश्वास है। उसकी आत्मा दौड़कर उस युवक के दामन में चिमट जाने के लिये अधीर हो गयी। वह दार्शनिक न था, जो सत्य में शंका करता है। वह सरल सैनिक था, जो असत्य को भी विश्वास के साथ सत्य बना देता है। यजदानी ने उसी स्वर में कहा- जहाँपनाह, इसकी बदजबानी का खयाल न फरमावें। तैमूर ने तुरंत तख्त से उठकर यजदानी को गले से लगा लिया और बोला- काश, ऐसी गुस्ताखियों और बदजबानियों के सुनने का पहने इत्तफाक होता, तो आज इतने बेगुनाहों का ख़ून मेरी गर्दन पर न होता। मुझे इस जवान में किसी फरिश्ते की रूह का जलवा नजर आता है, जो मुझ जैसे गुमराहों को सच्चा रास्ता दिखाने के लिये भेजी गयी है। मेरे दोस्त, तुम खुशनसीब हो कि ऐसे फरिश्ता-सिफत बेटे के बाप हो। क्या मैं उसका नाम पूछ सकता हूँ। यजदानी पहले आतशपरस्त था, पीछे मुसलमान हो गया था; पर अभी तक कभी-कभी उसके मन में शंकाएँ उठती रहती थीं कि उसने क्यों इस्लाम कबूल किया। जो कैदी फाँसी के तख्ते पर खड़ा सूखा जा रहा था कि एक क्षण में रस्सी उसकी गर्दन में पड़ेगी और वह लटकता रह जायगा, उसे जैसे किसी फरिश्ते ने गोद में ले लिया। वह गद्गद् कंठ से बोला- उसे हबीब कहते हैं। तैमूर ने युवक के सामने जाकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे आँखों से लगाता हुआ बोला- मेरे जवान दोस्त, तुम सचमुच खुदा के हबीब हो, मैं वह गुनाहगार हूँ, जिसने अपनी जहालत में हमेशा अपने गुनाहों को सवाब समझा, इसलिये कि मुझसे कहा जाता था, तेरी जात बेऐब है। आज मूझे यह मालूम हुआ कि मेरे हाथों इस्लाम को कितना नुकसान पहुँचा। आज से मैं तुम्हारा ही दामन पकड़ता हूँ। तुम्हीं मेरे खिज्र, तुम्हीं मेरे रहनुमा हो। मुझे यकीन हो गया कि तुम्हारे ही वसीले से मैं खुदा की दरगाह तक पहुँच सकता हूँ। यह कहते हुए उसने युवक के चेहरे पर नजर डाली, तो उस पर शर्म की लाली छायी हुई थी। उस कठोरता की जगह मधुर संकोच झलक रहा था। युवक ने सिर झुकाकर कहा- यह हुज़ूर की कदरदानी है, वरना मेरी क्या हस्ती है। तैमूर ने उसे खींचकर अपनी बगल के तख्त पर बिठा दिया और अपने सेनापति को हुक्म दिया, सारे तुर्क कैदी छोड़ दिये जायें उनके हथियार वापस कर दिये जायँ और जो माल लूटा गया है, वह सिपाहियों में बराबर बाँट दिया जाय। वजीर तो इधर इस हुक्म की तामील करने लगा, उधर तैमूर हबीब का हाथ पकड़े हुए अपने खेमे में गया और दोनों मेहमानों की दावत का प्रबंध करने लगा। और जब भोजन समाप्त हो गया, तो उसने अपने जीवन की सारी कथा रो-रोकर कह सुनाई, जो आदि से अंत तक मिश्रित पशुता और बर्बरता के कृत्यों से भरी हुई थी। और उसने यह सब कुछ इस भ्रम में किया कि वह ईश्वरीय आदेश का पालन कर रहा है। वह खुदा को कौन मुँह दिखायेगा। रोते-रोते उसकी हिचकियाँ बंध गयीं। अंत में उसने हबीब से कहा- मेरे जवान दोस्त अब मेरा बेड़ा आप ही पार लगा सकते हैं। आपने मुझे राह दिखाई है तो मंज़िल पर पहुँचाइए। मेरी बादशाहत को अब आप ही संभाल सकते हैं। मुझे अब मालूम हो गया कि मैं उसे तबाही के रास्ते पर लिये जाता था । मेरी आपसे यही इल्तज़ा (प्रार्थना) है कि आप उसकी वजारत कबूल करें। देखिये , खुदा के लिये इंकार न कीजिएगा, वरना मैं कहीं का नहीं रहूँगा। यजदानी ने अरज की- हुज़ूर इतनी कदरदानी फरमाते हैं, तो आपकी इनायत है, लेकिन अभी इस लड़के की उम्र ही क्या है। वजारत की खिदमत यह क्या अंजाम दे सकेगा । अभी तो इसकी तालीम के दिन हैं। इधर से इंकार होता रहा और उधर तैमूर आग्रह करता रहा। यजदानी इंकार तो कर रहे थे, पर छाती फूली जाती थी । मूसा आग लेने गये थे, पैगंबरी मिल गयी। कहाँ मौत के मुँह में जा रहे थे, वजारत मिल गयी, लेकिन यह शंका भी थी कि ऐसे अस्थिर-चित्त आदमी का क्या ठिकाना ? आज खुश हुए, वजारत देने को तैयार हैं, कल नाराज़ हो गये तो जान की खैरियत नहीं। उन्हें हबीब की लियाकत पर भरोसा था, फिर भी जी डरता था कि बिराने देश में न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े। दरबारवालों में षड्यंत्र होते ही रहते हैं। हबीब नेक है, समझदार है, अवसर पहचानता है; लेकिन वह तजरबा कहाँ से लायेगा, जो उम्र ही से आता है। उन्होंने इस प्रश्न पर विचार करने के लिये एक दिन की मुहलत माँगी और रुखसत हुए।
3 हबीब यजदानी का लड़का नहीं लड़की थी। उसका नाम उम्म तुल हबीब था। जिस वक्त यजदानी और उसकी पत्नी मुसलमान हुए, तो लड़की की उम्र कुल बारह साल की थी, पर प्रकृति ने उसे बुद्धि और प्रतिभा के साथ विचार-स्वातंत्र्य भी प्रदान किया था। वह जब तक सत्यासत्य की परीक्षा न कर लेती, कोई बात स्वीकार न करती। माँ-बाप के धर्म-परिवर्तन से उसे अशांति तो हुई, पर जब तक इस्लाम का अच्छी तरह अध्ययन न कर ले, वह केवल माँ-बाप को खुश करने के लिये इस्लाम की दीक्षा नहीं ले सकती थी। माँ-बाप भी उस पर किसी तरह का दबाब न डालना चाहते थे। जैसे उन्हें अपने धर्म को बदल देने का अधिकार है, वैसे ही उसे अपने धर्म पर आरूढ़ रहने का भी अधिकार है। लड़की को संतोष हुआ; लेकिन उसने इस्लाम और जरथुश्ते धर्म- दोनों ही का तुलनात्मक अध्ययन आरंभ किया और पूरे दो साल के अन्वेषण और परीक्षण के बाद उसने भी इस्लाम की दीक्षा ले ली। माता-पिता फूले न समाये। लड़की उनके दबाव से मुसलमान नहीं हुई है, बल्कि स्वेच्छा से, स्वाध्याय से और ईमान से। दो साल तक उन्हें जो शंका घेरे रहती थी , वह मिट गयी। यजदानी के कोई पुत्र न था और उस युग में जब कि आदमी की तलवार ही सबसे बड़ी अदालत थी, पुत्र का न रहना संसार का सबसे बड़ा दुर्भाग्य था। यजदानी बेटे का अरमान बेटी से पूरा करने लगा। लड़कों ही की भाँति उसकी शिक्षा-दीक्षा होने लगी। वह बालकों के से कपड़े पहनती, घोड़े पर सवार होती, शस्त्र -विद्या सीखती और अपने बाप के साथ अक्सर खलीफा बायजीद के महलों में जाती और राजकुमारी के साथ शिकार खेलने जाती। इसके साथ ही वह दर्शन, काव्य, विज्ञान और अध्यात्म का भी अभ्यास करती थी। यहाँ तक कि सोलहवें वर्ष में वह फ़ौजी विद्यालय में दाखिल हो गयी और दो साल के अंदर वहाँ की सबसे ऊँची परीक्षा पास करके फ़ौज में नौकर हो गयी। शस्त्र -विद्या और सेना-संचालन कला में इतनी निपुण थी और खलीफा बायजीद उसके चरित्र से इतना प्रसन्न था कि पहले ही पहल उसे एक हजारी मनसब मिल गया । ऐसी युवती के चाहनेवालों की क्या कमी। उसके साथ के कितने ही अफसर, राज परिवार के कितने ही युवक उस पर प्राण देते थे , पर कोई उसकी नजरों में न जँचता था । नित्य ही निकाह के पैग़ाम आते थे , पर वह हमेशा इंकार कर देती थी। वैवाहिक जीवन ही से उसे अरुचि थी- कि युवतियाँ कितने अरमानों से ब्याह कर लायी जाती हैं और फिर कितने निरादर से महलों में बंद कर दी जाती है। उनका भाग्य पुरुषों की दया के अधीन है। अक्सर ऊँचे घरानों की महिलाओं से उसको मिलने-जुलने का अवसर मिलता था। उनके मुख से उनकी करूण कथा सुनकर वह वैवाहिक पराधीनता से और भी घृणा करने लगती थी। और यजदानी उसकी स्वाधीनता में बिलकुल बाधा न देता था। लड़की स्वाधीन है, उसकी इच्छा हो, विवाह करे या क्वाँरी रहे, वह अपनी आप मुखतार है। उसके पास पैग़ाम आते, तो वह साफ़ जवाब दे देता– मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता, इसका फैसला वही करेगी। यद्यपि एक युवती का पुरुष वेष में रहना, युवकों से मिलना-जुलना , समाज में आलोचना का विषय था, पर यजदानी और उसकी स्त्री दोनों ही को उसके सतीत्व पर विश्वास था, हबीब के व्यवहार और आचार में उन्हें कोई ऐसी बात नजर न आती थी, जिससे उन्हें किसी तरह की शंका होती। यौवन की आँधी और लालसाओं के तूफ़ान में वह चौबीस वर्षों की वीरबाला अपने हृदय की संपति लिये अटल और अजेय खड़ी थी , मानों सभी युवक उसके सगे भाई हैं।
4 कुस्तुनतुनिया में कितनी खुशियाँ मनायी गयीं, हबीब का कितना सम्मान और स्वागत हुआ, उसे कितनी बधाइयाँ मिली, यह सब लिखने की बात नहीं। शहर तबाह हुआ जाता था। संभव था आज उसके महलों और बाज़ारों से आग की लपटें निकलती होतीं। राज्य और नगर को उस कल्पनातीत विपत्ति से बचानेवाला आदमी कितने आदर, प्रेम श्रद्धा और उल्लस का पात्र होगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती । उस पर कितने फूलों और कितने लाल-जवाहरों की वर्षा हुई, इसका अनुमान तो कोई कवि ही कर सकता है। और नगर की महिलाएँ हृदय के अक्षय भंडार से असीसें निकाल- निकालकर उस पर लुटाती थी और गर्व से फूली हुई उसका मुँह निहारकर अपने को धन्य मानती थीं । उसने देवियों का मस्तक ऊँचा कर दिया था। रात को तैमूर के प्रस्ताव पर विचार होने लगा। सामने गद्देदार कुर्सी पर यजदानी था- सौम्य, विशाल और तेजस्वी। उसकी दाहिनी तरफ उसकी पत्नी थी, ईरानी लिबास में, आँखों में दया और विश्वास की ज्योति भरे हुए। बायीं तरफ उम्मुतुल हबीब थी, जो इस समय रमणी-वेष में मोहिनी बनी हुई थी, ब्रह्मचर्य के तेज से दीप्त। यजदानी ने प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा– मैं अपनी तरफ से कुछ नहीं कहना चाहता , लेकिन यदि मुझे सलाह देने का अधिकार है, तो मैं स्पष्ट कहता हूँ कि तुम्हें इस प्रस्ताव को कभी स्वीकार न करना चाहिए , तैमूर से यह बात बहुत दिन तक छिपी नहीं रह सकती कि तुम क्या हो। उस वक्त क्या परिस्थिति होगी , मैं नहीं कह सकता। और यहाँ इस विषय में जो कुछ टीकाएँ होंगी, वह तुम मुझसे ज़्यादा जानती हो। यहाँ मै मौजूद था और कुत्सा को मुँह न खोलने देता था पर वहाँ तुम अकेली रहोगी और कुत्सा को मनमाने, आरोप करने का अवसर मिलता रहेगा। उसकी पत्नी स्वेच्छा को इतना महत्व न देना चाहती थी । बोली– मैंने सुना है, तैमूर निगाहों का अच्छा आदमी नहीं है। मैं किसी तरह तुझे न जाने दूगीं। कोई बात हो जाय तो सारी दुनिया हँसे। यों ही हँसनेवाले क्या कम हैं ? इसी तरह स्त्री-पुरुष बड़ी देर तक ऊँच–नीच सुझाते और तरह-तरह की शंकाएँ करते रहे लेकिन हबीब मौन साधे बैठी हुई थी। यजदानी ने समझा, हबीब भी उनसे सहमत है। इंकार की सूचना देने के लिये ही था कि हबीब ने पूछा– आप तैमूर से क्या़ कहेंगे ? ‘यही जो यहाँ तय हुआ।’ ‘मैंने तो अभी कुछ नहीं कहा।’ ‘मैंने तो समझा , तुम भी हमसे सहमत हो।’ ‘जी नहीं। आप उनसे जाकर कह दें मै स्वीकार करती हूँ।’ माता ने छाती पर हाथ रखकर कहा- यह क्या गजब करती है बेटी। सोच तो दुनिया क्या कहेगी। यजदानी भी सिर थामकर बैठ गये , मानो हृदय में गोली लग गयी हो। मुँह से एक शब्द भी न निकला। हबीब त्योरियों पर बल डालकर बोली- अम्मीजान , मैं आपके हुक्म से जौ-भर भी मुँह नहीं फेरना चाहती। आपको पूरा अख्तियार है, मुझे जाने दें या न दें लेकिन मुल्क की खिदमत का ऐसा मौक़ा शायद मुझे ज़िंदगी में फिर न मिले। इस मौके को हाथ से खो देने का अफ़सोस मुझे उम्र-भर रहेगा । मुझे यकीन है कि अमीर तैमूर को मैं अपनी दियानत, बेगरजी और सच्ची वफ़ादारी से इन्सान बना सकती हूँ और शायद उसके हाथों खुदा के बंदो का ख़ून इतनी कसरत से न बहे। वह दिलेर है, मगर बेरहम नहीं । कोई दिलेर आदमी बेरहम नहीं हो सकता । उसने अब तक जो कुछ किया है, मज़हब के अंधे जोश में किया है। आज खुदा ने मुझे वह मौक़ा दिया है कि मैं उसे दिखा दूँ कि मज़हब खिदमत का नाम है, लूट और कत्ल का नहीं। अपने बारे में मुझे मुतलक अंदेशा नहीं है। मै अपनी हिफाजत आप कर सकती हूँ । मुझे दावा है कि अपने फर्ज को नेकनीयती से अदा करके मैं दुश्मनों की जुबान भी बंद कर सकती हूँ, और मान लीजिए मुझे नाकामी भी हो, तो क्या सचाई और हक के लिये कुर्बान हो जाना ज़िंदगीं की सबसे शानदार फ़तह नहीं है। अब तक मैंने जिस उसूल पर ज़िंदगी बसर की है, उसने मुझे धोखा नहीं दिया और उसी के फैज से आज मुझे यह दर्जा हासिल हुआ है, जो बड़े-बड़ो के लिये ज़िंदगी का ख्वाब है। मेरे आजमाये हुए दोस्त मुझे कभी धोखा नहीं दे सकते । तैमूर पर मेरी हकीकत खुल भी जाय, तो क्या खौफ । मेरी तलवार मेरी हिफाजत कर सकती है। शादी पर मेरे खयाल आपको मालूम हैं। अगर मुझे कोई ऐसा आदमी मिलेगा, जिसे मेरी रूह कबूल करती हो, जिसकी जात अपनी हस्तीक को खोकर मैं अपनी रूह को ऊँचा उठा सकूँ, तो मैं उसके कदमों पर गिरकर अपने को उसकी नजर कर दूगीं। यजदानी ने खुश होकर बेटी को गले लगा लिया । उसकी स्त्री इतनी जल्द आश्वस्त न हो सकी। वह किसी तरह बेटी को अकेली न छोड़ेगी । उसके साथ वह भी जायगी।
5 कई महीने गुजर गये। युवक हबीब तैमूर का वजीर है, लेकिन वास्तव में वही बादशाह है। तैमूर उसी की आँखों से देखता है, उसी के कानों से सुनता है और उसी की अक्ल से सोचता है। वह चाहता है, हबीब आठों पहर उसके पास रहे। उसके सामीप्य में उसे स्वर्ग का-सा सुख मिलता है। समरकंद में एक प्राणी भी ऐसा नहीं, जो उससे जलता हो। उसके बर्ताव ने सभी को मुग्ध कर लिया है, क्योंकि वह इन्साफ से जौ-भर भी क़दम नहीं हटाता। जो लोग उसके हाथों चलती हुई न्याय की चक्की में पिस जाते हैं, वे भी उससे सद्भाव ही रखते हैं, क्योंकि वह न्याय को ज़रूरत से ज़्यादा कटु नहीं होने देता। संध्या हो गयी थी। राज्य कर्मचारी जा चुके थे । शमादान में मोम की बत्तियाँ जल रही थीं। अगर की सुगंध से सारा दीवानखाना महक रहा था। हबीब उठने ही को था कि चोबदार ने खबर दी- हुज़ूर जहाँपनाह तशरीफ ला रहे हैं। हबीब इस खबर से कुछ प्रसन्न नहीं हुआ। अन्य मंत्रियों की भाँति वह तैमूर की सोहबत का भूखा नहीं है। वह हमेशा तैमूर से दूर रहने की चेष्टा करता है। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि उसने शाही दस्तरखान पर भोजन किया हो। तैमूर की मजलिसों में भी वह कभी शरीक नहीं होता। उसे जब शांति मिलती है, तब एकांत में अपनी माता के पास बैठकर दिन-भर का माजरा उससे कहता है और वह उस पर अपनी पसंद की मुहर लगा देती है। उसने द्वार पर जाकर तैमूर का स्वागत किया। तैमूर ने मसनद पर बैठते हुए कहा- मुझे ताज्जुब होता है कि तुम इस जवानी में जाहिदों की-सी ज़िंदगी कैसे बसर करते हो हबीब । खुदा ने तुम्हें वह हुस्न दिया है कि हसीन-से-हसीन नाजनीन भी तुम्हारी माशूक बनकर अपने को खुशनसीब समझेगी। मालूम नहीं तुम्हें खबर है या नहीं, जब तुम अपने मुश्की घोड़े पर सवार होकर निकलते हो तो समरकंद की खिड़कियों पर हजारों आँखें तुम्हारी एक झलक देखने के लिये मुंतजिर बैठी रहती हैं, पर तुम्हें किसी तरफ आँखें उठाते नहीं देखा । मेरा खुदा गवाह है, मै कितना चाहता हूँ कि तुम्हारे कदमों के नक्शे पर चलूँ; पर दुनिया मेरी गर्दन नहीं छोड़ती। मैं चाहता हूँ जैसे तुम दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग रहते हो , वैसे मैं भी रहूँ लेकिन मेरे पास न वह दिल है न वह दिमाग । मैं हमेशा अपने-आप पर, सारी दुनिया पर दाँत पीसता रहता हूँ। जैसे मुझे हरदम ख़ून की प्यास लगी रहती है, जिसे तुम बुझने नहीं देते , और यह जानते हुए भी कि तुम जो कुछ करते हो, उससे बेहतर कोई दूसरा नहीं कर सकता , मैं अपने गुस्से को काबू में नहीं कर सकता । तुम जिधर से निकलते हो, मुहब्बत और रोशनी फैला देते हो। जिसको तुम्हारा दुश्मन होना चाहिए , वह तुम्हारा दोस्त है। मैं जिधर से निकलता हूँ नफरत और शुबहा फैलाता हुआ निकलता हूँ। जिसे मेरा दोस्त होना चाहिए वह भी मेरा दुश्मन है। दुनिया में बस एक ही जगह है, जहाँ मुझे आफियत मिलती है। अगर तुम मुझे समझते हो, यह ताज और तख्त मेरे रास्ते के रोड़े है, तो खुदा की कसम, मैं आज इन पर लात मार दूँ। मैं आज तुम्हारे पास यही दरख्वास्त लेकर आया हूँ कि तुम मुझे वह रास्ता दिखाओ , जिससे मै सच्ची खुशी पा सकूँ । मै चाहता हूँ , तुम इसी महल में रहो ताकि मैं तुमसे सच्ची ज़िंदगी का सबक सीखूँ। हबीब का हृदय धक से हो उठा । कहीं अमीर पर नारीत्व का रहस्य खुल तो नहीं गया। उसकी समझ में न आया कि उसे क्या जवाब दे। उसका कोमल हृदय तैमूर की इस करूण आत्मग्लानि पर द्रवित हो गया । जिसके नाम से दुनिया काँपती है, वह उसके सामने एक दयनीय प्राणी बना हुआ उससे प्रकाश की भीक्षा माँग रहा है। तैमूर की उस कठोर विकृत शुष्क हिंसात्मक मुद्रा में उसे एक स्निग्ध मधुर ज्योति दिखाई दी, मानो उसका जाग्रत विवेक भीतर से झाँक रहा हो। उसे अपना स्थिर जीवन, जिसमें ऊपर उठने की स्मृति ही न रही थी, इस विफल उद्योग के सामने तुच्छ जान पड़ा। उसने मुग्ध कंठ से कहा- हजूर इस ग़ुलाम की इतनी कद्र करते है, यह मेरी खुशनसीबी है, लेकिन मेरा शाही महल में रहना मुनासिब नहीं । तैमूर ने पूछा– क्यों ‘इसलिये कि जहाँ दौलत ज़्यादा होती है, वहाँ डाके पड़ते हैं और जहाँ कद्र ज़्यादा होती है , वहाँ दुश्मन भी ज़्यादा होते है।’ ‘तुम्हारा भी कोई दुश्मन हो सकता है।’ ‘मै खुद अपना दुश्मन हो जाऊँगा। आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है।’ तैमूर को जैसे कोई रत्न मिल गया। उसे अपनी मनःतुष्टि का आभास हुआ। आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है इस वाक्य को मन-ही-मन दोहरा कर उसने कहा- तुम मेरे काबू में कभी न आओगे हबीब। तुम वह परिंदा हो, जो आसमान में ही उड़ सकता है। उसे सोने के पिंजड़े में भी रखना चाहो तो फड़फड़ाता रहेगा। खैर, खुदा हाफिज। वह तुरंत अपने महल की ओर चला, मानो उस रत्न को सुरक्षित स्थान में रख देना चाहता हो। यह वाक्य पहली बार उसने न सुना था पर आज इससे जो ज्ञान, जो आदेश जो सत्प्रेरणा उसे मिली, वह कभी न मिली थी।
6 इस्तखर के इलाके से बगावत की खबर आयी है। हबीब को शंका है कि तैमूर वहाँ पहुँचकर कहीं कत्लेआम न कर दे। वह शांतिमय उपायों से इस विद्रोह को ठंडा करके तैमूर को दिखाना चाहता है कि सद्भावना में कितनी शक्ति है। तैमूर उसे इस मुहिम पर नहीं भेजना चाहता लेकिन हबीब के आग्रह के सामने बेबस है। हबीब को जब और कोई युक्ति न सूझी तो उसने कहा- ग़ुलाम के रहते हुए हुज़ूर अपनी जान खतरे में डालें यह नहीं हो सकता । तैमूर मुस्कराया- मेरी जान की तुम्हारी जान के मुकाबले में कोई हकीकत नहीं है हबीब ।फिर मैंने तो कभी जान की परवाह न की। मैंने दुनिया में कत्ल और लूट के सिवा और क्या यादगार छोड़ी। मेरे मर जाने पर दुनिया मेरे नाम को रोयेगी नहीं, यकीन मानो। मेरे जैसे लुटेरे हमेशा पैदा होते रहेंगे , लेकिन खुदा न करे, तुम्हारे दुश्मनों को कुछ हो गया, तो यह सल्तनत खाक में मिल जायगी, और तब मुझे भी सीने में खंजर चुभा लेने के सिवा और कोई रास्ता न रहेगा। मै नहीं कह सकता हबीब तुमसे मैंने कितना पाया। काश, दस-पाँच साल पहले तुम मुझे मिल जाते, तो तैमूर तारीख में इतना रूसियाह न होता। आज अगर ज़रूरत पड़े, तो मैं अपने जैसे सौ तैमूरों को तुम्हारे ऊपर निसार कर दूँ । यही समझ लो कि मेरी रूह को अपने साथ लिये जा रहे हो। आज मै तुमसे कहता हूँ हबीब कि मुझे तुमसे इश्क है इसे मैं अब जान पाया हूँ । मगर इसमें क्या बुराई है कि मै भी तुम्हारे साथ चलूँ। हबीब ने धड़कते हुए हृदय से कहा- अगर मैं आपकी ज़रूरत समझूँगा तो इत्तला दूंगा। तैमूर ने दाढ़ी पर हाथ रखकर कहा- जैसी तुम्हारी मर्जी लेकिन रोजाना कासिद भेजते रहना, वरना शायद मैं बेचैन होकर चला आऊँ। तैमूर ने कितनी मुहब्बत से हबीब के सफर की तैयारियाँ की। तरह-तरह के आराम और तकल्लुफ की चीज़ें उसके लिये जमा कीं। उस कोहिस्तान में यह चीज़ें कहाँ मिलेंगी। वह ऐसा संलग्न था, मानों माता अपनी लड़की को ससुराल भेज रही हो। जिस वक्त हबीब फ़ौज के साथ चला, तो सारा समरकंद उसके साथ था और तैमूर आँखों पर रूमाल रखे, अपने तख्त पर ऐसा सिर झुकाये बैठा था, मानो कोई पक्षी आहत हो गया हो।
7 इस्तखर अरमनी ईसाईयों का इलाका था, मुसलमानों ने उन्हें परास्त करके वहाँ अपना अधिकार जमा लिया था और ऐसे नियम बना दिये थे, जिससे ईसाइयों को पग-पग अपनी पराधीनता का स्मरण होता रहता था। पहला नियम जजिए का था, जो हरेक ईसाई को देना पड़ता था, जिससे मुसलमान मुक्त थे। दूसरा नियम यह था कि गिरजों में घंटा न बजे। तीसरा नियम मदिरा का था, जिसे मुसलमान हराम समझते थे। ईसाईयों ने इन नियमों का क्रियात्मक विरोध किया और जब मुसलमान अधिकारियों ने शस्त्र-बल से काम लेना चाहा, तो ईसाइयों ने बगावत कर दी, मुसलमान सूबेदार को कैद कर लिया और किले पर सलीबी झंडा उड़ने लगा। हबीब को यहाँ आज दूसरा दिन है; पर इस समस्या को कैसे हल करे। उसका उदार हृदय कहता था, ईसाइयों पर इन बंधनों का कोई अर्थ नहीं । हरेक धर्म का समान रूप से आदर होना चाहिए , लेकिन मुसलमान इन कैदों को हटा देने पर कभी राजी न होगें। और यह लोग मान भी जाएँ तो तैमूर क्यों मानने लगा। उसके धार्मिक विचारों में कुछ उदारता आई है, फिर भी वह इन कैदों को उठाना कभी मंजूर न करेगा, लेकिन क्या वह ईसाइयों को सज़ा दे कि वे अपनी धार्मिक स्वाधीनता के लिये लड़ रहे हैं। जिसे वह सत्य समझता है, उसकी हत्या कैसे करे। नहीं, उसे सत्य का पालन करना होगा, चाहे इसका नतीजा कुछ भी हो। अमीर समझेगें मैं ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ा जा रहा हूँ। कोई मुजायका नहीं। दूसरे दिन हबीब ने प्रातःकाल डंके की चोट ऐलान कराया- जजिया माफ किया गया, शराब और घंटों पर कोई कैद नहीं है। मुसलमानों में तहलका पड़ गया। यह कुफ्र है, हरामपरस्ती है। अमीर तैमूर ने जिस इस्लाम को अपने ख़ून से सींचा, उसकी जड़ उन्हीं के वजीर हबीब पाशा के हाथों खुद रही है। पाँसा पलट गया। शाही फ़ौज मुसलमानों से जा मिली। हबीब ने इस्तीखर के किले में पनाह ली। मुसलमानों की ताकत शाही फ़ौज के मिल जाने से बहुत बढ़ गयी थी। उन्होंने किला घेर लिया और यह समझकर कि हबीब ने तैमूर से बगावत की है, तैमूर के पास इसकी सूचना देने और परिस्थिति समझाने के लिये कासिद भेजा।
8 आधी रात गुजर चुकी थी। तैमूर को दो दिनों से इस्तखर की कोई खबर न मिली थी। तरह-तरह की शंकाएँ हो रही थीं। मन में पछतावा हो रहा था कि उसने क्यों हबीब को अकेला जाने दिया । माना कि वह बड़ा नीतिकुशल है , पर बगावत कहीं ज़ोर पकड़ गयी तो मुट्ठी-भर आदमियों से वह क्या कर सकेगा । और बगावत यकीनन ज़ोर पकड़ेगी । वहाँ के ईसाई बला के सरकश है। जब उन्हें मालूम होगा कि तैमूर की तलवार में जंग लग गया और उसे अब महलों की ज़िंदगी पसंद है, तो उनकी हिम्मत दूनी हो जायगी। हबीब कहीं दुश्मनों से घिर गया, तो बड़ा गजब हो जायगा। उसने अपने जानू पर हाथ मारा और पहलू बदलकर अपने ऊपर झुँझलाया । वह इतना पस्तहिम्मात क्यों हो गया। क्या उसका तेज और शौर्य उससे विदा हो गया । जिसका नाम सुनकर दुश्मान में कंपन पड़ जाता था, वह आज अपना मुँह छिपाकर महलों में बैठा हुआ है। दुनिया की आँखों में इसका यही अर्थ हो सकता है कि तैमूर अब मैदान का शेर नहीं , कालीन का शेर हो गया । हबीब फरिश्ता है, जो इन्सा न की बुराइयों से वाकिफ नहीं। जो रहम और साफदिली और बेगरजी का देवता है, वह क्या जाने इन्सान कितना शैतान हो सकता है । अमन के दिनों में तो ये बातें कौम और मुल्क को तरक़्क़ी के रास्ते पर ले जाती हैं पर जंग में , जबकि शैतानी जोश का तू्फान उठता है इन खुशियों की गुंजाइश नहीं । उस वक्त तो उसी की जीत होती है , जो इन्सानी ख़ून का रंग खेले, खेतों-खलिहानों को जलाये , जंगलों को बसाये और बस्तियों को वीरान करे। अमन का क़ानून जंग के क़ानून से जुदा है। सहसा चोबदार ने इस्तखर से एक कासिद के आने की खबर दी। कासिद ने ज़मीन चूमी और एक किनारे अदब से खड़ा हो गया। तैमूर का रोब ऐसा छा गया कि जो कुछ कहने आया था, वह भूल गया। तैमूर ने त्योरियाँ चढ़ाकर पूछा- क्या खबर लाया है। तीन दिन के बाद आया भी तो इतनी रात गये। कासिद ने फिर ज़मीन चूमी और बोला- खुदाबंद वजीर साहब ने जजिया मुआफ कर दिया । तैमूर गरज उठा- क्या कहता है, जजिया माफ कर दिया। ‘हाँ खुदाबंद।’ ‘किसने।’ ‘वजीर साहब ने।’ ‘किसके हुक्म से।’ ‘अपने हुक्म से हुज़ूर।’ ‘हूँ।’ ‘और हुज़ूर , शराब का भी हुक्म दे दिया।’ ‘हूँ।’ ‘गिरजों में घंटे बजाने का भी हुक्म हो गया है।’ ‘हूँ।’ ‘और खुदाबंद ईसाइयों से मिलकर मुसलमानों पर हमला कर दिया।’ ‘तो मै क्या करूँ ?’ ‘हुज़ूर हमारे मालिक हैं। अगर हमारी कुछ मदद न हुई तो वहाँ एक मुसलमान भी जिंदा न बचेगा।’ ‘हबीब पाशा इस वक्त कहाँ है।’ ‘इस्तखर के किले में हुज़ूर।’ ‘और मुसलमान क्या कर रहे हैं।’ ‘हमने ईसाइयों को किले में घेर लिया है।’ ‘उन्हींस के साथ हबीब को भी ?’ ‘हाँ हुज़ूर , वह हुज़ूर से बागी हो गये।’ और इसलिये मेरे वफ़ादार इस्लाम के खादिमों ने उन्हें कैद कर रखा है। मुमकिन है, मेरे पहुँचते-पहुँचते उन्हें कत्ल भी कर दें। बदजात, दूर हो जा मेरे सामने से। मुसलमान समझते है, हबीब मेरा नौकर है और मै उसका आका हूँ। यह ग़लत है, झूठ है। इस सल्तनत का मालिक हबीब है, तैमूर उसका अदना ग़ुलाम है। उसके फैसले में तैमूर दस्तंदाजी नहीं कर सकता । बेशक जजिया मुआफ होना चाहिए। मुझे मजाज नहीं कि दूसरे मज़हब वालों से उनके ईमान का तावान लूँ। कोई मजाज नहीं है; अगर मस्जिद में अजान होती है, तो कलीसा में घंटा क्यों बजे। घंटे की आवाज़ में कुफ्र नहीं है। काफिर वह है, जा दूसरों का हक छीन ले जो ग़रीबों को सताये, दगाबाज हो, खुदगरज हो। काफिर वह नहीं, जो मिट्टी या पत्थर के एक टुकड़े में खुदा का नूर देखता हो, जो नदियों और पहाड़ों मे, दरख्तों और झाड़ियों में खुदा का जलवा पाता हो। वह हमसे और तुमसे ज्याकदा खुदापरस्त है, जो मस्जिद में खुदा को बंद समझते हैं। तू समझता है, मैं कुफ्र बक रहा हूँ ? किसी को काफिर समझना ही कुफ्र है। हम सब खुदा के बंदे हैं, सब । बस जा और उन बागी मुसलमानों से कह दे, अगर फौरन मुहासरा न उठा लिया गया, तो तैमूर कयामत की तरह आ पहुँचेगा। कासिद हतबुद्धि–सा खड़ा ही था कि बाहर खतरे का बिगुल बज उठा और फ़ौजें किसी समर-यात्रा की तैयारी करने लगीं।
9 तीसरे दिन तैमूर इस्तखर पहुँचा, तो किले का मुहासरा उठ चुका था। किले की तोपों ने उसका स्वागत किया। हबीब ने समझा, तैमूर ईसाइयों को सज़ा देने आ रहा है। ईसाइयों के हाथ-पाँव फूले हुए थे , मगर हबीब मुकाबले के लिये तैयार था। ईसाइयों के स्वप्न की रक्षा में यदि जान भी जाय, तो कोई गम नहीं। इस मुआमले पर किसी तरह का समझौता नहीं हो सकता। तैमूर अगर तलवार से काम लेना चाहता है, तो उसका जवाब तलवार से दिया जायगा। मगर यह क्या बात है। शाही फ़ौज सफेद झंडा दिखा रही है। तैमूर लड़ने नहीं सुलह करने आया है। उसका स्वागत दूसरी तरह का होगा। ईसाई सरदारों को साथ लिये हबीब किले के बाहर निकला। तैमूर अकेला घोड़े पर सवार चला आ रहा था। हबीब घोड़े से उतरकर आदाब बजा लाया। तैमूर घोड़े से उतर पड़ा और हबीब का माथा चूम लिया और बोला- मैं सब सुन चुका हूँ हबीब। तुमने बहुत अच्छा किया और वही किया जो तुम्हारे सिवा दूसरा नहीं कर सकता था। मुझे जजिया लेने का या ईसाइयों से मज़हबी हक छीनने का कोई मजाज न था। मै आज दरबार करके इन बातों की तसदीक कर दूँगा और तब मैं एक ऐसी तजवीज बताऊँगा जो कई दिन से मेरे जेहन में आ रही है और मुझे उम्मीद है कि तुम उसे मंजूर कर लोगे। मंजूर करना पड़ेगा। हबीब के चेहरे का रंग उड़ रहा था। कहीं हकीकत खुल तो नहीं गयी। वह क्या तजवीज है; उसके मन में खलबली पड़ गयी। तैमूर ने मूस्कराकर पूछा- तुम मुझसे लड़ने को तैयार थे ? हबीब ने शरमाते हुए कहा- हक के सामने अमीर तैमूर की भी कोई हकीकत नहीं। बेशक-बेशक ! तुममें फरिश्तों का दिल है, तो शेरों की हिम्मत भी है, लेकिन अफ़सोस यही है कि तुमने यह गुमान ही क्यों किया कि तैमूर तुम्हारे फैसले को मंसूख कर सकता है। यह तुम्हारी जात है, जिसने मुझे बतलाया है कि सल्तनत किसी आदमी की जायदाद नहीं बल्कि एक ऐसा दरख्त है, जिसकी हरेक शाख और पत्ती एक-सी खुराक पाती है। दोनों किले में दाखिल हुए। सूरज डूब चूका था । आन-की-आन में दरबार लग गया और उसमें तैमूर ने ईसाइयों के धार्मिक अधिकारों को स्वीकार किया। चारों तरफ से आवाज़ आयी- खुदा हमारे शाहंशाह की उम्र दराज करे। तैमूर ने उसी सिलसिले में कहा- दोस्तों , मैं इस दुआ का हकदार नहीं हूँ। जो चीज़ मैंने आपसे जबरन ली थी, उसे आपको वापस देकर मैं दुआ का काम नहीं कर रहा हूँ। इससे कही ज़्यादा मुनासिब यह है कि आप मुझे लानत दें कि मैंने इतने दिनों तक आपके हकों से आपको महरूम रखा। चारों तरफ से आवाज़ आयी- मरहबा ! मरहबा ! ! ‘दोस्तों, उन हकों के साथ-साथ मैं आपकी सल्तनत भी आपको वापस करता हूँ क्योंकि खुदा की निगाह में सभी इन्सान बराबर है और किसी कौम या शख़्स को दूसरी कौम पर हुकूमत करने का अख्तियार नहीं है। आज से आप अपने बादशाह है। मुझे उम्मीद है कि आप भी मुस्लिम आबादी को उसके जायज हकों से महरूम न करेंगे । मगर कभी ऐसा मौक़ा आये कि कोई जाबिर कौम आपकी आज़ादी छीनने की कोशिश करे, तो तैमूर आपकी मदद करने को हमेशा तैयार रहेगा।
10 किले में जश्न खत्म हो चुका है। उमरा और हुक्काम रुखसत हो चुके हैं। दीवाने ख़ास में सिर्फ तैमूर और हबीब रह गये हैं। हबीब के मुख पर आज स्मित हास्य की वह छटा है,जो सदैव गंभीरता के नीचे दबी रहती थी। आज उसके कपोलों पर जो लाली, आँखों में जो नशा, अंगों में जो चंचलता है, वह और कभी नजर न आयी थी। वह कई बार तैमूर से शोखियाँ कर चुका है, कई बार हँसी कर चुका है, उसकी युवती चेतना, पद और अधिकार को भूलकर चहकती फिरती है। सहसा तैमूर ने कहा- हबीब, मैंने आज तक तुम्हारी हरेक बात मानी है। अब मै तुमसे यह तजवीज करता हूँ जिसका मैंने ज़िक्र किया था। उसे तुम्हें कबूल करना पड़ेगा। हबीब ने धड़कते हुए हृदय से सिर झुकाकर कहा- फरमाइये। ‘पहले वायदा करो कि तुम कबूल करोगे।’ ‘मैं तो आपका ग़ुलाम हूँ।’ ‘नहीं, तुम मेरे मालिक हो, मेरी ज़िंदगी की रोशनी हो, तुमसे मैंने जितना फैज पाया है, उसका अंदाजा नहीं कर सकता । मैंने अब तक सल्तनत को अपनी ज़िंदगी की सबसे प्यारी चीज़ समझा था। इसके लिये मैंने वह सब कुछ किया जो मुझे न करना चाहिए था। अपनों के ख़ून से भी इन हाथों को दागदार किया गैरों के ख़ून से भी। मेरा काम अब खत्म हो चुका। मैंने बुनियाद जमा दी इस पर महल बनाना तुम्हारा काम है। मेरी यही इल्तजा है कि आज से तुम इस बादशाहत के अमीर हो जाओ, मेरी ज़िंदगी में भी और मरने के बाद भी। हबीब ने आकाश में उड़ते हुए कहा- इतना बड़ा बोझ। मेरे कंधे इतने मज़बूत नहीं हैं। तैमूर ने दीन आग्रह के स्वर में कहा- नहीं मेरे प्यारे दोस्त , मेरी यह इल्तजा माननी पड़ेगी। हबीब की आँखों में हँसी थी, अधरों पर संकोच । उसने आहिस्ता से कहा- मंजूर है। तैमूर ने प्रफुल्लित स्वर में कहा– खुदा तुम्हें सलामत रखे। ‘लेकिन अगर आपको मालूम हो जाय कि हबीब एक कच्ची– अक्ल की क्वाँरी बालिका है तो ?’ ‘तो वह मेरी बादशाहत के साथ मेरे दिल की भी रानी हो जायगी।’ ‘आपको बिल्कुल ताज्जुब नहीं हुआ?’ ‘मैं जानता था।’ ‘कब से ?’ ‘जब तुमने पहली बार अपनी जालिम आँखों से मुझे देखा।’ ‘मगर आपने छिपाया खूब !’ ‘तुम्हीं ने सिखाया। शायद मेरे सिवा यहाँ किसी को यह बात मालूम नहीं।’ ‘आपने कैसे पहचान लिया !’ तैमूर ने मतवाली आँखों से देखकर कहा- यह न बताऊँगा। यही हबीब तैमूर की ‘बेगम हमीदा’ के नाम से मशहूर है।
क्या नाम कि कुछ समझ में नहीं आता कि डेरी और डेरी फार्म में क्या सम्बन्ध! डेरी तो कहते हैं उस छोटी-सी सादी सजिल्द पोथी को, जिस पर रोज-रोज का वृत्तान्त लिखा जाता है और जो प्राय: सभी महान् पुरुष लिखा करते
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हैं और डेरी फार्म उस स्थान को कहते हैं जहाँ गायें-भैंसें पाली जाती हैं और उनका दूध, मक्खन, घी तैयार किया जाता है। ऐसा मालूम होता है, डेरी फार्म इसलिए नाम पड़ा कि जैसे डेरी में नित्य-प्रति का समाचार लिखा जाता है, उस तरह नित्य-प्रति दूध-मक्खन बनता है। जो कुछ हो, मैंने अब डेरी लिखने का निश्चय कर लिया है। कई साल पहले एक बार एक पुस्तक वाले ने मुझे एक डेरी भेंट की थी। तब मैंने उस पर एक महीने तक अपना हाल लिखा; लेकिन मुझे उसमें लिखने को कुछ सूझता ही न था। रात को सोने से पहले घण्टों बैठा सोचता-क्या लिखूँ। लिखने लायक कोई बात भी हो? यह लिखना कि प्रात:काल उठा, मुँह-हाथ धोया, स्नान किया, तिलक-चन्दन लगाया, पूजन किया, यजमानों से मिला, कहीं साइत बाँचने गया; फिर लौटकर भोजन किया और सोया। तीसरे पहर फिर उठा, भंग छानी, फिर स्नान किया, फिर तिलक लगाया और कथा बाँचने चला गया; लौटकर फिर भोजन किया और सो रहा। यह सब लिखना मुझे अच्छा न लगता था। इसलिए उस डेरी पर मैंने धोबी के कपड़ों और आमदनी-खर्च लिखकर उसे पूरा किया। जब से वह डेरी समाप्त हुई, तब से खर्च-आमदनी का हिसाब लिखना छोड़ दिया और धोबी के कपड़ों का हिसाब पण्डिताइन के जिम्मे डाल दिया।
लेकिन अब से फिर डेरी लिखना आरम्भ कर रहा हूँ, इसका क्या कारण है? मैंने सुना है कि इससे आयु बढ़ती है, और चारों पदार्थ हाथ आ जाते हैं। इसलिए अब मैं फिर भगवान् का नाम लेकर, और गणेशजी के सामने शीश झुकाकर डेरी लिखना आरम्भ करता हूँ। ओम शान्ति: शान्ति: शान्ति:। क्या नाम कि आजकल साम्यवाद और समष्टिवाद की बड़ी चर्चा सुन रहा हूँ। साम्यवाद का अर्थ यह है कि सभी मनुष्य बराबर हों। तो मैं अपने साम्यवादी विद्वानों से जो इस विषय के आचार्य हैं, जैसे-श्री सम्पूर्णानन्द, आचार्य नरेन्द्रदेवजी और आचार्य श्रीप्रकाशजी से पूछना चाहता हूँ कि सब मनुष्य कैसे बराबर हो सकते हैं? आचार्य नरेन्द्रदेवजी मुझे क्षमा करें या न करें, मगर उनके जैसे तीन आचार्य मेरे पेट में समा सकते हैं, फिर यह कैसा साम्यवाद? इसका मतलब तो यही हो सकता है कि या मैं वामन रूप धारण कर लूँगा वह विराट् रूप धारण कर लें।
अच्छा, अब दूसरी बात लीजिए। धन तो आप सबका बराबर कर देना चाहते हैं; लेकिन कृपा करके यह बतलाइए कि आप सबके पेट कैसे बराबर कर देंगे? आचार्य नरेन्द्रदेवजी एक-दो फुलके और आध घूँट दूध पीकर रह सकते हैं; मगर मुझे तो पूजा करने के बाद, मध्याह्न, तीसरे पहर और रात को, चार बार तर माल चकाचक चाहिए, जिसमें लड्डू, हलवा, मलाई, बादाम, कलाकन्द आदि का प्राधान्य हो। अगर आपका साम्यवाद इसकी गारण्टी करे कि वह मुझे इच्छापूर्ण भोजन देगा तो मैं उस पर विचार कर सकता हूँ और अगर आप चाहते हों कि मैं भी दो फुलके और तोले भर दूध और दो तोले भाजी खाकर रहूँ तो ऐसे साम्यवाद को मेरा दूर ही से प्रणाम है। मैं धन नहीं माँगता; लेकिन भोजन आँतफाड़ चाहता हूँ, अगर इस तरह की गारण्टी दी गयी, तो वचन देता हूँ कि मैं और मेरे अनेक मित्र साम्यवादी बनने को तैयार हो जाएँगे।
लेकिन एक भोजन ही से तो काम नहीं चलता। कपड़ा ही ले लीजिए। आपको एक कुरता और एक टोपी चाहिए। कुरते में एक गज से अधिक खद्दर न लगेगा। मैं लम्बी अँगरखी पहनता हूँ, जिसमें सात गज से कम कपड़ा नहीं लगता। मैंने दरजी के सामने बैठकर खुद कटवाया है और इसका विश्वास दिलाता हूँ कि इससे कम में मेरी अँगरखी नहीं बन सकती। फिर बारह गज का साफा, ५ गज की चादर ऊपर से। साम्यवाद इसकी गारण्टी ले सकता है? धन लेकर मुझे क्या करना है, लेकिन भोजन और वस्त्र तो चाहिए ही।
आप कहेंगे, काम सबके बराबर करना पड़ेगा। मैं स्वीकार करता हूँ, अगर कोई सज्जन घड़ी भर पूजा करें, तो मैं दो घड़ी कर दूँगा; वह घड़ी भर स्नान करें तो मैं दो घड़ी पानी में रह सकता हूँ, वह एक घड़ी शास्त्रार्थ करें तो मैं भोजन-पूजन आदि को छोडक़र दिन भर शास्त्रार्थ कर सकता हूँ। इसमें मैं किसी से पीछे हटने वाला नहीं।
एक बात और। स्थान की मुझे परवाह नहीं; झोपड़ी भी हो तो मैं अपना निबाह कर सकता हूँ। लेकिन रेल यात्रा करते समय अगर मुझे सबके बराबर जगह मिली, तो उस पटरी पर बैठने वालों को छोडक़र भागना पड़ेगा; क्योंकि मैं एक पूरी पटरी से कम में समा नहीं सकता। दूसरी बात यह है कि मैं सन्नाटा मारकर नहीं सो सकता। निद्रा में एक विचित्र प्रकार का खर्राटा लेता हूँ। कभी कोई सज्जन मेरे समीप सोते हैं; तो उन्हें रात को उठकर भागना पड़ता है। इसलिए अपने हित के लिए नहीं, दूसरों के हित के लिए मैं यह चाहूँगा कि मुझे एक पूरी कोठरी सोने को मिले। अगर साम्यवाद इसमें मीनमेख निकाले तो मैं उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखूँगा।
इतना लिख चुका था कि पण्डिताइन आकर खड़ी हो गयीं और पूछने लगीं-आज सबेरे-सबेरे यह क्या लिखने बैठ गये। सेठजी के लड़के की कुण्डली क्यों नहीं बना डालते? व्यर्थ शास्त्रार्थ करके अपना मूँड़ क्यों दुखवाते हो?
मैं स्त्रियों का अपमान नहीं करता। उन्हें घर की देवी समझता हूँ। वे घर की लक्ष्मी हैं; घर-गिरस्ती के सिवा उनसे किसी और बात में सलाह नहीं लेता! घर की लक्ष्मी को घर तक ही रखना चाहता हूँ। राजनीति, समाज, धर्म आदि के विषय से उन्हें क्या मतलब। स्त्रियों को सिर चढ़ाने की इन मुठ्ठी-भर पढ़े-लिखे बाबुओं को जो सनक सवार हुई है, मैं इसे पसन्द नहीं करता। पण्डिताइन भी एक दिन आधी बाँह की जम्पर पहने हुए निकलीं जिससे आधी छाती दिखाई दे रही थी, तो मैंने उसी दम वह जम्पर उतरवाकर छोड़ा। वह बहुत बिगड़ीं, लेकिन मैंने भी रौद्ररूप दिखाया। आखिरकार जब मैं डण्डा लेने दौड़ा; तो उन्होंने धीरे से जम्पर उतार दिया और मुँह फुला बैठीं। मैंने कहा-चाहे मुँह फुलाओ, चाहे गाल फुलाओ, चाहे सारी देह फुलाकर कुप्पा हो जाओ, लेकिन इस भेष में मैं तुम्हें घर से निकलने न दूँगा। खैर, जब उन्होंने आकर मुझे डाँट बतायी; तो मैंने कह दिया, ‘तुम यह बातें नहीं समझ सकती, जाकर अपना काम देखो।’
पण्डिताइन बोलीं-तुमने चार अक्षर पढ़ लिया तो बड़े समझदार हो गये? अभी एक जून चूल्हा न जलाऊँ तो सारी समझदारी निकल जाए
कितना बेतुका जवाब था। मारो घुटना; फूटे आँख! लेकिन मुझे आश्चर्य नहीं हुआ! उनसे मैं ऐसे जवाब सुनने का अभ्यस्त हो गया हूँ। मैंने जरा कड़ाई के साथ कहा-तुम्हारे मतलब की कोई बात नहीं है देवी, नहीं तो मैं तुम्हें सुना देता।
‘कोई कविताई करते होंगे। यही तो तुम्हें रोग है।’
‘कविता करने का रोग मुझे कब था? बे-बात-की बात करती हो। मैं कविताई से इतनी दूर हूँ, जितना पूरब पश्चिम से। यह वेश-भूषा, यह डीलडौल कवियों का है? तुम क्या जानो, कवि किसे कहते हैं? कवि वह है, जिसकी सूरत से कविता बरसती हो। बस, मैं कविताई नहीं कर रहा हूँ, एक सामाजिक प्रश्न पर कुछ शंकाएँ उपस्थित करने का सौभाग्य-सिन्दूर प्राप्त कर रहा हूँ।’
पण्डित के पाण्डित्यपूर्ण कथन से वह कुछ रोब में आ गयीं। लेकिन मैं थोड़ा सा बुद्घू भी हूँ। उसी वक्त मुझे हँसी आ गयी। बस, पण्डिताइन लौट पड़ीं और मेरे हाथ से लेख छीनकर बोलीं-मैं समझ गयी, किसी को प्रेमपत्र लिख रहे हो?
अब नहीं तो अब बनी। मैं गंगाजल लेकर शपथ खा सकता हूँ कि मैंने आज तक न जाना प्रेम किस चिडिय़ा का नाम है। मेरी प्रेमिका तर माल है। दूसरा प्रेम मेरी समझ में ही नहीं आता; लेकिन पण्डिताइन को न जाने क्यों मुझ पर सन्देह होता रहता है। प्रेमियों की दशा देखकर तो मुझे उन पर हँसी आती है। जब देखो, रो रहे हैं। ठण्डी साँसें खींच रहे हैं। न कुछ खाते हैं, न पीते हैं, खासे लकलक बने हुए हैं, फूँक दो तो उड़ जाएँ। इस तरह का प्रेम करके तो मैं तीसरे दिन संसार से विदा हो जाऊँ? लेकिन इस सन्देह का निवारण करना अब लाज़िम हो गया।
मैंने थोड़े से शब्दों में पण्डिताइन को साम्यवाद का तत्व समझाने की चेष्टा की। जब मैं अपना कथन समाप्त कर चुका, तो वह आँखें मटकाकर बोलीं-ऐ नौज तुम्हारा सामवाद! कुछ घास तो नहीं खा गये हो। जिसके बाल वंश न हों, वे सामवाद की बात सोचें। मुझे तो भगवान ने पाँच-पाँच पुत्र दिये हैं, और छठवाँ आने वाला है। मैं सामवाद के फेर में क्यों पड़ूँ? ‘मेरे बराबर हो पड़ोसन, गोदा-रोटी खाय’ अच्छा सामवाद है। मेरे लाल जीते जी रहेंगे, तो माँग खाएँगे।
वह और भी न जाने क्या-क्या अनाप-शनाप बकती रहीं; लेकिन उनकी बातों से मेरे मन में एक शंका उत्पन्न हो गयी। साम्यवाद में कहीं सन्तान-निग्रह का बन्धन तो नहीं है? क्योंकि इस तरह का कोई सम्बन्ध हुआ तो फिर मेरा उससे कोई सम्पर्क न रहेगा। मैं इस विषय में किसी से समझौता न करूँगा। पीछे से थुक्का-फजीहत करना मुझे पसन्द नहीं। आचार्य मुझे स्पष्ट बतला दें कि मुझे गृहस्थाश्रम का त्याग तो न करना पड़ेगा? मैं इसकी स्वाधीनता चाहता हूँ कि जितनी सन्तानें आवें उनका स्वागत करूँ; क्योंकि मैं जानता हूँ, जन्म देने वाले भगवान हैं और पालन करने वाले भी भगवान हैं। मैं तो निमित्त-मात्र हूँ।
२
क्या नाम है कि मैं पण्डित मोटेराम वल्द पण्डित छोटेराम स्वर्गवासी, साकिन विश्वनाथपुरी जो शंकर भगवान के तिरसूल पर बसी है, आज बम्बई में दनदना रहा हूँ। एक यजमान सेठजी ने तार भेजा, हम बड़े संकट में हैं, तुरन्त आओ। तार के साथ डबल तीसरे दरजे का किराया भी। इसलिए हमने चटपट बम्बई को प्रस्थान कर दिया! अपने यजमान पर संकट पड़े, तो हम कैसे रुक सकते थे। सेठजी एक बार काशी आये थे। वहाँ मैं भी निमन्त्रण में गया था। वहीं मेरी उनकी जान-पहचान हुई। बात करने में मैं पक्का फिकैत हूँ। बस यही समझ लो कि कोई मुझे निमन्त्रण भर दे दे, फिर मैं अपनी बातों से ज्ञान घोलता हूँ वेदों-शास्त्रों की ऐसी व्याख्या करता हूँ कि क्या मजाल जो यजमान उल्लू न हो जाए। योगासन, हस्तरेखा, सन्तानशास्त्र, वशीकरण आदि सभी विद्याएँ, जिन पर सेठ-महाजनों का पक्का विश्वास है, मेरी जिह्वा पर हैं। अगर पूछो कि क्यों पण्डित मोटेराम शास्त्री, आपने इन विद्याओं को पढ़ा भी है? तो मैं डंके की चोट पर कहता हूँ, मैंने कभी नहीं पढ़ा। इन विद्याओं का क्या रोना, हमने कुछ नहीं पढ़ा, पूरे लण्ठ हैं, निरक्षर महान : लेकिन फिर भी किसी बड़े-से-बड़े पुस्तकचाटू, शास्त्रघोंटू, पण्डित का सामना करा दो, चपेट न दूँ तो मोटेराम नहीं। जी हाँ, चपेट दूँ, ऐसा चपेटूँ, ऐसा रगेदूँ कि पण्डितजी को भागने का रास्ता न मिले! पाठक कहेंगे; यह असम्भव है, भला एक मूर्ख आदमी महान पण्डित कैसे रगेदेगा। मैं कहता हूँ प्रियवर, पुस्तक चाटने से कोई विद्वान नहीं हो जाता। जो विद्वान आज इस युग में श्राद्ध, पिण्डदान और वर्णाश्रम में विश्वास रखता हो, जो आज गोबर और गोमूत्र को पवित्र समझता हो, जो देवपूजा को मुक्ति का साधन समझता है, वह विद्वान कैसे हो सकता है? मैं खुद यजमानों में यह सब कृत्य कराता हूँ, नि:सन्देह जानता हूँ, हलवा और कलाकन्द किसी आत्मा के पेट में नहीं, मेरे पेट में जाता है, फिर भी यजमानों को मूड़ता हूँ, तो इसलिए कि मेरी यह जीविका है। जीविका नहीं छोड़ी जाती, और इसलिए यजमान खुद बेवकूफ बनना चाहता है, पाँच पैसे का गऊदान करके भवसागर पार उतरना चाहता है, तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा है जो कहूँ कि यह सब मिथ्या है। सरासर आती हुई लक्ष्मी को कौन दुत्कारता है? लेकिन पण्डितों के बीच में दूसरी बात हो जाती है। वहाँ मुझे अपनी जीविका का डर नहीं रहता और मैं भिगो-भिगोकर लगाता हूँ, कभी दाहिने, कभी बायें, चौंधिया देता हूँ, साँस नहीं लेने देता। बस पण्डितों के पास इसके सिवा और जवाब नहीं रहता कि तुम नास्तिक हो।
मगर मैं अपने विषय से बहककर कहाँ जा पहुँचा। जब मैं बम्बई चलने को तैयार हुआ, तो पण्डिताइन रोने लगीं। कहने लगीं, बताओ कै दिन में आओगे। दो-तीन दिन में जरूर से लौट आना। मैं जो उस वक्त बता दूँ कि दो दिन पहुँचने में लग जाएँगे, तो फिर वह मेरा पिण्ड न छोड़तीं। इसलिए बड़े प्रेम भरे शब्दों में कहा-प्रिये, मेरा जी तुम्हीं में लगा रहेगा। खाऊँगा तो तुम्हारे करकमलों की गुदगुदी रोटियाँ और पतली दाल याद आएगी। पानी पिऊँगा तो तुम्हारे पपडिय़ाये हुए अधरों का ध्यान बना रहेगा। सोते-जागते, उठते-बैठते, बस तुम्हारे ही पास मन मँडराता रहेगा। इससे उन्हें कुछ ढाढ़स हुआ। लेकिन क्या नाम कि स्त्री का हृदय कुछ अटपटा होता है। एकाएक बोल उठीं-मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं आता। कौन जाने तुम वहाँ कैसे जाओ। कहीं तुम कुछ गड़बड़ न कर बैठो। मैंने तुरन्त समझाया-प्राणप्रिये, मुझे तुम्हारे प्रेम में पगे लगभग ४५ साल हुए। क्या तुम समझती हो कि इतने दिनों में जो रंग जमा है, वह दो-चार दिन में फीका पड़ जाएगा? कहाँ तुम्हारा खयाल है! बोली-क्या जाने भाई, तुम मरदों का हाल कौन जाने? यहाँ तो ऐसी मीठी-मीठी बातें करते हो, वहाँ जाकर क्या जाने क्या कर बैठो। मैं वहाँ थोड़ी बैठी रहूँगी कि तुम्हारी देखभाल करती रहूँ। मैं तो एक सरियत पर जाने दूँगी, कि तुम गंगाजल हाथ से लेकर कहो कि वहाँ कुछ गड़बड़-सड़बड़ न करूँगा। मैं मन में हँसा और गंगाजल लेकर कसम खायी। तब जाके पण्डिताइन का चित्त शान्त हुआ।
चलने को तो चला; लेकिन हृदय मेरा भी काँपता था। प्रयाग तक तो मेरा मन ठिकाने रहा; लेकिन जब फिर भी बम्बई का कहीं पता न चला, तो मुझे रोना आ गया। भगवान! यह तो कालापानी है। दिन भर चला, बम्बई नदारद। रात-भर चला, बम्बई नदारद। समझ गया कि काशी में मरना न बदा था। मजे से गंगास्नान करता था, विश्वनाथ के दर्शनों का पुन्न लूटता था और धेली बारह आने कहीं-न-कहीं से पीट ही लाता था और यहाँ गाड़ी में बैठे न जाने किस लोक को चले जा रहे हैं। इतनी दूर तो चन्द्रमा भी न होंगे। मुझे भ्रम हो गया कि यात्री और रेल कर्मचारी सब मुझे धोखा दे रहे हैं। बम्बई जरूर पीछे छूट गयी। बारे कोई दस बजे बम्बई का नाम सुना। जान आयी। देखा तो यजमान सेठजी मेरा स्वागत करने के लिए खड़े थे। उन्होंने पालागन किया; मगर असीस कौन देता है, यहाँ तो चोला भसम हो रहा था। मैंने ब्रह्म तेज से गरजकर कहा-तुमने मुझे लिखा क्यों नहीं कि बम्बई लंका के पास है? अभी तक जल नहीं ग्रहण किया। प्राण छटपटा के निकलने जा रहा था; बारे मैंने योगबल से रोक लिया। मैं झूठ बोल रहा था। मैं रास्ते भर फलाहारी खाता रहा और रेल से उतरकर पानी पीता चला आ रहा था; लेकिन ऐसे यजमानों के सामने अपने नेम का डंका बजा देना फलदायक होता है। सेठजी ने दौडक़र मेरी अधारी कन्धे पर रखी और लगे घिघियाने-महाराज, क्षमा किया जाय, मैं क्या जानता था कि महाराज को बम्बई .......
मैंने फिर डाँटा-महाराज को बम्बई से क्या सम्बन्ध? अपने लोग तीर्थ स्थानों में रहते हैं कि राक्षसों के देश में? यहाँ वह रहे, जो धन का लोभी हो। हम ब्राह्मणों को अपना धर्म प्यारा है।
इस डाँट से सेठजी की नानी मर गयी। बाहर आये तो मोटर खड़ी थी। बैठकर यजमान के घर चले। वाह रे बम्बई! वहाँ तो आदमी पागल हो जाए। सडक़ें न जाने क्यों इतनी चौड़ी बनायी हैं। हमारी चौखम्भेवाली कितनी गुलजार गली है कि वाह! यहाँ की सडक़ें हैं कि बालेमियाँ का मैदान है। मगर बम्बई का हाल फिर लिखेंगे। इस वक्त तो सेठजी के संकट की कथा कहनी है, जिसके लिए हम इतनी दूर से बुलाये गये हैं। संकट यह कि सेठजी ने सट्टा खेला है और चाहते हैं; मैं कोई ऐसा अनुष्ठान करूँ कि सेठजी के पौ-बारह हो जाएँ। मामला गहरा है, कोई डेढ़ लाख का। मैंने यह वृत्तान्त सुनकर ऐसा गम्भीर मुँह बनाया, मानों सब कुछ मेरे हाथ में है। फिर बोला-सेठजी, आप जो हैं सो मेरे यजमान हैं और मुझे जो कुछ विद्या आती है, उसमें कुछ उठा न रखूँगा। और यह आप जानते हैं कि मुझे किसी बात से ममता नहीं रही। ब्राह्मण को धन से क्या प्रयोजन? धन चाहता तो अब तक लाखों बटोर लेता। कितने यजमान मेरे अनुष्ठानों से करोड़पति हो गये, लखपतियों की तो गिनती ही नहीं। मैं वही ब्राह्मण का ब्राह्मण बना हूँ। तो बात क्या है? हम ममता को पास नहीं आने देते। साढ़े सात सौ कोस से ही ललकारते हैं, खबरदार जो इधर मुँह किया! हाँ, बात इतनी है कि अनुष्ठानों में पैसे खरच होते हैं। अगर यही अनुष्ठान विधिपूर्वक करूँ तो डेढ़-दो सौ से कम न खर्च होंगे। यह समझ लीजिए।
लेकिन मैं इस ६५ साल की अवस्था में भी पोंगा ही रहा। मैंने डेढ़-दो सौ अपनी समझ में बहुत कहे थे। इससे ऊँचे जाने की मुझे हिम्मत ही न पड़ी। कभी इतना बड़ा शिकार तो फँसा नहीं था उसके दाँव-घात क्या समझता? सेठजी का मुँह लटक गया। उन्होंने दस-बारह हजार का अनुमान किया था। डेढ़-दो सौ सुनकर मेरी सारी प्रतिष्ठा उनके हृदय से निकल भागी। क्या स्वर्ण संयोग दिया था भगवान् विश्वनाथ ने, लेकिन तकदीर खोटी है तो उनका क्या बस? दस हजार कह देता तो जन्म भर के लिए अयाच्य हो जाता। बोलते-बोलते बोला क्या? डेढ़-दो सौ! धत् तेरे पोंगापन का सत्यानाश हो! अब तो यही जी चाहता है कि जाकर समुद्र में कूद पड़ूँ। उसी दिन एक दूसरे घोंघानाथ शास्त्री के नाम तार गया। अब यह पठ्ठा आकर इन सेठजी को मूँड़ेगा। २० हज़ार से कम न लेगा; लेकिन अब पछताने से क्या होता है। फिर भी मैंने सोचा, बला से मैं नहीं पा रहा हूँ। कोई दूसरा क्यों ले जावे? मेरा क्या? यह धर्म नहीं है कि अपने यजमान की इन लुटेरों से रक्षा करूँ? बोला मैंने केवल सामग्री का मूल्य दिया। दक्षिणा मैं लेता नहीं। एक हजार रुपये विप्रों की दक्षिणा भी समझ लीजिए।
सेठ बोले-उससे कोई मतलब नहीं, वह तो यहाँ से अलग दिया जाएगा। आपकी सामग्री तो कुल २००) की होगी?
मैंने कहा-बस, इससे अधिक नहीं। हाँ, ऐसे लोगों को भी जानता हूँ, जो इसी अनुष्ठान के लिए १० हज़ार, १५ हज़ार तक ले लेंगे। लगेगा तो ढाई-तीन सौ, शेष अपने पेट में ठूँस लेंगे। इसलिए ऐसे धूर्तों से सचेत रहिएगा।
लेकिन सेठ के कण्ठ तले से यह बात न धँसी। बोला-यह आप क्या कहते हो शास्त्रीजी? गुड़ जितना ही डालो उतना ही मीठा पकवान होगा। आपका अनुष्ठान २००) का है। आप कीजिए। लेकिन बिना बड़े अनुष्ठान के मेरा काम न चलेगा।
अब भी मुझे अपना उल्लू फाँसने का मौका था। कह सकता था, सेठजी, आपका काम तो छोटे अनुष्ठान से ही निकल सकता है, लेकिन आपकी इच्छा है तो मैं महा-महा-महा मृत्युञ्जय-पाठ और ब्रह्म-प्रवीक्षक क्रिया भी कर सकता हूँ। हाँ, उसमें कोई साढ़े तेरह हज़ार का खर्च है; मगर यह तो अब सूझ रही है। उस वक्त अक्ल पर पत्थर पड़ गया था। मेरी भी विचित्र खोपड़ी है। जब सूझती है, अवसर निकल जाने पर। हाँ, मैंने यह निश्चय कर लिया कि पण्डित घोंघानाथ को बिना दस-पाँच घिस्से दिये न छोड़ूँगा। या तो बेटा से आधा रखा लूँगा, या फिर यहीं बम्बई के मैदान में हमारी उनकी ठनेगी। वह विद्वान् होंगे। यहाँ सारी जवानी अखाड़े में कटी है। भुरकुस निकाल दूँगा।
अपनी इस पिछिल-सूझता पर पछता रहा था कि डाकिया एक तिकोना सा बैरंग लिफाफा लाकर मुझे दे गया। समझ गया, पण्डिताइन की कृपा है। आज यह पत्र हाथ में लेकर मुझे सचमुच उनकी याद आ गयी। बेचारी ने मेरे साथ ४५ साल काट दिये, और मैं बराबर उसे बातों में टालता रहा। आँखें सजल हो गयीं। पत्र खोला। लिखा था। स्वस्ति श्री सर्व उपमा योग ... सो तुम जाय के बम्बई में बैठि रह्यौ, कान में तेल डारिकै। हमका रोज सपना दिखात है। डरन के मारे नींद नहीं आवति है। कतों तुम कुछ गड़बडि़ न करि बैठो, यही चिन्ता में हमार परान सूखा जात है। तुम कहिहौ हम ६५ साल के होए गयेन, अबका जन्म भर गड़बड़े करत रहिबे। मुला सुनित है, बैदन सब अइस-अइस बिरवा निकारेन हैं कि ओहिका खायके मनई बौराय जात है। एक बैद झाँसी माँ है, एक और कतों है। तुमार हाथ जोरित है, तुम कौनो औखद न खायो। तुम गंगाजल उठाय के जौन परन किह्यौ ओहिका निबाह करै का परी। हम तुमका साँड़ न बनै देब।
लीजिए साहब, अब मैं साँड़ हो गया। कमर सीधी होती नहीं, डेढ़ सेर मलाई भी नहीं पचाये पचती, और वहाँ पण्डिताइन मुझे साँड़ बना रही हैं। सो यहाँ भी अपनी ही भूल है। मैं पण्डिताइन के सामने अपनी जवाँमरदी और पुरुषार्थ की डींग मारा करता हूँ। वह गऊ क्या जाने, यह लबाडिय़ा है। मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे ब्रह्मवाक्य समझ बैठती हैं और उसका यह फल है। इस यात्रा से संभवत: मेरी दृष्टि कुछ सूक्ष्म हो रही है।
३
क्या नाम कि जब मैंने देखा कि अब तो मुझसे भूल हो ही गयी और बहुत खींचतान करने पर भी दो से बेशी न मिलेंगे, तो मैंने सोचा, लाओ और कुछ न सही तो इसके सौ पचास रुपये भोजनों में ही बिगाड़ दो। यह भी क्या समझेगा कि किसी से पाला पड़ा था। बस, मैंने शंकर भगवान् का सुमिरन किया और विनती की-हे उमापति, अब तुम्हीं मेरी रक्षा करो, मैं तो अब प्राणों से हाथ धोकर भोजन पर जुटता हूँ। नाश्ता आया तो मैंने कह दिया-मुझे आपके महाराज के हाथ की बनी चीजों में कोई स्वाद नहीं आता, मुझे तो आप सामग्री दे दीजिए, मैं अपना भोजन आप पका लूँगा। भण्डारी ने कहा-जैसी आपकी इच्छा, जो आज्ञा हो वह हाजिर करूँ। मैंने नाश्ते का नुसखा बताया-सवा सेर ताजा मक्खन, आध सेर बादाम, आध सेर पिश्ते, आध तोले केसर, सेर भर सूजी और सेर भर शक्कर। भण्डारी मेरा मुँह ताकने लगा। मैंने कहा-मुँह क्या ताकते हो, क्या बाँधकर ले जाने को माँगता हूूँ। जाकर चटपट लाओ। बस मैंने घोटी भंग और चढ़ाया गोला और विश्वनाथ का नाम लेकर हलवा बनाने बैठ गया। शंकर की दया से ऐसा स्वादिष्ट पदार्थ बना कि क्या कहूँ। पलथी मारके जो बैठा, तो आध घण्टे में साफ। मक्खी के लिए भी न बचा। भण्डारी के होश उड़ गये। दोपहर को फिर मैंने पूरियाँ पकायीं। आधोआध मोयन देकर। रात को कुछ खाने की इच्छा न होने पर भी मैंने सवा सेर मलाई चढ़ा ली।
लेकिन अब वह जवानी तो है नहीं कि ईंट-पत्थर जो पेट में पहुँच जाए, वह सब भस्म। तीसरे ही दिन मुझे उदर-विकार के लक्षण दिखे। मैंने सोचा-यहाँ किसी से कहता हूँ, तो सब यही कहेंगे कि ब्राह्मण की जात, खाने के पीछे प्राण दे रहा है। इसलिए मुहल्ले ही में एक डाक्टर के पास कोई पाचक-बटी लेने चला गया। बड़ा भारी मकान, मोटर, फोन। मैंने अपना परिचय दिया तो डाक्टर ने मुझे गौर से देखा और बोले-काशी से आता है?
मैंने कहा-हाँ साहब, विश्वनाथजी आपको प्रसन्न रखें, यहाँ कुछ भोजन प्रकृति के अनुकूल न मिलने के कारण पाचन दूषित हो गया है। कोई औषधि प्रदान कीजिए।
डाक्टर मुझे एक अलग कमरे में ले गया और एक मेज पर लेटाकर मेरा पेट टटोलने लगा। फिर सीने की परीक्षा की; पीठ ठोंकी आँखें देखीं, जीभ निकलवाकर परीक्षा ली। इस तरह कोई आध घण्टे तक मेरी दलेल करने के बाद बोला-वेल पण्डितजी, आपको कुछ टी०बी० के आसार मालूम देता है। आपको उसका दवाई करने होगा। हम टी०बी० का इसपिसलिस्ट है। आपको अच्छा कर सकता है; पर आपको अभी एक दूसरा डाक्टर के पास अपने खून का मुलाहजा कराना होगा। बिना खून देखे हम कुछ नहीं कर सकता। हम आपको चिठ्ठी देता है। आप डाक्टर सूबेदार के पास जाएँ। वह चौपाटी में रहता है। हम चिठ्ठी देता है। आपके ब्लड का मुलाहजा करके हमको लिखेगा।
मेरे होश फ़ाखता हो गये। पण्डिताइन की याद आयी। भगवान्, क्या बम्बई में मेरी मिट्टी की दुर्दशा करोगे। आया था कि कुछ कमाकर जाऊँगा; सो यहाँ जान पर बीता चाहती है। अभी काशी से चला हूँ तो कोई बात न थी। खासा साठा-पाठा बना हुआ था कि बम्बई का पानी है, और कुछ नहीं। दुबे विजयानन्द ने कहा था, बम्बई का पानी खराब है, जरा सँभलकर रहना। लेकिन यह क्या जानता था कि दस-पाँच दिन में ही सिल धरे लेता है; लेकिन अब पछताये क्या होता है। चलो, लहू भी दिखा लो, और फिर डर किस बात का है। मर ही तो जाएँगे। यहाँ अमर कौन है। जरा कच्ची गिरस्ती है; यही चिन्ता है। अगर जानता कि अन्त इतना निकट है तो पिछले दो लड़के क्यों होते और तीसरा गर्भ में क्यों रहता। लेकिन हरि की इच्छा। तुलसीदासजी ने कहा भी तो है-
सुत बनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबही ते,
अन्तहुँ तोहि तजेंगे पामर, तू न तजे अबही ते।
मैं यहाँ से चला तो दिल बहुत छोटा हो गया था; लेकिन डाक्टर साहब ने तुरन्त टोका-हमारा फीस ३२ रुपया हुआ। सेठजी के पास बिल भेज देगा न?
अगर अभी तक यमराज न आये थे, तो अब आ गये, ३२ रुपया फीस! जो उमर में कभी नहीं दी! बैद, डाक्टर को अमीर लोग पैसा देते हैं? हम शंकर के उपासक तो केवल आशीर्वाद से काम निकालते हैं। काशी में जब कभी काम पड़ता था, डाक्टर चौधरी, डाक्टर बनर्जी, डॉ० सेठ आदि जिसके पास चला गया दवाई ले आया, ऊपर से रुपये-आठ आने बिदाई झटक आया। और यहाँ जरा-सी परीक्षा की तो ३२ रुपया फीस। आँखों तले अँधेरा छा गया; लेकिन फिर सोचा अब तो मर ही रहे हो, रुपये-पैसे के माया मोह में क्या पड़े हो। ३२ रुपया खर्च हुए तो हुए, मालूम तो हो गया कि तपेदिक हो गया है। नहीं यों ही एक दिन चल देते, किसी को पता न चलता। दवा दारू करने की नौबत ही न आती। भला, दवा करने का अवसर मिल गया। और आदमी कमाता ही किसलिए है। लेकिन यह पूछ लेना आवश्यक मालूम हुआ कि डॉ० सूबेदार को तो कुछ न देना पड़ेगा। अतएव मैंने इस विषय का प्रश्न किया।
डॉ० साहब जोर से हँसे। बोले-तुम काशी का विद्वान लोग बड़ा मजाक करता है। काशी के एक पण्डित को दक्षना देने से सब पण्डित तो नहीं परसन हो जाएगा। बोले?
हमने कलेजा थामकर पूछा-तो उनकी क्या फीस होगी?
‘उसका फीस केवल १० रुपया है।’
मैंने मन से कहा-चलो मन यह १० रुपया भी गम खाओ। बम्बई में जो कमाना है, वह सब देकर भी प्राण बचे तो समझना चाहिए, नया जीवन पाया। नहीं यहीं बैठे-बैठे टें हो जाएँगे, कोई रोने वाला भी न मिलेगा। उस वक्त ऐसा वैराग्य सवार हुआ कि सब छोड़-छाडक़र निकल भागूँ, कबीर का वह पद याद आया जिसे पढक़र मैं कभी-कभी हँसा करता था। धूर्तताई में जीवन कट गया। अब इस काया की क्या दुरदसा होगी भगवान-
दिवाने मन भजन दुख पैहो।
पहिला जनम भूत का पैहो, सात जनम पछतैहो;
कीरा पर के पानी पैहो, प्यासन ही मरि जैहो।
दूजा जनम सुवा का पैहो, बाग बसेरा लैहो;
टूटे पंख बाज मँडराने अधफड़ प्रान गँवैहो।
बाजीगर के बानर होइहौ, लकडिऩ नाच नचैहो;
ऊँच-नीच के हाथ पसरिहौ, माँगे भीख न पैहो।
तेलिन के घर बैला होइहौ, आँखिन ढाँप ढैपैहो;
कोस पचास घरै माँ चलिहो, बाहर होन न पैहो।
पाँचवाँ जनम ऊँट का पैहो, बिन तोले बो लदैहो;
बैठे तो उठन न पैहो, घुरच-घुरच मरि जैहो।
धोबी घाट के गदहा होइहौ, कटी घास न पैहो,
लादी लादि आपु चढ़ बैठे लैके घाट पहुँचैहो।
आखिर यही कहना पड़ा कि हाँ सेठजी के पास बिल भेज देना। फिर वहाँ का पता पूछता हुआ डाक्टर सूबेदार के पास पहुँचा। कोई दस बज गये थे, पेट में मीठा-मीठा दर्द होने लगा था; लेकिन सोचा इस झमेले से निबट लो, फिर विश्वनाथजी की जैसी इच्छा होगी, वह तो होगा ही।
डॉ० सूबेदार युवक-से लगते, कोट-पैण्ट से लैस। मैंने पत्र जो दिया, आपने ले जाकर भीतर के कमरे में लेटा दिया और ऐसे जोर से मेरी बाँह में सुई चुभो दिया कि मैं ऐंठकर रह गया। बाँह में से रक्त निकल पड़ा। उसने एक शीशे से नलकी में ले लिया और मेरी बाँह में कुछ पोतकर एक तीसरी कोठरी में जाकर न जाने क्या करता रहा। फिर आकर बोला-वेल पण्डितजी, आपके ब्लड में टी०बी० का जर्म दिखाई देता है। आपको किसी पहाड़ पर जाना होगा और वहाँ आराम से रहना होगा। आपको पढऩा-लिखना बन्द करना होगा, लेकिन अभी हम कुछ ठीक-ठीक नहीं कह सकता, आप डॉ० घोड़ेपुरकर के पास जाए, वह आपका यूरीन देखेगा। उसका रिपोर्ट लेकर तब हम अपना रिपोर्ट देगा। तब आप डाक्टर लम्पट के पास जाएगा। फिर वह कुछ कहेगा, वह आपको करना होगा।
मेरे बदन में आग लग गयी। जी में तो आया, मारूँ गोली इन डॉक्टरों को और चलकर दो पैसे की हरड़ मँगवाकर उसकी फंकी फाँक लूँ। मरना ही बदा है, तो सारी दुनिया के डाक्टर भी तो नहीं जिला सकते; लेकिन जान का लोभ बड़ा बलवान होता है। उनकी चिठ्ठी लेकर पता पूछता हुआ चला डाक्टर घोड़ेपुरकर के पास। इसने मुझसे एक चोंगे में लघुशंका करवायी और बड़ी देर तक न जाने क्या करता रहा। फिर मुझे रिपोर्ट लिखकर दी और कहा-डॉ० सूबेदार के पास जाइए। सूबेदार के पास फिर पहुँचा, तो तीन बज गये थे। आपने अपनी रिपोर्ट दी, तो आया डॉ० लम्पट के पास। डाक्टर लम्पट ने दोनों रिपोर्टों को बड़े ध्यान से देखा और बोले-मेरा अनुमान ठीक था पण्डितजी, आपको टी०बी० हो गया है।
मैंने सजल-नेत्र होकर पूछा-तो मैं मर जाऊँगा?
‘नहीं-नहीं, हम आपको मरने नहीं देगा। आपको पहाड़ पर रहना होगा। अच्छा भोजन करने से आप बच सकता है। आपको अण्डों का सेवन करना होगा।’
मैंने कानों पर हाथ रखकर कहा-क्या कहा, अण्डों का? मैं अण्डे हाथ से नहीं छू सकता, खाने की कौन कहे!
‘ओह! यह सब आरथोडाक्सी यहाँ नहीं चलेगा। तुमको अण्डे खाना होगा।’
‘अण्डे मैं किसी तरह नहीं खा सकता।’
‘तुम मर जाएगा।’
‘कोई चिन्ता नहीं।
‘हम दवाई देता है, इसे तो पी सकता है।’
‘ना! अब न कोई दवा खाऊँगा; न किसी डाक्टर के पास जाऊँगा।’
यह कहकर मैं सेठजी की कोठी पर लौट आया। दिन-भर जो कुछ भोजन न किया था, तो भूख चमचमा उठी थी। बूटी छानी, शौच गया और फिर खूब डटकर भोजन किया।
सहसा सेठजी घबड़ाये हुए आये और बोले-पण्डितजी, क्या आपका मुलाहजा किया था लम्पट साहब ने! आपको तो टी०बी० बताते हैं।
मैंने कहा-वह आपके घर आने का पुरसकार है, और क्या?
‘आप आज ही काशी चले जाइए।’
‘मैं बिना अनुष्ठान पूरा किये नहीं जा सकता।’
‘नहीं, नहीं, कोई दरकार नहीं, आप इसी नौ बजे की गाड़ी से चले जाएँ।’
मैंने उसकी घबराहट देखी तो समझ गया, वह ब्रह्महत्या से डर रहा है। बस, फिर क्या था। मेरी लह गयी।
मैंने कहा-बिना अनुष्ठान पूरा किये लौट जाने में प्राणों का भय है। इसका उपचार करने में कम-से-कम एक हज़ार का खरच है। मैं वह कहाँ से लाऊँगा। फिर मरने से क्या डरना! यहीं मर जाऊँगा तो क्या चिन्ता।
सेठजी काँपते हुए बोले-नहीं पण्डितजी, आपका जो कुछ खर्च पड़े, वह लीजिए और आज ही चल दीजिए।
बस मुनीमजी बुलाए गये और फिर सौ-सौ के दस नोट मेरे चरणों पर रख दिये। मैंने विश्वनाथजी को धन्यवाद दिया, नोट गाँठ में किये और टी०बी० को ऐसा भूला कि वह भी मुझे भूल गया।
४
क्या नाम कि मैं जहाँ जाता हूँ, वहीं कुछ-न-कुछ लोग मेरे पीछे पड़ जाते हैं, और आ-आकर मुझे दिक करते हैं। बम्बई में भी भले आदमियों से गला न छूटा। यह तो होता नहीं कि आकर एक मोहर मेरे चरणों पर रखें और तब अपनी कथा सुनायें। बस आकर लगते हैं अपनी कथा सुनाने और चाहते हैं कि मैं सेंत-मेंत में उन्हें अनुष्ठान बता दूँ। तो यहाँ ऐसे उल्लू नहीं हैं। सुनने को सुन लेते हैं, लेकिन अनुष्ठान बताने के लिए पचासों बार दौड़ते हैं, ऐसा पदाते हैं कि वह भाग खड़ा होता है। जब कोई डाक्टर सेंत-मेंत में किसी रोगी को नहीं देखता, कोई वकील सेंत में कोई मिसिल नहीं छूता तो मैं क्यों सेंत में अपनी विद्या लुटाता फिरूँ? वह विद्या क्या है, यह मैं जानता हूँ, उसी तरह जैसे वकील और डाक्टर अपनी विद्या को जानते हैं; लेकिन भाई, एक-दूसरे का पर्दा क्यों खोलो। संसार उसका है, जो उसे बेवकूफ बनाये, जिसे यह कला नहीं आती, वह कौड़ी का तीन है।
कल भंग-बूटी से निपटकर मलाई पर हाथ साफ कर रहा था कि एक सज्जन आकर बैठ गये। कोट, पैण्ट, कालर, बूट, हैट, खासे साहब बहादुर थे। चेहरा लटका हुआ, मानो पत्नी मर गयी हो, बोले-आपका नाम पण्डित मोटेराम शास्त्री है?
मैंने कहा-हाँ, मेरा ही नाम है। कहिए, आपकी क्या सेवा करूँ!
साहब बहादुर ने जेब से रूमाल निकाला और सिर का पसीना पोंछते हुए कहा-मैं बड़े संकट में पड़ गया हूँ महाशय! कुछ अक्ल काम नहीं करती। अब आप ही बेड़ा पार लगाइए तो लगे।
मेरे हृदय में गुदगुदी हुई। यह तो कोई शिकार मालूम होता है।
बोला-भगवान की दया से सारी बाधाएँ दूर हो जाएँगी, कुछ चिन्ता मत कीजिए।
‘क्या कहूँ महोदय, कहते संकोच हो रहा है।’
‘संकोच की कोई बात नहीं, सन्तान तो मेरी मुठ्ठी में है। कहिए तो बालकों से आपका घर भर दूँ। बस एक अनुष्ठान .....’
‘जी नहीं, बालकों से तो मुझे प्रेम नहीं। मैं सन्तान विरोधी हूँ।’
‘अच्छा तो क्या धन की इच्छा है?’
‘धन की इच्छा किसे न होगी; लेकिन इस वक्त मैं इस हेतु से आपकी सेवा में नहीं आया था।’
‘तो कहो न? पौष्टिक अनुष्ठानों की भी मेरे पास कमी नहीं। चूर्ण, अवलेह, गोली, भस्म, आसव, क्वाथ, किसी चीज के सेवन करने की आवश्यकता नहीं, बस पाँच बार उस मन्त्र की जप करके सो जाइए, फिर उसकी करामात देखिए।’
‘मैं इस समय एक दूसरे ही काम से सेवा में आया था।’
मुझे कुछ निराशा होने लगी। हत्थे पर चढऩे वाला नहीं जान पड़ता। फिर भी मैंने दिलासा दिया-जो इच्छा हो वह निस्संकोच कहो।
उसने पूछा-आप उसमें अपना अपमान तो न समझेंगे?
अब मेरे कान खड़े हुए, उत्सुकता और बढ़ी।
‘अपमान की बात होगी, तो अवश्य अपमान समझूँगा।’
‘बात यह है कि कल सन्ध्या समय मेरे माता-पिता देश से आ गये हैं।’
‘बहुत अच्छी बात है तुम्हें उनका आदर-सत्कार करना चाहिए।’
‘लेकिन करूँ कैसे यह समझ में नहीं आता। कल से उन्होंने भोजन नहीं किया!’
‘भोजन नहीं किया! यह तो बड़ा अनर्थ है। कुछ उदर विकार हो गया है। मैं आयुर्वेद भी जानता हूँ।’
‘नहीं-नहीं शास्त्रीजी, वह तो आपसे भी भारी डीलडौल के हैं।’
‘भारी डीलडौल के लोग क्या बीमार नहीं पड़ते?’
‘पड़ते होंगे; पर फादर कभी बीमार नहीं पड़ते और मदर के सिर में तो कभी दर्द भी नहीं हुआ।’
‘तो वह और आप दोनों भाग्यवान् हैं।’
‘समस्या यह है कि वे दोनों ही बड़े नेम से रहते हैं।’
‘बड़े हर्ष की बात है। आप वास्तव में भाग्यशाली हैं।’
‘लेकिन वह मेरे खानसामा के हाथ का भोजन तो नहीं कर सकते!’
‘तो एक-दो दिन तुम्हारी स्त्री ही भोजन पका लेगी तो क्या छोटी हो जाएगी? सास-ससुर की सेवा करना ही स्त्री का परम धर्म है।’
‘मैं इसे नहीं स्वीकार करता, महोदय। बुरा न मानिएगा। आप सौ बरस की पुरानी बात कह रहे हैं। सास-ससुर को ऐसी जरा-जरा की बातों के लिए पुत्र और पुत्रवधू को संकट में न डालना चाहिए। समय बहुत आगे बढ़ गया है। अब ऐसे माता-पिता के लिए स्थान नहीं रहा।’
‘यह आप बहुत ठीक कह रहे हैं; लेकिन जब माता-पिता दो-ही चार दिन के लिए आये हैं, तो स्त्री को थोड़ा-सा कष्ट भी तो सह लेना चाहिए।’ इस पर सज्जन ने कुछ भौंवे सिकोडक़र कहा-लेकिन भोजन पकाने का उन्हें अभ्यास नहीं है, श्रीमान! जब कभी खानसामा बैठ रहता है, तो हम लोग होटल में खा लेते हैं। एक बार घर में रुपये न थे, और होटल में नगद दाम देना पड़ता है; इसलिए स्त्री ने सोचा, कुछ पका लें, तो साहब, आटा ऐसा हो गया जैसे गाढ़ा दूध और चावल जलकर कोयला हो गया। उस पर तीन दिन श्रीमतीजी के सिर में दर्द होता रहा। हारकर हमें फाँका करना पड़ा। तो साहब, फिर वह विपत्ति नहीं मोल लेना चाहता। न जाने क्यों होटल में खाना खाते इन लोगों की नानी मरती है। मैं इसे उनकी कोरी जिद समझता हूँ। माँ-बाप हैं, क्या कहूँ। क्या आप इतनी कृपा न करेंगे कि एक-दो दिन जब तक वह लोग यहाँ रहें, उनका भोजन पका दें। आपको कष्ट तो होगा, लेकिन आप ब्राह्मण हैं और ब्राह्मण को परोपकार के लिए अपने कष्ट की परवाह नहीं होती।
मेरा खून खौल उठा। जी में आया, उठा के पटक दूँ, लेकिन मैंने सब्र किया। क्या कदर की है आपने ब्राह्मण की! और मज़ा यह है कि इस मूर्ख को मुझसे ऐसी बात कहते संकोच भी न हुआ। मुझे चुप देखकर उसने कहा-क्या बुरा मान गये?
मैंने कहा-नहीं, बुरा क्या मानूँगा, लेकिन आपने इस काम के लिए किसी पानी-पाँड़े को पकड़ा होता, मुझे आप शायद नहीं जानते?
उसने कहा-मैं आपको खूब जानता हूँ, आप काशी के शास्त्री हैं। जब मैं होस्टल में था, तो एक काशी के शास्त्री मेरे सहपाठी थे। वह बराबर अपना भोजन आप पकाया करते थे, और जब कभी हमारे मेस का रसोइयादार बीमार पड़ जाता या भाग जाता तो वह मेरा भोजन पका देते थे और आग्रह करके खिलाते थे। इसीलिए मैंने आपसे यह प्रार्थना की।
मेरे पास इसका क्या जवाब था। पुरखों ने जो कुछ किया है, उसका तावान तो देना ही पड़ेगा।
मैंने कहा-आपकी इच्छा है तो मैं चलकर भोजन बना दूँगा। लेकिन एक शर्त है, अगर आप उसे स्वीकार करें।
‘कहिए, कहिए, आप जो कुछ कहेंगे वह मुझे स्वीकार है। आपने आज मेरी लाज रख ली।’
‘मैं रसोई में बैठकर बताता जाऊँगा, काम श्रीमतीजी को करना पड़ेगा।’
‘लेकिन उनके सिर में दर्द हुआ तब?’
‘उसकी मेरे पास दवा है। सिर में चक्कर आ जाए, आँखों के सामने अँधेरा छा जाए, मैं बात-की-बात में अच्छा कर सकता हूँ।’
‘और जो उन्हें गर्मी लगे?’
‘आप खड़े पंखा झलते रहिएगा।’
‘और उन्होंने क्रोध में आकर आपको कुछ कह दिया?’
‘तो मुझे भी क्रोध आ जाएगा और क्रोध में मैं लाट साहब को भी कुछ नहीं समझता। हाँ, इतना कह सकता हूँ कि इसके बाद उन्हें फिर क्रोध न आएगा।’
‘और जो उन्होंने बहस शुरू कर दी? उनकी दलीलों का आप जवाब दे सकते हैं?’
‘वाह! और मैंने उम्र भर किया क्या है? पहले तो दलील का जवाब दलील से देता हूँ। जब इससे काम नहीं चलता तो हाथ-पाँव से भी काम लेता हूँ। कितने ही शास्त्रार्थों में सम्मिलित हुआ हूँ और कभी परास्त होकर नहीं आया। बड़े-बड़े महामहोपाध्यायों को गुड़-हल्दी पिलाकर छोड़ दिया।
सज्जन ने एक क्षण तक विचार किया और फिर आने का वादा करके चले गये। तब से अब तक सूरत नहीं दिखाई।
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हिंदी समय में प्रेमचंद की रचनाएँ
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अनुवाद
उपन्यास आजाद-कथा भाग एक भाग दो
कहानियाँ
एक चिनगारी घर को जला देती हैक्षमादानदो वृद्ध पुरुषध्रुवनिवासी रीछ का शिकारप्रेम में परमेश्वरमनुष्य का जीवन आधार क्या हैमूर्ख सुमंतराजपूत कैदी
Hindi Kahani हिंदी कहानी Kshama - Munshi Premchand क्षमा - मुंशी प्रेम चंद 1 मुसलमानों को स्पेन-देश पर राज्य करते कई शताब्दियाँ बीत चुकी थीं। कलीसाओं की जगह मसजिदें बनती जाती थीं, घंटों की जगह अजान की आवाजें सुनाई देती थीं। ग़रनाता और अलहमरा में वे समय की नश्वर गति
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पर हँसनेवाले प्रासाद बन चुके थे, जिनके खंडहर अब तक देखनेवालों को अपने पूर्व ऐश्वर्य की झलक दिखाते हैं। ईसाइयों के गण्यमान्य स्त्री और पुरुष मसीह की शरण छोड़कर इस्लामी भ्रातृत्व में सम्मिलित होते जाते थे, और आज तक इतिहासकारों को यह आश्चर्य है कि ईसाइयों का निशान वहाँ क्योंकर बाकी रहा ! जो ईसाई-नेता अब तक मुसलमानों के सामने सिर न झुकाते थे, और अपने देश में स्वराज्य स्थापित करने का स्वप्न देख रहे थे उनमें एक सौदागर दाऊद भी था। दाऊद विद्वान और साहसी था। वह अपने इलाके में इस्लाम को कदम न जमाने देता था। दीन और निर्धन ईसाई विद्रोही देश के अन्य प्रांतों से आकर उसके शरणागत होते थे और वह बड़ी उदारता से उनका पालन-पोषण करता था। मुसलमान दाऊद से सशंक रहते थे। वे धर्म-बल से उस पर विजय न पाकर उसे अस्त्र-बल से परास्त करना चाहते थे; पर दाऊद कभी उनका सामना न करता। हाँ, जहाँ कहीं ईसाइयों के मुसलमान होने की खबर पाता, हवा की तरह पहुँच जाता और तर्क या विनय से उन्हें अपने धर्म पर अचल रहने की प्रेरणा देता। अंत में मुसलमानों ने चारों तरफ से घेर कर उसे गिरफ्तार करने की तैयारी की। सेनाओं ने उसके इलाके को घेर लिया। दाऊद को प्राण-रक्षा के लिए अपने सम्बन्धियों के साथ भागना पड़ा। वह घर से भागकर ग़रनाता में आया, जहाँ उन दिनों इस्लामी राजधानी थी। वहाँ सबसे अलग रहकर वह अच्छे दिनों की प्रतीक्षा में जीवन व्यतीत करने लगा। मुसलमानों के गुप्तचर उसका पता लगाने के लिए बहुत सिर मारते थे, उसे पकड़ लाने के लिए बड़े-बड़े इनामों की विज्ञप्ति निकाली जाती थी; पर दाऊद की टोह न मिलती थी।
2 एक दिन एकांतवास से उकताकर दाऊद ग़रनाता के एक बाग में सैर करने चला गया। संध्या हो गयी थी। मुसलमान नीची अबाएँ पहने, बड़े-बड़े अमामे सिर पर बाँधे, कमर से तलवार लटकाये रबिशों में टहल रहे थे। स्त्रियाँ सफेद बुरके ओढ़े, जरी की जूतियाँ पहने बेंचों और कुरसियों पर बैठी हुई थीं। दाऊद सबसे अलग हरी-हरी घास पर लेटा हुआ सोच रहा था कि वह दिन कब आयेगा जब हमारी जन्मभूमि इन अत्याचारियों के पंजे से छूटेगी ! वह अतीत काल की कल्पना कर रहा था, जब ईसाई स्त्री और पुरुष इन रबिशों में टहलते होंगे, जब यह स्थान ईसाइयों के परस्पर वाग्विलास से गुलजार होगा। सहसा एक मुसलमान युवक आकर दाऊद के पास बैठ गया। वह उसे सिर से पाँव तक अपमानसूचक दृष्टि से देखकर बोला- क्या अभी तक तुम्हारा हृदय इस्लाम की ज्योति से प्रकाशित नहीं हुआ ? दाऊद ने गम्भीर भाव से कहा- इस्लाम की ज्योति पर्वत-शृंगों को प्रकाशित कर सकती है। अँधेरी घाटियों में उसका प्रवेश नहीं हो सकता। उस मुसलमान अरब का नाम जमाल था। यह आक्षेप सुनकर तीखे स्वर में बोला- इससे तुम्हारा क्या मतलब है ? दाऊद- इससे मेरा मतलब यही है कि ईसाइयों में जो लोग उच्च-श्रेणी के हैं, वे जागीरों और राज्याधिकारों के लोभ तथा राजदंड के भय से इस्लाम की शरण में आ सकते हैं; पर दुर्बल और दीन ईसाइयों के लिए इस्लाम में वह आसमान की बादशाहत कहाँ है जो हजरत मसीह के दामन में उन्हें नसीब होगी ! इस्लाम का प्रचार तलवार के बल से हुआ है, सेवा के बल से नहीं। जमाल अपने धर्म का अपमान सुनकर तिलमिला उठा। गरम होकर बोला- यह सर्वथा मिथ्या है। इस्लाम की शक्ति उसका आंतरिक भ्रातृत्व और साम्य है, तलवार नहीं। दाऊद- इस्लाम ने धर्म के नाम पर जितना रक्त बहाया है, उसमें उसकी सारी मसजिदें डूब जायँगी। जमाल- तलवार ने सदा सत्य की रक्षा की है। दाऊद ने अविचलित भाव से कहा- जिसको तलवार का आश्रय लेना पड़े, वह सत्य ही नहीं। जमाल जातीय गर्व से उन्मत्त होकर बोला- जब तक मिथ्या के भक्त रहेंगे, तब तक तलवार की जरूरत भी रहेगी। दाऊद- तलवार का मुँह ताकनेवाला सत्य ही मिथ्या है। अरब ने तलवार के कब्जे पर हाथ रखकर कहा- खुदा की कसम, अगर तुम निहत्थे न होते, तो तुम्हें इस्लाम की तौहीन करने का मजा चखा देता। दाऊद ने अपनी छाती में छिपाई हुई कटार निकालकर कहा- नहीं, मैं निहत्था नहीं हूँ। मुसलमानों पर जिस दिन इतना विश्वास करूँगा, उस दिन ईसाई न रहूँगा। तुम अपने दिल के अरमान निकाल लो। दोनों ने तलवारें खींच लीं। एक-दूसरे पर टूट पड़े। अरब की भारी तलवार ईसाई की हलकी कटार के सामने शिथिल हो गयी। एक सर्प की भाँति फन से चोट करती थी, दूसरी नागिन की भाँति उठती थी। लहरों की भाँति लपकती थी, दूसरी जल की मछलियों की भाँति चमकती थी। दोनों योद्धाओं में कुछ देर तक चोटें होती रहीं। सहसा एक बार नागिन उछलकर अरब के अंतस्तल में जा पहुँची। वह भूमि पर गिर पड़ा।
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जमाल के गिरते ही चारों तरफ से लोग दौड़ पड़े। वे दाऊद को घेरने की चेष्टाकरने लगे। दाऊद ने देखा, लोग तलवारें लिये दौड़े चले आ रहे हैं। प्राण लेकर भागा; पर जिधर जाता था, सामने बाग की दीवार रास्ता रोक लेती थी। दीवार ऊँची थी, उसे फाँदना मुश्किल था। यह जीवन और मृत्यु का संग्राम था। कहीं शरण की आशा नहीं, कहीं छिपने का स्थान नहीं। उधर अरबों की रक्त-पिपासा प्रतिक्षण तीव्र होती जाती थी। यह केवल एक अपराधी को दंड देने की चेष्टा न थी। जातीय अपमान का बदला था। एक विजित ईसाई की यह हिम्मत कि अरब पर हाथ उठाये ! ऐसा अनर्थ ! जिस तरह पीछा करनेवाले कुत्तों के सामने गिलहरी इधर-उधर दौड़ती है, किसी वृक्ष पर चढ़ने की बार-बार चेष्टाकरती है, पर हाथ-पाँव फूल जाने के कारण बार-बार गिर पड़ती है, वही दशा दाऊद की थी। दौड़ते-दौड़ते उसका दम फूल गया; पैर मन-मन भर के हो गये। कई बार जी में आया इन सब पर टूट पड़े और जितने महँगे प्राण बिक सकें, उतने महँगे बेचे; पर शत्रुओं की संख्या देखकर हतोत्साह हो जाता था। लेना, दौड़ना, पकड़ना का शोर मचा हुआ था। कभी-कभी पीछा करनेवाले इतने निकट आ जाते थे कि मालूम होता था, अब संग्राम का अंत हुआ, वह तलवार पड़ी; पर पैरों की एक ही गति, एक कावा, एक कन्नी उसे खून की प्यासी तलवार से बाल-बाल बचा लेती थी। दाऊद को अब इस संग्राम में खिलाड़ियों का-सा आनंद आने लगा। यह निश्चय था कि उसके प्राण नहीं बच सकते, मुसलमान दया करना नहीं जानते, इसलिए उसे अपने दाँव-पेंच में मजा आ रहा था। किसी वार से बचकर उसे अब इसकी खुशी न होती थी कि उसके प्राण बच गये, बल्कि इसका आनंद होता था कि उसने कातिल को कैसा ज़िच किया। सहसा उसे अपनी दाहिनी ओर बाग की दीवार कुछ नीची नजर आयी। आह ! यह देखते ही उसके पैरों में एक नयी शक्ति का संचार हो गया, धमनियों में नया रक्त दौड़ने लगा। वह हिरन की तरह उस तरफ दौड़ा और एक छलाँग में बाग के उस पार पहुँच गया। जिन्दगी और मौत में सिर्फ एक कदम का फासला था। पीछे मृत्यु थी और आगे जीवन का विस्तृत क्षेत्र। जहाँ तक दृष्टि जाती थी, झाड़ियाँ ही झाड़ियाँ नजर आती थीं। जमीन पथरीली थी, कहीं ऊँची, कहीं, नीची। जगह-जगह पत्थर की शिलाएँ पड़ी हुई थीं। दाऊद एक शिला के नीचे छिपकर बैठ गया। दम-भर में पीछा करनेवाले भी वहाँ आ पहुँचे और इधर-उधर झाड़ियों में, वृक्षों पर, गड्ढे में शिलाओं के नीचे तलाश करने लगे। एक अरब उस चट्टान पर आकर खड़ा हो गया, जिसके नीचे दाऊद छिपा हुआ था। दाऊद का कलेजा धक्-धक् कर रहा था। अब जान गयी ! अरब ने जरा नीचे को झाँका और प्राणों का अंत हुआ ? संयोग- केवल संयोग पर अब उसका जीवन निर्भर था। दाऊद ने साँस रोक ली, सन्नाटा खींच लिया। एक निगाह पर उसकी जिंदगी का फैसला था, जिंदगी और मौत में कितना सामीप्य है ! मगर अरबों को इतना अवकाश कहाँ था कि वे सावधान होकर शिला के नीचे देखते। वहाँ तो हत्यारे को पकड़ने की जल्दी थी। दाऊद के सिर से बला टल गयी। वे इधर-उधर ताक-झाँककर आगे बढ़ गये।
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अँधेरा हो गया। आकाश में तारागण निकल आये और तारों के साथ दाऊद भी शिला के नीचे से निकला। लेकिन देखा, उस समय भी चारों तरफ हलचल मची हुई है, शत्रुओं का दल मशालें लिये झाड़ियों में घूम रहा है; नाकों पर भी पहरा है, कहीं निकल भागने का रास्ता नहीं है। दाऊद एक वृक्ष के नीचे खड़ा होकर सोचने लगा कि अब क्योंकर जान बचे। उसे अपनी जान की वैसी परवा न थी। वह जीवन के सुख-दुख सब भोग चुका था। अगर उसे जीवन की लालसा थी, तो केवल यही देखने के लिए कि इस संग्राम का अंत क्या होगा ? मेरे देशवासी हतोत्साह हो जायेंगे, या अदम्य धैर्य के साथ संग्रामक्षेत्र में अटल रहेंगे। जब रात अधिक बीत गयी और शत्रुओं की घातक चेष्टा कुछ कम न होती दीख पड़ी तो दाऊद खुदा का नाम लेकर झाड़ियों से निकला और दबे-पाँव, वृक्षों की आड़ में, आदमियों की नजर बचाता हुआ, एक तरफ को चला। वह इन झाड़ियों से निकलकर बस्ती में पहुँच जाना चाहता था। निर्जनता किसी की आड़ नहीं कर सकती। बस्ती का जनबाहुल्य स्वयं आड़ है। कुछ दूर तक तो दाऊद के मार्ग में कोई बाधा न उपस्थित हुई। वन के वृक्षों ने उसकी रक्षा की, किन्तु जब वह असमतल भूमि से निकलकर समतल भूमि पर आया, तो एक अरब की निगाह उस पर पड़ गयी। उसने ललकारा। दाऊद भागा। ‘कातिल भागा जाता है !’ यह आवाज हवा में एक ही बार गूँजी और क्षण-भर में चारों तरफ से अरबों ने उसका पीछा किया। सामने बहुत दूर तक आदमी का नामोनिशान न था। बहुत दूर पर एक धुँधला-सा दीपक टिमटिमा रहा था। किसी तरह वहाँ तक पहुँच जाऊँ। वह उस दीपक की ओर इतनी तेजी से दौड़ रहा था, मानो वहाँ पहुँचते ही अभय पा जायगा। आशा उसे उड़ाये लिये जाती थी। अरबों का समूह पीछे छूट गया; मशालों की ज्योति निष्प्रभ हो गयी। केवल तारागण उसके साथ दौड़े चले आते थे। अंत को वह आशामय दीपक के सामने आ पहुँचा। एक छोटा-सा फूस का मकान था। एक बूढ़ा अरब जमीन पर बैठा हुआ रेहल पर कुरान रखे उसी दीपक के मंद प्रकाश से पढ़ रहा था। दाऊद आगे न जा सका। उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। वह वहीं शिथिल होकर गिर पड़ा। रास्ते की थकन घर पहुँचने पर मालूम होती है। अरब ने उठकर कहा- तू कौन है ? दाऊद- एक गरीब ईसाई। मुसीबत में फँस गया हूँ। अब आप ही शरण दें, तो मेरे प्राण बच सकते हैं। अरब- खुदा-पाक तेरी मदद करेगा। तुम पर क्या मुसीबत पड़ी हुई है ? दाऊद- डरता हूँ कहीं कह दूँ तो आप भी मेरे खून के प्यासे न हो जायँ। अरब- अब तू मेरी शरण में आ गया, तो तुझे मुझसे कोई शंका न होनी चाहिए। हम मुसलमान हैं, जिसे एक बार अपनी शरण में ले लेते हैं उसकी जिंदगी-भर रक्षा करते हैं। दाऊद- मैंने एक मुसलमान युवक की हत्या कर डाली है। वृद्ध अरब का मुख क्रोध से विकृत हो गया, बोला- उसका नाम ? दाऊद- उसका नाम जमाल था। अरब सिर पकड़कर वहीं बैठ गया। उसकी आँखें सुर्ख हो गयीं; गरदन की नसें तन गयीं; मुख पर अलौकिक तेजस्विता की आभा दिखायी दी, नथुने फड़कने लगे। ऐसा मालूम होता था कि उसके मन में भीषण द्वंद्व हो रहा है और वह समस्त विचार-शक्ति से अपने मनोभावों को दबा रहा है। दो-तीन मिनट तक वह इसी उग्र अवस्था में बैठा धरती की ओर ताकता रहा। अंत में अवरुद्ध कंठ से बोला- नहीं-नहीं, शरणागत की रक्षा करनी ही पड़ेगी। आह ! जालिम ! तू जानता है, मैं कौन हूँ। मैं उसी युवक का अभागा पिता हूँ, जिसकी आज तूने इतनी निर्दयता से हत्या की है। तू जानता है, तूने मुझ पर कितना बड़ा अत्याचार किया है ? तूने मेरे खानदान का निशान मिटा दिया है ! मेरा चिराग गुल कर दिया ! आह, जमाल मेरा इकलौता बेटा था। मेरी सारी अभिलाषाएँ उसी पर निर्भर थीं। वह मेरी आँखों का उजाला, मुझ अँधे का सहारा, मेरे जीवन का आधार, मेरे जर्जर शरीर का प्राण था। अभी-अभी उसे कब्र की गोद में लिटा आया हूँ। आह, मेरा शेर, आज खाक के नीचे सो रहा है। ऐसा दिलेर, ऐसा दीनदार, ऐसा सजीला जवान मेरी कौम में दूसरा न था। जालिम, तुझे उस पर तलवार चलाते जरा भी दया न आयी। तेरा पत्थर का कलेजा जरा भी न पसीजा ! तू जानता है, मुझे इस वक्त तुझ पर कितना गुस्सा आ रहा है ? मेरा जी चाहता है कि अपने दोनों हाथों से तेरी गरदन पकड़कर इस तरह दबाऊँ कि तेरी जबान बाहर निकल आये, तेरी आँखें कौड़ियों की तरह बाहर निकल पड़ें। पर नहीं, तूने मेरी शरण ली है, कर्तव्य मेरे हाथों को बाँधे हुए है, क्योंकि हमारे रसूल-पाक ने हिदायत की है, कि जो अपनी पनाह में आये, उस पर हाथ न उठाओ। मैं नहीं चाहता कि नबी के हुक्म को तोड़कर दुनिया के साथ अपनी आक़बत भी बिगाड़ लूँ। दुनिया तूने बिगाड़ी, दीन अपने हाथों बिगाड़ूँ ? नहीं। सब्र करना मुश्किल है; पर सब्र करूँगा ताकि नबी के सामने आँखें नीची न करनी पड़ें। आ, घर में आ। तेरा पीछा करनेवाले दौड़े आ रहे हैं। तुझे देख लेंगे, तो फिर मेरी सारी मिन्नत-समाजत तेरी जान न बचा सकेगी। तू नहीं जानता कि अरब लोग खून कभी माफ नहीं करते। यह कहकर अरब ने दाऊद का हाथ पकड़ लिया, और उसे घर में ले जाकर एक कोठरी में छिपा दिया। वह घर से बाहर निकला ही था कि अरबों का एक दल द्वार पर आ पहुँचा। एक आदमी ने पूछा- क्यों शेख हसन, तुमने इधर से किसी को भागते देखा है ? ‘हाँ देखा है।’ ‘उसे पकड़ क्यों न लिया ? वही तो जमाल का कातिल था !’ ‘यह जानकर भी मैंने उसे छोड़ दिया।’ ‘ऐं ! गजब खुदा का ! यह तुमने क्या किया ? जमाल हिसाब के दिन हमारा दामन पकड़ेगा तो हम क्या जवाब देंगे ?’ ‘तुम कह देना कि तेरे बाप ने तेरे कातिल को माफ कर दिया।’ ‘अरब ने कभी कातिल का खून नहीं माफ किया।’ ‘यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, मैं उसे अपने सिर क्यों लूँ ?’ अरबों ने शेख हसन से ज्यादा हुज्जत न की, कातिल की तलाश में दौड़े। शेख हसन फिर चटाई पर बैठकर कुरान पढ़ने लगा, लेकिन उसका मन पढ़ने में न लगता था। शत्रु से बदला लेने की प्रवृत्ति अरबों की प्रवृत्ति में बद्धमूल होती थी। खून का बदला खून था। इसके लिए खून की नदियाँ बह जाती थीं, कबीले-के-कबीले मर मिटते थे, शहर-के-शहर वीरान हो जाते थे। उस प्रवृत्ति पर विजय पाना शेख हसन को असाध्य-सा प्रतीत हो रहा था। बार-बार प्यारे पुत्र की सूरत उसकी आँखों के आगे फिरने लगती थी, बार-बार उसके मन में प्रबल उत्तेजना होती थी कि चलकर दाऊद के खून से अपने क्रोध की आग बुझाऊँ। अरब वीर होते थे। कटना-मरना उनके लिए कोई असाधारण बात न थी। मरनेवालों के लिए वे आँसुओं की कुछ बूँदें बहाकर फिर अपने काम में प्रवृत्त हो जाते थे। वे मृत व्यक्ति की स्मृति को केवल उसी दशा में जीवित रखते थे, जब उसके खून का बदला लेना होता था। अन्त को शेख हसन अधीर हो उठा। उसको भय हुआ कि अब मैं अपने ऊपर काबू नहीं रख सकता। उसने तलवार म्यान से निकाल ली और दबे पाँव उस कोठरी के द्वार पर आकर खड़ा हो गया, जिसमें दाऊद छिपा हुआ था। तलवार को दामन में छिपाकर उसने धीरे से द्वार खोला। दाऊद टहल रहा था। बूढ़े अरब का रौद्र रूप देखकर दाऊद उसके मनोवेग को ताड़ गया। उसे बूढ़े से सहानुभूति हो गयी। उसने सोचा, यह धर्म का दोष नहीं, जाति का दोष नहीं। मेरे पुत्र की किसी ने हत्या की होती, तो कदाचित् मैं भी उसके खून का प्यासा हो जाता। यही मानव प्रकृति है। अरब ने कहा- दाऊद, तुम्हें मालूम है बेटे की मौत का कितना गम होता है। दाऊद- इसका अनुभव तो नहीं, पर अनुमान कर सकता हूँ। अगर मेरी जान से आपके उस गम का एक हिस्सा भी मिट सके, तो लीजिए, यह सिर हाजिर है। मैं इसे शौक से आपकी नजर करता हूँ। आपने दाऊद का नाम सुना होगा। अरब- क्या पीटर का बेटा ? दाऊद- जी हाँ। मैं वही बदनसीब दाऊद हूँ। मैं केवल आपके बेटे का घातक ही नहीं, इस्लाम का दुश्मन हूँ। मेरी जान लेकर आप जमाल के खून का बदला ही न लेंगे, बल्कि अपनी जाति और धर्म की सच्ची सेवा भी करेंगे। शेख हसन ने गम्भीर भाव से कहा- दाऊद, मैंने तुम्हें माफ किया। मैं जानता हूँ, मुसलमानों के हाथ ईसाइयों को बहुत तकलीफें पहुँची हैं, मुसलमानों ने उन पर बड़े-बड़े अत्याचार किये हैं, उनकी स्वाधीनता हर ली है ! लेकिन यह इस्लाम का नहीं, मुसलमानों का कसूर है। विजय-गर्व ने मुसलमानों की मति हर ली है। हमारे पाक नबी ने यह शिक्षा नहीं दी थी, जिस पर आज हम चल रहे हैं। वह स्वयं क्षमा और दया का सर्वोच्च आदर्श है। मैं इस्लाम के नाम को बट्टा न लगाऊँगा। मेरी ऊँटनी ले लो और रातों-रात जहाँ तक भागा जाय, भागो। कहीं एक क्षण के लिए भी न ठहरना। अरबों को तुम्हारी बू भी मिल गयी, तो तुम्हारी जान की खैरियत नहीं। जाओ, तुम्हें खुदा-ए-पाक घर पहुँचावे। बूढ़े शेख हसन और उसके बेटे जमाल के लिए खुदा से दुआ किया करना।
× × × × × दाऊद खैरियत से घर पहुँच गया; किंतु अब वह दाऊद न था, जो इस्लाम को जड़ से खोदकर फेंक देना चाहता था। उसके विचारों में गहरा परिवर्तन हो गया था। अब वह मुसलमानों का आदर करता और इस्लाम का नाम इज्जत से लेता था।
Hindi Kahani- हिंदी कहानी Haar Ki Jeet - Munshi Premchand हार की जीत - मुंशी प्रेम चंद
केशव से मेरी पुरानी लाग-डाँट थी। लेख और वाणी, हास्य और विनोद सभी क्षेत्रों में मुझसे कोसों आगे था। उसके गुणों की चंद्र-ज्योति में मेरे दीपक का प्रकाश कभी प्रस्फुटित न
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हुआ। एक बार उसे नीचा दिखाना मेरे जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा थी। उस समय मैंने कभी स्वीकार नहीं किया। अपनी त्रुटियों को कौन स्वीकार करता है पर वास्तव में मुझे ईश्वर ने उसकी जैसी बुद्धि-शक्ति न प्रदान की थी। अगर मुझे कुछ तस्कीन थी तो यह कि विद्याक्षेत्र में चाहे मुझे उनसे कंधा मिलाना कभी नसीब न हो, पर व्यवहार की रंगभूमि में सेहरा मेरे ही सिर रहेगा। लेकिन दुर्भाग्य से जब प्रणय-सागर में भी उसने मेरे साथ गोता मारा और रत्न उसी के हाथ लगता हुआ नजर आया तो मैं हताश हो गया। हम दोनों ने ही एम.ए. के लिए साम्यवाद का विषय लिया था। हम दोनों ही साम्यवादी थे। केशव के विषय में तो यह स्वाभाविक बात थी। उसका कुल बहुत प्रतिष्ठित न था, न वह समृद्धि ही थी जो इस कमी को पूरा कर देती। मेरी अवस्था इसके प्रतिकूल थी। मैं खानदान का ताल्लुकेदार और रईस था। मेरी साम्यवादिता पर लोगों को कुतूहल होता था। हमारे साम्यवाद के प्रोफेसर बाबू हरिदास भाटिया साम्यवाद के सिद्धांतों के कायल थे, लेकिन शायद धन की अवहेलना न कर सकते थे। अपनी लज्जावती के लिए उन्होंने कुशाग्र बुद्धि केशव को नहीं, मुझे पसंद किया। एक दिन संध्या-समय वह मेरे कमरे में आये और चिंतित भाव से बोले-शारदाचरण, मैं महीनों से एक बड़ी चिंता में पड़ा हुआ हूँ। मुझे आशा है कि तुम उसका निवारण कर सकते हो ! मेरे कोई पुत्र नहीं है। मैंने तुम्हें और केशव दोनों ही को पुत्र-तुल्य समझा है। यद्यपि केशव तुमसे चतुर है, पर मुझे विश्वास है कि विस्तृत संसार में तुम्हें जो सफलता मिलेगी, वह उसे नहीं मिल सकती। अतएव मैंने तुम्हीं को अपनी लज्जा के लिए वरा है। क्या मैं आशा करूँ कि मेरा मनोरथ पूरा होगा। मैं स्वतंत्र था, मेरे माता-पिता मुझे लड़कपन ही में छोड़ कर स्वर्ग चले गये थे। मेरे कुटुम्बियों में अब ऐसा कोई न था, जिसकी अनुमति लेने की मुझे जरूरत होती। लज्जावती जैसी सुशीला, सुन्दरी, सुशिक्षित स्त्री को पा कर कौन पुरुष होगा जो अपने भाग्य को न सराहता। मैं फूला न समाया। लज्जा एक कुसुमित वाटिका थी, जहाँ गुलाब की मनोहर सुगंधि थी और हरियाली की मनोरम शीतलता, समीर की शुभ्र तरंगे थीं और पक्षियों का मधुर संगीत। वह स्वयं साम्यवाद पर मोहित थी। स्त्रियों के प्रतिनिधित्व और ऐसे ही अन्य विषयों पर उसने मुझसे कितनी ही बार बातें की थीं। लेकिन प्रोफेसर भाटिया की तरह केवल सिद्धान्तों की भक्त न थी, उनको व्यवहार में भी लाना चाहती थी। उसने चतुर केशव को अपना स्नेह-पात्र बनाया था। तथापि मैं जानता था कि प्रोफेसर भाटिया के आदेश को वह कभी नहीं टाल सकती, यद्यपि उसकी इच्छा के विरुद्ध मैं उसे अपनी प्रणयिनी बनाने के लिए तैयार न था। इस विषय में मैं स्वेच्छा के सिद्धांत का कायल था। इसलिए मैं केशव की विरक्ति और क्षोभ से आशातीत आनन्द न उठा सका। हम दोनों ही दुःखी थे, और मुझे पहली बार केशव से सहानुभूति हुई। मैं लज्जावती से केवल इतना पूछना चाहता था कि उसने मुझे क्यों नजरों से गिरा दिया। पर उसके सामने ऐसे नाजुक प्रश्नों को छेड़ते हुए मुझे संकोच होता था, और यह स्वाभाविक था, क्योंकि कोई रमणी अपने अंतःकरण के रहस्यों को नहीं खोल सकती। लेकिन शायद लज्जावती इस परिस्थिति को मेरे सामने प्रकट करना अपना कर्तव्य समझ रही थी। वह इसका अवसर ढूँढ़ रही थी। संयोग से उसे शीघ्र ही अवसर मिल गया। संध्या का समय था। केशव राजपूत हॉस्टल में साम्यवाद पर एक व्याख्यान देने गया हुआ था। प्रोफेसर भाटिया उस जलसे के प्रधान थे। लज्जा अपने बँगले में अकेली बैठी हुई थी। मैं अपने अशांत हृदय के भाव छिपाये हुए, शोक और नैराश्य की दाह से जलता हुआ उसके समीप आ कर बैठ गया। लज्जा ने मेरी ओर एक उड़ती हुई निगाह डाली और सदय भाव से बोली-कुछ चिंतित जान पड़ते हो ? मैंने कृत्रिम उदासीनता से कहा-तुम्हारी बला से। लज्जा केशव का व्याख्यान सुनने नहीं गये ? मेरी आँखों से ज्वाला सी निकलने लगी। जब्त करके बोला आज सिर में दर्द हो रहा था। यह कहते-कहते अनायास ही मेरे नेत्रों से आँसू की कई बूँदें टपक पड़ीं। मैं अपने शोक को प्रदर्शित करके उसका करुणापात्र बनना नहीं चाहता था। मेरे विचार में रोना स्त्रियों के ही स्वाभावानुकूल था। मैं उस पर क्रोध प्रकट करना चाहता था और निकल पड़े आँसू। मन के भाव इच्छा के अधीन नहीं होते। मुझे रोते देख कर लज्जा की आँखों से आँसू गिरने लगे। मैं कीना नहीं रखता, मलिन हृदय नहीं हूँ, लेकिन न मालूम क्यों लज्जा के रोने पर मुझे इस समय एक आनन्द का अनुभव हुआ। उस शोकावस्था में भी मैं उस पर व्यंग्य करने से बाज न रह सका। बोला लज्जा, मैं तो अपने भाग्य को रोता हूँ। शायद तुम्हारे अन्याय की दुहाई दे रहा हूँ; लेकिन तुम्हारे आँसू क्यों ? लज्जा ने मेरी ओर तिरस्कार-भाव से देखा और बोली-मेरे आँसुओं का रहस्य तुम न समझोगे क्योंकि तुमने कभी समझने की चेष्टा नहीं की। तुम मुझे कटु वचन सुना कर अपने चित्त को शांत कर लेते हो। मैं किसे जलाऊँ। तुम्हें क्या मालूम है कि मैंने कितना आगा-पीछा सोचकर, हृदय को कितना दबाकर, कितनी रातें करवटें बदल कर और कितने आँसू बहा कर यह निश्चय किया है। तुम्हारी कुल-प्रतिष्ठा, तुम्हारी रियासत एक दीवार की भाँति मेरे रास्ते में खड़ी है। उस दीवार को मैं पार नहीं कर सकती। मैं जानती हूँ कि इस समय तुम्हें कुल-प्रतिष्ठा और रियासत का लेशमात्र भी अभिमान नहीं है। लेकिन यह भी जानती हूँ कि तुम्हारा कालेज की शीतल छाया में पला हुआ साम्यवाद बहुत दिनों तक सांसारिक जीवन की लू और लपट को न सह सकेगा। उस समय तुम अवश्य अपने फैसले पर पछताओगे और कुढ़ोगे। मैं तुम्हारे दूध की मक्खी और हृदय का काँटा बन जाऊँगी। मैंने आर्द्र होकर कहा-जिन कारणों से मेरा साम्यवाद लुप्त हो जायगा, क्या वह तुम्हारे साम्यवाद को जीता छोड़ेगा ? लज्जा हाँ, मुझे पूरा विश्वास है कि मुझ पर उनका जरा भी असर न होगा। मेरे घर में कभी रियासत नहीं रही और कुल की अवस्था तुम भलीभाँति जानते हो। बाबू जी ने केवल अपने अविरल परिश्रम और अध्यवसाय से यह पद प्राप्त किया है। मुझे वह नहीं भूला है जब मेरी माता जीवित थीं और बाबू जी 11 बजे रात को प्राइवेट ट्यूशन कर के घर आते थे। तो मुझे रियासत और कुल-गौरव का अभिमान कभी नहीं हो सकता, उसी तरह जैसे तुम्हारे हृदय से यह अभिमान कभी मिट नहीं सकता। यह घमंड मुझे उसी दशा में होगा जब मैं स्मृतिहीन हो जाऊँगी। मैंने उद्दंडता से कहा-कुल-प्रतिष्ठा को तो मैं मिटा नहीं सकता, मेरे वश की बात नहीं है, लेकिन तुम्हारे लिए मैं आज रियासत को तिलांजलि दे सकता हूँ। लज्जा क्रूर मुस्कान से बोली-फिर वही भावुकता ! अगर यह बात तुम किसी अबोध बालिका से करते तो कदाचित् वह फूली न समाती। मैं एक ऐसे गहन विषय में, जिस पर दो प्राणियों के समस्त जीवन का सुख-दुःख निर्भर है, भावुकता का आश्रय नहीं ले सकती। शादी बनावट नहीं है। परमात्मा साक्षी है, मैं विवश हूँ, मुझे अभी तक स्वयं मालूम नहीं है कि मेरी डोंगी किधर जायेगी; लेकिन मैं तुम्हारे जीवन को कंटकमय नहीं बना सकती। मैं यहाँ से चला तो इतना निराश न था जितना सचिंत। लज्जा ने मेरे सामने एक नयी समस्या उपस्थित कर दी थी।
हम दोनों साथ-साथ एम.ए. हुए। केशव प्रथम श्रेणी में आया, मैं द्वितीय श्रेणी में। उसे नागपुर के एक कालेज में अध्यापक का पद मिल गया। मैं घर आ कर अपनी रियासत का प्रबंध करने लगा। चलते समय हम दोनों गले मिल कर और रो कर विदा हुए। विरोध और ईर्ष्या को कालेज में छोड़ दिया। मैं अपने प्रांत का पहला ताल्लुकेदार था, जिसने एम.ए. पद प्राप्त किया हो। पहले तो राज्याधिकारियों ने मेरी खूब आवभगत की; लेकिन जब मेरे सामाजिक सिद्धांतों से अवगत हुए तो उनकी कृपादृष्टि कुछ शिथिल पड़ गयी। मैंने भी उनसे मिलना-जुलना छोड़ दिया। अपना अधिकांश समय असामियों के ही बीच में व्यतीत करता। पूरा साल भर भी न गुजरने पाया कि एक ताल्लुकेदार की परलोक-यात्र ने कौंसिल में एक स्थान खाली कर दिया। मैंने कौंसिल में जाने की अपनी तरफ से कोई कोशिश नहीं की। लेकिन काश्तकारों ने अपने प्रतिनिधित्व का भार मेरे ही सिर रखा। बेचारा केशव तो अपने कालेज में लेक्चर देता था, किसी को खबर भी न थी कि वह कहाँ है और क्या कर रहा है और मैं अपने कुल-मर्यादा की बदौलत कौंसिल का मेम्बर हो गया। मेरी वक्तृताएँ समाचार-पत्रों में छपने लगीं। मेरे प्रश्नों की प्रशंसा होने लगी। कौंसिल में मेरा विशेष सम्मान होने लगा, कई सज्जन ऐसे निकल आये जो जनतावाद के भक्त थे। पहले वह परिस्थितियों से कुछ दबे हुए थे, अब वह खुल पड़े। हम लोगों ने लोकवादियों का अपना एक पृथक् दल बना लिया और कृषकों के अधिकारों को जोरों के साथ व्यक्त करना शुरू किया। अधिकांश भूपतियों ने मेरी अवहेलना की। कई सज्जनों ने धमकियाँ भी दीं; लेकिन मैंने अपने निश्चित पथ को न छोड़ा। सेवा के इस सुअवसर को क्योंकर हाथ से जाने देता। दूसरा वर्ष समाप्त होते-होते जाति के प्रधान नेताओं में मेरी गणना होने लगी। मुझे बहुत परिश्रम करना, बहुत पढ़ना, बहुत लिखना और बहुत बोलना पड़ता, पर जरा भी न घबराता। इस परिश्रमशीलता के लिए केशव का ऋणी था। उसी ने मुझे इतना अभ्यस्त बना दिया था। मेरे पास केशव और प्रोफेसर भाटिया के पत्र बराबर आते रहते थे। कभी-कभी लज्जावती भी मिलती थी। उसके पत्रों में श्रद्धा और प्रेम की मात्र दिनोंदिन बढ़ती जाती थी। वह मेरी राष्ट्रसेवा का बड़े उदार, बड़े उत्साहमय शब्दों में बखान करती। मेरे विषय में उसे पहले जो शंकाएँ थीं, वह मिटती जाती थीं। मेरी तपस्या की देवी को आकर्षित करने लगी थी। केशव के पत्रों से उदासीनता टपकती थी। उसके कालेज में धन का अभाव था। तीन वर्ष हो गये थे, पर उसकी तरक्की न हुई थी। पत्रों से ऐसा प्रतीत होता था मानो वह जीवन से असंतुष्ट है। कदाचित् इसका मुख्य कारण यह था कि अभी तक उसके जीवन का सुखमय स्वप्न चरितार्थ न हुआ था। तीसरे वर्ष गर्मियों की तातील में प्रोफेसर भाटिया मुझसे मिलने आये और बहुत प्रसन्न हो कर गये। उसके एक ही सप्ताह पीछे लज्जावती का पत्र आया, अदालत ने तजबीज सुना दी, मेरी डिग्री हो गयी। केशव की पहली बार मेरे मुकाबले में हार हुई। मेरे हर्षोल्लास की कोई सीमा न थी। प्रो. भाटिया का इरादा भारतवर्ष के सब प्रांतों में भ्रमण करने का था। वह साम्यवाद पर एक ग्रन्थ लिख रहे थे जिसके लिए प्रत्येक बड़े नगर में कुछ अन्वेषण करने की जरूरत थी। लज्जा को अपने साथ ले जाना चाहते थे। निश्चय हुआ कि उनके लौट आने पर आगामी चैत के महीने में हमारा संयोग हो जाय। मैं यह वियोग के दिन बड़ी बेसब्री से काटने लगा। अब तक मैं जानता था बाजी केशव के हाथ रहेगी, मैं निराश था, पर शांत था। अब आशा थी और उसके साथ घोर अशांति थी।
मार्च का महीना था। प्रतीक्षा की अवधि पूरी हो चुकी थी। कठिन परिश्रम के दिन गये, फसल काटने का समय आया। प्रोफेसर साहब ने ढाका से पत्र लिखा था कि कई अनिवार्य कारणों से मेरा लौटना मार्च में नहीं मई में होगा। इसी बीच में कश्मीर के दीवान लाला सोमनाथ कपूर नैनीताल आये। बजट पेश था। उन पर व्यवस्थापक सभा में वाद-विवाद हो रहा था। गवर्नर की ओर से दीवान साहब को पार्टी दी गयी। सभा के प्रतिनिधियों को भी निमंत्रण मिला। कौंसिल की ओर से मुझे अभिवादन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मेरी बकवास को दीवान साहब ने बहुत पसंद किया। चलते समय मुझसे कई मिनट तक बातें कीं और मुझे अपने डेरे पर आने का आदेश दिया। उनके साथ उनकी पुत्री सुशीला भी थी। वह पीछे सिर झुकाये खड़ी रही। जान पड़ता था, भूमि को पढ़ रही है। पर मैं अपनी आँखों को काबू में न रख सका। वह उतनी ही देर में एक बार नहीं, कई बार उठी और जैसे बच्चा किसी अजनबी की चुमकार से उसकी ओर लपकता है, पर फिर डर कर माँ की गोद से चिमट जाता है; वह भी डर कर आधे रास्ते से लौट गयी। लज्जा अगर कुसुमित वाटिका थी तो सुशीला शीतल सलिल-धारा थी जहाँ वृक्षों के कुंज थे, विनोदशील मृगों के झुंड, विहगावली की अनंत शोभा और तरंगों का मधुर संगीत। मैं घर पर आया तो ऐसा थका हुआ था जैसे कोई मंजिल मारकर आया हूँ। सौंदर्य जीवन-सुधा है। मालूम नहीं क्यों इसका असर इतना प्राणघातक होता है। लेटा तो वही सूरत सामने थी। मैं उसे हटाना चाहता था। मुझे भय था कि एक क्षण भी उस भँवर में पड़ कर मैं अपने को सँभाल न सकूँगा। मैं अब लज्जावती का हो चुका था, वही अब मेरे हृदय की स्वामिनी थी। मेरा उस पर कोई अधिकार न था लेकिन मेरे सारे संयम, सारी दलीलें निष्फल हुईं। जल के उद्वेग में नौका को धागे से कौन रोक सकता है। अंत में हताश हो कर मैंने अपने को विचारों के प्रवाह में डाल दिया। कुछ दूर तक नौका वेगवती तरंगों के साथ चली, फिर उसी प्रवाह में विलीन हो गयी। दूसरे दिन मैं नियत समय पर दीवान साहब के डेरे पर जा पहुँचा, इस भाँति काँपता और हिचकता जैसे कोई बालक दामिनी की चमक से चौंक-चौंक कर आँख बंद कर लेता है कि कहीं वह चमक न जाय, कहीं मैं उसकी चमक न देख लूँ; भोला-भाला किसान भी अदालत के सामने इतना सशंक न होता होगा। यथार्थ यह था कि मेरी आत्मा परास्त हो चुकी थी, उसमें अब प्रतिकार की शक्ति न रही थी। दीवान साहब ने मुझसे हाथ मिलाया और कोई घंटे भर तक आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर वार्तालाप करते रहे। मुझे उनकी बहुज्ञता पर आश्चर्य होता था। ऐसा वाक्चतुर पुरुष मैंने कभी न देखा था। साठ वर्ष की वयस थी, पर हास्य और विनोद के मानो भंडार थे। न जाने कितने श्लोक, कितने कवित्त, कितने शेर उन्हें याद थे। बात-बात पर कोई न कोई सुयुक्ति निकाल लाते थे। खेद है उस प्रकृति के लोग अब गायब होते जाते हैं। वह शिक्षा प्रणाली न जाने कैसी थी, जो ऐसे-ऐसे रत्न उत्पन्न करती थी। अब तो सजीवता कहीं दिखायी ही नहीं देती। प्रत्येक प्राणी चिन्ता की मूर्ति है, उसके होंठों पर कभी हँसी आती ही नहीं। खैर, दीवान साहब ने पहले चाय मँगवायी, फिर फल और मेवे मँगवाये। मैं रह-रह कर इधर-उधर उत्सुक नेत्रों से देखता था। मेरे कान उसके स्वर का रसपान करने के लिए मुँह खोले हुए थे, आँखें द्वार की ओर लगी हुई थीं। भय भी था और लगाव भी, झिझक भी थी और खिंचाव भी। बच्चा झूले से डरता है पर उस पर बैठना भी चाहता है। लेकिन रात के नौ बज गये, मेरे लौटने का समय आ गया। मन में लज्जित हो रहा था कि दीवान साहब दिल में क्या कह रहे होंगे। सोचते होंगे इसे कोई काम नहीं है ? जाता क्यों नहीं, बैठे-बैठे दो ढाई घंटे तो हो गये। सारी बातें समाप्त हो गयीं। उनके लतीफे भी खत्म हो गये। वह नीरवता उपस्थित हो गयी, जो कहती है कि अब चलिए फिर मुलाकात होगी। यार जिंदा व सोहबत बाकी। मैंने कई बार उठने का इरादा किया, लेकिन इंतजार में आशिक की जान भी नहीं निकलती, मौत को भी इंतजार का सामना करना पड़ता है। यहाँ तक कि साढ़े नौ बज गये और अब मुझे विदा होने के सिवाय कोई मार्ग न रहा, जैसे दिल बैठ गया। जिसे मैंने भय कहा है, वह वास्तव में भय नहीं था, वह उत्सुकता की चरम सीमा थी। यहाँ से चला तो ऐसा शिथिल और निर्जीव था मानो प्राण निकल गये हों। अपने को धिक्कारने लगा। अपनी क्षुद्रता पर लज्जित हुआ। तुम समझते हो कि हम भी कुछ हैं। यहाँ किसी की तुम्हारे मरने-जीने की परवाह नहीं। माना उसके लक्षण क्वाँरियों के-से हैं। संसार में क्वाँरी लड़कियों की कमी नहीं। सौंदर्य भी ऐसी दुर्लभ वस्तु नहीं। अगर प्रत्येक रूपवती और क्वाँरी युवती को देख कर तुम्हारी वही हालत होती रही तो ईश्वर ही मालिक है। वह भी तो अपने दिल में यही विचार करती होगी। प्रत्येक रूपवान युवक पर उसकी आँखें क्यों उठें। कुलवती स्त्रियों के यह ढंग नहीं होते। पुरुषों के लिए अगर यह रूप-तृष्णा निंदाजनक है तो स्त्रियों के लिए विनाशकारक है। द्वैत से अद्वैत को भी इतना आघात नहीं पहुँच सकता, जितना सौंदर्य को। दूसरे दिन शाम को मैं अपने बरामदे में बैठा पत्र देख रहा था। क्लब जाने को भी जी नहीं चाहता था। चित्त कुछ उदास था। सहसा मैंने दीवान साहब को फिटन पर आते देखा। मोटर से उन्हें घृणा थी। वह उसे पैशाचिक उड़नखटोला कहा करते थे। उसके बगल में सुशीला थी। मेरा हृदय धक्-धक् करने लगा। उसकी निगाह मेरी तरफ उठी हो या न उठी हो, पर मेरी टकटकी उस वक्त तक लगी रही जब तक फिटन अदृश्य न हो गयी। तीसरे दिन मैं फिर बरामदे में आ बैठा। आँखें सड़क की ओर लगी हुई थीं। फिटन आयी और चली गयी। अब यही उसका नित्यप्रति का नियम हो गया है। मेरा अब यही काम था कि सारे दिन बरामदे में बैठा रहूँ। मालूम नहीं फिटन कब निकल जाय। विशेषतः तीसरे पहर तो मैं अपनी जगह से हिलने का नाम भी न लेता था। इस प्रकार एक मास बीत गया। मुझे अब कौंसिल के कामों में कोई उत्साह न था। समाचार-पत्रों में, उपन्यासों में जी न लगता। कहीं सैर करने का भी जी न चाहता। प्रेमियों को न जाने जंगल-पहाड़ में भटकने की, काँटों में उलझने की सनक कैसे सवार होती है। मेरे तो जैसे पैरों में बेड़ियाँ-सी पड़ गयी थीं। बस बरामदा था और मैं, और फिटन का इंतजार। मेरी विचारशक्ति भी शायद अंतर्धान हो गयी थी। मैं दीवान साहब को या अँगरेजी शिष्टता के अनुसार सुशीला को ही, अपने यहाँ निमंत्रित कर सकता था, पर वास्तव में मैं अभी तक उससे भयभीत था। अब भी लज्जावती को अपनी प्रणयिनी समझता था। वह अब भी मेरे हृदय की रानी थी, चाहे उस पर किसी दूसरी शक्ति का अधिकार ही क्यों न हो गया हो ! एक महीना और निकल गया, लेकिन मैंने लज्जा को कोई पत्र न लिखा। मुझमें अब उसे पत्र लिखने की भी सामर्थ्य न थी। शायद उससे पत्र- व्यवहार करने को मैं नैतिक अत्याचार समझता था। मैंने उससे दगा की थी। मुझे अब उसे अपने मलिन अंतःकरण में भी अपवित्र करने का कोई अधिकार न था। इसका अन्त क्या होगा ? यही चिंता अहर्निश मेरे मन पर कुहर मेघ की भाँति शून्य हो गयी थी। चिंता-दाह से दिनोंदिन घुलता जाता था। मित्रजन अक्सर पूछा करते आपको क्या मरज है ? मुख निस्तेज, कांतिहीन हो गया। भोजन औषधि के समान लगता। सोने जाता तो जान पड़ता, किसी ने पिंजरे में बंद कर दिया है। कोई मिलने आता तो चित्त उससे कोसों भागता। विचित्र दशा थी। एक दिन शाम को दीवान साहब की फिटन मेरे द्वार पर आ कर रुकी। उन्होंने अपने व्याख्यानों का एक संग्रह प्रकाशित कराया था। उसकी प्रति मुझे भेंट करने के लिए आये थे। मैंने उन्हें बैठने के लिए बहुत आग्रह किया, लेकिन उन्होंने यही कहा, सुशीला को यहाँ आने में संकोच होगा और फिटन पर अकेली वह घबरायेगी। वह चले तो मैं भी साथ हो लिया और फिटन तक पीछे-पीछे आया। जब वह फिटन पर बैठने लगे तो मैंने सुशीला को निःशंक हो आँख भर कर देखा, जैसे कोई प्यासा पथिक गर्मी के दिन में अफर कर पानी पिये कि न जाने कब उसे जल मिलेगा। मेरी उस एक चितवन में उग्रता, वह याचना, वह उद्वेग, वह करुणा, वह श्रद्धा, वह आग्रह, वह दीनता थी, जो पत्थर की मूर्ति को भी पिघला देती। सुशीला तो फिर स्त्री थी। उसने भी मेरी ओर देखा, निर्भीक सरल नेत्रों से, जरा भी झेंप नहीं, जरा भी झिझक नहीं। मेरे परास्त होने में जो कसर रह गयी थी, वह पूरी हो गयी। इसके साथ उसने मुझ पर मानो अमृत वर्षा कर दी। मेरे हृदय और आत्मा में एक नयी शक्ति का संचार हो गया। मैं लौटा तो ऐसा प्रसन्नचित्त था मानो कल्पवृक्ष मिल गया हो। एक दिन मैंने प्रोफेसर भाटिया को पत्र लिखा- मैं थोड़े दिनों से किसी गुप्त रोग से ग्रस्त हो गया हूँ। सम्भव है, तपेदिक (क्षय) का आरम्भ हो इसलिए मैं इस मई में विवाह करना उचित नहीं समझता। मैं लज्जावती से इस भांति पराङ्मुख होना चाहता था कि उनकी निगाहों में मेरी इज्जत कम न हो। मैं कभी-कभी अपनी स्वार्थपरता पर क्रुद्ध होता। लज्जा के साथ यह छल-कपट, यह बेवफ़ाई करते हुए मैं अपनी ही नजरों में गिर गया था। लेकिन मन पर कोई वश न था। उस अबला को कितना दुःख होगा, यह सोच कर मैं कई बार रोया। अभी तक मैं सुशीला के स्वभाव, विचार, मनोवृत्तियों से जरा भी परिचित न था। केवल उसके रूप-लावण्य पर अपनी लज्जा की चिरसंचित अभिलाषाओं का बलिदान कर रहा था। अबोध बालकों की भाँति मिठाई के नाम पर अपने दूध-चावल को ठुकराये देता था। मैंने प्रोफेसर को लिखा था- लज्जावती से मेरी बीमारी का जिक्र न करें, लेकिन प्रोफेसर साहब इतने गहरे न थे। चौथे ही दिन लज्जा का पत्र आया, जिसमें उसने अपना हृदय खोल कर रख दिया था। वह मेरे लिए सब कुछ, यहाँ तक कि वैधव्य की यंत्रणाएँ भी सहने के लिए तैयार थी। उसकी इच्छा थी कि अब हमारे संयोग में एक क्षण का भी विलम्ब न हो, अस्तु ! इस पत्र को लिये घंटों एक संज्ञाहीन दशा में बैठा रहा। इस अलौकिक आत्मोत्सर्ग के सामने अपनी क्षुद्रता, अपनी स्वार्थपरता, अपनी दुर्बलता कितनी घृणित थी !
लज्जावती सावित्री ने क्या सब कुछ जानते हुए भी सत्यवान से विवाह नहीं किया था ? मैं क्यों डरूँ ? अपने कर्तव्य-मार्ग से क्यों डिगूँ। मैं उनके लिए व्रत रखूँगी, तीर्थ करूँगी, तपस्या करूँगी। भय मुझे उनसे अलग नहीं कर सकता। मुझे उनसे कभी इतना प्रेम न था। कभी इतनी अधीरता न थी। यह मेरी परीक्षा का समय है, और मैंने निश्चय कर लिया है। पिता जी अभी यात्रा से लौटे हैं, हाथ खाली हैं, कोई तैयारी नहीं कर सके हैं। इसलिए दो-चार महीनों के विलम्ब से उन्हें तैयारी करने का अवसर मिल जाता; पर मैं अब विलम्ब न करूँगी। हम और वह इसी महीने में एक दूसरे के हो जायँगे, हमारी आत्माएँ सदा के लिए संयुक्त हो जायँगी, फिर कोई विपत्ति, दुर्घटना मुझे उनसे जुदा न कर सकेगी। मुझे अब एक दिन की देर भी असह्य है। मैं रस्म और रिवाज की लौंडी नहीं हूँ। न वही इसके गुलाम हैं। बाबू जी रस्मों के भक्त नहीं। फिर क्यों न तुरंत नैनीताल चलूँ ? उनकी सेवा-शुश्रूषा करूँ, उन्हें ढाढ़स दूँ। मैं उन्हें सारी चिंताओं से, समस्त विघ्न-बाधाओं से मुक्त कर दूँगी। इलाके का सारा प्रबन्ध अपने हाथों में लूँगी। कौंसिल के कामों में इतना व्यस्त हो जाने के कारण ही उनकी यह दशा हुई। पत्रों में अधिकतर उन्हीं के प्रश्न, उन्हीं की आलोचनाएँ, उन्हीं की वक्तृताएँ दिखायी देती हैं। मैं उनसे याचना करूँगी कि कुछ दिनों के लिए कौंसिल से इस्तीफा दे दें। वह मेरा गाना कितने चाव से सुनते थे। मैं उन्हें अपने गीत सुना कर प्रसन्न करूँगी, किस्से पढ़ कर सुनाऊँगी, उनको समुचित रूप से शांत रखूँगी। इस देश में तो इस रोग की दवा नहीं हो सकती। मैं उनके पैरों पर गिर कर प्रार्थना करूँगी कि कुछ दिनों के लिए यूरोप के किसी सैनिटोरियम चलें और विधिपूर्वक इलाज करायें। मैं कल ही कालेज के पुस्तकालय से इस रोग के सम्बन्ध की पुस्तकें लाऊँगी, और विचारपूर्वक उनका अध्ययन करूँगी। दो-चार दिन में कालेज बन्द हो जायगा। मैं आज ही बाबू जी से नैनीताल चलने की चर्चा करूँगी
आह ! मैंने कल उन्हें देखा तो पहचान न सकी। कितना सुर्ख चेहरा था, कितना भरा हुआ शरीर। मालूम होता था, ईंगुर भरी हुई है ! कितना सुन्दर अंग-विन्यास था ? कितना शौर्य्य था ! तीन ही वर्षों में यह कायापलट हो गयी, मुख पीला पड़ गया, शरीर घुल कर काँटा हो गया। आहार आधा भी नहीं रहा, हरदम चिंता में मग्न रहते हैं। कहीं आते-जाते नहीं देखती। इतने नौकर हैं, इतना सुरम्य स्थान है ! विनोद के सभी सामान मौजूद हैं; लेकिन इन्हें अपना जीवन अब अंधकारमय जान पड़ता है। इस कलमुँही बीमारी का सत्यानाश हो। अगर इसे ऐसी ही भूख थी तो मेरा शिकार क्यों न किया। मैं बड़े प्रेम से इसका स्वागत करती। कोई ऐसा उपाय होता कि यह बीमारी इन्हें छोड़कर मुझे पकड़ लेती ! मुझे देखकर कैसे खिल जाते थे और मैं मुस्कराने लगती थी। एक-एक अंग प्रफुल्लित हो जाता था। पर मुझे यहाँ दूसरा दिन है। एक बार भी उनके चेहरे पर हँसी न दिखायी दी। जब मैंने बरामदे में कदम रखा तब जरूर हँसे थे, किंतु कितनी निराश हँसी थी ! बाबू जी अपने आँसुओं को न रोक सके। अलग कमरे में जाकर देर तक रोते रहे। लोग कहते हैं, कौंसिल में लोग केवल सम्मान-प्रतिष्ठा के लोभ से जाते हैं। उनका लक्ष्य केवल नाम पैदा करना होता है। बेचारे मेम्बरों पर यह कितना कठोर आक्षेप है, कितनी घोर कृतघ्नता। जाति की सेवा में शरीर को घुलाना पड़ता है, रक्त को जलाना पड़ता है। यही जाति-सेवा का उपहार है। पर यहाँ के नौकरों को जरा भी चिंता नहीं है। बाबू जी ने इनके दो-चार मिलने वालों से बीमारी का जिक्र किया; पर उन्होंने भी परवाह न की। यह मित्रों की सहानुभूति का हाल है। सभी अपनी-अपनी धुन में मस्त हैं, किसी को खबर नहीं कि दूसरों पर क्या गुजरती है। हाँ, इतना मुझे भी मालूम होता है कि इन्हें क्षय का केवल भ्रम है। उसके कोई लक्षण नहीं देखती। परमात्मा करे मेरा अनुमान ठीक हो। मुझे तो कोई और ही रोग मालूम होता है। मैंने कई बार टेम्परेचर लिया। उष्णता साधारण थी। उसमें कोई आकस्मिक परिवर्तन भी न हुआ। अगर यही बीमारी है तो अभी आरम्भिक अवस्था है, कोई कारण नहीं कि उचित प्रयत्न से उसकी जड़ न उखड़ जाय। मैं कल से ही इन्हें नित्य सैर कराने ले जाऊँगी। मोटर की जरूरत नहीं, फिटन पर बैठने से ज्यादा लाभ होगा। मुझे यह स्वयं कुछ लापरवाह से जान पड़ते हैं। इस मरज के बीमारों को बड़ी एहतियात करते देखा है। दिन में बीसों बार तो थर्मामीटर देखते हैं। पथ्यापथ्य का बड़ा विचार रखते हैं। वे फल, दूध और पुष्टिकारक पदार्थों का सेवन किया करते हैं। यह नहीं कि जो कुछ रसोइये ने अपने मन से बनाकर सामने रख दिया, वही दो-चार ग्रास खा कर उठ आये। मुझे तो विश्वास होता जाता है कि इन्हें कोई दूसरी ही शिकायत है। जरा अवकाश मिले तो इसका पता लगाऊँ। कोई चिंता नहीं है ? रियासत पर कर्ज का बोझ तो नहीं है ? थोड़ा बहुत कर्ज तो अवश्य ही होगा। यह तो रईसों की शान है। अगर कर्ज ही इसका मूल कारण है तो अवश्य कोई भारी रकम होगी।
चित्त विविध चिंताओं से इतना दबा हुआ है कि कुछ लिखने को जी नहीं चाहता ! मेरे समस्त जीवन की अभिलाषाएँ मिट्टी में मिल गयीं। हा हतभाग्य ! मैं अपने को कितनी खुशनसीब समझती थी। अब संसार में मुझसे ज्यादा बदनसीब और कोई न होगा। वह अमूल्य रत्न जो मुझे चिरकाल की तपस्या और उपासना से न मिला, वह इस मृगनयनी सुंदरी को अनायास मिल जाता है। शारदा ने अभी उसे हाल में ही देखा है। कदाचित् अभी तक उससे परस्पर बातचीत करने की नौबत नहीं आयी। लेकिन उससे कितने अनुरक्त हो रहे हैं। उसके प्रेम में कैसे उन्मत्त हो गये हैं। पुरुषों को परमात्मा ने हृदय नहीं दिया, केवल आँखें दी हैं। वह हृदय की कद्र नहीं करना जानते, केवल रूप-रंग पर बिक जाते हैं। अगर मुझे किसी तरह विश्वास हो जाय कि सुशीला उन्हें मुझसे ज्यादा प्रसन्न रख सकेगी, उनके जीवन को अधिक सार्थक बना देगी, तो मुझे उसके लिए जगह खाली करने में जरा भी आपत्ति न होगी। वह इतनी गर्ववती, इतनी निठुर है कि मुझे भय है कहीं शारदा को पछताना न पड़े। लेकिन यह मेरी स्वार्थ-कल्पना है। सुशीला गर्ववती सही, निठुर सही, विलासिनी सही, शारदा ने अपना प्रेम उस पर अर्पण कर दिया है। वह बुद्धिमान हैं, चतुर हैं, दूरदर्शी हैं। अपना हानि-लाभ सोच सकते हैं। उन्होंने सब कुछ सोच कर ही निश्चय किया होगा। जब उन्होंने मन में यह बात ठान ली तो मुझे कोई अधिकार नहीं है कि उनके सुख-मार्ग का काँटा बनूँ। मुझे सब्र करके, अपने मन को समझा कर यहाँ से निराश, हताश, भग्नहृदय, विदा हो जाना चाहिए। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि उन्हें प्रसन्न रखे। मुझे जरा भी ईर्ष्या, जरा भी दम्भ नहीं है। मैं तो उनकी इच्छाओं की चेरी हूँ। अगर उन्हें मुझको विष दे देने से खुशी होती तो मैं शौक से विष का प्याला पी लेती। प्रेम ही जीवन का प्राण है। हम इसी के लिए जीना चाहते हैं। अगर इसके लिए मरने का भी अवसर मिले तो धन्य भाग। यदि केवल मेरे हट जाने से सब काम सँवर सकते हैं तो मुझे कोई इनकार नहीं। हरि इच्छा ! लेकिन मानव शरीर पा कर कौन मायामोह से रहित होता है ? जिस प्रेम-लता को मुद्दतों से पाला था, आँसुओं से सींचा था, उसको पैरों तले रौंदा जाना नहीं देखा जाता। हृदय विदीर्ण हो जाता है। अब कागज तैरता जान पड़ता है, आँसू उमड़े चले आते हैं, कैसे मन को खींचूँ। हा ! जिसे अपना समझती थी, जिसके चरणों पर अपने को भेंट कर चुकी थी, जिसके सहारे जीवन-लता पल्लवित हुई थी, जिसे हृदय-मन्दिर में पूजती थी, जिसके ध्यान में मग्न हो जाना जीवन का सबसे प्यारा काम था, उससे अब अनन्त काल के लिए वियोग हो रहा है। आह ! किससे अब फरियाद करूँ ? किसके सामने जा कर रोऊँ ? किससे अपनी दुःख-कथा कहूँ। मेरा निर्बल हृदय यह वज्राघात नहीं सह सकता। यह चोट मेरी जान लेकर छोड़ेगी। अच्छा ही होगा। प्रेम-विहीन हृदय के लिए संसार कालकोठरी है, नैराश्य और अंधकार से भरी हुई। मैं जानती हूँ अगर आज बाबू जी उनसे विवाह के लिए जोर दें तो वह तैयार हो जायँगे, बस मुरौवत के पुतले हैं। केवल मेरा मन रखने के लिए अपनी जान पर खेल जायेंगे। वह उन शीलवान पुरुषों में हैं जिन्होंने ‘नहीं’ करना ही नहीं सीखा। अभी तक उन्होंने दीवान साहब से सुशीला के विषय में कोई बातचीत नहीं की। शायद मेरा रुख देख रहे हैं। इसी असमंजस ने उन्हें इस दशा को पहुँचा दिया है। वह मुझे हमेशा प्रसन्न रखने की चेष्टा करेंगे। मेरा दिल कभी न दुखावेंगे, सुशीला की चर्चा भूल कर भी न करेंगे। मैं उनके स्वभाव को जानती हूँ। वह नर-रत्न हैं। लेकिन मैं उनके पैरों की बेड़ी नहीं बनना चाहती। जो कुछ बीते अपने ही ऊपर बीते। उन्हें क्यों समेटूँ ? डूबना ही है तो आप क्यों न डूबूँ, उन्हें अपने साथ क्यों डुबाऊँ ? वह भी जानती हूँ कि यदि इस शोक ने घुला-घुला कर मेरी जान ले ली तो यह अपने को कभी क्षमा न करेंगे। उनका समस्त जीवन क्षोभ और ग्लानि को भेंट हो जायेगा, उन्हें कभी शांति न मिलेगी। कितनी विकट समस्या है। मुझे मरने की भी स्वाधीनता नहीं। मुझे इनको प्रसन्न रखने के लिए अपने को प्रसन्न रखना होगा। उनसे निष्ठुरता करनी पड़ेगी। त्रियाचरित्र खेलना पड़ेगा। दिखाना पड़ेगा कि इस बीमारी के कारण अब विवाह की बातचीत अनर्गल है। वचन को तोड़ने का अपराध अपने सिर लेना पड़ेगा। इसके सिवाय उद्धार की और कोई व्यवस्था नहीं ? परमात्मा मुझे बल दो कि इस परीक्षा में सफल हो जाऊँ।
शारदाचरण एक ही निगाह ने निश्चय कर दिया। लज्जा ने मुझे जीत लिया। एक ही निगाह से सुशीला ने भी मुझे जीता था। उस निगाह में प्रबल आकर्षण था, एक मनोहर सारल्य, एक आनन्दोद्गार, जो किसी भाँति छिपाये नहीं छिपता था, एक बालोचित उल्लास, मानो उसे कोई खिलौना मिल गया हो। लज्जा की चितवन में क्षमा थी और थी करुणा, नैराश्य तथा वेदना। वह अपने को मेरी इच्छा पर बलिदान कर रही थी। आत्म-परिचय में उसे सिद्धि है। उसने अपनी बुद्धिमानी से सारी स्थिति ताड़ ली और तुरंत फैसला कर लिया। वह मेरे सुख में बाधक नहीं बनना चाहती थी। उसके साथ ही यह भी प्रकट करना चाहती थी कि मुझे तुम्हारी परवाह नहीं है। अगर तुम मुझसे जौ भर खिंचोगे तो मैं तुमसे गज भर खिंच जाऊँगी। लेकिन मनोवृत्तियाँ सुगंध के समान हैं जो छिपाने से नहीं छिपतीं। उसकी निठुरता में नैराश्यमय वेदना थी, उसकी मुस्कान में आँसुओं की झलक। वह मेरी निगाह बचा कर क्यों रसोई में चली जाती थी और कोई न कोई पाक, जिसे वह जानती है कि मुझे रुचिकर है, बना लाती थी ? वह मेरे नौकरों को क्यों आराम से रखने की गुप्त रीति से ताकीद किया करती थी ? समाचारपत्रों को क्यों मेरी निगाह से छिपा दिया करती थी ? क्यों संध्या समय मुझे सैर करने को मजबूर किया करती थी ? उसकी एक-एक बात उसके हृदय का परदा खोल देती थी। उसे कदाचित् मालूम नहीं है कि आत्म-परिचय रमणियों का विशेष गुण नहीं। उस दिन जब प्रोफेसर भाटिया ने बातों ही बातों में मुझ पर व्यंग्य किये, मुझे वैभव और सम्पत्ति का दास कहा और मेरे साम्यवाद की हँसी उड़ानी चाही तो उसने कितनी चतुरता से बात टाल दी। पीछे से मालूम नहीं उसने उन्हें क्या कहा; पर मैं बरामदे में बैठा सुन रहा था कि बाप और बेटी बगीचे में बैठे हुए किसी विषय पर बहस कर रहे हैं। कौन ऐसा हृदयशून्य प्राणी है जो निष्काम सेवा के वशीभूत न हो जाय। लज्जावती को मैं बहुत दिनों से जानता हूँ। पर मुझे ज्ञात हुआ कि इसी मुलाकात में मैंने उसका यथार्थ रूप देखा। पहले मैं उसकी रूपराशि का, उसके उदार विचारों का, उसकी मृदुवाणी का भक्त था। उसकी उज्ज्वल, दिव्य आत्मज्योति मेरी आँखों से छिपी हुई थी। मैंने अबकी ही जाना कि उसका प्रेम कितना गहरा, कितना पवित्र, कितना अगाध है। इस अवस्था में कोई दूसरी स्त्री ईर्ष्या से बावली हो जाती, मुझसे नहीं तो सुशीला से तो अवश्य ही जलने लगती, आप कुढ़ती, उसे व्यंग्यों से छेदती और मुझे धूर्त, कपटी, पाषाण, न जाने क्या-क्या कहती। पर लज्जा ने जितने विशुद्ध प्रेम-भाव से सुशीला का स्वागत किया, वह मुझे कभी न भूलेगा मालिन्य, संकीर्णता, कटुता का लेश न था। इस तरह उसे हाथों-हाथ लिये फिरती थी मानो छोटी बहिन उसके यहाँ मेहमान है। सुशीला इस व्यवहार पर मानो मुग्ध हो गयी। आह ! वह दृश्य भी चिरस्मरणीय है, जब लज्जावती मुझसे विदा होने लगी। प्रोफेसर भाटिया मोटर पर बैठे हुए थे। वह मुझसे कुछ खिन्न हो गये और जल्दी से जल्दी भाग जाना चाहते थे। लज्जा एक उज्ज्वल साड़ी पहने हुए मेरे सम्मुख आ कर खड़ी हो गयी। वह एक तपस्विनी थी, जिसने प्रेम पर अपना जीवन अर्पण कर दिया हो, श्वेत पुष्पों की माला थी जो किसी देवमूर्ति के चरणों पर पड़ी हुई हो। उसने मुस्करा कर मुझसे कहा-कभी-कभी पत्र लिखते रहना, इतनी कृपा की मैं अपने को अधिकारिणी समझती हूँ। मैंने जोश से कहा- हाँ, अवश्य। लज्जावती ने फिर कहा- शायद यह हमारी अंतिम भेंट हो। न जाने मैं कहाँ रहूँगी, कहाँ जाऊँगी; फिर कभी आ सकूँगी या नहीं। मुझे बिलकुल भूल न जाना। अगर मेरे मुँह से कोई ऐसी बात निकल आयी हो जिससे तुम्हें दुःख हुआ हो तो क्षमा करना और ... अपने स्वास्थ्य का बहुत ध्यान रखना। यह कहते हुए उसने मेरी तरफ हाथ बढ़ाये। हाथ काँप रहे थे। कदाचित् आँखों में आँसुओं का आवेग हो रहा था। वह जल्दी से कमरे के बाहर निकल जाना चाहती थी। अपने जब्त पर अब उसे भरोसा न था। उसने मेरी ओर दबी आँखों से देखा। मगर इस अर्द्ध-चितवन में दबे हुए पानी का वेग और प्रवाह था। ऐसे प्रवाह में मैं स्थिर न रह सका। इस निगाह ने हारी हुई बाजी जीत ली; मैंने उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और गद्गद स्वर से बोला नहीं लज्जा, अब हममें और तुममें कभी वियोग न होगा।
सहसा चपरासी ने सुशीला का पत्र लाकर सामने रख दिया। लिखा था- प्रिय श्री शारदाचरण जी, हम लोग कल यहाँ से चले जायँगे। मुझे आज बहुत काम करना है, इसलिए मिल न सकूँगी। मैंने आज रात को अपना कर्तव्य स्थिर कर लिया। मैं लज्जावती के बने-बनाये घर को उजाड़ना नहीं चाहती। मुझे पहले यह बात न मालूम थी, नहीं तो हममें इतनी घनिष्ठता न होती। मेरा आपसे यही अनुरोध है कि लज्जा को हाथ से न जाने दीजिए। वह नारी-रत्न है। मैं जानती हूँ कि मेरा रूप-रंग उससे कुछ अच्छा है और कदाचित् आप उसी प्रलोभन में पड़ गये; लेकिन मुझमें वह त्याग, वह सेवा भाव, वह आत्मोत्सर्ग नहीं है। मैं आपको प्रसन्न रख सकती हूँ, पर आपके जीवन को उन्नत नहीं कर सकती, उसे पवित्र और यशस्वी नहीं बना सकती। लज्जा देवी है, वह आपको देवता बना देगी। मैं अपने को इस योग्य नहीं समझती। कल मुझसे भेंट करने का विचार न कीजिए, रोने-रुलाने से क्या लाभ। क्षमा कीजिएगा। आपकी सुशीला मैंने यह पत्र लज्जा के हाथ में रख दिया। वह पढ़ कर बोली- मैं उससे आज ही मिलने जाऊँगी। मैंने उसका आशय समझ कर कहा- क्षमा करो, तुम्हारी उदारता की दूसरी बार परीक्षा नहीं लेना चाहता। यह कह कर मैं प्रोफेसर भाटिया के पास गया। वह मोटर पर मुँह फुलाये बैठे थे। मेरे बदले लज्जावती आयी होती तो उस पर जरूर ही बरस पड़ते। मैंने उनके पद स्पर्श किये और सिर झुका कर बोला- आपने मुझे सदैव अपना पुत्र समझा है। अब उस नाते को और भी दृढ़ कर दीजिए। प्रोफेसर भाटिया ने पहले तो मेरी ओर अविश्वासपूर्ण नेत्रों से देखा तब मुस्करा कर बोले- यह तो मेरे जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा थी।
वाजिदअली शाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था , तो कोई अफीम की
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पीनक ही के मजे लेता था। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद को प्राधान्य था। शासन विभाग में, साहित्य क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में, कला कौशल में, उद्योग-धन्धों में, आहार-विहार में, सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही था। कर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में , व्यावसायी सुर में, इत्र मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त था। सभी की आँखो में विलासिता का मद छाया हुआ था। संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी। बटेर लड़ रहे है। तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है। कही चौरस बिछी हुई है। पौ बारह का शोर मचा हुआ है। कही शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे। यहाँ तक कि फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न लेकर अफीम खाते या मदक पीते। शतरंज ताश, गंजीफा खेलने में बुद्धि तीव्र होती है, विचार शक्ति का विकास होता है, पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है, ये दलील जोर के साथ पेश की जाती थी। ( इस सम्प्रदाय के लोगो से दुनिया अब भी खाली नही है।) इसलिए अगर मिर्जा सज्जाद अली और मीर रौशन अली अपना अधिकांश समय बुद्धि-तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसी जागीरें थी, जीविका की कोई चिन्ता न थी। घर बैठे चखोतियाँ करते। आखिर और करते ही क्या? प्रातःकाल दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछा कर बैठ जाते, मुहरे सज जाते और लड़ाई के दाँवपेच होने लगते थे। फिर खबर न होती थी कि कब दोपहर हुई कब तीसरा पहल, कब शाम। घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता था - 'खाना तैयार है।' यहाँ से जबाव मिलता - 'चलो आते है, दस्तर ख्वान बिछाओ।' यहाँ तक कि बावरची विवश होकर कमरे में ही खाना रख जाता था, और दोनो मित्र दोनो काम साथ-साथ करते थे। मिर्जा सज्जाद अली के घर में कोई बड़ा-बूढा न था, इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाजियाँ होती थी; मगर यह बात न थी कि मिर्जा के घर के और लोग उसके व्यवहार से खुश हो। घरवाली का तो कहना ही क्या, मुहल्ले वाले, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेषपूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे 'बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे किसी को इसकी चाट पड़े। आदमी दीन दुनिया किसी के काम का नही रहता, न घर का न घाट का। बुरा रोग है यहाँ तक कि मिर्जा की बेगम इससे इतना द्वेष था कि अवसर खोज-खोज कर पति को लताड़ती थी। पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था । वह सोचती रहती थी, तब तक उधर बाजी बिछ जाती था। और रात को जब सो जाती थी, तब कही मिर्जा जी भीतर आते थे। हाँ नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थी - 'क्या पान माँगे है? कह दो आकर ले जायँ। खाने की भी फुर्सत नही हैं? ले जाकर खाना सिर पटक दो, खायँ चाहे कुत्ते को खिलावें।' पर रूबरु वह कुछ न कह सकती थी। उनको अपने पति से उतना मलाल न था जितना मीर साहब से। उन्होंने उसका नाम मीर बिगाड़ू रख छोड़ा था। शायद मिर्जा जी अपनी सफाई देने के लिए सारा इल्जाम मीर साहब ही के सिर थोप देते थे। एक दिन बेगम साहिबा के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौड़ी से कहा - 'जाकर मिर्जा साहब को बुला लो। किसी हकीम के यहाँ से दवा लाये। दौड़, जल्दी कर।' लौड़ी गयी तो मिर्जा ने कहा - 'चल, अभी आते है।' बेगम का मिजाज गरम था। इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो, और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौड़ी से कहा - 'जाकर कह, अभी चलिए नही तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जायँगी।' मिर्जा जी बड़ी दिलचस्प बाजी खेल रहे थे, दो ही किश्तो में मीर साहब की मात हुई जाती थी, झँललाकर बोले - 'क्या ऐसा दम लबो पर है? जरा सब्र नही होता?' मीर - अरे, तो जाकर सुन ही आइए न। औरते नाजुक-मिजाज होती है। मिर्जा - जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ। दो किश्तों में आपको मात होती है। मीर - जनाब, इस भरोसे में न रहिएगा। वह चाल सोची है कि आपके मुहरे धरे रहें, औऱ मात हो जाए। पर जाइए, सुन आइए, क्यों ख्वामह-ख्वाह उनका दिल दुखाइएगा? मिर्जा - इसी बात पर मात ही कर के जाऊँगा। मीर - मै खेलूँगा ही नही। आप जाकर सुन आइए। मिर्जा - अरे यार जाना, ही पड़ेगा हकीम के यहाँ। सिर-दर्द खाक नही है, मुझे परेशान करने का बहाना है। मीर - कुछ भी हो, उनकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी। मिर्जा - अच्छा, एक चाल और चल लूँ। मीर - हरगिज नही, जब तक आप सुन न आवेंगे, मै मुहरे में हाथ न लगाऊँगा। मिर्जा साहब मजबूर होकर अन्दर गये तो बेगम साहबा ने त्योरियाँ बदल कर लेकिन कराहते हुए कहा - तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है! चाहे कोई मर ही जाय, पर उठने का नाम नही लेते! नौज कोई तुम जैसा आदमी हो! मिर्जा - क्या कहूँ, मीर साहब मानते ही न थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ। बेगम - क्या जैसे वह खुद निखट्टू ही, वैसे ह सबको समझते है? उनके भी बाल बच्चे है, या सबका सफाया कर डाला है! मिर्जा - बड़ा लती आदमी है। जब आ जाता है तब मजबूर होकर खेलना पड़ता है। बेगम - दुत्कार क्यो नही देते? मिर्जा - बराबर का आदमी है, उम्र में, दर्जें मे, मुझसे दो अंगुल ऊँचे। मुलाहिजा करना ही पड़ता है। बेगम - तो मै ही दुत्कार देती हूँ। नाराज हो जायेंगे, हो जाएँ। कौन किसी की रोटियोँ चला देता है। रानी रूठेगी, अपना सुहाग लेंगी। हिरिया, बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना, मियाँ अब न खेलेगे, आप तशरीफ ले जाइए। मिर्जा - हाँ-हाँ, कहीं ऐसा गजब भी न कर ना! जलील करना चाहती हो क्या? ठहर हिरिया, कहाँ जाती है! बेगम - जाने क्यों नही देते? मेरे ही खून पिए, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोका, मुझे रोको तो जानूँ। यह कहकर बेगम साहिबा इल्लायी हुई दीवानखाने की तरफ चली। मिर्जा बेचारे का रंग उड़ गया। बीवी की मिन्नते करने लगे - खुदा के लिए, तुम्हे हजरत हुसेन की कसम। मेरी ही मैयत देखे, जो उधर जाए।' लेकिन बेगम ने एक न मानी। दीवानखाने के द्वार तक चली गयी। पर एकाएक पर पुरुष के सामने जाते हुए पाँव बँध गए। भीतर झाँका, संयोग से कमरा खाली था; मीर साहब ने दो मुहरे इधर-उधर कर दिये थे और अपनी सफाई बताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेगम ने अन्दर पहुँच कर बाजी उलट दी; मुहरे कुछ तख्त के नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर और किवाड़ अन्दर से बन्द करके कुंड़ी लगा दी। मीर साहब दरवाजे पर तो थे ही, मुहरे बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाजा बन्द हुआ, तो समझ गये बेगम बिगड़ गयी। घर की राह ली। मिर्जा ने कहा - तुमने गजब किया। बेगम - अब, मीर साहब इधर आये तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी। इतनी लौ खुदा से लगाते तो क्या गरीब हो जाते? आप तो शतरंज खेले और मैं यहाँ चूल्हे चक्की की फिक्र में सिर खपाऊँ। बोलो, जाते हो हकीम के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है। मिर्जा घर से निकले तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे, और सारा वृतान्त कहा। मीर साहब बोले - मैने तो जब मुहरे बाहर आते देखे तभी ताजड गया। फौरन भागा। बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं। मगर आपने उन्हे यो सिर पर चढ़ा रखा है यह मुनासिब नही। उन्हें इससे क्या मतलब की आप बाहर क्या करते है। घर का इन्तजाम करना उनका काम है, दूसरी बातो से उन्हें क्या सरोकार? मिर्जा - खैर, यह तो बताइए, अब कहाँ जमाव होगा? मीर - इसका क्या गम? इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है? बस यही जमे। मिर्जा - लेकिन बेगम साहब को कैसे मनाऊँगा ? जब घर पर बैठा रहता था तब तो वह इतना बिगड़ती थी, यहाँ बैठक होग तो शायद जिन्दा न छोड़ेगी। मीर - अजी बकने भी दीजिए, दो-चार रोज में आप ही ठीक हो जायँगी। हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से जरा तन जाइए! मीर साहब की बेग किसी अज्ञात कारण से उनका घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थी। इसलिए वह उनके शतरंज प्रेम की कभी आलोचना न करती बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती तो याद दिला देती थी। इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील और गम्भीर है। लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीर साहब दिन भर घर में रहने लगे तो उन्हें बड़ा कष्ट होने लगा। उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गयी। दिन भर दरवाजे पर झाँकने को तरस जाती। उधर नौकरो में काना-फूसी होने लगी। अब तक दिन भर पड़े-पड़े मक्खियाँ मारा करते थे। घर में चाहे कोई आवे, चाहे कोई जाय, इनसे कुछ मतलब न था। आठों पहर की धौस हो गयी। कभी पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई लाने का। और हु्क्का तो किसी प्रेमी के हृदय की भाँति नित्य जलता ही रहता था। वे बेगम साहब से जा-जाकर कहते - हुजूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गई! दिन भर दौड़ते-दौड़ते पैरौ में छाले पड़ गये। यह भी कोई खेल है कि सुबह को बैठे तो शाम ही कर दी। घड़ी आध घड़ी दिल-बहलाव के लिए खेल लेना बहुत है। खैर, हमें तो कोई शिकायत नही, हुजूर के गुलाम हो, जो हुक्म होगा बजा ही लावेंगे, मगर यह खेल मनहूस है । इसका खेलने वाला कभी पनपता नही, घर पर कोई न कोई आफत जरूर आता है। यहाँ तक कि एक के पीछे मुहल्ले के मुहल्ले तबाह हो जाते देखे गये है। सारे मुहल्ले मे यही चर्चा होती रहती है । हुजूर का नमक खाते है। अपने आका की बुराई सुन-सुनकर रंज होता है। मगर क्या करे? इसपर बेगम साहिबा कहती - मै तो खुद इसको पसन्द नही करती, पर वह किसी की सुनते ही नही, क्या किया जाय? मुहल्ले में भी दो-चार पुराने जमाने के लोग थे। वे आपस में भाँति-भाँति के अमंगल की कल्पनाएँ करने लगे - अब खैरियत नही है। जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफिज। यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी। आसार बुरे है। राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फरियाद सुनने वाला न था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिची चली आती थी, और वह वेश्याओ में, भाँड़ो में और विलासता के अन्य अंगों की पूर्ति मे उड़ जाती थी। अँगरेजी कम्पनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता थी। कमली दिन-दिन भीग कर भारी होती जाती थी। देख में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी न वसूल होता था। रेसिडेन्ट बार-बार चेतावनी देता था, पर यहाँ लोग विलासिता के नशे में चूर थे। किसी के कान में जूँ न रेंगती थी। खैर, मीर साहब के दीवानखाने में शतरंज होते महीने गुजर गये। नये-नये नक्शे हल किये जाते, नये-नये बनाये जाते, नित नयी ब्यूह रचना होती; कभी-कभी खेलते-खेलते भिड़ हो जाती। तू-तू मै-मै तक की नौबत आ जाती। पर शीध्र ही दोनो में मेल हो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि बाजी उठा दी जाती. मिर्जा जी रूठ कर अपने घर में जा बैठते। पर रातभर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शान्त हो जाता था। प्रातःकाल दोनो मित्र दीवानखाने में आ पहुँचते थे। एक दिन दोनो मित्र बैठे शतरंज की दलदल में गोते लगा रहे थे कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ पहुँचा। मीर साहब के होश उड़ गये। यह क्या बला सिर पर आयी? यह तलबी किस लिये हुई ? अब खैरियत नही नजर आती! घर के दरवाजे बन्द कर लिये। नौकर से बोले - कह दो घर में नही है। सवार - घर में नही, तो कहाँ है? नौकर - यह मैं नही जानता। क्या काम है? सवार - काम तुझे क्या बतालाऊँ? हुजूर से तलबी है - शायद फौज के लिए कुछ सिपाही माँगे गये है। जागीरदार है कि दिल्लगी? मोरचे पर जाना पड़ेगा तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा। नौकर - अच्छा तो जाइए, कह दिया जायेगा। सवार - कहने की बात नही। कल मै खुद आऊँगा। साथ ले जाने का हुक्म हुआ है। सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिर्जा जी से बोले - कहिए, जनाब, अब क्या होगा? मिर्जा - बड़ी मुसीबत बै। कहीं मेरी भी तलबी न हो। मीर - कम्बख्त कल आने को कह गया है। मिर्जा - आफत है, और क्या! कहीं मोरचे पर जाना पड़ा तो बेमौत मरे। मीर - बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलें ही नही। कल से गोमती पर कहीं वीराने नें नक्शा जमें। वहाँ किसे खबर होगी? हजरत आकर लौट जायेंगे। मिर्जा - वल्लाह, आपको खूब सूझी! इसके सिवा औऱ कोई तदबीर नही है। इधर मीर साहब की बेगम उस सवार से कह रही थी - तुमने खूब ध्रता बतायी। उसने जवाब दिया - ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ। इनकी सारी अकल और हिम्मत तो शतरंजे चर ली। अब भूलकर भी घर न रहेंगे। दूसरे दिन से दोनों मित्र मुँह अँधेरे घर से निकल खड़े होते। बगल में एक छोटी-सी दरी दबाये, डिब्बे में गिलोरियाँ भरे, गोमती पार कर एक पुरानी वीरान मस्जिद में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफउद्दौला ने बनवाया था। रास्ते में तम्बाकू, चिलम औऱ मदरिया ले लेते और मस्जिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भर शतरंज खेलने बैठ जाते थे। फिर उन्हें दीन-दुनिया की फिक्र न रहती थी। 'किस्त', 'शह' आदि दो-एक शब्दों के सिवा मुँह से और कोई वाक्य नही निकलता था। कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता। दो पहर को जब भूख मालूम होती तो दोनो मित्र किसी नानबाई की दूकान पर जाकर खाना खा आते और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम क्षेत्र में डट जाते। कभी कभी तो उन्हें भोजन का भी ख्याल न रहता था। इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चो को ले-ले कर देहातो में भाग रहे थे। पर हमारे दोनो खिलाड़ियो को इसकी जरा भी फिक्र न थी। वे घर से आते तो गलियो में होकर। डर था कि कही किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाय, नही तो बेगार में पकड़े जायँ हजारो रूपये सालाना की जागीर मुफ्त में ही हजम करना चाहते थे। एक दिन दोनो मित्र मस्जिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मिर्जा की बाजी कुछ कमजोर थी। मीर साहब को किश्त पर किश्त दे रहे थे। इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिये। यह गोरो की फौज थी जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी। मीर साहब - अंगरेजी फौज आ रही है खुदा खैर करे! मिर्जा - आने दीजिए, किश्त बचाइए। लो यह किश्त! मीर - तोरखाना भी है। कोई पाँच हजार आदमी होगे, कैसे जवान है। लाल बंदरो से मुँह है। सूरत देखकर खौफ मालूम होता है। मिर्जा - जनाब, हीले न कीजिए। ये चकमें किसी और को दीजिएगा - यह किश्त! मीर - आप भी अजीब आदमी है। यहाँ तो शहर पर आफत आयी हुई है, और आपको किश्त की सूझी है। कुछ खबर है कि शहर घिर गया तो घर कैसे चलेंगे? मिर्जा - जब घर चलने का वक्त आयेगा तो देखी जाएगी - यह किश्त, बस अब की शह में मात है। फौज निकल गयी। दस बजे का समय था। फिर बाजी बिछ गयी। मिर्जा बोले - आज खाने की कैसी ठहरेगा? मीर - अजी, आज तो रोजा है। क्या आपको भूख ज्यादा मालूम होती है? मिर्जा - जी नही। शहर में जाने क्या हो रहा है? मीर - शहर में कुछ न हो रहा होगा। लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होगे। हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होगे । दोनो सज्जन फिर जो खेलने बैठे तो तीन बज गए। अब की मिर्जा की बाजी कमजोर थी। चार का गजर बज रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिदअली शाह पकड़ लिए गये थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिए जा रही थी। शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूँद भी खून नही गिरा था। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शान्ति से इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। यह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते है। यह कायरपन था जिस पर बड़े से बड़े कायर आँसू बहाते है। अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी बना चला जाता था और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी। मिर्जा ने कहा - हुजूर नवाब को जालिमों नें कैद कर लिया है। मीर - होगा, यह लीजिए शह! मिर्जा - जनाब, जरा ठहरिए। इस वक्त इधर तबीयत ठीक नही लगती। बेचारे नवाब साहब इस वक्त खून के आँसू रो रहे होंगे। मीर - रोया ही चाहे, यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा? यह किश्त। मिर्जा - किसी के दिन बराबर नही जाते। कितनी दर्दनाक हालत है। मीर - हाँ, सो तो है ही, यह लो फिर किश्त! बस अब की किश्त में मात है। बच नहीं सकते। मिर्जा - खुदा की कसम, आप बड़े बे दर्द है। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नही होता। हाय, गरीब वाजिदअली शाह! मीर - पहले अपने बादशाह को तो बचाइए, फिर नवाब का मातम कीजिएगा। यह किश्त और मात! लाना हाथ! बादशाह को लिए हुए सेना सामने से निकल गयी। उनके जाते ही मिर्जा ने फिर बाजी बिछा ली। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा - आइए नवाब के मातम में मरसिया कह डाले। लेकिन मिर्जा की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी । वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो गए थे। शाम हो गयी। खंडहर मेमं चमगादड़ो ने चीखना शुरू किया। अबाबीले आ-आकर अपने घोंसलों में चिपटी। पर दोनों खिलाड़ी डटे हुए थे। मानो दोनों खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हो। मिर्जा जी तीन बाजियाँ लगातार हार चुके थे; इस चौथी बाजी का भी रंग अच्छा न था। वह बार-बार जीतने का दृढ़निश्चय कर सँभलकर खेलते थे लेकिन एक न एक चाल ऐसी बेढ़ब आ पड़ती थी जिससे बाजी खराब हो जाती थी। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और उग्र होती जाती थी। उधर मीर साहब मारे उमंग के गजले गाते थे, चुटकियाँ लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गये हो। मिर्जा सुन-सुनकर झुझलाते और हार की झेंप मिटाने कि लिए उनकी दाद देते थे। ज्यों-ज्यों बाजी कमजोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकलता जाता था। यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे। 'जनाब' आप चाल न बदला कीजिए।यह क्या कि चाल चले औऱ फिर उसे बदल दिया जाय। जो कुछ चलना है एक बार चल दीजिए। यह आप मुहरे पर ही क्यों हाथ रखे रहते है। मुहरे छोड़ दीजिए। जब तक आपको चाल न सूझे, मुहरा छुइए ही नही। आप एक-एक चाल आध-आध घंटे में चलते है। इसकी सनद नही। जिसे एक चाल चलनें में पाँच मिनट से ज्यादा लगे उसकी मात समझी जाय। फिर आपने चाल बदली? चुपके से मुहर वही रख दीजिए। मीर साहब की फरजी पिटता था। बोले - मैने चाल चली ही कब थी? मिर्जा - आप चाल चल चुके है। मुहरा वही रख दीजिए - उसी घर में। मीर - उसमें क्यो रखूँ? हाथ से मुहरा छोड़ा कब था? मिर्जा - मुहरा आप कयामत तक न छोड़े, तो क्या चाल ही न होगी? फरजी पिटते देखा तो धाँधली करने लगे। मीर - धाँधली आप करते है। हार-जीत तकदीर से होती है। धाँधली करने से कोई नही जीतता। मिर्जा - तो इस बाजी में आपकी मात हो गयी। मीर - मुझे क्यो मात होने लगी? मिर्जा - तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था। मीर - वहाँ क्यो रखूँ? नही रखता। मिर्जा - क्यों न रखिएगा? आपको रखना होगा। तकरार बढ़ने लगी। दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। न यह दबता था, न वह। अप्रासंगिक बाते होने लगी। मिर्जा बोले - किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती तब तो इसके कायदे जानते। वो तो हमेशा घास छीला किए, आप शतरंज क्या खेलिएगा? रियासत और ही चीज है। जागीर मिल जाने ही से कोई रईस नही हो जाता। मीर - क्या! घास आपके अब्बाजन छीलते होगे। यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आते है? मिर्जा - अजी जाइए भी, गाजीउद्दीन हैदर के यहाँ बावर्ची का काम करते-करते उम्र गुजर गयी। आज रईस बनने चले है। रईस बनना कुछ दिल्लगी नही। मीर - क्यो अपने बुजुर्गो के मुँह पर कालिख लगाते हो - वे बावर्ची का काम करते होंगे। यहाँ तो बादशाह के दस्तर ख्वान पर खाना खाते चले आये है। मिर्जा - अरे चल चरकटे, बहुत बढ़कर बातें न कर! मीर - जबान सँभालिए, वर्ना बुरा होगा। मै ऐसी बातें सुनने का आदी नही। यहाँ तो किसी ने आँखे दिखायी कि उसकी आँखें निकाली । है हौसला? मिर्जा - आप मेरा हौसला देखना चाहते है, तो फिर आइए, आज दो-दो हाथ हो जायँ, इधर या उधर। मीर - तो यहाँ तुमसे दबने वाला कौन है? दोनो दोस्तों ने कमर से तलवारे निकाल ली। नवाबी जमाना था। सभी तलवार, पेशकब्ज कटार वगैरह बाँधते थे। दोनो विलासी थे, पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था। बादशाह के लिए क्यों मरे? पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनो ने पैतरे बदले, तलवारे चमकी, छपाछप की आवाजे आयी। दोनो जख्मी होकर गिरे, दोनो न वहीं तड़प-तड़प कर जाने दी। अपने बादशाह के लिए उनकी आँखों से एक बूँद आँसू न निकला, उन्होने शतरंज के वजीर की रक्षा नें प्राण दे दिए। अँधेरा हो चला था। बाजी बिछी हुई थी। दोनो बादशाह अपने-अपने सिहांसन पर बैठे मानो इन वीरो की मृत्यु पर रो रहे थे। चारो तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। खँडहर की टूटी हुई, मेहराबे गिरी हुई दीवारे और धूल-धूसरितें मीनारे इन लाशों को देखती और सिर धुनती थी।
बुंदेलखंड में ओरछा पुराना राज्य है। इसके राजा बुंदेले हैं। इन बुंदेलों ने पहाड़ों की घाटियों में अपना जीवन बिताया है। एक समय ओरछे के राजा जुझार सिंह थे। ये बड़े साहसी और बुद्धिमान थे। शाहजहाँ उस
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समय दिल्ली के बादशाह थे। जब शाहजहाँ लोदी ने बलवा किया और वह शाही मुल्क को लूटता-पाटता ओरछे की ओर आ निकला, तब राजा जुझार सिंह ने उससे मोरचा लिया। राजा के इस काम से गुणग्राही शाहजहाँ बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने तुरंत ही राजा को दक्खिन का शासन-भार सौंपा। उस दिन ओरछे में बड़ा आनंद मनाया गया। शाही दूत खिलअत और सनद ले कर राजा के पास आया। जुझार सिंह को बड़े-बड़े काम करने का अवसर मिला। सफ़र की तैयारियाँ होने लगीं, तब राजा ने अपने छोटे भाई हरदौल सिंह को बुला कर कहा, "भैया, मैं तो जाता हूँ। अब यह राज-पाट तुम्हारे सुपुर्द है। तुम भी इसे जी से प्यार करना! न्याय ही राजा का सबसे बड़ा सहायक है। न्याय की गढ़ी में कोई शत्रु नहीं घुस सकता, चाहे वह रावण की सेना या इंद्र का बल लेकर आए, पर न्याय वही सच्चा है, जिसे प्रजा भी न्याय समझे। तुम्हारा काम केवल न्याय ही करना न होगा, बल्कि प्रजा को अपने न्याय का विश्वास भी दिलाना होगा और मैं तुम्हें क्या समझाऊँ, तुम स्वयं समझदार हो।" यह कह कर उन्होंने अपनी पगड़ी उतारी और हरदौल सिंह के सिर पर रख दीं। हरदौल रोता हुआ उनके पैरों से लिपट गया। इसके बाद राजा अपनी रानी से विदा होने के लिए रनिवास आए। रानी दरवाज़े पर खड़ी रो रही थी। उन्हें देखते ही पैरों पर पड़ी। जुझार सिंह ने उठा कर उसे छाती से लगाया और कहा, "प्यारी, यह रोने का समय नहीं है। बुंदेलों की स्त्रियाँ ऐसे अवसर पर रोया नहीं करतीं। ईश्वर ने चाहा, तो हम-तुम जल्द मिलेंगे। मुझ पर ऐसी ही प्रीति रखना। मैंने राज-पाट हरदौल को सौंपा है, वह अभी लड़का है। उसने अभी दुनिया नहीं देखी है। अपनी सलाहों से उसकी मदद करती रहना।" रानी की ज़बान बंद हो गई। वह अपने मन में कहने लगी, "हाय यह कहते हैं, बुंदेलों की स्त्रियाँ ऐसे अवसरों पर रोया नहीं करतीं। शायद उनके हृदय नहीं होता, या अगर होता है तो उसमें प्रेम नहीं होता!" रानी कलेजे पर पत्थर रख कर आँसू पी गई और हाथ जोड़ कर राजा की ओर मुस्कराती हुई देखने लगी; पर क्या वह मुस्कराहट थी। जिस तरह अंधेरे मैदान में मशाल की रोशनी अंधेरे को और भी अथाह कर देती है, उसी तरह रानी की मुस्कराहट उसके मन के अथाह दुख को और भी प्रकट कर रही थी। जुझार सिंह के चले जाने के बाद हरदौल सिंह राज करने लगा। थोड़े ही दिनों में उसके न्याय और प्रजा-वात्सल्य ने प्रजा का मन हर लिया। लोग जुझार सिंह को भूल गए। जुझार सिंह के शत्रु भी थे और मित्र भी; पर हरदौल सिंह का कोई शत्रु न था, सब मित्र ही थे। वह ऐसा हँसमुख और मधुर भाषी था कि उससे जो बातें कर लेता, वही जीवन भर उसका भक्त बना रहता। राज भर में ऐसा कोई न था जो उसके पास तक न पहुँच सकता हो। रात-दिन उसके दरबार का फाटक सबके लिए खुला रहता था। ओरछे को कभी ऐसा सर्वप्रिय राजा नसीब न हुआ था। वह उदार था, न्यासी था, विद्या और गुण का ग्राहक था, पर सबसे बड़ा गुण जो उसमें था, वह उसकी वीरता थी। उसका वह गुण हद दर्जे को पहुँच गया था। जिस जाति के जीवन का अवलंब तलवार पर है, वह अपने राजा के किसी गुण पर इतना नहीं रीझती जितना उसकी वीरता पर। हरदौल अपने गुणों से अपनी प्रजा के मन का भी राजा हो गया, जो मुल्क और माल पर राज करने से भी कठिन है। इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। उधर दक्खिन में जुझार सिंह ने अपने प्रबंध से चारों ओर शाही दबदबा जमा दिया, इधर ओरछे में हरदौल ने प्रजा पर मोहन-मंत्र फूँक दिया। फाल्गुन का महीना था, अबीर और गुलाल से ज़मीन लाल हो रही थी। कामदेव का प्रभाव लोगों को भड़का रहा था। रबी ने खेतों में सुनहला फ़र्श बिछा रखा था और खलिहानों में सुनहले महल उठा दिए थे। संतोष इस सुनहले फ़र्श पर इठलाता फिरता था और निश्चिंतता उस सुनहले महल में ताने आलाप रही थी। इन्हीं दिनों दिल्ली का नामवर फेकैती कादिर खाँ ओरछे आया। बड़े-बड़े पहलवान उसका लोहा मान गए थे। दिल्ली से ओरछे तक सैंकड़ों मर्दानगी के मद से मतवाले उसके सामने आए, पर कोई उससे जीत न सका। उससे लड़ना भाग्य से नहीं, बल्कि मौत से लड़ना था। वह किसी इनाम का भूखा न था। जैसा ही दिल का दिलेर था, वैसा ही मन का राजा था। ठीक होली के दिन उसने धूम-धाम से ओरछे में सूचना दी कि "खुदा का शेर दिल्ली का कादिर खाँ ओरछे आ पहुँचा है। जिसे अपनी जान भारी हो, आ कर अपने भाग्य का निपटारा कर ले।" ओरछे के बड़े-बड़े बुंदेले सूरमा वह घमंड-भरी वाणी सुन कर गरम हो उठे। फाग और डफ की तान के बदले ढोल की वीर-ध्वनि सुनाई देने लगी। हरदौल का अखाड़ा ओरछे के पहलवानों और फेकैतों का सबसे बड़ा अड्डा था। संध्या को यहाँ सारे शहर के सूरमा जमा हुए। कालदेव और भालदेव बुंदेलों की नाक थे, सैंकड़ों मैदान मारे हुए। ये ही दोनों पहलवान कादिर खाँ का घमंड चूर करने के लिए गए।
दूसरे दिन क़िले के सामने तालाब के किनारे बड़े मैदान में ओरछे के छोटे-बड़े सभी जमा हुए। कैसे-कैसे सजीले, अलबेले जवान थे, सिर पर खुशरंग बांकी पगड़ी, माथे पर चंदन का तिलक, आँखों में मर्दानगी का सरूर, कमर में तलवार। और कैसे-कैसे बूढ़े थे, तनी हुईं मूँछें, सादी पर तिरछी पगड़ी, कानों में बँधी हुई दाढ़ियाँ, देखने में तो बूढ़े, पर काम में जवान, किसी को कुछ न समझने वाले। उनकी मर्दाना चाल-ढाल नौजवानों को लजाती थी। हर एक के मुँह से वीरता की बातें निकल रही थीं। नौजवान कहते थे, "देखें आज ओरछे की लाज रहती है या नहीं। पर बूढ़े कहते- ओरछे की हार कभी नहीं हुई, न होगी। वीरों का यह जोश देख कर राजा हरदौल ने बड़े ज़ोर से कह दिया, "खबरदार, बुंदेलों की लाज रहे या न रहे; पर उनकी प्रतिष्ठा में बल न पड़ने पाए- यदि किसी ने औरों को यह कहने का अवसर दिया कि ओरछे वाले तलवार से न जीत सके तो धांधली कर बैठे, वह अपने को जाति का शत्रु समझे।"
सूर्य निकल आया था। एकाएक नगाड़े पर चोट पड़ी और आशा तथा भय ने लोगों के मन को उछाल कर मुँह तक पहुँचा दिया। कालदेव और कादिर खाँ दोनों लँगोट कसे शेरों की तरह अखाड़े में उतरे और गले मिल गए। तब दोनों तरफ़ से तलवारें निकलीं और दोनों के बगलों में चली गईं। फिर बादल के दो टुकड़ों से बिजलियाँ निकलने लगीं। पूरे तीन घंटे तक यही मालूम होता रहा कि दो अंगारे हैं। हज़ारों आदमी खड़े तमाशा देख रहे थे और मैदान में आधी रात का-सा सन्नाटा छाया था। हाँ, जब कभी कालदेव गिरहदार हाथ चलाता या कोई पेंचदार वार बचा जाता, तो लोगों की गर्दन आप ही आप उठ जाती; पर किसी के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकलता था। अखाड़े के अंदर तलवारों की खींचतान थी; पर देखनेवालों के लिए अखाड़े से बाहर मैदान में इससे भी बढ़ कर तमाशा था। बार-बार जातीय प्रतिष्ठा के विचार से मन के भावों को रोकना और प्रसन्नता या दु:ख का शब्द मुँह से बाहर न निकलने देना तलवारों के वार बचाने से अधिक कठिन काम था। एकाएक कादिर खाँ 'अल्लाहो-अकबर' चिल्लाया, मानो बादल गरज उठा और उसके गरजते ही कालदेव के सिर पर बिजली गिर पड़ी।
कालदेव के गिरते ही बुंदेलों को सब्र न रहा। हर एक के चेहरे पर निर्बल क्रोध और कुचले हुए घमंड की तस्वीर खिंच गई। हज़ारों आदमी जोश में आ कर अखाड़े पर दौड़े, पर हरदौल ने कहा, "खबरदार! अब कोई आगे न बढ़े।" इस आवाज़ ने पैरों के साथ जंजीर का काम किया। दर्शकों को रोक कर जब वे अखाड़े में गए और कालदेव को देखा, तो आँखों में आँसू भर आए। जख्मी शेर ज़मीन पर पड़ा तड़प रहा था। उसके जीवन की तरह उसकी तलवार के दो टुकड़े हो गए थे।
आज का दिन बीता, रात आई; पर बुंदेलों की आँखों में नींद कहाँ। लोगों ने करवटें बदल कर रात काटी जैसे दुखित मनुष्य विकलता से सुबह की बाट जोहता है, उसी तरह बुंदेले रह-रह कर आकाश की तरफ़ देखते और उसकी धीमी चाल पर झुँझलाते थे। उनके जातीय घमंड पर गहरा घाव लगा था। दूसरे दिन ज्यों ही सूर्य निकला, तीन लाख बुंदेले तालाब के किनारे पहुँचे। जिस समय भालदेव शेर की तरह अखाड़े की तरफ़ चला, दिलों में धड़कन-सी होने लगी। कल जब कालदेव अखाड़े में उतरा था, बुंदेलों के हौसले बढ़े हुए थे, पर आज वह बात न थी। हृदय में आशा की जगह डर घुसा हुआ था। कादिर खाँ कोई चुटीला वार करता तो लोगों के दिल उछल कर होंठों तक आ जाते। सूर्य सिर पर चढ़ा जाता था और लोगों के दिल बैठ जाते थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि भालदेव अपने भाई से फुर्तीला और तेज़ था। उसने कई बार कादिर ख़ाँ को नीचा दिखलाया, पर दिल्ली का निपुण पहलवान हर बार सँभल जाता था। पूरे तीन घंटे तक दोनों बहादुरों में तलवारें चलती रहीं। एकाएक खटाके की आवाज़ हुई और भालदेव की तलवार के दो टुकड़े हो गए। राजा हरदौल अखाड़े के सामने खड़े थे। उन्होंने भालदेव की तरफ़ तेज़ी से अपनी तलवार फेंकी। भालदेव तलवार लेने के लिए झुका ही था कि कादिर खाँ की तलवार उसकी गर्दन पर आ पड़ी। घाव गहरा न था, केवल एक 'चरका' था; पर उसने लड़ाई का फैसला कर दिया।
हताश बुंदेले अपने-अपने घरों को लौटे। यद्यपि भालदेव अब भी लड़ने को तैयार था; पर हरदौल ने समझा कर कहा कि 'भाइयों, हमारी हार उसी समय हो गई जब हमारी तलवार ने जवाब दे दिया। यदि हम कादिर ख़ाँ की जगह होते तो निहत्थे आदमी पर वार न करते और जब तक हमारे शत्रु के हाथ में तलवार न आ जाती, हम उस पर हाथ न उठाते; पर कादिर ख़ाँ में यह उदारता कहाँ? बलवान शत्रु का सामना करने में उदारता को ताक पर रख देना पड़ता है। तो भी हमने दिखा दिया है कि तलवार की लड़ाई में हम उसके बराबर हैं अब हमको यह दिखाना रहा है कि हमारी तलवार में भी वैसा ही जौहर है!" इसी तरह लोगों को तसल्ली दे कर राजा हरदौल रनिवास को गए।
कुलीना ने पूछा, "लाला, आज दंगल का क्या रंग रहा?" हरदौल ने सिर झुका कर जवाब दिया, "आज भी वही कल का-सा हाल रहा।" कुलीना- क्या भालदेव मारा गया? हरदौल - नहीं, जान से तो नहीं पर हार हो गई। कुलीना - तो अब क्या करना होगा? हरदौल - मैं स्वयं इसी सोच में हूँ। आज तक ओरछे को कभी नीचा न देखना पड़ा था। हमारे पास धन न था, पर अपनी वीरता के सामने हम राज और धन कोई चीज़ न समझते थे। अब हम किस मुँह से अपनी वीरता का घमंड करेंगे? ओरछे की और बुंदेलों की लाज अब जाती है। कुलीना - क्या अब कोई आस नहीं है? हरदौल - हमारे पहलवानों में वैसा कोई नहीं है जो उससे बाजी ले जाए। भालदेव की हार ने बुंदेलों की हिम्मत तोड़ दी है। आज सारे शहर में शोक छाया हुआ है। सैंकड़ों घरों में आग नहीं जली। चिराग रोशन नहीं हुआ। हमारे देश और जाति की वह चीज़ जिससे हमारा मान था, अब अंतिम सांस ले रही है। भालदेव हमारा उस्ताद था। उसके हार चुकने के बाद मेरा मैदान में आना धृष्टता है; पर बुंदेलों की साख जाती है, तो मेरा सिर भी उसके साथ जाएगा। कादिर खाँ बेशक अपने हुनर में एक ही है, पर हमारा भालदेव कभी उससे कम नहीं। उसकी तलवार यदि भालदेव के हाथ में होती तो मैदान ज़रूर उसके हाथ रहता। ओरछे में केवल एक तलवार है जो कादिर ख़ाँ की तलवार का मुँह मोड़ सकती है। वह भैया की तलवार है। अगर तुम ओरछे की नाक रखना चाहती हो तो उसे मुझे दे दो। यह हमारी अंतिम चेष्टा होगी। यदि इस बार भी हार हुई तो ओरछे का नाम सदैव के लिए डूब जाएगा।
कुलीना सोचने लगी, तलवार इनको दूँ या न दूँ। राजा रुक गए हैं। उनकी आज्ञा थी कि किसी दूसरे की परछाहीं भी उस पर न पड़ने पाए। क्या ऐसी दशा में मैं उनकी आज्ञा का उल्लंघन करूँ तो वे नाराज़ होंगे? कभी नहीं। जब वे सुनेंगे कि मैंने कैसे कठिन समय में तलवार निकाली है, तो उन्हें सच्ची प्रसन्नता होगी। बुंदेलों की आन किसको इतनी प्यारी नहीं है? उससे ज़्यादा ओरछे की भलाई चाहने वाला कौन होगा? इस समय उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना ही आज्ञा मानना है। यह सोच कर कुलीना ने तलवार हरदौल को दे दी।
सवेरा होते ही यह ख़बर फैल गई कि राजा हरदौल कादिर ख़ाँ से लड़ने के लिए जा रहे हैं। इतना सुनते ही लोगों में सनसनी-सी फैल गई और चौंक उठे। पागलों की तरह लोग अखाड़े की ओर दौड़े। हर एक आदमी कहता था कि जब तक हम जीते हैं, महाराज को लड़ने नहीं देंगे, पर जब लोग अखाड़े के पास पहुँचे तो देखा कि अखाड़े में बिजलियाँ-सी चमक रही हैं। बुंदेलों के दिलों पर उस समय जैसी बीत रही थी, उसका अनुमान करना कठिन है। उस समय उस लंबे-चौड़े मैदान में जहाँ तक निगाह जाती थी, आदमी ही आदमी नज़र आते थे, पर चारों तरफ़ सन्नाटा था। हर एक आँख अखाड़े की तरफ़ लगी हुई थी और हर एक का दिल हरदौल की मंगल-कामना के लिए ईश्वर का प्रार्थी था। कादिर ख़ाँ का एक-एक वार हज़ारों दिलों के टुकड़े कर देता था और हरदौल की एक-एक काट से मनों में आनंद की लहरें उठती थीं। अखाड़ों में दो पहलवानों का सामना था और अखाड़े के बाहर आशा और निराशा का। आख़िर घड़ियाल ने पहला पहर बजाया और हरदौल की तलवार बिजली बनकर कादिर के सिर पर गिरी। यह देखते ही बुंदेले मारे आनंद के उन्मत्त हो गए। किसी को किसी की सुधि न रही। कोई किसी से गले मिलता, कोई उछलता और कोई छलाँगें मारता था। हज़ारों आदमियों पर वीरता का नशा छा गया। तलवारें स्वयं म्यान से निकल पड़ीं, भाले चमकने लगे। जीत की खुशी में सैंकड़ों जानें भेंट हो गईं। पर जब हरदौल अखाड़े से बाहर आए और उन्होंने बुंदेलों की ओर तेज़ निगाहों से देखा तो आन-की-आन में लोग सँभल गए। तलवारें म्यान में जा छिपीं। ख्य़ाल आ गया। यह खुशी क्यों, यह उमंग क्यों और यह पागलपन किसलिए? बुंदेलों के लिए यह कोई नई बात नहीं हुई। इस विचार ने लोगों का दिल ठंडा कर दिया। हरदौल की इस वीरता ने उसे हर एक बुंदेले के दिल में मान प्रतिष्ठा की ऊँची जगह पर बिठाया, जहाँ न्याय और उदारता भी उसे न पहुँचा सकती थी। वह पहले ही से सर्वप्रिय था और अब वह अपनी जाति का वीरवर और बुंदेला दिलावरी का सिरमौर बन गया।
राजा जुझार सिंह ने भी दक्षिण में अपनी, योग्यता का परिचय दिया। वे केवल लड़ाई में ही वीर न थे, बल्कि राज्य-शासन में भी अद्वितीय थे। उन्होंने अपने सुप्रबंध से दक्षिण प्रांतों का बलवान राज्य बना दिया और वर्ष भर के बाद बादशाह से आज्ञा लेकर वे ओरछे की तरफ़ चले। ओरछे की याद उन्हें सदैव बेचैन करती रही। आह ओरछा! वह दिन कब आएगा कि फिर तेरे दर्शन होंगे! राजा मंज़िलें मारते चले आते थे, न भूख थी, न प्यास, ओरछेवालों की मुहब्बत खींचे लिए आती थी। यहाँ तक कि ओरछे के जंगलों में आ पहुँचे। साथ के आदमी पीछे छूट गए। दोपहर का समय था। धूप तेज़ थी। वे घोड़े से उतरे और एक पेड़ की छाँह में जा बैठे। भाग्यवश आज हरदौल भी जीत की खुशी में शिकार खेलने निकले थे। सैंकड़ों बुंदेला सरदार उनके साथ थे। सब अभिमान के नशे में चूर थे। उन्होंने राजा जुझारसिंह को अकेले बैठे थे देखा, पर वे अपने घमंड में इतने डूबे हुए थे कि इनके पास तक न आए। समझा कोई यात्री होगा। हरदौल की आँखों ने भी धोखा खाया। वे घोड़े पर सवार अकड़ते हुए जुझारसिंह के सामने आए और पूछना चाहते थे कि तुम कौन हो कि भाई से आँख मिल गई। पहचानते ही घोड़े से कूद पड़े और उनको प्रणाम किया। राजा ने भी उठ कर हरदौल को छाती से लगा लिया, पर उस छाती में अब भाई की मुहब्बत न थी। मुहब्बत की जगह ईर्ष्या ने घेर ली थी और वह केवल इसीलिए कि हरदौल दूर से नंगे पैर उनकी तरफ़ न दौड़ा, उसके सवारों ने दूर ही से उनकी अभ्यर्थना न की। संध्या होते-होते दोनों भाई ओरछे पहुँचे। राजा के लौटने का समाचार पाते ही नगर में प्रसन्नता की दुंदुभी बजने लगी। हर जगह आनंदोत्सव होने लगा और तुरता-फुरती शहर जगमगा उठा।
आज रानी कुलीना ने अपने हाथों भोजन बनाया। नौ बजे होंगे। लौंडी ने आकर कहा, "महाराज, भोजन तैयार है। दोनों भाई भोजन करने गए। सोने के थाल में राजा के लिए भोजन परोसा गया और चाँदी के थाल में हरदौल के लिए। कुलीना ने स्वयं भोजन बनाया था, स्वयं थाल परोसे थे और स्वयं ही सामने लाई थी, पर दिनों का चक्र कहो, या भाग्य के दुर्दिन, उसने भूल से सोने का थाल हरदौल के आगे रख दिया और चांदी का राजा के सामने। हरदौल ने कुछ ध्यान न दिया, वह वर्ष भर से सोने के थाल में खाते-खाते उसका आदी हो गया था, पर जुझार सिंह तिलमिला गए। जबान से कुछ न बोले, पर तेवर बदल गए और मुँह लाल हो गया। रानी की तरफ़ घूर कर देखा और भोजन करने लगे। पर ग्रास विष मालूम होता था। दो-चार ग्रास खा कर उठ आए। रानी उनके तेवर देख कर डर गई। आज कैसे प्रेम से उसने भोजन बनाया था, कितनी प्रतीक्षा के बाद यह शुभ दिन आया था, उसके उल्लास का कोई पारावार न था; पर राजा के तेवर देख कर उसके प्राण सूख गए। जब राजा उठ गए और उसने थाल को देखा, तो कलेजा धक से हो गया और पैरों तले से मिट्टी निकल गई। उसने सिर पीट लिया, "ईश्वर! आज रात कुशलतापूर्वक कटे, मुझे शकुन अच्छे दिखाई नहीं देते।
राजा जुझार सिंह शीशमहल में लेटे। चतुर नाइन ने रानी का शृंगार किया और वह मुस्करा कर बोली, "कल महाराज से इसका इनाम लूँगी। यह कह कर वह चली गई, परंतु कुलीना वहाँ से न उठी। वह गहरे सोच में पड़ी हुई थी। उनके सामने कौन-सा मुँह लेकर जाऊँ? नाइन ने नाहक मेरा शृंगार कर दिया। मेरा शृंगार देख कर वे खुश भी होंगे? मुझसे इस समय अपराध हुआ है, मैं अपराधिनी हूँ, मेरा उनके पास इस समय बनाव-शृंगार करके जाना उचित नहीं। नहीं, नहीं, आज मुझे उनके पास भिखारिन के भेष में जाना चाहिए। मैं उनसे क्षमा माँगूँगी। इस समय मेरे लिए यही उचित है। यह सोच कर रानी बड़े शीशे के सामने खड़ी हो गई। वह अप्सरा-सी मालूम होती थी। सुंदरता की कितनी ही तस्वीरें उसने देखी थीं; पर उसे इस समय शीशे की तस्वीर सबसे ज़्यादा खूबसूरत मालूम होती थी।
सुंदरता और आत्मरुचि का साथ है। हल्दी बिना रंग के नहीं रह सकती। थोड़ी देर के लिए कुलीना सुंदरता के मद से फूल उठी। वह तन कर खड़ी हो गई। लोग कहते हैं कि सुंदरता में जादू है और वह जादू, जिसका कोई उतार नहीं। धर्म और कर्म, तन और मन सब सुंदरता पर न्यौछावर है। मैं सुंदर न सही, ऐसी कुरूपा भी नहीं हूँ। क्या मेरी सुंदरता में इतनी भी शक्ति नहीं है कि महाराज से मेरा अपराध क्षमा करा सके? ये बाहु-लताएँ जिस समय उनके गले का हार होंगी, ये आँखें जिस समय प्रेम के मद से लाल होकर देखेंगी, तब क्या मेरे सौंदर्य की शीतलता उनकी क्रोधाग्नि को ठंडा न कर देंगी? पर थोड़ी देर में रानी को ज्ञात हुआ। आह! यह मैं क्या स्वप्न देख रही हूँ! मेरे मन में ऐसी बातें क्यों आती हैं! मैं अच्छी हूँ या बुरी हूँ उनकी चेरी हूँ। मुझसे अपराध हुआ है, मुझे उनसे क्षमा माँगनी चाहिए। यह शृंगार और बनाव इस समय उपयुक्त नहीं है। यह सोच कर रानी ने सब गहने उतार दिए। इतर में बसी हुई रेशम की साड़ी अलग कर दी। मोतियों से भरी माँग खोल दी और वह खूब फूट-फूट कर रोई। यह मिलाप की रात वियोग की रात से भी विशेष दुखदायिनी है। भिखारिनी का भेष बना कर रानी शीशमहल की ओर चली। पैर आगे बढ़ते थे, पर मन पीछे हटा जाता था। दरवाज़े तक आई, पर भीतर पैर न रख सकी। दिल धड़कने लगा। ऐसा जान पड़ा मानो उसके पैर थर्रा रहे हैं। राजा जुझारसिंह बोले, "कौन है? कुलीना! भीतर क्यों नहीं आ जाती?"
कुलीना ने जी कड़ा करके कहा, "महाराज, कैसे आऊँ? मैं अपनी जगह क्रोध को बैठा पाती हूँ।" राजा -"यह क्यों नहीं कहती कि मन दोषी है, इसलिए आँखें नहीं मिलने देता। कुलीना - निस्संदेह मुझसे अपराध हुआ है, पर एक अबला आपसे क्षमा का दान माँगती है। राजा - इसका प्रायश्चित करना होगा। कुलीना - क्यों कर? राजा - हरदौल के खून से।
कुलीना सिर से पैर तक काँप गई। बोली, "क्या इसलिए कि आज मेरी भूल से ज्योनार के थालों में उलट-फेर हो गया?" राजा - नहीं, इसलिए कि तुम्हारे प्रेम में हरदौल ने उलट-फेर कर दिया! जैसे आग की आँच से लोहा लाल हो जाता है, वैसे ही रानी का मुँह लाल हो गया। क्रोध की अग्नि सद्भावों को भस्म कर देती है, प्रेम और प्रतिष्ठा, दया और न्याय, सब जल के राख हो जाते हैं। एक मिनट तक रानी को ऐसा मालूम हुआ, मानो दिल और दिमाग दोनों खौल रहे हैं, पर उसने आत्मदमन की अंतिम चेष्टा से अपने को सँभाला, केवल इतना बोली - "हरदौल को अपना लड़का और भाई समझती हूँ।"
राजा उठ बैठे और कुछ नर्म स्वर में बोले - "नहीं, हरदौल लड़का नहीं है, लड़का मैं हूँ, जिसने तुम्हारे ऊपर विश्वास किया। कुलीना, मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। मुझे तुम्हारे ऊपर घमंड था। मैं समझता था, चाँद-सूर्य टल सकते हैं, पर तुम्हारा दिल नहीं टल सकता, पर आज मुझे मालूम हुआ कि वह मेरा लड़कपन था। बड़ों ने सच कहा है कि स्त्री का प्रेम पानी की धार है, जिस ओर ढाल पाता है, उधर ही बह जाता है। सोना ज़्यादा गरम होकर पिघल जाता है।
कुलीना रोने लगी। क्रोध की आग पानी बन कर आँखों से निकल पड़ी। जब आवाज़ वश में हुई, तो बोली, "आपके इस संदेह को कैसे दूर करूँ?" राजा - हरदौल के खून से। रानी - मेरे खून से दाग न मिटेगा? राजा - तुम्हारे खून से और पक्का हो जाएगा। रानी - और कोई उपाय नहीं है? राजा - नहीं। रानी - यह आपका अंतिम विचार है? राजा - हाँ, यह मेरा अंतिम विचार है। देखो, इस पानदान में पान का बीड़ा रखा है। तुम्हारे सतीत्व की परीक्षा यही है कि तुम हरदौल को इसे अपने हाथों खिला दो। मेरे मन का भ्रम उसी समय निकलेगा जब इस घर से हरदौल की लाश निकलेगी।
रानी ने घृणा की दृष्टि से पान के बीड़े को देखा और वह उलटे पैर लौट आई। रानी सोचने लगी, "क्या हरदौल के प्राण लूँ? निर्दोष, सच्चरित्र वीर हरदौल की जान से अपने सतीत्व की परीक्षा दूँ? उस हरदौल के खून से अपना हाथ काला करूँ जो मुझे बहन समझता है? यह पाप किसके सिर पड़ेगा? क्या एक निर्दोष का खून रंग न लाएगा? आह! अभागी कुलीना! तुझे आज अपने सतीत्व की परीक्षा देने की आवश्यकता पड़ी है और वह ऐसी कठिन? नहीं यह पाप मुझसे नहीं होगा। यदि राजा मुझे कुलटा समझते हैं, तो समझें, उन्हें मुझ पर संदेह है, तो हो। मुझसे यह पाप न होगा। राजा को ऐसा संदेह क्यों हुआ? क्या केवल थालों के बदल जाने से? नहीं, अवश्य कोई और बात है। आज हरदौल उन्हें जंगल में मिल गया। राजा ने उसकी कमर में तलवार देखी होगी। क्या आश्चर्य है, हरदौल से कोई अपमान भी हो गया हो। मेरा अपराध क्या है? मुझ पर इतना बड़ा दोष क्यों लगाया जाता है? केवल थालों के बदल जाने से? हे ईश्वर! मैं किससे अपना दुख कहूँ? तू ही मेरा साक्षी है। जो चाहे सो हो, पर मुझसे यह पाप न होगा।
रानी ने फिर सोचा, "राजा, तुम्हारा हृदय ऐसा ओछा और नीच है? तुम मुझसे हरदौल की जान लेने को कहते हो? यदि तुमसे उसका अधिकार और मान नहीं देखा जाता, तो क्यों साफ़-साफ़ ऐसा नहीं कहते? क्यों मर्दों की लड़ाई नहीं लड़ते? क्यों स्वयं अपने हाथ से उसका सिर नहीं काटते और मुझसे वह काम करने को कहते हो? तुम खूब जानते हो, मैं यह नहीं कर सकती। यदि मुझसे तुम्हारा जी उकता गया है, यदि मैं तुम्हारी जान की जंजाल हो गई हूँ, तो मुझे काशी या मथुरा भेज दो। मैं बेखटके चली जाऊँगी, पर ईश्वर के लिए मेरे सिर इतना बड़ा कलंक न लगने दो। पर मैं जीवित ही क्यों रहूँ, मेरे लिए अब जीवन में कोई सुख नहीं है। अब मेरा मरना ही अच्छा है। मैं स्वयं प्राण दे दूँगी, पर यह महापाप मुझसे न होगा। विचारों ने फिर पलटा खाया। तुमको पाप करना ही होगा। इससे बड़ा पाप शायद आज तक संसार में न हुआ हो, पर यह पाप तुमको करना होगा। तुम्हारे पतिव्रत पर संदेह किया जा रहा है और तुम्हें इस संदेह को मिटाना होगा। यदि तुम्हारी जान जोखिम में होती, तो कुछ हर्ज़ न था। अपनी जान देकर हरदौल को बचा लेती, पर इस समय तुम्हारे पतिव्रत पर आँच आ रही है। इसलिए तुम्हें यह पाप करना ही होगा, और पाप करने के बाद हँसना और प्रसन्न रहना होगा। यदि तुम्हारा चित्त तनिक भी विचलित हुआ, यदि तुम्हारा मुखड़ा ज़रा भी मद्धिम हुआ, तो इतना बड़ा पाप करने पर भी तुम संदेह मिटाने में सफल न होगी। तुम्हारे जी पर चाहे जो बीते, पर तुम्हें यह पाप करना ही पड़ेगा। परंतु कैसे होगा? क्या मैं हरदौल का सिर उतारूँगी? यह सोच कर रानी के शरीर में कंपकंपी आ गई। नहीं, मेरा हाथ उस पर कभी नहीं उठ सकता। प्यारे हरदौल, मैं तुम्हें खिला सकती। मैं जानती हूँ, तुम मेरे लिए आनंद से विष का बीड़ा खा लोगे। हाँ, मैं जानती हूँ तुम 'नहीं' न करोगे, पर मुझसे यह महापाप नहीं हो सकता। एक बार नहीं, हज़ार बार नहीं हो सकता।"
हरदौल को इन बातों की कुछ भी ख़बर न थी। आधी रात को एक दासी रोती हुई उसके पास गई और उसने सब समाचार अक्षर-अक्षर कह सुनाया। वह दासी पान-दान लेकर रानी के पीछे-पीछे राजमहल से दरवाज़े पर गई थी और सब बातें सुन कर आई थी। हरदौल राजा का ढंग देख कर पहले ही ताड़ गया था कि राजा के मन में कोई-न-कोई काँटा अवश्य खटक रहा है। दासी की बातों ने उसके संदेह को और भी पक्का कर दिया। उसने दासी से कड़ी मनाही कर दी कि सावधान! किसी दूसरे के कानों में इन बातों की भनक न पड़े और वह स्वयं मरने को तैयार हो गया।
हरदौल बुंदेलों की वीरता का सूरज था। उसकी भौंहों के तनिक इशारे से तीन लाख बुंदेले मरने और मारने के लिए इकट्ठे हो सकते थे, ओरछा उस पर न्योछावर था। यदि जुझार सिंह खुले मैदान उसका सामना करते तो अवश्य मुँह की खाते, क्योंकि हरदौल भी बुंदेला था और बुंदेला अपने शत्रु के साथ किसी प्रकार की मुँह देखी नहीं करते, मारना-मरना उनके जीवन का एक अच्छा दिलबहलाव है। उन्हें सदा इसकी लालसा रही है कि कोई हमें चुनौती दे, कोई हमें छेड़ें। उन्हें सदा खून की प्यास रहती है और वह प्यास कभी नहीं बुझती। परंतु उस समय एक स्त्री को उसके खून की ज़रूरत थी और उसका साहस उसके कानों में कहता था कि एक निर्दोष और सती अबला के लिए अपने शरीर का खून देने में मुँह न मोड़ो। यदि भैया को यह संदेह होता कि मैं उनके खून का प्यासा हूँ और उन्हें मार कर राज अधिकार करना चाहता हूँ, तो कुछ हर्ज न था। राज्य के लिए कत्ल और खून, दगा और फ़रेब सब उचित समझा गया है, परंतु उनके इस संदेह का निपटारा मेरे मरने के सिवा और किसी तरह नहीं हो सकता। इस समय मेरा धर्म है कि अपने प्राण देकर उनके इस संदेह को दूर कर दूँ। उनके मन में यह दुखानेवाला संदेह उत्पन्न करके भी यदि मैं जीता ही रहूँ और अपने मन की पवित्रता जताऊँ, तो मेरी ढिठाई है। नहीं, इस भले काम से अधिक आगा-पीछा करना अच्छा नहीं। मैं खुशी से विष का बीड़ा खाऊँगा। इससे बढ़ कर शूर-वीर की मृत्यु और क्या हो सकती है?
क्रोध में आकर मारू के भय बढ़ानेवाले शब्द सुन कर रणक्षेत्र में अपनी जान को तुच्छ समझना इतना कठिन नहीं है। आज सच्चा वीर हरदौल अपने हृदय के बड़प्पन पर अपनी सारी वीरता और न्योछावर करने को उद्यत है।
दूसरे दिन हरदौल ने खूब तड़के स्नान किया। बदन पर अस्त्र-शस्त्र सजा मुस्कराता हुआ राजा के पास गया। राजा भी सोकर तुरंत ही उठे थे, उनकी अलसाई हुई आँखें हरदौल की मूर्ति की ओर लगी हुई थीं। सामने संगमरमर की चौकी पर विष मिला पान सोने की तश्तरी में रखा हुआ था। राजा कभी पान की ओर ताकते और कभी मूर्ति की ओर, शायद उनके विचार ने इस विष की गाँठ और उस मूर्ति में एक संबंध पैदा कर दिया था। उस समय जो हरदौल एकाएक घर में पहुँचे तो राजा चौंक पड़े। उन्होंने सँभल कर पूछा, "इस समय कहाँ चले?"
हरदौल का मुखड़ा प्रफुल्लित था। वह हंस कर बोला, "कल आप यहाँ पधारे हैं, इसी खुशी में मैं आज शिकार खेलने जाता हूँ। आपको ईश्वर ने अजित बनाया है, मुझे अपने हाथ से विजय का बीड़ा दीजिए।" यह कह कर हरदौल ने चौकी पर से पान-दान उठा लिया और उसे राजा के सामने रख कर बीड़ा लेने के लिए हाथ बढ़ाया। हरदौल का खिला हुआ मुखड़ा देख कर राजा की ईर्ष्या की आग और भी भड़क उठी। दुष्ट, मेरे घाव पर नमक छिड़कने आया है! मेरे मान और विश्वास को मिट्टी में मिलाने पर भी तेरा जी न भरा! मुझसे विजय का बीड़ा माँगता है! हाँ, यह विजय का बीड़ा है; पर तेरी विजय का नहीं, मेरी विजय का।
इतना मन में कहकर जुझार सिंह ने बीड़े को हाथ में उठाया। वे एक क्षण तक कुछ सोचते रहे, फिर मुस्करा कर हरदौल को बीड़ा दे दिया। हरदौल ने सिर झुका कर बीड़ा लिया, उसे माथे पर चढ़ाया, एक बार बड़ी ही करुणा के साथ चारों ओर देखा और फिर बीड़े को मुँह में रख लिया। एक सच्चे राजपूत ने अपना पुरुषत्व दिखा दिया। विष हलाहल था, कंठ के नीचे उतरते ही हरदौल के मुखड़े पर मुरदनी छा गई और आँखें बुझ गईं। उसने एक ठंडी सांस लीं, दोनों हाथ जोड़ कर जुझार सिंह को प्रणाम किया और ज़मीन पर बैठ गया। उसके ललाट पर पसीने की ठंडी-ठंडी बूँदें दिखाई दे रही थीं और साँस तेजी से चलने लगी थी; पर चेहरे पर प्रसन्नता और संतोष की झलक दिखाई देती थी। जुझार सिंह अपनी जगह से ज़रा भी न हिले। उनके चेहरे पर ईर्ष्या से भरी हुई मुस्कराहट छाई हुई थी, पर आँखों में आँसू भर आए थे। उजाले और अंधेरे का मिलाप हो गया था।
Hindi Kahani हिंदी कहानी Do Bailon Ki Katha Munshi Premchand दो बैलों की कथा मुंशी प्रेम चंद
जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिमान समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पहले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है या उसके
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सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। गायें सींग मारती हैं, ब्याही हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है, किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहो गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी नहीं दिखाई देगी। वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता है, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा। उसके चेहरे पर स्थाई विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दुःख, हानि-लाभ किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा। ऋषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गए हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सद्गुणों का इतना अनादर! कदाचित सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है। देखिए न, भारतवासियों की अफ्रीका में क्या दुर्दशा हो रही है ? क्यों अमरीका में उन्हें घुसने नहीं दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीते,चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी तोड़कर काम करते हैं, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करते, चार बातें सुनकर गम खा जाते हैं फिर भी बदनाम हैं। कहा जाता है, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं। अगर वे ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते तो शायद सभ्य कहलाने लगते। जापान की मिसाल सामने है। एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया। लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कम ही गधा है। और वह है 'बैल'। जिस अर्थ में हम 'गधा' का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में 'बछिया के ताऊ' का भी प्रयोग करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफी में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं है। बैल कभी-कभी मारता भी है, कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आता है। और भी कई रीतियों से अपना असंतोष प्रकट कर देता है, अतएवं उसका स्थान गधे से नीचा है। झूरी क पास दो बैल थे- हीरा और मोती। देखने में सुंदर, काम में चौकस, डील में ऊंचे। बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय किया करते थे। एक-दूसरे के मन की बात को कैसे समझा जाता है, हम कह नहीं सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी,जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है। दोनों एक-दूसरे को चाटकर सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे, विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोनों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफसी, कुछ हल्की-सी रहती है, फिर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिए जाते और गरदन हिला-हिलाकर चलते, उस समय हर एक की चेष्टा होती कि ज्यादा-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे। दिन-भर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते तो एक-दूसरे को चाट-चूट कर अपनी थकान मिटा लिया करते, नांद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नांद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुँह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता था। संयोग की बात, झूरी ने एक बार गोईं को ससुराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम, वे कहाँ भेजे जा रहे हैं। समझे, मालिक ने हमें बेच दिया। अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने, पर झूरी के साले गया को घर तक गोईं ले जाने में दांतों पसीना आ गया। पीछे से हांकता तो दोनों दाएँ-बाँए भागते, पगहिया पकड़कर आगे से खींचता तो दोनों पीछे की ओर जोर लगाते। मारता तो दोनों सींगे नीची करके हुंकारते। अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती तो झूरी से पूछते-तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो ? हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था, और काम ले लेते। हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया, वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथ क्यों बेंच दिया ? संध्या समय दोनों बैल अपने नए स्थान पर पहुँचे। दिन-भर के भूखे थे, लेकिन जब नांद में लगाए गए तो एक ने भी उसमें मुंह नहीं डाला। दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया। यह नया घर, नया गांव, नए आदमी उन्हें बेगाने-से लगते थे। दोनों ने अपनी मूक भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गये। जब गांव में सोता पड़ गया तो दोनों ने जोर मारकर पगहा तुड़ा डाले और घर की तरफ चले। पगहे बहुत मजबूत थे। अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़ सकेगा, पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गई थी। एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गईं। झूरी प्रातः काल सो कर उठा तो देखा कि दोनों बैल चरनी पर खड़े हैं। दोनों की गरदनों में आधा-आधा गरांव लटक रहा था। घुटने तक पांव कीचड़ से भरे हैं और दोनों की आंखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है। झूरी बैलों को देखकर स्नेह से गद्गद हो गया। दौड़कर उन्हें गले लगा लिया। प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह दृश्य बड़ा ही मनोहर था। घर और गाँव के लड़के जमा हो गए। और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे। गांव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्त्वपूर्ण थी, बाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशु-वीरों का अभिनन्दन पत्र देना चाहिए। कोई अपने घर से रोटियां लाया, कोई गुड़, कोई चोकर, कोई भूसी। एक बालक ने कहा- ''ऐसे बैल किसी के पास न होंगे।'' दूसरे ने समर्थन किया- ''इतनी दूर से दोनों अकेले चले आए।' तीसरा बोला- 'बैल नहीं हैं वे, उस जन्म के आदमी हैं।' इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस नहीं हुआ। झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा तो जल उठी। बोली -'कैसे नमक-हराम बैल हैं कि एक दिन वहां काम न किया, भाग खड़े हुए।' झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका-'नमक हराम क्यों हैं ? चारा-दाना न दिया होगा तो क्या करते ?' स्त्री ने रोब के साथ कहा-'बस, तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो, और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं।' झूरी ने चिढ़ाया-'चारा मिलता तो क्यों भागते ?' स्त्री चिढ़ गयी-'भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुद्धुओं की तरह बैल को सहलाते नहीं, खिलाते हैं तो रगड़कर जोतते भी हैं। ये दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले। अब देखूं कहां से खली और चोकर मिलता है। सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूंगी, खाएं चाहें मरें।' वही हुआ। मजूर की बड़ी ताकीद की गई कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाए। बैलों ने नांद में मुंह डाला तो फीका-फीका, न कोई चिकनाहट, न कोई रस ! क्या खाएं ? आशा-भरी आंखों से द्वार की ओर ताकने लगे। झूरी ने मजूर से कहा-'थोड़ी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बे ?' 'मालकिन मुझे मार ही डालेंगी।' 'चुराकर डाल आ।' 'ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे।' दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। अबकी उसने दोनों को गाड़ी में जोता। दो-चार बार मोती ने गाड़ी को खाई में गिराना चाहा, पर हीरा ने संभाल लिया। वह ज्यादा सहनशील था। संध्या-समय घर पहुंचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बांधा और कल की शरारत का मजा चखाया फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बालों को खली चूनी सब कुछ दी। दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी ने इन्हें फूल की छड़ी से भी छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे। यहां मार पड़ी। आहत सम्मान की व्यथा तो थी ही,उस पर मिला सूखा भूसा ! नांद की तरफ आंखें तक न उठाईं। दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पांव न उठाने की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया, पर दोनों ने पांव न उठाया। एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर खूब डंडे जमाये तो मोती को गुस्सा काबू से बाहर हो गया। हल लेकर भागा। हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाटकर बराबर हो गया। गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होतीं तो दोनों पकड़ाई में न आते। हीरा ने मूक-भाषा में कहा-भागना व्यर्थ है।' मोती ने उत्तर दिया-'तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी।' 'अबकी बड़ी मार पड़ेगी।' 'पड़ने दो, बैल का जन्म लिया है तो मार से कहां तक बचेंगे ?' 'गया दो आदमियों के साथ दौड़ा आ रहा है, दोनों के हाथों में लाठियां हैं।' मोती बोला-'कहो तो दिखा दूं मजा मैं भी, लाठी लेकर आ रहा है।' हीरा ने समझाया-'नहीं भाई ! खड़े हो जाओ।' 'मुझे मारेगा तो मैं एक-दो को गिरा दूंगा।' 'नहीं हमारी जाति का यह धर्म नहीं है।' मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुंचा और दोनों को पकड़ कर ले चला। कुशल हुई कि उसने इस वक्त मारपीट न की, नहीं तो मोती पलट पड़ता। उसके तेवर देख गया और उसके सहायक समझ गए कि इस वक्त टाल जाना ही भलमनसाहत है। आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया, दोनों चुपचाप खड़े रहे। घर में लोग भोजन करने लगे। उस वक्त छोटी-सी लड़की दो रोटियां लिए निकली और दोनों के मुंह में देकर चली गई। उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शान्त होती, पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया। यहां भी किसी सज्जन का वास है। लड़की भैरो की थी। उसकी मां मर चुकी थी। सौतेली मां उसे मारती रहती थी, इसलिए इन बैलों से एक प्रकार की आत्मीयता हो गई थी। दोनों दिन-भर जाते, डंडे खाते, अड़ते, शाम को थान पर बांध दिए जाते और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियां खिला जाती। प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे, मगर दोनों की आंखों में रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था। एक दिन मोती ने मूक-भाषा में कहा-'अब तो नहीं सहा जाता हीरा ! 'क्या करना चाहते हो ?' 'एकाध को सींगों पर उठाकर फेंक दूंगा।' 'लेकिन जानते हो, वह प्यारी लड़की, जो हमें रोटियां खिलाती है, उसी की लड़की है, जो इस घर का मालिक है, यह बेचारी अनाथ हो जाएगी।' 'तो मालकिन को फेंक दूं, वही तो इस लड़की को मारती है। 'लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूल जाते हो।' 'तुम तो किसी तरह निकलने ही नहीं देते, बताओ, तुड़ाकर भाग चलें।' 'हां, यह मैं स्वीकार करता, लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे।' इसका एक उपाय है, पहले रस्सी को थोड़ा चबा लो। फिर एक झटके में जाती है।' रात को जब बालिका रोटियां खिला कर चली गई तो दोनों रस्सियां चबने लगे, पर मोटी रस्सी मुंह में न आती थी। बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे। साहसा घर का द्वार खुला और वह लड़की निकली। दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे। दोनों की पूंछें खड़ी हो गईं। उसने उनके माथे सहलाए और बोली-'खोल देती हूँ, चुपके से भाग जाओ, नहीं तो ये लोग मार डालेंगे। आज घर में सलाह हो रही है कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जाएं।' उसने गरांव खोल दिया, पर दोनों चुप खड़े रहे। मोती ने अपनी भाषा में पूंछा-'अब चलते क्यों नहीं ?' हीरा ने कहा-'चलें तो, लेकिन कल इस अनाथ पर आफत आएगी, सब इसी पर संदेह करेंगे। साहसा बालिका चिल्लाई-'दोनों फूफा वाले बैल भागे जे रहे हैं, ओ दादा! दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, ओ दादा! दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, जल्दी दौड़ो। गया हड़बड़ाकर भीतर से निकला और बैलों को पकड़ने चला। वे दोनों भागे। गया ने पीछा किया, और भी तेज हुए, गया ने शोर मचाया। फिर गांव के कुछ आदमियों को भी साथ लेने के लिए लौटा। दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया। सीधे दौड़ते चले गए। यहां तक कि मार्ग का ज्ञान रहा। जिस परिचित मार्ग से आए थे, उसका यहां पता न था। नए-नए गांव मिलने लगे। तब दोनों एक खेत के किनारे खड़े होकर सोचने लगे, अब क्या करना चाहिए। हीरा ने कहा-'मुझे मालूम होता है, राह भूल गए।' 'तुम भी बेतहाशा भागे, वहीं उसे मार गिराना था।' 'उसे मार गिराते तो दुनिया क्या कहती ? वह अपने धर्म छोड़ दे, लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोडें ?' दोनों भूख से व्याकुल हो रहे थे। खेत में मटर खड़ी थी। चरने लगे। रह-रहकर आहट लेते रहे थे। कोई आता तो नहीं है। जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे। पहले दोनों ने डकार ली। फिर सींग मिलाए और एक-दूसरे को ठेकने लगे। मोती ने हीरा को कई कदम पीछे हटा दिया, यहां तक कि वह खाई में गिर गया। तब उसे भी क्रोध आ गया। संभलकर उठा और मोती से भिड़ गया। मोती ने देखा कि खेल में झगड़ा हुआ चाहता है तो किनारे हट गया। अरे ! यह क्या ? कोई सांड़ डौंकता चला आ रहा है। हां, सांड़ ही है। वह सामने आ पहुंचा। दोनों मित्र बगलें झांक रहे थे। सांड़ पूरा हाथी था। उससे भिड़ना जान से हाथ धोना है, लेकिन न भिड़ने पर भी जान बचती नजर नहीं आती। इन्हीं की तरफ आ भी रहा है। कितनी भयंकर सूरत है ! मोती ने मूक-भाषा में कहा-'बुरे फंसे, जान बचेगी ? कोई उपाय सोचो।' हीरा ने चिंतित स्वर में कहा-'अपने घमंड में फूला हुआ है, आरजू-विनती न सुनेगा।' 'भाग क्यों न चलें?' 'भागना कायरता है।' 'तो फिर यहीं मरो। बंदा तो नौ दो ग्यारह होता है।' 'और जो दौड़ाए?' ' तो फिर कोई उपाए सोचो जल्द!' 'उपाय यह है कि उस पर दोनों जने एक साथ चोट करें। मैं आगे से रगेदता हूँ, तुम पीछे से रगेदो, दोहरी मार पड़ेगी तो भाग खड़ा होगा। मेरी ओर झपटे, तुम बगल से उसके पेट में सींग घुसेड़ देना। जान जोखिम है, पर दूसरा उपाय नहीं है। दोनों मित्र जान हथेली पर लेकर लपके। सांड़ को भी संगठित शत्रुओं से लड़ने का तजुरबा न था। वह तो एक शत्रु से मल्लयुद्ध करने का आदी था। ज्यों-ही हीरा पर झपटा, मोती ने पीछे से दौड़ाया। सांड़ उसकी तरफ मुड़ा तो हीरा ने रगेदा। सांड़ चाहता था, कि एक-एक करके दोनों को गिरा ले, पर ये दोनों भी उस्ताद थे। उसे वह अवसर न देते थे। एक बार सांड़ झल्लाकर हीरा का अन्त कर देने के लिए चला कि मोती ने बगल से आकर उसके पेट में सींग भोंक दिया। सांड़ क्रोध में आकर पीछे फिरा तो हीरा ने दूसरे पहलू में सींगे चुभा दिया। आखिर बेचारा जख्मी होकर भागा और दोनों मित्रों ने दूर तक उसका पीछा किया। यहां तक कि सांड़ बेदम होकर गिर पड़ा। तब दोनों ने उसे छोड़ दिया। दोनों मित्र जीत के नशे में झूमते चले जाते थे। मोती ने सांकेतिक भाषा में कहा-'मेरा जी चाहता था कि बचा को मार ही डालूं।' हीरा ने तिरस्कार किया-'गिरे हुए बैरी पर सींग न चलाना चाहिए।' 'यह सब ढोंग है, बैरी को ऐसा मारना चाहिए कि फिर न उठे।' 'अब घर कैसे पहुंचोगे वह सोचो।' 'पहले कुछ खा लें, तो सोचें।' सामने मटर का खेत था ही, मोती उसमें घुस गया। हीरा मना करता रहा, पर उसने एक न सुनी। अभी दो ही चार ग्रास खाये थे कि आदमी लाठियां लिए दौड़ पड़े और दोनों मित्र को घेर लिया, हीरा तो मेड़ पर था निकल गया। मोती सींचे हुए खेत में था। उसके खुर कीचड़ में धंसने लगे। न भाग सका। पकड़ लिया। हीरा ने देखा, संगी संकट में है तो लौट पड़ा। फंसेंगे तो दोनों फंसेंगे। रखवालों ने उसे भी पकड़ लिया। प्रातःकाल दोनों मित्र कांजी हौस में बंद कर दिए गए। दोनों मित्रों को जीवन में पहली बार ऐसा साबिका पड़ा था कि सारा दिन बीत गया और खाने को एक तिनका भी न मिला। समझ में न आता था, यह कैसा स्वामी है। इससे तो गया फिर भी अच्छा था। यहां कई भैंसे थीं, कई बकरियां, कई घोड़े, कई गधे, पर किसी के सामने चारा न था, सब जमीन पर मुर्दों की तरह पड़े थे। कई तो इतने कमजोर हो गये थे कि खड़े भी न हो सकते थे। सारा दिन मित्र फाटक की ओर टकटकी लगाए रहते, पर कोई चारा न लेकर आता दिखाई दिया। तब दोनों ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की, पर इससे क्या तृप्ति होती। रात को भी जब कुछ भोजन न मिला तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी। मोती से बोला-'अब नहीं रहा जाता मोती ! मोती ने सिर लटकाए हुए जवाब दिया-'मुझे तो मालूम होता है कि प्राण निकल रहे हैं।' 'आओ दीवार तोड़ डालें।' 'मुझसे तो अब कुछ नहीं होगा।' 'बस इसी बूत पर अकड़ते थे !' 'सारी अकड़ निकल गई।' बाड़े की दीवार कच्ची थी। हीरा मजबूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार में गड़ा दिए और जोर मारा तो मिट्टी का एक चिप्पड़ निकल आया। फिर तो उसका साहस बढ़ा उसने दौड़-दौड़कर दीवार पर चोटें कीं और हर चोट में थोड़ी-थोड़ी मिट्टी गिराने लगा। उसी समय कांजी हौस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाजिरी लेने आ निकला। हीरा का उद्दंड्डपन्न देखकर उसे कई डंडे रसीद किए और मोटी-सी रस्सी से बांध दिया। मोती ने पड़े-पड़े कहा-'आखिर मार खाई, क्या मिला?' 'अपने बूते-भर जोर तो मार दिया।' 'ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बंधन में पड़ गए।' 'जोर तो मारता ही जाऊंगा, चाहे कितने ही बंधन पड़ते जाएं।' 'जान से हाथ धोना पड़ेगा।' 'कुछ परवाह नहीं। यों भी तो मरना ही है। सोचो, दीवार खुद जाती तो कितनी जाने बच जातीं। इतने भाई यहां बंद हैं। किसी की देह में जान नहीं है। दो-चार दिन यही हाल रहा तो मर जाएंगे।' 'हां, यह बात तो है। अच्छा, तो ला फिर मैं भी जोर लगाता हूँ।' मोती ने भी दीवार में सींग मारा, थोड़ी-सी मिट्टी गिरी और फिर हिम्मत बढ़ी, फिर तो वह दीवार में सींग लगाकर इस तरह जोर करने लगा, मानो किसी प्रतिद्वंदी से लड़ रहा है। आखिर कोई दो घंटे की जोर-आजमाई के बाद दीवार ऊपर से लगभग एक हाथ गिर गई, उसने दूनी शक्ति से दूसरा धक्का मारा तो आधी दीवार गिर पड़ी। दीवार का गिरना था कि अधमरे-से पड़े हुए सभी जानवर चेत उठे, तीनों घोड़ियां सरपट भाग निकलीं। फिर बकरियां निकलीं, इसके बाद भैंस भी खसक गई, पर गधे अभी तक ज्यों के त्यों खड़े थे। हीरा ने पूछा-'तुम दोनों क्यों नहीं भाग जाते?' एक गधे ने कहा-'जो कहीं फिर पकड़ लिए जाएं।' 'तो क्या हरज है, अभी तो भागने का अवसर है।' 'हमें तो डर लगता है। हम यहीं पड़े रहेंगे।' आधी रात से ऊपर जा चुकी थी। दोनों गधे अभी तक खड़े सोच रहे थे कि भागें, या न भागें, और मोती अपने मित्र की रस्सी तोड़ने में लगा हुआ था। जब वह हार गया तो हीरा ने कहा-'तुम जाओ, मुझे यहीं पड़ा रहने दो, शायद कहीं भेंट हो जाए।' मोती ने आंखों में आंसू लाकर कहा-'तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो, हीरा हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे हैं। आज तुम विपत्ति में पड़ गए हो तो मैं तुम्हें छोड़कर अलग हो जाऊं ?' हीरा ने कहा-'बहुत मार पड़ेगी, लोग समझ जाएंगे, यह तुम्हारी शरारत है।' मोती ने गर्व से बोला-'जिस अपराध के लिए तुम्हारे गले में बंधना पड़ा, उसके लिए अगर मुझे मार पड़े, तो क्या चिंता। इतना तो हो ही गया कि नौ-दस प्राणियों की जान बच गई, वे सब तो आशीर्वाद देंगे।' यह कहते हुए मोती ने दोनों गधों को सींगों से मार-मार कर बाड़े से बाहर निकाला और तब अपने बंधु के पास आकर सो रहा। भोर होते ही मुंशी और चौकीदार तथा अन्य कर्मचारियों में कैसी खलबली मची, इसके लिखने की जरूरत नहीं। बस, इतना ही काफी है कि मोती की खूब मरम्मत हुई और उसे भी मोटी रस्सी से बांध दिया गया। एक सप्ताह तक दोनों मित्र वहां बंधे पड़े रहे। किसी ने चारे का एक तृण भी न डाला। हां, एक बार पानी दिखा दिया जाता था। यही उनका आधार था। दोनों इतने दुर्बल हो गए थे कि उठा तक नहीं जाता था, ठठरियां निकल आईं थीं। एक दिन बाड़े के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते-होते वहां पचास-साठ आदमी जमा हो गए। तब दोनों मित्र निकाले गए और लोग आकर उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते। ऐसे मृतक बैलों का कौन खरीददार होता ? सहसा एक दढ़ियल आदमी, जिसकी आंखें लाल थीं और मुद्रा अत्यन्त कठोर, आया और दोनों मित्र के कूल्हों में उंगली गोदकर मुंशीजी से बातें करने लगा। चेहरा देखकर अंतर्ज्ञान से दोनों मित्रों का दिल कांप उठे। वह क्यों है और क्यों टटोल रहा है, इस विषय में उन्हें कोई संदेह न हुआ। दोनों ने एक-दूसरे को भीत नेत्रों से देखा और सिर झुका लिया। हीरा ने कहा-'गया के घर से नाहक भागे, अब तो जान न बचेगी।' मोती ने अश्रद्धा के भाव से उत्तर दिया-'कहते हैं, भगवान सबके ऊपर दया करते हैं, उन्हें हमारे ऊपर दया क्यों नहीं आती ?' 'भगवान के लिए हमारा जीना मरना दोनों बराबर है। चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उसके पास तो रहेंगे। एक बार उस भगवान ने उस लड़की के रूप में हमें बचाया था। क्या अब न बचाएंगे ?' 'यह आदमी छुरी चलाएगा, देख लेना।' 'तो क्या चिंता है ? मांस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी के काम आ जाएगा।' नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र उस दढ़ियल के साथ चले। दोनों की बोटी-बोटी कांप रही थी। बेचारे पांव तक न उठा सकते थे, पर भय के मारे गिरते-प़डते भागे जाते थे, क्योंकि वह जरा भी चाल धीमी हो जाने पर डंडा जमा देता था। राह में गाय-बैलों का एक रेवड़ हरे-भरे हार में चरता नजर आया। सभी जानवर प्रसन्न थे, चिकने, चपल। कोई उछलता था, कोई आनंद से बैठा पागुर करता था कितना सुखी जीवन था इनका, पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिंता नहीं कि उनके दो बाई बधिक के हाथ पड़े कैसे दुःखी हैं। सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ कि परिचित राह है। हां, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था। वही खेत, वही बाग, वही गांव मिलने लगे, प्रतिक्षण उनकी चाल तेज होने लगी। सारी थकान, सारी दुर्बलता गायब हो गई। आह ! यह लो ! अपना ही हार आ गया। इसी कुएं पर हम पुर चलाने आया करते थे, यही कुआं है। मोती ने कहा-'हमारा घर नजदीक आ गया है।' हीरा बोला -'भगवान की दया है।' 'मैं तो अब घर भागता हूँ।' 'यह जाने देगा ?' इसे मैं मार गिराता हूँ। 'नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर चलो। वहां से आगे हम न जाएंगे।' दोनों उन्मत्त होकर बछड़ों की भांति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौड़े। वह हमारा थान है। दोनों दौड़कर अपने थान पर आए और खड़े हो गए। दढ़ियल भी पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था। बैलों को देखते ही दौड़ा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा। मित्रों की आंखों से आनन्द के आंसू बहने लगे। एक झूरी का हाथ चाट रहा था। दढ़ियल ने जाकर बैलों की रस्सियां पकड़ लीं। झूरी ने कहा-'मेरे बैल हैं।' 'तुम्हारे बैल कैसे हैं ? मैं मवेसीखाने से नीलाम लिए आता हूँ।' ''मैं तो समझता हूँ, चुराए लिए जाते हो! चुपके से चले जाओ, मेरे बैल हैं। मैं बेचूंगा तो बिकेंगे। किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या अख्तियार हैं ?' 'जाकर थाने में रपट कर दूँगा।' 'मेरे बैल हैं। इसका सबूत यह है कि मेरे द्वार पर खड़े हैं। दढ़ियल झल्लाकर बैलों को जबरदस्ती पकड़ ले जाने के लिए बढ़ा। उसी वक्त मोती ने सींग चलाया। दढ़ियल पीछे हटा। मोती ने पीछा किया। दढ़ियल भागा। मोती पीछे दौड़ा, गांव के बाहर निकल जाने पर वह रुका, पर खड़ा दढ़ियल का रास्ता वह देख रहा था, दढ़ियल दूर खड़ा धमकियां दे रहा था, गालियां निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था, और मोती विजयी शूर की भांति उसका रास्ता रोके खड़ा था। गांव के लोग यह तमाशा देखते थे और हँसते थे। जब दढ़ियल हारकर चला गया तो मोती अकड़ता हुआ लौटा। हीरा ने कहा-'मैं तो डर गया था कि कहीं तुम गुस्से में आकर मार न बैठो।' 'अब न आएगा।' 'आएगा तो दूर से ही खबर लूंगा। देखूं, कैसे ले जाता है।' 'जो गोली मरवा दे ?' 'मर जाऊंगा, पर उसके काम न आऊंगा।' 'हमारी जान को कोई जान ही नहीं समझता।' 'इसलिए कि हम इतने सीधे हैं।' जरा देर में नाँदों में खली भूसा, चोकर और दाना भर दिया गया और दोनों मित्र खाने लगे। झूरी खड़ा दोनों को सहला रहा था। वह उनसे लिपट गया। झूरी की पत्नी भी भीतर से दौड़ी-दौड़ी आई। उसने ने आकर दोनों बैलों के माथे चूम लिए।
बहुत पुरानी बात है। हिंदुओं का एक काफ़िला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से भागा चला आ रहा था। मुद्दतों से उस प्रांत में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आये थे। धार्मिक द्वेष
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का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था। बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था। जान का बदला जान था, खून का बदला खून; इस नियम में कोई अपवाद न था। यही उनका धर्म था, यही ईमान; मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिंदू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे। पर एक महीने से देश की हालत बदल गयी है। एक मुल्ला ने न जाने कहाँ से आ कर अनपढ़ धर्मशून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है। उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष खिंचे चले आते हैं। वह शेरों की तरह गरज कर कहता है-खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो, दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो। एक काफिष्र के दिल को इस्लाम के उजाले से रोशनी कर देने का सवाब सारी उम्र के रोजे, नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है। जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएँ लेंगी और फरिश्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे, खुदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा। और सारी जनता यह आवाज सुन कर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है। उसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है। प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है। उन्हीं हिंदुओं पर जो सदियों से शांति के साथ रहते थे, हमले होने लगे हैं। कहीं उनके मंदिर ढाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियाँ दी जाती हैं। कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। हिंदू संख्या में कम हैं, असंगठित हैं; बिखरे हुए हैं, इस नयी परिस्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं। उनके हाथ-पाँव फूले हुए हैं, कितने ही तो अपनी जमा-जथा छोड़ कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ इस आँधी के शांत हो जाने का अवसर देख रहे हैं। यह काफिष्ला भी उन्हीं भागनेवालों में था। दोपहर का समय था। आसमान से आग बरस रही थी। पहाड़ों से ज्वाला-सी निकल रही थी। वृक्ष का कहीं नाम न था। ये लोग राज-पथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे। पग-पग पर पकड़ लिये जाने का खटका लगा हुआ था। यहाँ तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अंत को लोग एक उभरी हुई शिला की छाँह में विश्राम करने लगे। सहसा कुछ दूर पर एक कुआँ नजर आया। वहीं डेरे डाल दिये। भय लगा हुआ था कि जिहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो। दो युवकों ने बंदूक भर कर कंधे पर रखीं और चारों तरफ गश्त करने लगे। बूढ़े कम्बल बिछा कर कमर सीधी करने लगे। स्त्रियाँ बालकों को गोद से उतार कर माथे का पसीना पोंछने और बिखरे हुए केशों को सँभालने लगीं। सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे। सभी चिंता और भय से त्रास्त हो रहे थे, यहाँ तक कि बच्चे जोर से न रोते थे। दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला रूपवान है। उसकी आँखों से अभिमान की रेखाएँ-सी निकल रही हैं, मानो वह अपने सामने किसी की हकीकत नहीं समझता, मानो उसकी एक-एक गत पर आकाश के देवता जयघोष कर रहे हैं। दूसरा कद का दुबला-पतला, रूपहीन-सा आदमी है, जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है, मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं, मानो वह दीपक की भाँति रो-रो कर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है। उसका नाम धर्मदास है; इसका ख़ज़ाँचन्द। धर्मदास ने बंदूक को जमीन पर टिका कर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा-तुमने अपने लिए क्या सोचा? कोई लाख-सवा लाख की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी ? ख़ज़ाँचंद ने उदासीन भाव से उत्तर दिया-लाख-सवा लाख की तो नहीं, हाँ, पचास-साठ हजार तो नकद ही थे। 'तो अब क्या करोगे ?' 'जो कुछ सिर पर आयेगा, झेलूँगा ! रावलपिंडी में दो-चार सम्बन्धी हैं, शायद कुछ मदद करें। तुमने क्या सोचा है ?' 'मुझे क्या गम ! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं। वहाँ इन्हीं का सहारा था, आगे भी इन्हीं का सहारा है।' 'आज और कुशल से बीत जाये तो फिर कोई भय नहीं।' 'मैं तो मना रहा हूँ कि एकाध शिकार मिल जाय। एक दरजन भी आ जायँ तो भून कर रख दूँ।' इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा-डोर लिये निकली और सामने कुएँ की ओर चली। प्रभात की सुनहरी, मधुर, अरुणिमा मूर्तिमान हो गयी थी। दोनों युवक उसकी ओर बढ़े लेकिन ख़ज़ाँचंद तो दो-चार कदम चल कर रुक गया, धर्मदास ने युवती के हाथ से लोटा-डोर ले लिया और ख़ज़ाँचंद की ओर सगर्व नेत्रों से ताकता हुआ कुएँ की ओर चला। ख़ज़ाँचंद ने फिर बंदूक सँभाली और अपनी झेंप मिटाने के लिए आकाश की ओर ताकने लगा। इसी तरह कितनी ही बार धर्मदास के हाथों पराजित हो चुका था। शायद उसे इसका अभ्यास हो गया था। अब इसमें लेशमात्र भी संदेह न था कि श्यामा का प्रेमपात्रा धर्मदास है। ख़ज़ाँचंद की सारी सम्पत्ति धर्मदास के रूपवैभव के आगे तुच्छ थी। परोक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष रूप से भी श्यामा कई बार ख़ज़ाँचंद को हताश कर चुकी थी; पर वह अभागा निराश हो कर भी न जाने क्यों उस पर प्राण देता था। तीनों एक ही बस्ती के रहनेवाले थे। श्यामा के माता-पिता पहले ही मर चुके थे। उसकी बुआ ने उसका पालन-पोषण किया था। अब भी वह बुआ ही के साथ रहती थी। उसकी अभिलाषा थी कि ख़ज़ाँचंद उसका दामाद हो, श्यामा सुख से रहे और उसे भी जीवन के अंतिम दिनों के लिए कुछ सहारा हो जाये; लेकिन श्यामा धर्मदास पर रीझी हुई थी। उसे क्या खबर थी कि जिस व्यक्ति को वह पैरों से ठुकरा रही है, वही उसका एकमात्र अवलम्ब है। ख़ज़ाँचंद ही वृद्धा का मुनीम, खजांची, कारिंदा सब कुछ था और यह जानते हुए भी कि श्यामा उसे जीवन में नहीं मिल सकती। उसके धन का यह उपयोग न होता, तो वह शायद अब तक उसे लुटा कर फकीर हो जाता।
2 धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि उसे पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखायी दिये। जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पाँच आदमी हैं। उनकी बंदूक की नलियाँ धूप में साफ चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें लेकिन कंधे पर बंदूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज न दौड़ सकता था। फासला दो सौ गज से कम न था। रास्ते में पत्थरों के ढेर टूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाय, कहीं पैर न फिसल जायँ। इधर सवार प्रतिक्षण समीप होते जाते थे। अरबी घोड़ों से उसका मुकाबला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा हुआ। मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सिर पर आ पहुँचे और तुरंत उसे घेर लिया। धर्मदास बड़ा साहसी था; पर मृत्यु को सामने खड़ी देख कर उसकी आँखों में अँधेरा छा गया, उसके हाथ से बंदूक छूट कर गिर पड़ी। पाँचों उसी के गाँव के महसूदी पठान थे। एक पठान ने कहा-उड़ा दो सिर मरदूद का। दग़ाबाज़ काफिष्र। दूसरा-नहीं नहीं, ठहरो, अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले, तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दग़ा की क्या सजा दी जाय ? हमने तुम्हें रात-भर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था। मगर तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुँचा दिये जाओ; लेकिन हम तुम्हें फिर मौका देते हैं। यह आखिरी मौका है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी। धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा-जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे ... पहले सवार ने आवेश में आकर कहा-मजहब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं। तीसरा-कुफ्र है ! कुफ्र है ! पहला- उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआँ इस पार। दूसरा-ठहरो-ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है। तुम्हारे और साथी कहाँ हैं धर्मदास ? धर्मदास-सब मेरे साथ ही हैं। दूसरा-कलामे शरीफ़ की कसम; अगर तुम सब खुदा और उनके रसूल पर ईमान लाओ, तो कोई तुम्हें तेज निगाहों से देख भी न सकेगा। धर्मदास-आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौका न देंगे। इस पर चारों सवार चिल्ला उठे-नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे, यह आखिरी मौका है। इतना कहते ही पहले सवार ने बंदूक छतिया ली और नली धर्मदास की छाती की ओर करके बोला-बस बोलो, क्या मंजूर है ? धर्मदास सिर से पैर तक काँप कर बोला-अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूँ तो मेरे साथियों को तो कोई तकलीफ न दी जायेगी ? दूसरा-हाँ, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे। पहला-हम इस शर्त को नहीं मानते। तुम्हारे साथियों से हम खुद निपट लेंगे। तुम अपनी कहो। क्या चाहते हो ? हाँ या नहीं ? धर्मदास ने जहर का घूँट पी कर कहा-मैं खुदा पर ईमान लाता हूँ। पाँचों ने एक स्वर से कहा-अलहमद व लिल्लाह ! और बारी-बारी से धर्मदास को गले लगाया।
3 श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी। वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें पानी लाने भेजा ? अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगा, तो मैं प्यासों मर जाती, पर इन्हें न जाने देती। श्यामा से कुछ दूर ख़ज़ाँचंद भी खड़ा था। श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देख कर कहा- अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती। ख़ज़ाँचंद-बंदूक भी हाथ से छूट पड़ी है। श्यामा-न जाने क्या बातें हो रही हैं। अरे गजब ! दुष्ट ने उनकी ओर बंदूक तानी है ! ख़ज़ाँ.-जरा और समीप आ जायँ, तो मैं बंदूक चलाऊँ। इतनी दूर की मार इसमें नहीं है। श्यामा-अरे ! देखो, वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं। यह माजरा क्या है ? ख़ज़ाँ.-कुछ समझ में नहीं आता। श्यामा-कहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया ? ख़ज़ाँ.-नहीं, ऐसा क्या होगा, धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है। श्यामा-मैं समझ गयी। ठीक यही बात है। बंदूक चलाओ। ख़ज़ाँ.-धर्मदास बीच में हैं। कहीं उन्हें न लग जाय। श्यामा-कोई हर्ज नहीं। मैं चाहती हूँ, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़े। कायर ! निर्लज्ज ! प्राणों के लिए धर्म त्याग किया। ऐसी बेहयाई की जिंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है। क्या सोचते हो। क्या तुम्हारे भी हाथ-पाँव फूल गये। लाओ, बंदूक मुझे दे दो। मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूँगी। ख़ज़ाँ.-मुझे तो विश्वास नहीं होता कि धर्मदास ... श्यामा-तुम्हें कभी विश्वास न आयेगा। लाओ, बंदूक मुझे दो। खडे़ क्या ताकते हो ? क्या जब वे सिर पर आ जायँगे, तब बंदूक चलाओ? क्या तुम्हें भी यह मंजूर है कि मुसलमान हो कर जान बचाओ ? अच्छी बात है, जाओ। श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है; मगर उसे अब मुँह न दिखाना। ख़ज़ाँचंद ने बंदूक चलायी। एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई निकल गयी। जिहादियों ने 'अल्लाहो अकबर !' की हाँक लगायी। दूसरी गोली चली और घोड़े की छाती पर बैठी। घोड़ा वहीं गिर पड़ा। जिहादियों ने फिर 'अल्लाहो अकबर !' की सदा लगायी और आगे बढ़े। तीसरी गोली आयी। एक पठान लोट गया; पर इसके पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान ख़ज़ाँचंद के सिर पर पहुँच गये और बंदूक उसके हाथ से छीन ली। एक सवार ने ख़ज़ाँचंद की ओर बंदूक तान कर कहा-उड़ा दूँ सिर मरदूद का, इससे खून का बदला लेना है। दूसरे सवार ने जो इनका सरदार मालूम होता था, कहा-नहीं-नहीं, यह दिलेर आदमी है। ख़ज़ाँचंद, तुम्हारे ऊपर दगा, खून और कुफ्र, ये तीन इल्ज़ाम हैं, और तुम्हें कत्ल कर देना ऐन सवाब है, लेकिन हम तुम्हें एक मौका और देते हैं। अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ, तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं। इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफारा (प्रायश्चित्त) नहीं है। यह हमारा आखिरी फैसला है। बोलो, क्या मंजूर है ? चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल लीं, और उन्हें ख़ज़ाँचंद के सिर पर तान दिया मानो 'नहीं' का शब्द मुँह से निकलते ही चारों तलवारें उसकी गर्दन पर चल जायँगी ! ख़ज़ाँचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आँखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगीं। दृढ़ता से बोला-तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो ? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ से वह अपना ईमान बेच डालेगा ? हिंदू को अपने ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की जरूरत नहीं ! चारों पठानों ने कहा-काफिर ! काफिर ! ख़ज़ाँ.-अगर तुम मुझे काफिर समझते हो तो समझो। मैं अपने को तुमसे ज्यादा खुदापरस्त समझता हूँ। मैं उस धर्म को मानता हूँ, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है। आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर (प्रकाश) है और हमारा ईमान हमारी अक्ल ... चारों पठानों के मुँह से निकला 'काफिर ! काफिर !' और चारों तलवारें एक साथ ख़ज़ाँचंद की गर्दन पर गिर पड़ीं। लाश जमीन पर फड़कने लगी। धर्मदास सिर झुकाये खड़ा रहा। वह दिल में खुश था कि अब ख़ज़ाँचंद की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा; पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। श्यामा अब तक मर्माहत-सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी। ज्यों ही ख़ज़ाँचंद की लाश जमीन पर गिरी, वह झपट कर लाश के पास आयी और उसे गोद में लेकर आँचल से रक्त-प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी। उसके सारे कपड़े खून से तर हो गये। उसने बड़ी सुंदर बेल-बूटोंवाली साड़ियाँ पहनी होंगी, पर इस रक्त-रंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेल-बूटोंवाली साड़ियाँ रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्त-रंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी। ऐसा जान पड़ा मानो ख़ज़ाँचंद की बुझती आँखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान हो गयी हैं। उन नेत्रों में कितना संतोष, कितनी तृप्ति, कितनी उत्कंठा भरी हुई थी। जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पायी,