बहुत जबरदस्त लिखा है लेखक का नाम है चित्रगुप्त। ..... साँप का काटा *********** आदमी को मारने के लिए सरकारी वायदे, विपक्ष के ताने, कवियों की कविताएं और सरकारी कर्मचारियों की धूर्तताएँ कम थीं क्या जो अब साँप ने भी काट लिया? अरे भाई मरने का भी कोई
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कायदा कानून होता है? इतने चुस्त और दुरुस्त प्रशासन में सरकारी अनुमति के बगैर कोई ऐसे कैसे मर सकता है? टीवी पर बैठा एंकर अभी पैनल में शामिल अन्य कुछ बयान बहादुरों को गरम करने की कोशिश कर ही रहा था कि बिजली चली गई। ...और उधर कार का शीशा नीचे करते हुए सीएमओ साब ने धरने पर बैठे सुग्घरवा से पूछा- "काहे बैठे हो?" "बेटे को सांप ने काट लिया है सरकार और उसका इलाज हो नहीं रहा..." सुग्घरवा ने उत्तर दिया। "सांप ने तो पुत्तनवा के बेटे को भी काटा था और इलाज तो उसका भी नहीं हुआ था तब तुम धरना देने नहीं आये थे?" सीएमओ साहब इतना बोलकर आगे बढ़ गए तब तक इलाके की पुलिस चौकी के इंचार्ज की आमद हुई... "का रे सुग्घरवा ...! काहे धरना दे रहा है, सुना है बेटे को सांप ने काट लिया?" "हां सरकार..." इस बार जवाब सुग्घरवा की बीवी ने दिया था। "तुम गांव वाले पूरे ही बुड़बक हो यही तो है। जब सांप काटने के लिए आ रहा था उसी समय तुमने उसके खिलाफ एफआईआर करवाना चाहिए था। फिर देखते वो स्साला सांप एक बार थाने पुलिस के चक्कर में आ जाता तब हम बताते कि ज्यादा जहर किसमें है।" सुग्घरवा रोते बिलखते इंचार्ज साहब का मुंह देख ही रहा था कि नेता विपक्ष सफेद कुर्ता अपनी चमक बिखेरता हुआ उसकी आँखों में धंस गया। सांप वाले डॉक्टर इन्ही नेता जी के बहनोई थे। सुग्घरवा उनके ओर बढ़ने ही वाला था कि ब्यवस्थापकों द्वारा रोक दिया गया। "अरे रुको रुको अभी हमारा कैमरे वाला नहीं आया है। पहले उसे आने दो फिर मिलना भेटना सब होगा नेता जी की पूरी संवेदना आपके साथ है । "सरकार अपने बहनोई से कहकर अगर इलाज करा देते तो मेरा कुल दीपक बुझने से बच जाता...." सुग्घर ने हाथ जोड़ते हुए कहा "अगले चुनाव में नेता जी को जिताइये फिर होगा ये सब अभी तो ये बस अपना सपोर्ट दिखाने आये हैं।" नेता जी के आगे खड़े मार्गदर्शक मंडल के प्रतिनिधि टाइप नेता ने कहा... ये सब चल ही रहा था कि सरकार की आकाशवाणी गूंजने लगी..... "सुग्घर .... ये सुग्घर...! शायद तुम्हें पता नहीं होगा कि हमारी सरकार ने ऐसी योजना बनाई है जिसमें तुम्हारे पूरे परिवार का मुफ्त में इलाज होगा। तुम्हे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमने एक मोबाइल एप्प भी बनाया है जिसे मोबाइल में डालकर रखो तो वो बताएगा कि सांप किस तरफ से आने वाला है और इसके अलावा हमने ऐसी व्यवस्था भी की है कि सांप अगर काटने के लिए आएगा तो हम तुरंत नेवला छोड़ देंगे। तुम्हें बस नेवला छोड़ने के लिए अपने पास वाले नेवला केंद्र में जाकर एक अर्जी ही लगानी होगी बस....." "पर सरकार ये नेवला केंद्र है कहाँ?" वहीं पर मौजूद एक सफाई कर्मचारी जिसने आज तक झाड़ू का मुंह तक नहीं देखा पर तनख्वाह में एक दिन भी लेट मंजूर नहीं, ने पूछा- आकाशवाणी ने थोड़ा सा खिसियाया हुआ सा मुंह बनाया (ऐसा अनुमान है, पर नेता खिसियाये ये जरूरी भी नहीं है) और बोली उसे बनाने पर अभी विचार चल रहा है। आकाशवाणी भाइयों बहनों करती हुई बंद हुई तब तक सरकारी सपेरा कहीं से अपनी बीन पकड़े हुए प्रकट हुआ। जिसे बीन बजाना और सांप पकड़ना छोड़कर सारे काम आते थे। इसलिए उसनेे बीन इसके लिए अलग से खानदानी गरीब टाइप का एक सपेरा रख रखा था। जिसने आते ही बीन बजानी शुरू कर दी। अभी तक जितने भी लोग सुग्घर का धरना देखने के लिए जुटे थे वे सब अब उसका बीन बजाना देखने लगे। थोड़ी देर में ही सांप का भी आगमन हुआ जिसे देखकर सरकारी सपेरा डरके मारे बीन बजाने वाले के पीछे छुप गया। "तुमने इस गरीब बालक को क्यों काटा...?"बीन बजाने वाले ने पूछा "सरकार हम कोई आदमी नहीं हैं जो आदमी को काटें" सांप ने उत्तर दिया। "तो फिर ....?" "तो फिर क्या? ये बांस के झुरमुट में कुछ कर रहा था वहीं इसे कोई कांटा गड़ गया ठीक उसी समय मैं भी वहाँ से जा रहा था तो ये साँप साँप चिल्लाकर वहाँ से भाग खड़ा हुआ। "मल्लब तुमने काटा ही नहीं..." "न सरकार" इतना सुनना था कि अब तक अचेत पड़ा सुग्घरवा का बेटा उठकर बैठ गया। #चित्रगुप्त
एक सहेली ने दूसरी सहेली से पूछा:- बच्चा पैदा होने की खुशी में तुम्हारे पति ने तुम्हें क्या तोहफा दिया ?
सहेली ने कहा - कुछ भी नहीं!
उसने सवाल करते हुए पूछा कि क्या ये अच्छी बात है ? क्या उस की नज़र में तुम्हारी कोई
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कीमत नहीं ?
लफ्ज़ों का ये ज़हरीला बम गिरा कर वह सहेली दूसरी सहेली को अपनी फिक्र में छोड़कर चलती बनी।।
थोड़ी देर बाद शाम के वक्त उसका पति घर आया और पत्नी का मुंह लटका हुआ पाया।। फिर दोनों में झगड़ा हुआ।। एक दूसरे को लानतें भेजी।। मारपीट हुई, और आखिर पति पत्नी में तलाक हो गया।।
जानते हैं प्रॉब्लम की शुरुआत कहां से हुई ? उस फिजूल जुमले से जो उसका हालचाल जानने आई सहेली ने कहा था।।
II. रवि ने अपने जिगरी दोस्त पवन से पूछा:- तुम कहां काम करते हो? पवन- फला दुकान में। रवि- कितनी तनख्वाह देता है मालिक? पवन - 18 हजार।। रवि - 18000 रुपये बस, तुम्हारी जिंदगी कैसे कटती है इतने पैसों में ? पवन- (गहरी सांस खींचते हुए)- बस यार क्या बताऊं।।
मीटिंग खत्म हुई, कुछ दिनों के बाद पवन अब अपने काम से बेरूखा हो गया। और तनख्वाह बढ़ाने की डिमांड कर दी। जिसे मालिक ने रद्द कर दिया। पवन ने जॉब छोड़ दी और बेरोजगार हो गया। पहले उसके पास काम था अब वह भी नहीं रहा।।
III. एक साहब ने एक शख्स से कहा जो अपने बेटे से अलग रहता था।। तुम्हारा बेटा तुमसे बहुत कम मिलने आता है।। क्या उसे तुमसे मोहब्बत नहीं रही? बाप ने कहा बेटा ज्यादा व्यस्त रहता है, उसका काम का शेड्यूल बहुत सख्त है।। उसके बीवी बच्चे हैं, उसे बहुत कम वक्त मिलता है।।
पहला आदमी बोला- वाह!! यह क्या बात हुई, तुमने उसे पाला-पोसा उसकी हर ख्वाहिश पूरी की, अब उसको बुढ़ापे में व्यस्तता की वजह से मिलने का वक्त नहीं मिलता है।। तो यह ना मिलने का बहाना है।।
इस बातचीत के बाद बाप के दिल में बेटे के प्रति शंका पैदा हो गई।। बेटा जब भी मिलने आता वो ये ही सोचता रहता कि उसके पास सबके लिए वक्त है सिवाय मेरे।।
*याद रखिए जुबान से निकले शब्द दूसरे पर बड़ा गहरा असर डाल देते हैं।। बेशक कुछ लोगों की जुबानों से शैतानी बोल निकलते हैं।। हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बहुत से सवाल हमें बहुत मासूम लगते हैं।।*
जैसे- तुमने यह क्यों नहीं खरीदा।।
तुम्हारे पास यह क्यों नहीं है।।
तुम इस शख्स के साथ पूरी जिंदगी कैसे चल सकती हो।।
तुम उसे कैसे मान सकते हो।। वगैरा वगैरा।।
इस तरह के बेमतलबी फिजूल के सवाल नादानी में या बिना मकसद के हम पूछ बैठते हैं।।
जबकि हम यह भूल जाते हैं कि हमारे ये सवाल सुनने वाले के दिल में नफरत या मोहब्बत का कौन सा बीज बो रहे हैं।।
आज के दौर में हमारे इर्द-गिर्द, समाज या घरों में जो टेंशन टाइट होती जा रही है, उनकी जड़ तक जाया जाए तो अक्सर उसके पीछे किसी और का हाथ होता है।।
Koi Dukh Na Ho To Bakri Kharid Lo Munshi Premchand
कोई दुख न हो तो बकरी ख़रीद लो - मुंशी प्रेम चंद
उन दिनों दूध की तकलीफ थी। कई डेरी फर्मों की आजमाइश की, अहारों का इम्तहान लिया, कोई नतीजा नहीं। दो-चार दिन तो दूध अच्छा, मिलता
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फिर मिलावट शुरू हो जाती। कभी शिकायत होती दूध फट गया, कभी उसमें से नागवार बू आने लगी, कभी मक्खन के रेजे निकलते। आखिर एक दिन एक दोस्त से कहा-भाई, आओ साझे में एक गाय ले लें, तुम्हें भी दूध का आराम होगा, मुझे भी। लागत आधी-आधी, खर्च आधा-आधा, दूध भी आधा-आधा। दोस्त साहब राजी हो गए। मेरे घर में जगह न थी और गोबर वगैरह से मुझे नफरत है। उनके मकान में काफी जगह थी इसलिए प्रस्ताव हुआ कि गाय उन्हीं के घर रहे। इसके बदले में उन्हें गोबर पर एकछत्र अधिकार रहे। वह उसे पूरी आजादी से पाथें, उपले बनाएं, घर लीपें, पड़ोसियों को दें या उसे किसी आयुर्वेदिक उपयोग में लाएं, इकरार करनेवाले को इसमें किसी प्रकार की आपत्ति या प्रतिवाद न होगा और इकरार करनेवाला सही होश-हवास में इकरार करता है कि वह गोबर पर कभी अपना अधिकार जमाने की कोशिश न करेगा और न किसी का इस्तेमाल करने के लिए आमादा करेगा। दूध आने लगा, रोज-रोज की झंझट से मुक्ति मिली। एक हफ्ते तक किसी तरह की शिकायत न पैदा हुई। गरम-गरम दूध पीता था और खुश होकर गाता था- रब का शुक्र अदा कर भाई जिसने हमारी गाय बनाई। ताजा दूध पिलाया उसने लुत्फे हयात चखाया उसने। दूध में भीगी रोटी मेरी उसके करम ने बख्शी सेरी। खुदा की रहमत की है मूरत कैसी भोली-भाली सूरत। मगर धीरे-धीरे यहां पुरानी शिकायतें पैदा होने लगीं। यहां तक नौबत पहुंची कि दूध सिर्फ नाम का दूध रह गया। कितना ही उबालो, न कहीं मलाई का पता न मिठास। पहले तो शिकायत कर लिया करता था इससे दिल का बुखार निकल जाता था। शिकायत से सुधार न होता तो दूध बन्द कर देता था। अब तो शिकायत का भी मौका न था, बन्द कर देने का जिक्र ही क्या। भिखारी का गुस्सा अपनी जान पर, पियो या नाले में डाल दो। आठ आने रोज का नुस्खा किस्मत में लिखा हुआ। बच्चा दूध को मुंह न लगाता, पीना तो दूर रहा। आधों आध शक्कर डालकर कुछ दिनों दूध पिलाया तो फोड़े निकलने शुरू हुए और मेरे घर में रोज बमचख मची रहती थी। बीवी नौकर से फरमाती-दूध ले जाकर उन्हीं के सर पटक आ। मैं नौकर को मना करता। वह कहतीं-अच्छे दोस्त है तुम्हारे, उसे शरम भी नहीं आती। क्या इतना अहमक है कि इतना भी नहीं समझता कि यह लोग दूध देखकर क्या कहेंगे! गाय को अपने घर मंगवा लो, बला से बदबू आयगी, मच्छर होंगे, दूध तो अच्छा मिलेगा। रुपये खर्चे हैं तो उसका मजा तो मिलेगा। चड्ढा साहब मेरे पुराने मेहरबान हैं। खासी बेतकल्लुफी है उनसे। यह हरकत उनकी जानकारी में होती हो यह बात किसी तरह गले के नीचे नहीं उतरती। या तो उनकी बीवी की शरारत है या नौकर की लेकिन जिक्र कैसे करूं। और फिर उनकी बीवी से भी तो राह-रस्म है। कई बार मेरे घर आ चुकी हैं। मेरी बीवी जी भी उनके यहां कई बार मेहमान बनकर जा चुकी हैं। क्या वह यकायक इतनी बेवकूफ हो जायेंगी, सरीहन आंखों में धूल झोंकेंगी! और फिर चाहे किसी की शरारत हो, मेरे लिएयह गैरमुमकिन था कि उनसे दूध की खराबी की शिकायत करता। खैरियत यह हुई कि तीसरे महीने चड्ढा का तबादला हो गया। मैं अकेले गाय न रख सकता था। साझा टूट गया। गाय आधे दामों बेच दी गई। मैंने उस दिन इत्मीनान की सांस ली। आखिर यह सलाह हुई कि एक बकरी रख ली जाय। वह बीच आंगन के एक कोने में पड़ी रह सकती है। उसे दुहने के लिए न ग्वाले की जरूरत न उसका गोबर उठाने, नांद धोने, चारा-भूसा डालने के लिए किसी अहीरिन की जरूरत। बकरी तो मेरा नौकरभी आसानी से दुह लेगा। थोड़ी-सी चोकर डाल दी, चलिये किस्सा तमाम हुआ। फिर बकरी का दूध फायदेमंद भी ज्यादा है, बच्चों के लिए खास तौर पर। जल्दी हजम होता है, न गर्मी करे न सर्दी, स्वास्थ्यवर्द्धक है। संयोग से मेरे यहां जो पंडित जी मेरे मसौदे नकल करने आया करते थे, इन मामलों में काफी तजुर्बेकार थे। उनसे जिक्र आया तो उन्होंने एक बकरी की ऐसी स्तुति गाई, उसका ऐसा कसीदा पढ़ा कि मैं बिन देखे ही उसका प्रेमी हो गया। पछांही नसल की बकरी है, ऊंचे कद की, बड़े-बड़े थन जो जमीन से लगते चलते हैं। बेहद कमखोर लेकिन बेहद दुधार। एक वक्त में दो-ढाई सेर दूध ले लीजिए। अभी पहली बार ही बियाई है। पच्चीस रुपये में आ जायगी। मुझे दाम कुछ ज्यादा मालूम हुए लेकिन पंडितजी पर मुझे एतबार था। फरमाइश कर दी गई और तीसरे दिन बकरी आ पहुंची। मैं देखकर उछल पड़ा। जो-जो गुण बताये गये थे उनसे कुछ ज्यादा ही निकले। एक छोटी-सी मिट्टी की नांद मंगवाई गई, चोकर का भी इन्तजाम हो गया। शाम को मेरे नौकर ने दूध निकाला तो सचमुच ढाई सेर। मेरी छोटी पतीली लबालब भर गई थी। अब मूसलों ढोल बजायेंगे। यह मसला इतने दिनों के बाद जाकर कहीं हल हुआ। पहले ही यह बात सूझती तो क्यों इतनी परेशानी होती। पण्डितजी का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा किया। मुझे सवेरे तड़के और शाम को उसकी सींग पकड़ने पड़ते थे तब आदमी दुह पाता था। लेकिन यह तकलीफ इस दूध के मुकाबले में कुछ न थी। बकरी क्या है कामधेनु है। बीवी ने सोचा इसे कहीं नजर न लग जाय इसलिए उसके थन के लिए एक गिलाफ तैयार हुआ, इसकी गर्दन में नीले चीनी के दानों का एक माला पहनाया गया। घर में जो कुछ जूठा बचता, देवी जी खुद जाकर उसे खिला आती थीं। लेकिन एक ही हफ्ते में दूध की मात्रा कम होने लगी। जरूर नजर लग गई। बात क्या है। पण्डितजी से हाल कहा तो उन्होंने कहा-साहब, देहात की बकरी है, जमींदार की। बेदरेग अनाज खाती थी और सारे दिन बाग में घूमा-चरा करती थी। यहॉँ बंधे-बंधे दूध कम हो जाये तो ताज्जुब नहीं। इसे जरा टहला दिया कीजिए। लेकिन शहर में बकरी को टहलाये कौन और कहां? इसलिए यह तय हुआ कि बाहर कहीं मकान लिया जाय। वहां बस्ती से जरा निकलकर खेत और बाग है। कहार घण्टे-दो घण्टे टहला लाया करेगा। झटपट मकान बदला और गौ कि मुझे दफ्तर आने-जाने में तीन मील का फासला तय करना पड़ता था लेकिन अच्छा दूधमिले तो मैं इसका दुगना फासला तय करने को तैयार था। यहां मकान खूब खुला हुआ था, मकान के सामने सहन था, जरा और बढ़कर आम और महुए का बाग। बाग से निकलिए तो काछियों के खेत थे, किसी में आलू, किसी में गोभी। एक काछी से तय कर लिया कि रोजना बकरी के लिए कुछ हरियाली जाया करे। मगर इतनी कोशिश करने पर भी दूध की मात्रा में कुछ खास बढ़त नहीं हुई। ढाई सेर की जगह मुश्किल से सेर-भर दूध निकलता था लेकिन यह तस्कीन थी कि दूध खालिस है, यही क्या कम है! मै। यह कभी नहीं मान सकता कि खिदमतगारी के मुकाबले में बकरी चराना ज्यादा जलील काम है। हमारे देवताओं और नबियों का बहुत सम्मानित वर्ग गल्ले चराया करते था। कृष्ण जी गायें चराते थे। कौन कह सकता है कि उस गल्ले में बकरियां न रही होंगी। हजरत ईसा और हजरत मुहम्मद दोनों ही भेड़े चराते थे। लेकिन आदमी रूढ़ियों का दास है। जो कुछ बुजुर्गों ने नहीं किया उसे वह कैसे करे। नये रास्ते पर चलने के लिए जिस संकल्प और दृढ़ आस्था की जरूरत है वह हर एक में तो होती नहीं। धोबी आपके गन्दे कपड़े धो लेगा लेकिन आपके दरवाजे पर झाड़ू लगाने में अपनी हतक समझता है। जरायमपेशा कौमों के लोग बाजार से कोई चीज कीमत देकर खरीदना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। मेरे खितमतगार को बकरी लेकर बाग में जाना बुरा मालूम होता था। घरसे तो ले जाय लेकिन बाग में उसे छोड़कर खुद किसी पेड़ के नीचे सो जाता। बकरी पत्तियां चर लेती थी। मगर एक दिन उसके जी में आया कि जरा बाग से निकलकर खेतों की सैर करें। यों वह बहुत ही सभ्य और सुसंस्कृत बकरी थी, उसके चेहरे से गम्भीरता झलकती थी। लेकिन बाग और खेत में घुस गई आजादी नहीं है, इसे वह शायद न समझ सकी। एक रोज किसी खेत में घुस गई और गोभी की कई क्यारियां साफ कर गई। काछी ने देखा तो उसके कान पकड़ लिये और मेरे पास लाकर बोला-बाबजी, इस तरह आपकी बकरी हमारे खेत चरेगी तो हम तो तबाह हो जायेंगे। आपको बकरी रखने का शौक है तो इस बांधकर रखिये। आज तो हमने आपका लिहाज किया लेकिन फिर हमारे खेत में गई तो हम या तो उसकी टॉँग तोड़ देंगे या कानीहौज भेज देंगे। अभी वह अपना भाषण खत्म न कर पाया था कि उसकी बीवी आ पहुंची और उसने इसी विचार को और भी जोरदार शब्दों में अदा किया-हां, हां, करती ही रही मगर रांड खेत में घुस गई और सारा खेत चौपट कर दिया, इसके पेट में भवनी बैठे! यहॉँ कोई तुम्हारा दबैल नहीं है। हाकिम होंगे अपने घर के होंगे। बकरी रखना है तो बांधकर रखो नहीं गला ऐंठ दूंगी! मैं भीगी बिल्ली बना हुआ खड़ा था। जितनी फटकर आज सहनी पड़ी उतनी जिन्दगी में कभी न सही। और जिस धीरज से आज काम लिया अगरउसे दूसरे मौकों पर काम लिया होतातो आज आदमी होता। कोई जवाब नहीं सूझता था। बस यही जी चाहता थाकि बकरी का गला घोंट दूं ओर खिदमतगार को डेढ़ सौ हण्टर जमाऊं। मेरी खामोशी से वह औरत भी शेर होती जाती थी। आज मुझे मालूम हुआ कि किन्हीं-किन्हीं मौकों पर खामोशी नुकसानदेह साबित होती है। खैर, मेरी बीवी ने घर में यह गुल-गपाड़ा सुना तो दरवाजे पर आ गई तो हेकड़ी से बोली-तू कानीहौज पहुंचा दे और क्या करेगी, नाहक टर्र-टर्र कर रही है, घण्टे-भर से। जानवर ही है, एक दिन खुल गई तो क्या उसकी जान लेगी? खबरदार जो एक बात भी मुंह से निकाली। क्यों नहीं खेत के चारों तरफ झाड़ लगा देती, कॉँटों से रूंध दे। अपनी गती तो मानती नहीं, ऊपर से लड़ने आई है। अभी पुलिस में इत्तला कर दें तो बंधे-बंधे फिरो। बात कहने की इस शासनपूर्ण शैली ने उन दोनों को ठण्डा कर दिया। लेकिन उनके चले जाने के बाद मैंने देवी जी की खूब खबर ली-गरीबों का नुकसन भी करती हो और ऊपर से रोब जमाती हो। इसी का नाम इंसाफ है? देवी जी ने गर्वपूर्वक उत्तर दिया-मेरा एहसान तो न मानोगे कि शैतनों को कितनी आसानी से भगा दिया, लगे उल्टे डांटने। गंवारों को राह बतलाने का सख्ती के सिवा दूसरा कोई तरीका नहीं। सज्जनता या उदारता उनकी समझ में नहीं आती। उसे यह लोग कमजोरी समझते हैं और कमजोर को कोन नहीं दबाना चाहता। खिदमतगार से जवाब तलब किया तो उसने साफ कह दिया-साहब, बकरी चराना मेरा काम नहीं है। मैंने कहा-तुमसे बकरी चराने को कौन कहता है, जरा उसे देखते रहो करो कि किसी खेत में न जाय, इतना भी तुमसे नहीं हो सकता? मैं बकरी नहीं चरा सकता साहब, कोई दूसरा आदमी रख लीजिए। आखिरी मैंने खुद शाम को उसे बाग में चरा लाने का फैसला किया। इतने जरा-से काम के लिए एक नया आदमी रखना मेरी हैसियत से बाहर था। और अपने इस नौकर को जवाब भी नहीं देना चाहता था जिसने कई साल तक वफादारी से मेरी सेवा की थी और ईमानदार था। दूसरे दिन में दफ्तर से जरा जल्द चला आया और चटपट बकरी को लेकर बाग में जा पहुंचा। जोड़ों के दिन थे। ठण्डी हवा चल रही थी। पेड़ों के नीचे सूखी पत्तियॉँ गिरी हुई थीं। बकरी एक पल में वह जा पहुंची। मेरी दलेल हो रही थी, उसके पीछे-पीछे दौड़ता फिरता था। दफ्तर से लौटकर जरा आराम किया करता था, आज यह कवायद करना पड़ी, थक गया, मगर मेहनत सफल हो गई, आज बकरी ने कुछ ज्यादा दूध पिया। यह खयाल आया, अगर सूखी पत्तियां खाने से दूध की मात्रा बढ़ गई तो यकीनन हरी पत्तियॉँ खिलाई जाएं तो इससे कहीं बेहतर नतीजा निकले। लेकिन हरी पत्तियॉँ आयें कहॉँ से? पेड़ों से तोडूं तो बाग का मालिक जरूर एतराज करेगा, कीमत देकर हरी पत्तियां मिल न सकती थीं। सोचा, क्यों एक बार बॉँस के लग्गे से पत्तियां तोड़ें। मालिक ने शोर मचाया तो उससे आरजू-मिन्नत कर लेंगे। राजी हो गया तो खैर, नहीं देखी जायगी। थोड़ी-सी पत्तियॉँ तोड़ लेने से पेड़ का क्या बिगड़ जाता है। चुनाचे एक पड़ोसी से एकपतला-लम्बा बॉँस मॉँग लाया, उसमें एक ऑंकुस बॉँधा और शाम को बकरी को साथ लेकर पत्तियॉँ तोड़ने लगा। चोर ऑंखों से इधर-उधर देखता जाता था, कहीं मालिक तो नहीं आरहा है। अचानक वही काछी एक तरफ से आ निकला और मुझे पत्तियां तोड़ते देखकर बोला-यह क्या करते हो बाबूजी, आपके हाथ में यह लग्गा अच्छा नहीं लगता। बकरी पालना हम गरीबों का काम है कि आप जैसे शरीफों का। मैं कट गया, कुछ जवाब नसूझा। इसमें क्या बुराई है, अपने हाथ से अपना काम करने में क्या शर्म वगैरह जवाब कुछ हलके, बेहकीकत, बनावटी मालूम हुए। सफेदपोशी के आत्मगौरव के जबान बन्द कर दी। काछी ने पास आकर मेरे हाथ से लग्गा ले लिया और देखते-देखते हरी पत्तियों का ढेर लगा दिया और पूछा-पत्तियॉँ कहॉँ रख जाऊं? मैंने झेंपते हुए कहा-तुम रहने दो? मैं उठा ले जाऊंगा। उसने थोड़ी-सी पत्तियॉं बगल में उठा लीं और बोला-आप क्या पत्तियॉँ रखने जायेंगे, चलिए मैं रख आऊं। मैंने बरामदे में पत्तियॉँ रखवा लीं। उसी पेड़ के नीचे उसकी चौगुनी पत्तियां पड़ी हुई थी। काछी ने उनका एक गट्ठा बनाया और सर पर लादकर चला गया। अब मुझे मालूम हुआ, यह देहाती कितने चालाक होते हैं। कोई बात मतलब से खाली नहीं। मगर दूसरे दिन बकरी को बाग में ले जाना मेरे लिए कठिन हो गया। काछी फिर देखेगा और न जाने क्या-क्या फिकरे चुस्त करे। उसकी नजरों में गिर जाना मुंह से कालिख लगाने से कम शर्मनाक न था। हमारे सम्मान और प्रतिष्ठा की जो कसौटी लोगों ने बना रक्खी है, हमको उसका आदर करना पड़ेगा, नक्कू बनकर रहे तो क्या रहे। लेकिन बकरी इतनी आसानी से अपनी निर्द्वन्द्व आजाद चहलकदमी से हाथ न खींचना चाहती थी जिसे उसने अपने साधारण दिनचर्या समझना शुरू कर दिया था। शाम होते ही उसने इतने जोर-शोर से प्रतिवाद का स्वर उठायया कि घर में बैठना मुश्किल हो गय। गिटकिरीदार ‘मे-मे’ का निरन्तर स्वर आ-आकर कान के पर्दों को क्षत-विक्षत करने लगा। कहां भाग जाऊं? बीवी ने उसे गालियां देना शुरू कीं। मैंने गुससे में आकर कई डण्डे रसीदे किये, मगर उसे सत्याग्रह स्थागित न करना था न किया। बड़े संकट में जान थी। आखिर मजबूर हो गया। अपने किये का, क्या इलाज! आठ बजे रात, जाड़ों के दिन। घर से बाहर मुंह निकालना मुश्किल और मैं बकरी को बाग में टहला रहा था और अपनी किस्मत को कोस रहा था। अंधेरे में पांव रखते मेरी रूह कांपती है। एक बार मेरे सामने से एक सांप निकल गया था। अगर उसके ऊपर पैर पड़ जाता तो जरूर काट लेता। तब से मैं अंधेरे में कभी न निकलता था। मगर आज इस बकरी के कारण मुझे इस खतरे का भी सामना करना पड़ा। जरा भी हवा चलती और पत्ते खड़कते तो मेरी आंखें ठिठुर जातीं और पिंडलियां कॉँपने लगतीं। शायद उस जन्म में मैं बकरी रहा हूंगा और यह बकरी मेरी मालकिन रही होगी। उसी का प्रायश्चित इस जिन्दगी में भोग रहा था। बुरा हो उस पण्डित का, जिसने यह बला मेरे सिर मढी। गिरस्ती भी जंजाल है। बच्चा न होता तो क्यों इस मूजी जानवर की इतनी खुशामद करनी पड़ती। और यह बच्चा बड़ा हो जायगा तो बात न सुनेगा, कहेगा, आपने मेरे लिए क्या किया है। कौन-सी जायदाद छोड़ी है! यह सजा भुगतकर नौ बजे रात को लौटा। अगररात को बकरी मर जाती तो मुझे जरा भी दु:ख न होता। दूसरे दिन सुबह से ही मुझे यह फिक्र सवार हुई कि किसी तरह रात की बेगार से छुट्टी मिले। आज दफ्तर में छुट्टी थी। मैंने एक लम्बी रस्सी मंगवाई और शाम को बकरी के गले में रस्सी डाल एक पेड़ की जड़ से बांधकर सो गया-अब चरे जितना चाहे। अब चिराग जलते-जलते खोल लाऊंगा। छुट्टी थी ही, शाम को सिनेमा देखने की ठहरी। एक अच्छा-सा खेल आया हुआ था। नौकर को भी साथ लिया वर्ना बच्चे को कौन सभालाता। जब नौ बजे रात को घर लोटे और में लालटेन लेकर बकरी लेनो गया तो क्या देखता हूं कि उसने रस्सी को दो-तीन पेड़ों से लपेटकर ऐसा उलझा डाला है कि सुलझना मुश्किल है। इतनी रस्सी भी न बची थी कि वह एक कदम भी चल सकती। लाहौलविकलाकूवत, जी में आया कि कम्बख्त को यहीं छोड़ दूं, मरती है तो मर जाय, अब इतनी रात को लालटेन की रोशनी में रस्सी सुलझाने बैठे। लेकिन दिल न माना। पहले उसकी गर्दन से रस्सी खोली, फिर उसकी पेंच-दर-पेंच ऐंठन छुड़ाई, एक घंटा लग गया। मारे सर्दी के हाथ ठिठुरे जाते थे और जी जल रहा था वह अलग। यह तरकीब। और भी तकलीफदेह साबित हुई। अब क्या करूं, अक्ल काम न करती थी। दूध का खयाल न होता तो किसी को मुफ्त दे देता। शाम होते ही चुड़ैल अपनी चीख-पुकार शुरू कर देगी और घर में रहना मुश्किल हो जायगा, और आवाज भी कितनी कर्कश और मनहूस होती है। शास्त्रों में लिखा भी है, जितनी दूर उसकी आवाज जाती है उतनी दूर देवता नहीं आते। स्वर्ग की बसनेवाली हस्तियां जो अप्सराओं के गाने सुनने की आदी है, उसकी कर्कश आवाज से नफरत करें तो क्या ताज्जुब! मुझ पर उसकी कर्ण कटु पुकारों को ऐसा आंतक सवार था कि दूसरे दिन दफ्तर से आते ही मैं घर से निकल भागा। लेकिन एक मील निकल जाने पर भी ऐसा लग रहा था कि उसकी आवाज मेरा पीछा किये चली आती है। अपने इस चिड़चिड़ेपन पर शर्म भी आ रही थी। जिसे एक बकरीरखने की भी सामर्थ्य न हो वह इतना नाजुक दिमाग क्यों बने और फिर तुम सारी रात तो घर से बाहर रहोगे नहीं, आठ बजे पहुंचोगे तो क्या वह गीत तुम्हारा स्वागत न करेगा? सहसा एक नीची शाखोंवाला पेड़ देखकर मुझे बरबस उस पर चढ़ने की इच्छा हुई। सपाट तनों पर चढ़ना मुश्किल होता है, यहां तो छ: सात फुट की ऊंचाई पर शाखें फूट गयी थीं। हरी-हरी पत्तियों से पेड़ लदा खड़ा था और पेड़ भी था गूलर का जिसकी पत्तियों से बकरियों को खास प्रेम है। मैं इधर तीस साल से किसी रुख पर नहीं चढ़ा। वहआदत जाती रही। इसलिए आसान चढ़ाई के बावजूद मेरे पांव कांप रहे थे पर मैंने हिम्मत न हारी और पत्तियों तोड़-तोड़ नीचे गिराने लगा। यहां अकेले में कौन मुझे देखता है कि पत्तियां तोड़ रहा हूं। अभी अंधेरा हुआ जाता है। पत्तियों का एक गट्ठा बगल में दबाऊंगा और घर जा पहुंचूंगा। अगर इतने पर भी बकरी ने कुछ चीं-चपड़ की तो उसकी शामत ही आ जायगी। मैं अभी ऊपर ही था कि बकरियों और भेड़ों काएक गोल न जाने किधर से आ निकला और पत्तियों पर पिल पड़ा। मैं ऊपर से चीख रहा हूं मगर कौन सुनता है। चरवाहे का कहीं पता नहीं । कहीं दुबक रहा होगा कि देख लिया जाऊंगा तो गालियां पड़ेंगी। झल्लाकर नीचे उतरने लगा। एक-एक पल में पत्तियां गायब होती जाती थी। उतरकर एक-एक की टांग तोडूंगा। यकायक पांव फिसला और मैं दस फिट की ऊंचाई से नीचे आ रहा। कमर में ऐसी चोट आयी कि पांच मिनट तक आंखों तले अंधेरा छा गया। खैरियत हुई कि और ऊपर से नहीं गिरा, नहीं तो यहीं शहीद हो जाता। बारे, मेरे गिरने के धमाके से बकरियां भागीं और थोड़ी-सी पत्तियां बच रहीं। जब जरा होश ठिकाने हुए तो मैंने उन पत्तियों को जमा करके एक गट्ठा बनाया और मजदूरों की तरह उसे कंधे पर रखकर शर्म की तरह छिपाये घर चला। रास्ते में कोई दुर्घटना न हुई। जब मकान कोई चार फलांग रह गया और मैंने कदम तेज किये कि कहीं कोई देख न ले तो वह काछी समाने से आता दिखायी दिया। कुछ न पूछो उस वक्त मेरी क्या हालत हुई। रास्ते के दोनो तरफ खेतों की ऊंची मेड़ें थीं जिनके ऊपर नागफनी निकलेगा और भगवान् जाने क्या सितम ढाये। कहीं मुड़ने का रास्ता नहीं और बदल ली और सिर झुकाकर इस तरह निकल जाना चाहता था कि कोई मजदूर है। तले की सांस तले थी, ऊपर की ऊपर, जैसे वह काछी कोई खूंखार शोरहो। बार-बार ईश्वर को याद कर रहा था कि हे भगवान्, तू ही आफत के मारे हुओं का मददगार है, इस मरदूद की जबान बन्द कर दे। एक क्षण के लिए, इसकी आंखों की रोशनी गायब कर दे...आह, वह यंत्रणा का क्षण जब मैं उसके बराबर एक गज के फासले से निकला! एक-एक कदम तलवार की धार पर पड़ रहा था शैतानी आवाज कानों में आयी-कौन है रे, कहां से पत्तियां तोड़े लाता है! मुझे मालूम हुआ, नीचे से जमीन निकल गयी है और मैं उसके गहरे पेट में जा पहुंचा हूं। रोएं बर्छियां बने हुए थे, दिमाग में उबाल-सा आ रहा था, शरीर को लकवा-सा मार गया, जवाब देने का होश न रहा। तेजी से दो-तीन कदम आगे बढ़ गया, मगर वह ऐच्छिक क्रिया न थी, प्राण-रक्षा की सहज क्रिया थी कि एक जालिम हाथ गट्ठे पर पड़ा और गट्ठा नीचे गिर पड़ा। फिर मुझे याद नहीं, क्या हुआ। मुझे जब होश आया तो मैं अपने दरवाजे पर पसीने से तर खड़ा था गोया मिरगी के दौरे के बाद उठा हूं। इस बीच मेरी आत्मा पर उपचेतना का आधिपत्य था और बकरी की वह घृणित आवाज, वह कर्कश आवाज, वह हिम्मत तोड़नेवाली आवाज, वह दुनिया की सारी मुसीबतों का खुलसा, वह दुनिया की सारी लानतों की रूह कानों में चुभी जा रही थी। बीवी ने पूछा-आज कहां चले गये थे? इस चुड़ैल को जरा बाग भी न ले गये,जीना मुहाल किये देती है। घर से निकलकर कहां चली जाऊ! मैंने इत्मीनान दिलाया-आज चिल्ला लेने दो, कल सबसे पहला यह काम करूंगा कि इसे घर से निकाल बाहर करूंगा, चाहे कसाई को देना पड़े। ‘और लोग न जाने कैसे बकरियां पालते हैं।’ ‘बकरी पालने के लिए कुत्ते का दिमाग चाहिए।’ सुबह को बिस्तर से उठकर इसी फिक्र में बैठा था कि इस काली बलासे क्योंकर मुक्ति मिले कि सहसा एक गड़रिया बकरियों का एक गल्ला चराता हुआ आ निकला। मैंने उसे पुकारा और उससे अपनी बकरी को चराने की बात कही। गड़रिया राजी हो गया। यही उसका काम था। मैंने पूछा-क्या लोगे? ‘आठ आने बकरी मिलते हैं हजूर।’ ‘मैं एक रुपया दूंगा लेकिन बकरी कभी मेरे सामने न आवे।’ गड़रिया हैरत में रह गया-मरकही है क्या बाबूजी? ‘नही, नहीं, बहुत सीधी है, बकरी क्या मारेगी, लेकिन मैं उसकी सूरत नहीं देखना चाहता।’ ‘अभी तो दूध देती है?’ ‘हां, सेर-सवा सेर दूध देती है।’ ‘दूध आपके घर पहुंच जाया करेगा।’ ‘तुम्हारी मेहरबानी।’ जिस वक्त बकरी घर से निकली है मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मेरे घर का पाप निकला जा रहा है। बकरी भी खुश थी गोया कैद से छूटी है, गड़रिये ने उसी वक्त दूध निकाला और घर में रखकर बकरी को लिये चला गया। ऐसा बेगराज गाहक उसे जिन्दगी में शायद पहली बार ही मिला होगा। एक हफ्ते तक दूध थोड़ा-बहुत आता रहा फिर उसकी मात्रा कम होने लगी, यहां तक कि एक महीना खतम होते-होते दूध बिलकुल बन्द हो गया। मालूम हुआ बकरी गाभिन हो गयी है। मैंने जरा भी एतराज न किया काछी के पास गाय थी, उससे दूध लेने लगा। मेरा नौकर खुद जाकर दुह लाता था। कई महीने गुजर गये। गड़रिया महीने में एक बार आकर अपना रुपया ले जाता। मैंने कभी उससे बकरी का जिक्र न किया। उसके खयाल ही से मेरी आत्मा कांप जाती थी। गड़रिये को अगर चेहरे का भाव पढ़ने की कला आती होती तो वह बड़ी आसानी से अपनी सेवा का पुरस्कार दुगना कर सकता था। एक दिन मैं दरवाजे पर बैठा हुआ था कि गड़रिया अपनी बकरियों का गल्ला लिये आ निकला। मैं उसका रुपया लाने अन्दर गया, कि क्या देखता हूं मेरी बकरी दो बच्चों के साथ मकान में आ पहुंची। वह पहले सीधी उस जगह गयी जहां बंधा करती थी फिर वहां से आंगन में आयी और शायद परिचय दिलाने के लिए मेरी बीवी की तरफ ताकने लगी। उन्होंने दौड़कर एक बच्चे को गोद में ले लिया और कोठरी में जाकर महीनों का जमा चोकर निकाल लायीं और ऐसी मुहब्बत से बकरी को खिलाने लगीं कि जैसे बहुत दिनों की बिछुड़ी हुई सहेली आ गयी हो। न व पुरानी कटुता थी न वह मनमुटाव। कभी बच्चे को चुमकारती थीं। कभी बकरी को सहलाती थीं और बकरी डाकगड़ी की रफ्तार से चोकर उड़ा रही थी। तब मुझसे बोलीं-कितने खूबसूरत बच्चे है! ‘हां, बहुत खूबसूरत।’ ‘जी चाहता है, एक पाल लूं।’ ‘अभी तबियत नहीं भरी?’ ‘तुम बड़े निर्मोही हो।’ चोकर खत्म हो गया, बकरी इत्मीनान से विदा हो गयी। दोनों बच्चे भी उसके पीछे फुदकते चले गये। देवी जी आंख में आंसू भरे यह तमाशा देखती रहीं। गड़रिये ने चिलम भरी और घर से आग मांगने आया। चलते वक्त बोला-कल से दूध पहुंचा दिया करूंगा। मालिक। देवीजी ने कहा-और दोनों बच्चे क्या पियेंगे? ‘बच्चे कहां तक पियेंगे बहूजी। दो सेर दूध अच्छा न होता था, इस मारे नहीं लाया।’ मुझे रात को वह मर्मान्तक घटना याद आ गयी। मैंने कहा-दूध लाओ या न लाओ, तुम्हारी खुशी, लेकिन बकरी को इधर न लाना। उस दिन से न वह गड़रिया नजर आया न वह बकरी, और न मैंने पता लगाने की कोशिश की। लेकिन देवीजी उसके बच्चों को याद करके कभी-कभी आंसू बहा रोती हैं। (‘वारदात’ से)
Karmon Ka Phal - Munshi Premchand कर्मों का फल - मुंशी प्रेम चंद
1 मुझे हमेशा आदमियों के परखने की सनक रही है और अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि यह अध्ययन जितना मनोरंजक, शिक्षाप्रद और उदधाटनों से भरा हुआ है, उतना शायद और कोई अध्ययन
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न होगा। लेकिन अपने दोस्त लाला साईंदयाल से बहुत अर्से तक दोस्ती और बेतकल्लुफी के सम्बन्ध रहने पर भी मुझे उनकी थाह न मिली। मुझे ऐसे दुर्बल शरीर में ज्ञानियों की-सी शान्ति और संतोष देखकर आश्चर्य होता था जो एक़ नाजुक पौधे की तरह मुसीबतों के झोंकों में भी अचल और अटल रहता था। ज्यों वह बहुत ही मामूली दरजे का आदमी था जिसमें मानव कमजोरियों की कमी न थी। वह वादे बहुत करता था लेकिन उन्हें पूरा करने की जरूरत नहीं समझता था। वह मिथ्याभाषी न हो लेकिन सच्चा भी न था। बेमुरौवत न हो लेकिन उसकी मुरौवत छिपी रहती थी। उसे अपने कर्त्तव्य पर पाबन्द रखने के लिए दबाव ओर निगरानी की जरुरत थी, किफायतशारी के उसूलों से बेखबर, मेहनत से जी चुराने वाला, उसूलों का कमजोर, एक ढीला-ढाला मामूली आदमी था। लेकिन जब कोई मुसीबत सिर पर आ पड़ती तो उसके दिल में साहस और दृढ़ता की वह जबर्दस्त ताकत पैदा हो जाती थी जिसे शहीदों का गुण कह सकते हैं। उसके पास न दौलत थी न धार्मिक विश्वास, जो ईश्वर पर भरोसा करने और उसकी इच्छाओं के आगे सिर झुका देने का स्त्रोत है। एक छोटी-सी कपड़े की दुकान के सिवाय कोई जीविका न थी। ऐसी हालतों में उसकी हिम्मत और दृढ़ता का सोता कहॉँ छिपा हुआ है, वहॉँ तक मेरी अन्वेषण-दृष्टि नहीं पहुँचती थी।
2 बाप के मरते ही मुसीबतों ने उस पर छापा मारा कुछ थोड़ा-सा कर्ज विरासत में मिला जिसमें बराबर बढ़ते रहने की आश्चर्यजनक शक्ति छिपी हुई थी। बेचारे ने अभी बरसी से छुटकारा नहीं पाया था कि महाजन ने नालिश की और अदालत के तिलस्मी अहाते में पहुँचते ही यह छोटी-सी हस्ती इस तरह फूली जिस तरह मशक फलती है। डिग्री हुई। जो कुछ जमा-जथा थी; बर्तन-भॉँड़ें, हॉँडी-तवा, उसके गहरे पेट में समा गये। मकान भी न बचा। बेचारे मुसीबतों के मारे साईंदयाल का अब कहीं ठिकाना न था। कौड़ी-कौड़ी को मुहताज, न कहीं घर, न बार। कई-कई दिन फाके से गुजर जाते। अपनी तो खैर उन्हें जरा भी फिक्र न थी लेकिन बीवी थी, दो-तीन बच्चे थे, उनके लिए तो कोई-न-कोई फिक्र करनी पड़ती थी। कुनबे का साथ और यह बेसरोसामानी, बड़ा दर्दनाक दृश्य था। शहर से बाहर एक पेड़ की छॉँह में यह आदमी अपनी मुसीबत के दिन काट रहा था। सारे दिन बाजारों की खाक छानता। आह, मैंने एक बार उस रेलवे स्टेशन पर देखा। उसके सिर पर एक भारी बोझ था। उसका नाजुग, सुख-सुविधा में पला हुआ शरीर, पसीना-पसीना हो रहा था। पैर मुश्किल से उठते थे। दम फूल रहा था लेकिन चेहरे से मर्दाना हिम्मत और मजबूत इरादे की रोशनी टपकती थी। चेहरे से पूर्ण संतोष झलक रहा था। उसके चेहरे पर ऐसा इत्मीनान था कि जैसे यही उसका बाप-दादों का पेशा है। मैं हैरत से उसका मुंह ताकता रह गया। दुख में हमदर्दी दिखलाने की हिम्मत न हुई। कई महीने तक यही कैफियत रही। आखिरकार उसकी हिम्मत और सहनशक्ति उसे इस कठिन दुर्गम घाटी से बाहर निकल लायी।
3 थोड़े ही दिनों के बाद मुसीबतों ने फिर उस पर हमला किया। ईश्वर ऐसा दिन दुश्मन को भी न दिखलाये। मैं एक महीने के लिए बम्बई चला गया था, वहॉँ से लौटकर उससे मिलने गया। आह, वह दृश्य याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ओर दिल डर से कॉँप उठता है। सुबह का वक्त था। मैंने दरवाजे पर आवाज दी और हमेशा की तरह बेतकल्लुफ अन्दर चला गया, मगर वहॉँ साईंदयाल का वह हँसमुख चेहरा, जिस पर मर्दाना हिम्मत की ताजगी झलकती थी, नजर न आया। मैं एक महीने के बाद उनके घर जाऊँ और वह आँखों से रोते लेकिन होंठों से हँसते दौड़कर मेरे गले लिपट न जाय! जरूर कोई आफत है। उसकी बीवी सिर झुकाये आयी और मुझे उसके कमरे में ले गयी। मेरा दिल बैठ गया। साईंदयाल एक चारपाई पर मैले-कुचैले कपड़े लपेटे, आँखें बन्द किये, पड़ा दर्द से कराह रहा था। जिस्म और बिछौने पर मक्खियों के गुच्छे बैठे हुए थे। आहट पाते ही उसने मेरी तरफ देखा। मेरे जिगर के टुकड़े हो गये। हड्डियों का ढॉँचा रह गया था। दुर्बलता की इससे ज्यादा सच्ची और करुणा तस्वीर नहीं हो सकती। उसकी बीवी ने मेरी तरफ निराशाभरी आँखों से देखा। मेरी आँसू भर आये। उस सिमटे हुए ढॉँचे में बीमारी को भी मुश्किल से जगह मिलती होगी, जिन्दगी का क्या जिक्र! आखिर मैंने धीरे पुकारा। आवाज सुनते ही वह बड़ी-बड़ी आँखें खुल गयीं लेकिन उनमें पीड़ा और शोक के आँसू न थे, सन्तोष और ईश्वर पर भरोसे की रोशनी थी और वह पीला चेहरा! आह, वह गम्भीर संतोष का मौन चित्र, वह संतोषमय संकल्प की सजीव स्मृति। उसके पीलेपन में मर्दाना हिम्मत की लाली झलकती थी। मैं उसकी सूरत देखकर घबरा गया। क्या यह बुझते हुए चिराग की आखिरी झलक तो नहीं है? मेरी सहमी हुई सूरत देखकर वह मुस्कराया और बहुत धीमी आवाज में बोला—तुम ऐसे उदास क्यों हो, यह सब मेरे कर्मों का फल है।
4 मगर कुछ अजब बदकिस्मत आदमी था। मुसीबतों को उससे कुछ खास मुहब्बत थी। किसे उम्मीद थी कि वह उस प्राणघातक रोग से मुक्ति पायेगा। डाक्टरों ने भी जवाब दे दिया था। मौत के मुंह से निकल आया। अगर भविष्य का जरा भी ज्ञान होता तो सबसे पहले मैं उसे जहर दे देता। आह, उस शोकपूर्ण घटना को याद करके कलेजा मुंह को आता है। धिककार है इस जिन्दगी पर कि बाप अपनी आँखों से अपनी इकलौते बेटे का शोक देखे। कैसा हँसमुख, कैसा खूबसूरत, होनहार लड़का था, कैसा सुशील, कैसा मधुरभाषी, जालिम मौत ने उसे छॉँट लिया। प्लेग की दुहाई मची हुई थी। शाम को गिल्टी निकली और सुबह को—कैसी मनहूस, अशुभ सुबह थी—वह जिन्दगी सबेरे के चिराग की तरह बुझ गयी। मैं उस वक्त उस बच्चे के पास बैठा हुआ था और साईंदयाल दीवार का सहारा लिए हुए खामोशा आसमान की तरफ देखता था। मेरी और उसकी आँखों के सामने जालिम और बेरहम मौत ने उस बचे को हमारी गोद से छीन लिया। मैं रोते हुए साईंदयाल के गले से लिपट गया। सारे घर में कुहराम मचा हुआ था। बेचारी मॉँ पछाड़ें खा रही थी, बहनें दौड-दौड़कर भाई की लाश से लिपटती थीं। और जरा देर के लिए ईर्ष्या ने भी समवेदना के आगे सिर झुका दिया था—मुहल्ले की औरतों को आँस बहाने के लिए दिल पर जोर डालने की जरूरत न थी। जब मेरे आँसू थमे तो मैंने साईंदयाल की तरफ देखा। आँखों में तो आँसू भरे हुए थे—आह, संतोष का आँखों पर कोई बस नहीं, लेकिन चेहरे पर मर्दाना दृढ़ता और समर्पण का रंग स्पष्ट था। इस दुख की बाढ़ और तूफानों मे भी शान्ति की नैया उसके दिल को डूबने से बचाये हुए थी। इस दृश्य ने मुझे चकित नहीं स्तम्भित कर दिया। सम्भावनाओं की सीमाएँ कितनी ही व्यापक हों ऐसी हृदय-द्रावक स्थिति में होश-हवास और इत्मीनान को कायम रखना उन सीमाओं से परे है। लेकिन इस दृष्टि से साईंदयाल मानव नहीं, अति-मानव था। मैंने रोते हुए कहा—भाईसाहब, अब संतोष की परीक्षा का अवसर है। उसने दृढ़ता से उत्तर दिया—हॉँ, यह कर्मों का फल है। मैं एक बार फिर भौंचक होकर उसका मुंह ताकने लगा।
5 लेकिन साईंदयाल का यह तपस्वियों जैसा धैर्य और ईश्वरेच्छा पर भरोसा अपनी आँखों से देखने पर भी मेरे दिल में संदेह बाकी थे। मुमकिन है, जब तक चोट ताजी है सब्र का बाँध कायम रहे। लेकिन उसकी बुनियादें हिल गयी हैं, उसमें दरारें पड़ गई हैं। वह अब ज्यादा देर तक दुख और शोक की जहरों का मुकाबला नहीं कर सकता। क्या संसार की कोई दुर्घटना इतनी हृदयद्रावक, इतनी निर्मम, इतनी कठोर हो सकता है! संतोष और दृढ़ता और धैर्य और ईश्वर पर भरोसा यह सब उस आँधी के समान घास-फूस से ज्यादा नहीं। धार्मिक विश्वास तो क्या, अध्यात्म तक उसके सामने सिर झुका देता है। उसके झोंके आस्था और निष्ठा की जड़ें हिला देते हैं। लेकिन मेरा अनुमान गलत निकला। साईंदयाल ने धीरज को हाथ से न जाने दिया। वह बदस्तूर जिन्दगी के कामों में लग गया। दोस्तों की मुलाकातें और नदी के किनारे की सैर और तफरीह और मेलों की चहल-पहल, इन दिलचस्पियों में उसके दिल को खींचने की ताकत अब भी बाकी थी। मैं उसकी एक-एक क्रिया को, एक-एक बात को गौर से देखता और पढ़ता। मैंने दोस्ती के नियम-कायदों को भुलाकर उसे उस हालत में देखा जहॉँ उसके विचारों के सिवा और कोई न था। लेकिन उस हालत में भी उसके चेहरे पर वही पुरूषोचित धैर्य था और शिकवे-शिकायत का एक शब्द भी उसकी जबान पर नहीं आया।
6 इसी बीच मेरी छोटी लड़की चन्द्रमुखी निमोनिया की भेंट चढ़ गयी। दिन के धंधे से फुरसत पाकर जब मैं घर पर आता और उसे प्यार से गोद में उठा लेता तो मेरे हृदय को जो आनन्द और आत्मिक शक्ति मिलती थी, उसे शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकता। उसकी अदाएँ सिर्फ दिल को लुभानेवाली नहीं गम को भुलानेवाली हैं। जिस वक्त वह हुमककर मेरी गोद में आती तो मुझे तीनों लोक की संपत्ति मिल जाती थी। उसकी शरारतें कितनी मनमोहक थीं। अब हुक्के में मजा नहीं रहा, कोई चिलम को गिरानेवाला नहीं! खाने में मजा नहीं आता, कोई थाली के पास बैठा हुआ उस पर हमला करनेवाला नहीं! मैं उसकी लाश को गोद में लिये बिलख-बिलखकर रो रहा था। यही जी चाहता था कि अपनी जिन्दगी का खात्मा कर दूँ। यकायक मैंने साईंदयाल को आते देखा। मैंने फौरन आँसू पोंछ डाले और उस नन्हीं-सी जान को जमीन पर लिटाकर बाहर निकल आया। उस धैर्य और संतोष के देवता ने मेरी तरफ संवेदनशील की आँखों से देखा और मेरे गले से लिपटकर रोने लगा। मैंने कभी उसे इस तरह चीखें मारकर रोते नहीं देखा। रोते-रोते उसी हिचकियॉँ बंध गयीं, बेचैनी से बेसुध और बेहार हो गया। यह वही आदमी है जिसका इकलौता बेटा मरा और माथे पर बल नहीं आया। यह कायापलट क्यों?
7 इस शोक पूर्ण घटना के कई दिन बाद जबकि दुखी दिल सम्हलने लगा, एक रोज हम दोनों नदी की सैर को गये। शाम का वक्त था। नदी कहीं सुनहरी, कहीं नीली, कहीं काली, किसी थके हुए मुसाफिर की तरह धीरे-धीरे बह रही थी। हम दूर जाकर एक टीले पर बैठ गये लेकिन बातचीत करने को जी न चाहता था। नदी के मौन प्रवाह ने हमको भी अपने विचारों में डुबो दिया। नदी की लहरें विचारों की लहरों को पैदा कर देती हैं। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि प्यारी चन्द्रमुखी लहरों की गोद में बैठी मुस्करा रही है। मैं चौंक पड़ा ओर अपने आँसुओं को छिपाने के लिए नदी में मुंह धोने लगा। साईंदयाल ने कहा—भाईसाहब, दिल को मजबूत करो। इस तरह कुढ़ोगे तो जरूर बीमार हो जाओगे। मैंने जवाब दिया—ईश्वर ने जितना संयम तुम्हें दिया है, उसमें से थोड़ा-सा मुझे भी दे दो, मेरे दिल में इतनी ताकत कहॉँ। साईंदयाल मुस्कराकर मेरी तरफ ताकने लगे। मैंने उसी सिलसिले में कहा—किताबों में तो दृढ़ता और संतोष की बहुत-सी कहानियॉँ पढ़ी हैं मगर सच मानों कि तुम जैसा दृढ़, कठिनाइयों में सीधा खड़ा रहने वाला आदमी आज तक मेरी नजर से नहीं गुजरा। तुम जानते हो कि मुझे मानव स्वभाव के अध्ययन का हमेशा से शौक है लेकिन मेरे अनुभव में तुम अपनी तरह के अकेले आदमी हो। मैं यह न मानूँगा कि तुम्हारे दिल में दर्द और घुलावट नहीं है। उसे मैं अपनी आँखों से देख चुका हूँ। फिर इस ज्ञानियों जैसे संतोष और शान्ति का रहस्य तुमने कहॉँ छिपा रक्खा है? तुम्हें इस समय यह रहस्य मुझसे कहना पड़ेगा। साईंदयाल कुछ सोच-विचार में पड़ गया और जमीन की तरफ ताकते हुए बोला—यह कोई रहस्य नहीं, मेरे कर्मों का फल है। यह वाक्य मैंने चौथी बार उसकी जबान से सुना और बोला—जिन, कर्मों का फल ऐसा शक्तिदायक है, उन कर्मों की मुझे भी कुछ दीक्षा दो। मैं ऐसे फलों से क्यों वंचित रहूँ। साईंदयाल ने व्याथापूर्ण स्वर में कहा—ईश्वर न करे कि तुम ऐसा कर्म करो और तुम्हारी जिन्दगी पर उसका काला दाग लगे। मैंने जो कुछ किया है, व मुझे ऐसा लज्जाजनक और ऐसा घृणित मालूम होता है कि उसकी मुझे जो कुछ सजा मिले, मैं उसे खुशी के साथ झेलने को तैयार हूँ। आह! मैंने एक ऐसे पवित्र खानदान को, जहॉँ मेरा विश्वास और मेरी प्रतिष्ठा थी, अपनी वासनाओं की गन्दगी में लिथेड़ा और एक ऐसे पवित्र हृदय को जिसमें मुहब्बत का दर्द था, जो सौन्दर्य-वाटिका की एक अनोखी-नयी खिली हुई कली थी, और सच्चाई थी, उस पवित्र हृदय में मैंने पाप और विश्वासघात का बीज हमेशा के लिएबो दिया। यह पाप है जो मुझसे हुआ है और उसका पल्ला उन मुसीबतों से बहुत भारी है जो मेरे ऊपर अब तक पड़ी हैं या आगे चलकर पडेंगी। कोई सजा, कोई दुख, कोई क्षति उसका प्रायश्चित नहीं कर सकती। मैंने सपने में भी न सोचा था कि साईंदयाल अपने विश्वासों में इतना दृढ़ है। पाप हर आदमी से होते हैं, हमारा मानव जीवन पापों की एक लम्बी सूची है, वह कौन-सा दामन है जिस पर यह काले दाग न हों। लेकिन कितने ऐसे आदमी हैं जो अपने कर्मों की सजाओं को इस तरह उदारतापूर्वक मुस्कराते हुए झेलने के लिए तैयार हों। हम आग में कूदते हैं लेकिन जलने के लिए तैयार नहीं होते। मैं साईंदयाल को हमेशा इज्जत की निगाह से देखता हूँ, इन बातों को सुनकर मेरी नजरों में उसकी इज्जत तिगुनी हो गयी। एक मामूली दुनियादार आदमी के सीने में एक फकीर का दिल छिपा हुआ था जिसमें ज्ञान की ज्योति चमकती थी। मैंने उसकी तरफ श्रद्धापूर्ण आँखों से देखा और उसके गले से लिपटकर बोला—साईंदयाल, अब तक मैं तुम्हें एक दृढ़ स्वभाव का आदमी समझता था, लेकिन आज मालूम हुआ कि तुम उन पवित्र आत्माओं में हो, जिनका अस्तित्व संसार के लिए वरदान है। तुम ईश्वर के सच्चे भक्त हो और मैं तुम्हारे पैरों पर सिर झुकाता हूँ।
वाजिदअली शाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था , तो कोई अफीम की
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पीनक ही के मजे लेता था। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद को प्राधान्य था। शासन विभाग में, साहित्य क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में, कला कौशल में, उद्योग-धन्धों में, आहार-विहार में, सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही था। कर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में , व्यावसायी सुर में, इत्र मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त था। सभी की आँखो में विलासिता का मद छाया हुआ था। संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी। बटेर लड़ रहे है। तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है। कही चौरस बिछी हुई है। पौ बारह का शोर मचा हुआ है। कही शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे। यहाँ तक कि फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न लेकर अफीम खाते या मदक पीते। शतरंज ताश, गंजीफा खेलने में बुद्धि तीव्र होती है, विचार शक्ति का विकास होता है, पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है, ये दलील जोर के साथ पेश की जाती थी। ( इस सम्प्रदाय के लोगो से दुनिया अब भी खाली नही है।) इसलिए अगर मिर्जा सज्जाद अली और मीर रौशन अली अपना अधिकांश समय बुद्धि-तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसी जागीरें थी, जीविका की कोई चिन्ता न थी। घर बैठे चखोतियाँ करते। आखिर और करते ही क्या? प्रातःकाल दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछा कर बैठ जाते, मुहरे सज जाते और लड़ाई के दाँवपेच होने लगते थे। फिर खबर न होती थी कि कब दोपहर हुई कब तीसरा पहल, कब शाम। घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता था - 'खाना तैयार है।' यहाँ से जबाव मिलता - 'चलो आते है, दस्तर ख्वान बिछाओ।' यहाँ तक कि बावरची विवश होकर कमरे में ही खाना रख जाता था, और दोनो मित्र दोनो काम साथ-साथ करते थे। मिर्जा सज्जाद अली के घर में कोई बड़ा-बूढा न था, इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाजियाँ होती थी; मगर यह बात न थी कि मिर्जा के घर के और लोग उसके व्यवहार से खुश हो। घरवाली का तो कहना ही क्या, मुहल्ले वाले, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेषपूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे 'बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे किसी को इसकी चाट पड़े। आदमी दीन दुनिया किसी के काम का नही रहता, न घर का न घाट का। बुरा रोग है यहाँ तक कि मिर्जा की बेगम इससे इतना द्वेष था कि अवसर खोज-खोज कर पति को लताड़ती थी। पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था । वह सोचती रहती थी, तब तक उधर बाजी बिछ जाती था। और रात को जब सो जाती थी, तब कही मिर्जा जी भीतर आते थे। हाँ नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थी - 'क्या पान माँगे है? कह दो आकर ले जायँ। खाने की भी फुर्सत नही हैं? ले जाकर खाना सिर पटक दो, खायँ चाहे कुत्ते को खिलावें।' पर रूबरु वह कुछ न कह सकती थी। उनको अपने पति से उतना मलाल न था जितना मीर साहब से। उन्होंने उसका नाम मीर बिगाड़ू रख छोड़ा था। शायद मिर्जा जी अपनी सफाई देने के लिए सारा इल्जाम मीर साहब ही के सिर थोप देते थे। एक दिन बेगम साहिबा के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौड़ी से कहा - 'जाकर मिर्जा साहब को बुला लो। किसी हकीम के यहाँ से दवा लाये। दौड़, जल्दी कर।' लौड़ी गयी तो मिर्जा ने कहा - 'चल, अभी आते है।' बेगम का मिजाज गरम था। इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो, और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौड़ी से कहा - 'जाकर कह, अभी चलिए नही तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जायँगी।' मिर्जा जी बड़ी दिलचस्प बाजी खेल रहे थे, दो ही किश्तो में मीर साहब की मात हुई जाती थी, झँललाकर बोले - 'क्या ऐसा दम लबो पर है? जरा सब्र नही होता?' मीर - अरे, तो जाकर सुन ही आइए न। औरते नाजुक-मिजाज होती है। मिर्जा - जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ। दो किश्तों में आपको मात होती है। मीर - जनाब, इस भरोसे में न रहिएगा। वह चाल सोची है कि आपके मुहरे धरे रहें, औऱ मात हो जाए। पर जाइए, सुन आइए, क्यों ख्वामह-ख्वाह उनका दिल दुखाइएगा? मिर्जा - इसी बात पर मात ही कर के जाऊँगा। मीर - मै खेलूँगा ही नही। आप जाकर सुन आइए। मिर्जा - अरे यार जाना, ही पड़ेगा हकीम के यहाँ। सिर-दर्द खाक नही है, मुझे परेशान करने का बहाना है। मीर - कुछ भी हो, उनकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी। मिर्जा - अच्छा, एक चाल और चल लूँ। मीर - हरगिज नही, जब तक आप सुन न आवेंगे, मै मुहरे में हाथ न लगाऊँगा। मिर्जा साहब मजबूर होकर अन्दर गये तो बेगम साहबा ने त्योरियाँ बदल कर लेकिन कराहते हुए कहा - तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है! चाहे कोई मर ही जाय, पर उठने का नाम नही लेते! नौज कोई तुम जैसा आदमी हो! मिर्जा - क्या कहूँ, मीर साहब मानते ही न थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ। बेगम - क्या जैसे वह खुद निखट्टू ही, वैसे ह सबको समझते है? उनके भी बाल बच्चे है, या सबका सफाया कर डाला है! मिर्जा - बड़ा लती आदमी है। जब आ जाता है तब मजबूर होकर खेलना पड़ता है। बेगम - दुत्कार क्यो नही देते? मिर्जा - बराबर का आदमी है, उम्र में, दर्जें मे, मुझसे दो अंगुल ऊँचे। मुलाहिजा करना ही पड़ता है। बेगम - तो मै ही दुत्कार देती हूँ। नाराज हो जायेंगे, हो जाएँ। कौन किसी की रोटियोँ चला देता है। रानी रूठेगी, अपना सुहाग लेंगी। हिरिया, बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना, मियाँ अब न खेलेगे, आप तशरीफ ले जाइए। मिर्जा - हाँ-हाँ, कहीं ऐसा गजब भी न कर ना! जलील करना चाहती हो क्या? ठहर हिरिया, कहाँ जाती है! बेगम - जाने क्यों नही देते? मेरे ही खून पिए, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोका, मुझे रोको तो जानूँ। यह कहकर बेगम साहिबा इल्लायी हुई दीवानखाने की तरफ चली। मिर्जा बेचारे का रंग उड़ गया। बीवी की मिन्नते करने लगे - खुदा के लिए, तुम्हे हजरत हुसेन की कसम। मेरी ही मैयत देखे, जो उधर जाए।' लेकिन बेगम ने एक न मानी। दीवानखाने के द्वार तक चली गयी। पर एकाएक पर पुरुष के सामने जाते हुए पाँव बँध गए। भीतर झाँका, संयोग से कमरा खाली था; मीर साहब ने दो मुहरे इधर-उधर कर दिये थे और अपनी सफाई बताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेगम ने अन्दर पहुँच कर बाजी उलट दी; मुहरे कुछ तख्त के नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर और किवाड़ अन्दर से बन्द करके कुंड़ी लगा दी। मीर साहब दरवाजे पर तो थे ही, मुहरे बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाजा बन्द हुआ, तो समझ गये बेगम बिगड़ गयी। घर की राह ली। मिर्जा ने कहा - तुमने गजब किया। बेगम - अब, मीर साहब इधर आये तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी। इतनी लौ खुदा से लगाते तो क्या गरीब हो जाते? आप तो शतरंज खेले और मैं यहाँ चूल्हे चक्की की फिक्र में सिर खपाऊँ। बोलो, जाते हो हकीम के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है। मिर्जा घर से निकले तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे, और सारा वृतान्त कहा। मीर साहब बोले - मैने तो जब मुहरे बाहर आते देखे तभी ताजड गया। फौरन भागा। बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं। मगर आपने उन्हे यो सिर पर चढ़ा रखा है यह मुनासिब नही। उन्हें इससे क्या मतलब की आप बाहर क्या करते है। घर का इन्तजाम करना उनका काम है, दूसरी बातो से उन्हें क्या सरोकार? मिर्जा - खैर, यह तो बताइए, अब कहाँ जमाव होगा? मीर - इसका क्या गम? इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है? बस यही जमे। मिर्जा - लेकिन बेगम साहब को कैसे मनाऊँगा ? जब घर पर बैठा रहता था तब तो वह इतना बिगड़ती थी, यहाँ बैठक होग तो शायद जिन्दा न छोड़ेगी। मीर - अजी बकने भी दीजिए, दो-चार रोज में आप ही ठीक हो जायँगी। हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से जरा तन जाइए! मीर साहब की बेग किसी अज्ञात कारण से उनका घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थी। इसलिए वह उनके शतरंज प्रेम की कभी आलोचना न करती बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती तो याद दिला देती थी। इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील और गम्भीर है। लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीर साहब दिन भर घर में रहने लगे तो उन्हें बड़ा कष्ट होने लगा। उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गयी। दिन भर दरवाजे पर झाँकने को तरस जाती। उधर नौकरो में काना-फूसी होने लगी। अब तक दिन भर पड़े-पड़े मक्खियाँ मारा करते थे। घर में चाहे कोई आवे, चाहे कोई जाय, इनसे कुछ मतलब न था। आठों पहर की धौस हो गयी। कभी पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई लाने का। और हु्क्का तो किसी प्रेमी के हृदय की भाँति नित्य जलता ही रहता था। वे बेगम साहब से जा-जाकर कहते - हुजूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गई! दिन भर दौड़ते-दौड़ते पैरौ में छाले पड़ गये। यह भी कोई खेल है कि सुबह को बैठे तो शाम ही कर दी। घड़ी आध घड़ी दिल-बहलाव के लिए खेल लेना बहुत है। खैर, हमें तो कोई शिकायत नही, हुजूर के गुलाम हो, जो हुक्म होगा बजा ही लावेंगे, मगर यह खेल मनहूस है । इसका खेलने वाला कभी पनपता नही, घर पर कोई न कोई आफत जरूर आता है। यहाँ तक कि एक के पीछे मुहल्ले के मुहल्ले तबाह हो जाते देखे गये है। सारे मुहल्ले मे यही चर्चा होती रहती है । हुजूर का नमक खाते है। अपने आका की बुराई सुन-सुनकर रंज होता है। मगर क्या करे? इसपर बेगम साहिबा कहती - मै तो खुद इसको पसन्द नही करती, पर वह किसी की सुनते ही नही, क्या किया जाय? मुहल्ले में भी दो-चार पुराने जमाने के लोग थे। वे आपस में भाँति-भाँति के अमंगल की कल्पनाएँ करने लगे - अब खैरियत नही है। जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफिज। यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी। आसार बुरे है। राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फरियाद सुनने वाला न था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिची चली आती थी, और वह वेश्याओ में, भाँड़ो में और विलासता के अन्य अंगों की पूर्ति मे उड़ जाती थी। अँगरेजी कम्पनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता थी। कमली दिन-दिन भीग कर भारी होती जाती थी। देख में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी न वसूल होता था। रेसिडेन्ट बार-बार चेतावनी देता था, पर यहाँ लोग विलासिता के नशे में चूर थे। किसी के कान में जूँ न रेंगती थी। खैर, मीर साहब के दीवानखाने में शतरंज होते महीने गुजर गये। नये-नये नक्शे हल किये जाते, नये-नये बनाये जाते, नित नयी ब्यूह रचना होती; कभी-कभी खेलते-खेलते भिड़ हो जाती। तू-तू मै-मै तक की नौबत आ जाती। पर शीध्र ही दोनो में मेल हो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि बाजी उठा दी जाती. मिर्जा जी रूठ कर अपने घर में जा बैठते। पर रातभर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शान्त हो जाता था। प्रातःकाल दोनो मित्र दीवानखाने में आ पहुँचते थे। एक दिन दोनो मित्र बैठे शतरंज की दलदल में गोते लगा रहे थे कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ पहुँचा। मीर साहब के होश उड़ गये। यह क्या बला सिर पर आयी? यह तलबी किस लिये हुई ? अब खैरियत नही नजर आती! घर के दरवाजे बन्द कर लिये। नौकर से बोले - कह दो घर में नही है। सवार - घर में नही, तो कहाँ है? नौकर - यह मैं नही जानता। क्या काम है? सवार - काम तुझे क्या बतालाऊँ? हुजूर से तलबी है - शायद फौज के लिए कुछ सिपाही माँगे गये है। जागीरदार है कि दिल्लगी? मोरचे पर जाना पड़ेगा तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा। नौकर - अच्छा तो जाइए, कह दिया जायेगा। सवार - कहने की बात नही। कल मै खुद आऊँगा। साथ ले जाने का हुक्म हुआ है। सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिर्जा जी से बोले - कहिए, जनाब, अब क्या होगा? मिर्जा - बड़ी मुसीबत बै। कहीं मेरी भी तलबी न हो। मीर - कम्बख्त कल आने को कह गया है। मिर्जा - आफत है, और क्या! कहीं मोरचे पर जाना पड़ा तो बेमौत मरे। मीर - बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलें ही नही। कल से गोमती पर कहीं वीराने नें नक्शा जमें। वहाँ किसे खबर होगी? हजरत आकर लौट जायेंगे। मिर्जा - वल्लाह, आपको खूब सूझी! इसके सिवा औऱ कोई तदबीर नही है। इधर मीर साहब की बेगम उस सवार से कह रही थी - तुमने खूब ध्रता बतायी। उसने जवाब दिया - ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ। इनकी सारी अकल और हिम्मत तो शतरंजे चर ली। अब भूलकर भी घर न रहेंगे। दूसरे दिन से दोनों मित्र मुँह अँधेरे घर से निकल खड़े होते। बगल में एक छोटी-सी दरी दबाये, डिब्बे में गिलोरियाँ भरे, गोमती पार कर एक पुरानी वीरान मस्जिद में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफउद्दौला ने बनवाया था। रास्ते में तम्बाकू, चिलम औऱ मदरिया ले लेते और मस्जिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भर शतरंज खेलने बैठ जाते थे। फिर उन्हें दीन-दुनिया की फिक्र न रहती थी। 'किस्त', 'शह' आदि दो-एक शब्दों के सिवा मुँह से और कोई वाक्य नही निकलता था। कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता। दो पहर को जब भूख मालूम होती तो दोनो मित्र किसी नानबाई की दूकान पर जाकर खाना खा आते और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम क्षेत्र में डट जाते। कभी कभी तो उन्हें भोजन का भी ख्याल न रहता था। इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चो को ले-ले कर देहातो में भाग रहे थे। पर हमारे दोनो खिलाड़ियो को इसकी जरा भी फिक्र न थी। वे घर से आते तो गलियो में होकर। डर था कि कही किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाय, नही तो बेगार में पकड़े जायँ हजारो रूपये सालाना की जागीर मुफ्त में ही हजम करना चाहते थे। एक दिन दोनो मित्र मस्जिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मिर्जा की बाजी कुछ कमजोर थी। मीर साहब को किश्त पर किश्त दे रहे थे। इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिये। यह गोरो की फौज थी जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी। मीर साहब - अंगरेजी फौज आ रही है खुदा खैर करे! मिर्जा - आने दीजिए, किश्त बचाइए। लो यह किश्त! मीर - तोरखाना भी है। कोई पाँच हजार आदमी होगे, कैसे जवान है। लाल बंदरो से मुँह है। सूरत देखकर खौफ मालूम होता है। मिर्जा - जनाब, हीले न कीजिए। ये चकमें किसी और को दीजिएगा - यह किश्त! मीर - आप भी अजीब आदमी है। यहाँ तो शहर पर आफत आयी हुई है, और आपको किश्त की सूझी है। कुछ खबर है कि शहर घिर गया तो घर कैसे चलेंगे? मिर्जा - जब घर चलने का वक्त आयेगा तो देखी जाएगी - यह किश्त, बस अब की शह में मात है। फौज निकल गयी। दस बजे का समय था। फिर बाजी बिछ गयी। मिर्जा बोले - आज खाने की कैसी ठहरेगा? मीर - अजी, आज तो रोजा है। क्या आपको भूख ज्यादा मालूम होती है? मिर्जा - जी नही। शहर में जाने क्या हो रहा है? मीर - शहर में कुछ न हो रहा होगा। लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होगे। हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होगे । दोनो सज्जन फिर जो खेलने बैठे तो तीन बज गए। अब की मिर्जा की बाजी कमजोर थी। चार का गजर बज रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिदअली शाह पकड़ लिए गये थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिए जा रही थी। शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूँद भी खून नही गिरा था। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शान्ति से इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। यह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते है। यह कायरपन था जिस पर बड़े से बड़े कायर आँसू बहाते है। अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी बना चला जाता था और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी। मिर्जा ने कहा - हुजूर नवाब को जालिमों नें कैद कर लिया है। मीर - होगा, यह लीजिए शह! मिर्जा - जनाब, जरा ठहरिए। इस वक्त इधर तबीयत ठीक नही लगती। बेचारे नवाब साहब इस वक्त खून के आँसू रो रहे होंगे। मीर - रोया ही चाहे, यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा? यह किश्त। मिर्जा - किसी के दिन बराबर नही जाते। कितनी दर्दनाक हालत है। मीर - हाँ, सो तो है ही, यह लो फिर किश्त! बस अब की किश्त में मात है। बच नहीं सकते। मिर्जा - खुदा की कसम, आप बड़े बे दर्द है। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नही होता। हाय, गरीब वाजिदअली शाह! मीर - पहले अपने बादशाह को तो बचाइए, फिर नवाब का मातम कीजिएगा। यह किश्त और मात! लाना हाथ! बादशाह को लिए हुए सेना सामने से निकल गयी। उनके जाते ही मिर्जा ने फिर बाजी बिछा ली। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा - आइए नवाब के मातम में मरसिया कह डाले। लेकिन मिर्जा की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी । वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो गए थे। शाम हो गयी। खंडहर मेमं चमगादड़ो ने चीखना शुरू किया। अबाबीले आ-आकर अपने घोंसलों में चिपटी। पर दोनों खिलाड़ी डटे हुए थे। मानो दोनों खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हो। मिर्जा जी तीन बाजियाँ लगातार हार चुके थे; इस चौथी बाजी का भी रंग अच्छा न था। वह बार-बार जीतने का दृढ़निश्चय कर सँभलकर खेलते थे लेकिन एक न एक चाल ऐसी बेढ़ब आ पड़ती थी जिससे बाजी खराब हो जाती थी। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और उग्र होती जाती थी। उधर मीर साहब मारे उमंग के गजले गाते थे, चुटकियाँ लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गये हो। मिर्जा सुन-सुनकर झुझलाते और हार की झेंप मिटाने कि लिए उनकी दाद देते थे। ज्यों-ज्यों बाजी कमजोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकलता जाता था। यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे। 'जनाब' आप चाल न बदला कीजिए।यह क्या कि चाल चले औऱ फिर उसे बदल दिया जाय। जो कुछ चलना है एक बार चल दीजिए। यह आप मुहरे पर ही क्यों हाथ रखे रहते है। मुहरे छोड़ दीजिए। जब तक आपको चाल न सूझे, मुहरा छुइए ही नही। आप एक-एक चाल आध-आध घंटे में चलते है। इसकी सनद नही। जिसे एक चाल चलनें में पाँच मिनट से ज्यादा लगे उसकी मात समझी जाय। फिर आपने चाल बदली? चुपके से मुहर वही रख दीजिए। मीर साहब की फरजी पिटता था। बोले - मैने चाल चली ही कब थी? मिर्जा - आप चाल चल चुके है। मुहरा वही रख दीजिए - उसी घर में। मीर - उसमें क्यो रखूँ? हाथ से मुहरा छोड़ा कब था? मिर्जा - मुहरा आप कयामत तक न छोड़े, तो क्या चाल ही न होगी? फरजी पिटते देखा तो धाँधली करने लगे। मीर - धाँधली आप करते है। हार-जीत तकदीर से होती है। धाँधली करने से कोई नही जीतता। मिर्जा - तो इस बाजी में आपकी मात हो गयी। मीर - मुझे क्यो मात होने लगी? मिर्जा - तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था। मीर - वहाँ क्यो रखूँ? नही रखता। मिर्जा - क्यों न रखिएगा? आपको रखना होगा। तकरार बढ़ने लगी। दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। न यह दबता था, न वह। अप्रासंगिक बाते होने लगी। मिर्जा बोले - किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती तब तो इसके कायदे जानते। वो तो हमेशा घास छीला किए, आप शतरंज क्या खेलिएगा? रियासत और ही चीज है। जागीर मिल जाने ही से कोई रईस नही हो जाता। मीर - क्या! घास आपके अब्बाजन छीलते होगे। यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आते है? मिर्जा - अजी जाइए भी, गाजीउद्दीन हैदर के यहाँ बावर्ची का काम करते-करते उम्र गुजर गयी। आज रईस बनने चले है। रईस बनना कुछ दिल्लगी नही। मीर - क्यो अपने बुजुर्गो के मुँह पर कालिख लगाते हो - वे बावर्ची का काम करते होंगे। यहाँ तो बादशाह के दस्तर ख्वान पर खाना खाते चले आये है। मिर्जा - अरे चल चरकटे, बहुत बढ़कर बातें न कर! मीर - जबान सँभालिए, वर्ना बुरा होगा। मै ऐसी बातें सुनने का आदी नही। यहाँ तो किसी ने आँखे दिखायी कि उसकी आँखें निकाली । है हौसला? मिर्जा - आप मेरा हौसला देखना चाहते है, तो फिर आइए, आज दो-दो हाथ हो जायँ, इधर या उधर। मीर - तो यहाँ तुमसे दबने वाला कौन है? दोनो दोस्तों ने कमर से तलवारे निकाल ली। नवाबी जमाना था। सभी तलवार, पेशकब्ज कटार वगैरह बाँधते थे। दोनो विलासी थे, पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था। बादशाह के लिए क्यों मरे? पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनो ने पैतरे बदले, तलवारे चमकी, छपाछप की आवाजे आयी। दोनो जख्मी होकर गिरे, दोनो न वहीं तड़प-तड़प कर जाने दी। अपने बादशाह के लिए उनकी आँखों से एक बूँद आँसू न निकला, उन्होने शतरंज के वजीर की रक्षा नें प्राण दे दिए। अँधेरा हो चला था। बाजी बिछी हुई थी। दोनो बादशाह अपने-अपने सिहांसन पर बैठे मानो इन वीरो की मृत्यु पर रो रहे थे। चारो तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। खँडहर की टूटी हुई, मेहराबे गिरी हुई दीवारे और धूल-धूसरितें मीनारे इन लाशों को देखती और सिर धुनती थी।
क्या 01 मई विश्व मजदूर दिवस है। यदि हाँ तो सभी को बधाई। । आज भारत कृषि प्रधान देश नहीं है। आज यह मजदूर प्रधान देश बन चुका है। और धीरे धीरे मजबूर प्रधान देश बनता जा रहा है। । हमारे विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने में विदेशों में काम
...
कर रहे उन मजदूरों का विशेष योगदान है जिनके बाल-बच्चे, माता-पिता आदि भारत में रहते हैं। । बहुत से मजदूर अपनी कमाई का बड़ा भाग अय्याशी में बर्बाद कर देते हैं और उनकी बीवी-बेटियां आदि पैसे की कमी के चलते शोषण करवाने को मजबूर होती हैं। । आज के इस शुभ अवसर पर मैं दुआ करता हूँ कि देश में कठोर परिवार नियोजन कानून लागू किया जाये ताकि हमारे देश को मजदूर प्रधान देश से मजबूर प्रधान देश में तब्दील होने से रोका जा सके।
ट्रैन के ए.सी. कम्पार्टमेंट में मेरे सामने की सीट पर बैठी लड़की ने मुझसे पूछा " हैलो, क्या आपके पास इस मोबाइल की पिन है??"
उसने अपने बैग से एक फोन निकाला था, और नया सिम कार्ड उसमें डालना चाहती थी। लेकिन सिम स्लॉट खोलने
...
के लिए पिन की जरूरत पड़ती है जो उसके पास नहीं थी। मैंने हाँ में गर्दन हिलाई और सीट के नीचे से अपना बैग निकालकर उसके टूल बॉक्स से पिन ढूंढकर लड़की को दे दी। लड़की ने थैंक्स कहते हुए पिन ले ली और सिम डालकर पिन मुझे वापिस कर दी।
थोड़ी देर बाद वो फिर से इधर उधर ताकने लगी, मुझसे रहा नहीं गया.. मैंने पूछ लिया "कोई परेशानी??"
वो बोली सिम स्टार्ट नहीं हो रही है, मैंने मोबाइल मांगा, उसने दिया। मैंने उसे कहा कि सिम अभी एक्टिवेट नहीं हुई है, थोड़ी देर में हो जाएगी। और एक्टिव होने के बाद आईडी वेरिफिकेशन होगा उसके बाद आप इसे इस्तेमाल कर सकेंगी।
लड़की ने पूछा, आईडी वेरिफिकेशन क्यों??
मैंने कहा " आजकल सिम वेरिफिकेशन के बाद एक्टिव होती है, जिस नाम से ये सिम उठाई गई है उसका ब्यौरा पूछा जाएगा बता देना"
लड़की बुदबुदाई "ओह्ह "
मैंने दिलासा देते हुए कहा "इसमे कोई परेशानी की कोई बात नहीं"
वो अपने एक हाथ से दूसरा हाथ दबाती रही, मानो किसी परेशानी में हो। मैंने फिर विन्रमता से कहा "आपको कहीं कॉल करना हो तो मेरा मोबाइल इस्तेमाल कर लीजिए"
लड़की ने कहा "जी फिलहाल नहीं, थैंक्स, लेकिन ये सिम किस नाम से खरीदी गई है मुझे नहीं पता"
मैंने कहा "एक बार एक्टिव होने दीजिए, जिसने आपको सिम दी है उसी के नाम की होगी"
उसने कहा "ओके, कोशिस करते हैं"
मैंने पूछा "आपका स्टेशन कहाँ है??"
लड़की ने कहा "दिल्ली"
और आप?? लड़की ने मुझसे पूछा
मैंने कहा "दिल्ली ही जा रहा हूँ, एक दिन का काम है, आप दिल्ली में रहती हैं या...?"
लड़की बोली "नहीं नहीं, दिल्ली में कोई काम नहीं ना मेरा घर है वहाँ"
तो? मैंने उत्सुकता वश पूछा
वो बोली "दरअसल ये दूसरी ट्रेन है, जिसमे आज मैं हूँ, और दिल्ली से तीसरी गाड़ी पकड़नी है, फिर हमेशा के लिए आज़ाद"
आज़ाद?? लेकिन किस तरह की कैद से?? मुझे फिर जिज्ञासा हुई किस कैद में थी ये कमसिन अल्हड़ सी लड़की..
लड़की बोली, उसी कैद में थी जिसमें हर लड़की होती है। जहाँ घरवाले कहे शादी कर लो, जब जैसा कहे वैसा करो। मैं घर से भाग चुकी हुँ..
मुझे ताज्जुब हुआ मगर अपने ताज्जुब को छुपाते हुए मैंने हंसते हुए पूछा "अकेली भाग रही हैं आप? आपके साथ कोई नजर नहीं आ रहा? "
वो बोली "अकेली नहीं, साथ में है कोई"
कौन? मेरे प्रश्न खत्म नहीं हो रहे थे
दिल्ली से एक और ट्रेन पकड़ूँगी, फिर अगले स्टेशन पर वो मिलेगा, और उसके बाद हम किसी को नहीं मिलेंगे..
ओह्ह, तो ये प्यार का मामला है।
उसने कहा "जी"
मैंने उसे बताया कि 'मैंने भी लव मैरिज की है।'
ये बात सुनकर वो खुश हुई, बोली "वाओ, कैसे कब?" लव मैरिज की बात सुनकर वो मुझसे बात करने में रुचि लेने लगी
मैंने कहा "कब कैसे कहाँ? वो मैं बाद में बताऊंगा पहले आप बताओ आपके घर में कौन कौन है?
उसने होशियारी बरतते हुए कहा " वो मैं आपको क्यों बताऊं? मेरे घर में कोई भी हो सकता है, मेरे पापा माँ भाई बहन, या हो सकता है भाई ना हो सिर्फ बहने हो, या ये भी हो सकता है कि बहने ना हो और 2-4 मुस्टंडे भाई हो"
मतलब मैं आपका नाम भी नहीं पूछ सकता "मैंने काउंटर मारा"
वो बोली, 'कुछ भी नाम हो सकता है मेरा, टीना, मीना, शबीना, अंजली कुछ भी'
बहुत बातूनी लड़की थी वो.. थोड़ी इधर उधर की बातें करने के बाद उसने मुझे ट्रॉफी दी जैसे छोटे बच्चे देते हैं क्लास में, बोली आज मेरा बर्थडे है।
मैंने उसकी हथेली से ट्रॉफी उठाते बधाई दी और पूछा "कितने साल की हुई हो?"
वो बोली "18"
"मतलब भागकर शादी करने की कानूनी उम्र हो गई आपकी" मैंने काउंटर किया
वो "हंसी"
कुछ ही देर में काफी फ्रैंक हो चुके थे हम दोनों। जैसे बहुत पहले से जानते हो एक दूसरे को..
मैंने उसे बताया कि "मेरी उम्र 28 साल है, यानि 10 साल बड़ा हुँ"
उसने चुटकी लेते हुए कहा "लग भी रहे हो"
मैं मुस्कुरा दिया
मैंने उसे पूछा "तुम घर से भागकर आई हो, तुम्हारे चेहरे पर चिंता के निशान जरा भी नहीं है, इतनी बेफिक्री मैंने पहली बार देखी"
खुद की तारीफ सूनकर वो खुश हुई, बोली "मुझे उसने(प्रेमी ने) पहले से ही समझा दिया था कि जब घर से निकलो तो बिल्कुल बिंदास रहना, घरवालों के बारे में बिल्कुल मत सोचना, बिल्कुल अपना मूड खराब मत करना, सिर्फ मेरे और हम दोनों के बारे में सोचना और मैं वही कर रही हूँ"
मैंने फिर चुटकी ली, कहा "उसने तुम्हे मुझ जैसे अनजान मुसाफिरों से दूर रहने की सलाह नहीं दी?"
उसने हंसकर जवाब दिया "नहीं, शायद वो भूल गया होगा ये बताना"
मैंने उसके प्रेमी की तारीफ करते हुए कहा " वैसे तुम्हारा बॉय फ्रेंड काफी टेलेंटेड है, उसने किस तरह से तुम्हे अकेले घर से रवाना किया, नई सिम और मोबाइल दिया, तीन ट्रेन बदलवाई.. ताकि कोई ट्रेक ना कर सके, वेरी टेलेंटेड पर्सन"
लड़की ने हामी भरी,बोली " बोली बहुत टेलेंटेड है वो, उसके जैसा कोई नहीं"
मैंने उसे बताया कि "मेरी शादी को 5 साल हुए हैं, एक बेटी है 2 साल की, ये देखो उसकी तस्वीर"
मेरे फोन पर बच्ची की तस्वीर देखकर उसके मुंह से निकल गया "सो क्यूट"
मैंने उसे बताया कि "ये जब पैदा हुई, तब मैं कुवैत में था, एक पेट्रो कम्पनी में बहुत अच्छी जॉब थी मेरी, बहुत अच्छी सेलेरी थी.. फिर कुछ महीनों बाद मैंने वो जॉब छोड़ दी, और अपने ही कस्बे में काम करने लगा।"
लड़की ने पूछा जॉब क्यों छोड़ी??
मैंने कहा "बच्ची को पहली बार गोद में उठाया तो ऐसा लगा जैसे जन्नत मेरे हाथों में है, 30 दिन की छुट्टी पर घर आया था, वापस जाना था लेकिन जा ना सका। इधर बच्ची का बचपन खर्च होता रहे उधर मैं पूरी दुनिया कमा लूं, तब भी घाटे का सौदा है। मेरी दो टके की नौकरी, बचपन उसका लाखों का.."
उसने पूछा "क्या बीवी बच्चों को साथ नहीं ले जा सकते थे वहाँ?"
मैंने कहा "काफी टेक्निकल मामलों से गुजरकर एक लंबी अवधि के बाद रख सकते हैं, उस वक्त ये मुमकिन नहीं था.. मुझे दोनों में से एक को चुनना था, आलीशान रहन सहन के साथ नौकरी या परिवार.. मैंने परिवार चुना अपनी बेटी को बड़ा होते देखने के लिए। मैं कुवैत वापस गया था, लेकिन अपना इस्तीफा देकर लौट आया।"
लड़की ने कहा "वेरी इम्प्रेसिव"
मैं मुस्कुराकर खिड़की की तरफ देखने लगा
लड़की ने पूछा "अच्छा आपने तो लव मैरिज की थी न,फिर आप भागकर कहाँ गए?? कैसे रहे और कैसे गुजरा वो वक्त??
उसके हर सवाल और हर बात में मुझे महसूस हो रहा था कि ये लड़की लकड़पन के शिखर पर है, बिल्कुल नासमझ और मासूम।
मैंने उसे बताया कि हमने भागकर शादी नहीं की, और ये भी है कि उसके पापा ने मुझे पहली नजर में सख्ती से रिजेक्ट कर दिया था।"
उन्होंने आपको रिजेक्ट क्यों किया?? लड़की ने पूछा
मैंने कहा "रिजेक्ट करने की कुछ भी वजूहात हो सकती है, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा कुल कबीला घर परिवार नस्ल या नक्षत्र..इन्ही में से कोई काट होती है जिसके इस्तेमाल से जुड़ते हुए रिश्तों की डोर को काटा जा सकता है"
"बिल्कुल सही", लड़की ने सहमति दर्ज कराई और आगे पूछा "फिर आपने क्या किया?"
मैंने कहा "मैंने कुछ नहीं किया,उसके पिता ने रिजेक्ट कर दिया वहीं से मैंने अपने बारे में अलग से सोचना शुरू कर दिया था। खुशबू ने मुझे कहा कि भाग चलते हैं, मेरी वाइफ का नाम खुशबू है..मैंने दो टूक मना कर दिया। वो दो दिन तक लगातार जोर देती रही, कि भाग चलते हैं। मैं मना करता रहा.. मैंने उसे समझाया कि "भागने वाले जोड़े में लड़के की इज़्ज़त वकार पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता, जबकि लड़की का पूरा कुल धुल जाता है। फिल्मों में नायक ही होता है जो अपनी प्रेमिका को भगा ले जाए और वास्तविक जीवन में भी प्रेमिका को भगाकर शादी करने वाला नायक ही माना जाता है। लड़की भगाने वाले लड़के के दोस्तों में उस लड़के का दर्जा बुलन्द हो जाता है, भगाने वाला लड़का हीरो माना जाता है लेकिन इसके विपरीत जो लड़की प्रेमी संग भाग रही है वो कुल्टा कहलाती है, मुहल्ले के लड़के उसे चालू ठीकरा कहते हैं। बुराइयों के तमाम शब्दकोष लड़की के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। भागने वाली लड़की आगे चलकर 60 साल की वृद्धा भी हो जाएगी तब भी जवानी में किये उस कांड का कलंक उसके माथे पर से नहीं मिटता। मैं मानता हूँ कि लड़का लड़की को तौलने का ये दोहरा मापदंड गलत है, लेकिन है तो सही.. ये नजरिया गलत है मगर अस्तित्व में है, लोगों के अवचेतन में भागने वाली लड़की की भद्दी तस्वीर होती है। मैं तुम्हारी पीठ को छलनी करके सुखी नहीं रह सकता, तुम्हारे माँ बाप को दुखी करके अपनी ख्वाहिशें पूरी नहीं कर सकता।"
वो अपने नीचे का होंठ दांतो तले पीसने लगी, उसने पानी की बोतल का ढक्कन खोलकर एक घूंट अंदर सरकाया।
मैंने कहा अगर मैं उस दिन उसे भगा ले जाता तो उसकी माँ तो शायद कई दिनों तक पानी भी ना पीती। इसलिए मेरी हिम्मत ना हुई कि ऐसा काम करूँ.. मैं जिससे प्रेम करूँ उसके माँ बाप मेरे माँ बाप के समान ही है। चाहे शादी ना हो, तो ना हो।
कुछ पल के लिए वो सोच में पड़ गई , लेकिन मेरे बारे में और अधिक जानना चाहती थी, उसने पूछा "फिर आपकी शादी कैसे हुई???
मैंने बताया कि " खुशबू की सगाई कहीं और कर दी गई थी। धीरे धीरे सबकुछ नॉर्मल होने लगा था। खुशबू और उसके मंगेतर की बातें भी होने लगी थी फोन पर, लेकिन जैसे जैसे शादी नजदीक आने लगी, उन लोगों की डिमांड बढ़ने लगी"
डिमांड मतलब 'लड़की ने पूछा'
डिमांड का एक ही मतलब होता है, दहेज की डिमांड। परिवार में सबको सोने से बने तोहफे दो, दूल्हे को लग्जरी कार चाहिए, सास और ननद को नेकलेस दो वगैरह वगैरह, बोले हमारे यहाँ रीत है। लड़का भी इस रीत की अदायगी का पक्षधर था। वो सगाई मैंने येन केन प्रकरेण तुड़वा डाली.. फिर किसी तरह घरवालों को समझा बुझा कर मैं फ्रंट पर आ गया और हमारी शादी हो गई। ये सब किस्मत की बात थी..
लड़की बोली "चलो अच्छा हुआ आप मिल गए, वरना वो गलत लोगों में फंस जाती"
मैंने कहा "जरूरी नहीं कि माँ पापा का फैसला हमेशा सही हो, और ये भी जरूरी नहीं कि प्रेमी जोड़े की पसन्द सही हो.. दोनों में से कोई भी गलत या सही हो सकता है.. नुक्ते की बात यहाँ ये है कि कौन ज्यादा फरमाबरदार और वफादार है।"
लड़की ने फिर से पानी का घूंट लिया और मैंने भी.. लड़की ने तर्क दिया कि "हमारा फैसला गलत हो जाए तो कोई बात नहीं, उन्हें ग्लानि नहीं होनी चाहिए"
मैंने कहा "फैसला ऐसा हो जो दोनों का हो, औलाद और माता पिता दोनों की सहमति, वो सबसे सही है। बुरा मत मानना मैं कहना चाहूंगा कि तुम्हारा फैसला तुम दोनों का है, जिसमे तुम्हारे पेरेंट्स शामिल नहीं है, ना ही तुम्हे इश्क का असली मतलब पता है अभी"
उसने पूछा "क्या है इश्क़ का सही अर्थ?"
मैंने कहा "तुम इश्क में हो, तुम अपना सबकुछ छोड़कर चली आई ये इश्क़ है, तुमने अक़्ल का दखल नहीं दिया ये इश्क है, नफा नुकसान नहीं सोचा ये इश्क है...तुम्हारा दिमाग़ दुनियादारी के फितूर से बिल्कुल खाली था, उस खाली स्पेस में इश्क इनस्टॉल कर दिया गया। जिसने इश्क को इनस्टॉल किया वो इश्क में नहीं है.. यानि तुम जिसके साथ जा रही हो वो इश्क में नहीं, बल्कि होशियारी हीरोगिरी में है। जो इश्क में होता है वो इतनी प्लानिंग नहीं कर पाता है, तीन ट्रेनें नहीं बदलवा पाता है, उसका दिमाग इतना काम ही नहीं कर पाता.. कोई कहे मैं आशिक हुँ, और वो शातिर भी हो ये नामुमकिन है। मजनू इश्क में पागल हो गया था, लोग पत्थर मारते थे उसे, इश्क में उसकी पहचान तक मिट गई। उसे दुनिया मजून के नाम से जानती है जबकि उसका असली नाम कैस था जो नहीं इस्तेमाल किया जाता। वो शातिर होता तो कैस से मजनू ना बन पाता। फरहाद ने शीरीं के लिए पहाड़ों को खोदकर नहर निकाल डाली थी और उसी नहर में उसका लहू बहा था, वो इश्क़ था। इश्क़ में कोई फकीर हो गया, कोई जोगी हो गया, किसी मांझी ने पहाड़ तोड़कर रास्ता निकाल लिया..किसी ने अतिरिक्त दिमाग़ नहीं लगाया.. लालच हिर्स और हासिल करने का नाम इश्क़ नहीं है.. इश्क समर्पण करने को कहते हैं जिसमें इंसान सबसे पहले खुद का समर्पण करता है, जैसे तुमने किया, लेकिन तुम्हारा समर्पण हासिल करने के लिए था, यानि तुम्हारे इश्क में हिर्स की मिलावट हो गई । डॉ इकबाल का शेर है "अक़्ल अय्यार है सौ भेष बदल लेती है इश्क बेचारा ना मुल्ला है, ना ज़ाहिद, ना हकीम"
लकड़ी अचानक से खो सी गई.. उसकी खिलख़िलाहट और लपड़ापन एकदम से खमोशी में बदल गया.. मुझे लगा मैं कुछ ज्यादा बोल गया, फिर भी मैंने जारी रखा, मैंने कहा " प्यार तुम्हारे पापा तुमसे करते हैं, कुछ दिनों बाद उनका वजन आधा हो जाएगा, तुम्हारी माँ कई दिनों तक खाना नहीं खाएगी ना पानी पियेगी.. जबकि आपको अपने प्रेमी को आजमा कर देख लेना था, ना तो उसकी सेहत पर फर्क पड़ता, ना दिमाग़ पर, वो अक्लमंद है, अपने लिए अच्छा सोच लेता। आजकल गली मोहल्ले के हर तीसरे लौंडे लपाडे को जो इश्क हो जाता है, वो इश्क नहीं है, वो सिनेमा जैसा कुछ है। एक तरह की स्टंटबाजी, डेरिंग, अलग कुछ करने का फितूर..और कुछ नहीं।
लड़की का चेहरे का रंग बदल गया, ऐसा लग रहा था वो अब यहाँ नहीं है, उसका दिमाग़ किसी अतीत में टहलने निकल गया है। मैं अपने फोन को स्क्रॉल करने लगा.. लेकिन मन की इंद्री उसकी तरफ थी।
थोड़ी ही देर में उसका और मेरा स्टेशन आ गया.. बात कहाँ से निकली थी और कहाँ पहुँच गई.. उसके मोबाइल पर मैसेज टोन बजी, देखा, सिम एक्टिवेट हो चुकी थी.. उसने चुपचाप बैग में से आगे का टिकट निकाला और फाड़ दिया.. मुझे कहा एक कॉल करना है, मैंने मोबाइल दिया.. उसने नम्बर डायल करके कहा "सोरी पापा, और सिसक सिसक कर रोने लगी, सामने से पापा फोन पर बेटी को संभालने की कोशिश करने लगे.. उसने कहा पापा आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए मैं घर आ रही हूँ..दोनों तरफ से भावनाओ का सागर उमड़ पड़ा"
हम ट्रेन से उतरे, उसने फिर से पिन मांगी, मैंने पिन दी.. उसने मोबाइल से सिम निकालकर तोड़ दी और पिन मुझे वापस कर दी।
पीए- सर नोटबन्दी के कारण घाटी में इतने आतंकवादी बचे ही नहीं। मोदी- तो सीमा पार जाकर मारें।
पीए- सर, सर्जिकल स्ट्राइक के कारण वहां भी नहीं बचे। मोदी- यह तो बढ़िया बात है।
पीए- लेकिन
...
सर, पब्लिक 1 के बदले 10 सिर मांग रही है। मोदी- कह दो 2030 तक ला देंगे।
पीए- सर, जनता चाहती है कि इस संकट की घड़ी में आप राजनीति न करो, मोदी- जनता को कौन भड़का रहा है। पीए- भक्त जनता से कहते हैं कि संकट की इस घड़ी में राजनीति मत करो। मोदी- सही तो कह रहे हैं। पीए- सर, जनता भी तो यही कह रही है।
मोदी- तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ। पीए- देश की सुरक्षा की चिंता कीजिये। मोदी- पूरा देश कर तो रहा है। पीए- सर आप भी कीजिये। मोदी- मैंने रैलियों में लफ्फाजी सीखी है और वही कर रहा हूँ। मैंने बीवी को छोड़ा तो मोहल्ला पकड़ लिया। मोहल्ले को छोड़ा तो जिला पकड़ लिया। जिले को छोड़ा तो प्रदेश पकड़ लिया। प्रदेश को छोड़ा तो देश पकड़ लिया। अब अगर देश को भी छोड़ना पड़ेगा तो दुनिया पकड़ लूंगा। और जब दुनिया छोड़नी पड़ेगी तो छोड़ दूंगा। अब उम्र ही कितनी बची है।
पीए- सर अम्बानी जी काल पर हैं। मोदी- हेलो सर क्या आदेश है। अम्बानी- मोदी जी आप चुनावी रैलियों पर ध्यान दीजिए। फेसबुक को तो मैं जब भी चाहूंगा बन्द कर दूंगा।