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क्रम संख्या नॉमिनल रोल रजिस्टर की क्रम संख्या एप्लीकेशन नं0 स्वयंसेवक का नाम पिता का नाम जिला जन्मतिथि मोबाइल नं0 मंडल स्तर पर की गयी कार्यवाही की स्थिति मुख्यालय स्तर पर की गयी कार्यवाही की स्थिति
क्रम संख्या नॉमिनल रोल रजिस्टर की क्रम संख्या एप्लीकेशन नं0 स्वयंसेवक का नाम पिता का नाम जिला जन्मतिथि मोबाइल नं0 मंडल स्तर पर की गयी कार्यवाही की स्थिति मुख्यालय स्तर पर की गयी कार्यवाही की स्थिति
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क्रम संख्या, एप्लीकेशन नं0, स्वयंसेवक का नाम, पिता का नाम, माता का नाम, जन्मतिथि, लिंग, श्रेणी, लम्बाई(सेमी0), सीना(सेमी0), शिक्षा, विशेष योग्यता, पोस्ट/पद, आधार नं0, पैन नं0,
1002 PRD20504 VIPAT MOTI SAMUDRA 07/05/1968 MALE OBC 168 89 8 PASS -NA RAKSHAK 504918131784 -NA
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907 PRD17718 BANSI LAL MANGRE DHANVASA 01/01/1971 MALE GENERAL 170 91 8 PASS -NA RAKSHAK 365638122081 -NA
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706 PRD13509 DHARNIDHAR BHAGWATI PRASD MATESAWARIDEVI 01/12/1997 MALE GENERAL 169 90 8 PASS --Select-- RAKSHAK 388729689889 -NA
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600 PRD12403 RAGHAV RAM RAJESWARI SHANTI DEVI 01/01/1965 MALE GENERAL 170 86 5 PASS --Select-- RAKSHAK 483652242363 -NA
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401 PRD10908 PREM CHAND KRIPARAM DUBE YASHODA DEVI 01/02/1985 MALE GENERAL 170 92 8 PASS --Select-- RAKSHAK 248370098610 -NA
402 PRD10912
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SHYAMATA PRASAD DHODI LAL RAM RANI 12/08/1980 MALE GENERAL 171 91 10 PASS --Select-- RAKSHAK 208552448456 -NA
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1 PRD7741 SHAUKAT ALI ABDUL RAHMAN KAALAWATI 01/01/1968 MALE GENERAL 167 80 GRADUATE -NA- RAKSHAK 505760429646 BURPA4793G
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1133 PRD28923 KAMLESH KUMAR NARAYAN KAMLA DEVI 01/01/1979 MALE GENERAL 170 90 8 PASS -NA- RAKSHAK 78882340755026 -NA-
आरक्षण में रोस्टर आखिर है क्या,जिसे लेकर मचा हुआ है देश में हंगामा -अरविन्द कुमार
रोस्टर एक विधि है, जिसके जरिये नौकरियों में आरक्षण लागू किया जाता है. लेकिन अगर इसे लागू न किया जाए या लागू करने में बेईमानी हो तो आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों की
...
धज्जियां उड़ जाती हैं.
संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 16(4) के तहत पिछड़े वर्गों (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्ग) का पर्य़ाप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान किया है. लेकिन आरक्षण को कैसे लागू किया जाये, इसको लेकर देशभर के विश्वविद्यालय सत्तापक्ष की मिलीभगत से अड़ंगेबाजी करते रहे. इसका परिणाम रहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों का रिज़र्वेशन विश्वविद्यालयों में महज कागज की शोभा बनकर रह गया. यही हाल मण्डल कमीशन की संस्तुतियों के आधार पर लागू हुए ओबीसी रिज़र्वेशन का रहा.
विश्वविद्यालय लंबे समय तक अपनी स्वायत्तता का हवाला देकर आरक्षण लागू करने से ही मना करते रहे, लेकिन जब सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी दबाव बनने लगा तो उन्होंने आरक्षण लागू करने की हामी तो भरी, लेकिन इसमें तमाम ऐसे चालबाजी कर दी, जिससे कि यह प्रभावी ढंग से लागू ही न हो पाये. इस चालबाजी में प्रमुख हैं-
– विभाग को आरक्षण लागू करने के लिए यूनिट बनाना – एक एक पद के लिए विशेष योग्यता जोड़ना, ताकि कैंडीडेट ही न मिले, – विभागों को छोटा-छोटा करना, ताकि आरक्षित वर्ग के लिए कभी सीट ही नहीं आए
इन चालबाजियों का परिणाम रहा कि विश्वविद्यालयों में आरक्षण ऐसे लागू हुआ, जिससे कि आरक्षित वर्ग को न्यूनतम सीटें मिलें. इस तरह की नीतियों का ही परिणाम है कि आज भी विश्वविद्यलयों में आरक्षित समुदाय के प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और असिस्टेंट प्रोफेसरों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है. अभी हाल ही में छपी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि देशभर के विश्वविद्यालयों में आरक्षण लागू होने के बावजूद भी आरक्षित समुदाय के प्राध्यापकों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है.
रोस्टर का जन्म:-
2006 में उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी आरक्षण लागू करने के दौरान विश्वविद्यालय में नियुक्तयों का मामला केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार के सामने आया. चूंकि इस बार आरक्षण उस सरकार के समय में लागू हो रहा था, जिसमें आरजेडी, डीएमके, पीएमके, जेएमएम जैसे पार्टियां शामिल थीं, जो कि सामाजिक न्याय की पक्षधर रहीं हैं, इसलिए पुराने खेल की गुंजाइश काफी कम हो गयी थी. अतः केंद्र सरकार के डीओपीटी मंत्रालय ने यूजीसी को दिसंबर 2005 में एक पत्र भेजकर विश्वविद्यालयों में आरक्षण लागू करेने में आ रही विसंगतियों को दूर करने के लिए कहा. उस पत्र के अनुपालन में यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर वीएन राजशेखरन पिल्लई ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर रावसाहब काले जो कि आगे चलकर गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति भी बनाए गए थे, की अध्यक्षता में आरक्षण लागू करने के लिए एक फॉर्मूला बनाने हेतु एक तीन सदस्यीय कमेटी का गठन किया था, जिसमें कानूनविद प्रोफेसर जोश वर्गीज़ और यूजीसी के तत्कालीन सचिव डॉ आरके चौहान सदस्य थे.
प्रोफेसर काले कमेटी ने भारत सरकार के डीओपीटी मंत्रालय की 02 जुलाई 1997 की गाइडलाइन जो कि सुप्रीम कोर्ट के सब्बरवाल जजमेंट के आधार पर बनी है, को ही आधार बनाकर 200 पॉइंट का रोस्टर बनाया. इस रोस्टर में किसी विश्वविद्यालय के सभी विभाग में कार्यरत असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर का तीन स्तर पर कैडर बनाने की सिफारिश की गयी. इस कमेटी ने विभाग के बजाय, विश्वविद्यालय/कालेज को यूनिट मानकर आरक्षण लागू करने की सिफारिश की, क्योंकि उक्त पदों पर नियुक्तियां विश्वविद्यालय करता है, न कि उसका विभाग. अलग-अलग विभागों में नियुक्त प्रोफेसरों की सैलरी और सेवा शर्तें भी एक ही होती हैं, इसलिए भी कमेटी ने उनको एक कैडर मानने की सिफारिश की थी.
रोस्टर 200 पॉइंट का क्यों, 100 पॉइंट का क्यों नहीं?
काले कमेटी ने रोस्टर को 100 पॉइंट पर न बनाकर 200 पॉइंट पर बनाया, क्योंकि अनुसूचित जातियों को 7.5 प्रतिशत ही आरक्षण है. अगर यह रोस्टर 100 पॉइंट पर बनता है तो अनुसूचित जातियों को किसी विश्वविद्यालय में विज्ञापित होने वाले 100 पदों में से 7.5 पद देने होते, जो कि संभव नहीं है.
अतः कमेटी ने अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और ओबीसी को 100 प्रतिशत में दिये गए क्रमशः 7.5, 15, 27 प्रतिशत आरक्षण को दो से गुणा कर दिया, जिससे यह निकलकर आया कि 200 प्रतिशत में अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और ओबीसी को क्रमश: 15, 30, 54 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा. यानि अगर एक विश्वविद्यालय में 200 सीट हैं, तो उसमें अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, और ओबीसी को क्रमशः 15, 30, और 54 सीटें मिलेंगी, जो कि उनके 7.5, 15, 27 प्रतिशत आरक्षण के अनुसार हैं.
सीटों की संख्या का गणित सुलझाने के बाद कमेटी के सामने यह समस्या आई की यह कैसे निर्धारित किया जाये कि कौन सी सीट किस समुदाय को जाएगी? इस पहेली को सुलझाने के लिए कमेटी ने हर सीट पर चारों वर्गों की हिस्सेदारी देखने का फॉर्मूला अपनाया. मसलन, अगर किसी संस्थान में केवल एक सीट है, तो उसमें अनारक्षित वर्ग की हस्सेदारी 50.5 प्रतिशत होगी, ओबीसी की हिस्सेदारी 27 प्रतिशत होगी, एससी की हिस्सेदारी 15 प्रतिशत होगी, और एसटी की हिस्सेदारी 7.5 प्रतिशत होगी. चूंकि इस विभाजन में सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है, इसलिए पहली सीट अनारक्षित रखी जाती है.
पहली सीट के अनारक्षित रखने का एक और लॉजिक यह है कि यह सीट सैद्धांतिक रूप से सभी वर्ग के उम्मीदवारों के लिए खुली होगी. यह अलग बात है कि धीरे-धीरे यह माना जाने लगा है कि अनारक्षित सीट का मतलब सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण. इस फॉर्मूले के आधार पर कमेटी ने सीट की स्थिति का निर्धारण करने के लिए 200 नंबर का एक चार्ट बना दिया, जिसको कि 200 पॉइंट का रोस्टर कहते हैं. इस रोस्टर के अनुसार अगर किसी विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कुल 200 पद हैं, तो उनका वितरण निम्न प्रकार होगा.
अनारक्षितः 01,02,03,05,06,09 वां……समेत बाकी सभी पद जो कि ओबीसी, एससी, एसटी मे नहीं सम्मिलित हैं.
एससी: 7,15,20,27,35,41,47,54,61,68,74,81,87,94,99,107,114,121,127,135, 140,147,154,162,168,174,180,187,195,199 वां पद
एसटी: 14,28,40,55,69,80,95,108,120,136,148,160,175,188,198वां पद
विवाद की वजह:-
प्रो. काले कमेटी द्वारा बनाए गए इस रोस्टर ने विश्वविद्यालों द्वारा निकाली जा रही नियुक्तियों में आरक्षित वर्ग की सीटों की चोरी को लगभग नामुमकिन बना दिया, क्योंकि इसने यह तक तय कर दिया कि आने वाला पद किस समुदाय के कोटे से भरा जाना है. इस वजह से बीएचयू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, शांति निकेतन विश्वविद्यालय समेत कई विश्वविद्यालय इस रोस्टर के खिलाफ हो गए थे.
ऐसा इसलिए हुए, क्योंकि यह रोस्टर तब से लागू माना जाना था, जब से उस विश्वविद्यालय ने अपने यहां आरक्षण लागू किया था. मान लीजिए कि किसी विश्वविद्यालय ने 2005 से अपने यहां आरक्षण लागू किया, लेकिन उसने अपने यहां उसके बाद भी किसी एसटी, एससी, ओबीसी को नियुक्त नहीं किया. ऐसी सूरत में उस विश्वविद्यालय में 2005 के बाद नियुक्त हुए सभी असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसरों की सीनियरिटी के अनुसार तीन अलग-अलग लिस्ट बनेगी. अब मान लीजिये कि अगर उस विश्वविद्यालय ने असिस्टेंट प्रोफेसर पर अब तक 43 लोगों को नियुक्त कर चुका है, जिसमें कोई भी एससी, एसटी और ओबीसी नहीं है, तो रोस्टर के अनुसार उस विश्वविद्यालय में अगले 11 असिस्टेंट प्रोफेसरों को सिर्फ ओबीसी उम्मीदवार से, 06 को एसटी, और 03 को एसटी उम्मीदवारों से भरे बिना, उक्त विश्वविद्यालय कोई भी असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर अनारक्षित वर्ग की नियुक्ति नहीं कर सकता.
चूंकि ज़्यादातर विश्वविद्यालयों ने अपने यहां आरक्षण सिर्फ कागज पर ही लागू किया था, इसलिए इस रोस्टर के आने के बाद वो फंस गए. चूंकि वो नया पद अनारक्षित वर्ग के लिए तब तक नहीं निकाल सकते थे, जब तक कि पुराना बैकलॉग भर न जाय. ऐसे में इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बीएचयू, डीयू, और शांति निकेतन समेत तमाम विश्वविद्यालयों ने इस रोस्टर को विश्वविद्यालय स्तर पर लागू किए जाने का विरोध करने लगे. उन्होंने विभाग स्तर पर ही रोस्टर लागू करने की मांग की. इन विश्वविद्यालयों ने 200 पॉइंट रोस्टर को जब लागू करने से मना कर दिया, तो यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर सुखदेव थोराट ने प्रो. राव साहब काले की ही अध्यक्षता में इनमें से कुछ विश्वविद्यालयों के खिलाफ जांच कमेटी बैठा दी तो दिल्ली विश्वविद्यालय का फंड तक रोक दिया था. दिल्ली विश्वविद्यालय का फंड तब प्रधानमंत्री कार्यालय के हस्तक्षेप से ही रिलीज हो पाया था. चूंकि उन दिनों केंद्र की यूपीए सरकार के तमाम घटक दलों में क्षेत्रीय पार्टियां थीं, इसलिए तब इन विश्वविद्यालयों में विरोध परवान नहीं चढ़ पाया था. Jitendra Narayan