वर्ण व्यवस्था
आर्य जब भारत आये तो उनके साथ बाल काटने वाले, कपड़े धोने वाले, समान उठाने-ढोने वाले, जूते सिलने वाले, खाना बनाने वाले, पानी लाने वाले और थके हुओं की चम्पी करने वाले भी थे। लड़ने वाले और गप्प सुनाने वाले तो थे ही। उनके साथ
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कुछ व्यापारी भी रहे होंगे जो रास्तों में मिलने वाली काम की वस्तुएं खरीदते बेचते चले जा रहे हों। शायद गाय पालने वाले भी आये हों।
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किन्तु यह स्पष्ट है कि गेहूँ, धान, गन्ना, गाजर, कद्दू उगाने वाले और नाव खेने वाले उनके साथ नहीं आ सकते थे।
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इसीलिए अधिकांश हिन्दू ग्रंथों में वर्णव्यवस्था के अंतर्गत कृषकों और पशुपालकों आदि के बारे में कुछ लिखा नहीं मिला।
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संभवतः जब वो भारत आ गए तब उन्होनें गीता में कृषकों और पशुपालकों को अपनी वर्णव्यवस्था में जोड़ते हुए उनको वैश्य कहा।
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ओबीसी की अधिकांश जातियां वर्ण व्यस्वस्था का हिस्सा नहीं हैं बल्कि पूरी वर्णव्यवस्था उन्हीं का शोषण करती रही।
ब्राह्मण कथा, भागवत, श्राद्ध, हवन, ग्रहशांति के नाम पर। क्षत्रिय रक्षा, राज्यकर और गुण्डाटैक्स के रूप में। वैश्य उपयोगी वस्तु तिगुने चौगुने मूल्य पर बेचकर और उनकी वस्तु उत्पादन लागत से भी कम मूल्य पर खरीद कर। शूद्र यथा नाई, धोबी आदि जन्म, विवाह, मृत्यु आदि हर खुशी और गम के अवसर पर नेग के नाम पर।
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हजार साल तक यही कृषक-आदि वर्ग हिन्दू वर्ण-व्यवस्था में अपना स्थान खोजता रहा। वह स्वयं गीता पढ़ नहीं सकता था और न ही उसका अर्थ निकाल सकता था। लड़ने में सक्षम हुआ तो खुद को क्षत्रिय बोलने लगा और अपनी जमीन नहीं बचा पाने की स्थिति में ब्राह्मणों-क्षत्रियों की जमीन पर खेती करने अथवा जानवरों की सेवा करने लगा तो शूद्र बोला जाने लगा।
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अगर कोलगेट, डालडा, पतंजलि के उत्पादक व्यापारी अर्थात वैश्य हैं तो गेहूं, गाजर, तेल, दूध, मछली और घड़े आदि के उत्पादक शूद्र कैसे हो गए।
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जिस मंदिर में लिखा हो "शूद्र प्रवेश न करें" उसमें क्या कभी किसी काछी, तेली, कुम्हार, अहीर, लोधी, जाट या कुर्मी को घुसने से रोका गया। क्या ब्राह्मणों ने इन जातियों के घर खाना नहीं खाया या कथा, पूजा आदि नहीं करवाया। जिन मंदिरों में वर्तमान राष्ट्रपति को भी घुसने नहीं दिया गया, क्या कभी इन मंदिरों में किसी काछी, कुर्मी, अहीर आदि को घुसने से रोका गया।
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यदि गीता मैंने खुद न पढ़ी होती तो मैं साफ साफ यह घोषणा कर देता की ओबीसी की उक्त जातियां हिन्दू वर्ण-व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं। किंतु गीता के कारण मैंने इनको वैश्य मान लिया।
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इन जातियों को हिन्दू वर्ण-व्यवस्था के बाहर मानने की पुष्टि sc/st एक्ट भी कर रहा है। हिन्दू वर्ण-व्यवस्था का शूद्र भी जब चाहे तब हमें जेल भिजवा सकता है।
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ब्राह्मण क्षत्रिय उक्त जातियों को जब चाहे गरियावे, जब चाहे जाति सूचक शब्दों से अपमानित करे किन्तु शुद्र को गाली देने की सोचे भी नहीं।
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इतना सबकुछ होने के बावजूद जब कोई कुशवाहा अथवा जाट खुद को शूद्र बोलता है तो उसकी मूढ़ता पर तरस आता है। उसको यह नहीं दिख रहा कि वह अपने आप को यदि वैश्य नहीं मान रहा तो वह आधुनिक हिन्दू वर्ण-व्यवस्था का पांचवाँ वर्ण है। उसको शूद्र भी जब चाहे तब जेल भिजवा सकता है।